वैदिक शब्दावली की एक जो सबसे बडी विशेषता है, वो ये कि वैदिक नामपद अपने नामारूप पूर्णत: सार्थक हैं. वेदों में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के जो नाम मिलते हैं, वे किसी भी रूप में अपने धात्वर्थों का त्याग नहीं करते. उदाहरण के लिए पाठक "पंकज" शब्द पर विचार करें. प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि "पंकज" शब्द का अर्थ होता है---"कमल". यह शब्द दो हिस्सों से बना है. एक "पंक" और दूसरा "ज". "पंक" का अर्थ होता है---"कीचड" और "ज" का अर्थ है---"पैदा हुआ". अत: पंकज का अर्थ है---"कीचड से पैदा हुआ पदार्थ". कमल यदि कीचड से पैदा हुआ न हो तो उसके लिए "पंकज" शब्द का प्रयोग वैदिक शब्द शास्त्र कि दृष्टि से सर्वथा अनुचित होगा. वैदिक दृष्टि में कमल के लिए तभी पंकज शब्द का प्रयोग किया जा सकता है, जब कि कमल में "पंक से पैदा होना" रूपी धर्म विद्यमान हो.
लोक में, जिसके न दीन की खबर और न ईमान का ठिकाना, वो भले चाहे खुद को "मुस्सलसल ईमान" साबित करने को तुला रहे, भले ही किसी भिखारी को धनीराम के नाम से संबोधित किया जाए या आँख के अंधे का "नयनसुख" नामकरण कर दिया जाये, लेकिन वैदिक दृष्टि में वस्तुओं/पदार्थों/जीवों के नामकरण/संबोधन का यह ढंग किसी प्रकार भी स्वीकृत नहीं. वैदिक दृष्टि में ईमान वाले का संबोधन मुसलमान, पैसे वाला धनीराम और आँखों वाले का नाम ही "नयनसुख" संभव है.
इस उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार अब हमें देखना चाहिए कि वेदों में यज्ञ के जो-जो पर्यायवाची नाम मिलते हैं, उनके धात्वर्थों द्वारा "यज्ञ में पशुबली" विषय पर कोई प्रकाश पडता है या नहीं. यज्ञ के पर्यायवाची नाम निम्न है:--
यज्ञ:, वेन:, अध्वर:, मेध:, विदथ:, नार्य:, सवनम, होत्रा, इष्टि:, देवताता:, मख:, विष्णु:, इन्दु:, प्रजापति:, धर्म:---(निघण्टु अध्याय 3/खण्ड 17)
इनमें से "अध्वर " और " देवताता "--इन नामों पर विचार करना अत्यावश्यक है.
अध्वर:---अध्वर शब्द की निरूक्ति( Derivation) में निरूक्तकार यास्कमुनि लिखते हैं कि:---
" अध्वर इति यज्ञनाम ! ध्वरतिहिंसाकर्मा, तत्प्रतिषेध: !! " (निरुक्त अध्याय 1/खण्ड 8)
अध्वर शब्द दो हिस्सों से बना है. एक "अ" और दूसरा "ध्वर" . अ का अर्थ है----निषेध, और ध्वर का अर्थ है---हिँसा करना या वध करना. अत: अध्वर का अर्थ हुआ कि ऎसा कर्म जिसमें हिँसा न की जाये. इस प्रकार यज्ञ का नाम "अध्वर" होना ही इस सिद्धान्त की पुष्टि कर रहा है कि यज्ञ में हिँसा कदापि न होनी चाहिए. जिसमें हिँसा है, वह यज्ञ ही नहीं. इसलिए अध्वर शब्द अपने निर्वचन द्वारा स्पष्ट रूप से निर्देश कर रहा है कि यज्ञ में "पशुवध" सर्वथा निषिद्ध है. यदि यज्ञ में पशु का वध करना वेदों को अभीष्ट होता तो वैदिक साहित्य में इसका नाम अध्वर कभी भी न होता. फिर तो इसका नाम "ध्वर" या "सध्वर" होना चाहिए था, न कि "अध्वर".
