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सोमवार, 31 जनवरी 2011

मांसाहार भुखमरी, पर्यावरण और जल की बर्बादी का बड़ा भीषण कारक !


यह जानकारीपूर्ण लेख अभी कुछ दिनों पहले मुझे मेल से मिला था, जो की श्री रमेश जी दुबे द्वारा लिखित है. मेल में इस जानकारी के प्रसार का निवेदन था, इसलिए इस ब्लॉग पर आप से साझा कर रहा हूँ , आशा है हवन व अन्य परम्पराओं को भुखमरी और जल संसाधनों की बरबादी का कारण बतलाने वाले और मांसाहार के पक्ष में ऊल-जुलूल तर्क देने वाले सज्जनों की कुछ आँखे तो खुलेंगी .

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भुखमरी, कुपोषण के कई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कारण गिनाए जाते रहे हैं, लेकिन मांसाहार की चर्चा शायद ही कभी होती हो, जबकि वास्तविकता यह है कि दुनिया में बढ़ती भुखमरी-कुपोषण का एक मुख्य कारण मांसाहार का बढ़ता प्रचलन है। इसकी जड़ें आधुनिक औद्योगिक क्रांति और पाश्चात्य जीवन शैली के प्रसार में निहित हैं। दुनिया में यूरोप की सर्वोच्चता स्थापित होने के साथ ही मांसाहारी संस्कृति को बढ़ावा मिलना शुरू हुआ। आर्थिक विकास और औद्योगिकीकरण ने पिछले दो सौ वर्षो में मांस केंद्रित आहार संस्कृति के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विकास व रहन-सहन के पश्चिमी माडल के मोह में फंसे विकासशील देशों ने भी इस आहार संस्कृति को अपनाया। इन देशों में जैसे-जैसे आर्थिक विकास हो रहा है वैसे-वैसे मांस और पशुपालन उद्योग तेजी से फल-फूल रहा है। उदाहरण के लिए 1961 में विश्व का कुल मांस उत्पादन 7.1 करोड़ टन था, जो 2007 में बढ़कर 28.4 करोड़ टन हो गया। इस दौरान प्रति व्यक्ति खपत बढ़कर दोगुने से अधिक हो गई। विकासशील देशों में यह अधिक तेजी से बढ़ी और 20 वर्षो में ही प्रति व्यक्ति खपत दोगुनी से अधिक हो गई। उदाहरण के लिए सुअर का मांस कभी चीन का संभ्रांत वर्ग ही खाता था, लेकिन आज चीन का गरीब व्यक्ति भी अपने दैनिक आहार में मांस को शामिल करने लगा है।
औद्योगिकीकरण व पश्चिमी सांस्कृतिक प्रभाव के कारण उन देशों में भी मांस प्रमुख आहार बनता जा रहा है जहां पहले कभी-कभार ही मांस खाया जाता था, जैसे भारत। इस क्रम में परंपरागत आहारों की घोर उपेक्षा हुई। पहले गांवों में कुपोषण दूर करने में दलहनों, तिलहनों, गुड़ की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी, लेकिन खेती की आधुनिक पद्धतियों व खानपान में इन तीनों की उपेक्षा हुई। इसकी क्षतिपूर्ति के लिए विटामिन की गोली दी जाने लगी। पहले प्राकृतिक संसाधनों पर समाज का नियंत्रण होने से उसमें सभी की भागीदारी होती थी, लेकिन उन संसाधनों पर बड़ी कंपनियों, भूस्वामियों के नियंत्रण के कारण एक बड़ी जनसंख्या इनसे वंचित हुई। शीतल जल के प्याऊ की जगह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बोतलबंद पानी ने ले ली और वह दूध से भी महंगा बिक रहा है। फार्म एनिमल रिफार्म मूवमेंट के अनुसार अमेरिकी उपभोक्ता मांस की भूख के कारण न केवल पर्यावरण को हानि पहुंचा रहे हैं, अपितु अमेरिकी आहार आदतें दुनिया भर में फैल रही हैं। विज्ञान व तकनीक का क्षेत्र हो या फैशन, यह धारणा दुनिया भर में फैल गई है कि जो अमेरिका कर रहा है वह ठीक है। मांस की खपत बढ़ाने में मशीनीकृत पशुपालन तंत्र की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले गांव-जंगल-खेत आधारित पशुपालन होता था। इस पद्धति में खेती, मनुष्य के भोजन और पशुआहार में कोई टकराव नहीं था। दूसरी ओर आधुनिक पशुपालन में छोटी सी जगह में हजारों पशुओं को पाला जाता है। उन्हें सीधे अनाज, तिलहन और अन्य पशुओं का मांस ठूंस-ठूंस कर खिलाया जाता है ताकि जल्द से जल्द ज्यादा से ज्यादा मांस हासिल किया जा सके। इस तंत्र में बड़े पैमाने पर मांस का उत्पादन होता है, जिससे वह सस्ता पड़ता है और अमीर-गरीब सभी के लिए सुलभ होता है। आधुनिक पशुपालन ने प्रकृति व मनुष्य से भारी कीमत वसूल की। इस पशुपालन में पशु आहार तैयार करने के लिए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, पानी का अत्यधिक उपयोग किया जाता है। मक्का और सोयाबीन की खेती के तीव्र प्रसार में आधुनिक पशुपालन की मुख्य भूमिका रही है। आज दुनिया में पैदा होने वाला एक-तिहाई अनाज जानवरों को खिलाया जा रहा है, जबकि भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। अमेरिका में दो-तिहाई अनाज व सोयाबीन पशुओं को खिला दिया जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार दुनिया की मांस खपत में मात्र 10 प्रतिशत की कटौती प्रतिदिन भुखमरी से मरने वाले 18 हजार बच्चों व 6 हजार वयस्कों का जीवन बचा सकती है।
मांस उत्पादन में खाद्य पदार्थो की बड़े पैमाने पर बर्बादी भी होती है। एक किलो मांस पैदा करने में 7 किलो अनाज या सोयाबीन की जरूरत पड़ती है। अनाज के मांस में बदलने की प्रक्रिया में 90 प्रतिशत प्रोटीन, 99 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट और 100 प्रतिशत रेशा नष्ट हो जाता है। यह भी एक तथ्य है कि एक किलो आलू पैदा करने में मात्र पांच सौ लीटर पानी की खपत होती है वहीं इतने ही मांस के लिए दस हजार लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। इस समय दुनिया की दो-तिहाई भूमि चारागाह व पशुआहार तैयार करने में नियोजित है। जैसे-जैसे मांस की मांग बढ़ेगी वैसे-वैसे पशुआहार की सघन खेती की जाएगी, जिससे ग्रीनहाउस गैसों में तेजी से बढ़ोतरी होगी। 



क्या आप नॉन वेज खाते हैं? अगर हां, तो क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा करके आप ग्लोबल वॉर्मिंग    बढ़ा रहे हैं? यह बात थोड़ी अटपटी लग सकती है पर दोनों में गहरा संबंध है। हमारी टेबल पर सजा लज़ीज़ मांसाहार हमारे स्वास्थ्य पर चाहे जो प्रभाव डाल रहा हो लेकिन पर्यावरण पर तो इसका बहुत बुरा असर हो रहा है। असल में पूरी दुनिया में नॉन वेज (मांसाहार) की संस्कृति का प्रसार विश्व पर यूरोपीय वर्चस्व स्थापित करने की भावना से जुड़ा है। आर्थिक विकास और औद्योगीकरण ने पिछले दो सौ साल में नॉनवेज फूड कल्चर को पॉप्युलर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विकासशील देशों ने डिवेलपमेंट व लाइफ स्टाइल के वेस्टर्न मॉडल के मोह में फंस कर इसे अपनाया है। इन देशों में जैसे-जैसे आर्थिक विकास हो रहा है वैसे-वैसे मांस व पशुपालन उद्योग फल-फूल रहा है।

उदाहरण के लिए पहले चीन में पोर्क्स (सूअर का मांस) सिर्फ वहां का संभ्रांत वर्ग खाता था, लेकिन आज वहां का गरीब तबका भी अपने रोज के खाने में उसे शामिल करने लगा है। यही कारण है कि चीन द्वारा पोर्क्स के आयात में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। भारत में भी नॉन वेज खाना स्टेटस सिंबल बनता जा रहा है। जिन राज्यों व वर्गों में संपन्नता व बाहरी संपर्क बढ़ा है, उनमें मांस के उपभोग में भी तेजी आई है। इस कारण हमारे ट्रैडिशनल फूड की बड़ी उपेक्षा हुई है। पहले गांवों में कुपोषण दूर करने में दलहनों-तिलहनों और गुड़ की    महत्वपूर्ण भूमिका होती थी, लेकिन आज खेती की आधुनिक पद्धतियों व खानपान में इन तीनों की काफी उपेक्षा हुई है।

गौरतलब है कि 1961 में दुनिया की कुल मांस सप्लाई लगभग 7 करोड़ टन थी जो 2008 में बढ़कर 28 करोड़ टन से भी ज्यादा हो गई। इस दौरान विश्व स्तर पर प्रति व्यक्ति मांस की औसत खपत दोगुनी हो गई।    लेकिन गौर करने की बात है कि विकासशील देशों में यह अधिक तेजी से बढ़ी और मात्र 20 साल में ही प्रति    व्यक्ति खपत दोगुने से अधिक हो गई। मांस की खपत बढ़ाने में मशीनीकृत पशुपालन तंत्र की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

हमारे यहां पहले भी पशुपालन होता था, लेकिन वह गांव-जंगल और खेती पर आधारित होता था। उसकी उत्पादकता कम थी, इसलिए वह महंगा पड़ता था। मगर इसका लाभ यह था कि इस पद्धति में खेती, मनुष्य के भोजन और पशु आहार में कोई टकराव नहीं होता था। आधुनिक पशुपालन में छोटी सी जगह में हजारों पशुओं को पाला जाता है। उन्हें सीधे अनाज, तिलहन और अन्य पशुओं का मांस ठूंस-ठूंसकर खिलाया जाता है, ताकि जल्द से जल्द उनसे ज्यादा से ज्यादा मांस हासिल किया जा सके। इससे बड़े पैमाने    पर मीट का उत्पादन होता है, जिससे वह सस्ता पड़ता है।

इस आधुनिक पशुपालन ने प्रकृति व मनुष्य से भारी कीमत वसूल की है। इसमें पशु आहार तैयार करने के लिए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों तथा पानी का अत्यधिक उपयोग किया जाता है। इससे पानी का संकट, वायु व जल प्रदूषण, मिट्टी की उर्वरा शक्ति में गिरावट जैसी स्थितियां पैदा हो रही हैं। मक्का और सोयाबीन की खेती के तीव्र प्रसार में आधुनिक पशुपालन की मुख्य भूमिका रही है। आज दुनिया में पैदा होने    वाला एक-तिहाई अनाज जानवरों को खिलाया जा रहा है, ताकि उनका मांस खाया जा सके, जबकि दूसरी तरफ भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। अमेरिका में तो दो-तिहाई अनाज व सोयाबीन    पशुओं को खिला दिया जाता है।

