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शनिवार, 30 जुलाई 2011

विदेश में शाकाहार की प्रगति - झलकियाँ


न्यूयॉर्क में शाकाहारियों की पंक्ति
अमेरिका में रहने के कारण यहाँ के जन-जीवन को पहचानना और समझना मेरे लिये पहले से अधिक आसान हो गया है। अमेरिका आप्रवासियों का देश है। संसार भर की संस्कृति की झलक यहाँ आसानी से हो जाती है। विभिन्न भाषायें, वेश-भूषा और भोजन शैलियों से परिचय होता है। अंतर्राष्ट्रीय लोक-महोत्सव जैसे समारोहों में तो यह विविधता अनुभव होती ही रही है पर अब सामान्य जीवन में भी मुखर हो रही है। देख रहा हूँ कि पिछले दिनों में शाकाहारी भोजनालयों की संख्या भी बढी है और उनके ग्राहकों की संख्या भी। कुछ झलकियाँ

बोस्टन मेट्रो में वीगन पोस्टर
शाकाहारी पुस्तकें व टीवी कार्यक्रम आसानी से सर्व-सुलभ होते जा रहे हैं। अनेक संस्थायें भी मांस व्यवसाय द्वारा पशु-उत्पीडन के विरुद्ध सामने आये हैं।

भारत, थाइलैंड, मध्यपूर्व के शाकाहारी भोजन का चलन बढा है
ग्रामीण व उपनगरीय क्षेत्रों में कृषक तथा नगरों में कई फ़ार्मर्स मार्केट व फल विक्रेता बच्चों-बडों के लिये स्वयं फल चुने जैसे कार्यक्रम नियमित चलाते हैं, जिनमें लोग अपनी-अपनी टोकरी लेकर बाग़ में जाते हैं और अपनी पसन्द के फल चुनकर खुद ही तोडकर, तुलवाकर भुगतान करके घर ले आते हैं।
पिट्सबर्ग में एक ब्लू-बेरी पिकिंग फ़ार्म
जिस प्रकार हिन्दी के विस्तार के लिये हिन्दी दिवस से अधिक काम हिन्दी फ़िल्मों ने किया है उसी प्रकार से टॉप्सी टर्वी जैसे उलटे टांगने वाले पौधों के दर्शनीय प्रयोगों से लोग अपार्टमेंट के अन्दर भी विभिन्न फल-सब्ज़ियाँ जैसे स्ट्राबेरी, टमाटर आदि घरों में उगाकर स्वस्थ भोजन की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं।
टॉप्सी टर्वी के टांगने योग्य उलटे टमाटर


यहाँ, करुणा और शाकाहार की भारत जैसी प्राचीन सुदृढ परम्परा भले ही न हो, जन-जागृति फिर भी हो रही है। कई नगरों में शाकाहारी समूह बने हैं जिनकी सदस्य संख्या लगातार बढती जा रही है।

शुद्ध शाकाहारी भोजनालय


सोमवार, 25 जुलाई 2011

मानव शरीर संरचना शाकाहार के ही अनुकूल (कायिक प्रकृति)

मानव शरीर की संरचना व क्षमता शाकाहार के लिए ही उपयुक्त है

 • दांत-

दांतो की बनावट मांसाहारी जीव से शाकाहारियों में बिलकुल ही अलग है।

माँसाहारी- इनके केनाईन दांतो की बनावट मोटी चमडी में गड़ाकर शिकार को प्राणरहित करने में समर्थ है चिरफाड़ के लिए नुकीले दाँत होते हैं। ये आहार को चबा नहीं सकते उसे टुकड़े टुकडे कर निगलना पडता है। क्योंकि जो चपटे मोलर दाँत चबाने/पिसने के काम आते हैं नहीं होते।

