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गुरुवार, 31 मार्च 2011

माँसाहार अर्थात वैश्विक अशान्ति का घर


माँसाहार को अगर "अशान्ति का घर" कहा जाये, तो शायद कुछ गलत नहीं होगा. डा. राजेन्द्र प्रसाद जी नें एक बार कहा था कि-


"अगर संसार में शान्ति कायम करनी है तो उसके लिए दुनिया से माँसाहार को समाप्त करना होगा. बिना माँसाहार पर अंकुश लगाये ये संसार सदैव अशान्ति का घर ही बना रहेगा".


डा. राजेन्द्र प्रसाद जी नें कितनी सही बात कही है. ये कहना बिल्कुल दुरुस्त है कि माँसाहार के चलते दुनिया में शान्ति कायम नहीं रह सकती. शाकाहारी नीति का अनुसरण करने से ही पृथ्वी पर शान्ति, प्रेम, और आनन्द को चिरकाल तक बनाये रखा जा सकता है, अन्यथा नहीं.

पश्चिमी विद्वान मोरिस सी. किघली का भी कुछ ऎसा ही मानना है. उनके शब्दों में कहा जाए, तो " यदि पृथ्वी पर स्वर्ग का साम्राज्य स्थापित करना है तो पहले कदम के रूप में माँस भोजन को सर्वथा वर्जनीय करना होगा, क्योंकि माँसाहार अहिँसक समाज की रचना में सबसे बडी बाधा है".

आज जहाँ शाकाहार की महत्ता को स्वीकार करते हुए माँसाहार के जनक पश्चिमी राष्ट्रों तक में शाकाहार को अंगीकार किया जाने लगा है, उसके पक्ष में आन्दोलन छेडे जा रहे हैं, जिसके लिए न जाने कितनी संस्थायें कार्यरत हैं. पर अफसोस! भगवान राम और कृष्ण के भक्त, शाकाहारी हनुमान जी के आराधक, भगवान महावीर के 'जितेन्द्रिय', गुरू नानक जी के निर्मल चित्त के चित्तेरे, कबीर के 'अविनाशी' पद को प्राप्त करने की परीक्षा में लगे हुए साधक, महर्षि दयानन्द जी के अहिँसक आर्य समाजी और रामकृष्ण परमहँस के 'चित्त परिष्कार रेखे' देखने वाले इस देश भारत की पावन भूमी पर "पूर्णत: शुद्ध शाकाहारी होटलों" को खोजने तक की आवश्यकता आन पडी है. आज से सैकडों वर्ष पहले महान दार्शनिक सुकरात नें बिल्कुल ठीक ही कहा था, कि-----"इन्सान द्वारा जैसे ही अपनी आवश्यकताओं की सीमाओं का उल्लंघन किया जाता है, वो सबसे पहले माँस को पथ्य बनाता है.". लगता है जैसे सीमाओं का उल्लंघन कर मनुष्य 'विवेक' को नोटों की तिजोरी में बन्द कर, दूसरों के माँस के जरिये अपना माँस बढाने के चक्कर में लक्ष्यहीन हो, किसी अंजान दिशा में घूम रहा हो.......

आईये हम माँसाहार का परिहार करें-----"जीवो जीवस्य भोजनं" अर्थात जीव ही जीव का भोजन है जैसे फालतू के कपोलकल्पित विचार का परित्याग कर "मा हिँसात सर्व भूतानि" अर्थात किसी भी जीव के प्रति हिँसा न करें----इस विचार को अपनायें.

माँस एक प्रतीक है---क्रूरता का, क्योंकि हिँसा की वेदी पर ही तो निर्मित होता है माँस. माँस एक परिणाम है "हत्या" का, क्योंकि सिसकते प्राणियों के प्रति निर्मम होने से ही तो प्राप्त होता है--माँस. माँस एक पिंड है तोडे हुए श्वासों का, क्योंकि प्राण घोटकर ही तो प्राप्त किया जाता है--माँस. माँस एक प्रदर्शन है विचारहीन पतन का, क्योंकि जीवों के प्रति आदर( Reverence of Life) गँवाकर ही तो प्राप्त किया जाता है, माँस.

इसके विपरीत शाकाहार निर्ममता के विपरीत दयालुता, गन्दगी के विपरीत स्वच्छता, कुरूपता के विरोध में सौन्दर्य, कठोरता के विपरीत संवेदनशीलता, कष्ट देने के विपरीत क्षमादान, जीने का तर्क एवं मानसिक शान्ति का मूलाधार है. 

अब ये आप को सोचना है कि क्या आप अब भी माँस जैसे इस जड युगीन अवशेष से अपनी क्षुधा एवं जिव्हा लोलुपता को शान्त करते रहना चाहेंगें....................

रविवार, 20 मार्च 2011

शाकाहार : स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन की कुंजी

किसी पश्चिमी विद्वान नें शान्ती की परिभाषा करते हुए लिखा है, कि-  "एक युद्ध की सामप्ति और दूसरे युद्ध की तैयारी---इन दोनों के बीच के अन्तराल को शान्ति कहते हैं". आज हकीकत में हमारे स्वास्थय का भी कुछ ऎसा ही हाल है. "जहाँ एक बीमारी को दबा दिया गया हो और द्सरी होने की तैयारी में हो, उस बीच के अन्तराल को हम कहते हैं---स्वास्थ्य". क्योंकि इससे बढ़कर अच्छे स्वास्थ्य की हमें अनुभूति ही नहीं हो पाती.

