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मंगलवार, 1 नवंबर 2011

पशुबलि-कुरबानी , शाकाहार-मांसाहार , वैचारिक बहस- फ्री फॉर ऑल धर्मयुद्ध... बीचों-बीच फंसे (प्रवीण शाह) जिनके जेहन से उठते ११ सवाल... और उत्तर देंगे हम।

ईद का पर्व निकट है। पिछले वर्ष लगभग इन्हीं दिनों कुछ लोगों ने 'ब्लॉगवुड' पर आरोप लगाया कि लोग बकरीद के आसपास 'जीव-दया' पर लिखने लगते है। श्री प्रवीण शाह ने तो ऐसा आरोप लगाते हुए 11 प्रश्नों की एक जटिल प्रश्नावली ही खडी कर दी। जिसे 'हलालमीट' नामक ब्लॉग पर भी प्रमुखता से छापा गया। यदपि प्रवीण शाह साहब की पोस्ट पर कई विद्वान टिप्पणीकारों ने युक्तियुक्त जवाब देकर, इन सारे प्रश्नों के औचित्य को ही निरस्त कर दिया था, और उनके उत्तर-प्रत्युत्तर में युक्तियुक्त निराकरण भी प्रत्यक्ष कर दिया था जिसके परिणाम स्वरूप प्रवीण शाह साहब को चुप्पी ओढ़ लेनी पड़ी थी। किन्तु हिंसावादी आज भी इन प्रश्नो को 'ला-जवाब' मानते हुए, बहुहिंसा के समर्थन में इसका प्रमुखता से प्रयोग करते है।

हमनें मात्र 'कथनी' से ही इस का उत्तर देने के बजाय, 'करनी' से उदाहरण प्रस्तुत करने का निर्णय लिया। और मात्र बकरीद के दिन ही नहीं, वर्ष के 365 दिन 'जीव-दया' को प्रोत्साहित करने का लक्ष्य निर्धारित किया। 'शाकाहार जागृति अभियान' के लक्ष्य से  ‘निरामिष’ ब्लॉग के नियमित प्रकाशन-प्रसारण का संकल्प किया गया। इस प्रयास के द्वारा हमने अहिंसा के औचित्य को प्रमाणिक सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। हम यह स्पष्ट कर देना चाहते थे कि हम मात्र हिंसा की निंदा करके इस विषय की इति नहीं मानते, हम अहिंसा के सांगोपांग प्रवर्तक हैं हमें मात्र बकरीद के दिन ही अहिंसा नहीं सूझती बल्कि सदैव ही समस्त जीवजगत और जीवन के प्रति हम गम्भीर है। अहिंसा ही 'निरामिष' का प्रधान पैगाम है, सजगता का सन्देश है। यह प्रयत्न अनवरत जारी है, और तब तक जारी रहेगा जब तक, लोगों के दिलों में करूणा का सागर हिलोरें न लेने लगे।


यह रहा, Saturday, November 20, 2010 में प्रकाशित प्रवीण शाह साहब की पोस्ट का शीर्षक:--
“पशुबलि-कुरबानी , शाकाहार-मांसाहार , वैचारिक बहस- फ्री फॉर ऑल धर्मयुद्ध... बीचों-बीच फंसे हम और जेहन से उठते ११ सवाल... क्या उत्तर देंगे आप ?”

जी हाँ, हम देंगे सभी प्रश्नों के न्यायसंगत, यथोचित और युक्तियुक्त उत्तर...........


प्रवीण साहब का सवाल नं-1*** क्या यह सही नहीं है कि जीव-दया व मांसाहार निषेध के संबंधित आलेखों की बाढ़ ब्लॉगवुड में बकरीद के आस-पास ही आती है, जबकि थैंक्सगिविंग डे के दिन भी लाखों टर्की पक्षी बाकायदा भूनकर GOD को धन्यवाद देते हुऐ खा लिये जाते हैं बाकायदा customary 'Turkey Song' गाते हुए, और कहीं कोई पत्ता भी नहीं हिलता ?