देवताता:- यज्ञ का एक दूसरा नाम देवताता भी है. देवताता दो शब्दों के संयोग से बना है---देव और ताता, जिनमें देव शब्द के अर्थ से तो हर कोई भलीभान्ती परिचित ही है. देव अर्थात देवता और ताता शब्द निर्मित हुआ है 'तन" धातु से, जिसका अर्थ होता है---विस्तार. यथा "तनु विस्तारे". अत: देवताता का अर्थ है---"देवों के लिए विस्तृत किया गया". इससे स्पष्ट हो जाता है कि यज्ञ केवल देवताओं के ही उद्देश्य से किया जाता है, न कि असुर और राक्षसों के निमित. अर्थात यज्ञ में जो घी इत्यादि सामग्री होती है, उसकी आहुति देवताओं के नाम से दी जाती है, न कि असुरों या राक्षसों के नाम से. "ॐ अग्नये स्वाहा", "सोमाय स्वाहा" या "प्रजापतये स्वाहा" इत्यादि ऎसे मन्त्रोच्चारण तो जरूर सभी नें कभी न कभी अवश्य सुने होंगें, लेकिन क्या किसी नें कभी देखा है कि किसी यज्ञ में "असुराय नम:" या "राक्षसाय नम:"---ऎसे वाक्यों से आहुति दी गई हो या किसी वेद, पुराण, उपनिषद इत्यादि किसी भी धर्मग्रन्थ में ऎसा राक्षसों की प्रसन्नतार्थ कोई मन्त्र/श्लोक दिया गया हो.
अब बात आती है कि वेद आदि धर्मशास्त्र देवताओं के भोजन के सम्बन्ध में क्या कहते हैं. यदि तो वेदों में लिखा हो कि देव माँस भी खाते थे, तब तो सिद्ध हो ही जायेगा कि यज्ञ में पशु की बलि या कि देवों को माँस की आहुति वेदोक्त ही है. परन्तु किसी वेद/पुराण में यह नहीं लिखा कि देव माँस-भक्षक हैं. बल्कि वेद तो ये कहते हैं कि "देवा आज्यपा:" जिसका अर्थ है कि "देवता घी का पान करने वाले हैं". इसीलिए यज्ञ में घृताहुति पर ही अधिक बल दिया जाता है. यदि यज्ञ में माँसाहुति वेदों को अभीष्ट होती तो, चूँकि यज्ञ देवताओं के निमित किया जाता है, तब देवों के भोजन में माँस का गिनाना भी वेदों के लिए आवश्यक होता.
हाँ, वेदों में माँस और रूधिर आदि अन्न राक्षसों के भोज्य पदार्थों में अवश्य गिनाये गये हैं. वेदों में रक्तपा:, मांसादा:, पिशाचा:, क्रव्यादा:----आदि नाम राक्षसों के लिए पठित हैं. रक्तपा:---अर्थात रक्त के पीने वाले. मांसादा:----अर्थात माँस का भक्षण करने वाले, पिशाचा:----पिश अर्थात शरीर के अवयवों को खाने वाले. क्रव्यादा:----अर्थात हिँसा से प्राप्त आहार का भक्षण करने वाले.
वेदों में देवताओं का एक पर्यायवाची नाम आता है----"अमृतान्धस:".जिसका अर्थ है "जो कि मृत अन्न का सेवन नहीं करते". क्या ये सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि मरने से पैदा हुआ अन्न अर्थात माँस देवों का भोजन नहीं.
प्रजापति:- यज्ञ का तीसरा नाम है---प्रजापति. प्रजा का अर्थ है----उत्पन्न प्राणी और पति का अर्थ है---रक्षक. अत: प्रजापति का अर्थ है---प्राणियों का रक्षक. अब यदि यज्ञ बलि के नाम पर स्वयं ही पशुप्रजा का भक्षक हो तो उसका प्रजापति नाम होना ही निरर्थक हो जाये.
