यह जानकारीपूर्ण लेख अभी कुछ दिनों पहले मुझे मेल से मिला था, जो की श्री रमेश जी दुबे द्वारा लिखित है. मेल में इस जानकारी के प्रसार का निवेदन था, इसलिए इस ब्लॉग पर आप से साझा कर रहा हूँ , आशा है हवन व अन्य परम्पराओं को भुखमरी और जल संसाधनों की बरबादी का कारण बतलाने वाले और मांसाहार के पक्ष में ऊल-जुलूल तर्क देने वाले सज्जनों की कुछ आँखे तो खुलेंगी .
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भुखमरी, कुपोषण के कई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कारण गिनाए जाते रहे हैं, लेकिन मांसाहार की चर्चा शायद ही कभी होती हो, जबकि वास्तविकता यह है कि दुनिया में बढ़ती भुखमरी-कुपोषण का एक मुख्य कारण मांसाहार का बढ़ता प्रचलन है। इसकी जड़ें आधुनिक औद्योगिक क्रांति और पाश्चात्य जीवन शैली के प्रसार में निहित हैं। दुनिया में यूरोप की सर्वोच्चता स्थापित होने के साथ ही मांसाहारी संस्कृति को बढ़ावा मिलना शुरू हुआ। आर्थिक विकास और औद्योगिकीकरण ने पिछले दो सौ वर्षो में मांस केंद्रित आहार संस्कृति के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विकास व रहन-सहन के पश्चिमी माडल के मोह में फंसे विकासशील देशों ने भी इस आहार संस्कृति को अपनाया। इन देशों में जैसे-जैसे आर्थिक विकास हो रहा है वैसे-वैसे मांस और पशुपालन उद्योग तेजी से फल-फूल रहा है। उदाहरण के लिए 1961 में विश्व का कुल मांस उत्पादन 7.1 करोड़ टन था, जो 2007 में बढ़कर 28.4 करोड़ टन हो गया। इस दौरान प्रति व्यक्ति खपत बढ़कर दोगुने से अधिक हो गई। विकासशील देशों में यह अधिक तेजी से बढ़ी और 20 वर्षो में ही प्रति व्यक्ति खपत दोगुनी से अधिक हो गई। उदाहरण के लिए सुअर का मांस कभी चीन का संभ्रांत वर्ग ही खाता था, लेकिन आज चीन का गरीब व्यक्ति भी अपने दैनिक आहार में मांस को शामिल करने लगा है।
औद्योगिकीकरण व पश्चिमी सांस्कृतिक प्रभाव के कारण उन देशों में भी मांस प्रमुख आहार बनता जा रहा है जहां पहले कभी-कभार ही मांस खाया जाता था, जैसे भारत। इस क्रम में परंपरागत आहारों की घोर उपेक्षा हुई। पहले गांवों में कुपोषण दूर करने में दलहनों, तिलहनों, गुड़ की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी, लेकिन खेती की आधुनिक पद्धतियों व खानपान में इन तीनों की उपेक्षा हुई। इसकी क्षतिपूर्ति के लिए विटामिन की गोली दी जाने लगी। पहले प्राकृतिक संसाधनों पर समाज का नियंत्रण होने से उसमें सभी की भागीदारी होती थी, लेकिन उन संसाधनों पर बड़ी कंपनियों, भूस्वामियों के नियंत्रण के कारण एक बड़ी जनसंख्या इनसे वंचित हुई। शीतल जल के प्याऊ की जगह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बोतलबंद पानी ने ले ली और वह दूध से भी महंगा बिक रहा है। फार्म एनिमल रिफार्म मूवमेंट के अनुसार अमेरिकी उपभोक्ता मांस की भूख के कारण न केवल पर्यावरण को हानि पहुंचा रहे हैं, अपितु अमेरिकी आहार आदतें दुनिया भर में फैल रही हैं। विज्ञान व तकनीक का क्षेत्र हो या फैशन, यह धारणा दुनिया भर में फैल गई है कि जो अमेरिका कर रहा है वह ठीक है। मांस की खपत बढ़ाने में मशीनीकृत पशुपालन तंत्र की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले गांव-जंगल-खेत आधारित पशुपालन होता था। इस पद्धति में खेती, मनुष्य के भोजन और पशुआहार में कोई टकराव नहीं था। दूसरी ओर आधुनिक पशुपालन में छोटी सी जगह में हजारों पशुओं को पाला जाता है। उन्हें सीधे अनाज, तिलहन और अन्य पशुओं का मांस ठूंस-ठूंस कर खिलाया जाता है ताकि जल्द से जल्द ज्यादा से ज्यादा मांस हासिल किया जा सके। इस तंत्र में बड़े पैमाने पर मांस का उत्पादन होता है, जिससे वह सस्ता पड़ता है और अमीर-गरीब सभी के लिए सुलभ होता है। आधुनिक पशुपालन ने प्रकृति व मनुष्य से भारी कीमत वसूल की। इस पशुपालन में पशु आहार तैयार करने के लिए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, पानी का अत्यधिक उपयोग किया जाता है। मक्का और सोयाबीन की खेती के तीव्र प्रसार में आधुनिक पशुपालन की मुख्य भूमिका रही है। आज दुनिया में पैदा होने वाला एक-तिहाई अनाज जानवरों को खिलाया जा रहा है, जबकि भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। अमेरिका में दो-तिहाई अनाज व सोयाबीन पशुओं को खिला दिया जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार दुनिया की मांस खपत में मात्र 10 प्रतिशत की कटौती प्रतिदिन भुखमरी से मरने वाले 18 हजार बच्चों व 6 हजार वयस्कों का जीवन बचा सकती है।