उत्तर : यदपि 'थैंक्सगिविंग 'अमेरिका महाद्वीप का स्थानीय पर्व है। तथापि उस पर्व के नाम पर होने वाली हिंसा भी अनुचित ही है। किन्तु, वह हिंसा हमारी अनदेखी हिंसा है। थैंक्सगिविंग की हिंसा हमारे द्वार तक आकर खड़ी नहीं हो गई, शायद इसी कारण ब्लॉगवुड में यह टर्की वाला मामला अभी गम्भीर प्रश्न बन खड़ा नहीं हुआ, अन्यथा विरोध अवश्य होता। अहिंसा और जीव-दया के लिए अगर लोग मुखर होते है, तो यह समस्त जीव जगत के हितार्थ सजग कर्तव्ययुक्त कार्य है । प्राणी कल्याण के इस मत्तम कार्य को मूढ़ बनकर बस हिंसा समर्थन का कोई तुक समझ नहीं आता। यह निर्विवाद है कि कोई भी उत्सव या धर्म क्रिया हिंसार्थक होती ही नहीं है। और न कोई ऐसा पवित्र उपदेश हो सकता है जो यह कह दे कि "हिंसा में धर्म है " अथवा धर्म प्रयोजन से हिंसा की अनुमति हो सकती है। हिंसा को ही अपने धर्म का पर्याय माननें वाला भला कैसा 'धर्म'?
अब करते है कुर्बानी के अवसर पर ही विरोध की बाढ़ क्यों, तो जनाब यह व्यवारिक है कि जब आग लगती है, बुझाने के प्रयत्न तभी कारगर होते है। उसी तरह जब किसी कर्मकाण्ड में विशेष हिंसा होती है उसका विरोध भी तभी किया जाना चाहिए, अन्यथा बेमौसम की बरसात समान पानी व्यर्थ ही बह जाएगा।
ज्ञातव्य रहे कि भारत के अनेक देवी मन्दिरों में बलिप्रथा को जन-जागृति से बन्द कराया गया है। तथापि जब 'हिंसा' की आस्था वाला कोई धर्म ही नहीं है तो 'हिंसा-विरोध' को किसी धर्म का विरोध कहकर आरोप ठोक देना असंगत है।

प्रवीण साहब का सवाल नं-2*** क्या यह सही नहीं है कि बकरीद के दिन दी जाने वाली बकरे की कुर्बानी और रोजाना हलाल मीट की दुकान पर बिकते बकरे को मारने का तरीका बिलकुल एक जैसा ही है?

उत्तर : तरीका भले एक सा हो, किन्तु यहाँ अन्तर 'मारी' और 'महामारी' का है। कुर्बानी में करोड़ों जीवों का एक ही दिन कटना, हिंसा का भीषण तांडव होता है,जो कठोर हृदय को भी विषादग्रस्त कर जाता है, करोडों का एक साथ वध देख-जानकर कोई कैसे जड़ बना रह सकता है? क्रूर हत्या का सार्वजनिक भौंडा प्रदर्शन, क्रूर व घातक कुंठा भावों को प्रगाढ़ बनाने का उद्देश्य ही विकृत मानसिकता भरा है। मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों में तो छोटे-बड़े, सुकोमल, नर-नारी का ख्याल किये बिना ,सार्वजनिक स्थलों पर ,अमानवीय तरीकों से कटते, तड़फ़ते, उछलते पशुओं का प्रदर्शन, नालियों में बहता रक्त, कई दिनों तक कूड़े के ढेरों पर पड़े  व्यर्थ (वेस्ट) अंग निश्चित रूप से बच्चों को यही शिक्षा देते हैं कि हिंसा और क्रूरता एक सामान्य सा कृत्य है, ऐसे दूषण साधारण बात है।
वैसे हलाल (या झटका) मीट की दुकान पर रोज़ बिकने वाला मांस भी सामान्य नागरिक नियमों के अनुसार ओट में ही रखे जाने चाहिये। और पशु-हत्या तो किसी भी सूरत में सरेआम नहीं होनी चाहिये, ऐसा अधिकांश सभ्य समाजों का नियम है।