अत: विधर्मी दुष्प्रचारकों को यह समझ लेना चाहिए कि यज्ञ के अध्वर, देवताता एवं प्रजापति इत्यादि पर्यायवाची नाम ही उनके "वेदों में पशुबलि" विषयक दुष्प्रचार का भांडाफोड करने में पर्याप्त हैं और ये भी कि सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का कल्याण चाहने वाली इस सनातन संस्कृति में हिँसा का कभी कोई स्थान नहीं रहा...........
लोक में, जिसके न दीन की खबर और न ईमान का ठिकाना, वो भले चाहे खुद को "मुस्सलसल ईमान" साबित करने को तुला रहे, भले ही किसी भिखारी को धनीराम के नाम से संबोधित किया जाए या आँख के अंधे का "नयनसुख" नामकरण कर दिया जाये, लेकिन वैदिक दृष्टि में वस्तुओं/पदार्थों/जीवों के नामकरण/संबोधन का यह ढंग किसी प्रकार भी स्वीकृत नहीं. वैदिक दृष्टि में ईमान वाले का संबोधन मुसलमान, पैसे वाला धनीराम और आँखों वाले का नाम ही "नयनसुख" संभव है.
इस उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार अब हमें देखना चाहिए कि वेदों में यज्ञ के जो-जो पर्यायवाची नाम मिलते हैं, उनके धात्वर्थों द्वारा "यज्ञ में पशुबली" विषय पर कोई प्रकाश पडता है या नहीं. यज्ञ के पर्यायवाची नाम निम्न है:--
यज्ञ:, वेन:, अध्वर:, मेध:, विदथ:, नार्य:, सवनम, होत्रा, इष्टि:, देवताता:, मख:, विष्णु:, इन्दु:, प्रजापति:, धर्म:---(निघण्टु अध्याय 3/खण्ड 17)
इनमें से "अध्वर " और " देवताता "--इन नामों पर विचार करना अत्यावश्यक है.
अध्वर:---अध्वर शब्द की निरूक्ति( Derivation) में निरूक्तकार यास्कमुनि लिखते हैं कि:---
" अध्वर इति यज्ञनाम ! ध्वरतिहिंसाकर्मा, तत्प्रतिषेध: !! " (निरुक्त अध्याय 1/खण्ड 8)
अध्वर शब्द दो हिस्सों से बना है. एक "अ" और दूसरा "ध्वर" . अ का अर्थ है----निषेध, और ध्वर का अर्थ है---हिँसा करना या वध करना. अत: अध्वर का अर्थ हुआ कि ऎसा कर्म जिसमें हिँसा न की जाये. इस प्रकार यज्ञ का नाम "अध्वर" होना ही इस सिद्धान्त की पुष्टि कर रहा है कि यज्ञ में हिँसा कदापि न होनी चाहिए. जिसमें हिँसा है, वह यज्ञ ही नहीं. इसलिए अध्वर शब्द अपने निर्वचन द्वारा स्पष्ट रूप से निर्देश कर रहा है कि यज्ञ में "पशुवध" सर्वथा निषिद्ध है. यदि यज्ञ में पशु का वध करना वेदों को अभीष्ट होता तो वैदिक साहित्य में इसका नाम अध्वर कभी भी न होता. फिर तो इसका नाम "ध्वर" या "सध्वर" होना चाहिए था, न कि "अध्वर".
