गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल!! (पूर्वार्ध)

हिंसा की तुलना: माँसाहार बनाम शाकाहार

माँसाहार के कुछ समर्थक, माँसाहार को जबरन योग्य साबित करने के लिये पूछते हैं कि जब वनस्पति में भी जीवन है तो फिर पशु हत्या ही हिंसा क्यों मानी जाती है। ऐसे मांसाहार प्रवर्तक/समर्थक यह दावा करते हैं कि शाक, सब्जी या अन्य शाकाहारी पदार्थों के उत्पादन, तोड़ने तथा सेवन करने पर भी जीव की हिंसा होती है। वे पूछते हैं कि ऐसे में पशु या पक्षियों को मारकर खाने को ही हिंसा व क्रूरता क्यों माना जाता है?

यह कुतर्क प्रस्तुत करते हुए ये तथाकथित विद्वान कभी भी अपना पक्ष स्पष्ट नहीं करते कि शाकाहार और मांसाहार दोनों में हिंसा है तो क्या वे इन दोनो ही का त्याग करने वाले हैं अथवा यह कहना चाहते है कि जब शाकाहारी माँसाहारी दोनो पदार्थों में हिंसा है तो इन दोनों में से जो अधिक क्रूर व वीभत्स हत्या हो, जहां स्पष्ट अत्याचार व आर्तनाद दृष्टिगोचर होता हो, समझते बूझते हुए भी वही हत्या और हिंसा अपना लेनी चाहिए?

क्रूर सच्चाई तो यह है कि माँसाहार समर्थकों का यह तर्क, सूक्ष्म और वनस्पति जीवन के प्रति करुणा से नहीं उपजा है। बल्कि यह क्रूरतम पशु हिंसा को सामान्य बताकर महिमामण्डित करने की दुर्भावना से उपजा है।

शाकाहार की तुलना मांसाहार से करना और दोनों को समान ठहराना न केवल अवैज्ञानिक और असत्य है बल्कि अनुचित व अविवेक पूर्ण कृत्य है। एक ओर तो साक्षात जीता जागता प्राणी , अपनी जान बचाने के लिए भागता, संघर्ष करता, बेबसी महसुस करता प्राणी , सहायता के लिए याचना भरी निगाहों से आपकी ओर ताकता आतंकित प्राणी , चोट व घात पर दर्द और पीड़ा से आर्तनाद कर तड़पता, छटपटाता प्राणी और उसे मरते देख रोते –बिलखते अन्य प्राणी? तब भी यदि करूणा नहीं जगती तो निश्चित ही यह मानव मन के निष्ठुर व क्रूर भावों की पराकाष्टा होनी चाहिए।

प्रकृति में दो तरह के जीव है। त्रस और स्थावर। मनुष्य पशु पक्षी मछली आदि स्थूल त्रस जीव है, वे ठंड-गर्मी, भय-त्रास आदि से बचाव के लिए हलन-चलन में सक्षम है। जबकि पेड पौधे बादर स्थावर है उनमें ठंड-गर्मी, भय-त्रास से बचने की चेतना और स्फुरण ही पैदा नहीं होता।

भारतीय वनस्पतिशास्त्री जगदीश चन्द्र बसु के प्रयोगों से पश्चिमी सोच में पहली बार यह प्रस्थापना हुई कि वनस्पति में जीवन है। हालांकि भारतीय मनीषा में यह तथ्य स्थापित था कि वनस्पति में भी जीवन है। परंतु यह जीवन प्राणी-जीवन से सर्वथा भिन्न है। वनस्पति में वह जीवन इस सीमित अर्थ में हैं कि पादप बढते हैं, श्वसन करते हैं, भोजन बनाते हैं और अपने जैसी कृतियों को जन्म देते हैं। स्वयं जगदीश चन्द्र बसु कहते है, - पशु-पक्षी हत्या के समय मरणांतक पीड़ा महसुस करते है, और बेहद आतंक ग्रस्त होते है। जबकि पेड़-पौधे इस प्रकार आतंक महसूस नहीं करते, क्योंकि उनमें सम्वेदी तंत्रिका-तंत्र का अभाव है।

पौधों में प्राणियों जैसी सम्वेदना का प्रश्न ही नहीं उठता। उनमें सम्वेदी तंत्रिकातंत्र पूर्णतः अनुपस्थित है। न उनमें मस्तिष्क होता है और न ही प्राणियों जैसी सम्वेदी-तंत्र संरचना। सम्वेदना तंत्र के अभाव में शाकाहार और मांसाहार के लिए पौधों और पशुओं के मध्य समान हिंसा की कल्पना पूरी तरह से असंगत है। जैसे एक समान दिखने वाले कांच और हीरे के मूल्य में अंतर होता है और वह अंतर उनकी गुणवत्ता के आधार पर होता है। उसी प्रकार एक बकरे के जीव और एक फल के जीव के जीवन-मूल्य में भी भारी अंतर है। पशुपक्षी में चेतना जागृत होती है उन्हें मरने से भय (अभिनिवेश) भी लगता है। क्षुद्र से क्षुद्र कीट भी मृत्यु या शरीरोच्छेद से बचना चाहता है। पशु पक्षी आदि में पाँच इन्द्रिय होती है वह जीव उन पाँचो इन्द्रियों से सुख अथवा दुख अनुभव करता है, सहता है, भोगता है। कान, आंख, नाक, जिव्हा और त्वचा तो उन इन्द्रियों के उपकरण है इन इन्द्रिय अवयवों के त्रृटिपूर्ण या निष्क्रिय होने पर भी पाँच इन्द्रिय जीव, प्राणघात और मृत्युवेदना, सभी पाँचों इन्द्रिय सम्वेदको से अनुभव करता है। यही वह संरचना है जिसके आधार पर प्राणियों का सम्वेदी तंत्रिका तंत्र काम करता है। जाहिर है, जीव जितना अधिक इन्द्रियसमर्थ होगा, उसकी मरणांतक वेदना और पीड़ा उतनी ही दारुण होगी। इसीलिए पंचेन्द्रिय (पशु-पक्षी आदि) का प्राण-घात, करूण प्रसंग बन उठता है। क्रूर भावों के निस्तार के लिए, करूणा यहां प्रासंगिक है। विवेक यहां अहिंसक या अल्पहिंसक विकल्प का आग्रह करता है।

आहार का चुनाव करते समय हमें अपने विवेक को वैज्ञानिक अभिगम देना होगा। वैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि सृष्टि में जीवन विकास क्रम, सूक्ष्म एक-कोशिकीय (एकेन्द्रिय) जीव से प्रारंभ होकर पंचेंद्रिय तक पहुँचा है। पशु-पक्षी आदि पूर्ण विकसित प्राणी है। यदि हमारा जीवन, न्यूनतम हिंसा से चल सकता है तो हमें कोई अधिकार नहीं बनता, हम विकसित प्राणी की अनावश्यक हिंसा करें। उपभोग संयम का अनुशासन भी नितांत ही आवश्यक है। प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग, दुष्कृत्य के समान है। विकल्प उपलब्ध होते हुए भी जीव विकास क्रम को खण्डित/बाधित करना, प्रकृति के साथ जघन्य अपराध है।
जारी………

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* सम्बंधित आलेख *
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* हिंसा का अल्पीकरण करने का संघर्ष भी अपने आप में अहिंसा है।
* विवेकी सम्वेदनाएं और संयम ही अहिंसा संस्कृति है

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

कॉलेस्टरॉल किस चिड़िया का नाम है?

कॉलेस्टरॉल प्राणियों के शरीर में निर्मित होने वाला एक दानेदार रासायनिक पदार्थ (स्टैरॉल, ऐल्कोहल) है। कॉलेस्टरॉल के अणु प्राणियों के शरीर में कई प्रक्रियाओं के लिये अनिवार्य घटक हैं। इसके कुछ उपयोग निम्न हैं:
  • विटामिन डी का निर्माण
  • वसा-पाचन के अम्लों का निर्माण
  • कोशिका-भित्ति के सामान्य कार्य-निष्पादन
  • कई हार्मोनों का निर्माण

मानव शरीर में कॉलेस्टरॉल वसा में घुलनशील प्रोटीन (लिपोप्रोटीन) के रूप में हमारे रक्त में प्रवाहित होता है। घनत्व के अनुसार इसके सामान्यतः दो प्रकार होते हैं अल्प-सान्द्र (कम घनत्व = LDL=Low-density lipoprotein; बुरा) कॉलेस्टरॉल व अति-सान्द्र (अधिक घनत्व = HDL=high-density lipoprotein; अच्छा) कॉलेस्टरॉल। लहू में अल्प-सान्द्र कॉलेस्टरॉल का आधिक्य हृदयरोग का कारक बनता है जबकि अति-सान्द्र कॉलेस्टरॉल हृदय को स्वस्थ रखने में सहायता करता है।

अमेरिकी स्वास्थ्य प्रक्रिया में 20 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों को पाँच वर्ष में कम से कम एक बार कॉलेस्टरॉल की जाँच कराने की सलाह दी जाती है। और कॉलेस्टरॉल के आधिक्य की स्थिति में इसकी मात्रा की और यकृत (जिगर/लिवर) की वार्षिक जाँच की सलाह है।