प्रवीण साहब का सवाल नं-3*** क्या यह सही नहीं कि इस तरह के आलेख लिखने वाले महानुभावों का अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में न तो कोई मुस्लिम मित्र होता है न ही मुस्लिम समाज से उनका कोई संबंध होता है, यदि होता तो उन्हे यह ज्ञान हो जाता कि दया, ममता,करूणा आदि सभी मानवीय भावनायें एक मुसलमान के अंदर भी उतनी ही हैं जितनी उनके भीतर, आखिर हैं तो सभी इंसान ही ?

उत्तर : कैसे भी और किसी भी माँसाहारी को जबरन मित्र बनाए रखने की भी कैसी विवशता? मित्रता में भी समान विचारों का भी तो कोई मूल्य होता है। मुस्लिम मेरे सहपाठी भी रह चुके हैं और मित्र भी हैं। कईं मुस्लिम है जो खाने पीने के मामले में मांसाहार को बिलकुल पसंद नहीं करते। वे अच्छी तरह जानते थे कि मांसाहार उनके परिवेश के साथ रूढ़ताके रूप में जुडा है,इस वास्तविकता के बाद भी वे स्वयं इसकी उपेक्षा करते थे। क्या जरूरी नहीं है मित्रता, माँसाहार को पसंद करने की शर्त पर ही  की जाय? पहले का प्रश्न है, मित्र बनाने का यह अर्थ नहीं होता कि मित्र की बुराईयां भी ज्यों की त्यों ग्रहण की जाय? मित्र के हर अच्छे या बुरे कृत्य का समर्थन ही किया जाय?  यदि हिंसक स्वभावी कोई मनुष्य मित्र न भी बने तो क्या फर्क पड़ना है? एक शाकाहारी को मित्रता के प्रलोभन में माँसाहार की झूठी संस्तुति करनी पडे तो वहाँ मित्रता ही कहाँ रह जाती है। सम्वेदनाहीन निष्ठुर व्यक्ति की मित्रता पर अपनी सहज दया, ममता, करूणा को बलि चढ़ावा चढ़ा देना कहाँ की बुद्धिमानी है। विवेक को सजग रखना नितांत आवश्यक है। जिसमें सम्वेदना, करूणा, अनुकम्पा, वात्सल्य आदि मानवीय गुण नहीं तो रूप - आकार - जाति से 'इन्सान' कहलाने मात्र से क्या होता है?  

प्रवीण साहब का सवाल नं-4*** क्या यह सही नहीं कि ' फ्राइड चिकन चंक्स ' को बड़े शौक से खाने वाले कुछ लोग चिकन को काटना तो दूर कटते देख भी नहीं सकते क्योंकि उन्हें अपनी पैंट गीली करने का डर रहता है ?

उत्तर : जो सज्जन कटते हुए प्राणी को नहीं देख सकते ,उनमें निश्चित ही हत्या के प्रति सम्वेदनाओं के ज्ञानतंतु जीवित होते है। और उनमें तो अतिशय कोमल भावनाएँ होती है, जिन्हें कटता देखकर पेंट गीली हो जाने की भीति हो जाय। पापभीरूता करूणा युक्त कोमल मनोभावना की अभिव्यक्ति होती है। 'फ्राइड चिकन चंक्स' को बड़े शौक से खाने वाले भी जो कुछेक लोग चिकन का कटना नहीं देख पा रहे तो समझ लेना कि उनमें दुष्कर्म समझने का विवेक अभी भी निष्क्रीय नहीं हुआ है। उनमें नासूर बनी हुई सम्वेदनाओं में आद्रता अभी शेष है। देर-सबेर ही सही, ऐसे मानवों के हृदय में करूणा के अंकूर अवश्य फूटेंगे। दया के फूल अवश्य फलेंगे फूलेंगे।

प्रवीण साहब का सवाल नं-5*** क्या यह सही नहीं है कि आज भी किसी पार्टी या दावत में यदि कोई नॉनवेज पकवान बना होता है तो सर्वाधिक भीड़ उसी काउंटर पर होती है ?