विशेषज्ञों के अनुसार दुनिया की मांस खपत में मात्र 10 प्रतिशत की कटौती प्रतिदिन भुखमरी से मरने वाले 18000 बच्चों व 6000 वयस्कों का जीवन बचा सकती है। सघन आवास, रसायनों और हार्मोन युक्त पशु आहार व दवाइयां देने से पर्यावरण और हमारे स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ा है। पशुपालन के इन कृत्रिम तरीकों ने ही मैड काऊ, बर्ड फ्लू व स्वाइन फ्लू जैसी नई महामारियां पैदा की हैं। मांस उत्पादन में खाद्य पदार्थों की बड़े पैमाने पर बर्बादी भी होती है। एक किलो मांस पैदा करने में 7 किलो अनाज या सोयाबीन की जरूरत पड़ती है। अनाज के मांस में बदलने की प्रक्रिया में 90 प्रतिशत प्रोटीन, 99 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट और 100 प्रतिशत रेशा नष्ट हो जाता है। एक किलो आलू पैदा करने में जहां मात्र 500 लीटर पानी की खपत होती है, वहीं इतने ही मांस के लिए 10,000 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। स्पष्ट है कि आधुनिक औद्योगिक पशुपालन के तरीके से भोजन तैयार करने के लिए काफी जमीन और संसाधनों की जरूरत होती है। इस समय दुनिया की दो-तिहाई भूमि चरागाह व पशु आहार तैयार करने में लगा दी गई है। जैसे-जैसे मांस की मांग बढ़ेगी, वैसे-वैसे पशु आहार की खेती बढ़ती जाएगी, और इससे ग्रीनहाउस गैसों में तेजी से बढ़ोतरी होगी।

फूड ऐंड ऐग्रिकल्चर ऑर्गनाइजेशन (एफएओ) के अनुसार पशुपालन क्षेत्र ग्लोबल ग्रीन हाउस गैसों में 18 प्रतिशत का योगदान करता है जो कि परिवहन क्षेत्र से अधिक है। पशुपालन के कारण ग्लोबल टेम्प्रेचर भी बढ़ा है। असल में दुनिया भर में चरागाह और पशु आहार की खेती के लिए वनों को काटा जा रहा है। एफएओ के अनुसार लैटिन अमेरिका में 70 प्रतिशत वन भूमि को चरागाह में बदल दिया गया है। पेड़- पौधे कार्बन डाइऑक्साइड के अवशोषक होते हैं। पेड़ों के कम होने से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ती है    जिसके कारण तापमान में भी बढ़ोतरी होती है। ऐनिमल वेस्टेज से नाइट्रस ऑक्साइड नामक ग्रीनहाउस गैस निकलती है जो कि कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में 296 गुना जहरीली है। गौ पालन के कारण मिथेन का उत्पादन होता है, जो कि कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में तेइस गुना खतरनाक है।

पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इसीलिए कहा था कि यदि दुनिया बीफ (गाय का मांस) खाना बंद कर दे तो कार्बन उत्सर्जन में नाटकीय ढंग से कमी आएगी और ग्लोबल वॉर्मिंग में बढ़ोतरी धीमी हो जाएगी। सौभाग्य की बात है कि भारत में बीफ का ज्यादा चलन नहीं है। मांस के ट्रांसपोर्टेशन और उसे पकाने के लिए इस्तेमाल होने वाले ईंधन से भी ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन होता है। इतना ही नहीं, जानवरों के मांस से भी कई प्रकार की ग्रीन हाउस गैसें उत्पन्न होती हैं जो वातावरण में घुलकर उसके तापमान को बढ़ाती हैं।

कोपनहेगन सम्मेलन में साफ हो गया कि कार्बन इमिशन में कटौती पर कानूनी बाध्यताओं को स्वीकार करना फिलहाल संभव नहीं है। यह भी तय हो गया कि इमिशन में स्वैच्छिक कटौती तब तक संभव नहीं होगी जब तक कि जन-जन इसके लिए प्रयास न करे। इस दिशा में मांसाहार में कटौती एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। ग्रीन हाउस उत्सर्जन कम करने के अन्य उपायों की तुलना में यह सबसे आसान है। क्या हम इसके लिए तैयार हैं? 
लेखक - रमेश कुमार दुबे

आदिमानव शाकाहारी थें, नवीनत्तम जानकारी


Posted by अनिल रघुराज at 18:14  Oct 192010
वैज्ञानिकों को कुछ ऐसे सुबूत मिले हैं जिनसे संकेत मिलता है कि करीब तीस हजार साल पहले गुफाओं में रहनेवाले आदिमानव न केवल अनाज को चक्कियों में पीसते थे, बल्कि सब्जी-भाजी भी उगाते थे। इस खोज से उस प्राचीनतम साक्ष्य को ही बल मिलता है जिसके मुताबिक प्रागैतिहासिक मानव अनाज से आटा बनाते थे और संभवतः वे निएंडरथल ही थे जो अपने आहार के लिए सब्जी-भाजी उगाते थे। इटली के एक शोध संस्थान ने यह निष्कर्ष अनुसंधान के दौरान मिले प्राचीन रसोई उपकरणों वगैरह के आधार पर निकाला है। यह शोध नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज के जर्नल में छपा है।
Courtesy: BBCHindi.com  मंगलवार, दिसंबर 28, 2010,12:02[IST]
निएंडरथल मानव सब्ज़ियां भी खाया करते थेआदि मानवों पर किए गए एक नए शोध के अनुसार आदिमानव (निएंडरथल) सब्ज़ियां पकाते थे और खाया करते थे.अमरीका में शोधकर्ताओं का कहना है कि उन्हें निएंडरथल मानवों के दांतों में पके हुए पौधों के अंश मिले हैं.यह पहला शोध है जिसमें इस बात की पुष्टि होती है कि आदिमानव अपने भोजन के लिए सिर्फ़ मांस पर ही निर्भर नहीं रहते थे बल्कि उनके भोजन की आदतें कहीं बेहतर थीं.

यह शोध प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडेमी ऑफ साइंसेज़ में छपा है.आम तौर पर लोगों में आदि मानवों के बारे में ये धारणा रही है कि वो मांसभक्षी थे और इस बारे में कुछ परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी मिल चुके हैं. अब उनकी हड्डियों की रासायनिक जांच के बाद मालूम चलता है कि वो सब्ज़ियां कम खाते थे या बिल्कुल ही नहीं खाते थे.इसी आधार पर कुछ लोगों का ये मानना था कि मांस भक्षण के कारण ही हिमकाल के दौरान बड़े जानवरों की तरह ये मानव भी बच नहीं पाए.

हालांकि अब दुनिया भर में निएंडरथल मानवों के अवशेषों की जांच रासायनिक जांच से मिले परिणामों को झुठलाता है. शोधकर्ताओं का कहना है कि इन मानवों के दांतों की जांच के दौरान उसमें सब्ज़ियों के कुछ अंश मिले हैं जिसमें कुछ तो पके हुए हैं.निएंडरथल मानवों के अवशेष जहां कहीं भी मिले हैं वहां पौधे भी मिलते रहे हैं लेकिन इस बात का प्रमाण नहीं था कि ये मानव वाकई सब्ज़ियां खाते थे. जॉर्ज वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एलिसन ब्रुक्स ने बीबीसी न्यूज़ से कहा, ‘‘ हमें निएंडरथल साइट्स पर पौधे तो मिले हैं लेकिन ये नहीं पता था कि वो वाकई सब्ज़ियां खाते थे या नहीं. हां लेकिन अब तो लग रहा है कि उनके दांतों में सब्ज़ियों के अंश मिले हैं तो कह सकते हैं कि वो शाकाहारी भी थे.’’

शनिवार, 29 जनवरी 2011

जहाँ निष्ठुरता आवश्यक है……………


एक बार यात्रा में, हम दो मित्र शाकाहार- मांसाहार पर चर्चा कर रहे थे। मित्र नें कहा यार लोग किसी जीवित प्राणी को मारकर कैसे खा लेते होंगे? यह तो क्रूरता है। सामने सीट पर बैठे दो मित्र हमारी चर्चा को ध्यान से सुन रहे थे, मांसाहार समर्थक थे, निर्दयता वाला वाक्य उन्हे नागवार गुजर रहा था। हमें निरुत्तर करने के उद्देश्य से बडा सम्वेदनशील प्रश्न उछाला “आप मांसाहार करने वालो को राक्षस कहते हो, हमारे देश की रक्षा करने वाले वीर सैनिक भी मांसाहार करते है, आपने सैनिको को राक्षस क्यों कहा?

आचानक मुँहगोले की फैके गए प्रश्न पर हमें हतप्रभ देखकर एक क्षण के लिये उनके चहरो पर कुटिल मुस्कान तैर गई। हमने उनकी मंशा को परखते हुए कहा- देखो दोस्त, हमारे मुंह में शब्द न ठूसो, हालांकि सेना में आहार सैनिक की व्यक्तिगत पसंद होता है, फिर भी यदि किसी सैनिक के मन में यह भ्रांत धारणा हो कि माँसाहार से निष्ठुरता आती है तब तो  मांसाहार हमारे ही तर्क की पुष्ठि ही कर रहा है, वे यह मानकर मांसाहार कर रहे है कि उनमें शत्रु के प्रति क्रूर निष्ठुर भाव बने रहे, कहीं शत्रुओं को देखकर उनमें दया-करूणा के भाव न आ जाय। ताकि वे दुश्मनो पर राक्षस की तरह टूट पडें। इस तर्क से तो इस बात को बल मिलता है कि मांसाहार से क्रूर निष्ठूर भाव उपजने की सम्भावनाएं अधिक है। तर्क के लिए तो यह बात ठीक है किन्तु यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि सेना में निष्ठुरता वीरता और बलवृद्धि के लिए माँसाहार प्रयोग होता है। सच्चाई तो यह है कि आहार शैली सैनिकों का स्वतंत्र और नितांत ही निजि  निर्णय होता है।

सेना के आहार में अंडे व मांस कोई अनिवार्यता नहीं है, अतीत में कईं शाकाहारी योद्धाओं नें शत्रुओं से लोहा लिया है और आज भी कईं शाकाहारी वीर सैन्य में उत्कृष्ट प्रदर्शन करते है। निसंदेह वे  शक्तिशाली और पर्याप्त पोषण अपने शाकाहारी पदार्थो से बखुबी प्राप्त करते है। बस युद्धभूमि में शत्रु के प्रति निष्ठुरता एक अनिवार्य विवेक है जो कि प्रत्येक वीर का साहसी गुण है।

