मंगलवार, 29 मई 2012

पादप एवं जंतु -3: प्रजनन में अंतर


पिछले दो भागों में हमने पादपों और जंतुओं की शारीरिक संरचना और पोषण में फर्क को जाना, अब इस आखिरी भाग में हम इनमे प्रजनन प्रक्रियाओं पर एक तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयास करते हैं ।

किसी भी जीव की उत्तरजीविता (continuation of species ) के लिए प्रजनन आवश्यक है । हर तरह के प्राणी - चाहे पादप हों या जंतु, उत्तरजीवी बने रहने के लिए प्रजनन करते हैं । यहाँ हम दोनो पर अलग अलग नज़र डालते हैं ।
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पादपों में जनन :                 

अधिकाँश पादपों में जड़ें, तने, टहनियां और पत्ते होते हैं । ये सब कायिक अंग (vegetative parts) कहलाते हैं। फूल, फल, बीज, आदि जनन अंग (reproductive parts) कहलाते हैं। पौधों में जनन दो प्रकार से होता है: लैंगिक या अलैंगिक जनन (sexual and asexual reproduction)। 

जब पौधे अपने कायिक अंगो (vegetative parts) से नयी पौध को जन्मे देते हैं - तो इसे अलैंगिक जनन (चित्रों के लिए लिंक क्लिक कीजिये) कहा जाता है । इसके कुछ उदाहरण हम सब जानते ही हैं, गुलाब की कटी हुई टहनी से नया पौधा उगना, आलू से नए पौधे का उगना, ब्रायोफिलम की पत्तियों से प्रजनन, यीस्ट ( ब्रेड बनाने में प्रयुक्त होने वाली) में मुकुलन, स्पाइरोगाइरा में खंडन आदि ।

पौधों के प्रजनन अंग हैं उनके फूल । फूलों की पंखुड़ियों को हटाया जाए तो भीतर ऐसा कुछ पायेंगे :
(चित्र गूगल इमेजेस से साभार)
इस चित्र में stamen  (पुंकेसर) पुरुष जनन अंग और pistil (स्त्रीकेसर)मादा जनन अंग हैं । किन्ही फूलों में इनमे से सिर्फ एक ही हो सकता है - ऐसे फूल एकलिंगी पुष्प कहलाते हैं । जिनमे ये दोनों हों - वे द्विलिंगी पुष्प हैं । इनके लिए यह चित्र देखिये ( हिंदी और अंग्रेजी दोनों लेबल वाले चित्र लगा रही हूँ ) :
(चित्र NCERT की वेबसाईट से साभार )

अब परागकोष (anther) में जो पराग है वह स्वयमेव तो अंडकोष (ovary) तक पहुँच नहीं सकता - सो तितलियों, मधुमखियों आदि की सहायता चाहिए । इसीलिए पुष्पों में इन के लिए nectar होता है और खुशबू भी। जब ये फूल का रस लेने आते हैं, तो इनके पंखों आदि से पराग कोष से पराग गण वर्तिकाग्र (stigma - अंडाशय का प्रवेश द्वार) पर गिरते हैं । फिर इन से एक पराग नलिका (pollen tube ) बढती है (नर युग्मक को मादा युग्मक तक ले जाने के लिए)। इसे germination (या अंकुरण ) कहते हैं । नर युग्मक और अंडाणु के मिल जाने पर युग्मनज़ ( zygote) बनता है - जो आगे जाकर बीज में विकसित होता है। यह जुड़ने की प्रक्रिया निषेचन (fertilization) कहलाती है । यदि एक ही पुष्प के अपने ही नर और मादा युग्मक इस प्रक्रिया में जुडें तो यह स्वपरागण और दूसरे पुष्प के जुड़े तो पर परागण  कहलाती है ।

                           
germination and fertilization (अंकुरण एवं निषेचन)
- formation of zygote 








स्व परागन और पर परागण
 (self and cross pollination )