कॉलेस्टरॉल वनस्पति जगत में नहीं पाया जाता। हमारे शरीर में कॉलेस्टरॉल की उपस्थिति के दो कारण हो सकते हैं, एक सामिष भोजन और दूसरा आंतरिक निर्माण। मांसाहार से शरीर में आने वाला अधिकांश कॉलेस्टरॉल अल्प-घनत्व वाला, हानिप्रद होता है। शाकाहारी भोजन करने से हम इस प्रकार के हानिप्रद कॉलेस्टरॉल के आगमन से पूर्णतया बच सकते हैं। मांसाहार तो वैसे ही कॉलेस्ट्रॉल के लिये बुरा है पर उसमें भी जिगर आदि अंग तो विशेषरूप से कॉलेस्टरॉल से लदे होते हैं।

कॉलेस्टरॉल का दूसरा स्रोत हमारा शरीर है। फल, सब्ज़ी, संतुलित भोजन, व्यायाम और शारीरिक गतिविधियों द्वारा हम शरीर में अच्छे कॉलेस्टरॉल के निर्माण की प्रक्रिया को बढा सकते हैं। इसके उलट मांसाहार, तला भोजन और आरामतलब जीवनशैली हमारे शरीर में भी बुरे कॉलेस्टरॉल की मात्रा बढाती है। कॉलेस्टरॉल के मामले में शाकाहारी भोजन एक दुधारी तलवार है। एक ओर तो यह स्वयं कॉलेस्टरॉल-मुक्त होता है। वहीं, दूसरी ओर इसमें उपस्थित रेशे (fibers) शरीर में बनने वाले कॉलेस्टरॉल को भी पाचन तंत्र द्वारा अवशोषित होने से रोकते हैं।
निरामिष, सात्विक, शाकाहार पूर्णतया कॉलेस्टरॉल-मुक्त होता है।
कुल कॉलेस्टरॉल की स्वस्थ मात्रा 200 mg/dL (मिलिग्राम प्रति डेसिलीटर) के नीचे मानी जाती है। 240 mg/dL से अधिक कॉलेस्टरॉल खतरनाक है। एलडीएल (बुरा) की मात्रा 70 mg/dL से कम होनी चाहिये। एचडीएल (अच्छा) की मात्रा पुरुषों के लिये 40 mg/dL से ऊपर व महिलाओं के लिये 50 mg/dL से ऊपर अपेक्षित है। बुरे कॉलेस्टरॉल की अधिक मात्रा हमारी धमनियों की आंतरिक दीवारों पर पपड़ी के रूप में चिपकती रहती है और उन्हें संकरा और कड़ा बनाती जाती है। अच्छा कॉलेस्टरॉल, धमनियों की दीवारों पर जमने वाले बुरे कॉलेस्टरॉल के कणों को पकड़कर वापस यकृत में जमा कर देता है। कुछ चिकित्सकों की मान्यता है कि हम भारतीयों की धमनियाँ वैसे भी कुछ संकरी होती हैं और हमारी जीवन-शैली में श्रम का कम होता महत्व भी हमारा शत्रु बन रहा है। कारण जो भी हो पर यह सच है कि विदेश में रहने वाले भारतीय यहाँ के स्थानीय निवासियों के मुकाबले कॉलेस्टरॉल से अधिक पीड़ित हैं। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में अच्छा कॉलेस्ट्रोल अधिक पाया जाता है। इसी प्रकार धूम्रपान करने वालों में बुरे कॉलेस्टरॉल की अधिकता पायी गयी है।

शरीर में अच्छे कॉलेस्टरॉल की मात्रा बढाने के लिये संतुलित शाकाहारी भोजन, मेवे, फल, फूल, शाक की अधिकता, गतिमान व्यायाम (सूर्य नमस्कार, साइकिल, जॉगिंग, नृत्य, ऐरोबिक्स आदि) लाभप्रद हैं। मांस, तले हुए पदार्थ, और धूम्रपान से बचाव बुरे कॉलेस्टरॉल की मात्रा कम करने में सहायक है। फल, सब्ज़ी, मोटा अनाज, ईसबगोल, अलसी, सूर्यमुखी आदि के बीज आदि से प्राप्त होने वाला रेशा (फ़ाइबर) शरीर में मौजूद कॉलेस्टरॉल को पाचन-तंत्र द्वारा अवशोषित हुए बिना बाहर निकालने में सहायक है।

रक्त की नियमित जाँच कराकर हम अपने कॉलेस्टरॉल की मात्रा जानकर सही उपाय करके ह्रदयघात, स्ट्रोक आदि से बच सकते हैं। यदि उपरोक्त उपाय काम न आयें, तो प्रमाणित और कारगर दवाओं का सहारा लिया जा सकता है। याद रहे संतुलित शाकाहारी भोजन हमें स्वस्थ और सम्पूर्ण आहार प्रदान करता है। उचित जीवन शैली अपनाकर हम न केवल निरोग रह सकते हैं बल्कि समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को भी बेहतर रूप से निभा सकते हैं।

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* सम्बन्धित कड़ियाँ *
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* शाकाहार रोके दिल का दौरा
* पनीर से कम करें कॉलेस्टरॉल
* स्पाइरुलीना
* कोलेस्टेरॉल-विकीपीडिया

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

रक्त निर्माण के लिये आवश्यक है विटामिन बी12

संपादकीय नोट: यह जानकारी किसी चिकित्सकीय सलाह का विकल्प नहीं है। किसी भी संशय, बीमारी, लक्षण की स्थिति में अपने चिकित्सक से सलाह अवश्य लीजिये।

दूध, दही, खमीर, अंकुरित दालें, शैवाल
संतुलित भोजन अच्छे स्वास्थ्य की और पहला कदम है। स्वस्थ भोजन में प्रोटीन, शर्करा, वसा, खनिज पदार्थों आदि के अतिरिक्त सूक्ष्म मात्रा में भी बहुत से ऐसे पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है जिन्हें विटामिन कहते हैं। संतुलित शाकाहारी भोजन विभिन्न विटामिनों सहित उपरोक्त सभी तत्वों को प्रदान करने में सक्षम है। तो भी शाकाहार के विरोध में कभी-कभी ऐसे बयान पढने या सुनने में आते हैं जिनसे ऐसी शंका हो सकती है कि निरामिष भोजन में सभी तत्व भरपूर हैं कि नहीं। शाकाहार-विरोधी ऐसे ही प्रचार को ध्यान में रखते हुये निरामिष सम्पादक मण्डल ने समय समय पर शाकाहारी भोजन में उपस्थित पोषक तत्वों की जानकारी देने के उद्देश्य से स्वास्थ्य के लिये आवश्यक खनिजों व विटामिनों के बारे में जानकारीपूर्ण आलेख प्रस्तुत करने का निर्णय लिया है। पिछले दिनों आपने विटामिन डी सम्बन्धी जानकारी के लिये "विटामिन डी - सूर्य नमस्कार से पोषण" पढा था। इसी शृंखला में आज प्रस्तुत है विटामिन बी 12 के बारे में तथ्यात्मक जानकारी।

विटामिन बी के नाम से पुकारा जाने वाला समूह बहुत से विटामिनों का ऐसा समूह है जिसके अधिकांश घटक शाकाहारी भोजन में निसन्देह प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। केवल एक घटक "बी12" के बारे में कुछ समूह बार-बार यह बात कहते हैं कि यह वनस्पति जगत में नहीं होता। आइये सत्यान्वेषण पर आगे चलने से पहले इस तर्क को परख लिया जाये। यदि बी12 वनस्पति जगत में न बनकर केवल प्राणियों के शरीरों में उत्पन्न होता तब तो उसके लिये चिंता करने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती, क्योंकि तब वह हमारे शरीर में भी आवश्यकतानुसार उत्पन्न होना ही चाहिये था। और तथ्य यह है कि ऐसा होता भी है। अंतर केवल इतना है कि वह मांस का उत्पाद न होकर सूक्ष्म जीवों(Streptomyces griseus, Propionibacterium shermanii, Pseudomonas denitrificans) द्वारा ही उत्पादित पोषक तत्व है। अधिकांश प्राणियों की तरह हमारे शरीर में भी पाचन-तंत्र के कुछ अवयवों में इन्हीं सूक्ष्म जीवों की सहायता से बी 12 की भारी मात्रा उत्पन्न होती है। पशुमांस में भी यह विटामिन जिन अंगों/अवयवों में अधिक मात्रा में पाया जाता है उन भागों को तो अधिकांश मांसाहारी अभक्ष्य ही मानते हैं।
विटामिन बी12 के लिये मांसाहार अनिवार्य नहीं है। शाकाहारी प्राणी अपने शरीर में विटामिन बी 12 की पर्याप्त मात्रा उत्पन्न करते हैं।
यह सच है कि पौधे विटामिन बी12 के महत्वपूर्ण स्रोत हैं या नहीं, इस पर बहुत खोज हुई ही नहीं है। पोषण सम्बन्धी अधिकांश आधुनिक अध्ययन पश्चिमी देशों में हुए हैं जहाँ मांस और दुग्धाहार सामान्य है इसलिये किसी वैकल्पिक स्रोत की जाँच की आवश्यकता नहीं पड़ती। परंतु यह कहना बिल्कुल ग़लत है कि वनस्पति स्रोतों में बी12 का पूर्णाभाव है। हाल के वर्षों में पश्चिम में शाकाहार के बढते प्रचलन के कारण विटामिन बी12 के स्रोतों पर शोधों में भी वृद्धि हुई है। गोबर आदि जैविक खादों से पोषित भूमि में उगाई गयी फसलों में बी12 की जांच योग्य मात्रा पाये जाने के प्रमाण हैं। पशुओं के दूध और दुग्ध-उत्पादों यथा दही, पनीर, खोया, मट्ठा आदि से भी बी12 की पर्याप्त मात्रा प्राप्त होती है। अन्य प्राणियों की तरह ही मानव शरीर भी बी12 को लम्बे समय तक सुरक्षित रखता है और इसके सार को नष्ट किये बिना बारम्बार इसका उपयोग करता है। नई आपूर्ति के बिना भी हमारा शरीर विटामिन "बी12" को 30 वर्षों तक सुरक्षित रख सकता है, ऐसे चिकित्सकीय प्रमाण हैं। इसका कारण यह है कि अन्य विटामिनों के विपरीत, विटामिन बी12 अन्य प्राणियों की तरह हमारी मांसपेशियों और शरीर के अन्य अंगों विशेषकर यकृत में भंडारित रहता है। लेकिन यह वहाँ उत्पन्न नहीं होता है।