उत्तर : इससे साबित क्या होता है? अगर ऐसे लोगों की संख्या अधिक है तो क्या अनुकरणीय हो गई? अधिसंख्या उत्तमता का पर्याय नहीं है। जबकि दूसरी तरफ सच्चाई यह है कि सारे संसार में शाकाहार और जीवदया के प्रति जागृति बढ रही है, लोग स्वेच्छा से दूर रहना पसंद करते है। निरामिष पर पहले ही इस विषय में कई तथ्य सामने रखे जा चुके हैं और आगे भी आते रहेंगे।

प्रवीण साहब का सवाल नं-6*** क्या यह सही नहीं है कि प्रागैतिहासिक काल, पुरा पाषाण काल से लेकर आधुनिक काल तक मानव जाति अपना वजूद समूह में शिकार कर प्राप्त किया भोजन ग्रहण कर ही बचा पाई है, और इसी सामूहिक शिकार की आवश्यकताओं के कारण भाषा व कालांतर में मानव मस्तिष्क का भी विकास हुआ ?

उत्तर : नई वैज्ञानिक जानकारियों से यह बात साबित हुई है कि मानव प्रागैतिहासिक काल में भी शाकाहारी था। और विकास के दौर में भी मानव ने सभ्यता के लिए हिंसकता का परित्याग किया है। यदि पूर्व में मानव जाति शिकार द्वारा ही अपना अस्तित्व बचा पाई होती तो आज जब शिकार आदि नहीं हो रहे, मानव जाति कैसे बची रह गई? और अब तो सामुहिक शिकार भी सम्भव नहीं रहा, तो फिर अब तक मानव मस्तिष्क का विकास अवरुद्ध क्यों नहीं हो गया? हिंसा किसी भी काल में विकास का औजार नहीं रही, हिंसा के आधार से इन्सान ने कभी भी विकास नहीं साधा, हिंसा तो एकमात्र अशान्ति का कारण और विनाश का मूल है।

प्रवीण साहब का सवाल नं-7*** क्या यह सही नहीं कि आततायी और आक्रमणकारी के द्वारा किये जा रहे रक्तपात को रोकने के लिये भी जवाबी रक्तपात की आवश्यकता होती है ?

उत्तर : रक्तपात सुरक्षा की गारंटी नहीं है। रक्तपात तो आपस में ही लड़ मरने की, वही आदिम-जंगली शैली है। रक्तपात को कभी भी शान्ति कारक समाधान नहीं माना गया। हिंसा कभी भी, किसी भी समस्या का स्थाई हल नहीं होती और न हो सकती है। चिरस्थाई हल हमेशा चिंतन, मनन, मंथन और समझोतों से ही उपजते हैं।

प्रवीण साहब का सवाल नं-8*** क्या यह सही नहीं है कि कुछ मध्यकालीन अहिंसावादी, जीवदयावादी धर्मों-मतों के प्रभाव में आकर भारतीय जनमानस इतना कमजोर हो गया था कि हम कुछ मुठ्ठी भर आक्रमणकारियों का मुकाबला न कर पाये और गुलाम बन गये ?

