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बुधवार, 29 जून 2011

प्राकृतिक संसाधनो का संयत उपभोग मानव का कर्तव्य



मानव सृष्टि का सबसे बुद्धिमान प्राणी है। इस नाते, प्रकृति संरक्षण के प्रति उत्तरदायित्व पूर्वक सोचना भी, मानव का कर्तव्य हो जाता है। उससे कमसे कम यह तो अपेक्षा की ही जाती है कि  वह अपना भोजन प्रबंध कुछ इस प्रकार करे कि, आहार की इच्छा होने से लेकर, उस आहार को ग्रहण करने तक, सृष्टि की जीवराशी कम से कम खर्च हो। आहार संयम ही आहार की ‘संस्कृतिहै। जहां तक सम्भव हो वह प्रकृति के आहार उत्पादों का संयत उपभोग करे। हिंसा में संयम रखते हुए जितना भी हिंसा से बच  सके उसे बचना चाहिये। और क्रूरत्तम हिंसा का तो सर्वथा त्याग करना चाहिए। प्रकृति और अर्थशास्त्र में मितव्ययता का सिद्धांत है कि संसाधनो का विवेक पूर्वक और ज्यादा से ज्यादा दक्षता से उपभोग किया जाय। अर्थात् कम से कम संसाधन खर्च कर अधिक से अधिक उसका लाभ प्राप्त किया जाय। मानव के पास ही वह बुद्धिमत्ता और क्षमता है कि वह उपलब्ध संसाधनो का सर्वोत्तम प्रबंध करने में सक्षम है। 
 


इसलिए आहार का चुनाव करते समय हमें अपने विवेक को वैज्ञानिक अभिगम देना होगा। वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह है कि सृष्टि में जीवन विकास, सुक्षम एकेन्द्रिय जीव से प्रारंभ होकर क्रमशः पंचेंद्रिय तक पहुँचा है। ऐसे में यदि हमारा जीवन निर्वाह कम से कम विकसित जीवों (एकेन्द्रिय जीव) की हिंसा से हो सकता है तो हमें कोई अधिकार नहीं हम उससे अधिक विकसित जीवों की आहार के लिए अनावश्यक हिंसा करें। विकास के दृष्टिकोण से पूर्ण विकसित ( पशु) की हिंसाप्रकृति का जघन्य शोषण है। 

प्रकृति के दोहन के परिपेक्ष्य में देखें तो शाकाहार प्रथम स्टेज का भोजन है क्योंकि वनस्पति सूर्य आदि प्रकृतिक संसाधनों से सीधे और स्वयं अपना भोजन बनाती है और अपने भोजन में शाकाहार लेकर हम प्रथम श्रेणी व स्तर का भोजन प्राप्त कर लेते है। जबकि मांसाहार दूसरे स्टेज का भोजन है। मांसाहार में वनस्पति आदि प्राकृतिक संसाधनो का दोहरा ही नहीं, कईं गुना अधिक उपभोग होता है। एक तो हम सीधे शाकाहार से  ही आवश्यक उर्ज़ा प्राप्त करते है, वहीं मांस प्राप्त करने के लिए लगभग 16 गुना अनाज पशु को खिलाना पडता है इतना ही नहीं, साथ ही कईं गुना पानी,समय और संसाधन उस पर व्यय कर दिए जाते है, तब जाकर 1 किलो माँस का प्रबंध हो पाता है।

यदि सभ्यता विकास और शान्त सुखप्रद जीवन ही मानव का लक्ष्य है तो उसे शाकाहार के स्वरूप में प्रकृति के संसाधनों का कुशल प्रबंध करना ही होगा।

शुक्रवार, 24 जून 2011

आपका धर्म भी तो यही कहता है !

श्रीमद्भगवद गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं----"सर्वभूत हिते रत्ता" अर्थात सम्पूर्ण भूत प्राणियों के हित में रत और सम्पूर्ण प्राणियों का सुह्रद रहो. जो शुभफल प्राणियों पर दया करने से होता है, वह फल न तो वेदों से, समस्त यज्ञों के करने से और न ही किसी तीर्थ, वन्दन अथवा स्नान-दान इत्यादि से होता है.