यह निषेचन हो जाने के बाद पुष्प सूख कर झड जाते हैं और pistil  सूजने लगती है । युग्मनज़ अब बीज में परिवर्तित होने लगता है और स्त्रीकेसर का अंडाशय (ovary ) फल में बदलने लगती है । इस फल में स्वादिष्ट गूदा आदि है - जो पौधे द्वारा बनाया गया अतिरिक्त भोजन है । ध्यान दीजिये की पौधे विचरण नहीं कर सकते - सो प्रजनन प्रक्रिया में सफलता के लिए दो जगह सहायता चाहिए । निषेचन के लिए कीटों की सहायता - जिसके लिए फूलों की खुशबू और मधु मेहनताने जैसा है, और फिर बने हुए बीजों को जनक पौधे से दूर ले जाकर रोपित करने के लिए भी पौधों को सहायता चाहिए । इसे बीज प्रकीर्णन (seed dispersal ) कहते हैं । यह इसलिए आवश्यक है की यदि सब बीज वहीँ गिर जाएँ जहां जनक पौधा था - तो मिटटी के खनिजों, सूर्य के प्रकाश , जल आदि के लिए गंभीर प्रतिस्पर्धा होगी , और शायद कोई भी नव अंकुरित पौधा पनप नहीं पायेगा ।  इस बीज प्रकीर्णन के लिए अलग अलग प्रक्रियाएं हैं ।

1.  कुछ बीजों में कांटे से होते हैं - जो पशुओं की खाल, उनकी पूँछों के बाल, भेड़ों के ऊन, मनुष्यों के कपड़ो आदि में फंस कर दूर तक पहुँच जाते हैं ।
2. कोई इतने हलके रेशों (रोमों) के साथ हैं की वे हवा में उड़ कर फैलते हैं (रुई या कपास)
3. कुछ भीतर से खोखले हैं और इनके खोल स्पंजी या तंतुमय होने से ये पानी में तैर कर दूर पहुँच सकते हैं (नारियल)
4. किन्ही में पंख हैं (मेपल) ..... आदि

तो - यह जो प्रश्न बार बार उठाया जाता है - कि क्या पौधे सिर्फ दूसरे प्राणियों के लिए भोजन बनाते हैं ? उसका उत्तर यहाँ है । पौधे अपने लिए भी भोजन बनाते हैं और दूसरे प्राणियों के लिए भी । अतिरिक्त भोजन को दूसरे प्राणियों के लिए प्रलोभन / प्रोत्साहन / मेहनताने की तरह प्रयुक्त किया जाता है । फूलों के मधु से कीट पतंगे आकर्षित होते हैं जिससे निषेचन में सहायता मिलती है । फल का गूदा, जन्तुओं (मनुष्यों भी) द्वारा बीजों को दूर ले जाने का प्रतिलाभ (incentive) है ।

अब आते हैं - अन्न पर । बहुत बार यह पढ़ा / सुना है की अन्न को खाना "भ्रूण" को खाना है । हाँ  अन्न अपने पौधे का बीज ही हैं । यदि वे रोपित हों - तो नयी पौध को जन्म दे सकते हैं । अन्न देने वाले (घास प्रजाति के) पौधे बालियों में अनेकों बीजों को धारण करते हैं । ऐसी बालियाँ भी एक पौधे पर बहुत सी होती हैं । यह संभव ही नहीं की वहीँ गिरे हुए ये सारे बीज वहीँ पर रोपित हो सकें । ध्यान देने की बात है कि ये अन्न के दाने भारी हैं - सो उड़ नहीं सकते, इनमे कांटे नहीं - सो खाल आदि से चिपक कर दूर नहीं फ़ैल सकते, इनमे पंख भी नहीं, ये तैर भी नहीं सकते । तब बीजों का प्रकीर्णन कैसे हो ? यदि ये सारे बीज वहीँ गिर जाएँ जहां पौधा था - तो शायद ये सब मर जाएँ । क्यों ? क्योंकि प्रतिस्पर्धा गहरी होगी और संसाधन कम । ऊपर से दूसरी मुश्किल यह की - जो parent पौधा था (जिसने अन्न के बीज बनाए) - वह बीज के तैयार होने तक मृत हो गया होता है - सो उसकी जड़े और तने नए बीजों को अपने डंठलों से निकल कर मिटटी में रोपित होने में भी अड़चन  करेंगे । ऐसा नहीं कि कोई पौधा उगेगा ही नहीं - उगेगा अवश्य - किन्तु वह शायद स्वस्थ नस्ल नहीं होगी ।