उत्तर : मध्यकालीन आक्रांता तो धर्म-कर्म-जात आदि से केवल और केवल आक्रमणकारी ही थे, उनकी कोई नैतिक युद्धनीति नहीं थी। उनका सिद्धांत मात्र बर्बरता ही था। उनका सामना करने की जिम्मेदारी अहिसावाद,जीवदया या करूणा से प्रभावित लोगों की नहीं, बल्कि मांसाहारी राजपूत सामंतो व क्षत्रिय योद्धाओं की थी। जब वे भी सामना न कर पाए तो अहिंसावादी, जीवदयावादीयों को जिम्मेदार ठहराना हिंसावादियों की कायरता छुपाने का उपक्रम है। शौर्य और वीरता कभी भी मांसाहार से नहीं उपजती। न वीरता प्रतिहिंसा से प्रबल बनती है। वीरता तो मात्र दृढ़ मनोबल और साहस से ही पैदा होती है। इतिहास में एक भी प्रसंग नहीं है जब कोई यौद्धा अहिंसा को कारण बता, पिछे हटा हो। यथार्थ तो यह है कि युद्ध-धर्म तो दयावान और करूणावंत भी पूरे उत्तरदायित्व से निभा सकता है। और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आक्रमण और पराजय का खेल केवल भारत में नहीं खेला गया है। सारी दुनिया में कोई भी जाति यह दावा नहीं कर सकती कि वह सदा अजेय रही है। क्या वे सभी जातियाँ शाकाहारी थीं? गुलामी और हार का सम्बन्ध, शाकाहार या अहिंसा से जोड़ने का आपका यह प्रयास आधारहीन है। इस तथ्य को भी नहीं भूलना चाहिए कि कुछ सौ साल की गुलामी से पहले भारत में हज़ारों साल की स्वतंत्र,सभ्य और उन्नत संस्कृति का इतिहास भी रहा है।

प्रवीण साहब का सवाल नं-9*** क्या यह सही नहीं है कि आज के विश्व में लगभग सभी विकसित या तेजी से विकसित होने की राह पर बढ़ते देशों व उनके निवासियों में मांसाहार को लेकर कोई दुविधा या अपराधबोध नहीं है ?

उत्तर : कृपया असत्य पर आधारित ऐसा व्यापक वक्तव्य (जनरल स्टेटमेंट) न दें। यह सही नहीं है कि लगभग सभी विकसित या तेजी से विकसित होने की राह पर बढ़ते देशों व उनके निवासियों में मांसाहार को लेकर कोई दुविधा या अपराधबोध नहीं है। हम एक बहु-विविध विश्व में रहते हैं। अमेरिकी घोड़ा खाना पाप समझते हैं, जापानी साँप खाने को हद दर्ज़े का जंगलीपन मानते हैं, भारतीय मांसाहारी गाय को अवध्य मानते रहे हैं जबकि मुसलमान सुअर नहीं खाते। मतलब यह कि मांसाहार लगभग हर भौगोलिक-सामाजिक क्षेत्र में अनेक प्रकार के अपराधबोधों से ग्रस्त है। और कुछ नहीं तो हलाल-झटका-कुत्ता का ग्लानी भरा झंझट तो व्याप्त है ही। यह भी उतना ही सत्य है कि ऐसे प्रत्येक देश विदेशों में कम ही सही पर कुछ लोग न केवल शाकाहार का समर्थन करते हैं बल्कि वे उसे ही बेहतर मानते हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ कि ऐसा वे किसी भारतीय के कहने पर नहीं करते। विख्यात 'द वेजेटेरियन सोसायटी' अस्तित्व में आयी है, बेल्जियम के गेंट नगर ने सप्ताह में एक दिन शाकाहार करने का प्रण लिया है। ब्रिटेन व अमेरिका के अनेक ख्यातनाम व्यक्तित्व न केवल शाकाहारी हैं बल्कि पेटा आदि संगठनों के साथ जुड़कर पूरे दमखम से शाकाहार और करुणा का प्रचार-प्रसार करने में लगे हैं। वीगनिज़्म का जन्म ही भारत के बाहर हुआ है। इथियोपिया से चलकर विश्व में फैले ‘रस्ताफेरियन’ पूर्ण शाकाहारी होते हैं। भारी संख्या में 'सेवेंथ डे एडवेंटिस्ट' भी शाकाहारी हैं।

प्रवीण साहब का सवाल नं-10*** क्या यह सही नहीं है कि आहार विज्ञानी एक मत से यह मानते हैं कि आदर्श संतुलित आहार में शाकाहार व मांसाहार दोनों का समावेश होना चाहिये ?

