गुरुवार, 24 मई 2012

पादप एवं जंतु -2: पोषण का अंतर

पिछले भाग में हमने देखा कि पादपों और जंतुओं के कोशिकाओँ और ऊतकों में क्या फर्क है । इस भाग में हम पोषण के फर्क और समानता को समझने का प्रयास करते हैं । इसमें भी मैंने कई जगह से सामग्री ली है - किन्तु नीचे सिर्फ NCERT पुस्तकों के लिंक ही दे रही हूँ, जो कि (आठवी और सातवी कक्षा की ) स्कूली किताबें हैं, CBSE के विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम के लिए ।

भोजन हर जीव लिए आवश्यक है - जंतुओं के लिए भी, और पादपों के लिए भी। किन्तु इन दोनों में बहुत से फर्क हैं । पहली बात तो यह कि  जंतुओं को विचरण करना होता है - तो उनमे पेशियाँ होती हैं - और उन्हें ऊर्जा अधिक चाहिए । पादप एक स्थान पर स्थिर रहते हैं - सो उन्हें जंतुओं की तुलना में कम भोजन चाहिए, किन्तु भोजन चाहिए अवश्य। दूसरी बात यह कि, जंतुओं को विचरण करते हुए चोटिल होने की भी संभावना है, और हिल सकने की काबिलियत से उस चोट के स्रोत से दूर हटने / बचने भागने की भी । ये दोनों ही बातें पादपों में नहीं हैं । सो दर्द महसूस करने / खतरे के स्रोत को देखने / सूंघने / सुन पाने से अपने शरीर की रक्षा की संभावनाएं जंतुओं में अधिक हैं । इसिलिये तंत्रिका तंत्र (nervous system) अधिक विकसित होता है । हम इलेक्ट्रोनिक इंजीनियर्स जो artificial neural networks बनाते हैं, उसमे पढ़ते हैं की जीवों का तंत्रिका तंत्र कैसे सीखने की प्रक्रिया करता है । इसे विकसित होने के लिए feedback loop पूरा होना चाहिए - एक तरफा दर्द महसूस भर करने और उससे बच न पाने की स्थिति में यह पूरा नहीं हो पाता । हम मनुष्यों के doctors भी बताते हैं की कैसे, जिन बच्चों का दिमाग ठीक से विकसित नहीं हुआ हो - वे मानसिक कमजोरी के चलते धीरे धीरे अपनी उम्र के दूसरे बच्चों से शारीरिक रूप से भी पिछड़ जाते हैं - क्योंकि feedback लूप अधूरा होता है। 

अब आते हैं भोजन की आवश्यकता की आपूर्ति पर । यदि कोई जीव अपना भोजन स्वयं संश्लेषित (photosynthesis) कर सकते हैं - तो इस प्रक्रिया को स्वपोषण कहते हैं। यह सिर्फ वे पादप ही कर सकते हैं जिनमे क्लोरोफिल हो। जंतु यह नहीं कर सकते - वे पूरी तरह बाहरी स्रोतों पर निर्भर हैं पोषण के लिए। जंतुओँ को (और ऐसे पौधों को जो पोषण के लिए दूसरे पर निर्भर हैं) विषमपोषी कहते हैं।

पत्तियां पादपों की खाद्य फैक्टरियां हैं। यहाँ कुछ चित्र आप देख सकते हैं इस संश्लेषण की प्रक्रिया पर। कुछ पौधों में पत्तियां नहीं, बल्कि हरी टहनियां और तने भी संश्लेषण करते हैं । इनमे नन्हे छिद्र (रंध्र या stomata ) होते हैं - जिससे ये कार्बन डाई ओक्साइड भीतर लेते हैं और ओक्सिजन और पानी की भाप बाहर छोड़ते हैं । सूर्य से धूप (सौर ऊर्जा) मिलती है, और जडें मिटटी से पानी और खनिज सोखती हैं । हमारी रक्त धमनियों की तरह, जाइलम धरती से सोखे हुए खनिजों को ऊपर पत्तियों तक ले आती हैं । इसमें पत्तियों से सूखे हुए पानी का ऋणात्मक दबाव, और सर्फेस टेंशन (surface tension - सतही तनाव या खिंचाव ) मदद करते हैं । ये चित्र देखिये
 पत्ती की रचना (STRUCTURE OF LEAF) 