जीवितुं य: स्वयं चेच्छेत कथं सोन्यं प्रघात्तयेतु !
यद्यदात्मनि चेच्छेत तत्परस्यापि चिन्तयेत !!
जो स्वयं जीने की इच्छा करता है, वह दूसरों को भला कैसे मार सकता है ? प्राणी जैसा अपने लिए चाहता है, वैसा ही दूसरों के लिए भी चाहे. कोई भी इन्सान यह नहीं चाहता कि कोई हिँसक पशु या मनुष्य मुझे, मेरे बाल-बच्चों, इष्टमित्रों वा आत्मीयजनों को किसी प्रकार का कष्ट दे या हानि पहुँचाये अथवा प्राण ले ले या इनका माँस खाये. एक कसाई जो प्रतिदिन सैकडों प्राणियों के गले पर खंजर चलाता है, आप उसको एक बहुत छोटी और बारीक सी सूईं भी चुभोयें, तो वह उसे भी कभी सहन नहीं करेगा. फिर अन्य प्राणियों की गर्दन काटने का अधिकार उसे भला कहाँ से मिल गया ?
मित्रस्य चक्षुणा सर्वाणि भूतानि समीक्षामहे !!
हम सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखें. इस वेदाज्ञानुसार सब प्राणियों को मित्रवत समझकर सेवा करें, सुख दे. इसी में जीवन की सफलता है. इसी से यह लोक और परलोक दोनों बनते हैं.

फिर दूसरों के प्रति हमें वैसा बर्ताव कदापि नहीं करना चाहिए, जिसे हम अपने लिए पसन्द न करें. कहा भी है, कि------"आत्मन प्रतिकूलानि परेषा न समाचरेत". लेकिन देखिए दुनिया में कितना बडा विरोधाभास है, जहाँ एक ओर हम भगवान से "दया के लिए" प्रार्थना करते हैं और वहीं दूसरे प्राणियों के प्रति क्रूर हो जाते हैं-------How is that man who prays for money, is himself not merciful towards other fellow beings.


इस्लामिक धर्मग्रन्थ कुरआन शरीफ का आरम्भ ही "बिस्मिल्लाह हिर रहमान निर रहीम" से होता है. जिसका अर्थ है कि खुदा रहीम अर्थात "सब पर रहम" करने वाला है. इनके अनुनायियों के मुख से भी सदैव यही सुनने को मिलता है कि अल्लाह अत्यन्त कृपाशील दयावान है .वही हर चीज को पैदा करने वाला और उसका निगहबान(Guardian ) है. अब जीभ के स्वाद के चक्कर में मनुष्य उस "निगहबान" की देखरेख में उसी की पैदा की हुई चीज की हत्या करे, तो क्या यह अत्यन्त विचारणीय प्रश्न नहीं ?

श्री अरविन्द कहते रहे हैं कि-----"जो भोजन आप लेते हैं, उसके साथ न्यूनाधिक मात्रा में उस पशु की जिसका माँस आप निगलते हैं, चेतना भी लेते हैं"

भगवान बुद्ध नें "माँस और खून के आहार" को अभक्ष्य और घृणा से भरा और 'मलेच्छों द्वारा सेवित' कहा है.  

सिक्ख धर्म के जनक गुरू नानक देव जी कहते हैं-----"घृणित खून जब मनुष्य पियेगा, तो वह निर्मल चित्त
भला कैसे रह सकेगा."

पारसी धर्म के प्रणेता जोरास्टर नें कसाईखानों को पाप की आकर्षण शक्ति का केन्द्र बताया है और क्रिस्चियन धर्मग्रन्थ बाईबल में कहा गया हैं----" जब तुम बहुत प्रार्थना करते हो, मैं उन्हे नहीं सुनूँगा, क्योंकि तुम्हारे हाथ खून से रंगे हैं". चीनी विद्वान कन्फ्यूनिस नें भी जहाँ "पशु आहार को संसार का सर्वाधिक अनैतिक कर्म" कहा है, वहीं रामकृष्ण परमहँस का कहना है, कि-----"सात्विक आहार-उच्च विचार मनुष्य को परम शान्ति प्रदान करने का एकमात्र साधन है".

