सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

कुर्बानी ? यह कुर्बानी कैसे कहलाएगी ?


कुर्बानी शब्द के सही मायने क्या हैं ? हमने बचपन से विद्यालयों में जो शब्दार्थ पढ़ा - उसके अनुसार तो "कुर्बानी" का अर्थ "त्याग" होता है | किसी के लिए / धर्म के लिए अपने निजी दुःख / नुकसान / जान की भी कीमत पर कुछ त्याग करना क़ुरबानी होती है | यही पढ़ा है, यही सुना है |

कुछ सवाल हैं, जो पूछना चाहूंगी
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यदि कोई कार्य करना मेरा कर्त्तव्य/ धर्म है - तो भले ही उससे मुझे कितनी ही निजी क्षति हो, भले ही मुझे उस काम को करने से कितनी ही निजी तकलीफ हो, भले ही मेरे अपनों का कितना ही नुक्सान हो - फिर भी - असह्य निजी दुःख/ क्षति की कीमत पर भी मैं वह करूँ - क्योंकि यह कर्त्तव्य कर्म करना किसी उच्च उद्देश्य के लिए आवश्यक है - तो यह कुर्बानी कहलाएगी |

कुर्बानी के कुछ उदाहरण
१) भगतसिंह / चंद्रशेखर आज़ाद/ लक्ष्मीबाई देश के प्रति अपने कर्त्तव्य के लिए प्राण दे देते हैं | यह कुर्बानी है |
२) सैनिक देश के लिए कट जाते हैं - यह क़ुरबानी है |
३) एक दोस्त ( माँ / पत्नी) अपने दोस्त (बच्चे / पति ) की छाती पर लगने वाली गोली अपने ह्रदय पर ले और अपनी जान दे कर उस की जान बचाए - यह कुर्बानी है |
४) अपनी kidney किसी की जान बचाने को दे देना - यह कुर्बानी है |

इन सभी उदाहरणों में एक चीज़ common है - निजी तकलीफ / नुक्सान उस कार्य के कर्ता के लिए कर्त्तव्य पथ का रोड़ा नहीं बन पाता कभी भी | यदि उसके निश्चित धर्म के पथ में कुछ भी त्याग / कुर्बान करना पड़े - वह नहीं हिचकता |

अब मैं यह पूछना चाहूंगी - कि यह एक निरीह बकरे को बाज़ार से खरीद लाना - और उसे कसाई से कटवा कर खा लेना, - कुर्बानी कैसे है ? इसमें यह "कुर्बानी" देने वाले ने क्या दुःख उठाया ? इससे किस उच्च उद्देश्य की पूर्ती हुई ? 

"कुर्बानी" देने के लिए आज क्या किया जा रहा है ? अधिकांशतः बाज़ार से दो दिन पहले मोटा सा बकरा खरीद लाया जाता है | यह बकरा खरीदा ही जा रहा है काटने और खाने के लिए - न कोई प्रेम है, न इसके मारने पर कोई दुःख होने वाला है | फिर उसे (अधिकतर) खुद नहीं काटा जाता, कसाई से कटवाया जाता है | और इसमें कोई दुःख या तकलीफ नहीं उठाना है  | इसमें उस व्यक्ति को तकलीफ क्या हुई ? उसने क्या कुर्बानी दी ?  दुःख क्या उठाया ? त्याग क्या किया ? कौनसे उच्च उद्देश्य की प्राप्ति हुई ?

गरीबों में बांटने की बात - अधिकतर बकरे के अच्छे भाग फ्रीज़र में रख लिए जाते हैं - और ख़राब / बेकार भाग (थोडा सा ही ) बाँट दिए जाते हैं | कई दिनों तक इसे खाया जाता है |