प्रकाश संश्लेषण (PHOTOSYNTHESIS)









यह प्रवाह (हमारे रक्त की तरह) दो तरफा नहीं, बल्कि एक तरफा है - सिर्फ नीचे से ऊपर की और। इसी तरह फ्लोएम पत्तियों में बने भोजन को पौधे में दूसरे भागों तक पहुंचाती हैं। दूसरे भागों में इस भोजन का उपयोग भी होता है - परन्तु कम मात्रा में ऐसा इसलिए है, क्योंकि पौधे स्थिर हैं तो उन्हें विचरण के लिए ऊर्जा नहीं चाहिए। अधिकतर बना हुआ भोजन एकत्रित और परिमार्जित किया जाता है, दूसरे जीवों के उपयोग लिए। पहले पत्तियां सिर्फ SIMPLE CARBOHYDRATE का उत्पादन करती हैं। बाद में इसका परिमार्जन कर के प्रोटीन आदि बनते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि पौधे सिर्फ दूसरे जीवों को भोजन देने भर के लिए हैं। सिर्फ कुछ -हिस्से - जिनमे अतिरिक्त भोजन जमा है - सिर्फ वही दुसरे जीवों के ग्रहण योग्य हैं, बाकी का पूरा पौधा नहीं। न ही ऐसा है की उस भाग को दुसरे जीव लें तो इससे उस पौधे की जीवन अवधि में कोई फर्क आये - क्योंकि ये भाग ऐसे हैं जिनके निकाले या काटे जाने से भी पौधे के जीवन पर प्रभाव नहीं पड़ेगा। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि पादप अपनी निजी ज़रुरत से बहुत अधिक भोजन का उत्पाद करते हैं - जो जीव साइकल का एक हिस्सा है।

यह अतिरिक्त भोजन इस तरह से संगृहित किया जाता है जिससे यह बिना पौधे को नुक्सान पहुंचाए दूसरे जीवों द्वारा ग्रहण किया जा सके । उदाहरण के लिए - पत्तियों में और घास में सेल्युलोज (CELLULOSE ) नामक स्टार्च है - जो गायें आदि (RUMINANT - रुमिनंट प्राणी ) खाती हैं और पचा सकती हैं (हम मनुष्य नहीं - हमारे पास इन्हें पचाने वाले अंग नहीं हैं - नीचे इसे समझाया गया है ) - किन्तु उनके खाने से वह पौधा मरता नहीं

इसी तरह से अतिरिक्त भोजन फल के गूदे में भी संगृहित किया जाता है - जिससे फल खाने वाले जंतु फल खाने के लिए पादप के स्थान से दूर ले जा सकें, और फल खाने के बाद उसके बीज को जनक पौधे से दूर स्थापित कर सकें यह एक तरह का मेहनताना जैसा समझा जा सकता है :)ऐसा इसलिए है कि, जंतु अपने बच्चे का पालन, पोषण, संरक्षण कर सकते हैं, क्योंकि वे विचरण कर सकते हैं। जंतु दूर से भोजन ला कर संतान को खिला सकते हैं, शत्रु जीवों को भगा कर / मार कर अपनी संतान की रक्षा कर सकते हैं। किन्तु पादपों के बारे में ऐसा नहीं है - क्योंकि वे विचरण कर ही नहीं सकते। यदि संतति भी वहीँ जन्मे जहां पैतृक पादप पहले से है, तो उसी जगह की मिटटी, धुप और हवा के लिए प्रतियोगिता हो, जिसकी वजह से नए पौधे का पनपना भी मुश्किल होगा और जनक पौधे को भी नुकसान होगा। अन्न आदि बीज के बारे में भी ऐसा ही है। एक पौधा एक से बहुत अधिक अन्नबीजों को बनाता है । वे सभी बीज वहीँ गिर जाएँ , तो कोई भी नहीं पनप सकेगा क्योंकि मिटटी में खनिज इसके लिए काफी नहीं होंगे। इस पूरी विधि पर अगले भाग (जंतुओं और पादपों में प्रजनन) में विस्तृत रूप से बात करूंगी।

