चिकित्सा वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि प्रत्येक शरीर जीवित कोशिकाओं से मिल कर बनता है और शरीर में जब भोजन पहुंचता है तो ये सब कोशिकायें अपना-अपना भोजन प्राप्त करती हैं व मल त्याग करती हैं। यह मल एक निश्चित अंतराल पर शरीर बाहर फेंकता रहता है। यदि किसी जीव की हत्या कर दी जाये तो उसके शरीर की कोशिकायें मृत शरीर में मौजूद नौरिश्मेंट का उपभोग करके यथासंभव जीवित रहने का प्रयास करेगी। यह कुछ ऐसा ही है कि जैसे किसी बंद कमरे में पांच-सात व्यक्ति ऑक्सीजन न मिल पाने के कारण मर जायें तो उस कमरे में ऑक्सीजन का प्रतिशत शून्य मिलेगा। जितनी भी ऑक्सीजन कमरे में थी, उस सब का उपभोग हो जाने के बाद ही, एक-एक व्यक्ति मरना शुरु होगा। इसी प्रकार शरीर से काट कर अलग कर दिये गये अंग में जितना भी नौरिश्मेंट मौजूद होगा, वह सब कोशिकायें प्राप्त करती रहेंगी और जब नौरिश्मेंट समाप्तप्रायः हो जाएगा, तब मात्र मल ही शेष रहेगा और कोशिकायें धीरे धीरे मरती चली जायेंगी। ऐसे में कहा जा सकता है कि मृत पशु से नौरिश्मेंट पाने के प्रयास में हम वास्तव में कोशिका मल खा रहे होते हैं। सम्भव है यह बात कुछ लोगों को अरुचिकर लगे। पर यथार्थ तो यही है क्योंकि यह बायोलोजिकल तथ्य हैं। न केवल मल बल्कि उस मल पर निर्भर जिवाणुओं की भी उत्पत्ति होती है।
भारत जैसे देश में, जहां मानव के लिये भी स्वास्थ्य-सेवायें व स्वास्थ्यकर, पोषक भोजन दुर्लभ हैं, पशुओं के स्वास्थ्य की, उनके लिये पोषक व स्वास्थ्यकर भोजन की चिन्ता कौन करेगा? घोर अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में रहते हुए, जहां जो भी, जैसा भी, सड़ा-गला मिल गया, खाकर बेचारे पशु अपना पेट पालते हैं। उनमें से अधिकांश घनघोर बीमारियों से ग्रस्त हैं। ऐसे बीमार पशुओं को भोजन के रूप में प्रयोग करने की तो कल्पना भी मुझे कंपकंपी उत्पन्न कर देती है। यदि आप फिर भी उनको भोजन के रूप में बड़े चाव से देख पाते हैं तो ऐसा भोजन आपको मुबारक। हम तो पेड़ - पौधों पर छिड़के जाने वाले कीटनाशकों से निबट लें तो ही खैर मना लेंगे।
भारत जैसे देश में, जहां मानव के लिये भी स्वास्थ्य-सेवायें व स्वास्थ्यकर, पोषक भोजन दुर्लभ हैं, पशुओं के स्वास्थ्य की, उनके लिये पोषक व स्वास्थ्यकर भोजन की चिन्ता कौन करेगा? घोर अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में रहते हुए, जहां जो भी, जैसा भी, सड़ा-गला मिल गया, खाकर बेचारे पशु अपना पेट पालते हैं। उनमें से अधिकांश घनघोर बीमारियों से ग्रस्त हैं। ऐसे बीमार पशुओं को भोजन के रूप में प्रयोग करने की तो कल्पना भी मुझे कंपकंपी उत्पन्न कर देती है। यदि आप फिर भी उनको भोजन के रूप में बड़े चाव से देख पाते हैं तो ऐसा भोजन आपको मुबारक। हम तो पेड़ - पौधों पर छिड़के जाने वाले कीटनाशकों से निबट लें तो ही खैर मना लेंगे।
-- लेखक श्री सुशान्त सिंहल
बहुत ही तार्किक और विज्ञान सम्मत पोस्ट ,सेहत संभाल जट्टा ,सेहत संभाल ...
जवाब देंहटाएंआभार वीरूभाई!!
हटाएंहम भी खैर मनाने वाली पार्टी में शामिल हैं जी, न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए साग भाजी खाने और स्वाद और सेहत के बहाने मांसाहार करने में बहुत अंतर है|
जवाब देंहटाएंआभार, संजय जी, सबकी मनाएं खैर!!
हटाएंसटीक विवेचन ....
जवाब देंहटाएंसोचने को विवश करता लेख !
जवाब देंहटाएंविचारात्मक प्रस्तुति ... आभार आपका
जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं---
तकनीक दृष्टा
हम तो शाकाहार के समर्थक हैं और प्रयास करते हैं कि बाकी लोग भी मांसाहार को छोड़कर शाकाहार से जुड़ें.
जवाब देंहटाएंआभार विज्ञान युक्त पोस्ट के लिए अब भी यदि कोई मल ही खाए तो आप क्या कर सकते हैं ??
जवाब देंहटाएंसभी को जन्माष्टमी की शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंस्वतन्त्रतादिवस की पूर्व संध्या पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ! :)
हटाएंबात तो आपकी तर्क सम्मत है ।हम तो खैर मनाने वाली जमात में हैं पर कुछ लोग हैं कि बिना मांसाहार के रह ही नही सकते ।
जवाब देंहटाएंआशा जी आभार,
हटाएंस्वतन्त्रतादिवस की पूर्व संध्या पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
बहुत समय हुआ ... कई दिनों से सोच रहा हूँ... 'निरामिष' का प्रचार क्या केवल गांधीवादी तरीके से होना चाहिए? क्या उसका कोई ऐसा तरीका नहीं कि मांस खाने वाले केवल शाक खाने को मजबूर हो सकें??
जवाब देंहटाएंजब जबरन 'अभक्ष्य' खिलाकर शाकाहारियों का धर्म भ्रष्ट किया जा सकता है.... तब क्या मांसाहारियों का कोई ऐसा धर्म है जिसे भ्रष्ट किया जा सके?
"यदि कोई खुद से हुए छल का बदला लेना चाहता है तब वह आखिर कैसे ले?"
प्रतुल जी,
हटाएंअहिंसा (जीवदया)ही लक्ष्य है तो गांधीवादी तरीके से होना चाहिए।
'अभक्ष्य' के प्रतिकार से उनका उद्देश्य-धर्म स्वतः भ्रष्ट हो जाता है।
प्रतिशोध उपाय नहीं है। सादर!! :)
स्वतन्त्रतादिवस की पूर्व संध्या पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंस्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ....
जवाब देंहटाएंतर्कसंगत. जार्ज बर्नार्ड शा ने भी कभी कहा था "Sow a sheep under the soil . What happens in A few days ? Nothing but decay . Sow a seed under the soil . What happens . A plant grows out then it becomes a tree and bears fruits"
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