यह तो सुख दे रहा है न - फिर कुर्बानी कैसी ? खरीदने में पैसे ज़रूर खर्च हुए - पर वह तो वैसे भी होते ही हैं न ? उसी पैसे से सामूहिक भोज भी कराये जा सकते हैं गरीबों को यदि इसे ही कुर्बानी कहा जा रहा है । उतने ही पैसे से कई गुणा अधिक लोग खा सकेंगे, क्योंकि मांस शाकाहार से कहीं अधिक महंगा है । और महंगा हो भी क्यों न ? एक किलो अन्न की अपेक्षा एक किलो मांस को तैयार करने में धरा के कई गुणा अधिक संसाधन व्यर्थ होते हैं ।
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अब कुछ प्रश्न इसे "वैज्ञानिक" कह कर हम शाकाहार की बात करने वालों को "ढोंगी और पाखंडी" कहते हुए लेख लिखने वालों से (देखिये लिंक ) :

१. आप यदि हिंसा / अहिंसा को विज्ञान के अनुसार देखना चाहते हैं - तो विज्ञान तो सिरे से इश्वर / अल्लाह के अस्तित्व को ही नकारता है - क्या आप इस बात को भी "विज्ञान के अनुसार" कह कर स्वीकार कर लेते हैं ? क्योंकि जिस "विज्ञान" का आप हवाला दे रहे हैं - वही विज्ञान तो यह भी कहता है न, कि दुनिया किसी ने बनाई ही नहीं है - यह अपने आप बिग बैंग / गॉड पार्टिकल आदि आदि से बनी ? फिर क्या विज्ञान के कहने से आप यह मान लीजियेगा ? विज्ञानं तो यह कहता है कि इश्वर / अल्लाह है ही नहीं क्योंकि उसे किसी ने देखा नहीं, नापा नहीं - और विज्ञान अनदेखे अनजाने पर विश्वास नहीं करता ।या तो आप इस बारे में भी विज्ञान की सुनिए या फिर चर्चा में अपने पक्ष को आगे करने को विज्ञान की बैसाखी मत पकड़िए।

२. विज्ञान के अनुसार तो मानव और बकरे का शरीर एक ही है ( vertebral mammals ) - सिर्फ बुद्धि भर का फर्क है | तो क्या आप मानव मांस को भी / मानव बलि को भी स्वीकारते हैं ? क्योंकि जिन पैगम्बर के नाम पर आप यह "कुर्बानी की प्रतीकात्मक परम्परा" बनाये हुए हैं [quote from the article " हज़रत इबराहीम की ज़िन्दगी का प्रतीकात्मक प्रदर्शन (Symbolic performance) है।" - वे तो अपने स्वयं के "बेटे" को कुर्बान करने गए थे | क्या आपने भी ऐसा करने के बारे में सोचा है ?

३. आपके आदरणीय पैगम्बर मुहम्मद जी ने प्रतीकों को पकड़ने के लिए अल्लाह का साफ़ इनकार बताया है - तब यह प्रतीक क्यों ? मूर्ती पूजा बंद कराने के पीछे भी यही कारण था न ? कि मूर्ती "प्रतीक" भर है, इश्वर नहीं है ? क्या पवित्र कुरआन में बताया नहीं गया है कि "आखरी पैगम्बर" की बताई बातें सही हैं और जो भी पुरानी मान्यताएं इनसे टकराती हों , वे रद्द कर दी जानी चाहिए ? मान्यता तो यह भी है / थी कि "जीज़स खुदा के बेटे हैं" यह मान्यता रद्द की गयी न  ? फिर यह "प्रतीकात्मक" मान्यता क्यों ?

४. क्या आपको अपने धर्म के आदेशों के सही होने के बारे में शक शुबहा है ? कि आपको विज्ञान की बैसाखी पकडनी पड़ रही है ? विज्ञान के अनुसार तो बकरे के मांस और सूअर के मांस में बराबर प्रोटीन हैं - लेकिन वहां तो आप विज्ञान की दुहाई देते नहीं दिखते ? धर्म के मसलों के बीच विज्ञानं को खींचेंगे तो फिर हर वैज्ञानिक सवाल का वैज्ञानिक उत्तर देना होगा न?