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

शाकाहार - तर्कसंगत, न्यायसंगत

शाकाहार - कुछ तर्क कुतर्क

शाकाहार के बारे में अक्सर होने वाली बहस और इन सब तर्कों-कुतर्कों में कितनी सच्चाई है। लोग पेड़ पौधों में जीवन होने की बात को अक्सर शाकाहार के विरोध में तर्क के रूप में प्रयोग करते हैं। मगर वे यह भूल जाते हैं कि भोजन के लिए प्रयोग होने वाले पशु की हत्या निश्चित है जबकि पौधों के साथ ऐसा होना ज़रूरी नहीं है। मैं अपने टमाटर के पौधे से पिछले दिनों में बीस टमाटर ले चुका हूँ और इसके लिए मैंने उस पौधे की ह्त्या नहीं की है। पौधों से फल और सब्जी लेने की तुलना यदि पशु उपयोग से करने की ज़हमत की जाए तो भी इसे गाय का दूध पीने जैसा समझा जा सकता है। हार्ड कोर मांसाहारियों को भी इतना तो मानना ही पडेगा की गाय को एक बारगी मारकर उसका मांस खाने और रोज़ उसकी सेवा करके दूध पीने के इन दो कृत्यों में ज़मीन आसमान का अन्तर है।

 अधिकाँश अनाज के पौधे गेंहूँ आदि अनाज देने से पहले ही मर चुके होते हैं। हाँ साग और कंद-मूल की बात अलग है। और अगर आपको इन कंद मूल की जान लेने का अफ़सोस है तो फ़िर प्याज, लहसुन, शलजम, आलू आदि मत खाइए और हमारे प्राचीन भारतीयों की तरह सात्विक शाकाहार करिए। मगर नहीं - आपके फलाहार को भी मांसाहार जैसा हिंसक बताने वाले प्याज खाना नहीं छोडेंगे क्योंकि उनका तर्क प्राणिमात्र के प्रति करुणा से उत्पन्न नहीं हुआ है। यह तो सिर्फ़ बहस करने के लिए की गयी कागजी खानापूरी है। मुझे याद आया कि एक बार मेरे एक मित्र मेरे घर पर बोनसाई देखकर काफी व्यथित होकर बोले, "क्या यह पौधों पर अत्याचार नहीं है?" अब मैं क्या कहता? थोड़ी ही देर बाद उन्होंने अपने पेट ख़राब होने का किस्सा बताया और उसका दोष उन बीसिओं झींगों को दे डाला जिन्हें वे सुबह डकार चुके थे - कहाँ गया वह अत्याचार-विरोधी झंडा?एक और बन्धु दूध में पाये जाने वाले बैक्टीरिया की जान की चिंता में डूबे हुए थे। शायद उनकी मांसाहारी खुराक पूर्णतः बैक्टीरिया-मुक्त ही होती है। दरअसल विनोबा भावे का सिर्फ़ दूध की खुराक लेना मांसाहार से तो लाख गुने हिंसा-रहित है ही, मेरी नज़र में यह किसी भी तरह के साग, कंद-मूल आदि से भी बेहतर है। यहाँ तक कि यह मेरे अपने पौधे से तोडे गए टमाटरों से भी बेहतर है क्योंकि यदि टमाटर के पौधे को किसी भी तरह की पीडा की संभावना को मान भी लिया जाए तो भी दूध में तो वह भी नहीं है। इसलिए अगली बार यदि कोई बहसी आपको पौधों पर अत्याचार का दोषी ठहराए तो आप उसे सिर्फ़ दूध पीने की सलाह दे सकते हैं। बेशक वह संतुलित पोषण न मिलने का बहाना करेगा तो उसे याद दिला दें कि विनोबा दूध के दो गिलास प्रतिदिन लेकर ३०० मील की पदयात्रा कर सकते थे, यह संतुलित और पौष्टिक आहार वाला कितने मील चलने को तैयार है?आईये सुनते हैं शिरिमान डॉक्टर नायक जी की बहस को - अरे भैया, अगर दिमाग की भैंस को थोडा ढील देंगे तो थोड़ा आगे जाने पर जान पायेंगे कि अगर प्रभु ने अन्टार्कटिका में घास पैदा नहीं की तो वहाँ इंसान भी पैदा नहीं किया था। आपके ख़ुद के तर्क से ही पता लग जाता है कि प्रभु की मंशा क्या थी। फ़िर भी अगर आपको जुबां का चटखारा किसी की जान से ज़्यादा प्यारा है तो कम से कम उसे धर्म का बहाना तो न दें। पशु-बलि की प्रथा पर कवि ह्रदय का कौतूहल देखिये :-

अजब रस्म देखी दिन ईदे-कुर्बां
ज़बह करे जो लूटे सवाब उल्टा

धर्म के नाम पर हिंसाचार को सही ठहराने वालों को एक बार इस्लामिक कंसर्न की वेबसाइट ज़रूर देखनी चाहिए। इसी प्रकार की एक दूसरी वेबसाइट है जीसस-वेज। हमारे दूर के नज़दीकी रिश्तेदार हमसे कई बार पूछ चुके हैं कि "किस हिंदू ग्रन्थ में मांसाहार की मनाही है?" हमने उनसे यह नहीं पूछा कि किस ग्रन्थ में इसकी इजाजत है लेकिन फ़िर भी अपने कुछ अवलोकन तो आपके सामने रखना ही चाहूंगा।

योग के आठ अंग हैं। पहले अंग यम् में पाँच तत्त्व हैं जिनमें से पहला ही "अहिंसा" है। मतलब यह कि योग की आठ मंजिलों में से पहली मंजिल की पहली सीढ़ी ही अहिंसा है। जीभ के स्वाद के लिए ह्त्या करने वाले क्या अहिंसा जैसे उत्कृष्ट विषय को समझ सकते हैं? श्रीमदभगवदगीता जैसे युद्धभूमि में गाये गए ग्रन्थ में भी श्रीकृष्ण भोजन के लिए हर जगह अन्न शब्द का प्रयोग करते हैं। अंडे के बिना मिठाई की कल्पना न कर सकने वाले केक-भक्षियों के ध्यान में यह लाना ज़रूरी है कि भारतीय संस्कृति में मिठाई का नाम ही मिष्ठान्न = मीठा अन्न है। पंचामृत, फलाहार, आदि सारे विचार अहिंसक, सात्विक भोजन की और इशारा करते हैं। हिंदू मंदिरों की बात छोड़ भी दें तो गुरुद्वारों में मिलने वाला भोजन भी परम्परा के अनुसार शाकाहारी ही होता है। संस्कृत ग्रन्थ हर प्राणी मैं जीवन और हर जीवन में प्रभु का अंश देखने की बात करते हैं। ग्रंथों में औषधि के उद्देश्य से उखाड़े जाने वाले पौधे तक से पहले क्षमा प्रार्थना और फ़िर झटके से उखाड़ने का अनुरोध है। वे लोग पशु-हत्या को जायज़ कैसे ठहरा सकते हैं?अब रही बात प्रकृति में पायी जाने वाली हिंसा की। मेरे बचपन में मैंने घर में पले कुत्ते भी देखे थे और तोते भी। दोनों ही शुद्ध शाकाहारी थे। प्रकृति में अनेकों पशु-पक्षी प्राकृतिक रूप से ही शाकाहारी हैं। जो नहीं भी हैं वे भी हैं तो पशु ही। उनका हर काम पाशविक ही होता है। वे मांस खाते ज़रूर हैं मगर उसके लिए कोई भी अप्राकृतिक कार्य नहीं करते हैं। वे मांस के लिए पशु-व्यापार नहीं करते, न ही मांस को कारखानों में काटकर पैक या निर्यात करते हैं। वे उसे लोहे के चाकू से नहीं काटते और न ही रसोई में पकाते हैं। वे उसमें मसाले भी नहीं मिलाते और बचने पर फ्रिज में भी नहीं रखते हैं। अगर हम मनुष्य इतने सारे अप्राकृतिक काम कर सकते हैं तो शाकाहार क्यों नहीं? शाकाहार को अगर आप अप्राकृतिक भी कहें तो भी मैं उसे मानवीय तो कहूंगा ही।

अगर आप अपने शाकाहार के स्तर से असंतुष्ट हैं और उसे पौधे पर अत्याचार करने वाला मानते हैं तो उसे बेहतर बनाने के हजारों तरीके हैं आपके पास। मसलन, मरे हुए पौधों का अनाज एक पसंद हो सकती है। और आगे जाना चाहते हैं तो दूध पियें और सिर्फ़ पेड़ से टपके हुए फल खाएं और उसमें भी गुठली को वापस धरा में लौटा दें। नहीं कर सकते हैं तो कोई बात नहीं - शाकाहारी रहकर आपने जितनी जानें बख्शी हैं वह भी कोई छोटी बात नहीं है। दया और करुणा का एक दृष्टिकोण होता है जिसमें जीव-हत्या करने या उसे सहयोग करने का कोई स्थान नहीं है।

बुधवार, 26 जनवरी 2011

मनुष्य शाकाहारी या माँसाहारी....? (कायिक प्रकृति)

बहुत समय से मन में यह जिज्ञासा उठती थी......... 

मानव का ह्रदय क्यों चित्कार उठता है जीव हत्या देखकर? 

क्या माँसाहारी पशुओं में दया, करुणा और प्रेम की भावना होती है?

इन प्रश्नों के कुछ जवाब मुझे प्राप्त हुए। 

आप भी जानें मानव, शाकाहारी पशुओं और माँसाहारी पशुओं में अंतर.... 

