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शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

वैदिक संस्कृति और माँसाहार ???

दिकाल से भारतीय आर्य संस्कृति का विश्व में जो महत्वपूर्ण स्थान रहा है, उसे न तो किसी के चाहे झुठलाया ही जा सकता है और न ही मिटाया. ये वो एकमात्र संस्कृति रही है, जिसे उसके त्याग, शील, दया, अहिँसा और ज्ञान के लिए जाना जाता रहा है. हालाँकि वर्तमान युग में चन्द अरबी सभ्यता के पोषक एवं पालक तत्व इसकी गरिमा को लाँछित करने में पूरे मनोयोग से प्रयत्नशील हैं. ये वो आसुरी प्रवृति के लोग हैं, जो सम्पूर्ण विश्व को अपने अज्ञान, कपट, हिँसा और अहं की अग्नि में भस्मीभुत कर देना चाहते हैं. लेकिन ये लोग शायद जानते ही नहीं, या कहें कि जानते हुए भी इस सत्य को पचा पाने में असमर्थ हैं, कि युगों से न जाने उनके जैसी कितनी सभ्यताओं और संस्कृतियों को ये सनातन संस्कृति अपने से समाहित कर चुकी है.
जेहादी मानसिकता के पोषक इन मलेच्छों की मलेच्छता का रोग तो यहाँ तक बढ गया है कि ये कुटिल लोग यह निराधार कल्पना करने से भी न चूके कि वेदों में माँसाहार की प्रशन्सा की गई है. ओर तो ओर आईएसआई के एक मलेच्छ एजेन्ट नें तो लगता है कि इस बात का बीडा ही उठा रखा है कि चाहे कैसे भी हो, वेदों में पशुबलि, माँसभक्षण वगैरह वगैरह सिद्ध करके ही रहूँगा.
कितने आश्चर्य की बात है कि जैसा ये लोग भविष्य को बदलना चाहते हैं, उसी प्रकार भूत को बदल डालने के अशक्य अनुष्ठान में भी प्रवृत होने लगे हैं. लेकिन ये मूर्ख नहीं जानते कि भूत सदा ही निश्चल और अमिट होता है. भविष्य की तरह वह कभी बनाये नहीं बनता. भारतीय आर्य संस्कृति और उसके आधार ग्रन्थ सत्य, शील, अहिँसा, त्याग और विश्वबन्धुत्व जैसे न जाने कितने सद्गुणों की उपज हैं. यह एक ऎसा ज्वलन्त सत्य है, जो किसी भी प्रकार से आवृत या असंदिग्ध न तो युगों से कभी हो सका है और न ही भविष्य में कभी हो सकता है. चाहे ये आसुरी जीव लाख सिर पटक लें.................
हालाँकि ब्लागिंग की दुनिया में सक्रिय प्रत्येक पाठक इस बात को भली भाँती समझता है कि विधर्मियों द्वारा फैलाया जा रहा ये मिथ्याचार केवल और केवलमात्र इस राष्ट्र एवं इसकी संस्कृति विषयक अरूचि का द्योतक है. भला मूर्खों को कोई क्या समझाये कि माँस भक्षण के विषय में उस समय के समाज में कितनी घृणा व्याप्त थी, यह तो इस जाति के धर्मशास्त्रों को स्वयं पढकर ही जाना जा सकता है,न कि अपने आकाओं द्वारा बताये गये मनमाफिक अनुवादों द्वारा.
भारतीय धार्मिक तथा व्यवहारिक शास्त्रों में "मानव जाति का आहार" क्या होना चाहिए, इस विषय की विचारणा तो अनादिकाल से ही होती आ रही है. वेद, पुराण, विविध स्मृतियां, जैन-सिद्धान्त इत्यादि इस विचारणा के मौलिक आधार ग्रन्थ हैं. इनके अतिरिक्त आयुर्वेद शास्त्र, उसके निघण्टु कोष तथा पाकशास्त्र भी मानव जाति के आहार के विषय में पर्याप्त प्रकाश डालने वाले ग्रन्थ हैं. परन्तु इस विषय की खोज करने का समय तभी आता है, जबकि मानव के भक्षण योग्य पदार्थों के सम्बन्ध में दो मत खडे होते हैं.
अनादि काल से मानव घी, दूध, दही एवं वनस्पति का ही भोजन करता आया है, माना कि समय-समय पर इसके सम्बन्ध में विपरीत विचार भी उपस्थित हुए हैं. लेकिन तात्कालिक विद्वानों नें अपने-अपने ग्रन्थों में भोजन सम्बन्धी इस नवीन "माँसभोजी मान्यता" का खंडन ही किया है न कि समर्थन.
अब इससे बढकर भला ओर क्या प्रमाण हो सकता है कि शास्त्र की दृष्टि में जो पदार्थ अभक्ष्य होता, उसकी निवृति के लिए उसे गो-माँस तुल्य बताकर उसे छोडने का उपदेश दिया जाता था. इस विषय के दृष्टान्तों से तो धर्मशास्त्र भरे पडे हैं. हम उनमें से केवल एक ही उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करेंगें.
घृतं वा यदि वा तैलं, विप्रोनाद्यान्नखस्थितम !
यमस्तदशुचि प्राह, तुल्यं गोमासभक्षण: !!