मांस उत्पादन में खाद्य पदार्थो की बड़े पैमाने पर बर्बादी भी होती है। एक किलो मांस पैदा करने में 7 किलो अनाज या सोयाबीन की जरूरत पड़ती है। अनाज के मांस में बदलने की प्रक्रिया में 90 प्रतिशत प्रोटीन, 99 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट और 100 प्रतिशत रेशा नष्ट हो जाता है। यह भी एक तथ्य है कि एक किलो आलू पैदा करने में मात्र पांच सौ लीटर पानी की खपत होती है वहीं इतने ही मांस के लिए दस हजार लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। इस समय दुनिया की दो-तिहाई भूमि चारागाह व पशुआहार तैयार करने में नियोजित है। जैसे-जैसे मांस की मांग बढ़ेगी वैसे-वैसे पशुआहार की सघन खेती की जाएगी, जिससे ग्रीनहाउस गैसों में तेजी से बढ़ोतरी होगी।
क्या आप नॉन वेज खाते हैं? अगर हां, तो क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा करके आप ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ा रहे हैं? यह बात थोड़ी अटपटी लग सकती है पर दोनों में गहरा संबंध है। हमारी टेबल पर सजा लज़ीज़ मांसाहार हमारे स्वास्थ्य पर चाहे जो प्रभाव डाल रहा हो लेकिन पर्यावरण पर तो इसका बहुत बुरा असर हो रहा है। असल में पूरी दुनिया में नॉन वेज (मांसाहार) की संस्कृति का प्रसार विश्व पर यूरोपीय वर्चस्व स्थापित करने की भावना से जुड़ा है। आर्थिक विकास और औद्योगीकरण ने पिछले दो सौ साल में नॉनवेज फूड कल्चर को पॉप्युलर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विकासशील देशों ने डिवेलपमेंट व लाइफ स्टाइल के वेस्टर्न मॉडल के मोह में फंस कर इसे अपनाया है। इन देशों में जैसे-जैसे आर्थिक विकास हो रहा है वैसे-वैसे मांस व पशुपालन उद्योग फल-फूल रहा है।
उदाहरण के लिए पहले चीन में पोर्क्स (सूअर का मांस) सिर्फ वहां का संभ्रांत वर्ग खाता था, लेकिन आज वहां का गरीब तबका भी अपने रोज के खाने में उसे शामिल करने लगा है। यही कारण है कि चीन द्वारा पोर्क्स के आयात में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। भारत में भी नॉन वेज खाना स्टेटस सिंबल बनता जा रहा है। जिन राज्यों व वर्गों में संपन्नता व बाहरी संपर्क बढ़ा है, उनमें मांस के उपभोग में भी तेजी आई है। इस कारण हमारे ट्रैडिशनल फूड की बड़ी उपेक्षा हुई है। पहले गांवों में कुपोषण दूर करने में दलहनों-तिलहनों और गुड़ की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी, लेकिन आज खेती की आधुनिक पद्धतियों व खानपान में इन तीनों की काफी उपेक्षा हुई है।
गौरतलब है कि 1961 में दुनिया की कुल मांस सप्लाई लगभग 7 करोड़ टन थी जो 2008 में बढ़कर 28 करोड़ टन से भी ज्यादा हो गई। इस दौरान विश्व स्तर पर प्रति व्यक्ति मांस की औसत खपत दोगुनी हो गई। लेकिन गौर करने की बात है कि विकासशील देशों में यह अधिक तेजी से बढ़ी और मात्र 20 साल में ही प्रति व्यक्ति खपत दोगुने से अधिक हो गई। मांस की खपत बढ़ाने में मशीनीकृत पशुपालन तंत्र की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
हमारे यहां पहले भी पशुपालन होता था, लेकिन वह गांव-जंगल और खेती पर आधारित होता था। उसकी उत्पादकता कम थी, इसलिए वह महंगा पड़ता था। मगर इसका लाभ यह था कि इस पद्धति में खेती, मनुष्य के भोजन और पशु आहार में कोई टकराव नहीं होता था। आधुनिक पशुपालन में छोटी सी जगह में हजारों पशुओं को पाला जाता है। उन्हें सीधे अनाज, तिलहन और अन्य पशुओं का मांस ठूंस-ठूंसकर खिलाया जाता है, ताकि जल्द से जल्द उनसे ज्यादा से ज्यादा मांस हासिल किया जा सके। इससे बड़े पैमाने पर मीट का उत्पादन होता है, जिससे वह सस्ता पड़ता है।