घास, चारा, पत्तियाँ और अनाज खाने वाले मवेशियों के मांस और दूध में पाया जाने वाला विटामिन बी12 उनके जठरांत्र संबंधी मार्ग में जहाँ-तहाँ रहते सूक्ष्मजीवों द्वारा संश्लेषित होता है। सच तो यह है कि शाकाहारी प्राणियों में विटामिन बी12 का संश्लेषण मांसाहारी पशुओं के मुकाबले इतना अधिक है कि उनके दूध और मांस ही अधिकांश मानवों के लिये बी12 का स्रोत हैं। वास्तव में यह सारा बी12 उन्हीं सूक्ष्म जीवों बैक्टीरिया द्वारा आया है जो हमारे पाचन-तंत्र में ही निवास करते हैं। संतुलित शाकाहारी भोजन से हम उन सूक्ष्म-जीवों की वृद्धि के लिये अनुकूल वातावरण उत्पन्न करते हैं और इस प्रकार बी12 पर बाह्य निर्भरता को कम कर सकते हैं। विटामिन बी12 के उत्पादक सूक्ष्म जीवों के लिये ऐसा अनुकूलन करने के लिये दूध, दही, पनीर, खमीर उचित आहार है। जानकारी के कुछ स्रोतों के अनुसार सोयाबीन, मूंगफली, दालें और अंकुरित बीज भी अच्छे हैं। समुद्री शैवाल स्पाइरुलिना भी अन्य विटामिनों के साथ बी12 का भी अच्छा स्रोत है। यीस्ट के एक विशिष्ट प्रकार टी 6635+ (Red Star T-6635+) में ऐक्टिव बी12 पाया गया है।
कोबाल्ट का यौगिक विटामिन बी12 मांस या शाक से नहीं बल्कि सूक्ष्मजीव बैक्टीरिया से उत्पन्न होता है।
वयस्कों के लिये बी12 की सुझाई हुई दैनिक मात्रा 2.4 माइक्रोग्राम है। विटामिन बी12 की कमी के बहुत से मामले दरअसल उसके अवशोषण की कमी के मामले होते हैं। चालीस से अधिक वय के लोगों की बी12 अवशोषण की क्षमता धीरे-धीरे कम होती जाती है। बहुत सी दवाइयाँ भी लम्बे समय तक प्रयोग किये जाने पर बी12 के अवशोषण को अस्थाई रूप से या सदा के बाधित करती हैं। इसके अलावा भोजन में नियमित रूप से बी12 की अधिकता होने पर शरीर उसकी आरक्षित मात्रा में कमी कर देता है। आहार में लिये गये विटामिन बी12 का अवशोषण प्राणियों की छोटी आंत के अंत में आंतों की दीवार की कोशिकाओं द्वारा छोड़े गये एक जैव-रासायनिक अणु (intrinsic factor, a glycoprotein) की सहायता से सूक्ष्मजीवों द्वारा होता है। यदि आपके शरीर में इस जैव-रासायनिक अणु की कमी है तो हम भोजन में कितना भी बी12 लें, हमारा शरीर उसे ग्रहण करने में असमर्थ रहता है। इसी प्रकार , कोबाल्ट धातु/खनिज की आपूर्ति या विशिष्ट सूक्ष्मजीवों की अनुपस्थिति में प्राणियों के शरीर में इसका निर्माण संभव नहीं है। इसके अतिरिक्त भोजन में भले ही बी12 होने का दावा किया जाये, अधिक पकाये हुए भोजन में बी12 नष्ट हो जाता है। ऐसी स्थिति में लम्बे समय तक विटामिन बी12 की कमी रहने पर मस्तिष्क सम्बन्धी गतिविधियाँ और रक्त निर्माण जैसी प्रक्रियाओं पर असर पड़ता है और चिकित्सकों की सलाह से सुइयों या नासिका के द्वारा विटामिन बी की पूरक मात्रा शरीर में पहुँचाई जा सकती है।

भोजन के प्राकृतिक स्रोतों और शरीर के भीतर निर्मित होने वाले विटामिन बी12 के अतिरिक्त हम इसकी आपूर्ति पूरक स्रोतों, जैसे विटामिन की गोलियों द्वारा भी कर सकते हैं। पूरक स्रोतों में पाया जाने वाला विटामिन बी12 प्रयोगशाला में संश्लेषित होता है। इसमें किसी पशु-उत्पाद का प्रयोग नहीं होता है। पश्चिमी देशों में प्रचलित डब्बाबन्द शाकाहारी नाश्ता (फ़ोर्टिफ़ाइड सेरियल) और चिक्की/पट्टी (ग्रेनोला बार) बी12 सहित आवश्यक विटामिनों और खनिजों से भरपूर होता है।

तो देर मत कीजिये। अपने नाश्ते में दूध का गिलास और अंकुरित दालों को शामिल कीजिये, और भोजन में गाहे-बगाहे खमीरी रोटी और स्पाइरुलिना भी ले लिया कीजिये, विशेषकर यदि आप चालीस के निकट हैं या उससे आगे पहुँच चुके हैं। संतुलित भोजन कीजिये और शाकाहारी रहिये, यह आपके लिये तो अच्छा है ही, हमारे पर्यावरण के लिये भी उपयोगी है।

सार:
शरीर को रक्त-निर्माण जैसे कार्यों के लिये विटामिन बी12 (कोबालअमीन) की अत्यल्प मात्रा की आवश्यकता होती है। बी12 को बैक्टीरिया बनाते हैं जो हमारे पाचन-तंत्र के आंतरिक अंगों में रहते हैं। खमीर, अंकुरित दालों, शैवालों, दुग्ध-उत्पादों तथा विशिष्ट शाकाहारी भोजन और इन सूक्ष्म-जीवों की सहायता से बी12 की पर्याप्त मात्रा प्राप्त कर सकते हैं। हमारा शरीर बी12 को लम्बे समय तक आरक्षित रख सकता है। मांसाहार आदि करने वालों में होने वाली अधिक आमद में शरीर बी12 का संचित कोष रखना बन्द कर देता है; अतः, मांस से शाक की ओर आने वालों को दूध आदि न लेने पर नया कोष बनने तक बी12 की कमी हो सकती है जिसे दूध, दही आदि के संतुलित आहार, फोर्टिफाइड फूड, या विटामिन की पूरक गोलियों द्वारा पूरा किया जा सकता है

विटामिन बी12 की सुझाई हुई मात्रा और विभिन्न पदार्थों में पायी जाने वाली मात्रायें माइक्रोग्राम (μg) में निम्न सारणी में अनुसूचित हैं। सामिष भोजन से तुलना के लिये मुर्गी के अंडे की मात्रा भी सूची में है।

वयस्क के लिये2.4
गर्भवती के लिये2.6
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स्विस पनीर 100 ग्राम3.34
स्किम्ड मॉज़रेला पनीर 100 ग्राम0.7
पूरक गोली 12.4 से 12 तक
T-6635+ एक चम्मच4
आइसक्रीम 1 कप0.6
स्किम्ड दूध 1 पाव1.15
दही 1 पाव1.33
मट्ठा 100 ग्राम2.5
चीज़ पिज़्ज़ा 1 स्लाइस0.53
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अंडा एक0.5
एक अंडे की सफ़ेदी0.1

सम्बन्धित आलेख
* Reliable Vegan Sources of Vitamin B12
* Vitamin B12 in the Vegan Diet
* विटामिन बी12 - विकीपीडिया
* विटामिन डी