सभी पौधे भोजन उत्पन्न नहीं करते। जिनमे chlorophyll ( पर्ण हरिमा ) न हो, या जिन्हें धूप न मिल पाती हो , या फिर जिन्हें कार्बन डाई ओक्साइड न मिले - ऐसे पौधे भी अपने पोषण के लिए बाहरी स्त्रोत पर निर्भर होते हैं। ऐसे पौधे जो स्वयं भोजन न बना पाएं वे भी अलग अलग प्रकार से भोजन प्राप्त करने के लिए विकसित हुए हैं। इनमे से कुछ परजीवी (parasitic ) हो जाते हैं (अमरबेल की तरह दूसरे पेड़ों आदि पर चढ़ कर उनसे भोजन प्राप्त करते हैं ), कुछ मृतजीवी (saprophytic ) होकर पहले से मृत जीवों/ जैव वस्तुओं (जैसे जूते का चमड़ा,ऊनी कपडे, रेशम) पर अपना पालन करते हैं (कुकुर मुत्ते और फंगस की तरह जो जो, सडती हुई ब्रेड आदि पर बनती है) और कुछ कीटभक्षी (insectivorous ) बन कर कीड़े मकोड़ों आदि को पकड़ कर खाते हैं।

स्वपोषी और विशमपोषी के अलावा कुछ पौधे परस्परजीवी भी हैं। जैसे दालों के पौधे (लिग्यूमनस = leguminous plants) । इन्हें नाइट्रोजन अधिक चाहिए - जड़ों के द्वारा सोखे जाने योग्य रूप में मिटटी में नाइट्रोजन । हवा में gas के रूप में जो नाइट्रोजन है - उसे ये प्रयुक्त नहीं कर सकते । सो इनकी जड़ों में कुछ विशिष्ट (रिज़ोबियम - rhizobium bacteria) बैक्टेरिया रहते हैं जो हवा के नाइट्रोजन को सोखे जाने लायक रूप में परिवर्तित करते हैं। बदले में उन्हें पौधे की जड़ों से विशिष्ट पोषण मिलता है।
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जंतुओं में पोषण की शैलियाँ  :

जैसे पौधे अलग-अलग पोषण शैलियों से अपना पोषण पाते हैं, उसी तरह जंतुओं में भी अलग-अलग प्रक्रियाएं हैं ।  घोंघा, चील, मच्छर, मधुमक्खी, अजगर, मनुष्य सब में पोषण विधियाँ अलग हैं। छीलना, चूसना, निगलना, चबाना, पचाना आदि ग्रहण  के अलग-अलग तरीके हैं ।

मैं यहाँ ख़ास तौर पर मनुष्य, शाकाहारी, और मांसाहारी जीवों की पोषण विधियों पर ही बात करूंगी। यह चित्र देखिये : (चित्र गूगल इमेजेस और edublogs से साभार )


