दुर्गम क्षेत्र में रहने वालों को शाकाहार उपलब्ध नहीं, इसलिए!!
बेशक आहार परिवेश से निर्धारित होता है, किन्तु परिवेश स्वयं भी सभ्यता और संस्कृति से निर्धारित होता है। सहज उपलब्ध में निर्दोष आहार को प्राथमिकता देना ही विवेकशील संस्कृति है। शाक उपज से अभावग्रस्त, दुर्गम, बंजर परिवेश में उपलब्ध आहार ग्रहण करना, उस परिवेश की विवशता हो सकती है। किन्तु उपज समृद्ध, फलद्रुप, सभ्य परिवेश में आहार भी तो सभ्य ही होना चाहिए। सुसंस्कृत मानवों की भोजन निति की तुलना असभ्य मानवों की विवशता निमित अपवाद से करना असंगत है हम सर्वोच्छ विकसित सभ्यता के बीचोंबीच बैठकर यह सोचें कि कहीं आदिम-जंगली व्यवहार अभी भी कायम है। अतः हम सबको भी आदिम-जंगली भक्षण व्यवहार जारी रखना चाहिए, यह सोच तो अपने आप में आदिम हैं। और इस तरह उनकी जंगली आदतों का सभ्य परिवेश में समर्थन करना तो सभ्यता को पुनः आदिम युग में धकेलने समान होगा।
फ़िर भी यदि आधुनिक यातायात संसाधनो से दुर्गम क्षेत्र के निवासियों को शाकाहार-विकल्प मुहैया करवाया जाय तो निश्चित ही वे हिंसा की दृष्टि से तुलना करते हुए शाकाहार ही स्वीकार करेंगे। आज बंजर धरती को हराभरा बनाया जा सकता है। समुद्र की वनस्पतियाँ बड़े पैमाने पर उपभोग जाती हैं. उनकी खेती भी की जा सकती है। आधुनिक यातायात माध्यमों से, निवास-प्रतिकूल प्रदेशों में भी शाकाहार के व्यापक प्रबंध किए जा सकते हैं।
सार्थक लेख
जवाब देंहटाएंजीव हत्या किसी भी हाल मे सही नही ठहरायी जा सकती.
जो हिँदु मांसाहारियो की संगति मे रहकर बिगड़ गये है वो तो सुधर जायेँगे.
लेकिन जिन राक्षसो का धर्म ही जीव हत्या पर आधारित हो .उन राक्षसो से बेजुबान जीवो को बचाने के लिये एक कड़ा कानून चाहिये.
हल्ला बोल: धन्य है हम लोग जिन्होने पवित्र भारतवर्ष मे सनातन धर्म मे जन्म लिया है.
आप की बात बिलकुल सही है| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंबहुत सही लिखा है आपने बेशक आहार परिवेश से निर्धारित होता है,किन्तु परिवेश स्वयं भी सभ्यता और संस्कृति से निर्धारित होता है। मांसाहारी लोगों द्वारा मांसाहार के लिए आदिम संस्कृति को आधार मान कर इसे उचित सिद्ध करना इनके दिमाग के दिवालियेपन का परिचायक ही है . आदिम लोग तो बिलकुल नंगे रहते थे क्या इसका भी उन्हें अनुसरण नहीं करना चाहिए . क्या ये अपनी मां बहनों को आदिम रूप में देख सकते हैं . अरे भाई तर्क के जगह सही तर्क करो तो समझ में आता है . आज का आधुनिक विज्ञान भी शाकाहार का पूरा समर्थन करता है . किन्तु इन्हें विज्ञान से क्या लेना इन्हें तो सिर्फ जीभ के स्वाद से मतलब है .
जवाब देंहटाएंअब इनके कुतर्कों का क्या जबाब दिया जाय इनका तो ये कहना है की शाकाहार भी एक तरह से मांसाहार ही है क्यों की ये भी सूक्ष्म जीवों से भरपूर है .
बलिहारी है इनपर !
वाह रे ! इनकी बुद्धि वाह रे! इनके तर्क !!
बहुत इस उपयोगी एंव ज्ञानवर्धन जानकारी दी है आपने, साथ ही बहुत ही सुन्दर तरीके से विश्लेषण भी किया है. वक्त रहते उपरोक्त बिंदुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए,
इतनी अच्छी जानकारी के लिए आभार आपका ! मेरी हार्दिक शुभ कामनाएं आपके साथ हैं !!
सही बात लिखा है आपने।
जवाब देंहटाएंशत प्रतिशत सहमत ....
जवाब देंहटाएंअरे वाह हंसराज भाई...आपका यह आलेख मांसाहार के अंध समर्थकों के लिए प्रेरणादायी है...कुछ लोग जबरदस्ती ही यह तर्क देते हैं की अमुक स्थान पर शाकाहार भोजन उपलब्ध ना हो तो मांसाहार खाने में कोई बुराई नहीं है...सबसे पहले तो यह कहना चाहता हूँ कि यदि किसी दुर्गम स्थान पर सड़क नहीं है और वहां के लोग कोई वाहन का उपयोग नहीं कर सकते तो क्या वे लोग भी वाहन चलाना छोड़ देंगे जिनके क्षेत्रों में सड़कों का जाल बिछा है? उसी प्रकार यदि किसी स्थान पर शाकाहार उपलब्ध नहीं है तो भारत जैसे कृषि प्रधान देश जहाँ अन्न, फल व सब्जियों की प्रचूरता है वहां लोगों को मांसाहार खाने की क्या आवश्यकता है??? दूसरी बात आज के समय में जब परिवहन के साधनों की कोई कमी नहीं है और किसी भी स्थान पर कुछ भी पहुंचा देना कोई कठिन कार्य नहीं है तो वहां फसलें भी पहुंचाई जा सकती हैं...दरअसल यह तो केवल एक बहाना है| अपने जीभ के स्वाद के लिए उलटे सीधे तर्क देने वाले लोगों के लिए यह एक सबक सिखाने वाला लेख है...
जवाब देंहटाएंआभार...
दिवस जी की टिप्पणी ने एक तथ्य परक दृष्टांत रचने की प्रेरणा दे दी।
जवाब देंहटाएंएक लूला लंगडा लाचार भिखारी, लकडी के तख्त पर बैठा रहता। उस तख्त को उसके चार बच्चे रस्सी से खींचते। भीख से ही भिखारी अमीर बन गया था। उसके बच्चों का निर्थक श्रम देखकर एक राहगीर नें सलाह दे दी- ‘अब तो तुम्हारे पास पैसा भी है और चार पहिए कहीं भी मिल जाएंगे, इस तख्त को चार पहिए क्यों नहीं लगा देते? तुम्हारे बच्चों की जिन्दगी आसान हो जाएगी’। भिखारी नें पलटते ही जवाब दिया- आपको मालूम नहीं हजारों एस्कीमो ऐसा बिन पहियों का तख्त जैसा स्लेज चलाते है, उन्हें पहिए कहां से मिलेंगे? अक्ल लगाओ तब तक हम पहियों का उपयोग कैसे करें? राहगीर नें मुँह लगना उचित नहीं समझा और आगे बढ गया।
सार्थक प्रसंग उठाया है आपने आहार से ही जुडी है हमारी सेहत की नाल (नव्ज़ और नाड़ी ),जैसा अन्न वैसा मन ,जैसा पानी वैसी वाणी .
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