देवताता:- यज्ञ का एक दूसरा नाम देवताता भी है. देवताता दो शब्दों के संयोग से बना है---देव और ताता, जिनमें देव शब्द के अर्थ से तो हर कोई भलीभान्ती परिचित ही है. देव अर्थात देवता और ताता शब्द निर्मित हुआ है 'तन" धातु से, जिसका अर्थ होता है---विस्तार. यथा "तनु विस्तारे". अत: देवताता का अर्थ है---"देवों के लिए विस्तृत किया गया". इससे स्पष्ट हो जाता है कि यज्ञ केवल देवताओं के ही उद्देश्य से किया जाता है, न कि असुर और राक्षसों के निमित. अर्थात यज्ञ में जो घी इत्यादि सामग्री होती है, उसकी आहुति देवताओं के नाम से दी जाती है, न कि असुरों या राक्षसों के नाम से. "ॐ अग्नये स्वाहा", "सोमाय स्वाहा" या "प्रजापतये स्वाहा" इत्यादि ऎसे मन्त्रोच्चारण तो जरूर सभी नें कभी न कभी अवश्य सुने होंगें, लेकिन क्या किसी नें कभी देखा है कि किसी यज्ञ में "असुराय नम:" या "राक्षसाय नम:"---ऎसे वाक्यों से आहुति दी गई हो या किसी वेद, पुराण, उपनिषद इत्यादि किसी भी धर्मग्रन्थ में ऎसा राक्षसों की प्रसन्नतार्थ कोई मन्त्र/श्लोक दिया गया हो.
अब बात आती है कि वेद आदि धर्मशास्त्र देवताओं के भोजन के सम्बन्ध में क्या कहते हैं. यदि तो वेदों में लिखा हो कि देव माँस भी खाते थे, तब तो सिद्ध हो ही जायेगा कि यज्ञ में पशु की बलि या कि देवों को माँस की आहुति वेदोक्त ही है. परन्तु किसी वेद/पुराण में यह नहीं लिखा कि देव माँस-भक्षक हैं. बल्कि वेद तो ये कहते हैं कि "देवा आज्यपा:" जिसका अर्थ है कि "देवता घी का पान करने वाले हैं". इसीलिए यज्ञ में घृताहुति पर ही अधिक बल दिया जाता है. यदि यज्ञ में माँसाहुति वेदों को अभीष्ट होती तो, चूँकि यज्ञ देवताओं के निमित किया जाता है, तब देवों के भोजन में माँस का गिनाना भी वेदों के लिए आवश्यक होता.
हाँ, वेदों में माँस और रूधिर आदि अन्न राक्षसों के भोज्य पदार्थों में अवश्य गिनाये गये हैं. वेदों में रक्तपा:, मांसादा:, पिशाचा:, क्रव्यादा:----आदि नाम राक्षसों के लिए पठित हैं. रक्तपा:---अर्थात रक्त के पीने वाले. मांसादा:----अर्थात माँस का भक्षण करने वाले, पिशाचा:----पिश अर्थात शरीर के अवयवों को खाने वाले. क्रव्यादा:----अर्थात हिँसा से प्राप्त आहार का भक्षण करने वाले.
वेदों में देवताओं का एक पर्यायवाची नाम आता है----"अमृतान्धस:".जिसका अर्थ है "जो कि मृत अन्न का सेवन नहीं करते". क्या ये सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि मरने से पैदा हुआ अन्न अर्थात माँस देवों का भोजन नहीं.
प्रजापति:- यज्ञ का तीसरा नाम है---प्रजापति. प्रजा का अर्थ है----उत्पन्न प्राणी और पति का अर्थ है---रक्षक. अत: प्रजापति का अर्थ है---प्राणियों का रक्षक. अब यदि यज्ञ बलि के नाम पर स्वयं ही पशुप्रजा का भक्षक हो तो उसका प्रजापति नाम होना ही निरर्थक हो जाये.
अत: विधर्मी दुष्प्रचारकों को यह समझ लेना चाहिए कि यज्ञ के अध्वर, देवताता एवं प्रजापति इत्यादि पर्यायवाची नाम ही उनके "वेदों में पशुबलि" विषयक दुष्प्रचार का भांडाफोड करने में पर्याप्त हैं और ये भी कि सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का कल्याण चाहने वाली इस सनातन संस्कृति में हिँसा का कभी कोई स्थान नहीं रहा...........