उत्तर : यह निष्कर्ष दुर्भावना से गढ़ा गया प्रतीत होता है। ऐसी किसी शोध का अस्तित्व ही नहीं है जिसमें समस्त आहार विज्ञानियों ने एकमत से घोषित किया हो कि सन्तुलन के लिए, उभय आहार यानि शाकाहार व मांसाहार दोनो जरूरी है। शुद्ध शाकाहारी भी सर्वांग सुदीर्घ स्वस्थ जीवन जीते रहे है। और वे मात्र शाकाहार से ही सन्तुलित पोषण प्राप्त करते रहे है। पोषण संतुलन के लिए मांसाहार का तिल भर भी समावेश जरूरी नहीं है। शतायु धावक फौजा सिंह हों चाहे 331 सप्ताह तक विश्व की नंबर एक टेनिस खिलाड़ी रही स्टेफ़ी ग्राफ आदि अनेक शाकाहारियों ने खेल के क्षेत्र में अपने झंडे गाढे हैं। आप शायद सोचते होंगे कि किसी खिलाड़ी के ग़ैर-बौद्ध/जैन/ब्राह्मण होने भर से यह सिद्ध हो गया कि वह मांसाहारी ही होगा। आजकल सारी दुनिया में खिलाड़ियों के पोषण पर बहुत ध्यान दिया जा रहा है और उनका भोजन तेज़ी से शाकाहार की ओर अग्रसर होता जा रहा है।

प्रवीण साहब का सवाल नं-11*** और क्या यह भी सही नहीं है हम चाहे शाकाहारी हों या मांसाहारी, By birth हों या By choice , दोनों ही स्थितियों में हमें कोई ऐसा ऊंचा नैतिक धरातल नहीं मिल जाता कि हम दूसरे को उसके आहार चयन के कारण उसे सीख दें या उसे अनाप-शनाप, आसुरी स्वभाव वाला या पशुवत कहें ?

उत्तर : सहमत हूँ, सत्य हो तब भी मर्मभेदी शब्दों का प्रयोग नहीं होना चाहिए, हित प्रियता से बात कहना फलदायक हो सकता है। किन्तु आहार चयन के प्रति जागरूकता के लिए सीख (जानकारी) देना कैसे अनुचित  हो सकता है। अहिंसक जीवन मूल्यों के प्रति क्यों न जागृति भरी सीख दी जाय? शाकाहार सजगता में श्रेष्ठता का भाव नहीं, हितचिंतन के प्रयोजन से कल्याण का भाव है। शाकाहारी व्यक्ति विशेष श्रेष्ठ नहीं, अहिंसा व नैतिकता भाव श्रेष्ठ है। व्यक्ति समाज या धर्म नहीं, करूणा का गुण उत्कृष्ट है। शुभभाव चाहे किसी भी धरातल पर हो,सदैव उँचे और श्रेष्ठ ही रहने है, अहिंसावृति को हमेशा दैवीय सम्मान मिलता है, और मिलता रहेगा। दया करूणा के भावों में, श्रेष्ठता के अस्तित्व को कोई चुनौति नहीं हो सकती।

समाज को सार्थक योगदान तभी है जब, जहां कहीं भी हिंसा को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रोत्साहन नजर आए, समय रहते हिंसा का पूरजोर विरोध किया जाना चाहिए। क्योंकि ऐसा करना, मानव सभ्यता और शान्ति की दरकार है।

इस प्रश्नोत्तरी को परिपूर्ण करनें में सहयोग के किए श्री अनुराग शर्मा जी का विशेष आभार!


23 टिप्‍पणियां:

  1. मैं सुज्ञ जी से कहना भी चाहता था की उत्तर देने का ये तरीका बेहतर रहेगा , अब पोस्ट पढूंगा

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  2. मैंने भी अपनी समझ के अनुसार कुछ उत्तर उसी समय दिए थे और अच्छी बात ये थी प्रवीण शाह जी ने शायद मान भी लिया था लेकिन मैं ये समझ नहीं पा रहा ही जिन्हें भी बाद में ये पोस्ट बड़ी अच्छी लगी क्या उन्होंने कमेंट्स नहीं पढ़े ?
    या
    फिर बात के उसी हिस्से पर ध्यान दिया जाएगा जिसमे हमारे मन की सहमति हो फिर चाहे वो सही हो या गलत [वैज्ञानिक दृष्टि से भी ]?