माता रूद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभि: !
प्र नु वोचं चिकितुपे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट !! (ऋग्वेद 8/101/15)
अर्थात रूद्र ब्रह्मचारियों की माता, वसु ब्रह्मचारियों के लिए दुहिता के समान प्रिय, आदित्य ब्रह्मचारियों के लिए बहिन के समान स्नेहशील, दुग्धरूप अमृत के केन्द्र इस (अनागम) निर्दोष (अदितिम) अखंडनीया (गाम) गौ को (मा वधिष्ट) कभी मत मार. ऎसा मैं (चिकितेषु जनाय) प्रत्येक विचारशील मनुष्य के लिए (प्रनुवोचम) उपदेश करता हूँ.
वेदों के इतने स्पष्ट आदेश होते हुए यह कल्पना करना भी अपने आप में नितांत असंगत है कि वैदिक यज्ञों में माँसाहुति दी जाती थी, या कि वैदिक आर्य जाति पशुबलि, गौहत्या, माँसभक्ष्ण जैसे निकृष्ट कर्मों में संलग्न थी. यदि कोई राक्षस ( जिन्हे वेदों में यातुधान वा हिँसक के नाम से पुकारते हुए अत्यन्त निन्दनीय बतलाया गया है) ऎसा दुष्कर्म करते होंगें--------जैसा कि प्रत्येक समय में अच्छे-बुरे व्यक्ति कम या अधिक मात्रा में होते ही हैं, तो उनके इस कार्य को किसी प्रकार भी शिष्टानुमोदित नहीं माना जा सकता. ऎसे पापियों के लिए तो वेद मृत्युदंड का ही विधान करते हैं. जैसा कि यहाँ सप्रमाण दिखाया जा चुका है...........
यदि नो गां हंसि यघश्वं यदि पुरूषम !
त्वं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नोसो अवीरहा !! (अथर्व.1/1/64)
अर्थात हे दुष्ट ! यदि तूं हमारे गायें, घोडे आदि पशु अथवा पुरूषों की हत्या करेगा तो हम तुझे सीसे की गोली से वेध देंगें.
य: पौरूषेयेण क्रविषा समंक्ते यो अश्वयेन पशुना: यातुधान: !
यो अध्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च !! (ऋग्वेद 10/87/16)
अर्थात जो मानव, घोडे या अन्य पशु के माँस का भक्षण करता है. और जो गौंओं की हत्या कर के उनके दूध से अन्यों को वंचित करता है. हे राजन! यदि अन्य उपायों से ऎसा यातुधान ( हिँसक--राक्षस वृति का मनुष्य) न माने तो अपने तेज से उसके सिर तक को काट डाल. यह अन्तिम दण्ड है जिसको दिया जा सकता है.
उपरोक्त मन्त्र माँसभक्षण निषेध की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है. अत: उसका सायणाचार्य कृत भाष्य भी यहाँ उद्धृत किया जाता है:--
य: यातुधान:--राक्षस: ( पौरूषेयेन क्रविषा) पुरूषसंम्बन्धिना हिंसेण (समंड्ते) आत्मानं संगमयति (यश्च अश्व्येन) अश्वसमूहेन तदियेन मांसेनेत्यर्थ: आत्मानं संगमयति यो वा यातुधान: अन्येन पशुना आत्मानं संगमयति यो वा यातुधान: (अध्न्याया:) गो: (क्षीरम) (भरति) हरति हे अग्ने त्वं तेषां सर्वेषामपि राक्षसानाम (शीर्षाणि) शिरांसि (हरसा) त्वदीयेन तेजसा (वृश्चा) छिन्धि ! इस का अर्थ वही है, जो हम यहाँ ऊपर दे चुके हैं.
ऋग्वेद 10.87 में यातुधानो अथवा राक्षसों के स्वभाव का वर्णन है. उसमें 3-4 स्थानों पर "क्रव्याद" इस विशेषण का प्रयोग है, जिसका अर्थ माँसभक्षक है. उपरोक्त ऋचा उसी सूक्त की है, जिसका सायणभाष्य सहित हमने उल्लेख किया है.