*पंजे- 

माँसाहारी-इनके पंजे शिकारियों की तरह होते हैं नुकीले धारधार। शाकाहारी और मनुष्य- इनके पंजे इस प्रकार नहीं होते। 

*स्वेद ग्रंथि- 

माँसाहारी-इनमें स्वेद ग्रंथि /त्वचा में रोम छिद्र नहीं होते तो ये जीभ के माध्यम से शरीर का तापमान नियंत्रित करते हैं। शाकाहारी और मनुष्य-इनके शरीर में रोम छिद्र /स्वेद ग्रंथियां उपस्थित होती हैं और ये पसीने के माध्यम से अपने शरीर का तापमान नियंत्रित रखते हैं। मांसाहारी पशु के आन्तरिक अव्यव 

*दाँत- 

माँसाहारी- इनमें चिड़फाड़ के लिए नुकीले दाँत होते हैं पर चपटे मोलर दाँत जी चबाने/पिसने के काम आते हैं नहीं होते। शाकाहारी और मनुष्य- दोनों में तेज नुकीले दाँत नहीं होते जबकि इनमें मोलर दाँत होते हैं। 

*आहारनालतंत्र- 

माँसाहारी- इनमें Intestinal tract शरीर की लम्बाई के ३ गुनी होती है ताकि पचा हुआ मांस शरीर से जल्द निकल सके। शाकाहारी और मनुष्य- इनमें Intestinal tract शरीर की लम्बाई के १०-१२ गुनी लम्बी होती है। मनुष्य के आन्तरिक अव्यव 

*पाचक रस माँसाहारी- 

इनमें बहुत ही तेज पाचक रस (HCl- हैड्रोक्लोरिक अम्ल ) होता है जो मांस को पचाने में सहायक है। शाकाहारी और मनुष्य- इनमें पाचक रस (अम्ल) माँन्साहारियों से २० गुना कमजोर होती है। *लार ग्रंथि - माँसाहारी- इनमें भोजन के पाचन के प्रथम चरण के लिए अथवा भोजन को लपटने के लिए आवश्यक लार ग्रंथियों की आवश्यकता नहीं है। शाकाहारी और मनुष्य- इनमें अनाज व फल के पाचन के प्रथम चरण हेतु मुख में पूर्ण विकसित लार ग्रंथि उपस्थित होते हैं। 

*लार- 

मांसाहारियों - में अनाज के पाचन के प्रथम चरण में आवश्यक एंजाइम टाइलिन (ptyalin) लार में अनुपस्थित होती है। इनका लार अम्लीय प्रकृति की होती है। शाकाहारी और मनुष्य- में एंजाइम टाइलिन (ptyalin) लार में उपस्थित होती है व इनका लार क्षारीय प्रकृति की होती है। 

यह चार्ट A.D. Andrews, Fit Food for Men, (Chicago: American Hygiene Society, 1970) पर आधारित है।  
अधिक जानकारी के लिए कृपया यह साईट जरूर देखें।

इसके अलावा एक और बात मैंने गौर की है वह है इनके पानी पीने के तरीके.... क्या आपने कभी यह गौर किया है ?मांसाहारी पशु अपने जीभ से चांट कर पानी /द्रव पीते हैं जबकि शाकाहारी और मनुष्य मुँह से पानी पीते हैं। इन कुछ उदहारण को देखकर बताइए कि मनुष्य शाकाहारी है या मांसाहारी ?अपनी अंतरात्मा से पूछिए जवाब जरूर मिलेगा।..... यदि एक भी मनुष्य इस लेख को पढ़कर अपने को बदल सके तो यह मनुष्यता की जीत होगी।

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

सर्वोत्तम है शाकाहार

कहते है कि हमारे अच्छे विचारों के लिए कुछ हद तक हमारा आहार भी जिम्मेदार होता है। इसलिए मनुष्य यदि अपने आहार को दुरुस्त रखे, तो उसके विचार भी अच्छे होंगे। और अच्छे विचारों से ही हमारी उन्नति संभव है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमारे लिए कौन-सा आहार उचित हो सकता है? दरअसल, मानव शरीर के लिए शाकाहार ही सर्वोत्तम है।

 वैज्ञानिकों के अनुसार, हमारे पाचन तंत्रों की बनावट शाकाहार के अनुकूल है। वहीं दूसरी ओर, हमारे वेद, पुराण, गीता, कुरान, गुरुग्रंथ साहिब और दूसरे धर्म ग्रंथों में हमें दूसरे जीवों के प्रति करुणा और दया का भाव रखने की सलाह दी गई है। सच तो यह है कि परमात्मा की सृष्टि से प्रेम करना परमात्मा से प्रेम करने के समान है। यदि आप चाहते है कि ईश्वर हम पर दया और कृपा करता रहे, तो आपको भी उन प्राणियों के प्रति प्रेम और दया की दृष्टि रखनी होगी, जिन्हे परमात्मा ने बनाया है। बहुत पुरानी कहावत है-जैसा पिएं पानी, वैसी बने वाणी। जैसा खाएं अन्न, वैसा बने मन। इसका अर्थ यह हुआ कि हमारे मन पर आहार का बहुत प्रभाव पड़ता है।

सच तो यह है कि मांसाहार का सेवन करने वाले व्यक्ति का मन पवित्र हो ही नहीं सकता है। अथर्ववेद में कहा गया है कि जीवों के प्राणों का अंत कर उसे खाने वाले मनुष्यों पर ईश्वर की कृपा दृष्टि नहीं होती। महर्षि दयानंद के अनुसार, मांसाहार से मनुष्य का स्वभाव हिंसक हो जाता है। गीता में भोजन की तीन श्रेणियां बताई गई है। सात्विक भोजन- फल, दालें, अनाज, मेवे, दूध, मक्खन आदि। इनसे मनुष्यों में सुख, शांति, दया, अहिंसा और करुणा का भाव बढ़ता है। राजसी भोजन में तीखे, गर्म, कड़वे, खट्टे और मिर्च-मसाले वाले भोजन आते है। इनसे जलन पैदा होती है। इस तरह का भोजन दुख, रोग और चिन्ता बढ़ाने वाला होता है। तामसिक भोजन- बासी, अधपक्व, दुष्पक्व, दुर्गध वाले, नशीले, मांसाहार आदि। ऐसे आहार गंदे संस्कारों की तरफ ले जाते है। हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, शरीर में अनेक बीमारियां उत्पन्न होती है और आलस्य बढ़ता है। इससे यह पता चलता है कि सात्विक आहार ही हमारे लिए सर्वोत्तम है।

महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटीन कहते थे कि शाकाहार का हमारी प्रकृति पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि दुनिया शाकाहार अपना ले, तो हिंसा होने की गुंजाइश ही खत्म हो जाए। महान दार्शनिक जॉर्ज बर्नाड शॉ ने लिखा है, 'हम मांस खाने वाले चलती-फिरती कब्रों के समान हैं, जिनमें कई जानवरों की लाशें दफन हैं।'

भारत में भी कई संत और दार्शनिक हुए है, जिन्होंने मांसाहार को जहरीला या राक्षसी आहार कहा है और उनसे दूर रहने की हिदायत दी है। महान दार्शनिक और संत तिरुवल्लुवर ने कहा है कि उस मनुष्य में दया की भावना कैसे आ सकती है, जो अपना मांस बढ़ाने के लिए दूसरे जीव-जंतुओं का मांस खाता है? गुरुनानक देव ने भी मांसाहार को सर्वथा त्याज्य बताया है। इसके अलावा, महाकवि शैले, जो महान शाकाहारी थे, ने कहा है कि इनसान जब जीव-जंतुओं का सेवन करने लगता है, तो वह उन नीच जानवरों की श्रेणी में आ जाता है, जो स्वभावत: मांसाहारी और क्रूर होते हैं। इसलिए मांसाहार को पाप और अपराध के लिए जिम्मेदार बताया गया है। इसके बावजूद भी यदि हम मांस खाते है, तो यह हमारी मूर्खता होगी। सच तो यह है कि यदि आप चाहते है कि आपका मन पवित्र हो और आपके विचार सर्वोत्तम हों, तो आपको आज से ही मांसाहार का परित्याग कर देना चाहिए।

शाकाहार अपनाएं, बीमारी भगाएं

नई दिल्ली। कोई व्यक्ति किस तरह का [शाकाहारी या मांसाहारी] भोजन करना चाहता है, यह उसकी पसंद-नापसंद पर निर्भर करता है। लेकिन ताजा शोधों में मांसाहार के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालने की बात सामने आई है। विशेषज्ञों की राय में शाकाहार न केवल आपके मन-मस्तिष्क को दुरुस्त रखता है बल्कि कई बीमारियों से लड़ने में भी अहम भूमिका निभाता है।

यही कारण है कि विदेशों में लोग मांसाहार छोड़कर तेजी से शाकाहार की तरफ आकर्षित हो रहे हैं।

फायदेमंद नहीं है मांसाहार 

आहार विशेषज्ञ डा.अनिता सिंह के मुताबिक नियमित रूप से मांसाहार पाचन तंत्र से लेकर हृदय व यकृत [लिवर] की कार्यप्रणाली को प्रभावित करता है। रात में व्यक्ति को हल्का भोजन करना चाहिए। जबकि मांसाहार की प्रकृत्ति गरिष्ठ होती है। रात में इसका नियमित सेवन आपके हाजमे को बिगाड़ सकता है। यही नहीं मांसाहार से शरीर को जरूरी विटामिन, प्रोटीन और एंटी-आक्सीडेंट नहीं मिल पाते। इसका शरीर की प्रतिरोधक क्षमता पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है।

दिल के लिए भी घातक 

 डाक्टर केदार नाथ शर्मा के मुताबिक अधिकांश लोग गोश्त को स्वादिष्ट बनाने के लिए तेल, मिर्च, मसाले आदि का जमकर इस्तेमाल करते हैं और देर तक पकाते हैं। इससे मीट का स्वाद तो बढ़ जाता है लेकिन यह कार्डियोवेस्कुलर [हृदय-धमनी] सिस्टम पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। मांसाहार रक्तचाप [ब्लड प्रेशर] बढ़ाने के साथ रक्तवाहिनियों में जम जाता है जिससे आगे जाकर हृदयरोगों का खतरा पैदा हो सकता है। हाल में हुए एक अध्ययन के मुताबिक मांसाहार का जरूरत से ज्यादा सेवन पेट में अल्सर का कारण हो सकता है जो आगे जाकर कैंसर का रूप ले सकता है।

 ..तो शाकाहार ही बेहतर

आहार विशेषज्ञ डा. अंजुम कौसर के मुताबिक शाकाहार अपनाकर पेट की बीमारियों समेत हृदयरोगों व कैंसर से छुटकारा पाया जा सकता है।

शारीरिक स्वास्थ्य के अलावा मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी शाकाहार को जरूरी बताया गया है। भारतीय संस्कृति में भी 'जैसा खाएंगे अन्न, वैसा होगा मन', की बात कही गई है। पिछले दिनों अमेरिका के एक अंतरराष्ट्रीय शोध दल ने इस बात प्रमाणित कर दिया है कि कि मांसाहार का असर व्यक्ति की मनोदशा पर भी पड़ता है। मांसाहार के नियमित सेवन से युवाओं में धैर्य की कमी, मामूली बातों पर आपा खोने व दूसरों को नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है।
Source : jagran.com

सोमवार, 24 जनवरी 2011

शाकाहार ही क्यों?

