यह बात तो हर कोई जानता है कि माँस कैसे प्राप्त किया जाता है. जीवन हर
जीव को उतना ही प्रिय है, जितना कि हम सब को. अपनी खुशी से कोई पशु मरना
नहीं चाहता. अत: उसे मारने से पूर्व अनेक क्रूर और अमानुषिक यातनाएं दी
जाती हैं. जब वह वध स्थान पर खडा किया जाता है तो उसकी करूण पुकार से दिल
पसीजने लगता है. मरने से पूर्व जैसे उसके मनोभाव रहते हैं, उसका ठीक वैसा
ही प्रभाव उसके माँस पर भी पडता है. अब वही माँस जो कोई खायेगा, तो उन
मनोभावों का प्रभाव उस पर पडे बिना भला कैसे रह सकता है. इसी से अपने देश
में यह कहावत प्रचलित है, कि " जैसा खाये अन्न, वैसा होये मन " अर्थात
हमारा भोजन जैसा होगा, हमारा मन भी ठीक वैसा ही होता जायेगा.
भोजन पर हमारा केवल शारीरिक स्वास्थय ही निर्भर नहीं है, अपितु वह मानसिक स्वास्थ्य का भी कारक है. सही मायनों में एक पूर्ण स्वस्थ्य मनुष्य उसे ही कहा जायेगा, जिसका कि शरीर और मन दोनों ही स्वस्थ हों. स्वस्थ शरीर जहाँ रोगों से हमारी रक्षा करता हैं, वहीं स्वस्थ मन दुर्वासनाओं और दुर्विचारों से हमें बचाता है.
इसलिए माँसभक्षण न तो शरीर के लिए ही स्वास्थयकर है और न ही मन के लिए.
देखा जाये तो आज विश्व में चहुँ ओर जो इतनी अशान्ति दिखाई पडती है, उसके पीछे का एक कारण समाज में फैली माँसभक्षण की ये प्रवृति भी है. माँसाहार नें मानवी प्रवृति को एक दम से तामसिक बना छोडा है. अत: ऎसा मनुष्य केवल दूसरों के विनाश की ही बात सोच सकता है, न कि सृजन की. मुख से भले ही शान्ति-शान्ति चिल्लाते रहें, लेकिन उपाय ऎसे खोजे जा रहे हैं, जिनसे कि केवल अशान्ती ही बढती जा रही है.
किन्तु इस चीज का इन्सान इतना अभ्यस्त हो चुका है कि उसे माँस भक्षण करते हुए यह ख्याल तक नहीं आता कि जो पदार्थ हम खा रहे हैं, उसके लिए किसी को अपनी जान गँवानी पडी है. दूसरों के प्रति इतनी निर्दयता और स्वार्थीपन नें ही आज मनुष्य को मनुष्य के प्रति निष्ठुर बना दिया है. आज जो पशु के रक्त का प्यासा है, कल वो इन्सान के रक्त का प्यासा क्यूँ न होगा ? दरअसल प्यास तो सिर्फ रक्त की है, आज जो प्यास पशु के रक्त से बुझ सकती है, उसके लिए पशु का खूब बहाया जाता है. और कल को यही प्यास इन्सानी रक्त से बुझ सकेगी तो उसके लिए इन्सानी खून ही बहाया जायेगा.
यह तो मनुष्य की बढती हुई स्वार्थपरता का खेल है कि, वह प्रकृति से शाकाहारी होते हुए भी, प्रकृति प्रदत्त तरह-तरह के स्वास्थयकर पदार्थों के सहज सुलभ होने पर भी दूसरे की जान की कीमत नहीं आँकता और दूसरे के रक्त-माँस से अपनी भूख प्यास मिटाने में जुटा है.
माँस के निमित से रोजाना कितने लाखों पशु-पक्षियों को मार डाला जाता है और उससे समू़चे विश्व को कितनी बडी आर्थिक और स्वास्थ्य-विषयक क्षति उठानी पडती है, ये तो आप स्वयं ही सोच सकते हैं. यहाँ तो केवल इतना ही बतलाना है कि माँसाहार पूर्णत: अनैतिक है, जो कि मानवी सभ्यता को अनैतिकता की ओर लिए जा रहा है. मनुष्य की कोमल वृतियों को मसल, उसे निर्दयी, अकृतज्ञ और दुराचारी बनाने में जुटा है......!!!
दरअसल, मनुष्य की कोमल वृतियां ही मानव समाज की सुरक्षा का एक आवश्यक कचव है. उनके मर जाने पर समाज भी हरगिज जीवित नहीं रह सकता. अत: न केवल आहार अपितु औषधी, व्यवसाय अथवा मनोविनोद इत्यादि चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो, पशु-पक्षियों का निर्दयतापूर्वक वध रुकना ही चाहिए. इसी में विश्व का कल्याण है............