य आमं मांसमदन्ति पौरूषेयं च ये क्रवि: !
गर्भान खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि !! (अथर्व.8/6/23)
इस मन्त्र में कहा है कि जो कच्चा माँस खाते हैं, जो मनुष्यों द्वारा पकाया हुआ माँस खाते हैं, जो गर्भ रूप अंडों का सेवन करते हैं, उन के इस दुष्ट व्यसन का नाश करो !
हालाँकि इस विषय में सैकडों क्या हजारों मन्त्रों को उद्धृत किया जा सकता है, किन्तु विषय विस्तार के भय से दो ओर मन्त्रों का उल्लेख कर जिनमें चावल, जौं, माष ( उडद ) तिल आदि उत्तम अन्न के सेवन का और पशुओं के दूध को ही ( न कि मांस को) सेवन करने का उपदेश है, हम इस विषय को समाप्त करते हैं.
पुष्टिं पशुनां परिजग्रभाहं चतुष्पदां द्विपदां यच्च धान्यम !
पय: पशुनां रसमोषधीनां बृहस्पति: सविता मे नियच्छात !! (अथर्व.19/31/5)
इस मन्त्र में भी यही कहा है कि मैं पशुओं की पुष्टि वा शक्ति को अपने अन्दर ग्रहण करता हूं और धान्य का सेवन करता हूँ. सर्वोत्पादक ज्ञानदायक परमेश्वर नें मेरे लिए यह नियम बनाया है कि (पशुनां पय:) गौ, बकरी आदि पशुओं का दुग्ध ही ग्रहण किया जाये न कि मांस तथा औषधियों के रस का आरोग्य के लिए सेवन किया जाए. यहां भी "पशुनां पयइति बृहस्पति: मे नियच्छात:" अर्थात ज्ञानप्रद परमेश्वर नें मेरे लिए यह नियम बना दिया है कि मैं गवादि पशुओं का दुग्ध ही ग्रहण करूँ, स्पष्टतया मांसनिषेधक है !
अथर्ववेद 8/2/18 में ब्रीही और यव अर्थात चावल और जौं (ये धान्यों के उपलक्षण हैं) इत्यादि के विषय में कहा है कि------
शिवौ ते स्तां ब्रीहीयवावबलासावदोमधौ !
एतौ यक्ष्मं विबाधेते एतौ मुण्चतौ अंहस: !!
हे मनुष्य ! तेरे लिए चावल, जौं आदि धान्य कल्याणकारी हैं. ये रोगों को दूर करते हैं और सात्विक होने के कारण पाप वासना से दूर रखते हैं.
इन के विरूद्ध माँस पाप वासना को बढाने वाला और अनेक रोगोत्पादक है. अत: माँस शब्द की जो व्युत्पत्ति  निरूक्त अध्याय 4 में बताई गई है, उसमें कहा है---मासं माननं वा, मानसं वा, मनोस्मिन् सीदतीति वा !
माँस इसलिए कहते हैं कि यह मा + अननम है अर्थात इस से दीर्घ जीवन प्राप्त नहीं होता प्रत्युत यह आयु को क्षीण करने वाला है. ( मानसं वा ) यह हिंसाजन्य होने से मानस पापों को प्रोत्साहित करने वाला होता है. (मनोस्मिन् सीदतीति वा) जिस में भी मनुष्य का मन लग जाए, जो मन पसन्द हो ऎसे पदार्थ को मांस कह सकते हैं. इसीलिए परमान्न वा खीर तथा फलों के गूदे इत्यादि के लिए मांस शब्द का प्रयोग वेदों में कईं जगह आता है.
इस प्रकार यह सर्वथा स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि वेदों में माँस भक्षण का पूर्णतय: निषेध है. इस के विरूद्ध धूर्तों द्वारा जहाँ कहीं कुछ अन्टशन्ट लिखा/कहा गया हो, वह अप्रमाणिक और अमान्य है ! ! !

