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शनिवार, 14 जून 2014

⊡ शाकाहारी उत्पाद - चिन्ह और प्रतीक

शाकाहार की प्राचीन गौरवमयी परंपरा के चलते, आज भी संसार भर में शाकाहारियों का प्रतिशत भारत में ही सर्वाधिक है। शाकाहार की सुदृढ़ और विस्तृत परंपरा के कारण अधिकांश भारत में सात्विक निरामिष भोजन सर्वसुलभ होना स्वाभाविक है। भोजन के प्रति संवेदनशीलता के चलते रसोई और भोजनालयों के भेद भी स्पष्ट हैं। फिर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अक्सर स्वार्थ के लिए, कभी अज्ञानवश और कई बार मज़े के लिए भी अपने सहजीवियों का "धर्म-भ्रष्ट" करने की जुगाड़ में लगे रहते हैं। अमेरिका में अपने को भारतीय कहने वाले कई भोजनालय नान-रोटी में अंडे का प्रयोग करने लगे हैं और इस बाबत कोई नोटिस भी नहीं लगाते हैं। दक्षिण-पूर्व एशिया के हिन्द-चीनी देशों के सामान्य भोजन और चटनियों में जल-जीवों के अवशेष पाया जाना सामान्य सी बात है।

प्रचारित धारणाओं के विपरीत भोजन में छूआछूत शाकाहारियों की विशेषता नहीं है। भारत के अधिकांश मांसाहारी झटका, हलाल या कुत्ता जैसे नियमों के पाबंद हैं। कोई गोमांस से बचता है तो कोई सूअर के मांस से। पूर्वोत्तर के कुछ क्षेत्रों में चाव से खाया जाने वाला कुत्ते का मांस पश्चिम भारत के किसी भी मांसाहारी के मन में वितृष्णा उत्पन्न कर सकता है। भारत के बाहर भी संसार के लगभग सभी मांसाहारी समुदायों में कट्टर भोजन-भेद मौजूद रहा है। यहूदी संप्रदाय कोशर खाता है तो मुसलमान हलाल तक सीमित हैं। मध्य-पूर्व के दयालु समझे जाने वाले लोकनायक हातिमताई द्वारा भोजन के लिए अपना पालतू घोड़ा मारकर पका देने की कथा है जबकि अमेरिका में घोड़ा खाने वाले को अहसान-फरामोश, असभ्य और क्रूर माना जाएगा। निष्कर्ष यह कि संसार में अविचारी सर्वभक्षी लोगों की संख्या कम है। अधिकांश लोग कुछ भी खाने से पहले उसके बारे में आश्वस्ति चाहते हैं। एलर्जीग्रस्त कितनों के लिए यह स्वास्थ्यगत अनिवार्यता भी है।

प्राचीन भारतीय समाज में हर काम करने की पद्धति निर्धारित थी। संस्कृत भाषा, अंक पद्धति और लिपियों का विकास भी विदेशों से अलग नियमबद्ध रूप से ही हुआ है। आज भले ही हम संकल्प और पद्धति को पिछड़ापन बताकर "जुगाड़" और "चलता है" को सामान्य मानने लगे हों लेकिन विकसित देशों में सब काम नियम से किया जाता है। वहाँ भोज्य पदार्थों में उनके तत्व सूचीबद्ध करने की भी कानूनी बाध्यता लंबे समय से रही है। सामान्य प्रचलित तत्वों के अतिरिक्त अप्रचलित रसायनों के लंबे और जटिल वैज्ञानिक नाम के चलते उन्हें सूचीबद्ध करने  के लिए ई संख्या कूट (E number code) का प्रयोग किया जाता है। इन कूट संख्याओं के बारे में इन्टरनेट पर काफी भ्रम फैले हुए हैं। किसी आगामी आलेख में उन पर विस्तार से चर्चा की जाएगी।

सन 2006 में स्थापित भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण स्वस्थ और विश्वसनीय भोजन चुनने की दिशा में अच्छी पहल है। भोजन के व्यावसायिक उत्पादन, भण्डारण, वितरण आदि के नियम बनाना और उनका अनुपालन कराना भी प्राधिकरण के प्रमुख उद्देश्यों में से एक है। परंपरागत भारतीय शाकाहार (दुग्धाहार सम्मिलित) और मांसाहार की पेकेजिंग/थैली/पुलिंदे पर संस्थान द्वारा स्पष्ट हरे या लाल चिन्ह द्वारा पहचान आसान किए जाना एक सराहनीय कदम है।  