सोमवार, 19 दिसंबर 2011

शाकाहार से प्रकृति और पर्यावरण को लाभ



शाकाहार और मांसाहार को लेकर पिछले कई दशकों से चल रहे विवाद में भले ही दोनों पक्षों के पास अपने अपने प्रबल तर्क हों, लेकिन शाकाहार के पक्ष में यह बात सबसे महत्वपूर्ण साबित होती है कि इसके जरिये प्रकृति और पर्यावरण को नुकसान पहुंचने की बजाय लाभ होता है। दुनियाभर में शाकाहार को बढ़ावा देने वाली प्रतिष्ठित संस्था ‘पेटा’ की प्रवक्ता बेनजीर सुरैया ने कहा, “भारत शाकाहार का जन्मस्थान रहा है और ‘विश्व शाकाहार दिवस’ के मौके पर हमें शाकाहारी होने पर विचार करना चाहिये। इससे हानिकारक गैसों का उत्पादन रुकेगा और जलवायु परिवर्तन रुकेगा। इसके अलावा आप खुद भी चुस्त दुरुस्त रहेंगे।“

बेनजीर ने बताया कि अध्ययन से पता चला है कि शाकाहारी लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता मांस खाने वाले लोगों से ज्यादा मजबूत होती है। इसी तरह शाकाहारी लोगों को दिल से जुड़ी बीमारियां, कैंसर और मोटापा जैसी बीमारियां बहुत ही कम होती हैं। आहार विशेषज्ञ डॉक्टर भुवनेश्वरी गुप्ता ने कहा, “आहार विशेषज्ञ होने के नाते मैं जानती हूं कि मेरे शरीर के लिये शाकाहारी भोजन ही सबसे उत्तम है। मांस, अंडे और डेयरी उत्पाद छोड़ देने से कम वसा, कम कोलेस्ट्राल और बहुत पौष्टिक खाना मिलता है।“

उन्होंने कहा,“भारत में हृदय से जुड़ी बीमारियाँ, मधुमेह और कैंसर के मामले बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं और इसका सीधा संबंध अंडों, मांस और डेयरी उत्पादों जैसे मक्खन, पनीर और आईपीम की बढ़ रही खपत से है।“ भारत में तेजी से बढ़ रहे मधुमेह टाइप 2 से पीड़ित लोग शाकाहार अपना कर इस बीमारी पर नियंत्रण पा सकते हैं और अपना मोटापा भी घटा सकते हैं। शाकाहारी खाने में कोलेस्ट्राल नहीं होता, बहुत कम वसा होती है, और यह कैंसर के खतरे को 40 फीसद कम करता है।“  

बेनजीर ने कहा, “शाकाहारी खाना खाने वाले लोगों में मांस खाने वाले लोगों की तुलना में मोटापे का खतरा एक चौथाई ही रहता है।“ उन्होंने कहा, “खाने के लिये पशुओं की आपूर्ति में बड़े पैमाने पर जमीन, खाद्यान्न, बिजली और पानी की जरूरत होगी।  वर्ष 2010 में संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जलवायु परिवर्तन को रोकने, प्रदूषण को कम करने, जंगलों को काटे जाने को रोकने और दुनियाभर से भुखमरी को खत्म करने के लिये वैश्विक स्तर पर शाकाहारी भोजन अपनाया जाना जरूरी है।“  डॉक्टर भुवनेश्वरी गुप्ता ने कहा कि एक स्वास्थ्यवर्धक तथा संतुलित शाकाहारी खाने में सभी अनाज, फल, सब्जियां, फलियां, बादाम, सोया दूध और जूस आता है।  यह खाना आपकी दिन प्रतिदिन की विटामिन, कैल्शियम, आयरन, फोलिक एसिड, विटामिन सी, प्रोटीन और अन्य जरूरतों को पूरा करता है। 

सम्बंधित आलेख

पर्यावरण:  शाकाहार में सुरक्षित है पर्यावरण संरक्षण
पर्यावरण : माँसाहार से ग्लोबल वॉर्मिंग भय
पर्यावरण:  शाकाहारी बनकर धरती के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभायें
खाद्य संकट:  यदि अखिल विश्व शाकाहारी हो भी जाय, भरे रहेंगे अन्न भंड़ार
स्वास्थ्य:   कुछ रोग तो माँसाहारियों के लिए आरक्षित है.
पोषक तत्व:  पोषणयुक्त पूर्ण संतुलित शाकाहार

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

बेल्जियम का नगर घेंट - शाकाहार का मार्गदर्शक



कुछ समय पहले मैंने शाकाहार पर एक श्रंखला लिखी थी जिसमें अन्य बातों के साथ पर्यावरण पर शाकाहार के अच्छे प्रभाव का ज़िक्र भी नैसर्गिक रूप से आ गया था। हम भारतीय तो नसीब वाले हैं कि हमारे देश में अहिंसा, प्राणीप्रेम और शाकाहार की हजारों वर्ष पुरानी परम्परा रही है। अहिंसक विचारधारा की जन्मभूमि में आज भले ही कुछ लोग शाकाहार को पुरातनपंथी मानने लगे हों, शाकाहार का डंका विश्व भर में बज रहा है। व्यक्तिगत रूप से तो शाकाहार विश्व भर में ही प्रचलन में आ रहा है परन्तु बेल्जियम के गेंट नगर ने इसे आधिकारिक बनाकर इतिहास ही रच डाला है।

पर्यावरण की रक्षा के लिए अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए मांसाहार के दुष्प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से बेल्जियम के गेंट के नगर प्रशासन ने हर सप्ताह एक दिन (गुरूवार को) 'शाकाहार दिवस' के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। इस दिन नगर के अधिकारी और चुने गए जन-प्रतिनिधि शाकाहारी भोजन करेंगे और स्कूली बच्चे भी अपने तरीके से शाकाहार दिवस को मनाएँगे।

नगर प्रशासन को विश्वास है कि इस प्रयोग से धरा को क्षति पहुंचाने वाली ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी तो होगी ही, लगे हाथ मोटापा और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं से छुट्टी भी मिल जायेगी। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि विश्व में ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन का एक बड़ा भाग मांस के कारखानों से आता है। हम तो इतना ही कहेंगे - बधाई गेंट, बधाई बेल्जियम! आपने पहल की है, अन्य देश-नगर भी धीरे-धीरे सीख ही लेंगे।

[अनुराग शर्मा]

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

वैदिक संस्कृति और माँसाहार ???

दिकाल से भारतीय आर्य संस्कृति का विश्व में जो महत्वपूर्ण स्थान रहा है, उसे न तो किसी के चाहे झुठलाया ही जा सकता है और न ही मिटाया. ये वो एकमात्र संस्कृति रही है, जिसे उसके त्याग, शील, दया, अहिँसा और ज्ञान के लिए जाना जाता रहा है. हालाँकि वर्तमान युग में चन्द अरबी सभ्यता के पोषक एवं पालक तत्व इसकी गरिमा को लाँछित करने में पूरे मनोयोग से प्रयत्नशील हैं. ये वो आसुरी प्रवृति के लोग हैं, जो सम्पूर्ण विश्व को अपने अज्ञान, कपट, हिँसा और अहं की अग्नि में भस्मीभुत कर देना चाहते हैं. लेकिन ये लोग शायद जानते ही नहीं, या कहें कि जानते हुए भी इस सत्य को पचा पाने में असमर्थ हैं, कि युगों से न जाने उनके जैसी कितनी सभ्यताओं और संस्कृतियों को ये सनातन संस्कृति अपने से समाहित कर चुकी है.
जेहादी मानसिकता के पोषक इन मलेच्छों की मलेच्छता का रोग तो यहाँ तक बढ गया है कि ये कुटिल लोग यह निराधार कल्पना करने से भी न चूके कि वेदों में माँसाहार की प्रशन्सा की गई है. ओर तो ओर आईएसआई के एक मलेच्छ एजेन्ट नें तो लगता है कि इस बात का बीडा ही उठा रखा है कि चाहे कैसे भी हो, वेदों में पशुबलि, माँसभक्षण वगैरह वगैरह सिद्ध करके ही रहूँगा.
कितने आश्चर्य की बात है कि जैसा ये लोग भविष्य को बदलना चाहते हैं, उसी प्रकार भूत को बदल डालने के अशक्य अनुष्ठान में भी प्रवृत होने लगे हैं. लेकिन ये मूर्ख नहीं जानते कि भूत सदा ही निश्चल और अमिट होता है. भविष्य की तरह वह कभी बनाये नहीं बनता. भारतीय आर्य संस्कृति और उसके आधार ग्रन्थ सत्य, शील, अहिँसा, त्याग और विश्वबन्धुत्व जैसे न जाने कितने सद्गुणों की उपज हैं. यह एक ऎसा ज्वलन्त सत्य है, जो किसी भी प्रकार से आवृत या असंदिग्ध न तो युगों से कभी हो सका है और न ही भविष्य में कभी हो सकता है. चाहे ये आसुरी जीव लाख सिर पटक लें.................
हालाँकि ब्लागिंग की दुनिया में सक्रिय प्रत्येक पाठक इस बात को भली भाँती समझता है कि विधर्मियों द्वारा फैलाया जा रहा ये मिथ्याचार केवल और केवलमात्र इस राष्ट्र एवं इसकी संस्कृति विषयक अरूचि का द्योतक है. भला मूर्खों को कोई क्या समझाये कि माँस भक्षण के विषय में उस समय के समाज में कितनी घृणा व्याप्त थी, यह तो इस जाति के धर्मशास्त्रों को स्वयं पढकर ही जाना जा सकता है,न कि अपने आकाओं द्वारा बताये गये मनमाफिक अनुवादों द्वारा.
भारतीय धार्मिक तथा व्यवहारिक शास्त्रों में "मानव जाति का आहार" क्या होना चाहिए, इस विषय की विचारणा तो अनादिकाल से ही होती आ रही है. वेद, पुराण, विविध स्मृतियां, जैन-सिद्धान्त इत्यादि इस विचारणा के मौलिक आधार ग्रन्थ हैं. इनके अतिरिक्त आयुर्वेद शास्त्र, उसके निघण्टु कोष तथा पाकशास्त्र भी मानव जाति के आहार के विषय में पर्याप्त प्रकाश डालने वाले ग्रन्थ हैं. परन्तु इस विषय की खोज करने का समय तभी आता है, जबकि मानव के भक्षण योग्य पदार्थों के सम्बन्ध में दो मत खडे होते हैं.
अनादि काल से मानव घी, दूध, दही एवं वनस्पति का ही भोजन करता आया है, माना कि समय-समय पर इसके सम्बन्ध में विपरीत विचार भी उपस्थित हुए हैं. लेकिन तात्कालिक विद्वानों नें अपने-अपने ग्रन्थों में भोजन सम्बन्धी इस नवीन "माँसभोजी मान्यता" का खंडन ही किया है न कि समर्थन.
अब इससे बढकर भला ओर क्या प्रमाण हो सकता है कि शास्त्र की दृष्टि में जो पदार्थ अभक्ष्य होता, उसकी निवृति के लिए उसे गो-माँस तुल्य बताकर उसे छोडने का उपदेश दिया जाता था. इस विषय के दृष्टान्तों से तो धर्मशास्त्र भरे पडे हैं. हम उनमें से केवल एक ही उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करेंगें.
घृतं वा यदि वा तैलं, विप्रोनाद्यान्नखस्थितम !
यमस्तदशुचि प्राह, तुल्यं गोमासभक्षण: !!