शाकाहारी और मनुष्य- दोनों में तेज नुकीले दाँत नहीं होते जबकि इनमें मोलर दाँत होते हैं। इनके दांत आहार को चबाने में समर्थ होते है जिन दो दांतो को केनाईन कहा जाता है वे माँसाहारी प्रणियों के केनाइन समान नहीं है। जो दो-चार दांत कुछ अर्ध नुकीले पाये भी जाते हैं वह तो मुलायम फल सब्जी काटने के लिये भी जरूरी हैं।

• जबड़ों की क्रिया-

जबड़े की क्रिया भी मांसाहारी जीव से शाकाहारियों में सर्वथा भिन्न हैं |

माँसाहारी- यह अपने जबड़े को मात्र ऊपर – नीचे की दिशा में ही हिला सकते है।

शाकाहारी और मनुष्य- अपने दाँतों के जबड़े को उपर-नीचे, दायें - बाये चला सकते है चबाने,पीसने और एकरस करने के लिए यह आवश्यक भी है।

• पंजे-

भी मांसाहारी जीव से शाकाहारियों में पंजो की संरचना पूर्णतः अलग हैं।

माँसाहारी-इनके पंजे नुकीले व धारदार होते है,शिकारियों की तरह मोटी चमडी चीरने-फाड़ने में समर्थ होते हैं

शाकाहारी और मनुष्य- इनके पंजे नुकीले व धारदार नहीं होते, अधिक से अधिक बल सहने और पकड़ के योग्य होते है।

• आहारनालतंत्र-

आंतो की रचना तो दोनो आहारियों में अपने आहार की पाचन आवश्यक्ता के अनुरूप एकदम विलग है।

माँसाहारी- इनमें Intestinal tract शरीर की लम्बाई के ३ गुनी होती है मांसाहारी जीवों की आंत छोटी और लगभग लम्बवत होती है ताकि पचा हुआ मांस शरीर से जल्द निकल सके।

शाकाहारी और मनुष्य- इनमें Intestinal tract शरीर की लम्बाई के १०-१२ गुनी लम्बी होती है। तत्व शोषण में सहायता के लिए आंत लम्बी व घुमावदार होती है।

• श्वसन प्रक्रिया-

किसी भी शाकाहारी जीव की श्वसन प्रक्रिया मांसाहारी की तुलना में धीमी होती है

माँसाहारी- शेर , कुत्ते , विड़ाल इत्यादि तीव्र और हाँफते हुए सांस लेते है। श्वसन दर १८० से ३०० तक होती है।

शाकाहारी और मनुष्य- मनुष्य सहित गाय , बकरी , हिरन , खरगोश, भैंसे इत्यादि सभी धीमे - धीमे से सांस लेते है। इनकी श्वसन दर ३० - ७० श्वास प्रति मिनट तक होती है।

• जल शोषण-

पानी पीने की प्रकृति उभय आहारियों में सर्वदा भिन्न होती है।

माँसाहारी- मांसाहारी जीव अपनी जीभ से चाट - चाटकर पानी पीता है।

शाकाहारी और मनुष्य- अपने फेफडों से वायुदाब उत्पन्न करते हुए खींच कर पानी पीते हैं।

• चलायमान बल-

शाकाहारी व मांसाहारी के शक्ति उपयोग का तरीका कुदरती अलग है।

माँसाहारी- इनकी शारीरिक क्षमता सिर्फ शिकार करने की ही होती है , जैसे शेर की ताकत मात्र शिकार को दबोचने और गिराने की उसके आगे उससे किसी प्रकार का श्रम संभव नहीं है।

शाकाहारी और मनुष्य- इनका बल लगातार चलायमान होता है , जैसे घोडे , बैल , हाथी , मनुष्य इत्यादि।

• स्वेद ग्रंथि-

माँसाहारी-इनमें स्वेद ग्रंथियाँ /त्वचा में रोम छिद्र नहीं होते इसलिए ये प्राणी जीभ के माध्यम से शरीर का तापमान नियंत्रित करते हैं।

शाकाहारी और मनुष्य-इनके शरीर में रोम छिद्र /स्वेद ग्रंथियां उपस्थित होती हैं और ये पसीने के माध्यम से अपने शरीर का तापमान नियंत्रित रखते हैं।