भगवान महावीर नें अहिँसा को "अश्रमों का ह्रदय", "शास्त्रों का गर्भ" (Nucleous) एवं "व्रत-उपवास तथा सदगुणों का पिंडी भूतसार" कहा है. और संसार में जितने प्राणी है, उन सबको जानते हुए या अनजाने में भी कोई कष्ट न देना ही धर्म का एकमात्र मूल तत्व है.

आपने देखा कि मनुष्य जाति के इतिहास में शायद ही कोई ऎसा धर्म अथवा धर्मशास्त्र होगा, जिसमें अहिंसा को सबसे ऊँचा स्थान न दिया गया हो. लेकिन इन्सान, जो कि अपने स्वयं का आसन इस संसार के अन्य समस्त प्राणियों से कहीं ऊँचा समझता है. क्या उस पर बैठकर उसे अपने खानपान का इतना भी विवेक नहीं कि वह सही मायनों में मानव बनना तो बहुत दूर की बात रही, एक पशु से ही कुछ सीख ले सके. एक पशु भी इस बात को अच्छी तरह समझता है कि उसके लिए क्या भक्ष्य है और क्या अभक्ष्य. उसे कोई सिखानेवाला नहीं है, फिर भी वो अपने आहार का उचित ज्ञान रखता है, परन्तु इन्सान पशु से भी इतना नीचे गिर गया है कि दूसरों के द्वारा परामर्श दिए जाने पर भी वह अपने को उसी रूप में गौरवशाली समझता है. क्या एक समझदार आदमी से यह उम्मीद की जा सकती है कि वो अपना पौरूष अपने से निर्बल प्राणी को मारकर अथवा उसे खाकर ही दिखाये ?. विधाता नें इन्सान के खाने के लिए स्वादु मधुर, पौष्टिक, बुद्धिवर्धक और हितकर इतने पदार्थ बना रखे हैं कि उनको छोडकर एक निकृष्ट अभक्ष्य पदार्थ पर टूट पडना कहाँ तक उचित है ?

यह कहना सर्वथा उचित ही होगा कि माँसाहार को छोड देने वाला व्यक्ति अन्य अनेक प्रकार की बुराईयों से भी स्वत: ही मुक्त हो जायेगा. इसलिए मेरा यही कहना है कि जो लोग इस बुराई से दूर रहे हैं, उनकी अपेक्षा वे लोग कहीं अधिक साहसी माने जायेंगें, जो इस लत को लात मारकर निरीह पशुओं के आँसू पोंछेंगें.
पक्षी और चौपाये सब मार-मार के खाय,
फिर भी सगर्व खुद को इन्सान कहाये !
बन के मर्द बहादुरी, मूक जीवों पर दिखलाये !
क्यूं  तुझे लाज नहीं आये ?

शुक्रवार, 10 जून 2011

हिंसा के क्रूर-अक्रूर आयाम


पशु हिंसा और वनस्पति हिंसा को क्रूरता का एक ही आयाम नहीं दिया जा सकता। 

अधिकतर शाकाहारी पदार्थ, पेड पौधो को सम्पूर्ण खत्म किए बिना ही प्राप्त किए जाते है, जैसे फ़ल,तरकारी आदि वह भी पककर पेड पौधों से अलग हो जाय तो एक पेड की पूर्ण हिंसा नहीं होती। या कुदरती अलग होने के पूर्व काट कर अलग किया जाय तब भी पुरे पेड का नाश नहीं होता। और जब पौधे कुदरती निर्जीव हो जाते है तब अनाज दालें आदि प्राप्त होती है। जबकि मांस जीव को जीवन रहित करके ही प्राप्त किया जा सकता है।