1. छोटी अंत की लम्बाई : माँसाहारी प्राणियों में शरीर से तीन गुना के आस पास और शाकाहारियों में 12 गुना । मानवों में यह लम्बाई शाकाहारी जीवों जैसी है । 
2. मुंह: मांसाहारी जीवों (जैसे शेर) का मुंह उनके सर का अधिकतर भाग होता है - यानि की सर का आधे से अधिक भाग मुंह है - क्योंकि उन्हें शिकार को पकड़ना, जकड़ना, चीरना और फाड़ना है। शाकाहारी प्राणियों के सर का बहुत छोटा भाग होता है उनका मुख। मनुष्य में भी ऐसा ही है ।
3. शिकार करने योग्य विशिष्ट क्षमताओं वाला शरीर : मांसाहारी जीवों की शारीरिक संरचना हुई ही इस प्रकार से है कि  वे शिकार को पकड़ सकें - उनका शरीर एंड्यूरेंस में कम परंतु ताकत में भी आगे है और उनके नाखून, पंजे आदि भी शिकार करने के लिए बने हैं । मनुष्य को जंगल में शिकार करना हो - तो बिना जाल / हथियारों के संभव नहीं ।
4. हम , कच्चा मांस तो पचा ही नहीं पाते आमतौर पर, क्योंकि हमारा पाचनतंत्र उस तरह के रस (enzymes) नहीं बनाता । 
5. हमारे दाँतों की संरचना मांस को चीरने फाड़ने के लिए नहीं बनी है । सिर्फ चार ही canine teeth  हैं, वे भी मांसाहारी जीवों की तरह बड़े, तीखे और गहरी जड़ों वाले नहीं हैं । 
6. हम शाकाहारी जीवों की तरह कच्चा सेल्ल्युलोज़ भी (हरी घास और पत्तियों में एक विशेष कर्बोहाइड्रेट ) नहीं पचा सकते, क्योंकि हमारे पास  सीकम नहीं है (ऊपर चित्र  देखिये ), न  ही रुमन है ।
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सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली रचना माना गया है मानव। सो इस अग्रतम जीव की आपात स्थितियों में रक्षा/संरक्षण / survival के लिए, हमारे शरीर में शाक और मांस दोनों स्रोतों से पाया गया भोजन पचा सकने की क्षमता है तो अवश्य, किन्तु हमारे पाचन तंत्र की तुलना यदि शाकाहारी और मांसाहारी दोनों जीव जंतुओं से की जाए तो ऐसा लगता है कि मूल रूप से शाकाहार के लिए बना तंत्र, सिर्फ आपातस्थिति में जीवन यापन के लिए मांसाहार को पचाने की काबिलियत के अनुकूलित (adapted ) तो है, परन्तु दीर्घकाल में उसी पर जीने के लिए नहीं बनाया गया है ।

अगले भाग में पादपों और जंतुओं के प्रजनन प्रक्रियाओं पर बात करेंगे और जानेंगे कि प्रजनन में सफलता के लिए क्यों पादप अपनी आवश्यकता से अधिक भोजन बना कर संगृहीत करते हैं और क्यों जंतुओं के शरीर ऐसा नहीं करते ।

पढने के लिए आप सभी का आभार ।

यदि यह कुछ ज्यादा जटिल हो रहा हो - तो टिप्पणियों में बताइये - अगले भाग में कम गहराई में जाऊंगी। आभार ।
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सम्बंधित कड़ियाँ 
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14 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लाग पर आना सार्थक हुआ । काबिलेतारीफ़ है प्रस्तुति । बहुत सुन्दर
    मेरे ब्लॉग पे आपका स्वागत हैं
    क्रांतिवीर क्यों पथ में सोया?