• पाचक रस-

माँसाहारी- इनमें बहुत ही तेज पाचक रस (HCl- हैड्रोक्लोरिक अम्ल ) होता है जो मांस को पचाने में सहायक है।

शाकाहारी और मनुष्य- इनमें यह पाचक रस (हैड्रोक्लोरिक अम्ल) माँसाहारियों से २० गुना कमजोर होता है।

• लार ग्रंथि -

माँसाहारी- इनमें भोजन के पाचन के प्रथम चरण के लिए अथवा भोजन को लपटने के लिए आवश्यक लार ग्रंथियों की आवश्यकता नहीं होती है।

शाकाहारी और मनुष्य- इनमें अनाज व फल के पाचन के प्रथम चरण हेतु मुख में पूर्ण विकसित लार ग्रंथियाँ उपस्थित होती हैं।

• लार-

मांसाहारियों - में अनाज के पाचन के प्रथम चरण में आवश्यक एंजाइम टाइलिन (ptyalin) लार में अनुपस्थित होती है। इनका लार अम्लीय प्रकृति की होती है।

शाकाहारी और मनुष्य- में एंजाइम टाइलिन (ptyalin) लार में उपस्थित होती है व इनका लार क्षारीय प्रकृति की होती है।

शनिवार, 16 जुलाई 2011

मनुज प्रकृति से शाकाहारी

मनुज प्रकृति से शाकाहारी
माँस उसे अनुकूल नहीं है !
पशु भी मानव जैसे प्राणी
वे मेवा फल फूल नहीं हैं !!

वे जीते हैं अपने श्रम पर
होती उनके नहीं दुकानें
मोती देते उन्हे न सागर
हीरे देती उन्हे न खानें
नहीं उन्हे हैं आय कहीं से
और न उनके कोष कहीं हैं
केवल तृण से क्षुधा शान्त कर
वे संतोषी खेल रहे हैं
नंगे तन पर धूप जेठ की
ठंड पूस की झेल रहे हैं
इतने पर भी चलें कभी वें
मानव के प्रतिकूल नहीं हैं

अत: स्वाद हित उन्हे निगलना
सभ्यता के अनुकूल नहीं है!
मनुज प्रकृति से शाकाहारी
माँस उसे अनुकूल नहीं है !!

नदियों का मल खाकर खारा,
पानी पी जी रही मछलियाँ
कभी मनुज के खेतों में घुस
चरती नहीं वे मटर की फलियाँ
अत: निहत्थी जल कुमारियों
के घर जाकर जाल बिछाना
छल से उन्हे बलात पकडना
निरीह जीव पर छुरी चलाना
दुराचार है ! अनाचार है !
यह छोटी सी भूल नहीं है
मनुज प्रकृति से शाकाहारी
माँस उसे अनुकूल नहीं है  !!

मित्रो माँस को तज कर उसका
उत्पादन तुम आज घटाओ,
बनो निरामिष अन्न उगानें--
में तुम अपना हाथ बँटाओ,
तजो रे मानव! छुरी कटारी,
नदियों मे अब जाल न डालो
और चला हल खेतों में तुम
अब गेहूँ की बाल निकालो
शाकाहारी और अहिँसक
बनो धर्म का मूल यही है
मनुज प्रकृति से शाकाहारी,
माँस उसे अनुकूल नहीं है !!