माता रूद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभि: !
प्र नु वोचं चिकितुपे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट !! (ऋग्वेद 8/101/15)
अर्थात रूद्र ब्रह्मचारियों की माता, वसु ब्रह्मचारियों के लिए दुहिता के समान प्रिय, आदित्य ब्रह्मचारियों के लिए बहिन के समान स्नेहशील, दुग्धरूप अमृत के केन्द्र इस (अनागम) निर्दोष (अदितिम) अखंडनीया (गाम) गौ को (मा वधिष्ट) कभी मत मार. ऎसा मैं (चिकितेषु जनाय) प्रत्येक विचारशील मनुष्य के लिए (प्रनुवोचम) उपदेश करता हूँ.
वेदों के इतने स्पष्ट आदेश होते हुए यह कल्पना करना भी अपने आप में नितांत असंगत है कि वैदिक यज्ञों में माँसाहुति दी जाती थी, या कि वैदिक आर्य जाति पशुबलि, गौहत्या, माँसभक्ष्ण जैसे निकृष्ट कर्मों में संलग्न थी. यदि कोई राक्षस ( जिन्हे वेदों में यातुधान वा हिँसक के नाम से पुकारते हुए अत्यन्त निन्दनीय बतलाया गया है) ऎसा दुष्कर्म करते होंगें--------जैसा कि प्रत्येक समय में अच्छे-बुरे व्यक्ति कम या अधिक मात्रा में होते ही हैं, तो उनके इस कार्य को किसी प्रकार भी शिष्टानुमोदित नहीं माना जा सकता. ऎसे पापियों के लिए तो वेद मृत्युदंड का ही विधान करते हैं. जैसा कि यहाँ सप्रमाण दिखाया जा चुका है...........
यदि नो गां हंसि यघश्वं यदि पुरूषम !
त्वं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नोसो अवीरहा !! (अथर्व.1/1/64)
अर्थात हे दुष्ट ! यदि तूं हमारे गायें, घोडे आदि पशु अथवा पुरूषों की हत्या करेगा तो हम तुझे सीसे की गोली से वेध देंगें.
य: पौरूषेयेण क्रविषा समंक्ते यो अश्वयेन पशुना: यातुधान: !
यो अध्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च !! (ऋग्वेद 10/87/16)
अर्थात जो मानव, घोडे या अन्य पशु के माँस का भक्षण करता है. और जो गौंओं की हत्या कर के उनके दूध से अन्यों को वंचित करता है. हे राजन! यदि अन्य उपायों से ऎसा यातुधान ( हिँसक--राक्षस वृति का मनुष्य) न माने तो अपने तेज से उसके सिर तक को काट डाल. यह अन्तिम दण्ड है जिसको दिया जा सकता है.
उपरोक्त मन्त्र माँसभक्षण निषेध की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है. अत: उसका सायणाचार्य कृत भाष्य भी यहाँ उद्धृत किया जाता है:--
य: यातुधान:--राक्षस: ( पौरूषेयेन क्रविषा) पुरूषसंम्बन्धिना हिंसेण (समंड्ते) आत्मानं संगमयति (यश्च अश्व्येन) अश्वसमूहेन तदियेन मांसेनेत्यर्थ: आत्मानं संगमयति यो वा यातुधान: अन्येन पशुना आत्मानं संगमयति यो वा यातुधान: (अध्न्याया:) गो: (क्षीरम) (भरति) हरति हे अग्ने त्वं तेषां सर्वेषामपि राक्षसानाम (शीर्षाणि) शिरांसि (हरसा) त्वदीयेन तेजसा (वृश्चा) छिन्धि ! इस का अर्थ वही है, जो हम यहाँ ऊपर दे चुके हैं.
ऋग्वेद 10.87 में यातुधानो अथवा राक्षसों के स्वभाव का वर्णन है. उसमें 3-4 स्थानों पर "क्रव्याद" इस विशेषण का प्रयोग है, जिसका अर्थ माँसभक्षक है. उपरोक्त ऋचा उसी सूक्त की है, जिसका सायणभाष्य सहित हमने उल्लेख किया है.
य आमं मांसमदन्ति पौरूषेयं च ये क्रवि: !
गर्भान खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि !! (अथर्व.8/6/23)
इस मन्त्र में कहा है कि जो कच्चा माँस खाते हैं, जो मनुष्यों द्वारा पकाया हुआ माँस खाते हैं, जो गर्भ रूप अंडों का सेवन करते हैं, उन के इस दुष्ट व्यसन का नाश करो !
हालाँकि इस विषय में सैकडों क्या हजारों मन्त्रों को उद्धृत किया जा सकता है, किन्तु विषय विस्तार के भय से दो ओर मन्त्रों का उल्लेख कर जिनमें चावल, जौं, माष ( उडद ) तिल आदि उत्तम अन्न के सेवन का और पशुओं के दूध को ही ( न कि मांस को) सेवन करने का उपदेश है, हम इस विषय को समाप्त करते हैं.
पुष्टिं पशुनां परिजग्रभाहं चतुष्पदां द्विपदां यच्च धान्यम !
पय: पशुनां रसमोषधीनां बृहस्पति: सविता मे नियच्छात !! (अथर्व.19/31/5)
इस मन्त्र में भी यही कहा है कि मैं पशुओं की पुष्टि वा शक्ति को अपने अन्दर ग्रहण करता हूं और धान्य का सेवन करता हूँ. सर्वोत्पादक ज्ञानदायक परमेश्वर नें मेरे लिए यह नियम बनाया है कि (पशुनां पय:) गौ, बकरी आदि पशुओं का दुग्ध ही ग्रहण किया जाये न कि मांस तथा औषधियों के रस का आरोग्य के लिए सेवन किया जाए. यहां भी "पशुनां पयइति बृहस्पति: मे नियच्छात:" अर्थात ज्ञानप्रद परमेश्वर नें मेरे लिए यह नियम बना दिया है कि मैं गवादि पशुओं का दुग्ध ही ग्रहण करूँ, स्पष्टतया मांसनिषेधक है !
अथर्ववेद 8/2/18 में ब्रीही और यव अर्थात चावल और जौं (ये धान्यों के उपलक्षण हैं) इत्यादि के विषय में कहा है कि------
शिवौ ते स्तां ब्रीहीयवावबलासावदोमधौ !
एतौ यक्ष्मं विबाधेते एतौ मुण्चतौ अंहस: !!
हे मनुष्य ! तेरे लिए चावल, जौं आदि धान्य कल्याणकारी हैं. ये रोगों को दूर करते हैं और सात्विक होने के कारण पाप वासना से दूर रखते हैं.
इन के विरूद्ध माँस पाप वासना को बढाने वाला और अनेक रोगोत्पादक है. अत: माँस शब्द की जो व्युत्पत्ति  निरूक्त अध्याय 4 में बताई गई है, उसमें कहा है---मासं माननं वा, मानसं वा, मनोस्मिन् सीदतीति वा !
माँस इसलिए कहते हैं कि यह मा + अननम है अर्थात इस से दीर्घ जीवन प्राप्त नहीं होता प्रत्युत यह आयु को क्षीण करने वाला है. ( मानसं वा ) यह हिंसाजन्य होने से मानस पापों को प्रोत्साहित करने वाला होता है. (मनोस्मिन् सीदतीति वा) जिस में भी मनुष्य का मन लग जाए, जो मन पसन्द हो ऎसे पदार्थ को मांस कह सकते हैं. इसीलिए परमान्न वा खीर तथा फलों के गूदे इत्यादि के लिए मांस शब्द का प्रयोग वेदों में कईं जगह आता है.
इस प्रकार यह सर्वथा स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि वेदों में माँस भक्षण का पूर्णतय: निषेध है. इस के विरूद्ध धूर्तों द्वारा जहाँ कहीं कुछ अन्टशन्ट लिखा/कहा गया हो, वह अप्रमाणिक और अमान्य है ! ! !