जैसे विषयुक्त आहार हमारे शरीर में भयंकर विकार उत्पन्न करता है वैसे ही विकार युक्त विचार भी हमारे मस्तिष्क में प्रविष्ट होकर भयंकर तनाव, दुःख, अशान्ति व असाध्य रोग उत्पन्न करते हैं। अतः यदि आप एक ऊँचा व्यक्तित्व पाना चाहते हो तो आहार एवं विचारों के प्रति प्रतिपल सजग रहना अवश्यक है। व्यक्ति अपने शरीर के प्रति जितनी बेरहमी बर्तता है शायद ही इतनी बेरहमी वह किसी के साथ करता हो।यह देह देवालय, शिवालय है। यह शरीर भगवान् का मन्दिर है। इसे शराब पीकर सुरालय, तम्बाकु आदि खाकर रोगालय और मांसादि खाकर इसे श्मशान या कब्रिस्तान नहीं बनाओ। ऋत्भुक्, मित्भुक् व हितभुक् बनो। समय से, सात्विक, संतुलित व सम्पूर्ण आहार का सेवन कर शरीर को स्वस्थ बनाओ।

जैसे इस दुनिया में हमें जीने का हक है, वैसे ही सृष्टि के अन्य प्राणियों को भी निर्भय होकर, यहां जीने का अधिकार है। यदि हम किसी जीव को पैदा नहीं कर सकते तो उसे मारने का अधिकार हमें किसने दिया । और हम किसी पशु-जीव या प्राणी को मात्र इसलिए मार देते हैं कि ये देखने में हमारे जैसे नहीं लगते। वैसे तो सब प्राणियों के दिल, दिमाग व आँखें होती हैं। इनको दुःख या गहरी पीड़ा होती है। लेकिन हम इसलिए उन्हें मार दें कि उनके पास अपनी सुरक्षा के लिए हथियार नहीं हैं या लोकतन्त्र की नई तानाशाही के इस युग में उन्हें मतदान करने का अधिकार नहीं है। इसलिए उनकी सुरक्षा की सरकारों को दरकार नहीं है। काश! उनको भी हमारे जैसी बोली बोलनी आती तो अपनी पीड़ा व दर्द से शायद वे इन्सान को अवगत करा देते, लेकिन क्या करें, बेचारे इन जीवों को इन्सानी भाषा नहीं आती और हम बेरहमी से निरपराधी, निरीह, मूक प्राणियों की हत्याएं करके खुशियां मनाते हैं और दरिंदगी के साथ कुत्तों एवं भेड़ियों की तरह मांस को नोच-नोचकर खाने में गौरव का अनुभव करते हैं। इससे ज्यादा घोर पाप और अपराध और कुछ नहीं हो सकता। जब बिना निर्दोष प्राणियों की हत्या किए ही शाकाहार से तुम जीवन जी सकते हो तो क्यों अनावश्यक प्राणियों का कत्ल किये जा रहे हो? मनुष्य स्वभाव से ही शाकाहारी है। मानवीय शरीर की संरचना शाकाहारी प्राणी की है, यह एक वैज्ञानिक सत्य है।

रविवार, 23 जनवरी 2011

शाकाहारी बने, स्वस्थ रहें।


वैज्ञानिकों एवं चिकित्साशास्त्रियों ने विभिन्न प्रकार के अनुसंधानों से यह निश्चित रूप से पुष्टि कर दिया है की मनुष्य के शरीर की रचना एवं शरीर के विभिन्न अंग जैसे मुंह, दाँत, हाथों की अंगुलियाँ, नाख़ून एवं पाचन तंत्र की बनावट के अनुसार वह एक शाकाहारी प्राणी है| मनुष्य का शरीर, शरीर के विभिन्न अंग एवं पाचन प्रणाली मांसाहारी प्राणियों जैसी नहीं है | भारत ही नहीं, अपितु दुनिया के सारे विद्वान यह मानाने लगे है कि शाकाहार ही मनुष्य की प्रकृति और उसके शरीर तंत्र की अन्दुरुनी एवं बाहरी संरचना के सर्वथा अनुकूल है |  

अमेरिकी प्रसिद्ध बिजनेस पत्रिका फार्ब्स के अनुसार 1998 से 2003 तक शाकाहारी खाद्य पदार्थों की बिक्री दोगुनी हो गई है। आज के इस तनाव भरी आर्थिक और विषम सामाजिक परिस्थितियों के बिच जी रहा मनुष्य यही चाहता है कि वह किसी भी प्रकार के शरीरिक व मानसिक दुःख से पीड़ित न हो | स्वास्थ्य का सम्बन्ध शरीर से है और प्रत्येक व्यक्ति तन और मन दोनों से स्वाथ्य रहना चाहता है |

ईश्वर ने मनुष्य को सर्वगुण सम्पन्न शरीर प्रदान किया है | सामान्य रूप से यह शरीर सौ वर्ष तक स्वस्थ रह सकता है या उससे अधिक भी | परन्तु स्वस्थ रहने और लम्बी आयु के लिए आवश्यक है की वह बचपन से ही संयमित और सात्विक जीवनचर्या का पालन करें | मनुष्य अपने आचार-विचार और आहार की पवित्रता से ही वह अपने इस मानव जीवन का सदुपयोग करते हुए भरपूर आनन्द उठा सकता है |

आज दुनिया के बड़े-बड़े देश शाकाहार अपना रहे है | सर्वेक्षण के अनुसार शाकाहार अपनाने के पीछे 34 फीसदी लोगो का मानना है कि वे इसे अनैतिक मानते हुए शाकाहारी बने है | 12 फीसदी धार्मिक कारणों से, तो 6 फीसदी अपने परिजनों और दोस्तों की वजह से शाकाहारी बने है | शाकाहार अब एक अभियान बनता जा रहा है |

दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्ध रखने वाली मशहूर हस्तियाँ जैसे रुसी लेखक टालस्टाय, लियोनार्दो डी विन्ची, अब्राहम लिकन, प्लूटो, सुकरात, रविंद्रनाथ टैगोर,अलबर्ट आइन्स्टाइन, डा.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम, अमिताभ बच्चन, ब्रेड पिट, केट विसंलेट जैसी ख्याति प्राप्त हस्तियों ने शाकाहारी जीवन अपनाया |

शाकाहार में भोजन तंतु प्रयाप्त मात्रा में होते है | भोजन तंतुओं की प्रयाप्तता से पाचन तंत्र की क्रिया प्रणाली सही तरीके से संचालित होती है | शाकाहार से व्यक्ति कब्ज़, कोलाइटिस, बवासीर जैसी बिमारियों से काफी हद तक बचा रहता है | शाकाहार से आँतों के कैंसर की सम्भावना भी कम हो जाती है | शाकाहार में सभी पोषक तत्व, प्रोटीन, विटामिन, खनिज लवण उचित अनुपात में होते है |

विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक व विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अब यह सिद्ध कर दिया है कि भीषण बीमारियों जैसे कैंसर, ह्रदय रोग आदि को शाकाहार द्वारा काफी हद तक कम किया जा सकता है | शाकाहारी भोजन में वसा अपने उचित अनुपात में होती है अर्थात बहुत ज्यादा भी नहीं और बहुत कम भी नहीं। परन्तु मांसाहारी भोजन में वसा प्रचुर होती है, जिसके कारण ह्रदय रोग की सम्भावना बढ़ जाती है | वसा की अधिकता से रक्त में कोलेस्ट्रोल का स्तर बढ़ जाता है कोलेस्ट्रोल से रुधिर नलिकाएं तंग हो जाती है और धीरे-धीरे बंद हो जाती है जिससे हृदय को रक्त आपूर्ति करने वाली धमनियों में रक्त प्रवाह में अवरोध उत्पन्न होता है | यह हार्ट अटैक का एक प्रमुख कारण है। डॉक्टरों का कहना है की ह्रदय रोगों से बचने के लिए मनुष्य को मांसाहार का सेवन बिलकुल नहीं करना चाहिए। अतः शाकाहार को अपनाएं जीवन स्वस्थ बनायें।

शनिवार, 22 जनवरी 2011

शाकाहार : जीवनमूल्य


एक बार जॉर्ज बर्नार्ड शॉ बहुत बीमार हो गए। डॉक्टरों ने उन्हें सलाह दी कि ताकत बढ़ाने के लिए वे मांस खाएं, इससे स्वस्थ रहेंगे और दीर्घायु होंगे। इस पर उन्होंने कहा कि इस राक्षसपन से तो मृत्यु ही उत्तम है। मैंने अपनी वसीयत लिख दी है। मेरी मृत्यु पर मेरी अर्थी के साथ विलाप करती गाड़ियों की आवश्यकता नहीं है। मेरे साथ गायों, बैलों, भेड़ों और मुर्गों का एक काफिला होगा। इन सभी पशु-पक्षियों के गले में सफेद दुपट्टे होंगे, उस दोस्त के शोक में जिसने अपने साथी प्राणियों को खाने की अपेक्षा मरना उत्तम समझा।

निरामिष आहार के 2 रूप हैं- स्थूल एवं सूक्ष्म। स्थूल अर्थ है सिर्फ खाने में मांसाहार का त्याग। पर हम आहार में मांसाहार का त्याग करें, लेकिन मन में अमैत्री का भाव हो, व्यवहार में शोषण हो, वचन में कटुता, रोष और अहंकार हो तो क्या फायदा? जिस प्रकार एक ओर चींटी को चीनी खिलाएँ या मछलियों को तालाब में दाना दें तथा दूसरी ओर बेहिचक मुनाफाखोरी और शोषण करें तो वह अहिंसा का मजाक उड़ाने की तरह है। उसी प्रकार एक तरफ निरामिष आहार का व्रत लेना और दूसरी तरफ धोखा, आडम्बर, विश्वासघात और वैर में लगे रहना एक तरह का पाखंड है।

वास्तव में निरामिष आहार के विचार का विकास, मानव के धार्मिक और आध्यात्मिक विकास का लक्षण है। यदि हमें पाशविकता को खत्म करना है, तो अपने आहार के लिए दूसरे प्राणी का जीवन लेने का मोह भी छोड़ना होगा। निरामिष आहार का दर्शन है- मैत्री भाव। यह एक जीवन मूल्य है, यह एक जीवन शैली है।

 हम लोग जीने के लिए भोजन करते हैं, भोजन के लिए नहीं जीते। आहार एक साधन है, साध्य नहीं। इस दृष्टि से हमें ऐसे ही आहार को अपनाना चाहिए जो हमें पोषण देने के साथ-साथ हमारे वातावरण से भी तादात्म्य स्थापित कर सके। यद्यपि जीवन शास्त्र की दृष्टि से मनुष्य भी पशु जगत का ही एक प्राणी है। फिर भी उसमें बुद्धि और कोमल संवेदनाओं का इतना विकास हुआ है कि वह अपने पशु भाव को संयमित रख पाता है। उसकी यही करुणा उसे अपने आहार के लिए दूसरे प्राणियों के प्राण नहीं लेने की प्रेरणा देती है।

जहाँ एक ओर मानव में क्रूरता का भाव है, वहीं अपरिमित करुणा भी है। वह विकृत होकर विश्व का सबसे बर्बर एवं नृशंस प्राणी बन सकता है और सभ्य होकर करुणा की मूर्ति बन सकता है। आहार जीवन के लिए जरूरत है, किन्तु कैसा भी आहार ग्रहण कर मृत्युंजय नहीं बना जा सकता।