31 टिप्‍पणियां:

  1. इस लेख की जितनी प्रशंसा की जाये उतनी बेहतर है, एक बात आपने बिल्कुल ठीक बतायी कि I.S.I का एजेंट मांसाहार को सबसे बेहतर बनाने पर क्यों तुला हुआ है वो शायद ये चाहता है कि भारत के बचे हुए शाकाहारी भी उसके जैसे राक्षस मांसभक्षी हो जाये। एक बात समझ नहीं आती है कि ये I.S.I के एजेंट सुअर के माँस से बचकर क्यों भागते है?
    अन्न के बारे में कहा गया है जैसा खाओगे अन्न वैसे होगा मन।

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  2. नमन पंडित जी आपको !
    आपने इस महनीय लेख से इन धूर्त भाँड़ो द्वारा फैलाए जा रहे कुप्रचार का हाड़तोड़ जवाब दिया है.
    ये कुसंस्कृती के वाहक इस ज्ञान को समझ भी नहीं सकतें है, क्योंकि निश्चारों की आँखे साधारण प्रकाश में चुंधिया जाती है .
    यह तो ज्ञान की महान ज्योति है. इसका ज्योति का तेज असुरों द्वारा किस तरह सहनीय हो सकता है, वे तो येन-केन प्रकरेण इससे दूर भागने या लांछन लगाने का ही कार्य कर सकतें है, जो की यह भांड बखूबी हजारों वर्षो से करतें आ रहें . पर सूरज को धूल उछालकर ढंकने की कोशिश क्या कभी कामयाब हुयी है .
    पर हर पीढ़ी को इन लांछनो की हकीकत से वाकिफ कराने के लिए इस प्रकार के लेख अनवरत प्रकाशित होते ही रहने चाहिये .
    आभार आपका इस संग्रहणीय लेख के लिए !

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  3. य आमं मांसमदन्ति पौरूषेयं च ये क्रवि: !
    गर्भान खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि !! (अथर्व.8/6/23)

    आभार!

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  4. अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परि भूरसि स इद देवेषु गच्छति (ऋग्वेद, १ : १ : ४)
    -हे दैदीप्यमान प्रभु ! आप के द्वारा व्याप्त ‘हिंसा रहित’ यज्ञ सभी के लिए लाभप्रद दिव्य गुणों से युक्त है तथा विद्वान मनुष्यों द्वारा स्वीकार किया गया है |

    ऋग्वेद संहिता के पहले ही मण्डल,प्रथम ही सुक्त के चौथे ही मंत्र में यह साफ साफ कह दिया गया है कि 'यज्ञ हिंसा रहित ही हों'। ऋग्वेद में सर्वत्र यज्ञ को हिंसा रहित कहा गया है इसी तरह अन्य तीनों वेद भी अहिंसा वर्णित हैं | फिर यह कैसे माना जा सकता है कि वेदों में हिंसा या पशु वध की आज्ञा है ?

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  5. वैदिक संस्कृतीि में मांसाहार निषिद्ध है!

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  6. जैसा खाओगे अन्न वैसे होगा मन

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  7. बहुत सुंदर, उपयोगी और विचारणीय विवेचन प्रस्तुत किया है.....साधुवाद

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  8. बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति ...साधुवाद

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  9. प्रखर मेधा परिचायक लेख हेतु साधुवाद !

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  10. पंडित जी ,
    इस संग्रहणीय लेख के लिए आभार आपका !