५. आप दिए गए लिंक पर लिखते है की "ये लोग दूध, दही और शहद भी बेहिचक खाते हैं और मक्खी मच्छर भी मारते रहते हैं और ये सब " कुकर्म " करने के बाद भी " - अर्थात - आप भी यह मानते हैं कि ये सब "कुकर्म" हैं ? तो फिर एक चीखते तड़पते बकरे को मारना कैसे "कुकर्म" नहीं बल्कि "सुकर्म" हो सकता है ? और, क्या आप स्वयं यह "कुकर्म " त्याग चुके हैं - अर्थात आप बकरे को तो "कुर्बान" करते हैं, किन्तु मच्छर को नहीं मारते ?

६. वहां आपने हम मांसाहार विरोधियों को "ढोंगी और पाखंडी" कहा है । मच्छर-मक्खी को मारने को तो "कुकर्म" कहते हुए , उसी सांस में बकरे को मारने का कर्म "सत्कर्म / सुकर्म" बल्कि "कुर्बानी" कहना - क्या यह आप के अनुसार "ढोंग और पाखण्ड" की परिभाषा में आएगा या नहीं आयेगा ?

7. आप कहते हैं की मानव मात्र जीवित ही नहीं रह सकता बिना जीवहत्या के । तो इसलिए, छोटी जीवहत्या   "हो रही है" के बहाने से ह्त्या की राह पर चल दिया जाए ? अपराध जैविक प्रक्रिया में अनजाने ही "हो जाना" और जानते बूझते "करना" में कोई फर्क नहीं है ? क़ानून में भी manslaughter / accidental death  और cold blooded मर्डर अलग अलग अपराध हैं, इनकी अलग अलग सजायें हैं । क्या आपकी धार्मिक किताब में यह लिखा है या नहीं कि अनजाने में हो जाने वाले अपराध और जानते बूझते किये जाने वाले अपराध की सजाएं बराबर नहीं होती हैं ?

फिर पूछती हूँ - "कुर्बानी" क्या होती है ?
सम्पादकीय टिप्पणी (28 अक्टूबर 2012) - हम क्षमाप्रार्थी हैं कि किसी त्रुटि के कारण सभी कमेँट हट गए हैं, उन्हेँ वापस पाने का प्रयास किया जा रहा है. आशा है आप इसे अन्यथा न लेंगे और आपका सहयोग बना रहेगा।

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

विज्ञान के युग में क़ुरबानी पर ऐतराज़ क्यों


मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान साहब का एक लेख है विज्ञान के युग में क़ुरबानी पर ऐतराज़ क्यों? । आपने विभिन्न तर्क लगाके पशुबलि को वैज्ञानिक तथ्य प्रतिपादित करने का प्रयास किया है।

वस्तुत: हिंसा या हत्या को व्यवहार स्थापित करना विज्ञान के क्षेत्र का नहीं है और न हिंसा में कोई वैज्ञानिक तथ्य हो सकता है। भला विज्ञान कैसे 'प्रतीक' को  'यथार्थ' के समकक्ष खडा कर सकता है? किन्तु प्रस्तुत लेख में इस प्रतिकात्मक रूढ़ि से पडने वाली प्रभावशीलता को वैज्ञानिक सत्य के नाम पर अनुकरणीय प्रतिपादित किया जा रहा है। आईए, इन तथ्यों की समीक्षा करते है। विज्ञान के युग में कुर्बानी पर ऐतराज़ क्यों ? में वे लिखते है-

Killing a sensation is sin and vice versa .

"यह नज़रिया यक़ीनी तौर पर एक बेबुनियाद नज़रिया है। इसका सबब यह है कि मौजूदा दुनिया में यह सिरे से क़ाबिले अमल ही नहीं है, जैसा कि इस लेख में दूसरे मक़ाम पर बयान किया जाएगा। जीव को मारना हमारा अख्तियार (Option) नहीं है। इनसान जब तक ज़िन्दा है, वह जाने-अन्जाने तौर पर असंख्य जीवों को मारता रहता है। जो आदमी इस ‘पाप‘ से बचना चाहे, उसके लिए दो चीज़ों में से एक का अख्तियार (Option) है। या तो वह खुदकुशी करके अपने आप को ख़त्म कर ले या वह एक और दुनिया बना ले जिसके नियम इस मौजूदा दुनिया के नियमों से अलग हों।"