आप गाय, भैंस, बकरी का दूध दुहते हैं तो ये पशु न तो मर जाते हैं और न ही दूध दुहने से बीमार हो जाते हैं। दूध को तो प्रकृति ने बनाया ही भोजन के रूप में है। और वह बछडे के आहार से अतिरिक्त ही होता है।पर किसी भी पशु के जीवन का अन्त कर देना  तो अनेकों धर्मों में इसको बुरा ही माना गया है।

साधारण सी हिंसा तो वनस्पतिजन्य आहार में भी सम्भव है, लेकिन इसका यह तात्पर्य नहीं कि जब सभी तरह के आहार में हिंसा है, तो जानबुझ कर आहार के लिए सबसे क्रूरत्तम हिंसा का तरीका अपना लिया जाय। यहाँ हमारा विवेक कहता है, जितना हिंसा से बचा जा सके, बचना चाहिये।
जो कोई भी यह कुतर्क देते है वे तो चराचर पशुओं तक में रुह या जीव ही नहीं मानते, और उनकी जीव-हिंसा को हिंसा ही नहीं मानते तो शाकाहार में सुक्ष्म व स्थूल जीवो की हिंसा क्यों करते हो यह कुतर्क दुर्भावनापूर्ण है। और यदि सभी तरह के आहार में जीव हिंसा स्वीकार करने के बाद दुष्टता पूर्वक बडे जीव की हिंसा करना तो क्रूरता की इन्तेहा ही कहलाएगा। और जानकर भी सुक्ष्म जीव-हिंसा में सावधानी न बरतना, मूढता की अति है।

हमें यह न भुलना चाहिए, कि एक समान दिखने वाले कांच और हीरे के मूल्य में अंतर होता है। और वह अंतर उनकी गुणवत्ता के आधार पर होता है। उसी प्रकार एक बकरे के जीव और एक केले के जीव के जीवन-मूल्य में भी अंतर है। पशुपक्षी में चेतना जागृत होती है उन्हें मरने से भय भी लगता है। उनमें पाँच इन्द्रिय होती है जीव पाँचो इन्द्रिय से सुख अथवा दुख भोगता है,महसुस करता है। इन्द्रिय अव्यवों के त्रृटिपूर्ण होने पर भी पांच इन्द्रिय जीव मृत्युवेदना सभी इन्द्रिय सम्वेदको से महसुस करता है। इसीलिए जितनी ज्यादा इन्द्रिय समर्थ जीव उतनी ही ज्यादा वेदना-पीडा उसे पहुँचती है।

प्राण बचाने को संघर्षरत पशुओं को मात्र स्वाद उद्देश्य से मार खाना क्रूरता का अतिरेक है। मानवीय बे-रहमी की पराकाष्ठा है।

शुक्रवार, 3 जून 2011

आप कितने बुद्धिमान हैं?

नीर-क्षीर विवेक सुलभ होता तो संसार के बहुत से झगडे कब के मिट गये होते। कभी हम सिक्के का एक ही पहलू देख पाते हैं और कभी अपने सीमित अनुभव को ही विशद ज्ञान समझ बैठते हैं। असतो मा सद्गमय का उद्घोष करने वाली भारतीय संस्कृति में कूप-मंडूकता की अपेक्षा वसुधैव कुटुम्बकम को ही महत्व दिया गया है। हमारी संस्कृति ज्ञानमार्गी है। इसमें अहम्  और स्वार्थ के स्थान पर  "बहुजन हिताय बहुजन सुखाय" और प्रियस्कर की जगह श्रेयस्कर को ही चुना गया है। बुद्धिमान अपने-पराये के भेद से ऊपर उठकर सत्य के मार्ग को चुनते हैं विषय चाहे खान-पान या स्वच्छता जैसा व्यक्तिगत आचरण का हो या भाषा, धर्म या नीति जैसा सार्वभौमिक हो।