आज समूची दुनिया एक विचित्र रूग्ण मनोदशा से गुजर रही है. उस रूग्ण मनोदशा से छुटकारा दिलाने के लिए लाखों-करोडों डाक्टर्स के साथ साथ वैज्ञानिक भी प्रयोगशालाओं में दिन-रात जुटे हैं. नित्य नई नईं दवाओं का आविष्कार किया जा रहा है लेकिन फिर भी सम्पूर्ण मानवजाति अशान्त है, अस्वस्थ है, तनावग्रस्त है और न जाने कैसी विचित्र सी बेचैनी का जीवन व्यतीत कर रही है. जितनी दवायें खोजी जा रही हैं, उससे कहीं अधिक दुनिया में मरीज और नईं-नईं बीमारियाँ बढती चली जा रही हैं. इसका एकमात्र कारण यही है कि डाक्टर्स, वैज्ञानिक केवल शरीर का इलाज करने में लगे हैं, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इस पर विचार किया जाये कि इन्द्रियों और मन को स्वस्थ कैसे बनाया जाये. कितना हास्यस्पद है कि 'स्वस्थ इन्द्रियाँ' और 'स्वस्थ मन' कैप्स्यूल्स, गोलियों, इन्जैक्शन और सीलबन्द प्रोटीन-विटामिन्स के डिब्बों में बेचने का निहायत ही मूर्खतापूर्ण एवं असफल प्रयास किया जा रहा है.
दरअसल पेट को दवाखाना बनने से रोकने और उत्तम स्वास्थ्य का केवल एक ही मार्ग है-----इन्द्रियाँ एवं मन की स्वस्थ्यता और जिसका मुख्य आधार है------आहार शुद्धि. आहार शुद्धि के अभाव में आज का मानव मरता नहीं, बल्कि धीरे-धीरे अपनी स्वयं की हत्या करता है. हम अपने दैनिक जीवन में शरीर का ध्यान नहीं रखते,खानपान का ध्यान नहीं रखते. परिणामत: अकाल में ही काल कलवित हुए जा रहे हैं.

आईये इस आहार शुद्धि के चिन्तन के समय इस बात पर विचार करें कि माँसाहार इन्सान के लिए कहाँ तक उचित है. अभी यहाँ हम स्वास्थ्य चिकित्सा के दृ्ष्टिकोण से इस विषय को रख रहे हैं. आगामी पोस्टस में वैज्ञानिक, धार्मिक, नैतिक इत्यादि अन्य विभिन्न दृष्टिकोण से हम इन बिन्दुओं पर विचार करेगें.....
स्वास्थ्य चिकित्सा एवं शारीरिक दृष्टि से विचार करें तो माँसाहार साक्षात नाना प्रकार की बीमारियों की खान है:-
1. यूरिक एसिड से यन्त्रणा---यानि मृत्यु से गुप्त मन्त्रणा:-
सबको पता है कि माँस खाने से शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा बढ जाती है. ओर ये बढा हुआ यूरिक एसिड इन्सान को होने वाली अनेक बीमारियों जैसे दिल की बीमारी, गठिया, माईग्रेन, टी.बी और जिगर की खराबी इत्यादि की उत्पत्ति का कारण है. यूरिक एसिड की वृद्धि के कारण शरीर के अवयव Irritable, Painful & Inflamed हो जाते हैं, जिससे अनेक रोग जन्म लेते हैं.
2. अपेडीसाइटीज को निमन्त्रण:-
अपेन्डीसाइटीज माँसाहारी व्यक्तियों में अधिक होता है. फ्रान्स के डा. Lucos Champoniere  का कहना है कि शाकाहारियों मे अपेन्डासाइटीज नहीं के बराबर होती है. " Appendicites is practically unknown among Vegetarians."
3. हड्डियों में ह्रास (अस्थिक्षय):-
अमेरिका में हावर्ड मेडिकल स्कूल, अमेरिका के डा. ए. वाचमैन और डा. डी.ए.वर्नलस्ट लैसेंट द्वारा प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि मासाँहारी लोगोम का पेशाब प्राय: तेजाब और क्षार का अनुपात ठीक रखने के लिए हड्डियों में से क्षार के नमक खून में मिलते हैं और इसके विपरीत शाकाहारियों के पेशाब में क्षार की मात्रा अधिक होती है, इसलिए उनकी हड्डियों का क्षार खून में नहीं जाता और हड्डियों की मजबूती बरकरार रहती है. उनकी राय में जिन व्यक्तियों की हड्डियाँ कमजोर हों, उनको विशेष तौर पर अधिक फल, सब्जियों के प्रोटीन और दूध का सेवन करना चाहिए और माँसाहार का पूर्ण रूप से त्याग कर देना चाहिए.
4. माँस-मादक(उत्तेजक): शाकाहार शक्तिवर्द्धक:-
शाकाहार से शक्ति उत्पन होती है और माँसाहार से उत्तेजना. डा. हेग नें शक्तिवर्द्धक और उत्तेजक पदार्थों में भेद किया है. उत्तेजना एक वस्तु है और शक्ति दूसरी. माँसाहारी पहले तो उत्तेजनावश शक्ति का अनुभव करता है किन्तु शीघ्र थक जाता है, जबकि शाकाहार से उत्पन्न शक्ति शरीर द्वारा धैर्यपूर्वक प्रयोग में लाई जाती है. शरीर की वास्तविक शक्ति को आयुर्वेद में 'ओज' के नाम से जाना जाता है और दूध, दही एवं घी इत्यादि में ओज का स्फुरण होता है, जबकि माँसाहार से विशेष ओज प्रकट नहीं होता.
5. दिल का दर्दनाक दौरा:-
यों तो ह्रदय रोग के अनेक कारण है. लेकिन इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि उनमें से माँसाहार और धूम्रपान दो बडे कारणों में से हैं. वस्तुत: माँसाहारी भोजन में कोलोस्ट्रोल नामक् चर्बी तत्व होता है, जो कि रक्त वाहिनी नलिकाओं के लचीलेपन को घटा देता है. बहुत से मरीजों में यह तत्व  उच्च रक्तचाप के लिए भी उत्तरदायी होता है. कोलोस्ट्राल के अतिरिक्त यूरिक एसिड की अधिकता से व्यक्ति "रियूमेटिक" का शिकार हो जाता है. ऎसी स्थिति में आने वाला दिल का दौरा पूर्णत: प्राणघातक सिद्ध होता है. 
(Rheumatic causes inflammation of tissues and organs and can result in serious damage to the heart valves, joints, central nervous system)
माँस-मद्य-मैथुन----मित्रत्रय से "दुर्बल स्नायु" (Nervous debility):-
माँस एक ऎसा उत्तेजक अखाद्य पदार्थ है, जो कि इन्सान में तामसिक वृति की वृद्धि करता है. इसलिए अधिकांशत: देखने में आता है कि माँस खाने वाले व्यक्ति को शराब का चस्का भी देर सवेर लगने लग ही जाता है, जबकि शाकाहारियों को साधारणतय: शराब पीना संभव नहीं. एक तो माँस उत्तेजक ऊपर से शराब. नतीजा यह होता है कि माँस और मद्य के सेवन से मनुष्य के स्नायु इतने दुर्बल हो जाते हैं कि मनुष्य के जीवन में निराशा भावना तक भर जाती है. फिर एक बात ओर---माँस और मद्य की उत्तेजना से मैथुन(सैक्स) की प्रवृति का बढना निश्चित है. परिणाम सब आपके सामने है. इन्सान का वात-संस्थान (Nerve System ) बिगड जाता है और निराशा दबा लेती है. धर्मशास्त्रों के वचन पर मोहर लगाते हुए  टोलस्टॉय के शब्दों मे विज्ञान का भी कुछ ऎसा ही कहना है-
"Meat eating encourages animal passions as well as sexual desire."