सच्चाई तो यह है कि मात्र इन दो अख्तियार (Option) तक सीमित होने की सोच ही  बेबुनियाद है। मात्र दो विकल्प पेश करते हुए, तीसरे सुगम विकल्प का सर्वथा गोपन किया जा रहा है। जबकि वह तीसरा विकल्प ही सर्वाधिक व्यवहार्य है। वह विकल्प है- जहाँ तक सम्भव हो अनावश्यक हिंसा से बचना। सम्भावित पाप-कर्म को भरसक परिहार्य समझना। जहाँ तक बस में हो, ऐसे  गैरजरूरी पाप/हिंसा से इंसानी रुह को पूर्णतया महरूम रखा जाय। अपनी आत्मा को मजबूरन अनर्थदँड (गैरजरूरी सजा न्योतने) का भागी न बनाया जाय।

इस तरह जिस सहज विकल्प का उल्लेख ही नहीं किया जा रहा, वस्तुतः वह तीसरा विकल्प ही सर्वाधिक सहज, सरल और व्यवहारिक विकल्प है। साधारण सी बात है, क्यों अनावश्यक जीवहिंसा में फंसना चाहिए। व्यवहार अधिक से अधिक पाप से सुरक्षित रहने में है। यही विवेक है और विवेकपूर्वक कर्म करना ही सद्कर्म है। "मरूँ या मारूँ" ऐसे दो  विकल्प तो सरासर आदिम जँगली और मूर्खता भरे है। मौजूदा दुनिया तो सभ्य है, सुसंस्कृत है। आधुनिक विकास मॉडल तो  विकृति से विकास की ओर सुचारू सुधार गति का  है। यह पूर्णत: वैज्ञानिक पद्धति है जिसमें  मानव ने जंगली नियमो के विकारों को दूर कर सभ्य नई दुनिया बनाई ही है। इसलिए चाहे सूक्ष्म जीव, कीट आदि का गैरजरूरी विनाश करने से आज का मानव बचता ही है, जितना भी और जिस किसी उपाय से, अनावश्यक हिंसा से बचा जा सकता है, हिंसा से बचने की मनोवृति होनी चाहिए।


It is an external manifestation of internal spirit .

"आदमी के अंदर पांच क़िस्म की इंद्रियां ; (senses) पाई जाती हैं। मनोवैज्ञानिक अनुसंधान से पता चला है कि जब कोई ऐसा मामला पेश आये जिसमें इनसान की तमाम इंद्रियां शामिल हों तो वह बात इनसान के दिमाग़ में बहुत ज़्यादा गहराई के साथ बैठ जाती है। कुरबानी की स्पिरिट को अगर आदमी सिर्फ़ अमूर्त रूप में सोचे तो वह आदमी के दिमाग़ में बहुत ज़्यादा नक्श नहीं होगी। कुरबानी इसी कमी को पूरा करती है। जब आदमी अपने आपको वक्फ़ करने के तहत जानवर की कुरबानी करता है तो उसमें अमली तौर पर उसकी सारी इंद्रियां शामिल हो जाती हैं। वह दिमाग़ से सोचता है, वह आंख से देखता है, वह कान से सुनता है, वह हाथ से छूता है, वह कुरबानी के बाद उसके ज़ायक़े का तजर्बा भी करता है। इस तरह इस मामले में उसकी सारी इंद्रियां शामिल हो जाती हैं। वह ज़्यादा गहराई के साथ कुरबानी की भावना को महसूस करता है। वह इस क़ाबिल हो जाता है कि कुरबानी की स्पिरिट उसके अन्दर भरपूर तौर पर दाखि़ल हो जाए। वह उसके गोश्त का और उसके खून का हिस्सा बन जाए।"