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  3. अनुराग जी और सुज्ञ जी के इस सम्मिलित प्रयास की जितनी तारीफ की जाए कम है, अब जब कभी भी जरूरत पड़ेगी सीधे इस पोस्ट का संदर्भ दिया जाएगा |
    बेहद सुन्दर !!!

    Rating :
    5 स्टार [5 में से]

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  4. शाकाहार को लेकर आपका ईमानदार प्रयास सराहनीय है

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  5. प्रवीण शाह की पोस्ट पढ़ी है ...
    व्यक्तिगत तौर पर मैं मांसाहार पसंद नहीं करता ...
    मगर जाति धर्म से इसका कोई तात्पर्य नहीं होना चाहिए !
    लगभग हर धर्म के लोग मांसभक्षी रहे हैं !
    जीव पर दया आवश्यक है !
    सादर

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  6. सभी ११ सवालों के तर्कसंगत जवाब बड़ी शालीनता से दिये गए हैं.सुज्ञ जी और अनुराग शर्मा जी इसके लिए प्रशंसा के पात्र हैं.

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  7. सीधे, सटीक और सार्थक प्रतिउत्तर बेहद पसंद आए! पोस्ट को तैयार करने में लगी मेहनत सार्थक रही क्योंकि सभी उत्तर अकाट्य और भ्रम दूर करने में सफल रहें हैं हैं.

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  8. एक बेहद सार्थक पोस्ट के लिए सुज्ञ जी और अनुराग जी को दिल से हार्दिक धन्यवाद!

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  9. सुज्ञ जी बहुत ही सटीक उत्तर दिया है आपने उन मुर्दाखोर लोगों को जो अपने घृष्ट तर्कों द्वारा ऐसे मांसाहार जैसे घृणित कार्यों को जायज ठहराते हैं | ये अपने जीभ के स्वाद की पूर्ति के लिए ये लोग इश्वर के नाम का बहाना बना कर हर वर्ष करोणों जीवों का वध करते हैं !! वाह रे इनकी क्रूर जंगली मानसिकता ! अल्लाह ने तो कहा था अपनी सबसे प्रिय वस्तु का बलिदान करो तो ये अपने पुत्र एवं पुत्रियों का बलिदान क्यों नहीं करते ! क्यों नाहक अल्लाह या ईश्वर के नाम को बदनाम करते हो ? अरे मूर्खों क्या तुम्हे छोटी सी बात समझ में नहीं आती ? अगर बलिदान करना है तो अपने अहम् का बलिदान करो, अपने मन में घुसे हुवे पापों का बलिदान करो !
    इतने सुन्दर प्रयास के लिए आप तथा अनुराग शर्मा जी साधुवाद के पात्र है .............आभार !!!!!!!!!

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  10. पिछली की बात पिछली थी इस ईद पर आपके लिये तोहफे के तौर पर पेश है पढिये और अगले साल तक जवाब दे दिजिये

    चर्चा-ए-गोश्तखोरी: बशीर अहमद और महात्मा नित्यानंद
    http://swami-nityanand-debate.blogspot.com/2011/08/blog-post.html

    गौपूजा-- आजका सबसे बडा देशद्रोह है- Rantan Lal http://www.scribd.com/doc/62151412/Gao-pooja-Ratan-Lal-Bansal
    November 2, 2011 11:22 AM

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  11. @ हलाल ज़ान, क्या आपकी पहचान भी आपके लिए हराम है? या हलाल ही नाम रखा है कि पहचान में कुछ हराम है।

    निरामिष पर लगभग साल भर से ही इस गोश्तखोरी के जवाब दिए जा रहे है। यह ईद इन्हें पढ़कर मनाईए…… यह आपके लिए और उन निरीह जीवो के लिए भी तोहफा है। इसलिए बशीर अहमद के सभी प्रत्युत्तर निरामिष पर मौजुद है।


    सारे संदेहो को दूर करने के लिए निरामिष की हर पोस्ट हो ध्यान से पढिए, ऐसे लिंक आपको दोबारा पढ़ने की आवश्यकता ही न पडेगी।

    http://niraamish.blogspot.com/p/vegetarianism-logically-justified.html

    यह ईद, करूणा प्रेम (जीवों पर भी) रहम के साथ मनाईए। क्रूर हिंसक भावों की कुरबानी (त्याग) किजिए। शान्ति के पैगाम (इस्लाम) को सही अर्थों में अपनाईए यदि वाकई उद्देश्य शान्ति है तो?