यदि हम विश्व के समस्त प्राणियों की एकता के विचार को स्वीकार करें तो जैसे हमें जीने का अधिकार है, उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी जीने का प्राकृतिक अधिकार है। हर जीव ईश्वर का अंश है, इसलिए वह उतना ही पवित्र है, जितना ईश्वर। यदि हर जीव में ईश्वर का वास है, तब किसी भी जीव का वध एक प्रकार का ईश्वर दोह ही है।

हम अपने को आध्यात्मिक जीव तथा अन्य प्राणियों को अपना आखेट मान लें, यह धर्म नहीं हो सकता। मांसाहार में घृणा के बीज छिपे हैं। निरामिष आहार अहिंसा का आयाम है। कुछ लोग तर्क देते हैं कि सृष्टि में एक व्यापक आहार चक्र है। एक प्राणी दूसरे प्राणी को अपना आहार बनाता है। लेकिन इस तर्क का खंडन करते हुए प्राचीन यूनानी दार्शनिक पाइथोगोरस कहते हैं- बाघ एवं सिंह आदि के लिए आखेट उनकी प्रकृति है, किन्तु मनुष्यों के लिए विलासिता और अपराध है।

यजुर्वेद के प्रथम अध्याय के प्रथम ही मंत्र में कहा गया है, अघ्न्या यजमानस्य पशून पाहि!' अर्थात हे पुरुष, तू इन पशुओं को कभी मत मार और यजमान अर्थात सबके सुख देने वाले जनों के संबंधी पशुओं की रक्षा कर, जिनसे तेरी भी पूरी रक्षा होए। इसलिए श्रेष्ठजन केवल स्वाद के लिए निरीह पशुओं की हिंसा को पाप, अधर्म और बर्बर कृत्य मानते हैं।

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

शाकाहार : मानव विकास और सभ्यता का मूल आधार


निरामिष आहार का विकास मानव के विकास, उसकी पूर्णता तथा मानव के धार्मिक और आध्यात्मिक एकता की दिशा में बढ़ते हुए चरण हैं। सात्विक होने के लिए सदा सात्विक भोजन अपेक्षित है और उसके लिए निरामिष आहार आवश्यक है। मानव व्यक्तित्व से यदि हमें पाशविकता का उन्मूलन करना है तो हमें अपने आहार के लिए दूसरे प्राणी का जीवन लेने का मोह छोड़ना होगा।

निरामिष आहार केवल आहार की ही एक शैली नहीं, वह जीवन की भी शैली है। जिसका आधार है- सभी प्राणियों से प्रेम करना। उन्हें मनसा, वाचा, कर्मणा कोई कष्ट नहीं पहुंचाना। आहार एक साधन है, साध्य नहीं। हमें ऐसे आहार को अपनाना चाहिए जो पोषण के साथ-साथ हमारे परिवेश में एकत्व कर सके। जीवशास्त्र की दृष्टि से मनुष्य भी पशु जगत का ही एक प्राणी है, फिर भी उसमें बुद्धि और हृदयगत सुकोमल संवेदनाओं का इतना विकास हुआ है कि उसका पशु स्वभाव संयमित होता गया। उसकी यही करुणा उसे अपने आहार के लिए दूसरे प्राणी का वध करने की प्रेरणा नहीं देती।

आहार जीवन के लिए आवश्यक है, किन्तु कैसा भी आहार ग्रहण कर मृत्युंजयी नहीं बन सकते। हममें ऐसे भी कुछ तत्व हैं जो शाश्वत, चिरन्तन और सनातन हैं, जिसे आत्मतत्व कहा गया है। ये आत्मतत्व हमारे आहार पर आधारित नहीं हैं, फिर भी ये हम पर निर्भर हैं कि हम किस प्रकार का आहार करें। यदि हम विश्व के समस्त प्राणियों की एकता के विचार को स्वीकार करें तो हमें यह मानना होगा कि जैसे हमें जीनें का अधिकार है उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी जीने का प्राकृतिक अधिकार है। ‘तत्वमसि’ एवं ‘अहं ब्रह्मासि’ के सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्म एवं जीव की पूर्ण एकता है।

किसी प्राणी का वध वस्तुत: स्वयं का ही वध है। श्रेष्ठजन, मात्र स्वाद के लिए निरीह पशुओं की हिंसा में पाप, अधर्म और उसे बर्बर कृत्य मानते हैं।

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

शाकाहार से मानसिक करूणा पोषण

मानव को जीवन-उर्ज़ा पाने के लिये भोजन करना जरूरी है और इसमें कोई दो मत नहीं कि जीवित रहने के लिए स्वयं मनुष्य को अन्य जीवों पर आश्रित रहना पडता है। किन्तु सृष्टि का सबसे बुद्धिमान प्राणी होने के नाते, मानव का यह कर्तव्य है वह दूसरे जीवों के लिए भी गम्भीरता और उत्तरदायित्व पूर्वक सोचे। इसीलिए वह अपना भोजन प्रबंध कुछ इसप्रकार करे कि आहार की इच्छा होने से लेकर, बनाने और ग्रहण करनें तक, सृष्टि की जीवराशी कम से कम खर्च हो। 

निश्चित ही सुक्ष्म हिंसा तो वनस्पतिजन्य आहार में भी है। लेकिन इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं कि- 'जब  सभी तरह के आहार में हिंसा है तो जानबुझ कर, सबसे क्रूरत्तम हिंसा ही क्यों न की जाय।' यहां हमारा विवेक कहता है कि हिंसा से जितना बचा जा सके, निश्चित ही बचना चाहिए। हमें यह नहीं भुलना चाहिए, कि एक समान दिखने वाले कांच और हीरे के मूल्य में अंतर होता है। और वह अंतर सम्बंधित पदार्थ की गुणवत्ता पर आधारित होता है। उसी प्रकार एक बकरे के जीव/जीवन और एक केले के जीव/जीवन के जीवन-मूल्यों में भी भारी अंतर होता है।

आहार का चुनाव करते समय हमें अपने विवेक को वैज्ञानिक अभिगम देना होगा। वैज्ञानिक धारणा है कि सृष्टि में जीवन विकास सुक्षम एकेन्द्रिय जीव से प्रारंभ होकर पंचेंद्रिय तक क्रमशः विकास हुआ है। ऐसे में हमारा जीवन जब कम से कम विकसित जीवो (एकेन्द्रिय जीव) की हिंसा से चल सकता है तो हमें कोई अधिकार नहीं हम उससे अधिक विकसित जीवों की निर्थक हिंसा करें। विकास मॉडल के दृष्टिकोण से मात्र आहार के लिए विकसित ( पशु) की हत्या  प्रकृति के साथ जघन्य अपराध है।

प्रकृति और अर्थशास्त्र का सिद्धांत है कि संसाधनो का ज्यादा से ज्यादा विवेक और दक्षता से उपभोग किया जाय। मानव के पास बुद्धिमत्ता है इसलिए उसका यह उत्तरदायित्व है कि वह उपलब्ध संसाधनो का मितव्ययता से सर्वोत्तम प्रबंध करे। अर्थार्त कम से कम संसाधन खर्च कर अधिक से अधिक सुनियोजित उपयोग करे। शाकाहार शैली उसी तरह का सुनियोजित उपभोग है।

माँसाहार भक्षण पद्धति में  केवल एक जीव हत्या तक ही हिंसा नहीं बल्कि जब जीव की मांस के लिये हत्या की जाती है, तो जान निकलते ही उस मुर्दे पर करोडों मक्खियां अंडे  दे जाती है। पता नहीं, मक्खिओं को जान निकलनें तत्क्षण कैसे आभास हो जाता है वह मांस उसी क्षण से उन मक्खिओं के लार्वा का भोजन बनता है। किसी जिंदा जीव के मुर्दे में परिवर्तित होते ही असंख्य  सुक्ष्म जीव उस मुर्दा मांस में पैदा हो जाते है। इतना ही नहीं जहां यह मांस तैयार होता है वे बुचड्खाने व बाज़ार रोगाणुओं के घर होते है, और यह रोगाणु भी भले हानिकर हो पर होते जीव ही है। यानि एक ताज़ा मांस के टुकडे पर ही हज़ारों मक्खी के अंडे, लाखों सुक्ष्म जीव और करोडों रोगाणु होते है। इसके बाद भी जब यह पकता है और  पकने के बाद भी उस मांस में जीवोत्पती निरंतर जारी रहती है। इसलिये, भले एक जीव की हत्या माँस प्राप्त किया जाय वह एक जीव साथ साथ असंख्य जीवहत्या का कारण होता है। जीव संख्या के आधार पर भी माँसाहार अनंत जीवहिंसा का कृत्य है।

जीवन जीने की हर प्राणी में अदम्य इच्छा होती है। जब जीने के संघर्ष की बात आती है तो कीट व जंतु भी कीटनाशक दवाओं के खिलाफ़ प्रतिकार शक्ति उत्पन्न कर लेते है। सुक्ष्म जीवाणु-रोगाणु भी कुछ समय बाद रोगप्रतिरोधक दवाओं के विरुद्ध जीवन बचाने के तरिके खोज लेते है। यह उनके जीनें की अदम्य जीजिविषा का परिणाम होता है। सभी जीना चाहते है मरना कोई नहीं चाहता। ऐसे में प्राण बचाने को संघर्षरत पशुओं को मात्र स्वाद के लिये मार खाना तो क्रूरता की पराकाष्ठा है।

येन केन पेट भरना ही मानव का लक्षय नहीं है। यह तो पशुओं का लक्षण है। प्रकृति प्रदत्त बुद्धि से ही हमने सभ्यता साधी। मानव- बुद्धि हमें विवेकशीलता प्रदान करती है, कि हमारे विचार और व्यवहार सौम्य व पवित्र रहे। यह निर्विवाद है कि हिंसा जन्य आहार लेने से हिंसा के प्रति सम्वेदनाएं समाप्तप्राय हो जाती है। किसी दूसरे जीव के प्रति दया करूणा के भाव प्रकट खत्म हो जाते है। निर्थक-निष्प्रयोजन हिंसा-भाव मन में रूढ हो जाता है। शनै शनै आवेश और  निष्ठुरता हमारे आचरण में समाहित होती चली जाती है। ऐसी मनोदशा में कभी हमारे सुख की प्रतिकूल दशा में निष्ठुर आवेगोंवश आवेश में हिंसक कृत्य की भी सम्भावनाएं बन जाती है। निश्चित ही आहार हमारे विचारों को इसी तरह प्रभावित करता है।

सम्वेदनाओं के संरक्षण के लिए शाकाहार ही हमारी पहली पसंद होना चाहिए। और जहां भी सात्विक पौष्ठिक शाकाहार प्रचूरता से उपलब्ध है वहां हमें जीवों को करूणा दान, अभयदान देना ही श्रेयस्कर है।
लेखक- हंसराज 'सुज्ञ’