गुरुवार, 17 मार्च 2011

सम्वेदनाओं के संरक्षण भाव से बढ़ती है शाकाहार रूचि

हिंसा चाहे धर्म पर अथवा ईश्वर के नाम पर ही क्यों न की जाय, हिंसा, हिंसा ही होती है। हिंसा किसी भी काल में नैतिक नहीं बन सकती, न कभी हिंसा अनुकरणीय हो सकती है। हिंसा का अन्त सदैव प्रतिशोधपूर्ण हिंसा पर ही खत्म होता है। हिंसा किसी भी प्रयोजन से की जाय, कभी भी, किसी के लिए भी कल्याणकारी नहीं हो सकती। हिंसक दृश्य और क्रूर सोच प्रेरित मानसिकता, हमारी मनोवृति पर दुष्प्रभाव ही डालती है। हमारी सम्वेदनाएं शिथिल होती जाती और अन्तः हिंसा हमारे अवचेतन में हमारी विचार, वाणी, स्वभाव में समाहित हो जाती है, जो हमारे व्यवहार व वर्तन में प्रकट होने लगती है।

मानसिक क्रियाओं का मानवीय जीवन-व्यवहार पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। अच्छे बुरे विचार ही व्यक्ति को अच्छा या बुरा बनाते है। व्यवहार शुद्ध बनाने के लिए, विचारों को उत्तरोत्तर शुद्ध बनाया जाना आवश्यक है। बिना किसी जीव की हिंसा किये मांस प्राप्त करना असम्भव है, और ऐसे अभक्ष्य से विरत हुए बिना अहिंसा-भाव को ह्रदय में स्थान देना दुष्कर है। उसीतरह अहिंसा-भाव के अभाव में, दिल से प्रेम, दया और करूणा का झरना बहना नामुमकिन है। हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न सामिष अभक्ष्य से हिंसक मनोवृति रूढ़ बन जाना स्वभाविक है।

पिछले दिनों अमेरिका के एक अंतरराष्ट्रीय शोध दल ने इस बात को प्रमाणित किया कि मांसाहार का असर व्यक्ति की मनोदशा पर भी पड़ता है। शोधकर्ताओं ने अपने शोध में पाया कि लोगों की हिंसक प्रवत्ति का सीधा संबंध मांसाहार के सेवन से है। अध्ययन के परिणामों ने इस बात की ओर संकेत दिया कि मांसाहार के नियमित सेवन के बाद युवाओं में धैर्य की कमी, छोटी-छोटी बातों पर हिंसक होने और दूसरों को नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है।

इसलिए अब सहजता से कहे जाते इस कथन का कोई औचित्य नहीं कि ‘जरूरी नहीं मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हों’। कदाचित न भी हों, पर संभावनाएं अत्यधिक ही होती है। विवेकवान व्यक्ति तो, परिणामो से पूर्व ही सम्भावनाओं पर पूर्णविराम लगाने की सोचता है। हिंसा के प्रति कारूणिक सम्वेदनाओं के अभाव में अहिंसा की मनोवृति प्रबल नहीं बन सकती। यकिनन दयालुतापूर्ण सम्वेदनाएँ, हमें मानवों के प्रति भी सहिष्णु और सम्वेदनशील बनाती है।