बिलकुल मनुष्य के सोचने, समझने, धारणा बनाने व संकल्प करने में इन पांचो इन्द्रियों का योगदान होता है। क्योंकि  मन पांचों ज्ञानेंद्रियों अथवा पांचों ही विषय के अधीन है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मन पांचों ज्ञानेंद्रियों से प्रभावित और पोषित होता है। यह यथार्थ है पांचो इन्द्रिय विषयों के कारण मन उसी दिशा में सक्रिय रहता है। इसलिए कृत्य अगर क्रूरता भरा है तो सभी इन्द्रियों के वशीभूत मानस  भी क्रूरता भरा ही बनेगा। जब मानसिकता और वर्तन  क्रूर होगा तो मनोवृति भी निश्चित ही क्रूर ही होगी। निसंदेह हिंसा के कृत्य से क्रूर भाव ही दृढ होंगे, समर्पण के भाव नहीं। इन्ही कृत्यों में अन्न की लाक्षणिकता देकर  कहा जाता है- “जैसा अन्न वैसा मन”। ‘जैसा अन्न’ में उसके उपादान, उत्पादन सहित कृत्य विधि भी समाहित होती है।

किन्तु, जो कोई भी, पशु को बंधनो से जकड़कर, उसकी हत्या करते हुए, उसके अंगभंग करते हुए, टुकड़े टुकडे करके फिर उसे आहार बनाते हुए, भला त्याग और समर्पण का चिंतन कर भी कैसे सकता है? ऐसी क्रूर क्रिया में गहराई से 'कुरबानी'(समर्पण) की भावना कैसे महसूस करेगा? कानों से वह पशु का मरणांतक आक्रन्द सुनेगा, आंखों से वह भयंकर और जीवंत प्राणांत होते देखेगा,  मरण क्रिया की तड़प व रक्तमांस के लोथडे देखेगा। नाक से वह रक्त-मांस, मल-मूत्र की दुर्गन्ध पाएगा। स्वाद लेते हुए भी उसे तड़पता पशु ही याद आएगा। स्पर्श से भी जिजीविषा के लिए आर्तनाद भरी धड़कन महसुस करेगा। उसमें 'कुरबानी'(समर्पण) की स्पिरिट कहाँ से आएगी? उलट हत्या करने से पहले, उसे अपनी संवेदनाओं की ही हत्या करनी पडेगी। क्रूर मनस्थिति पैदा किए बिना वह इस हिंसक कृत्य में प्रवृत ही नहीं हो सकता। और यह सब कुछ करते हुए उसमें कसाई भाव स्थापित होंगे, करूण भाव नहीं। इस क्रिया से दूसरे जीव की तड़प के प्रति निष्ठुर तो बना जा सकता है किन्तु अपने मन-मस्तिष्क में बलिदान और समर्पण के भाव तो कभी भी उत्पन्न नहीं कर सकता। यदि वह अपने स्वयं के साथ ऐसी ही क़ुरबानी की कल्पना करे तब भी समर्पण की जगह भयक्रांत हो दहल उठेगा। इस पूरी हिंसा कार्यविधि में त्याग नहीं, हिंसा की भावनाएं ही प्रबल बनती है।

मात्र प्रतीक से आचरण के समान निष्ठापूर्ण समर्पण सम्भव नहीं है। जब बलिदान में त्याग का यथार्थ आचरण ही नदारद हो तो कैसा त्याग? प्रतीक मायावी मूर्त छाया है, दिखावे से कहीं कर्तत्व निभता है। त्याग आचरण की वस्तु है जानवर की जान त्याग को अपना त्याग बताना तो छल है, यह अपनी जान के बदले निरीह पशु की जान आगे करना तो यकिनन छलपूर्ण प्रदर्शन है। प्रतिकात्मकता में ये कैसी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता?

यह सच है कि प्रत्येक कर्म का भावनात्मक प्रभाव (मनो)वैज्ञानिक कारण है। प्रभाव का होना विज्ञान सिद्ध है किन्तु  प्रभाव भी तो वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक रीति-नीति से पडेगा। यह तथ्य विज्ञान सम्मत है कि नकारात्मक कृत्य का प्रभाव  नकारात्मक परिणामी ही होता है। अब  इस में कोई शक नहीं कि हत्या व हिंसा से त्याग बलिदान या समर्पण की भावनाएँ उत्पन्न नहीं होती। इस सत्य की अवैज्ञानिकता से उपेक्षा की जा रही है। यथार्थ तो यह है कि हत्या व हिंसा से क्रोध, अहंकार व द्वेष की ही भावनाएँ पैदा होती है।

