हिंसा को कम से कमत्तर (अल्पीकरण) करनें का पुरूषार्थ स्वयं में अहिंसा है। साथ ही यह अहिंसा के मार्ग पर दृढ कदमों से आगे बढने का उपाय भी है अथवा यूँ कहिए कि अल्पीकरण का निरन्तर संघर्ष ही अहिंसा के सोपान है। जब सुक्ष्म हिंसा अपरिहार्य हो, द्वेष व क्रूर भावों से बचते हुए, न्यूनता का विवेक रखना, अहिंसक मनोवृति है। यह प्रकृति-पर्यावरण नियमों के अनुकूल है। बुद्धि, विवेक और सजगता से अपनी आवश्यकताओं को संयत व सीमित रखना अहिंसक वृति की साधना है।
अहिंसा में विवेक के लिये दार्शनिकों ने तीन आयाम प्रस्तुत किए है। पहला आयाम हैं संख्या के आधार पर, जैसे 5 की जगह 10 जीवों की हिंसा दुगुनी हिंसा हुई। दूसरा आयाम है जीव की विकास श्रेणी के आधार पर एक इन्द्रिय, दो इन्द्रिय विकास क्रम के जीवों से क्रमशः तीन, चार अधिक विकसित है और पांच इन्द्रिय जीव पूर्ण विकसित। यह विवेकजन्य व्यवहार, विज्ञान सम्मत और नैतिक अवधारणा से पुष्ट तथ्य है। अत: हिंसा की श्रेणी भी उसी क्रम से निर्धारित होगी। तीसरा आयाम है, हिंस्र भाव के आधार पर। प्रायः अनजाने से लेकर जानते हुए, स्वार्थवश से लेकर क्रूरतापूर्वक तक आदि मनोवृति व भावनाओं की कईं श्रेणी होती है। प्रथम दृष्टि हिंसा पर सोचना होगा कि उसकी भावना करूणा की है, अथवा परमार्थ की? स्वार्थ की है या अहंपोषण की? निर्थक उपक्रम है या उद्देश्यपूर्ण?
एक उदाहरण से समझते है- एक लूटेरा घर लूटने के प्रयोजन से, घर के बाहर सुस्ताने बैठे, किसी अन्य व्यक्ति को खतरा मान हत्या कर देता है। दूसरा, एक कारचालक, जिसकी असावधानी से राहगीर उस गाडी के नीचे आ जाता है। तीसरा, एक डॉक्टर, जिसकी ऑपरेशन टेबल पर जान बचाने के भरसक प्रयास के बाद भी मरीज दम तोड़ देता है। तीनो किस्सों में मौत तो होती है, पर भावनाएं अलग अलग है। इसलिए दोष भी उन भावों की श्रेणी के अनुसार होना चाहिए। प्रायः न्यायालय में भी, हत्या के आरोपी को स्वबचाव, सहज स्वार्थ और क्रूर घिघौनी मनोवृति के आधार पर सजा निर्धारित होती है।
चित्र: द जैन युनिवर्स |
मनोवृति आधारित जैन दर्शन में ‘लेश्या’ का एक अभिन्न दृष्टांत है। छह पदयात्री जा रहे थे। जोर की भूख लगी थी। रास्ते में एक जामुन का पेड़ दिखाई दिया। एक यात्री बोला- ‘अभी इस पेड़ को जड़ से काट कर सभी का पेट भर देता हूँ। इस पर दूसरा बोला-‘जड़ से काटने की जरूरत नहीं, शाखा को काट देता हूँ धराशायी होगी तो सभी फल पा लेंगे। तीसरा व्यक्ति एक टहनी, तो चौथा फलों के गुच्छे को ही पर्याप्त होने की बात करता है। पाँचवा मात्र गुच्छे से फल चुननें की वकालत करता है तो छठा कहता है पक कर जमीन पर बिखरे पड़े जामुनों से ही हमारा पेट भर सकता है। यह मानव मन की मनोवृतियों का, क्रूरत्तम से शुभत्तम भाव निश्चित करने का एक श्रेष्ठ और दुर्लभ उदाहरण है।
अतः हिंसा और अहिंसा को उसके संकल्प, समग्र सम्यक् दृष्टिकोण, सापेक्षनिर्भर और परिणाम के सर्वांगिण परिपेक्ष्य से ग्रहण करना आवश्यक है।
अपरिहार्य हिंसा में भी विवेक रखना अहिंसक मनोवृति ही है ... sahi sarvekshan
जवाब देंहटाएंनमस्ते जी
हटाएंअपरिहार्य हिंसा का सही अर्थ आप बता सकती हैं??
true said
जवाब देंहटाएंtitle in itself is the little summary of whole post !!!
ज्ञानवर्धक और विचारणीय पोस्ट.
जवाब देंहटाएंवास्तव में आपने सही व् सटीक उदाहरण दियें .........बहुत ही अच्छा प्रयास ...