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  11. बहुत सुंदर, उपयोगी और विचारणीय विवेचन प्रस्तुत किया है| धन्यवाद|

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  12. मुझे लगता है वैदिक संस्कृति की विपुलता ,विराटता और व्यापकता को महज खान पान तक ही सीमित कर देखना एक संकुचित दृष्टिकोण है

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  13. इस पोस्ट के लिए धन्यवाद । मरे नए पोस्ट :साहिर लुधियानवी" पर आपका इंतजार रहेगा ।

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  14. आदरणीय अरविन्द मिश्र जी,

    यह मात्र खान-पान का संकुचित दृष्टिकोण नहीं, बात अहिंसा की है। वैदिक संस्कृति की विपुलता ,विराटता और व्यापकता, अहिंसा परमो धर्मः में ही निहित है और उसी से उसकी सर्वग्राहता बनी हुई है। रहन-सहन-आहार-विहार रूप सभ्यता के विकृत होते ही, सुसंस्कृति भी चली जाएगी।

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  15. @रहन-सहन-आहार-विहार रूप सभ्यता के विकृत होते ही, सुसंस्कृति भी चली जाएगी।

    सही कहा सुज्ञ जी, ऐसी ही कोशिशें की जा रही हैं

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  16. जिसे समझना है, उसके लिए संकेत ही काफी होता है. जिसे नहीं समझना,उसे उसकी नियति पर छोड़ना ही ठीक.

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  17. जीवन शैली रोग के इस दौर में मांसाहार गुण -विवेचना से सम्बंधित एक मत्वपूर्ण पोस्ट.

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  18. निरामिष समर्थक मित्र यहाँ जाकर (पेज के निचले हिस्से में)
    http://www.blogger-index.com/1823893-
    निरामिष को रेटिंग दे सकते हैं

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  19. अच्छा लिखा है लेकिन क्या सच में ऐसा था । मैं खुद शाकाहारी हूँ पर इतना पढ़ चुका हूँ प्राचीन भारत में मांसाहार के बारे में कि विश्वास नही होता । क्या सच में ऐसा ही था ।

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  20. प्रिय मित्र मुनीश,

    मैंने भी बहुत सर्च किया, पढ़ा, पूछा और पाया की प्राचीन भारत में मांसाहार के बारे में जो भी कहा गया है या तो वो प्रमाणिक नहीं है या फिर थोपा गया है |

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  21. @ मुनीश जी - यह जो आपने पढ़ा है - प्राचीन भारत में मांसाहार के बारे में - यह ऐसा है की out of reference कोई बातें उठा कर कुछ भ्रांतियां फैलाना बहुत आसन होता है |

    जैसे - एक उदहारण देती हूँ - इसे आधा पढ़ कर कोई धारणा न बनाइये - इसे आखिर तक पढ़िए - फिर सोचिये की सन्दर्भ को जानते बूझते काट कर किस बात को किस तरह से पेश किया जा सकता है :

    "वाल्मीकि रामायण में वाल्मीकि जी ने लिखा है : "dethroned, hapless, seer vagrant rama who is short lived , for after all, he is human with littlest vitality"
    " हिंदी में -
    "राज्य से च्युत, दीन, भिक्षुक, पैदल घूमने वाले, मनुष्य जाती के, गतायु और अल्पतेज वाले राम"

    देखिये - इसका अर्थ है कि - रामायण के रचयिता वाल्मीकि जी स्वयं ही कह रहे हैं की राम सिर्फ एक कमज़ोर मृत्युशील मानव है | और ये जो आजकल हिन्दू , उन्ही राम को भगवान कहते हैं - ये सब के सब misguided हैं | देखिये - यह हमारे नहीं - श्री वाल्मीकि जी के ही लिखे हुए शब्द हैं |