भोजन पर हमारा केवल शारीरिक स्वास्थय ही निर्भर नहीं है, अपितु वह मानसिक स्वास्थ्य का भी कारक है. सही मायनों में एक पूर्ण स्वस्थ्य मनुष्य उसे ही कहा जायेगा, जिसका कि शरीर और मन दोनों ही स्वस्थ हों. स्वस्थ शरीर जहाँ रोगों से हमारी रक्षा करता हैं, वहीं स्वस्थ मन दुर्वासनाओं और दुर्विचारों से हमें बचाता है.
इसलिए माँसभक्षण न तो शरीर के लिए ही स्वास्थयकर है और न ही मन के लिए.
देखा जाये तो आज विश्व में चहुँ ओर जो इतनी अशान्ति दिखाई पडती है, उसके पीछे का एक कारण समाज में फैली माँसभक्षण की ये प्रवृति भी है. माँसाहार नें मानवी प्रवृति को एक दम से तामसिक बना छोडा है. अत: ऎसा मनुष्य केवल दूसरों के विनाश की ही बात सोच सकता है, न कि सृजन की. मुख से भले ही शान्ति-शान्ति चिल्लाते रहें, लेकिन उपाय ऎसे खोजे जा रहे हैं, जिनसे कि केवल अशान्ती ही बढती जा रही है.
किन्तु इस चीज का इन्सान इतना अभ्यस्त हो चुका है कि उसे माँस भक्षण करते हुए यह ख्याल तक नहीं आता कि जो पदार्थ हम खा रहे हैं, उसके लिए किसी को अपनी जान गँवानी पडी है. दूसरों के प्रति इतनी निर्दयता और स्वार्थीपन नें ही आज मनुष्य को मनुष्य के प्रति निष्ठुर बना दिया है. आज जो पशु के रक्त का प्यासा है, कल वो इन्सान के रक्त का प्यासा क्यूँ न होगा ? दरअसल प्यास तो सिर्फ रक्त की है, आज जो प्यास पशु के रक्त से बुझ सकती है, उसके लिए पशु का खूब बहाया जाता है. और कल को यही प्यास इन्सानी रक्त से बुझ सकेगी तो उसके लिए इन्सानी खून ही बहाया जायेगा.
यह तो मनुष्य की बढती हुई स्वार्थपरता का खेल है कि, वह प्रकृति से शाकाहारी होते हुए भी, प्रकृति प्रदत्त तरह-तरह के स्वास्थयकर पदार्थों के सहज सुलभ होने पर भी दूसरे की जान की कीमत नहीं आँकता और दूसरे के रक्त-माँस से अपनी भूख प्यास मिटाने में जुटा है.
माँस के निमित से रोजाना कितने लाखों पशु-पक्षियों को मार डाला जाता है और उससे समू़चे विश्व को कितनी बडी आर्थिक और स्वास्थ्य-विषयक क्षति उठानी पडती है, ये तो आप स्वयं ही सोच सकते हैं. यहाँ तो केवल इतना ही बतलाना है कि माँसाहार पूर्णत: अनैतिक है, जो कि मानवी सभ्यता को अनैतिकता की ओर लिए जा रहा है. मनुष्य की कोमल वृतियों को मसल, उसे निर्दयी, अकृतज्ञ और दुराचारी बनाने में जुटा है......!!!
दरअसल, मनुष्य की कोमल वृतियां ही मानव समाज की सुरक्षा का एक आवश्यक कचव है. उनके मर जाने पर समाज भी हरगिज जीवित नहीं रह सकता. अत: न केवल आहार अपितु औषधी, व्यवसाय अथवा मनोविनोद इत्यादि चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो, पशु-पक्षियों का निर्दयतापूर्वक वध रुकना ही चाहिए. इसी में विश्व का कल्याण है............
हत्या व्यवसाय पल्लवित हो रहा है..
जवाब देंहटाएंभोजन के लिये किसी भी पशु-पक्षी के जीवन का अंत कर देना किसी भी दृष्टि से न तो मानवीय है और न धार्मिक। प्रकृति की दृष्टि में यह एक घोर अधार्मिक कुकृत्य है। पीड़ा की अनुभूति उन्हें भी उतनी ही होती है जितनी कि हमें। हमें क्या अधिकार बनता है किसी भी निरपराध जीव की निर्मम हत्या करने का ?