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

अंडे का क्रूर फंडा

सब जानते हैं कि मांसाहार का व्यवसाय क्रूरता और हिंसा पर टिका है। लेकिन जब बात अण्डों की होती है तो कई बार वह क्रूरता और व्यवसायिक हिंसा पर्दे की ओट में छिप जाती है और कुछ लोग अंडे को शाकाहारी बताने के प्रचार को सच मान बैठते हैं।

अंडा किसी भी तरह शाकाहारी नहीं होता

अंडे दो तरह के होते है, एक वे जिसमें से चूजे निकल सकते है तथा दूसरे वे जिनसे बच्चे नहीं निकलते। निषेचित और अनिषेचित। मुर्गे के संसर्ग से मुर्गी अंडे दे सकती है किन्तु बिना संसर्ग के अंडा मात्र मुर्गी के रज-स्राव से बनता है, मासिक-धर्म की भांति ही यह अंडा मुर्गी की आन्तरिक अपशिष्ट का परिणाम होता है। आजकल इन्ही अंडो को व्यापारिक स्वार्थवश लोग अहिंसक, शाकाहारी आदि भ्रामक नामों से पुकारते है। यह अंडे किसी भी तरह से वनस्पति नहीं है।और न ही यह शाक की तरह,  सौर किरणें, जल व वायु से अपना भोजन बनाकर उत्पन्न होते है। अधिक से अधिक इसे मुर्गी का अपरिपक्व मूर्दा भ्रूण कह सकते है।

1962 मॆं यूनिसेफ ने एक पुस्तक प्रकाशित की जिसमें अंडों को लोकप्रिय बनाने के व्यवसायिक उद्देश्य से अनिषेचित (INFERTILE) अंडों को शाकाहारी अंडे (VEGETARIAN EGG) जैसा मिथ्या नाम देकर भारत के शाकाहारी समाज में भ्रम फैला दिया। 1971 में मिशिगन यूनिवर्सिटी(अमेरिका) के वैज्ञानिक डॉ0 फिलिप जे0 स्केम्बेल ने 'पॉलट्री फीड्स एंड न्युट्रीन' नामक पुस्तक में यह सिद्ध किया कि "संसार का कोई भी अंडा निर्जीव नहीं होता, फिर चाहे वह निषेचित (सेने योग्य) हो या अनिषेचित,  अनिषेचित अंडे में भी जीवन होता है, वह एक स्वतंत्र जीव होता है। अंडे के ऊपरी भाग पर हजारो सूक्ष्म छिद्र होते है जिनमे अनिषेचित अंडे का जीव श्वास लेता है", जब तक श्वासोच्छवास की क्रिया होती है, अंडा सडन-गलन से मुक्त रहता है। यह उसमें जीवन होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। "यदि ऐसे अंडे में श्वासोच्छवास की क्रिया बंद हो जाए तो अंडा शीघ्र ही सड जाता है।" इसतरह अंडे को निर्जीव और शाकाहार समकक्ष मनवाना बहुत बडी धूर्तता है, यह मात्र उत्पादकों के व्यापारिक स्वार्थ के खातिर प्रचारित भ्रांति से अधिक कुछ भी नहीं है।

हिंसा और अत्याचार की उपज है अंडा !!

बहुधा यह सुनने में आता है की अनिषेचित अंडे अहिंसक होते है। लेकिन यदि यह मालूम हो जाय कि उनके उत्पादन की विधि कितनी क्रूरता से परिपूर्ण है और भारतीय मूल्यों जैसे अहिंसा और करुणा के विपरीत है तो बहुत से लोग अंडा सेवन ही बंद कर देगे। अमेरिका के विश्वविख्यात लेखक जान राबिन्स ने अपनी प्रसिद्द पुस्तक "दैट फार ए न्यू अमेरिका" में लिखा है कि अंडों की फेक्ट्रीयो में स्थापित  पिजरों में, इतनी अधिक मुर्गियां भर दी जाती है कि वे पंख भी नहीं फडफड़ा सकती और तंग जगह के कारण वे आपस में चोचे मारती है, जख्मी होती है, गुस्सा करती है और कष्ट भोगती है।  मुर्गी को  लगातार २४ घंटे लोहे की सलाख पर बैठे रहना पड़ता है, उसी हालात में एक विशेष मशीन से  रात में एक साथ हजारो मुर्गियों की चोचे काट दी जाती है। गरम तपते लाल औजारों से उनके पंख भी कतर दिए जाते है।

मुर्गियां अंडे अपनी स्वेच्छा से नहीं देती, बल्कि उन्हें विशिष्ट हार्मोन्स और एग-फर्म्युलेशन के इन्जेक्शन दिए जाते है। तब जाकर मुर्गीयाँ लगातार अंडे दे पाती है। अंडे प्राप्त होते ही उन्हें इन्क्यूबेटर के हवाले कर दिया जाता है, ताकि चूजा २१ दिन की बज़ाय मात्र १८ दिन में ही निकल आए। बाहर आते ही नर तथा मादा चूजों को अलग-अलग कर दिया जाता है। मादा चूजों को शीघ्र जवान करने के लिए, उन्हें विशेष प्रकार की खुराक दी जाती है। साथ ही इन्हें चौबीसो  घंटे तेज प्रकाश में रखकर, सोने नहीं दिया जाता ताकि वे रात दिन खा-खा कर शीघ्र रज-स्राव कर अंडा देने लायक हो जाय। उसके बाद भी उन्हें लगातार तेज रोशनी में रखा जाता है ताकि खाती रहे और प्रतिदिन अंडा देती रहे।तंग जगह में रखा जाता है कि हिलडुल भी न सके,और अंडे को क्षति न पहुँचे। आप समझ सकते है की जल्दी और  मशीनीकृत तरीके से अंडा उत्पन्न करने की यह व्यवस्था कितनी क्रूर और हिंसात्मक है्।

अंडो से कई बीमारियाँ

हाल ही में हुआ बर्ड फ्ल्यू और साल्मानोला बीमारी ने समस्त विश्व को स्तम्भित कर दिया है कि मुर्गियों को होने वाली कई बीमारियों के कारण अन्डो से यह बीमारियाँ, मनुष्य में भी प्रवेश करती है। अंडा भोजियों  को यह भी नहीं मालूम कि इसमें हानिकारक कोलेस्ट्राल की बहुत अधिक मात्रा होती है। अंडो के सेवन से आंतो में सड़न और तपेदिक  की सम्भावनाएँ बहुत ही बढ़ जाती है। अंडे की सफ़ेद जर्दी से पेप्सीन इन्जाइम के विरुद्ध, विपरित प्रतिक्रिया होती है।

जर्मनी के प्रोफेसर एग्नरबर्ग का मानना है कि अंडा 51.83% कफ पैदा करता है। वह शरीर के पोषक तत्वों को असंतुलित कर देता है।


कैथराइन निम्मो तथा डाक्टर जे एम् विलिकाज ने एक सम्मिलित रिपोर्ट में कहा है कि अंडा ह्रदय रोग और लकवे आदि के लिए एक जिम्मेदार कारक है। यह बात १९८५ इस्वी के नोबल पुरस्कार विजेता, डॉक्टर ब्राउन और डॉ0 गोल्ड स्टाइन ने कही कि अंडों में सबसे अधिक कोलेस्ट्रोल होता है। जिससे उत्पन्न ह्रदय रोग के कारण बहुत अधिक मौते होती है। इंग्लेंड के डाक्टर आर जे विलियम ने कहा है कि जो लोग आज अंडा खाकर स्वस्थ बने रहने की कल्पना कर रहे है, वे कल लकवा, एग्जिमा, एन्जाईना जैसे रोगों के शिकार हो सकते है। फिर अंडे में जरा सा भी फाईबर नहीं होता, जो आंतो में सड़न की रोकथाम में सहायक है। साथ ही कार्बोहाईड्रेट जो शरीर में स्फूर्ति देता है, करीबन शून्य ही होता है।
जाने-माने हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. के.के. अग्रवाल का कहना है कि एक अंडे में 213 मिलीग्राम कॉलेस्ट्रॉल होता है यानी आठ से नौ चम्मच मक्खन के बराबर, क्योंकि एक चम्मच मक्खन में 25 मिलीग्राम कॉलेस्ट्रॉल होता है। इसलिए सिर्फ शुगर, हाई बीपी और हार्ट पेशेंट्स को ही इन्हें दूर से सलाम नहीं करना चाहिए बल्कि सामान्य सेहत वाले लोगों को भी दूर रहना चाहिए। अगर डॉक्टर प्रोटीन की जरूरत भी बताये तो प्रोटीन की प्रतिपूर्ति, शाकाहारी माध्यमों - मूँगफली, सोयाबीन, दालें, पनीर, दूध व मेवे आदि से करना अधिक आरोग्यप्रद है।