    मुनीश जी - यह पढ़ कर क्या लगता है आपको - राम सिर्फ एक मानव हैं न ?
    --------------------------
    अब इसे सन्दर्भ के साथ पूरा पढ़िए :
    यह कथन वाल्मीकि रामायण के अरण्य कांड के ५५ वे सर्ग में २१वा श्लोक है | रावण सीता को हर कर ले गया है - और सीता को तरह तरह से अपने आप से विवाह करने को समझा रहा है | वह कह रहा है कि मैं तो लंका का एकछत्र राजा हूँ - मेरी पत्नी बन कर हे सुंदरी - तुम इतने बड़े राज्य की स्वामिनी होने वाली हो - उस दीन हीन राम को छोड़ कर, मुझसे विवाह करो | तो यह कथन वाल्मीकि जी का है ही नहीं - यह तो रावण का कथन है - जब उसने सीता को हर लिया और खुद पापी होते हुए सीता को भी पापाचार के लिए उकसाने का प्रयास कर रहा है |
    --------------------------
    इसी रावण mentality के चलते ही out of reference बातें quote कर के कई भ्रांतियां फैलाई जा सकती हैं | आखिर सब लोगों ने तो वेद पढ़े हैं नहीं - तो कुछ भी कह दो रेफेरेंस हटा कर - और लोगों को confuse करो - यह बहुत सरल मार्ग है उनके लिए - जो हमारी संस्कृति के प्रति हमारे प्रेम (अंध प्रेम ? - जो बिना जांचे परखे संस्कृति के नाम पर कही किसी भी बात को स्वीकार कर लेता है - चाहे वह बात कुछ भी हो ) को इस्तेमाल कर के हमें illogical बातें मनवा लेने का !!!!

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  22. सुन्दर,सार्थक और विचारणीय प्रस्तुति.

    शिल्पा बहिन,

    आपने सुन्दर प्रकार से सही उदहारण दे कर अपनी बात समझाई है.

    आभार.

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  23. प्रश्नावादी जी - this is terrible - unbeleivable ... i can't even begin to comprehend it.... SUCH BARBARIC CRUELTY????
    :(
    where are we going wrong ??

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  24. भ्रम शामक अतिसुन्दर आलेख...वाह !!!!
    साधुवाद आपका...

    एक सूत्र में बात यह है कि जैसा खाओ अन्न, वैसा होवे मन...
    आज सुख साधनों की भरमार के बीच जो मनुष्य का चित्त उद्वेलित अशांत हताश है,वह इसी कारण है कि तामसिकता दिनोदिन बढ़ती ही जा रही है, संवेदनाएं तेजी से घट रही हैं. व्यक्त के अन्दर जो सत्स्वरूप आत्मा है, वह विचलित है..
    स्थिति तब तक नहीं सुधरेगी जबतक कि बेसिक चीज आहार और विहार सात्विक नहीं होगा...

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  25. @shilpa ji,

    yes, it is true, I was also shocked when I read it because I also uses leather shoes, after reading it I am very sad that I am also the one of the consumer of this cruelty, so now as soon as possible I am going to buy non-leather shoes, thanx for reading the link

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  26. @ मुनीश जी,

    पग पग पर जीवदया, प्राणियों के प्रति वातसल्य भाव से ओत प्रोत, और अहिंसा के प्रति सजग शास्त्र, हिंसा का किसी भी तरह अनुमोदन कैसे कर सकते है? इसलिए मूल वेदवेदांगों में कहीं भी पशुहिंसा का उल्लेख नहीं है।
    1- स्पष्ट है कि गूढ़ार्थ में कहे गए मंत्रों के अनर्थ किए जा रहे है।
    2- यह माँसलोलुपो और हिंसाधर्मियों का योजनाबद्ध षड्यंत्र है।
    3- धर्म समस्त सृष्टि पर वात्सल्य भाव रखने में है।

    महाभारत में ही इस धूर्तता का स्पष्ट उल्लेख है देखें………
    महाभारत के शान्तिपर्व का श्रलोक- २६५:९

    सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।
    धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥

    सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि भोजन, धूर्त-प्रवर्तित है जिन्होनें ऐसे अखाद्य को वेदों में कल्पित कर दिया है।

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  27. @प्रश्नावादी जी,

    आपकी बात सही है, निश्चित ही चमड़ा उत्पादन, पशु-हिंसा और उनपर अत्याचार का कारण बनता है। कोमल चमड़े की बढ़ रही मांग ने इस हिसा को और भी क्रूर विस्तार दिया है। पशुओं के प्रति हिंसा को महाउद्योग की श्रेणी में खडा किया है।

    चमड़े के उपयोग से दूर रहने के आपके करूणा भाव को नमन करते है।

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  28. @निरामिष जी ,

    मेरा भी आपके इस ब्लॉग के द्वारा शाकाहार के प्रति इंटरनेट पर पहुंचाई जा रही जाग्रति के पवित्र प्रयास को शत-शत नमन ,मेरे द्वारा दिए गए लिंक को पढ़ने के लिए भी आपका धन्यवाद

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