तो - अन्न के बीज कैसे फैलें ? प्राकृतिक तरीका यह है कि इन्हें स्तनपायी जीव (गाय आदि) घास के साथ खाएं । फिर जब यह गाय गोबर करती है - तो ये बीज ऐसे ही निकल कर दूसरी जगह पहुँच जाते हैं (बिना आग पर पकाए हुए बीजों पर एक सुरक्षा परत होती है - जो इसे पाचन तंत्र में पचने से बचाती है) । गाय का पाचन तंत्र घास को पचाता है, बालियों को भी - और बीज ऐसे ही बाहर निकल आते हैं । ( हमारे एक ऋषि ऐसे भी थे - जो अहिंसा के चलते गाय के गोबर से चुने हुए अन्न बीजों को ही धोकर प्रयुक्त करते थे ) । दूसरा तरीका यह भी है की हम मनुष्य खेत में प्राकृतिक से अधिक संख्या में एक ही तरह के अन्न के कई पौधे उगायें । फिर इनके बीज उपयोग में भी ला, और कुछ संख्या में उन्हें अगले बरस के लिए संरक्षित कर के रख लें - जिससे उतनी ही भूमि में उतने ही पौधे फिर से उग सकें । यदि मानव ये अन्न के बीज न भी लेता - तो भी उतने ही पौधे उगते - और ले रहा है - तब भी उतने ही (बल्कि शायद उससे अधिक, क्योंकि किसान द्वारा देख रेख हो रही है) उग रहे हैं । इसमें प्रजनन में कोई हानि नहीं होती है । भ्रूण हत्या यह इसलिए नहीं कहला सकता है कि बीज जब भूमि में रोपित होता है - तब अंकुरित होता है - मिटटी को पौधे की माँ यूँ ही नहीं कहा जाता :)। यदि बीज मिटटी में रोपित न हो - तो वह वैसे ही नए पौधे में नहीं बदल सकता - भले ही हम उसे खाएं - या न खाएं ।
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 जंतुओं में प्रजनन :             

जंतु विचरण कर सकते हैं । इसलिए इन्हें प्रजनन के लिए बाहरी सहायता नहीं चाहिए , और इसीलिए इन्हें किसी को "मेहनताने" के रूप में भोजन भी नहीं देना । तो ये अपने शरीर में अतिरिक्त पोषक तत्व इकट्ठे नहीं करते । सिर्फ उतना ही शरीर बनता है - जितना स्वयं अपने ही जीवन यापन के लिए आवश्यक हो । जंतुओं को विचरण के लिए ऊर्जा अधिक चाहिए - और उनके शरीर का वजन जितना अधिक होगा, ऊर्जा उतनी ही अधिक बर्बाद होगी । सो - स्वाभाविक तौर पर - जंतु अपने शरीर में उतना ही मांस बनाते हैं जितना आवश्यक हो - अतिरिक्त "भार" नहीं ढोते ।  कुछ अतिरिक्त चर्बी जो जंतुओं के शरीर बनाते हैं (और ढ़ोते हैं) - वह मुश्किल समय में (अकाल आदि- जब भोजन उपलब्ध न हो) काम आने के लिए है । मृत कोशिकाएं तो जंतुओं के शरीर के वजन के अनुपात में न के बराबर हैं - सिर्फ पंजे / नाखून और बाल - क्योंकि मृत कोशिकाएं भार बढ़ाती हैं, और ऊर्जा का अपव्यय करती हैं । जबकि पौधों में मृत कोशिकाएं ही अधिक हैं - mechanical strength and support के लिए । पंजे और नाखून अँगुलियों को चोट से बचाने और भोजन पाने के लिए हैं, और बाल सर्दी आदि से बचाव के लिए । इसके अलावा शरीर में संगृहीत fat भी सर्दी से बचाव में इन्सुलेटर का काम करता है । शरीर की हर जीवित कोशिका से तंत्रिका तंत्र जुड़ा है, और रक्त का प्रवाह भी । कोई भी अंग काटना - पीड़ादायक तो है ही - रक्त के बहाव से मृत्युकारक भी हो सकता है ।

जैसे पौधों में अनेक प्रकार से प्रजनन/ बीज प्रकीर्णन होता है , उसी तरह जंतुओं में भी भेद हैं । मुख्य रूप से तीन तरह से प्रजनन होता है ।