बुधवार, 16 मार्च 2011

मनुष्य सहज वृति से शाकाहारी है (कायिक प्रकृति)

‘जीव जीवस्य भोजनम्’ के अनुसार कोई जीव किसी दूसरे जीव का भक्षण करता है तो कोई अन्य जीव उसका भक्षण कर जाता है। किन्तु यह इतनी साधारण सी बात नहीं है।वह एक सुव्यवस्थित खाद्य श्रृंखला है जो सुचारू रूप से चलती है। यह विपरित चल ही नहीं सकती। क्या कोई बकरी शेर का शिकार कर खा सकती है। पर मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है और उसने औजारों का आविष्कार कर लिया है अतः वह अप्राकृतिक आहार तैयार कर सकता है। प्राकृतिक रूप से वेल-मैनेज्ड इस श्रृंखला में मनुष्य के हिस्से में तो ‘एकेन्द्रीय स्थावर काय के मृत जीवाश्म’ (शाकाहार) आए है। इसलिए दूसरे समस्त चर-जीवों का सरंक्षण करना, और इस श्रृंखला को अभेद रखना, प्राकृतिक संसाधनो की रक्षा करना, बुद्धि और विवेक नामक अतिरिक्त गुण के कारण मनुष्य के जिम्मे है।

यदि प्रकृति ने हमारे शरीर की संरचना मांसाहार के योग्य की होती तो फिर हमारे दांत व हमारे पंजे भी इस योग्य होने चाहियें थे कि हम किसी पशु को पकड़ कर उसे वहीं अपने हाथों से, दांतों से चीर फाड़ सकते। मनुष्य का केनाईन दांत इस योग्य नहीं है कि वह चमडा भेदते हुए संघर्षरत पशु को भोजन बना सके। यदि चाकू-छूरी से काट कर, प्रेशर कुकर में तीन सीटी मार कर, आग पर भून कर, पका कर, घी- नमक, मिर्च का तड़का मार कर खाया तो फिर दांत और आंत का त्रुटिपूर्ण हवाला क्यों? पाचन संस्थान पर विचार करने पर हम देखते है, शाकाहारी जीवों में छोटी आंत, मांसाहारी जीवों की तुलना में कहीं अधिक लंबी होती है। हम मानव भी इसका अपवाद नहीं हैं। जैसा कि हम सब जानते ही हैं, हमारी छोटी आंत लगभग २७ फीट लंबी है और यही स्थिति बाकी सब शाकाहारी जीवों की भी है। शेर की, कुत्ते की, बिल्ली की छोटी आंत बहुत छोटी है क्योंकि ये मूलतः मांसाहारी जानवर हैं।

 एक उभय आहारी विद्वान ने कहा कि शाकाहारी चूस कर पानी पीता है और मांसाहारी चाट कर पानी पीता है, मनुष्य दोनो तरह से पी सकता है। जब पुछा गया कि भला मनुष्य चाट कर कैसे पी सकता है तो बोले कि थाली में लेकर अभ्यास करने पर थोडा समय लगता है पर पी सकता है। (पहली बार पता चला कि थाली प्राकृतिक है) किन्तु अगर अभ्यास से ही पानी चाट कर पीना है तो हम तो कह ही चुके है मानव अभ्यास से ही मांसाहार का आदी बनता है उसी तरह जैसे कोई स्वयं को कांच खाने का अभ्यस्त बनाले किन्तु कांच मानव का प्राकृतिक आहार नहीं है।

मानव प्राकृतिक उभय आहारी नहीं, किन्तु वह क्षेत्र काल और परिवेश के अनुसार किसी भी तरह के आहार के अनुकूल स्वयं को बना सकता है, और प्रारंभिक काल से वह ऐसा करता भी आया है। वह उपलब्ध आहार पर स्वयं को ढाल देता है। वह क्षेत्रानुसार व अप्राकृतिक रूप से उभय आहारी रहा है।कोई आश्चर्य नहीं यदि प्राचीन युग में या वैदिक काल में कोई मनुष्य माँसाहार भी करते हों इसीलिए शास्त्रों में जनमानस को मांसाहार त्याग करवाने के उल्लेख अधिक प्रमाण में प्राप्त होते है, उपदेश तो सात्विक रहने के ही है तभी तो उन्हें माँस व हिंसा छुडवानें के व्रत दिये जाते होंगे। निश्चित ही अप्राकृतिक रूप से मानव सर्वभक्षी है। यहां तक कि हम उसे जहर खाते, पचाते व अभ्यस्त होते देख सकते है इसका यह अर्थ नहीं कि जहर मानव का आहार है। शारीरिक संरचना और स्वयं मानव की स्वभाविक वृति और प्रकृति के अनुरूप वह पूर्णतः शाकाहारी ही है। अर्थार्त प्राकृतिक और तकनिकि रूप से वह शुद्ध शाकाहारी है। मनुष्य की वृति और उसकी कायिक प्रकृति दोनो ही शाकाहारी है।

मंगलवार, 15 मार्च 2011

‘विचार-शून्य’ का निष्पक्ष निर्पेक्ष ‘विचार-मंथन’