रचनाकार:-----श्री धन्यकुमार

सोमवार, 11 जुलाई 2011

प्रागैतिहासिक मानव, प्राकृतिक रूप से शाकाहारी ही था। (नवीनतम शोध)



‘नेशनल अकादमी आफ साइंसेज’ के जर्नल में प्रकाशित अनुसंधान रिपोर्ट के मुताबिक पुरापाषाण काल के मनुष्य, यूरोपीय आलू जैसे किसी शाक को पीस कर आटा बनाते थे और बाद में इसमें पानी मिला कर इस आटे को माढ लेते थे। अनुसंधानकर्ताओं में शामिल इटालियन इंस्टीटयूट आफ प्रिहिस्ट्री एडं अर्ली हिस्ट्री की खोजकर्ता लाउरा लोन्गो ने बताया कि यह बिल्कुल चपटी रोटी के समान होता था।उन्होंने कहा कि इसे गर्म पत्थरों पर सेंका जाता था, जो पकने के बाद करारी तो भले होती थी, लेकिन बहुत स्वादिष्ट नहीं होती थी।किसी वयस्क की हथेली में लगभग समा जाने वाले और पीसने के काम में आने वाले पत्थर इटली, रूस और चेक गणतंत्र में पुरातात्विक जगहों पर मिले हैं। करीब 30 हजार वर्ष पुराने पत्थरों पर खाद्यान्न के टुकडे पाए गए हैं। मानव का रोटी से पुराना है नाता। इससे पहले इजरायल में मिले 20 हजार वर्ष पुराने पत्थरों पर खाद्यान्न मिलने के बाद यह अनुमान लगाया गया था कि पहली बार आटे का इस्तेमाल 20 हजार वर्ष पहले किया गया था। नयी खोज से पता चला है कि रोटी का प्रचलन 30 हजार वर्ष पहले भी था। इस अनुसंधान ने इस धारणा को चुनौती दी है कि प्रागैतिहासिक काल का मानव मुख्य भोजन के रूप में मात्र मांस खाता था। नए साक्ष्य बताते हैं कि भारत जैसे देशों के समान ही, मुख्य भोजन के रूप में रोटी का उपयोग प्राचीन काल से होता रहा है। 
यह शोध पत्र 'नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज' के जर्नल में छपा है। 

एक अन्य शोध के अनुसार निएंडरथल मानव सब्ज़ियां भी खाया करते थे. आदि मानवों पर किए गए एक नए शोध के अनुसार आदिमानव (निएंडरथल) सब्ज़ियां पकाते थे और खाया करते थे.अमरीका में शोधकर्ताओं का कहना है कि उन्हें निएंडरथल मानवों के दांतों में पके हुए पौधों के अंश मिले हैं.यह पहला शोध है जिसमें इस बात की पुष्टि होती है कि आदिमानव अपने भोजन के लिए सिर्फ़ मांस पर ही निर्भर नहीं रहते थे बल्कि उनके भोजन की आदतें कहीं बेहतर थींयह शोध प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडेमी ऑफ साइंसेज़ में छपा है.

आम तौर पर लोगों में आदि मानवों के बारे में ये धारणा रही है कि वो मांसभक्षी थे और इस बारे में कुछ परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी मिल चुके थे. तब उनकी हड्डियों की रासायनिक जांच के बाद मालूम चला था कि वो सब्ज़ियां कम खाते थे या बिल्कुल ही नहीं खाते थे.इसी आधार पर कुछ लोगों का ये मानना था कि मांस भक्षण के कारण ही हिमकाल के दौरान बड़े जानवरों की तरह ये मानव भी बच नहीं पाएहालांकि अब दुनिया भर में निएंडरथल मानवों के अवशेषों की रासायनिक जांच से मिले परिणामों ने उक्त अवधारणा को झुठलाया है. शोधकर्ताओं का कहना है कि इन मानवों के दांतों की जांच के दौरान उसमें सब्ज़ियों के कुछ अंश मिले हैं जिसमें कुछ तो पके हुए हैं.निएंडरथल मानवों के अवशेष जहां कहीं भी मिले हैं वहां पौधे भी मिलते रहे हैं लेकिन इस बात का प्रमाण नहीं था कि ये मानव वाकई सब्ज़ियां खाते थे।