करुणा और अहिंसा की बात आने पर हममें से शायद ही कोई इनके महत्व को कम आंकेगा परंतु  खान-पान की शुचिता की बात चलते ही कुछ लोग आक्रामक मुद्रा में आ जाते हैं। पक्ष-विपक्ष में तर्क दिये जाते हैं और सामान्य बात भी विवाद में बदल जाती है। मैं तो आमतौर पर ऐसे विषयों पर बात करने से बचता हूँ परंतु जन स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हूँ इसलिये इस विषय में होने वाले वैज्ञानिक अध्ययनों को पढता ज़रूर हूँ और उनसे मिले अमृत को बांटने का प्रयास भी करता हूँ।

ऐसा ही अमृत कलश हाथ लगा है ब्रिटेन में कैथरीन गेल के नेतृत्व में हुए अध्ययन के रूप में। इस अध्ययन में 30 वर्ष की आयु के 8170 लोगों की आहारवृत्ति और बुद्धि अंक की जानकारी ली गयी थी जोकि इस प्रकार के सामान्य अध्ययनों के मुकाबले एक बहुत बडी संख्या है।

विधि
30 वर्ष की आयु के 11,207 लोगों का साक्षात्कार करके उनकी जीवन शैली का अध्ययन किया गया। इनमें से 8,170 लोगों के बुद्धि अंक (IQ) का आंकडा सन् 1970 के स्कूल रिकार्ड में उपलब्ध था। अंतिम विश्लेषण में केवल इन्हीं 8,170 व्यक्तियों को शामिल किया गया।

परिणाम
8,170 में से 9 व्यक्ति वीगन हुए थे, 366 व्यक्ति शाकाहारी हो चुके थे, और 133 कभी-कभार मच्छी-मुर्गी खाने वाले थे। शेष 7,666 व्यक्ति मांसाहारी ही रहे थे। जब इन परिणामों का मिलान इन लोगों के दस वर्ष की आयु के बुद्धि अंकों से किया गया तो पता लगा कि शाकाहारी हो गये बालकों का औसत बुद्धि अंक 106.1 और मांसाहारी बालकों का 100.6 था। बालिकाओं के मामले में यह संख्यायें क्रमशः 104.0 व 99.0 थीं।

निष्कर्ष
बुद्धिमान बच्चो के बडे होने तक शाकाहार अपनाने की सम्भावना सामान्य बच्चो के मुकाबले कहीं अधिक होती है।

अध्ययनकर्ता
इस अध्ययन में लगे लोग ब्रिटेन में रहने वाले अभारतीय और गैर-हिन्दू हैं मतलब यह कि उनकी पृष्ठभूमि मांसाहार की है। ब्रिटिश मूल और राष्ट्रीयता वाले चारों अध्ययनकर्ताओं में से एक शाकाहारी है और एक मांसाहारी जबकि अन्य दो अपने को मांसाहार से बचने वाला सर्वभक्षी कहते हैं। मांसाहारी अध्ययनकर्ता का (दस वर्ष की आयु का) बुद्धि अंक उपलब्ध है पर बताया नहीं गया है जबकि अन्य तीन का बुद्धि अंक दर्ज़ नहीं हुआ था।

व्यवसाय
यद्यपि इस अध्ययन के शाकाहारी व्यक्ति अन्य लोगों से बुद्धिमत्ता, शिक्षा और व्यवसाय, तीनों में ही आगे थे, उनकी आय में कोई विशेष अंतर नहीं पाया गया। उनके व्यवसाय के प्रकार अधिक नैतिक समझे जाने वाले थे, यथा 9% मांसाहारियों की अपेक्षा 17% शाकाहारी शिक्षा के क्षेत्र में थे।

ब्रिटिश मेडिकल जर्नल
IQ in childhood and vegetarianism in adulthood: 1970 British cohort study

Keywords
Catharine R Gale, Ian J Deary, G David Batty, Ingrid Schoon, Benjamin Franklin, George Bernard Shaw, Leonardo di ser Piero da Vinci

गुरुवार, 2 जून 2011