(यह आलेख दीप पाण्डेय जी नें अपने ‘विचार-शून्य’ ब्लॉग पर प्रस्तुत किया था। नाम के अनुरूप विचार शून्य अर्थार्त पूर्वाग्रह रहित होकर शाकाहार-माँसाहार पर चिंतन-मनन किया है। आपकी शोध और निर्मल मन प्रस्तुति हमारे कईं तर्कों का समाधान बन सकती है, और निर्पेक्ष-मनन का मार्ग प्रसस्त करती है।)

मैं कुमाउनी ब्राह्मण हूँ. हम लोगों में मांसाहार एक सामान्य सी बात है अतः मैं  बचपन से मांस, मछली इत्यादि का सेवन करता रहा हूँ. मैदानी इलाकों में एक ब्राह्मण द्वारा मांस भक्षण सर्वथा वर्जित है।

इसलिए मेरा ऐसे मैदानी  मित्रों से सामना होता रहा  जो  ब्राह्मण होने के बावजूद मांसाहार करने की मेरी
आदत को लेकर मेरा मजाक उड़ाते या मुझे हेय दृष्टि से देखते.  शाकाहार को प्राकृतिक और मांसाहार को अप्राकृतिक ठहराया जाता. बताया जाता की मांसाहार करने से व्यक्ति में क्रूरता की भावना का विकास होता है. मांसाहारी लोग गुस्सैल होते हैं और आपराधिक प्रवृति के हो जाते हैं. अपने मित्रों के इस व्यवहार के पीछे मुझे शाकाहार को सही नहीं बल्कि श्रेष्ट सिद्ध करना और  मांसाहारियों को नीचा दिखाने का प्रयास ज्यादा महसूस होता था.

कोई हमारी आस्था, परंपरा रीती-रिवाज और विश्वास के विरुद्ध कुछ कहे तो हम स्वाभाविक रूप से तर्क या कुतर्क करके उसका विरोध करते हैं अब चाहे हम गलत हो या सही. शायद ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी होता था. जब मेरे कुछ शाकाहारी मित्र अपने शाकाहारी होने की बात को बड़े गर्व के साथ बताते और मांसाहार को अवगुण घोषित करते तो मेरी तार्किक बुद्धि हमेशा उन तर्कों की तलाश में रहती जिनसे मैं मांसाहार को उन लोगों के समक्ष सही ठहरा सकूँ.

मुझे शुरू से लगता था की मानव सर्वभक्षी हैं यानि कि वो शाकाहार और मांसाहार दोनों ही तरह के भोजन कर सकता है. मानव के जबड़े में केनाइन दांत के होने से मुझे लगता था की कहीं न कहीं मानव में मांसाहार की क्षमता है और चिम्पंजियों के द्वारा छोटे बंदरों को मार कर खाना भी इसी बात का साबुत देता था. अपनी दिल्ली में मैंने खुद रीसस बंदरों को कोए के खोंसले से अंडे चुराकर खाते देखा है. हालाँकि नेट पर दूसरी जगहों के भी ऐसे सबूत मौजूद  हैं. कभी पढ़ा था की मानव की छोटी आंत की लम्बाई न तो मांसाहारियों जैसी कम होती हैं और न ही शाकाहारियों की तरह बहुत ज्यादा.

इन सब बातों से मुझे अपने मांसाहार को सही ठहराने का हौसला मिलता रहा. इसके साथ ही अपने पारिवारिक और सामाजिक अनुभवों से मैंने पाया की जो लोग शुद्ध शाकाहारी थे वो ज्यादा गुस्सैल थे और उनकी अपेक्षा मांसाहार करने वाले ज्यादा शांत और मनमौजी थे.
मेरे पिता सारी उम्र सप्ताहांत मीट या मछली खाते रहे और मेरी माताजी पुर्णतः शुद्ध शाकाहारी महिला थी पर मैंने कभी अपने पिता को किसी पर नाराज होते नहीं देखा जबकि मेरी माताजी को बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता था. मैंने बहुत से शुद्ध शाकाहारी परिवारों को अपने पारिवारिक झगड़े सडकों पर मारपीट के साथ सुलझाते देखा. मेरे बहुत से जैनी भाई अपनी दुकानों में और अपने घरों में नौकरों के साथ अमानवीय क्रूर व्यवहार करते दिखे. प्याज और लहुसन से मुक्त शाकाहार मेरे वणिक वर्ग के  भाइयों को भ्रष्टाचार से मुक्त न कर पाया. ऐसे में मैं अपने सप्ताहांत मांसाहार के साथ सुखी था.

पर फिर आया अपने ब्लॉग जगत में एक  शाकाहारी तूफान जिसकी शुरुवात मेरे मित्र अमित ने अपनी एक पोस्ट से की और  जिसको वत्स जी, सुज्ञ जी, अनुराग शर्मा जी, प्रतुल जी और गौरव अग्रवाल जी  जैसे आदरणीय ब्लोगर्स के विचारों का सहारा मिला. यहाँ पर मैं मित्र गौरव अग्रवाल जी  की एक विचारणीय पोस्ट का उल्लेख करना चाहूँगा जिसने मुझे इस विषय पर पुनः विचार करने को बाध्य किया.
गौरव की पोस्ट में शाकाहार के समर्थन में कुछ लेखों के लिंक थे. इनके आलावा भी मैंने नेट खंगाला और पाया की मानव तकनीकी रूप से शाकाहारी प्राणियों की श्रेणी में आता है. पर मेरे मन के कुछ प्रश्नों का उत्तर मुझे नेट पर नहीं मिल पाया.