जॉर्ज वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एलिसन ब्रुक्स ने बीबीसी न्यूज़ से कहा, ‘‘ हमें निएंडरथल साइट्स पर पौधे तो मिले थे लेकिन ये नहीं पता था कि वो वाकई सब्ज़ियां खाते थे या नहीं. हां लेकिन अब तो लग रहा है जब उनके दांतों में अग्नीपक्व सब्ज़ियों के अंश मिले हैं इसलिए निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि वो शाकाहारी भी थे।’’

बुधवार, 6 जुलाई 2011

कुछ महत्वपूर्ण जानकारी शाकाहारियों के लिए भी


मित्रों मांसाहार घृणित है, यह अब अधिकतर लोग जानने लगे हैं और शाकाहार अपनाने लगे हैं| यह एक अच्छा संकेत है| किन्तु हम शाकाहारी भी भ्रम में ही हैं कि हम पूर्णत: शाकाहारी हैं| शाकाहार के भ्रम में हम दैनिक जीवन में ऐसी बहुत सी खाद्द वस्तुओं का सेवन कर रहे हैं जिन्हें मांसाहार की श्रेणी में रखा जाना परम आवश्यक है| हम शाकाहारियों को पहले इन सब का त्याग करना होगा|


अधिकतर चॉकलेट Whey Powder से बनाई जाती हैं|  Cheese बनाने की प्रक्रिया में Whey Powder एक सहउत्पाद है| अधिकतर Cheese भी युवा स्तनधारियों के Rennet से बनाया जाता है| Rennet युवा स्तनधारियों के पेट में पाया जाने वाला एंजाइमों का एक प्राकृतिक समूह है, जो माँ के दूध को पचाने के काम आता है| इसका उपयोग Cheese बनाने में होता है| अधिकतर Rennet को गाय के बछड़े से प्राप्त किया जाता है, क्योंकि उसमे गाय के दूध को पचाने की बेहतर प्रवृति होती है|
(मित्रों यहाँ Cheese व पनीर में बहुत बड़ा अंतर है, इसे समझें|)
आजकल हम भी बच्चों के मूंह चॉकलेट लगा देते हैं, बिना यह जाने की इसका निर्माण कैसे होता है?

दरअसल यह सब विदेशी कंपनियों के ग्लैमर युक्त विज्ञापनों का एक षड्यंत्र है| जिन्हें देखकर अच्छे खासे पढ़े लिखे लोग इनके मोह में ज्यादा पड़ते हैं| आजकल McDonald, Pizza Hut, Dominos, KFC के खाद्द पदार्थ यहाँ भारत में भी काफी प्रचलन में हैं| तथाकथित आधुनिक लोग अपना स्टेटस दिखाते हुए इन जगहों पर बड़े अहंकार से जाते हैं| कॉलेज के छात्र-छात्राएं अपनी Birth Day Party दोस्तों के साथ यहाँ न मनाएं तो इनकी नाक कट जाती है| वैसे इन पार्टियों में अधिकतर लडकियां ही होती हैं क्योंकि लड़के तो उस समय बीयर बार में होते हैं|
मैंने भी अपने बहुत से मित्रों व परिचितों को बड़े शौक से इन जगहों पर जाते देखा है, बिना यह जाने कि ये खाद्द सामग्रियां कैसे बनती हैं? यहाँ जयपुर में ही मांस का व्यापार करने वाले एक व्यक्ति से एक बार पता चला कि किस प्रकार वे लोग मांस के साथ साथ पशुओं की चर्बी से भी काफी मुनाफा कमाते हैं| ये लोग चर्बी को काट काट कर कीमा बनाते हैं व बाद में उससे घी व चीज़ बनाते हैं| मैंने पूछा कि इस प्रकार बने घी व चीज़ का सेवन कौन करता है? तो उसने बताया कि McDonald, Pizza Hut, Dominos आदि इसी घी व चीज़ का उपयोग अपनी खाद सामग्रियों में करते हैं व वे इसे हमसे भी खरीदते हैं|