इस आधुनिक पशुपालन ने प्रकृति व मनुष्य से भारी कीमत वसूल की है। इसमें पशु आहार तैयार करने के लिए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों तथा पानी का अत्यधिक उपयोग किया जाता है। इससे पानी का संकट, वायु व जल प्रदूषण, मिट्टी की उर्वरा शक्ति में गिरावट जैसी स्थितियां पैदा हो रही हैं। मक्का और सोयाबीन की खेती के तीव्र प्रसार में आधुनिक पशुपालन की मुख्य भूमिका रही है। आज दुनिया में पैदा होने वाला एक-तिहाई अनाज जानवरों को खिलाया जा रहा है, ताकि उनका मांस खाया जा सके, जबकि दूसरी तरफ भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। अमेरिका में तो दो-तिहाई अनाज व सोयाबीन पशुओं को खिला दिया जाता है।
विशेषज्ञों के अनुसार दुनिया की मांस खपत में मात्र 10 प्रतिशत की कटौती प्रतिदिन भुखमरी से मरने वाले 18000 बच्चों व 6000 वयस्कों का जीवन बचा सकती है। सघन आवास, रसायनों और हार्मोन युक्त पशु आहार व दवाइयां देने से पर्यावरण और हमारे स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ा है। पशुपालन के इन कृत्रिम तरीकों ने ही मैड काऊ, बर्ड फ्लू व स्वाइन फ्लू जैसी नई महामारियां पैदा की हैं। मांस उत्पादन में खाद्य पदार्थों की बड़े पैमाने पर बर्बादी भी होती है। एक किलो मांस पैदा करने में 7 किलो अनाज या सोयाबीन की जरूरत पड़ती है। अनाज के मांस में बदलने की प्रक्रिया में 90 प्रतिशत प्रोटीन, 99 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट और 100 प्रतिशत रेशा नष्ट हो जाता है। एक किलो आलू पैदा करने में जहां मात्र 500 लीटर पानी की खपत होती है, वहीं इतने ही मांस के लिए 10,000 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। स्पष्ट है कि आधुनिक औद्योगिक पशुपालन के तरीके से भोजन तैयार करने के लिए काफी जमीन और संसाधनों की जरूरत होती है। इस समय दुनिया की दो-तिहाई भूमि चरागाह व पशु आहार तैयार करने में लगा दी गई है। जैसे-जैसे मांस की मांग बढ़ेगी, वैसे-वैसे पशु आहार की खेती बढ़ती जाएगी, और इससे ग्रीनहाउस गैसों में तेजी से बढ़ोतरी होगी।
फूड ऐंड ऐग्रिकल्चर ऑर्गनाइजेशन (एफएओ) के अनुसार पशुपालन क्षेत्र ग्लोबल ग्रीन हाउस गैसों में 18 प्रतिशत का योगदान करता है जो कि परिवहन क्षेत्र से अधिक है। पशुपालन के कारण ग्लोबल टेम्प्रेचर भी बढ़ा है। असल में दुनिया भर में चरागाह और पशु आहार की खेती के लिए वनों को काटा जा रहा है। एफएओ के अनुसार लैटिन अमेरिका में 70 प्रतिशत वन भूमि को चरागाह में बदल दिया गया है। पेड़- पौधे कार्बन डाइऑक्साइड के अवशोषक होते हैं। पेड़ों के कम होने से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ती है जिसके कारण तापमान में भी बढ़ोतरी होती है। ऐनिमल वेस्टेज से नाइट्रस ऑक्साइड नामक ग्रीनहाउस गैस निकलती है जो कि कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में 296 गुना जहरीली है। गौ पालन के कारण मिथेन का उत्पादन होता है, जो कि कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में तेइस गुना खतरनाक है।
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इसीलिए कहा था कि यदि दुनिया बीफ (गाय का मांस) खाना बंद कर दे तो कार्बन उत्सर्जन में नाटकीय ढंग से कमी आएगी और ग्लोबल वॉर्मिंग में बढ़ोतरी धीमी हो जाएगी। सौभाग्य की बात है कि भारत में बीफ का ज्यादा चलन नहीं है। मांस के ट्रांसपोर्टेशन और उसे पकाने के लिए इस्तेमाल होने वाले ईंधन से भी ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन होता है। इतना ही नहीं, जानवरों के मांस से भी कई प्रकार की ग्रीन हाउस गैसें उत्पन्न होती हैं जो वातावरण में घुलकर उसके तापमान को बढ़ाती हैं।
कोपनहेगन सम्मेलन में साफ हो गया कि कार्बन इमिशन में कटौती पर कानूनी बाध्यताओं को स्वीकार करना फिलहाल संभव नहीं है। यह भी तय हो गया कि इमिशन में स्वैच्छिक कटौती तब तक संभव नहीं होगी जब तक कि जन-जन इसके लिए प्रयास न करे। इस दिशा में मांसाहार में कटौती एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। ग्रीन हाउस उत्सर्जन कम करने के अन्य उपायों की तुलना में यह सबसे आसान है। क्या हम इसके लिए तैयार हैं?
लेखक - रमेश कुमार दुबे