इग्लेंड के डॉ0 आर0 जे0 विलियम का निष्कर्ष है कि सम्भव है अंडा खाने वाले भले शुरू में क्षणिक आवेशात्मक चुस्ती-फुर्ती अनुभव करें किंतु बाद में उन्हें हृदय रोग, एक्ज़ीमा, लकवा, जैसे भयानक रोगों का शिकार होना पड़ सकता है।

इंगलैंड के मशहूर चिकित्सक डॉ0 राबर्ट ग्रास तथा प्रो0 ओकासा डेविडसन इरविंग के अनुसार अंडे खाने से पेचिश तथा मंदाग्नि जैसी बिमारियों की प्रबल सम्भावनाएं होती है। जर्मनी के प्रो0 एग्लर वर्ग का निष्कर्ष है कि अंडा 51.83 प्रतिशत कफ पैदा करता है, जो शरीर के पोषक तत्वों को असंतुलित करने में मुख्य घटक है। फ्लोरिडा के कृषि विभाग की हेल्थ बुलेटिन के अनुसार, अंडों में 30 प्रतिशत DDT पाया जाता है । जिस प्रकार पॉल्ट्रीज को रखा जाता है, उस प्रक्रिया के कारण DDT मुर्गी की आंतों में घुल जाता है अंडे के खोल में 15000 सूक्ष्म छिद्र होते हैं जो सूक्ष्मदर्शी यन्त्र द्वारा आसानी से देखे जा सकते हैं उन छिद्रों द्वारा DDT का विष अंडों के माध्यम से मानव शरीर में पहुंच जाता है। जो कैंसर की सम्भावनाएँ कईं गुना बढ़ा देता है। हाल ही में इंगलैंड के डॉक्टरों ने सचेत किया है कि ‘सालमोनेला एन्टरईटिस’, जिसका सीधा संबन्ध अंडों से है, के कारण लाखों लोग इंगलैंड में एक जहरीली महामारी का शिकार हो रहे है। भारत में ऐसी कोई परीक्षण विधि नहीं है कि सड़े अंडों की पहचान की जा सके। और ऐसे सड़े अंडों के सेवन से उत्पन्न होने वाले, भयंकर रोगों की रोकथाम सम्भव हो सके।

पौष्टिकता एवं उर्जा के प्रचार में नहीं है दम

विज्ञापनों के माध्यम से यह भ्रम बड़ी तेजी से फैलाया जा रहा है कि शाकाहारी खाद्यानो की तुलना में, अंडे में अधिक प्रोटीन है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संघठन के तुलनात्मक चार्ट से यह बात साफ है कि खनिज, लवण, प्रोटीन, कैलोरी, रेशे और कर्बोहाड्रेड आदि की दृष्टि से शाकाहार ही हमारे लिए अधिक उपयुक्त, पोषक और श्रेष्ठ है।

अंडे से कार्य-क्षमता, केवल क्षणिक तौर पर बढ़ती सी प्रतीत होती है, पर स्टेमिना नहीं बढ़ता। फार्मिंग से आए अंडे तो केमिकल की वजह से ज्यादा ही दूषित या जहरीले हो जाते हैं। सामान्यतया गर्मियों में पाचनतंत्र कमजोर होता है, ऐसे में अंडे ज्यादा कैलरी व गरिष्ठ होने के कारण और भी ज्यादा नुकसानदेय साबित होते हैं।

अमेरिका के डॉ00 बी0 एमारी तथा इग्लेंड के डॉ0 इन्हा ने अपनी विश्व विख्यात पुस्तकों में साफ माना है कि अंडा मनुष्य के लिये ज़हर है।

विशेषज्ञ कहते हैं कि प्रोटीन के लिए,  सभी तरह की दालें, पनीर व दूध से बनी चीजें अंडे का श्रेष्ठ विकल्प होती हैं। अंडों की जगह उनका इस्तेमाल होना चाहिए। दूध या स्किम्ड मिल्क, मूंगफली, मेवे में अखरोट, बादाम, काजू व हरी सब्जियां, दही, सलाद और फल भी ले सकते हैं। उनका कहना है कि जीव-जंतुओं से प्राप्त भोजन से कॉलेस्ट्रॉल अधिक बढ़ता है जबकि पेड़-पौधों से मिलने वाले भोजन से बहुत ही कम।

न हमारे शरीर को अंडे खाना ज़रूरी है और न हमारे मन को जीवहिंसा का सहभागी बनना। हमारा अनुरोध है कि निरामिष भोजन अपनायें और स्वस्थ रहें।

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

विटामिन डी - सूर्य नमस्कार से पोषण

सूर्यकिरण व दुग्ध विटामिन डी के स्रोत हैं
सूर्य नमस्कार एक उत्तम कोटि का व्यायाम है। सूर्य को बारह प्रणाम करते हुए अंग-प्रत्यंग को लाभ मिलता है। लेकिन सूर्य से मिलने वाला एक लाभ और है, और वह लाभ है पोषण का। वैसे तो पृथ्वी पर सारे जीवन के लिये सूर्य का प्रकाश ही ज़िम्मेदार है, प्रत्यक्ष हो या परोक्ष रूप से। सर्दी के मौसम में सूर्य के प्रकाश की कमी एक विशेष प्रकार के अवसाद का कारण भी बनती है। इसके अतिरिक्त सूर्य का प्रकाश हमारे शरीर में विटामिन डी निर्माण में भी सहायक सिद्ध होता है।

विटामिन डी विभिन्न रूपों (विटामर्स = vitamers) में पाया जाता है जिन्हें डी-1 से डी-5 तक के नाम दिये गये हैं। विटामिन डी-2 कुछ कीड़ों, काइयों, व कुकुरमुत्तों पर सूर्य की पराबैंगनी (ultraviolet) किरणों के प्रभाव से बनता है। इसी प्रकार जब सूर्य का प्रकाश सीधे हमारी त्वचा पर पड़ता है तो पराबैंगनी किरणों की सहायता से डी-3 (cholecalciferol) का निर्माण होता है। प्राणियों की त्वचा में प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले प्रो-विटामिन-डी (7-dehydrocholesterol) के अणुओं के प्रकाश संश्लेषण से विटामिन डी-3 में परिवर्तित हो जाते हैं। त्वचा की ही तरह जब दूध पर पराबैंगनी किरणें डाली जायें तो दूध में भी समान क्रिया से विटामिन डी-3 बन जाता है। जल में घुलनशील विटामिनों के विपरीत विटामिन डी तैल व वसा में घुलनशील विटामिन है और दूध के द्वारा उसके वसीय सह-उत्पादों में भी सुरक्षित रूप से पहुँच जाता है।

पराबैंगनी प्रकाश संश्लेषण के अतिरिक्त विटामिन डी के निर्माण का कोई दूसरा तरीका नहीं है। यह सभी रीढधारी प्राणियों की आवश्यकता है और उनके शरीर में कैल्शियम के अवशोषण के लिये आवश्यक है। यह हमारी अस्थियाँ, दाँत आदि की संरचना बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पराबैंगनी किरणों की तीव्रता जब उन्हें मापने के पराबैंगनी सूचक (UV index) पैमाने पर 3 से अधिक हो तब त्वचा में इस विटामिन का निर्माण सम्भव है। पहले यह मान्यता थी कि धुर उत्तर व धुर दक्षिण के क्षेत्रों में पर्याप्त मात्रा में पराबैंगनी किरणे वर्ष भर नहीं आती हैं परंतु अब यह तय है कि कैनाडा जैसे उत्तरी देश में भी तीव्र शीत के दो-तीन महीनों के अतिरिक्त शेष समय इतनी पराबैंगनी किरणें मिलती हैं कि वर्ष भर की आवश्यकता पूरी की जा सके। तैलीय विटामिन होने के कारण इसकी अधिकता शरीर में सुरक्षित रहती है। भारत के मैदानी क्षेत्रों में तो इस मामले में ईश्वर की विशेष कृपा रही है। समान परिस्थितियों में गहरे रंग की त्वचा के मुकाबले हल्के रंग की त्वचा में अधिक विटामिन डी बनता है।

वयस्क मनुष्य के लिये प्रतिदिन 10,000 आइ यू (International Unit) की मात्रा काफ़ी है। इस आवश्यक मात्रा के लिये सप्ताह में दो बार 5 से 20 मिनट तक हाथ-पैरों पर सूर्यप्रकाश पाना शरीर की आवश्यकता भर के विटामिन डी के लिये काफ़ी है। वस्त्र या सूर्यावरोधी (सनब्लॉक) क्रीम आदि शरीर में विटामिन डी बनने की प्रक्रिया को बाधित करते हैं। साथ ही सूर्य का अधिक सामना त्वचा कैंसर का कारण भी बन सकता है इसलिये यहाँ भी अति के स्थान पर विवेक का प्रयोग आवश्यक है। सूर्य का प्रकाश तो जीवनदायी है ही, विटामिन डी प्राप्त करने के कुछ अन्य सात्विक साधन निम्न हैं:
  • दुग्ध व दुग्ध उत्पाद
  • खमीर व खमीरी उत्पाद
  • स्पाइरुलिना
  • सूर्य से प्रकाशित पोर्टबेला (portabella) कुकुरमुत्ता

अन्य कई शाकाहारी पदार्थ भी उपयोगी हो सकते हैं परंतु इस बारे में अधिक अध्ययन की आवश्यकता है। वैसे, पश्चिमी देशों में कुछ संस्थायें भेड़ के बालों में उपस्थित तैल (lanolin) से भी पशु को कोई हानि पहुँचाये बिना विटामिन डी प्रसंस्कृत करती हैं। हिंसा से बचिये, शाकाहारी भोजन मनुष्य के शरीर की सम्पूर्णॅ आवश्यकतायें पूरी करने में सक्षम है।

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मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

क्यों है मूँगफली एक पौष्टिक भोजन? Why peanut is nutritious?