मुझे ये समझ नहीं आ रहा था की यदि मानव विशुद्ध रूप से शाकाहारी है तो फिर किसी किसी मानव के  मन में मांसभक्षण की इच्छा क्यों उत्पन्न होती है? बहुत से लोग बिना किसी प्रेरणा के मांस खाना पसंद करते हैं और बहुत से लोग तमाम प्रयासों के बाद भी मांस की और देखते तक पसंद नहीं करते. ऐसा क्योंयह बात मुझे समझ नहीं आ रही थी की क्यों प्राकृतिक रूप से पुर्णतः शाकाहारी बन्दर क्यों कभी कभार मांसाहार करने को उद्यत होते हैं?

मुझे लगता है की बन्दर  मांसाहार अपनी किसी विशेष शारीरिक  आवश्यकता जैसे प्रोटीन इत्यादि  की पूर्ति के लिए करते हैं  क्योंकि वो किसी दुसरे प्राकृतिक तरीके से अपनी इस जरुरत को पूरा नहीं कर पाते और ये कभी कभार होने वाली घटना ही होती है ना की नित्य  प्रति की  आदत. ठीक इसी प्रकार कुछ शुद्ध मांसाहारी भी कभी कभार  घास  खाते  हैं .  मैंने बिल्ली और कुत्ते को घास खाते देखा है. 

मानव जब तक जंगलों में स्वतः उत्पन्न होने वाले फल फुल खाकर ही  अपना पेट भरता था तब शायद वो भी कभी कभार मांसाहार कर प्रोटीन या शायद ऐसी ही किसी और जरुरत की पूर्ति करता हो पर जबसे  उसे खेती करने का तरीका समझ आया और वो अपनी जरुरत के हिसाब से अन्न उपजाने लगा तो उसे मांसाहार करने की जरुरत नहीं रही.  लेकिन फिर भी आज तक कुछ लोग  "बेसिक इंस्टिंक्ट" का अनुसरण करते हुए मांसाहार की और आकर्षित होते हैं. 

इस विषय में ब्लॉग मित्रों, नेट और दुसरे स्रोतों से प्राप्त ज्ञान और खुद के चिंतन मनन के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि मानव की शारीरिक संरचना तो शाकाहार के लिए ही बनी है पर प्रकृति ने उसकी कुछ विशेष जरूरतों को पूरा करने के लिए उसे कभी कभार मांसाहार करने की छुट प्रदान की है. मांसाहार मानव के लिए नित्य प्रति की जरुरत बिलकुल भी नहीं और आज जब मानव खेती कर अपनी आवश्यकता के अनुसार हर प्रकार का अन्न उगा सकता है तो उसे कभी कभार भी मांस खाने की आवश्यकता बिलकुल नहीं है.   

मैं कभी मांसाहार का समर्थन किया करता था पर अब मेरी सोच में परिवर्तन आया है. मांसाहार एक प्रकार की आहार वैश्यावृति है जो मानव समाज में अति प्राचीन काल से व्याप्त है. एक विशेष  नजरिये   से  इसे  सही ठहराया जा सकता है और बहुत सी जगहों पर इसे सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त है पर इसके प्रचार प्रसार के लिए इसका समर्थन करना किसी भी नजरिये से ठीक नहीं.

मेरी सोच में जो बदलाव आया है उसके लिए मैंश्रीमान गौरव अग्रवाल जी को मुख्यरूप से दोषी मानता हूँ जिनकी सार्थक ब्लॉग्गिंग ने मुझे इस विषय में गहराई से सोचने पर मजबूर किया और उनके इस कृत्य में सुज्ञ जी, प्रतुल जी, अनुराग शर्मा जी, और प्यारे अमित भाई भी सह अभियुक्त हैं. लोगों में शाकाहार के प्रति जागरूकता जगाने के इनके अभियान का मैं भी एक शिकार हूँ और पिछले तीन चार माह से अपने इलाके के सबसे बड़े मांस विक्रेता नज़ीर फूड्स की दुकान पर नहीं गया हूँ. हो सकता है कि कभी जीभ के लालच वश या किसी और कारण से मैं मांसाहार करूँ पर मैं अब जीवन में कभी भी मांसाहार का समर्थन नहीं कर पाउँगा.  

अंत में मैं शाकाहार के प्रति लोगों में जागरूकता लाने का प्रयास कर रहे सभी भाइयों से यह प्रार्थना करूँगा की वो मांसाहारियों को एक अपराधी की दृष्टि से ना देखें. अपने सभी प्रयास यह ध्यान में रख कर करे कि मांसाहार कभी  प्राकर्तिक रूप से मानव की बेशक मामूली ही सही पर जरुरत जरुर रही है.
                                       लेखक - दीप पाण्डेय (विचार शून्य)

रविवार, 13 मार्च 2011

बुद्धिमान बालक

किसी नगर में रहनेवाला एक धनिक लम्बी तीर्थयात्रा पर जा रहा था। उसने नगर के सभी लोगों को यात्रा की पूर्वरात्रि में भोजन पर आमंत्रित किया। सैंकडों लोग खाने पर आए। मेहमानों को मछली और मेमनों का मांस परोसा गया। भोज की समाप्ति पर धनिक सभी लोगों को विदाई भाषण देने के लिए खड़ा हुआ। अन्य बातों के साथ-साथ उसने यह भी कहा – “परमात्मा कितना कृपालु है कि उसने मनुष्यों के खाने के लिए स्वादिष्ट मछलियाँ और पशुओं को जन्म दिया है”। सभी उपस्थितों ने धनिक की बात में हामी भरी।

भोज में एक बारह साल का लड़का भी था। उसने कहा –“आप ग़लत कह रहे हैं।”
लड़के की बात सुनकर धनिक आश्चर्यचकित हुआ। वह बोला – “तुम क्या कहना चाहते हो?”