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी,
जवाब देंहटाएंआपने अब तक शाकाहार और अहिंसा पर विविध तरीकों से, तरह-तरह के दृष्टान्तों से और नवीनतम दृष्टिकोणों से विचार बाँटे हैं... सभी तर्क की कसौटी पर खरे उतरते हैं... नवीनता मुझे हमेशा अचंभित करती रही है.. और आज़ भी आपने मेरी वही स्थिति बना दी. आपके ब्लॉग पर आकर प्रायः अवाक हो जाता हूँ. कुछ ऐसे ही विचार हम सभी के अंतर में रहते तो हैं लेकिन आप बड़े सुन्दर ढंग से उन्हें प्रदर्शित कर देते हैं. हम तो मात्र इनमें अपनत्व का सुख पाकर 'वाह' ही कर पाते हैं.
सुज्ञ जी,
जवाब देंहटाएं...
आपकी कथा से प्रेरित हो भारतीय संस्कृति का एक विचार फिर से रखना चाहूँगा.
हमारी सांस्कृतिक शब्दावली में पुष्प-चयन की बात आती है कहीं भी फूल को तोड़ने की बात नहीं दिखायी देती... फिर भी पूजा-कर्म में फूलों की भरमार कर देना एक दृष्टि से हमारी प्रकृति सम्यक क्रूरता ही है. हमें आज़ अपने सभी देव-अर्चना विधानों की पुनः समीक्षा करनी होगी. जहाँ तक संभव हो प्रकृति रक्षण करके भी हम अपनी अहिंसक प्रवृति में इजाफा कर सकते हैं. तुलसीदास जी ने गौरी-पूजन के समय सीता के पुष्प-चयन का उल्लेख किया है न कि तोड़ने का...
पुष्प डाल पर लगे-लगे जितनी दुर्गन्ध सोखता है और सुगंध फैलाता है उतनी टूट जाने पर नहीं ... उसका डाल पर लगे रहना परमात्मा की कृति प्रकृति की पूजा ही तो है.
जवाब देंहटाएंअतः यह पूरी तरह सही है
जवाब देंहटाएं"...मन की मनोवृतियों का क्रूरत्तम से शुभ्रतम होते चलना निश्चित ही श्रेष्ठ भाव है।"
प्रतुल जी,
जवाब देंहटाएंयह विचार मात्र आपके अन्तर के ही नही, बल्कि अधिकतर आपके प्रकट विचारों का उपयोग भी करता हूँ। प्रेरणा आप सभी के यत्र तत्र बिखरी टिप्पणियों से ही लेता ही हूँ। जैसे गत पोस्ट में आप अपने विचारों का प्रतिबिंब देख सकते है।
आपके विनम्र प्रोत्साहन का आभार मित्र!!
प्रतुल जी,
जवाब देंहटाएंपुष्प-चयन की आपकी बात से सहमत हूँ। जहाँ तक सम्भव हो पूजा आदि में तोडे पुष्प की जगह स्वत: पौधे से अलग हुए पुष्पों का चयन करना चाहिए। जो कोई भी पौधे को बिलकुल हानि न पहुचाना चाहे, देव की पुष्प रहित पूजा करे। मैं समझता हूँ इस भाव से पूजा करने पर देव अधिक प्रसन्न ही होंगे। ईश्वर द्वारा सामग्री पूजा से अधिक भाव पूजा स्वीकार की जाती है।
हमारी संस्कृति में तो "काटना" शब्द आज भी कई जगह प्रयुक्त नहीं होता। सब्जी के लिए भी 'सब्जी सुधारना' या 'सब्जी संवारना' शब्द द्वारा वाचिक हिंसा से बचा जाता है।
बहुत सार्थक और संतुलित विवेचन ....... सुंदर उदहारण लिए...
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर हंसराज भाई...सार्थक आलेख...आपसे पूर्णत: सहमत...
जवाब देंहटाएंजैन दर्शन का दृष्टांत बहुत अच्छा लगा...यह सच में एक श्रेष्ठ उदाहरण है...
सुन्दर और उपयोगी विचार। लेश्या की कथा भी पसन्द आयी। कोई लाख प्रतिरोध करे, मानव असभ्यता से सभ्यता की ओर बढता रहेगा और सभ्यता के साथ-साथ अहिंसा, करुणा और प्रेम की समझ स्वाभाविक रूप से बढेगी ही। हम भारतीय तो अति-भाग्यशाली हैं कि हमारे पूर्वजों मे यह दैवी ज्ञान इतना पहले ही समझा और हमें दिया।
जवाब देंहटाएंउदाहरणों ने विषय को व्यापक अर्थ दिया ...
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रविष्टि ...
बहुत सही और सार्थक बात कही है आपने अपने जीवनोपयोगी लेख मे .....
जवाब देंहटाएंजहाँ तक सम्भव हो हिंसा से दूर रहें ....यदि पूर्ण रुप से अहिंसक नही बन पाते तो हिंसा से दूर रहने का प्रयास तो कर ही सकते हैं |
Very well said !
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा और सार्थक प्रयास| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंसुन्दर सन्देश और सार्थक बात कही है!
जवाब देंहटाएंbilkul sahmat |
जवाब देंहटाएंजब सुक्ष्म हिंसा अपरिहार्य हो, द्वेष व क्रूर भावों से बचते हुए, न्यूनता का विवेक रखना, अहिंसक मनोवृति है। हिंसकभाव से विरत रहना भी अहिंसा है। बुद्धि, विवेक और सजगता से अपनी आवश्यकताओं को संयत व सीमित रखना अहिंसक वृति की साधना है।
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