    जब आपने अपने मजहब के परिपेक्ष में हलाल गोश्तखोरी की तरफ ईशारा किया है तो अगली पोस्ट उसी आधार पर सच्चाई बयान करेगी।

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  12. सवालों के जवाबों के लिये शुक्रिया सुज्ञ जी। हलाल जी ने इस पोस्ट के विषय पर तो कुछ नहीं कहा लेकिन उनकी टिप्पणी भी अपने आप में एक बड़ा सवाल है। अगली पोस्ट का इंतज़ार है।

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  13. स्मार्ट इन्डियन अनुराग जी से सहमत ...... अगली पोस्ट का इंतज़ार है।

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  14. na jane kyo log manshahar ko dhrm se jod kr dekhte hai....jeevo pr daya insaan ka pahla kerma hai....
    Sabhi prashno se badiya uttar diye

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  15. @halal pahla apna naam batane ki himmat kekho,bahas nityanand se nhi tumse kerni hai

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  16. गौरव जी,
    आभार आपके प्रोत्साहन के लिए। अक्सर लोग मायावी तरीके से सत्य का अपने अनुकूल प्रयोग करते है। और वास्तविक सत्य का लोप कर देते है।

    अरविन्द जी,
    आपने हमारे प्रयासो को समझा, और इमानदार प्रयासों को अपूर्व उर्जा दान दिया है। साधुवाद!!

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  17. सतीश जी,

    प्रथम तो आभार आपका, एक सरल और मददगार व्यक्ति में अनुकम्पा तो होगी ही, जो आपकी पसंद को प्रभावित करती है। शुभकामनाएँ!!

    @मगर जाति धर्म से इसका कोई तात्पर्य नहीं होना चाहिए !

    सही कहा आपने, पर क्या करें लोग प्रायः हिंसा को 'हलाल' और गोश्तखोरी को अपने मज़हब का आधार बिन्दु बनाकर प्रस्तुत करते है। क्या हिंसा किसी धर्म का पर्याय हो सकती है। लेकिन नहीं, भले धर्म पर हिंसक होने के आरोप लग जाय, धर्म उनके लिए बलि के बकरे से विशेष कुछ नहीं।

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  18. @अनुराग जी,

    ये हलाल इस्टाइल वाले इतने महत्वपूर्ण नहीं है कि इनकी बातों का जवाब दिया जाए.


    बाकि शालीनता से रखी गयी पोस्ट को विचारपूर्ण कहूँगा.

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  19. सटीक सारगर्भित उत्तर दिए...
    बहुत बहुत सुन्दर...
    आभार...

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  20. आपका प्रयास अनुपम और सराहनीय है,सुज्ञ जी.

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  21. आज ही इस बहस पर नज़र पड़ी... पूरा पढ़ा... अकाट्य तर्कों ने भ्रम फैलाने वाले आतंकी सवालों को कुचलकर रख दिया. ऎसी जवाबी हिंसा से ही 'आतंकी सवालों' के पीछे रहने वाले 'झूठे उदाहरण' अपने पाँव जमा नहीं पाते.
    इन अजेय तर्कों की जय-जयकार करता हूँ. ......... अत्यंत सराहनीय सम्मिलित प्रयास. साधु.

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  22. बहुत ही सुंदर एवं तार्किक जबाब ॥
    कुछ बीमारियाँ सेकुलर लोगो मे पायी जाती है और लाइलाज है ...
    बहुत बहुत धन्यवाद

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