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  2. बहुत ही सूक्ष्म तुलनात्मक अध्ययन!!
    पादप और पशु जीवन में विशाल अन्तर है किन्तु उसे सूक्ष्म और आधारभूत दृष्टि से ही ग्रहित किया जा सकता है। पशु और पादप दोनों की तुलना जब जीवन के आधार पर ही की जाती है तो इसके आहार विषय में हेय या उपादेय का आधार भी जीवन ही होना चाहिए। मांस किसी पशु को जीवन रहित किए बिना अप्राप्य है वहाँ शाकाहार पादप से जीवन को नष्ट किए बिना प्राप्त किया जा सकता है। शाकाहार प्राप्त करने में भी जीवहानि का विवेक रखना सात्विकता है। शाकाहार का उद्देश्य ही अनावश्यक हिंसा से बचना है। जिस किसी आहार में जीवहिंसा की सम्भावनाएं बनती है, सात्विक आहारी बौद्धिक परिशुद्धता से स्वयं को संयमित करता चलता है। अहिंसा शाकाहार का परम लक्ष्य है।

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    1. aabhaar

      १. पादपों में अतिरिक्त भोजन इस तरह से संगृहीत किया जाता है कि उसे लेने के लिए पौधे के प्राण न चले जाएँ - जंतुओं में ऐसा नहीं है |

      २. पादपों में तंत्रिका तंत्र उतना विकसित नहीं है जितना जंतुओं में | तो, जन्तु के एक अंग को काटा जाना बहुत पीडादायक है - पौधे में ऐसा नहीं है |

      ३. जंतुओं में जो स्तनपायी जीव हैं, वे प्राणी भी विशेष तौर पर अपनी संतति के लिए दूध (भोजन) उत्पन्न करते है - और इस दूध को निकाला जाना किसी भी तरह से माँ के लिए पीडादायक नहीं होता | बल्कि इससे उल्टा है - यदि वह दूध न निकले - तो पीड़ादायक स्थति हो जाती है | ऐसा ही पौधे के अतिरिक्त भोजन का है - यदि फल न लिए जाएँ तो पौधों का प्रजनन बाधित होगा | मांस के साथ ऐसा नहीं है | मांस लेना पीड़ा और मृत्यु - दोनों का कारण बनता है |

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    2. आभार, यही बिन्दु कहना चाहता था

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  3. बहुत अच्छी जानकारी। शाकाहार की कोई बराबरी नहीं।

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  4. बहुत रोचक जानकारी...अपना पेट भरने के लिये हिंसा क्यों?

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  5. सहज सरल प्रस्तुति है कोई भाषागत क्लिष्टता आड़े नहीं आ रही है .घर से बाहर निकला करें खुद को भी धूप लगाएं ,औरों के ब्लॉग पर भी आएं जाएं ,सेहत के लिए अच्छा रहता है आना जाना . .कृपया यहाँ भी पधारें -
    ram ram bhai
    23 मई 2012
    ये है बोम्बे मेरी जान (अंतिम भाग )
    http://veerubhai1947.blogspot.in/
    यहाँ भी देखें जरा -
    बेवफाई भी बनती है दिल के दौरों की वजह .
    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/

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  6. यह आलेख इस बात का प्रमाण है कि जब सातवीं/आठवीं कक्षा में यह बातें पढायी जाती हैं तो उन्हें निरामिष होने का पाठ क्यों नहीं पढ़ाया जा सकता.. आवश्यकता केवल बच्चों को तथ्यों से सार्थक रूप से परिचित कराने की है.. शेष निर्णय उनपर छोड़ देना चाहिए!!

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  7. बहुमूल्य और जटिल जानकारी को इतने सरल शब्दों में अभिव्यक्त करने का आभार!

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  8. बहुत बढ़िया! आप हर विषय का बहुत विस्तृत विवरण देती हैं।

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  9. निचले कक्षाओं की पाठ्यपुस्तकों में भी वर्णित होता है कि मांसाहारी और शाकाहारी जानवरों के पाचनतंत्र में अंतर होता है, लेकिन लोग इस मूलभूत अंतर को भी मानने को तैयार नहीं होते, आपने विस्तार में लिखकर बहुत अच्छा समझाया है. दुनिया का अनोखा क्लब - अभी अभी पढ़ने को मिला - http://www.bbc.co.uk/hindi/news/2012/05/120525_sanskrit_night_club_sdp.shtml

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