सच्चा बलिदान अथवा कुरबानी, विषय वासनाओं, इच्छाओं और मोह के त्याग में है। महज मनुष्य होने के कारण पैदा हुए इस दर्प में नहीं कि जानवर पर मेरा मालिकाना हक है, मै चाहुं वैसे उसका उपयोग कर सकता हूँ।  और अपने बलिदान के एवज में उसकी जान धर सकने का अधिकार रखता हूँ। यह त्याग नहीं उलट अहंकार है। द्वेष, क्रोध, अहंकार, कपट ,लोभ आदि तो दुर्गुण है। हिंसाचार, दिखावा, धोखेबाज़ी को ही हमने हमारा प्रिय आचरण बना रखा है। यह सभी कषाय, तृष्णाएं और इन्द्रिय वासनाएं ही हमारी आसक्ति है। जो हमें सर्वाधिक प्रिय लगती है। इन्ही प्रिय तृष्णाओं का त्याग, सच्चे अर्थों में कुरबानी है। प्राथमिकता से यही दुर्गुण त्यागने योग्य है। बलि दुर्गुणों की दी जानी चाहिए, निर्दोष निरीह प्राणियों की नहीं।

विज्ञान नें शताब्दियों संघर्ष के बाद सभ्यता युक्त  सुख-सुविधा के उपाय जुटाए है और यह समस्त शोध- उपक्रम मानवजीवन में शान्ति और संतुष्टि लाने के महान उद्देश्य से हुआ है। यह बात अलग है कि इस बीच हिंसक मानसिकता द्वारा शस्त्रों के आविष्कार भी हुए, किन्तु कुल मिलाकर अधिकांश खोज शान्तियुक्त जीवन के प्रयोजन से ही हुई है। ऐसे विज्ञान-युग में जंगली, अशान्त और हिंसक अवधारणा की पुनः स्थापना रूप  मंशा पर क्यों न एतराज़ किया जाय?

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

जीवों की हत्या करना ही अधर्म है।


  • जीवो जीवितुमिच्छति। (योग-शास्त्र)

  ===  प्राणी मात्र जीने की इच्छा करते है।

 

  • सर्वो जीवितुमिच्छति। (योग-वशिष्ठ)

  ===   सभी जीना चाहते है।

 

  • अहिंस्रः सर्वभूतानां यथा माता यथा पिता। (अनुशासन पर्व, महाभारत)

  ===   सभी प्राणियों की इस प्रकार रक्षा करें जैसे माता पिता की करते हैं।

 

  • जीवितं जीवरक्षात्। (बृहस्पति स्मृति)

  ===   जीवरक्षा से जीवन बढ़ता है।

 

  • धर्मस्य दया मूलम्। (प्रशम रति)

  ===   दया ही धर्म की जड़ है।

 

  • न दया सदृशं ज्ञानम्। (प्रशम रति)

  ===   दया सदृश कोई ज्ञान नहीं।

 

  • दया दानाद्विशिष्यते। (वशिष्ठ-स्मृति)

  ===   दान की अपेक्षा दया महिमावान है।

 

  • सर्वभूतदया तीर्थम्। (महाभारत)

  ===   प्राणी मात्र पर दया ही सर्वोत्तम तीर्थ है।

 

  • न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्। (मनु स्मृति)

  ===   प्राणिवध किसी भी दशा में स्वर्ग नहीं दिला सकता अतः उसकी वर्जना करनी चाहिए।

 

  • घ्नन्ति जन्तून् गतघृणा घोराम् ते यान्ति दुर्गतिम्। (योग शास्त्र, द्वितीय प्रकाश)

  ===   जो घृणा व खिन्नता रहित होकर जीव घात करते है वे निश्चय ही दुर्गति में जाते है।

 

  • दया च भूतेषु दिवं नयन्ति। (पद्म-पुराण)

  ===   जीवों पर की जाने वाली दया स्वर्ग ले जाती है।

 

  • वधको नैव शुद्धयति। (देवी भागवत)

  ===   प्राणी-वध करने वाले कभी पवित्र नहीं हो सकते।

 