लड़का बोला – “मछलियाँ और मेमने एवं पृथ्वी पर रहनेवाले सभी जीव-जंतु मनुष्यों की तरह पैदा होते हैं और मनुष्यों की तरह उनकी मृत्यु होती है। कोई भी प्राणी किसी अन्य प्राणी से अधिक श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण नहीं है। सभी प्राणियों में बस यही अन्तर है कि अधिक शक्तिशाली और बुद्धिमान प्राणी अपने से कम शक्तिशाली और बुद्धिमान प्राणियों को खा सकते हैं। यह कहना ग़लत है कि ईश्वर ने मछलियों और मेमनों को हमारे लाभ के लिए बनाया है, बात सिर्फ़ इतनी है कि हम इतने ताक़तवर और चालक हैं कि उन्हें पकड़ कर मार सकें। मच्छर और पिस्सू हमारा खून पीते हैं तथा शेर और भेड़िये हमारा शिकार कर सकते हैं, तो क्या ईश्वर ने हमें उनके लाभ के लिए बनाया है?”

च्वांग-त्ज़ु भी वहां पर मेहमानों के बीच में बैठा हुआ था। वह उठा और उसने लड़के की बात पर ताली बजाई। उसने कहा – “इस एक बालक में हज़ार प्रौढों जितना ज्ञान है।”
लेखक - निशांत मिश्र 
Posted on मार्च 13, 2011 by Nishant 
‘निशांत का हिंदीज़ेन ब्लॉग’ से साभार

शाकाहार श्रेष्ठ-पौष्टिक और सात्विक आहार

एक प्रेस समाचार के अनुसार अमरीका में डेढ़ करोड़ व्यक्ति शाकाहारी हैं। दस वर्ष पूर्व नीदरलैंड की ''1.5% आबादी'' शाकाहारी थी जबकि वर्तमान में वहाँ ''5%'' व्यक्ति शाकाहारी हैं। सुप्रसिद्ध गैलप मतगणना के अनुसार इंग्लैंड में प्रति सप्ताह ''3000 व्यक्ति'' शाकाहारी बन रहे हैं। वहाँ अब ''25 लाख'' से अधिक व्यक्ति शाकाहारी हैं। सुप्रसिद्ध गायक माइकेल जैकसन एवं मैडोना पहले से ही शाकाहारी हो चुके हैं। अब विश्व की सुप्रसिद्ध टेनिस खिलाड़ी मार्टिना नवरातिलोवा ने भी 'शाकाहार' व्रत धारण कर लिया है। बुद्धिजीवी व्यक्ति शाकाहारी जीवन प्रणाली को अधिक आधुनिक, प्रगतिशील और वैज्ञानिक कहते हैं एवं अपने आपको शाकाहारी कहने में विश्व के प्रगतिशील व्यक्ति गर्व महसूस करते हैं।संसार के महान बुद्धिजीवी, उदाहरणार्थ अरस्तू, प्लेटो, लियोनार्दो दविंची, शेक्सपीयर, डारविन, पी.एच.हक्सले, इमर्सन, आइन्सटीन, जार्ज बर्नार्ड शा, एच.जी.वेल्स, सर जूलियन हक्सले, लियो टॉलस्टॉय, शैली, रूसो आदि सभी शाकाहारी ही थे।

विश्वभर के डॉक्टरों ने यह साबित कर दिया है कि शाकाहारी भोजन उत्तम स्वास्थ्य के लिए सर्वश्रेष्ठ है। फल-फूल, सब्ज़ी, विभिन्न प्रकार की दालें, बीज एवं दूध से बने पदार्थों आदि से मिलकर बना हुआ संतुलित आहार भोजन में कोई भी जहरीले तत्व नहीं पैदा करता। इसका प्रमुख कारण यह है कि जब कोई जानवर मारा जाता है तो वह मृत-पदार्थ बनता है। यह बात सब्ज़ी के साथ लागू नहीं होती। यदि किसी सब्ज़ी को आधा काट दिया जाए और आधा काटकर ज़मीन में गाड़ दिया जाए तो वह पुन: सब्ज़ी के पेड़ के रूप में हो जाएगी। क्योंकि वह एक जीवित पदार्थ है। लेकिन यह बात एक भेड़, मेमने या मुरगे के लिए नहीं कही जा सकती। अन्य विशिष्ट खोजों के द्वारा यह भी पता चला है कि जब किसी जानवर को मारा जाता है तब वह इतना भयभीत हो जाता है कि भय से उत्पन्न ज़हरीले तत्व उसके सारे शरीर में फैल जाते हैं और वे ज़हरीले तत्व मांस के रूप में उन व्यक्तियों के शरीर में पहुँचते हैं, जो उन्हें खाते हैं। हमारा शरीर उन ज़हरीले तत्वों को पूर्णतया निकालने में सामर्थ्यवान नहीं हैं। नतीजा यह होता है कि उच्च रक्तचाप, दिल व गुरदे आदि की बीमारी मांसाहारियों को जल्दी आक्रांत करती है। इसलिए यह नितांत आवश्यक है कि स्वास्थ्य की दृष्टि से हम पूर्णतया शाकाहारी रहें।