जवाब देंहटाएंएक ब्लाग पर कुछ दिन पहले पढ़ा था कि मांसाहार देश की रक्षा के लिए भी आवश्यक है| कैसे कैसे कुतर्क गढ़ लेते हैं लोग सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए|
जवाब देंहटाएंक्या बात है!!
जवाब देंहटाएंआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 18-06-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-914 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
मनुष्य की कोमल वृतियां ही मानव समाज की सुरक्षा का एक आवश्यक कचव है. उनके मर जाने पर समाज भी हरगिज जीवित नहीं रह सकता.
जवाब देंहटाएंसत्य निष्कर्ष
आपसे सहमत हैं सर....बेहद सार्थक और अपयोगी लेख के लिए आप बधाई के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंडॉ. वत्स जी,
जवाब देंहटाएंइस बात का तो मैं भी समर्थक हूँ कि मनुष्य का भोजन बिना किसी जीव को मारे प्राप्त किया जाये.
लेकिन 'जब पेट में चूहे कूद रहे हों' तब क्या उन्हें समाप्त करने वाली कहावत बोलना ठीक न होगा?
हिंसा तो हिंसा है .. चाहे वाचिक हो, मानसिक हो अथवा कार्मिक हो.
कुछ प्रश्नों को सुलझाएँ :
१] आमिष और निरामिष की दो वृत्तियों वाले एक साथ बैठ कर खाते हैं. क्या उनका साथ बैठकर भोजन करना सही है?
क्या निरामिष वाला यदि मांसाहारी के साथ भोजन करता है तब क्या वह भी उसके किये गुनाह में शामिल माना जाये?
मैं किसी ऐसे साथी के साथ भोजन नहीं कर पाता जो हड्डियाँ चूसने का शौकीन हो, किसी को मांस खाता देखकर मुझसे अपना खाना भी नहीं खबता.
इस तरह मुझे एक बड़े वर्ग से कटकर ही रहना पड़ता है..... जब वे शाक-सब्जियों का भोजन भी लाते हैं... तब भी मैं उनके खाने को हिकारत से देखता हूँ. और ...विश्वास दिलाने पर भी संदेह हमेशा बना रहता है कि शायद उन्होंने मांस के साथ ही अपनी शुद्ध शाक-सब्जियाँ पकायी होंगी.... वे मुझसे कहते हैं "शक का कोई ईलाज नहीं." दूसरी तरफ ये भी कहते हैं, "मेरा छोटा बेटा बिना चिकन या बिरयानी के कभी खाना नहीं खाता. उसे रोज़ चिकन चाहिए."
मैं पशोपेश में रहता हूँ. क्या करूँ?
आपने लिखा है
हटाएं१. हिंसा तो हिंसा है .. चाहे वाचिक हो, मानसिक हो अथवा कार्मिक हो.
२. उसके किये गुनाह में शामिल माना जाये?
३. तब भी मैं उनके खाने को हिकारत से देखता हूँ. और ...
४. मैं पशोपेश में रहता हूँ. क्या करूँ?
???
दूसरे के भोजन को हिकारत से देखना ? यह अधिकार है आपको प्रतुल जी ? ज्ञानीजन - ब्राह्मण, गाय, कुत्ते और कुत्ते के मांस खाने वाले को भी बराबर की नज़र से देखते हैं | दूसरों को हिकारत से देखना, स्वयं को अनायास ही उनसे श्रेष्ठ मान लेना - क्या यह उचित है ?
मैंने पहले भी इस निरामिष ब्लॉग पर कई बार कहा है - यदि हम शाकाहार का प्रचार करना ही चाहते हैं - तो भी यह करते हुए हमें मांसाहार लेने वालों का अपमान करने का कोई अधिकार नहीं है | क्या शाकाहार लेने वालों की प्रवृत्ति इस तरह के अपमान बाण चलाने की हो - तो वह हिंसा नहीं ?अपने आप को दूसरों से श्रेष्ठ मानना / जताना मुझे कभी भी उचित नहीं लगता |
शिल्पा जी,
हटाएंबहरहाल .... मैं अपना भोजन उन्हीं लोगों के साथ कर रहा हूँ.... लेकिन मन है कि डाउट में पड़ा रहता है..
मुझे सभी उतने ही प्रिय हैं... जितने अन्य. किन्तु जब वे साथ में भोजन करते हुए बिरयानी, मटन और चिकन के गुणगान गाते हैं.... तब जरूर अखरता है.
मेरा मुँह फूल जाता है और वे मुझे चिढाने के लिये जोर आजमाइश तेज़ कर देते हैं.
क्या उनके ऐसे करने से मैं बदल जाऊँगा?