  • शोधकौ तु दयादमौ। (शुभचन्द्राचार्य)

  ===   जीवदया व इन्द्रिय दमन से आत्म शुद्ध-पवित्र बनता है।

 

  • क्षीणा नरा निष्करूणा भवन्ति। (काव्य –रवि मंड़ल)

  ===   शक्तिहीन पुरूष दया-हीन होते है।

 

  • यस्य जीवदया नास्ति सर्वमेतन्निरर्थकम्। (शान्तिपर्व,महाभारत)

  ===   जिनके कार्य में जीवदया नहीं है उनकी सारी क्रियाएँ ही निर्थक है।

 

  • दया मांसाशिनः कुतः? (काव्य –रवि मंड़ल)

  ===   मांसभक्षी को दया कैसे उत्पन्न हो सकती है?

 

  • को धर्मः कृपया विना? (धर्म-बिन्दु)

  ===   जीवदया बिना कैसा धर्म? 

 

  • अधर्मश्च प्राणिनाम् वधः (शन्ति-पर्व महाभारत) 

  ===   जीवों की हत्या करना ही अधर्म है।

 

  • हिंसा नाम भवेद् धर्मो न भूतो न भविष्यति। (पूर्व मीमांसा) 

  ===  “हिंसा को धर्म कहें?” ऐसा न कभी भूतकाल मेँ था न कभी भविष्य मेँ होगा।


मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

विश्व अहिंसा दिवस 2012

विश्वं समित्रिणं दह
(ऋग्वेद 1/36/2/14)
सर्वभक्षी रोगाग्नि में जलते हैं
"जिसकी लाठी उसकी भैंस" का मुहावरा जंगल राज में सही साबित होता है। किसी कानूनी व्यवस्था के अभाव में बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। लेकिन सभ्यता और संस्कृति की बात ही कुछ और है। समाज जितना अधिक सभ्य होता जाता है असहायों को अपनी रक्षा की निरंतर चिंता करने की आवश्यकता उतनी ही कम होती जाती है। सभ्यता के विस्तार के साथ ही समाज में अहिंसा भी व्यापक होती जाती है। आज यदि हम विश्व पर एक नज़र दौड़ायें तो स्पष्ट हो जायेगा कि अविकसित समाजों में आज भी हिंसा का बोलबाला है जबकि विकास और अहिंसा हाथ में हाथ डाले नज़र आते हैं।

क्यूबैक का एक परिवार गांधी जी के साथ 
सभी जानते हैं कि भारतीय सभ्यता उन प्रारम्भिक सभ्यताओं में से एक है जिन्होंने अहिंसा को सर्वोपरि सद्गुणों में स्थान दिया। योग, साँख्य, जैन, बौद्ध, सिख आदि सभी भारतीय दर्शनों में अहिंसा का एक विशिष्ट स्थान है। हमारे इसी विचार को आज सम्पूर्ण संसार की स्वीकृति प्राप्त हो रही है। अहिंसा के वैश्विक अध्याय में एक नया पृष्ठ 15 जून 2007 को तब लिखा गया था जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मदिन को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस (International Day of Non-Violence) की मान्यता दी थी।

अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, और भूटान ने इस प्रस्ताव को अपनी सम्मति देकर अहिंसा के महत्व को स्वीकारा ही, भारत उपमहाद्वीप से बाहर के प्रमुख राष्ट्रों जैसे रूस, चीन, ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी आदि ने भी इस प्रस्ताव का दिल खोलकर स्वागत किया था। कुल 120 राष्ट्रों की सहमति से पारित हुआ "वैश्विक अहिंसा" का यह प्रस्ताव पिछले पाँच वर्षों से लगातार दुनिया भर के लोगों को अहिंसा और प्रेम का सन्देश दे रहा है।

आइये आज 2 अक्टूबर को एक बार फिर प्रण करें कि अपने जीवन से क्रूरता को बाहर करके मन वचन कर्म से अहिंसा, भूतदया और प्रेम का मार्ग अपनायेंगे, न हिंसा करेंगे और न ही उसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग करेंगे।

अहिंसा परमो धर्मः!