शाकाहारी संस्कृति का संरक्षण ही हमारी सुरक्षा है।

पुरातन सुसभ्य भारतीय संस्कृति पर निरन्तर पश्चिमि और मध्य पश्चिमि संस्कृतियों का अब वैचारिक आकृमण हो रहा है। यह कुसंस्कृतियाँ हमारी विकसित और सुसंस्कृत सभ्यता को पुरातन कहकर नष्ट भ्रष्ट करने पर आमदा है। असभ्य, कबीलाई और जंगली माहोल में पनपी यह कुसंस्कृतियां, सैंकडों बरसों से, सभ्यता के शीर्ष पर स्थापित हमारी संस्कृति को, भोगवाद और भौतिक चकाचौध के प्रलोभन देकर पुनः जंगली बनाने को आतुर है।

समानता साम्यता और यक्सां के नाम पर हीन व पतन के स्तर पर उतारनें को उतारू यह संस्कृतियाँ, अपनी संस्कृतियों में भी शान्ति, भाईचारा, प्रेम के उपदेश बताकर भ्रमित करती रहती है। किन्तु ये सब गुण जिस महागुण के बायप्रॉडक्ट है, वह है अहिंसा!! अहिंसा भी समस्त जीव-मात्र के लिये।

अहिंसा व जीवदया भारत की पवित्र भूमि का सात्विक उत्कृष्ट और विलक्षण सिद्धान्त है। भारतीय धर्म-दर्शनों ने मांस मदिरा जुआ परनारीसेवन आदि को दुर्गुणी के व्यसन कहकर सदैव धिक्कारा है। मांसभक्षण को स्वीकार्य मानने वाले वे पर-दर्शन सम्प्रदाय, हमारे अहिंसा के सिद्धांत के समक्ष टिकना तो दूर दृष्टि मिलाने में सक्षम नहीं है। और तो और स्वयं को धर्म के नाम पर मांसभक्षण से इस कदर जोडे हुए है कि चाह कर भी सभ्यता उन्मुख नहीं हो सकते। अतः शाकाहार शैली सभ्य-सात्विक संस्कृति का श्रेष्ठ पर्याय है। मांसाहारी शैली से समानता दर्शाने के कुटिल प्रयत्न धराशायी होंगे। सात्विकता उनके सभी कुटिल प्रलोभनों की अमोघ काट है, सात्विकता है हमारी  संस्कृति में व्याप्त ‘अहिंसा’ व 'जीवदया'।

दया-करूणा के इन सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्तों से रति भर समानता करने का उनका सामर्थ्य नहीं है। जीव हिंसा की बात आते ही वे संम्वेदनहीन कुसंस्कृतियां हथियार डालनें को विवश हो जाती है। अहिंसा हमारी सभ्य सुसंस्कृति का अनमोल सार तत्व है, जिसका सीधा सम्बंध शाकाहार से है। सत्विकता से है। यह अहिंसा भाव ही हमें दया-करूणा पर आस्थावान रखता है। परिणाम स्वरूप क्रोध, अशान्ति, प्रतिशोध, लड़ाई व अराजकता से हमें दूर रखता है। अहिंसक समाज की रचना के लिये दया करूणा युक्त संवेदनाओं को संरक्षण देना आवश्यक है। निश्चित ही विश्वगुरू भारत अपनी विशिष्ठ धरोहर, शाकाहार के पारंपरिक जीवनमूल्यों से अपनी विशिष्ठ संस्कृति की रक्षा में समर्थ है।

निरामिष विचारधारा


शान्ति का समुचित उपाय,  अहिंसा

सम्पूर्ण जगत में प्रत्येक जीव के लिए सुख का आधार शान्ति ही है। शान्ति का लक्ष्य अहिंसा से ही सिद्ध किया जा सकता है। संसार में आहार पूर्ती के लिए सर्वाधिक हिंसा होती है। जीवदया का मार्ग सात्विक आहार से ही प्रशस्त होता है। सुक्ष्म हिंसा तो कईं सजीव पदार्थों में भी सम्भव है, किन्तु शाकाहार, अपरिहार्य हिंसा का भी अल्पीकरण है जो अपने आप में अहिंसाभाव है। जबकि जो लोग मात्र स्वाद और पेटपूर्ती के स्वार्थवश, दूसरे जीवों को पीड़ा देकर किंचित भी आहत नहीं होते। जो निसंकोच हिंसा और मांसाहार करते है, वे हिंसा और निर्दयता को महज साधारण भाव से ग्रहण करने लगते है। फिर भी मन की सोच पर आहार का स्रोत हावी ही रहता है,यदि वह स्रोत क्रूरता प्रेरित है तो उसका चिंतन हमारी सम्वेदनाओं का क्षय कर देता है। हमारी कोमल भावनाओं को निष्ठुर बना देता है। अन्ततः इस अनैतिक कार्य के प्रति एक सहज वृति  पनपती है। मांसाहार के लिए प्राणहरण, मानस में क्रूर भाव का आरोपण करता है जो हिंसक मनोवृति के लिए जवाबदार है। मांसाहार द्वारा कोमल सद्भावनाओं का नष्ट होना व स्वार्थ व निर्दयता की भावनाओं का पनपना आज विश्व में बढ़ती हिंसा, घृणा व अपराधों का मुख्य कारण है। पृथ्वी पर शान्ति, शाकाहार से ही सम्भव है। जीवदया और करूणा भाव हमारे मन में कोमल सम्वेदनाओं को स्थापित करते है। यही सम्वेदनाएं हमें मानव से मानव के प्रति भी सम्वेदनशील बनाए रखती है। शाकाहार मानवीय जीवन-मूल्यों का संरक्षक है। इसलिए अहिंसा ही शान्ति और सुख का अमोघ उपाय है।  

धर्म-दर्शन अभिप्रायः

लगभग सभी धार्मिक सामाजिक परम्पराओं में 'जीवन' के प्रति आदर व्यक्त हुआ है, परंतु "अहिंसा परमो धर्मः" या “दया धर्म का मूल है” का सिद्धांत भारतीय संस्कृति की एकमेव विलक्षण विशेषता है। चाहे कोई भी धर्मग्रंथ हो, हिंसा के विधान किसी भी अपौरूषेय वाणी में नहीं है। आर्षवचन के भव्य प्रासाद, सदैव ही अहिंसा, करुणा, वात्सल्य और नैतिक जीवन मूल्यों की ठोस आधारशीला पर रखे जाते हैं। सारे ही उपदेश जीवन को अहिंसक बनाने के लिए ही गुंथित है और अहिंसक मनोवृति का प्राथमिक कदम शाकाहार है।  

सभ्यता और संस्कृति

शाकाहार की प्रसंशा करना शुद्धता या पवित्रता का दंभ नहीं है। शाकाहार अपने आप में स्वच्छ और सात्विक है। इसलिये शुद्धता और पवित्रता सहज अभिव्यक्त होती है। आहार की शुचिता भारतीय संस्कृति एवं चेतना के समस्त प्रवाहों का केन्द्र रही है जो शाकाहार को मात्र भोजन के आयाम पर अभिकेन्द्रित नहीं करती, वरन् इसे समस्त दर्शन और सहजीवन के सौहार्द से सज्जित, जीवन-पद्धति के रूप में आख्यादित करती है। शाकाहार, क्रूरता विहीन जीवन संस्कृति की बुनियाद है, जिसमें सह अस्तित्व के प्रति अनुकम्पा, वात्सल्य, और करूणा के स्वर अनुगुन्जित होते है। भले ही मानव अभक्ष्य आहार की आदत डाल ले अभ्यास से आदतें बनना सम्भव है पर मानव शरीर की प्रकृति शाकाहार के ही अनुकूल है। यदपि मनुष्य अपनी उत्पत्ती से  शाकाहारी ही रहा है, प्रागैतिहासिक मानव शाकाहार करता था यह प्रमाणित है। तथापि सभ्यता की मांग होती है जंगली जीवन से सुसभ्य जीवन की ओर उत्थान करना, विकृत आहार त्याग कर सुसंस्कृत आहारी बनना। शाकाहार, आदिमयुग से सभ्यता की विकासगामी धरोहर है। यह मानवीय जीवन-मूल्यों का प्रेरकबल है। सभ्यता, निसंदेह शान्ति की वाहक होती है। शाकाहार शैली सुसभ्य संस्कृति है।

 प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण

यदि सभ्यता विकास और शान्त सुखप्रद जीवन ही मानव का लक्ष्य है तो उसे शाकाहार के स्वरूप में प्रकृति के संसाधनों का कुशल प्रबंध करना ही होगा। वन सम्पदा में पशु-पक्षी आदि, प्राकृतिक सन्तुलन के अभिन्न अंग होते है। प्रकृति की एक समग्र जैव व्यवस्था होती है। उसमें मानव का स्वार्थपूर्ण दखल पूरी व्यवस्था को विचलित कर देता है। मनुष्य को कोई अधिकार नहीं प्रकृति की उस नियोजित व्यवस्था को अपने स्वाद, सुविधा और सुन्दरता के लिए खण्डित कर दे। मानव के पास ही वह बुद्धिमत्ता है कि वह उपलब्ध संसाधनो का सर्वोत्तम प्रबंध करे। अर्थार्त कम से कम संसाधन खर्च कर अधिक से अधिक उसका लाभ प्राप्त करे। जीवहिंसा से पर्यावरण संतुलन विखंडित होता है, जो प्राकृतिक आपदाओ का प्रेरकबल बनता है। शाकारहार अपने आप में सृष्टि का मितव्ययी उपभोग है, प्राकृतिक संसाधनो के संरक्षण में प्रथम योगदान है।सृष्टि के प्रति हमारा सहजीवन उत्तरदायित्व है कि वह जीवों का विनाश न करे यह प्रकृति की बहुमूल्य निधि है। जीवराशी का यथोचित संरक्षण शाकाहार से ही सम्भव है, प्राकृतिक संसाधनो का संयमपूर्वक उपभोग अर्थात् शाकाहार। धरा की पर्यावरण सुरक्षा शाकाहार में आश्रित है। वैश्विक भूखमरी का निदान भी शाकाहार है। वैश्विक खाद्य समस्या का सर्वोत्तम विकल्प शाकाहार है। यह तो मज़ाक ही है कि शाकाहार से अभावग्रस्त, दुरूह क्षेत्र की आहार शैली का सम्पन्न क्षेत्र में भी अनुकरण किया जाय। अधिसंख्यजन यदि इसके आदी है तो उनका अनुकरण किया जाय। यह न्यायोचित विवेक नहीं है। अपरिहार्य सुक्ष्म हिंसा में भी विवेक जरूरी है। विश्व स्वास्थ्य भी शाकाहार में निहित है। कुल मिलाकर पर्यावरण का अचुक उपचार एकमात्र शाकाहार शैली को अपनाना है।  