इसके अलावा सूअर के मांस से सोडियम इनोसिनेट अम्ल का उत्पादन होता है, जिससे भी खाने पीने की बहुत सी वस्तुएं बनती हैं| सोडियम इनोसिनेट एक प्राकृतिक अम्ल है जिसे औद्योगिक रूप से सूअर व मछली से प्राप्त किया जाता है| इसका उपयोग मुख्यत: स्वाद को बढाने में किया जाता है|

बाज़ार में मिलने वाले बेबी फ़ूड में इस अम्ल को उपयोग में लिया जाता है, जबकि १२ सप्ताह से कम आयु के बच्चों के भोजन में यह अम्ल वर्जित है|
इसके अतिरिक्त विभिन्न कंपनियों के आलू चिप्स व नूडल्स में भी यह अम्ल स्वाद को बढाने के लिए उपयोग में लाया जाता है| नूडल्स के साथ मिलने वाले टेस्ट मेकर के पैकेट पर इसमें उपयोग में लिए गए पदार्थों के सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा होता| Maggi कंपनी का तो यह कहना था कि यह हमारी सीक्रेट रेसिपी है| इसे हम सार्वजनिक नहीं कर सकते|
चुइंगम जैसी चीज़ें बनाने के लिए भी सूअर की चर्बी से बने अम्ल का उपयोग किया जाता है|

इस प्रकार की वस्तुओं को प्राकृतिक रूप से तैयार करना महंगा पड़ता है अत: इन्हें पशुओं से प्राप्त किया जाता है|

  • Disodium Guanylate (E-627) का उत्पादन सूखी मछलियों व समुद्री सेवार से किया जाता है, इसका उपयोग ग्लुटामिक अम्ल बनाने में किया जाता है|
  • Dipotassium Guanylate (E-628) का उत्पादन सूखी मछलियों से किया जाता है, इसका उपयोग स्वाद बढाने में किया जाता है|
  • Calcium Guanylate (E-629) का उत्पादन जानवरों की चर्बी से किया जाता है, इसका उपयोग भी स्वाद बढाने में किया जाता है|
  • Inocinic Acid (E-630) का उत्पादन सूखी मछलियों से किया जाता है, इसका उपयोग भी स्वाद बढाने में किया जाता है|
  • Disodium Inocinate (e-631) का उत्पादन सूअर व मछली से किया जाता है, इसका उपयोग चिप्स, नूडल्स में चिकनाहट देने व स्वाद बढाने में किया जाता है|
इन सबके अतिरिक्त शीत प्रदेशों के जानवरों के फ़र के कपडे, जूते आदि भी बनाए जाते हैं| इसके लिए किसी जानवर के शरीर से चमड़ी को खींच खींच कर निकाला जाता है व जानवर इसी प्रकार ५-१० घंटे तक खून से लथपथ तडपता रहता है| तब जाकर मखमल कोट व कपडे तैयार होते हैं और हम फैशन के नाम पर यह पाप पहने मूंह उठाए घुमते रहते हैं|

यह सब आधुनिकता किस काम की? ये सब हमारे ब्रेनवाश का परिणाम है, जो अंग्रेज़ कर गए|

अधिकतर जानकारी का स्त्रोत यहाँ व यहाँ है...

बंद करो ये अत्याचार


मित्रों एक मित्र ने ये कविता मुझे भेजी...किसने लिखी है पता नहीं, किन्तु जिसकी भी ये कृति है उन्हें बहुत बहुत धन्यवाद...



बंद करो ये लहूधार का , जीवन का व्यापार
मूक पशू की पीड़ा समझो,अपनाओ शाकाहार

अरे मनुज ने मानवता तज , पशुता का यह मार्ग चुना
नीच कर्म यह महापाप है , सब पापों से कई गुना

दर दर भटके शांति खोजता , मानवता के नारों में
 उलझा तीन टके के पीछे , पशू वध के व्यापारों में

कहाँ सुकून मिलेगा हमको,जब हर घर में चित्कार है
लाल लहू से जीभ रंगी है , अरु हाथों में तलवार है