1. स्तनपायी जीवों में (गाय, मनुष्य, व्हेल मछली - the mammals ) मादा शरीर के भीतर ही निषेचन होता है । यह भ्रूण भी माँ के शरीर के भीतर ही विकसित होता है - पूरे विकास के बाद ही बच्चे का जन्म होता है । किन्तु यह बच्चा अभी भी अपने आप survive कर सके यह बहुत कठिन है - माँ इसे दूध पिलाती है । माता ही (कभी कभी पिता भी) अक्सर बच्चे / बच्चों का पालन पोषण भी करती है । इस तरह के प्राणियों में माँ और संतान के बीच भावनात्मक लगाव भी बहुत अधिक होता है - जो की बच्चे के जीवन के लिए बहुत हद तक आवश्यक भी है ।

2. अंडे देकर उन्हें सेने वाले प्राणी : चिड़िया, मुर्गी, आदि - ये मादाएं अंडे देती हैं । परन्तु अंडे अपने आप में बच्चों को जन्म नहीं देते - माँ उन्हें सेती है (कभी कभी पिता भी ) जब अण्डों से बच्चे निकलते हैं - तो माता पिता (या दोनों) उन बच्चों का पालन पोषण करते हैं । ये प्राणी बहुत अधिक मात्रा में अंडे नहीं देते - क्योंकि बच्चों के जीवित रहने की संभावना अधिक है (क्योंकि माता पिता उनका रख रखाव, देख भाल कर रहे हैं)। किन्तु फिर भी अधिकतर एक साथ ही एक से अधिक बच्चों का जन्म होता है । भावनात्मक लगाव यहाँ भी बहुत है ।

3. अंडे देने वाली प्रजातियाँ जो अंडे नहीं सेतीं : तितलियाँ, मच्छर आदि - ये भी अंडे देते हैं - किन्तु ये अंडे की देखभाल आदि नहीं करते । अंडे अपने आप ही विकसित होते हैं और समय आने पर बच्चे निकल आते हैं । क्योंकि इन अण्डों / बच्चों की कोई देखभाल नहीं करने वाला है - इसलिए जीवित रहने की संभावनाएं कम हैं । सो एक तो ये प्रजातियाँ एक ही समय में बहुत अधिक संख्या में अंडे देती हैं, और अधिकतर अंडे किसी ऐसे सुरक्षित स्थान पर देती हैं जहाँ जीवित रहने की संभावना अधिक हो । परन्तु इसके आगे ये अपनी संतति के लिए कुछ नहीं करते ।


इन सभी केसेज़ में - जंतु या तो अपनी संतति के भोजन का इंतज़ाम खुद करते है (स्तनपायी) या फिर अंडे के भीतर almost perfectly सिर्फ उतना पोषक तत्व जमा होता है जितना उस भ्रूण के विकास होकर जन्म लेने तक के लिए काफी हो । यह मात्रा कभी भी आवश्यक से अधिक नहीं होती। तो इससे तो यही लगता है कि अंडे प्राकृतिक रूप से सिर्फ संतति के जन्म के लिए हैं - न कि मनुष्य या अन्य प्राणियों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए [ पढ़िए -  अंडे का क्रूर फंडा ]

यह आलेख शृंखला पढने के लिए आप सभी का आभार । आशा है यह उपयोगी हुआ हो । आभार ।
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सम्बंधित कड़ियाँ :                  

http://www.ncert.nic.in/NCERTS/textbook/textbook.htm?ghsc1=12-18 (पादपों में जनन - कक्षा 7 पाठ 12 - हिंदी में)
http://www.ncert.nic.in/NCERTS/textbook/textbook.htm?gesc1=12-18 (plant reproduction class 7-lesson 12 in english )
http://www.ncert.nic.in/NCERTS/textbook/textbook.htm?hhsc1=9-18 (जंतुओं में जनन - कक्षा 8 पाठ 9 - हिंदी में)
http://www.ncert.nic.in/NCERTS/textbook/textbook.htm?hesc1=9-18(animal reproduction - class 8 - lesson 9)

12 टिप्‍पणियां:

  1. आभार शिल्पा जी! यह शृंखला निश्चित रूप से भ्रांतियाँ मिटाकर अपने उद्देश्य में सफल होगी - तमसो मा ज्योतिर्गमय!

