पर्यावरण आज विश्व की गम्भीर समस्या हो गई है। प्रकृति को बचाना अब हमारी ज्वलंत प्राथमिकता है। लेकिन प्राकृतिक सन्तुलन को विकृत करने में स्वयं मानव का ही हाथ है। पर्यावरण और प्रदूषण मानव की पैदा की हुई समस्या है। प्रारम्भ में पृथ्वी घने वनों से भरी थी। लेकिन जनसंख्या वृद्धि और मनुष्य के सुविधाभोगी मानस ने, बसाहट,खेती-बाडी आदि के लिए वनों की कटाई शुरू की। औद्योगिकीकरण के दौर में मानव नें पर्यावरण को पूरी तरह अनदेखा कर दिया। जीवों के आश्रय स्थल उजाड़ दिए गये। न केवल वन सम्पदा और जैव सम्पदा का विनाश किया, बल्कि मानव नें जल और वायु को भी प्रदूषित कर दिया। कभी ईंधन के नाम पर तो कभी इमारतों के नाम पर। कभी खेती के नाम पर तो कभी जनसुविधा के नाम पर, मानव प्राकृतिक संसाधनो का विनाशक दोहन करता रहा।
वन सम्पदा में पशु-पक्षी आदि, प्राकृतिक सन्तुलन के अभिन्न अंग होते है। प्रकृति की एक समग्र जैव व्यवस्था होती है। उसमें मानव का स्वार्थपूर्ण दखल पूरी व्यवस्था को विचलित कर देता है। मनुष्य को कोई अधिकार नहीं प्रकृति की उस व्यवस्था को अपने स्वाद, सुविधा और सुन्दरता के लिए खण्डित कर दे। अप्राकृतिक रूप से जब इस कड़ी को खण्डित करने का दुष्कर्म होता है, प्रकृति में विनाशक विकृति उत्पन्न होती है जो अन्ततः स्वयं मानव अस्तित्व के लिए ही चुनौति बन खड़ी हो जाती है। जीव-जन्तु हमारी ही भांति इस प्रकृति के आयोजन-नियोजन का अटूट हिस्सा होते है। वे पूरे सिस्टम को आधार प्रदान करते है। प्रकृति पर केवल मानव का मालिकाना हक़ नहीं है। मानव को समस्त प्रकृति के संरक्षण की शर्तों के साथ ही अतिरिक्त उपयोग बुद्धि मिली है। मानव पर, प्रकृति के नियंत्रित उपयोगार्थ विधानों का आरोपण किया गया है, जिसे हम धर्मोपदेश के नाम से जानते है। वे शर्तें और विधान, यह सुनिश्चित करते है कि सुख सभी को समान रूप से उपलब्ध रहे।
इसीलिए विश्व के सभी धर्मों के प्रणेता व महापुरूष, हिंसा, क्रूरता, जीवों को अकारण कष्ट व पीड़ा देने को गुनाह कहते है। वे प्रकृति के संसाधनों के मर्यादित उपभोग की सलाह देते है। अपरिग्रह का उपदेश देते है। मन वचन काया से संयमित,अनुशासित रहने की प्रेरणा देते है। इसी भावना से वे प्राणी मात्र में अपनी आत्मा सम झलक देखते/दिखलाते है। जब वे कण कण में भगवान होने की बात करते है,तो अहिंसा का ही आशय होता है । सभी को सुख प्रदान करने के उद्देश्य से ही वे यह सूत्र देते है कि ‘आत्मा सो परमात्मा’ या हर जीव में परमात्मा का अंश होता है। यह भी कहा जाता है कि सभी को ईश्वर नें पैदा किया अतः सभी जीव ईश्वर की सन्तान है। इसीलिए जीव-जन्तु, पशु-पक्षियों के साथ दया, करूणा का व्यवहार करनें की शिक्षा दी जाती है। सारी बुराईयां किसी न किसी के लिए पीड़ादायक हिंसा बनती है। अतः सभी सद्गुणों को अहिंसा में समाहित किया जा सकता है। यही धर्म है। यही प्रकृति का धर्म है। यही सुनियोजित जीवन का विधान है। अर्थात्, अहिंसा पर्यावरण का संरक्षण विधान है।