वे कुछ भी खाते-पीते हों... लेकिन जब साथ में शाकाहारी भोजन करते हों तो कम-से-कम मारने-काटने की बात तो न करें.
लेकिन वे इसे बतरस का हेतु बना लेते हैं..... बस इतनी ही समस्या है. शायद पहले मैं विस्तार से नहीं बता पाया.
मेरे अधिकांश कार्यालयी मित्र मांसाहारी ही हैं.... लेकिन उन्हें बदलने की इतनी ही चेष्टा मैंने की है कि भोजन के परिपेक्ष्य में अपना पक्ष रखा है.
मैंने केवल उनके 'खाने' को हिकारत से देखने की बात की है.... क्या यह भी अनुचित है? क्या इसका भी अधिकार मुझे नहीं? यदि नहीं तो मैं घात चरने वाले जीवों के साथ ही रहना पसंद करूँगा. मुझे ऐसा सभ्य समाज नहीं चाहिए... जो व्यक्तिगत अधिकार के नाम पर कुछ भी खाना पसंद करता हो.
मैंने और मेरे छोटे भाई ने बचपन में गली में घूमने वाली एक पिलिया (सफेदी) पाली थी जो बड़े होने तक हमारे घर रही.. उसके बच्चे भी हुए... हाँ हम दोनों को वह बहुत प्रिय थी....बेशक वह कभी-कबाह मांस खा आती थी. उसके मुँह पर खून लगा देखकर हम समझते थे... लेकिन फिर भी वो हमें प्रिय थी. उसके चार बेटे-बेटियों में दो शेरू और भूरी हमें सबसे ज़्यादा प्रिय थे.... क्योंकि वे हमारे सूखते अनाज की चिड़ियों से रखवाली करते थे और शुद्ध शाकाहारी भी थे. लेकिन उनकी माँ (सफेदी) से भी हमें विशेष लगाव था... यदि नासमझ जीवों में खानपान की ये कल्चर है....तो स्वीकार है... लेकिन सालों तक साथ रहकर भी कोई साथी अपना खान-पान नहीं बदल पाता तो कैसे हम अपने मूलभूत स्वभाव को बदल सकते हैं? एक साथ खाने के कई संभावित दुष्परिणाम हैं :
हटाएं— साथ खाने-पीने से असावधानी घट सकती है,
— प्रायः मांस खाने-पीने वाले जूठा-सच्चा भी नहीं मानते इसलिये भी किसी शाकाहारी को साथ खाने में परेशानी होती है.
— मैंने देखा है.... जो शुरू में शाकाहारी होते हैं... वे देर-सबेर अंडा चिकन खाना शुरू कर देते हैं. परहेज धीरे-धीरे उनके जीवन से विदा ले लेता है. ऐसे एकाधिक उदाहरण मेरे पास हैं.
— जूठा खानपान और मांसभक्षियों के साथ खानपान से कई तरह के रोग शरीर में प्रवेश कर जाते हैं.... लेकिन हम सीधे-सीधे 'इस कारण विशेष' को जिम्मेदार भी ठहरा नहीं सकते. इसके भी उदाहरण मेरे पास हैं.
— एक बार ग़लत शुरुआत हो जाने के बाद उसे रोक पाना बहुत मुश्किल होता है... इसका भी ताज़ा उदाहरण मेरे पास है.
...... सभी उदाहरण इसलिये नहीं दे रहा हूँ ... यदि वे दिये तो परिवार और मेरे मित्रों में मेरे प्रति विश्वास समाप्त होगा. फिर भी बहुत जरूरत पढ़ने पर जरूर दूँगा.
जी |आभार :)
हटाएंबहुत कुछ कहना चाहूंगी | परन्तु यहाँ मैं भी लेखन मंडल की एक सदस्य हूँ - तो चुप रह जाना ही बेहतर होगा | क्योंकि जो मैं कह रही हूँ वह मेरा निजी विचार है - निरामिष लेखन मंडल शायद मुझसे सहमत न हो |
सुन्दर विचारणीय और प्रेरक प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंखानपान की शुद्धि अति आवश्यक है.
शाकाहारी भोजन के प्रति आप जागरूकता अभियान प्रशंसा योग्य है !
जवाब देंहटाएंhttp://jhindu.blogspot.in/2012/06/blog-post_23.html
मेरे एक मित्र भी मुझे कई बार अण्डों को लेकर प्रोत्साहित करने की नाकाम कोशिश कर चुके हैं. वह अपने प्रयास करते हैं और मैं अपने पथ पर चलता रहता हूँ तथा उनसे यह सब चीजें छोड़ने के लिए कहता रहता हूँ.
जवाब देंहटाएं