'गरीबों का काजू' के नाम से मशहूर मूँगफली काजू से ज्य़ादा पौष्टिक है। परन्तु मूँगफली खाने वाले यह नहीं जानते, मूँगफली में सभी पौष्टिक तत्व पाए जाते हैं। मूँगफली खाकर हम अनजाने में ही इतने पोषक तत्व ग्रहण कर लेते हैं, जिसका हमारे शरीर को बहुत फायदा होता है। मूँगफली में प्रोटीन, वसा, शर्करा, विटामिन, खनिज, रुक्षांश प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। शोधों से यह बात प्रकाश में आई है कि मूँगफली में कैल्शियम और विटामिन डी अधिक मात्रा में होती है। मूँगफली में प्रोटीन की मात्रा 25 प्रतिशत से भी अधिक होती है। मूंगफली विटामिन ई का तो भंडार होता है।

आधी मुट्ठी मूगफली में 426 कैलोरीज़ होती हैं, 15 ग्राम कार्बोहाइड्रेट होता है, 17 ग्राम प्रोटीन होता है और 35 ग्राम वसा होती है। इसमें विटामिन ई , विटामिन के और बी6 भी प्रचूर मात्रा में होती है। यह आयरन, नियासिन, फोलेट, कैल्शियम और जिंक का अच्छा स्रोत हैं।


पोषक तत्वों की तुलनात्मक दृष्टि से मूँगफली का अध्ययन इस प्रकार है………

इसमें प्रोटीन की मात्रा मांस की तुलना में 1.3 गुना, अण्डो से 2.5 गुना एवं फलो से 8 गुना अधिक होती हैं।
100 ग्राम कच्ची मूँगफली में, 1 लीटर दूध के बराबर प्रोटीन होता है । 
मात्र 250 ग्राम भूनी मूँगफली में जिस मात्रा में खनिज और विटामिन पाए जाते हैं, वो 250 ग्राम मांस से भी प्राप्त नहीं किए जा सकते।
250 ग्राम मूँगफली के मक्खन से , 300 ग्राम पनीर, 2 लीटर दूध या 15 अंडों के बराबर ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है।
एक अंडे के मूल्य के बराबर मूँगफलियों में जितनी प्रोटीन व ऊष्मा होती है, उतनी दूध व अंडे से संयुक्त रूप में भी प्राप्त नहीं होती।


मूँगफली  के लाभ :

पौष्टिकता से भरपूर मूँगफली में कैंसर प्रतिरोधी तथा कॉलेस्ट्रॉल कम करने की क्षमता है।
इसका संबंध ह्रदय की बीमारियों को घटाने में भी महत्वपूर्ण है।
कच्ची मूँगफली रोज खाने से नवजातक माताओं के दूध में वृद्धि होती है।
यह पाचन शक्ति को बढ़ाती है।
मूँगफली या उससे निर्मित खाद्य सामग्री के उपयोग से रक्त स्त्राव की बीमारी में आराम मिलता है।
भुनी मूँगफली एण्टीआक्सिडेंट्स का अच्छा स्रोत है। 
बिना नमक वाली मूँगफली में मोनोसैचुरेटेड वसा बहुत अधिक मात्रा में होती है और यह स्वस्थ धमनियों के लिए अच्छी होती है। धमनियों को स्वस्थ रखना चाहते हैं, तो रक्त में कालेस्ट्रानल के स्तर को ठीक रखें।
मूँगफली  में विटामिन ई का भंडारण होता है और यह कैंसर और हृदय संबंधी बीमारियों का खतरा कम करती है। 
मूँगफली महिलाओं और पुरूषों में हार्मोन्स के विकास के लिए भी अच्छी  होती है।
शोधों से ऐसा पता चला है कि मूँगफली में कैल्शियम और विटामिन डी अधिक मात्रा में होता है और यह दांतों के स्वास्‍थ्‍य के लिए भी अच्छा होता है।
मूँगफली के बारे में ओर रोचक बाते :

मूँगफली एक अखरोट की तरह का नट नहीं है बल्कि यह एक फली की नस्ल से संबंधित है 
फाइटोस्टेरॉल (phytosterols)
मूँगफली में किसी भी अन्य नट की तुलना में अधिक प्रोटीननियासिनफोलेट और फाइटोस्टेरॉल (phytosterols) पादपरसायन होता है।
मूँगफली में अंगूर,अंगूर का रसहरी चाय, टमाटर, पालक, ब्रोकोली, गाजर से अधिक उच्च एंटीऑक्सीडेंट क्षमता है।
मूँगफली  चार प्रकार की होती हैं -रनरवर्जीनियास्पेनिशऔर वालेंसिया
मूँगफली  सितंबर और अक्टूबर में नयी आ जाती है
फसल रोपण विधि से लगाई जाती है मूँगफली का विकास चक्र 120 से 160 दिन या पाँच महीने होता है
मूँगफली का मक्खन
मूँगफली और मूँगफली का मक्खन 30 में अधिक आवश्यक पोषक तत्वों और फाइटोन्युट्रीयेंट्स   phytonutrients होते हैं।
मूँगफली स्वाभाविक रूप से कोलेस्ट्रॉल मुक्त हैं।
मूँगफली का पौधा मूल रूप से दक्षिण अमेरिका में जन्मा है मूँगफली का पौधा छोटे छोटे पीले फूल पैदा करता है
एक परिपक्व मूँगफली का पौधे में 40 फली (Pods) होती है यानी एक पोधा 40 मूँगफली पैदा करता है
नियासिन (Niacin) एक महत्वपूर्ण विटामिन बी  है जोकि  भोजन को ऊर्जा में परिवर्तित करने में मदद करता है मूँगफली नियासिन का एक बहुत अच्छा स्रोत माना जाता  है
फोलेट (Folate) 
फोलेट (Folate) कोशिका विभाजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है जिसका अर्थ है कि पर्याप्त फोलेट का सेवन गर्भावस्था और बचपन के दौरान जब ऊतकों तेजी से बढ़ रहे हैं तब विशेष रूप से महत्वपूर्ण है मूँगफली फोलेट का एक अच्छा स्रोत  है
 एंटीऑक्सिडेंट के रूप में मूँगफली .....
विटामिन ई एक बेहतरीन आहार एंटीऑक्सिडेंट होता है कि आक्सिजनित तनाव,  हानिकारक शारीरिक प्रक्रिया से कोशिकाओं की रक्षा में मदद करता  है
मूँगफली विटामिन ई  का एक अच्छा स्रोत  है
रेशा फाइबर का पाचन तंत्र को स्वस्थ बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान  है. मूँगफली फाइबर का एक अच्छा स्रोत है
मोनोअनसेचुरेटेड और पॉलीअनसेचुरेटेड दोनों प्रकार की वसा एक स्वस्थ आहार के लिए योगदान स्वरूप है मूँगफली  और मूँगफली के मक्खन के एक बार के आहार में 4.5 ग्राम पॉलीअनसेचुरेटेड वसा और 8 ग्राम मोनोअनसेचुरेटेड वसा शामिल होती है
मूँगफली शरीर में गर्मी पैदा करती है, इसलिए सर्दी के मौसम में ज्यादा लाभदायक है। यह खाँसी में उपयोगी है व मेदे और फेफड़े को बल देती है। 
भोजन के बाद यदि 50 या 100 ग्राम मूँगफली प्रतिदिन खाई जाए तो सेहत बनती है, भोजन पचता है, शरीर में खून की कमी पूरी होती है।
इसे भोजन के साथ सब्जी, खीर, खिचड़ी आदि में डालकर नित्य खाना चाहिए। मूँगफली में तेल का अंश होने से यह वायु की बीमारियों को भी नष्ट करती है। 
सर्दियों में त्वचा में सूखापन आ जाता है। जरा सा मूँगफली का तेल, दूध और गुलाबजल मिलाकर मालिश करें। बीस मिनट बाद स्नान कर लें। इससे त्वचा का सूखापन ठीक हो जाएगा 
मुट्ठीभर भुनी मूँगफलियाँ निश्चय ही पोषक तत्वों की दृष्टि से लाभकारी हैं। 
तो देखा कितने गुण हैं मूँगफली में .....
आओ इसे अपने आहार का एक मुख्य भाग बनाएँ और इस के बेहतरीन गुणों का लाभ उठायें  

--श्री दर्शन लाल बवेजा, साभार : क्यों और कैसे विज्ञान मे