चोट यदि मुन्ने को लगती , तब कितनी पीड़ा होती है
क्यों कोई फर्क नहीं पड़ता,जब बकरे की अम्मा रोती है

कई माओं की छिपी व्यथा है,तेरी षटरस थाली में
कई वधों की लिखी कथा , तेरे होटों की लाली में

मंदिर में पूजे गोमाता , कब घर में आदर पाती है
दूध पिलाना बंद करे तो , गाय कतल की जाती है

आज यदि पशू रोता है तो , कल तेरी भी बारी है
इन तलवारों की धारों की , नहीं किसी से यारी है

अरे पशू की छोड़ो चिंता , अब अपनी ही बात करो
रहे नहीं जो यदि काम के ,वे बोलेंगे अपघात करो

कहो कहाँ दरकार रही , अब बाहर के शत्रु की
गर्भपात कर करते ह्त्या,खुद अपने शिशुओं की

मेरी तेरी हो या पशुओं की , अरे जान तो जान है
इसमें उसमें जो फर्क करे,वह कायर है,बेईमान है

मांसाहार का दूषण लोगों,नहीं दूर क्षितिज का रहा अन्धेरा
आज द्वार पर दस्तक देता , जाने कब कर लेगा डेरा

अरे अश्रु की धाराओं ने , अपने आशय खो डाले
अरे लहू के लाल रंगों से , खेलें बालक भोले भाले

उनके जीवन में कहाँ दया , क्या प्रेम भावना रह पायेगी
खुद ही आपको लुटा पाओगे , जब बाढ़ खेत को खायेगी

करे शूल का बीजारोपण , उगता पेड़ बबूल का
अनंत काल भुगतोगे दूषण,एक समय की भूल का

इससे पहिले की लुट जाएँ, जाग्रत हो जाना चाहिए
हम भी रहें शाकाहारी , औरों को बनाना चाहिए

अब नेक दयालू युवकों ने , छेड़ दिया अभियान
अरे निरीह पशुओं के प्रति अब,करलो युद्धविराम

तुम खुद भी हो जीव, जीव का रखो तो सम्मान
नहीं बनो कातिल हत्यारे, तुम तो हो भगवान्

अरे! एक जीवन की खातिर, कितने जीवन छीनोगे
अपनी उनकी एक जात है, कब इस सच को चीन्होगे


शनिवार, 2 जुलाई 2011

गैया की पुकार





ए हिंद देश के लोगों, सुन लो मेरी दर्द कहानी।
क्यों दया धर्म विसराया, क्यों दुनिया हुई वीरानी।

जब सबको दूध पिलाया, मैं गौ माता कहलाई,
क्या है अपराध हमारा, जो काटे आज कसाई।
बस भीख प्राण की दे दो, मै द्वार तिहारे आई,
मैं सबसे निर्बल प्राणी, मत करो आज मनमानी॥

जब जाउँ कसाईखाने, चाबुक से पीटी जाती,
उस उबले जल को तन पर, मैं सहन नहीं कर पाती।
जब यंत्र मौत का आता, मेरी रुह तक कम्प जाती,
मेरा कोई साथ न देता, यहाँ सब की प्रीत पहचानी॥

उस समदृष्टि सृष्टि नें, क्यों हमें मूक बनाया,
न हाथ दिए लड़नें को, हिन्दु भी हुआ पराया।
कोई मोहन बन जाओ रे, जिसने मोहे कंठ लगाया,
मैं फर्ज़ निभाउँ माँ का, दूँ जग को ममता निशानी॥

मैं माँ बन दूध पिलाती, तुम माँ का मांस बिकाते,
क्यों जननी के चमड़े से, तुम पैसा आज कमाते।
मेरे बछड़े अन्न उपजाते, पर तुम सब दया न लाते,
गौ हत्या बंद करो रे, रहनें दो वंश निशानी॥

                             --रचनाकार (अज्ञात गौ-प्रेमी)

(लय है, ए मेरे वतन के लोगों…)