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  2. bahut hi sundar jankari bhari post...nishchit hi ise padhkar eggeatarian ando ko chhod sakenge...

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  3. विशेषकर जो अंडे को येन केन शाकाहार प्रचारित करने दुष्प्रयोग किया जाता है के जवाब में यथार्थ प्रत्यक्ष हुआ हैअ इस आलेख में। बहुत बहुत साधुवाद!! शिल्पा जी, साथ ही हिंसा अहिंसा का महीन अन्तर स्पष्ट हो जाता है। चिंतन से जो आन्तरिक स्फूरण आपको मिला, सभी कोमल हृदयों तक यह बात पहुँचे!!

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  4. शिल्पा जी,
    यह आलेख श्रंखला शोधपूर्ण व अनुभवजन्य है। यह आपका शाकाहार मूल्यों के प्रति समर्पण भाव है। आपकी प्रस्तुति स्वयं के अनुभवों का निचोड़ भी है। भोगा सत्य हमेशा प्रभावित करता है। निरामिष आन्दोलन में आपकी प्रदत्त आहुति स्तुत्य है। अतः आपके संकल्प भी अनुकरणीय है। साधुवाद!!

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  5. आलेख तो शानदार है ही, आख़िरी पैरा में लाल नीले अक्षरों में जो लिखा है,उसने और भी ज्यादा प्रभावित किया| actions speak louder than words, सिर्फ कहा नहीं आपने करके दिखाया है और ऐसी बातों का वाकई असर होता है|
    इस उपयोगी आलेख का प्रिंट लेकर रखना होगा|

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    1. आदरणीय संजय जी, आपका आभार |

      वह जो लाइनें नीली दिख रही हैं आलेख के अंत में - वे उस लेख का लिंक हैं जिसमे अंडे के शाकाहारी / मांसाहारी होने पर चर्चा चली थी |

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  6. लेख वाकई ज्ञानवर्धक है। आपको इस लेख के लिए आभार!

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  7. पर्यावरण दिवस पर दैनिक जागरण की एक खबर.......


    पर्यावरण बचाना है तो मांस से करे परहेज...


    बेमौसम बारिश और धरती का बढ़ता तापमान जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है। अगर पर्यावरण को बचाना है तो आपको अपने मांसाहारी भोजन में कटौती करनी होगी। एक नए अध्ययन में कहा गया है कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से बचने के लिए मांस की खपत 50 प्रतिशत तक कम करनी होगी।

    एनवायरमेंटल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि ग्लोबल वार्मिग के खतरे से बचने के लिए वर्ष 2050 तक खाद्य उत्पादन और भोजन की आदतों में महत्वपूर्ण बदलाव की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए यह सबसे कठिन चुनौती है कि खाद्यान्न उत्पादन से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कैसे कमी लाई जाए। कारण इस शताब्दी के मध्य तक विश्व की जनसंख्या नौ अरब तक पहुंच जाने की संभावना है।

    मैसाच्युसेट्स के वुड्स होल रिसर्च सेंटर के निदेशक इरिक डेविडसन के अध्ययन में कहा गया है कि विकसित देशों को खाद के प्रयोग में 50 प्रतिशत कमी करनी होगी और लोगों को मांसाहारी भोजन में कटौती करनी होगी। विकसित देशों में लोग नियमित रूप से मांस खाते हैं। वहीं भारत और चीन में समृद्धि बढ़ने के साथ ही मांस के खपत में वृद्धि हुई है।

    एक अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक कुछ वैज्ञानिक कृत्रिम तरीके से मांस का उत्पादन करने के प्रयास में जुटे हुए हैं ताकि जलवायु परिवर्तन के लिए उलरदायी खादों के प्रयोग से बचा जा सके।


    खबर का लिंक है......http://www.jagran.com/health/to-save-enviorment-eat-less-non-veg-food-9140896.html

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    1. जानकारी के लिये आभार, वीरेन्द्र जी। शाकाहारी जीवन शैली सचमुच पर्यावरण हितकर है।

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  8. वनस्पतियों और जन्तुओं के बीच बहुत बड़ा अंतर है. माँसाहार के बचाव में तर्क बल्कि कुतर्क गढ़ लिए जाते हैं. ऐसे ही तर्कों को आईना दिखने के लिए निरामिष का बहुत बहुत धन्यवाद.

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