पोषण : 

अब आइए, कुछ उन तथाकथित आँकड़ों को भी जाँचें जो मांसाहार के पक्ष में दिए जाते हैं। जैसे, प्रोटीन की ही बात लीजिए। अक्सर यह दलील दी जाती है कि अंडे एवं मांस में प्रोटीन, जो शरीर के लिए एक आवश्यक तत्व है, अधिक मात्रा में पाया जाता है। किंतु यह बात कितनी ग़लत है यह इससे साबित होगा कि सरकारी स्वास्थ्य बुलेटिन संख्या ''23'' के अनुसार ही ''100 ग्रा''. अंडों में जहाँ ''13 ग्रा.'' प्रोटीन होगा, वहीं पनीर में ''24 ग्रा.'', मूंगफल्ली में ''31 ग्रा.'', दूध से बने कई पदार्थों में तो इससे भी अधिक एवं सोयाबीन में ''43 ग्रा.'' प्रोटीन होता है। अब आइए कैलोरी की बात करें। जहाँ ''100 ग्रा.'' अंडों में ''173 कैलोरी'', मछली में ''91 कैलोरी'' व मुर्गे के गोश्त में ''194 कैलोरी'' प्राप्त होती हैं वहीं गेहूँ व दालों की उसी मात्रा में लगभग ''330 कैलोरी'', सोयाबीन में ''432 कैलोरी'' व मूंगफल्ली में ''550 कैलोरी'' और मक्खन निकले दूध एवं पनीर से लगभग ''350 कैलोरी'' प्राप्त होती है। फिर अंडों के बजाय दाल आदि शाकाहार सस्ता भी है। तो हम निर्णय कर ही सकते हैं कि स्वास्थ्य के लिए क्या चीज़ ज़रूरी है। फिर कोलस्ट्रोल को ही लीजिए जो कि शरीर के लिए लाभदायक नहीं है। ''100 ग्राम'' अंडों में कोलस्ट्रोल की मात्रा ''500 मि.ग्रा.'' है और मुरगी के गोश्त में ''60'' है तो वहीं कोलस्ट्रोल सभी प्रकार के अन्न, फलों, सब्ज़ियों, मूंगफली आदि में 'शून्य' है। अमरीका के विश्व विख्यात पोषण विशेषज्ञ डॉ.माइकेल क्लेपर का कहना है कि अंडे का पीला भाग विश्व में कोलस्ट्रोल एवं जमी चिकनाई का सबसे बड़ा स्रोत है जो स्वास्थ्य के लिए घातक है। इसके अलावा जानवरों के भी कुछ उदाहरण लेकर हम इस बात को साबित कर सकते हैं कि शाकाहारी भोजन स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है। जैसे गेंडा, हाथी, घोड़ा, ऊँट। क्या ये ताकतवर जानवर नहीं हैं? यदि हैं, तो इसका मुख्य कारण है कि वे शुद्ध शाकाहारी हैं। इस प्रकार शाकाहारी भोजन स्वास्थ्यप्रद एवं पोषण प्रदान करनेवाला है।

स्वाभाविक भोजन: 

मनुष्य की संरचना की दृष्टि से भी हम देखेंगे कि शाकाहारी भोजन हमारा स्वाभाविक भोजन है। गाय, बंदर, घोड़े और मनुष्य इन सबके दाँत सपाट बने हुए हैं, जिनसे शाकाहारी भोजन चबाने में सुगमता रहती हैं, जबकि मांसाहारी जानवरों के लंबी जीभ होती है एवं नुकीले दाँत होते हैं, जिनसे वे मांस को खा सकते हैं। उनकी आँतें भी उनके शरीर की लंबाई से दुगुनी या तिगुनी होती हैं जबकि शाकाहारी जानवरों की एवं मनुष्य की आँत उनके शरीर की लंबाई से सात गुनी होती है। अर्थात, मनुष्य शरीर की रचना शाकाहारी भोजन के लिए ही बनाई गई हैं, न कि मांसाहार के लिए।

अहिंसा और जीव दया : 

आज विश्व में सबसे बड़ी समस्या है, विश्व शांति की और बढ़ती हुई हिंसा को रोकने की। चारों ओर हिंसा एवं आतंकवाद के बादल उमड़ रहे हैं। उन्हें यदि रोका जा सकता हैं तो केवल मनुष्य के स्वभाव को अहिंसा और शाकाहार की ओर प्रवृत्त करने से ही। महाभारत से लेकर गौतम बुद्ध, ईसा मसीह, भगवान महावीर, गुरुनानक एवं महात्मा गांधी तक सभी संतों एवं मनीषियों ने अहिंसा पर विशेष ज़ोर दिया है। भारतीय संविधान की धारा ''51 ए (जी)'' के अंतर्गत भी हमारा यह कर्तव्य है कि हम सभी जीवों पर दया करें और इस बात को याद रखें कि हम किसी को जीवन प्रदान नहीं कर सकते तो उसका जीवन लेने का भी हमें कोई हक नहीं हैं।

लेखक - रामनिवास लखोटिया 
शाकाहार : उत्तम आहार 'अभिव्यक्ति' 9 दिसंबर 2004 से साभार