संतुलित पोषण आधार

आधुनिकता की होड़ में, हमारी संस्कृति, हमारे आचार- विचार आदि  को दकियानूसी कहने वाले, इस झूठी घारणा के शिकार हो रहे है कि शाकाहारी भोजन से उचित मात्रा में प्रोटीन और पोषक तत्व प्राप्त नहीं होते। जबकि आधुनिक विशेषज्ञों और शरीर वैज्ञानिकों की शोध से यह भलीभांति प्रमाणित है कि शाकाहारी आहार में न केवल उच्च कोटि के प्रोटीन होते है, अपितु सभी आवश्यक पोषक तत्व जैसे- विटामिन्स, वसा और कैलॉरी पूर्ण संतुलित,  गुणवत्ता युक्त, सपरिमाण मात्रा में प्राप्त होते है। विशेषतया खनिज तो शाकाहारी पदार्थों में पर्याप्त मात्रा में  उपलब्ध होते ही है। उससे बढ़कर, आन्तरिक शरीर को 'निर्मल' और 'निरोग' रखनें में सहायक निरामय ‘रेशे’ (फ़ाइबर्स) तो मात्र, शाकाहार से ही प्राप्त किए जा सकते है। शाकाहार संतुलित पोषण का मुख्य स्रोत है, शाकाहार से प्रथम श्रेणी की प्राथमिक उर्जा प्राप्त की जाती है। शाकाहार, उर्ज़ा और शारिरिक प्रतिरक्षा प्रणाली  का प्रमुख आधार है।  

आरोग्य वर्धक

शाकाहार में  आहार-रेशे पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते है। आहार-रेशों की विध्यमानता से पाचन तंत्र की कार्य-प्रणाली सुचारू संचालित होती है। निरामिष भोजन में न हानिकर कोलेस्ट्रॉल की अति होती है न प्राणीजन्य प्रोटीन का संकलन। परिणाम स्वरूप  व्यक्ति, मनोभ्रंश (अल्जाइमर), गॉल्ब्लैडर की पथरी (गॉलस्टॉन), मधुमेह (डायबिटीज टाइप-2) , अस्थि-सुषिरता (ऑस्टियोपोरोसिस), संधिवात (आस्टियो आर्थराइटिस), उदर समस्या (लीवर प्रॉबलम), गुर्दे की समस्या (किड़नी प्रॉबलम), मोटापा, ह्रदय रोग, उच्च रक्तचाप, दंतक्षय (डेन्टल कैवेटिज), आंतो का केन्सर, कब्ज कोलाइटिस, बवासीर जैसी बिमारियों से काफी हद तक बचा रहता है। इस दृष्टि से शाकाहार पूर्णतःआरोग्यप्रद है। विश्व स्वास्थ्य समस्यांए शाकाहार से समाधान पा सकती है। शाकाहारी पदार्थों में वे तत्व बहुलता से पाए जाते हैं जो हमारी रोगप्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करते है।
मानव कल्याण भावना से सादर

शाकाहार निरूपण

आरोग्य वर्धक (स्वास्थ्यप्रद शाकाहार) 
  1. स्वस्थ व दीर्घ जीवन का आधार है शाकाहार। 
  2. आरोग्य संवर्धक है शाकाहार। 
  3. विश्व स्वास्थ्य शाकाहार में निहित है। 
  4. रोगप्रतिरोध शक्तिवर्धक है शाकाहार। 
सभ्य-खाद्याचार (सुसंस्कृत सभ्य आहार) 
  1. अप्राकृतिक भोज्य विकृति का सुसंस्कृत रूप है शाकाहार । 
  2. आदिमयुग से विकास और सभ्यता की धरोहर है शाकाहार। 
  3. शाकाहारी संस्कृति का संरक्षण ही हमारी सुरक्षा है। 
  4. मानवीय जीवन-मूल्यों का संरक्षक है शाकाहार। 
तर्कसंगत-विकल्प (सर्वांग न्यायसंगत) 
  1. प्रागैतिहासिक मानव, प्राकृतिक रूप से शाकाहारी ही था। 
  2. मनुष्य की सहज वृति और उसकी कायिक प्रकृति दोनो ही शाकाहारी है।
  3. मानव शरीर संरचना शाकाहार के ही अनुकूल। 
  4. शाक अभावग्रस्त दुर्गम क्षेत्रवासी मानवो का अनुकरण मूर्खता!!
  5. सभ्यता व विकास मार्ग का अनुगमन या भीड़ का अंधानुकरण? 
  6. यदि अखिल विश्व भी शाकाहारी हो जाय, सुलभ होगा अनाज!!
  7. भुखमरी को बढाते ये माँसाहारी और माँस-उद्योग!!
  8. शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल !!! 
  9. हिंसा का अल्पीकरण करने का संघर्ष भी अपने आप में अहिंसा है। 
  10. प्रोटीन प्रलोभन का भ्रमित दुष्प्रचार।
  11. विटामिन्स का दुष्प्रचार।
  12. उर्ज़ा व शक्ति का दुष्प्रचार। 
"निर्जर निरामिष" - अमृत है शाकाहार
"निरोगी निरामिष" - स्वास्थ्यप्रद है शाकाहार
"निर्विकार निरामिष" - विकार रहित है शाकाहार
"निरापद निरामिष" - आपदा रहित है शाकाहार
"निसर्गमित्र निरामिष" - पर्यावरण मित्र है शाकाहार
"निर्मल निरामिष" - शुद्ध सात्विक है शाकाहार

शाकाहार जागृति अभियान : निरामिष ब्लॉग परिचय

निरामिष-आहार, निर्मल-विचार, निर्दोष-आचार, निरवध्य-कर्म, निरावेश-मानस।

अहिंसा जीवन का आधार है, सहजीवन का सार है और जगत के सुख और शान्ति का एक मात्र उपाय है। अहिंसा के कोमल और उत्कृष्ट भाव में समस्त जीवों के प्रति अनुकम्पा और दया छिपी है। अहिंसा प्राणीमात्र के लिए शान्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। स्पष्ट है कि किसी भी जीव को हानि पहुँचाना, किसी प्राणी को कष्ट देना अनैतिक है। यूँ तो सभी धार्मिक सामाजिक परम्पराओं में जीवन का आदर है परंतु "अहिंसा परमो धर्मः" का उद्गार भारतीय संस्कृति की एकमेव अभिन्न विशेषता है। अपौरुषेय वचन के तानेबाने अहिंसा, प्रेम, करुणा और नैतिकता के मूल आधार पर ही बुने गये हैं।

चूँकि आहार जीवन की एक मुख्य आवश्यकता है, इसलिये अहिंसा भाव का प्रारंभ आहार से ही होता है और हम अपना आहार निर्वध्य रखते हुए सात्विक निर्दोष आहार की ओर बढते हैं तो हमारे जीवन में सात्विकता प्रगाढ होती है। इसीलिये "निरामिष" आहार पर हमारा विशेष आग्रह है। जीवदया का मार्ग सात्विक आहार से प्रशस्त होता है। ज्ञातव्य है कि कुछ लोगों के लिये भोजन भी एक अति-सम्वेदनशील विषय है यद्यपि सभ्य समाज में हिंसा को सही ठहराने वाले लोग मांसाहारियों में भी कम ही मिलते हैं। सिख, बौद्ध, हिन्दू, जैन समुदाय में तो शाकाहार सामान्य ही है परंतु इनके बाहर भी कितने ही ईसाई, पारसी और मुसलमान शुद्ध शाकाहारी हैं जो जानते बूझते किसी प्राणी को दुख नहीं देना चाहते हैं, स्वाद के लिये हत्या का तो सवाल ही नहीं उठता। इस प्रकार हम देखते हैं कि अहिंसा जैसे दैवी गुण धर्म, क्षेत्र, रंग, जाति भेद आदि के बन्धनों से कहीं ऊपर हैं। जब यह कोमल भाव हमारे अन्तर में दृढभूत हो जाते हैं तब मानव की मानव के प्रति हिंसा भी रुकती है जो कि आज संसार भर में एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है।

आज कई मांसाहार प्रचारक अपने निहित स्वार्थों, व्यवसायिक हितों, या धार्मिक कुरीतियों के वशीभूत होकर अपना योजनाबद्ध षड्यंत्र चला रहे हैं। वस्तुतः कुसंस्कृतियाँ सामिष आहार के माध्यम से ही आक्रमण करने को तत्पर है। न केवल विज्ञान के नाम पर भ्रामक और आधी-अधूरी जानकारियाँ दी जा रही हैं, बल्कि अक्सर धर्मग्रंथों की अधार्मिक व्याख्यायें भी इस उद्देश्य के लिये प्रचार माध्यमों से फैलाई जा रही हैं। यह सब हमारी अहिंसक संस्कृति को दूषित कर पतित बनाने का प्रयोजन है। ऐसे सामिष प्रचारी 'हर आहार के प्रति सौहार्द', 'आहार चुनाव की स्वतंत्रता', व 'आवेश उत्थान शक्ति' आदि भ्रांत तर्कों के माध्यम से प्रभावित करते नज़र आते है। हमारी नवपीढी सामिष दुष्प्रचार की शिकार हो रही है। कहीं अधिक पोषण का झांसा दिया जा रहा है तो कहीं स्वास्थ्य का, कही खाद्य अभाव का रोना रोया जाता है और कभी स्टेटस सिंबल का प्रलोभन। जबकि उसके पीछे सच्चाई का अंश भी नहीं है।

‘निरामिष’ सामुदयिक ब्लॉग एक जागृति अभियान है, एक दयावान, करूणावान ‘निरामिष समाज’ के निर्माण का। हमारा मुख्य प्रयोजन, जगत में शान्ति के उद्देश्य से अहिंसा भाव के प्रसार का है। मनुष्य के हृदय में अहिंसा भाव परिपूर्णता से स्थापित नहीं हो सकता जब तक उसमें निरीह जीवों पर हिंसा कर मांसाहार करने का जंगली संस्कार विद्यमान हो। शाकाहार समर्थन के लिए लोकहित में यहां तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ लेख उपलब्ध होंगे। हमारी निष्ठा सत्य और अहिंसा के प्रति है। हमारा प्रयत्न यहाँ पर अहिंसा और जीवदया के उस गौरव को पुनर्स्थापित करना है जो सदा से भारतीय संस्कृति की आधारशिला रहा है। "निरामिष" पर उपलब्ध सभी सामग्री न केवल श्रमसाध्य है बल्कि हमारी विशेष निष्ठा इस बात पर है कि यहाँ केवल विश्वसनीय सामग्री ही उपलब्ध हो।

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सात्विक-आहार, स्वस्थ-आरोग्य, सौम्य-विचार, सुरूचि-व्यवहार, सद्चरित्र