डब्बाबंद/प्रीपैकेज्ड भोज्य पदार्थ खरीदते समय हरा शाकाहारी चिन्ह देखिये और सात्विक भोजन को बढ़ावा दीजिये। बल्कि मैं तो यही कहूँगा कि पर्यावरण संरक्षण में सहयोग देते हुए, थैली/डिब्बा के भोजन पर निर्भरता ही यथासंभव कम कीजिये। निरामिष परिवार की ओर से आपके सात्विक स्वस्थ जीवन की शुभकामनायें।

* संबन्धित कड़ियाँ *
ई कोड - क्या आपके शाकाहार में सुअर की चर्बी है?

रविवार, 16 सितंबर 2012

हिंसा माँगे दुष्कर्म अधिकार !!




प्रगति………

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/delhi/4_3_9671004.html

गोमांस पार्टी पर पुलिस व जेएनयू प्रशासन सख्त, नोटिस जारी

Sep 16, 10:25 pm


जागरण संवाददाता, नई दिल्ली :
दिल्ली पुलिस और जेएनयू प्रशासन ने संयुक्त रूप से रविवार को सभी छात्रावासों और सीनियर वार्डन को गोमांस पार्टी के आयोजन पर रोक लगाने संबंधी नोटिस जारी किया है। नोटिस में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि गोमांस पार्टी का आयोजन कानूनी तौर पर जुर्म है। अगर कोई छात्र ऐसा करता है तो उसके विरुद्ध 'दी दिल्ली एग्रीकल्चर कैटल प्रिजर्वेशन एक्ट-1994' की धारा 2'ए' के तहत कार्रवाई होगी, जिसमें किसी व्यक्ति द्वारा गाय का मांस रखना, खाना और उसका पाया जाना वर्जित है।
इस बारे में जेएनयू के कुलपति प्रो. एसके सोपोरी ने कहा है कि वे छात्रसंघ चुनाव शांति से संपन्न कराना चाहते थे। इसलिए अब पुलिस के साथ मिलकर रजिस्ट्रार की ओर से नोटिस जारी किया गया है। गोमांस पार्टी की चर्चा करने और आयोजन की तैयारी को लेकर जल्द ही सख्त कदम उठाए जाएंगे। वहीं वसंत कुंज क्षेत्र के सहायक पुलिस आयुक्त की ओर से नोटिस में बताया गया है कि गोमांस संबंधी अपराध पर पांच वर्ष की कैद और आर्थिक दंड का प्रावधान है। साथ ही गोमांस कानून उल्लंघन गैर जमानती अपराध है। बता दें कि जेएनयू में 'द न्यू मैटेरियलिस्ट संगठन' गुपचुप तरीके से गोमांस पार्टी के आयोजन की तैयारी में लगा है। कैंपस में चर्चा है कि संगठन की ओर से 28 सितंबर को पार्टी होगी।

गोमांस पार्टी की तैयारी पर छात्र निलंबित

Sep 19, 10:48 pm




जागरण संवाददाता, नई दिल्ली : जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में गोमांस पार्टी आयोजन की तैयारी में लगे 'द न्यू मैटेरियलिस्ट संगठन' और उसके सदस्यों में से एक को निलंबित और तीन को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है। यह नोटिस जेएनयू के चीफ प्रॉक्टर एच.बी.बोहिद्दार की ओर से जारी किया गया।
नोटिस में अनुशासनात्मक कार्रवाई का हवाला देते हुए उल्लेख है कि गोमांस पार्टी आयोजन पर जेएनयू प्रशासन ने प्रोक्टोरियल जांच गठित करने के साथ ही सेंटर फॉर अफ्रिकन स्टडीज से पीएचडी के छात्र अनूप को 'द न्यू मैटेरियलिस्ट संगठन' के कार्यकर्ता के तौर पर जांच चलने तक निलंबित किया है। अनूप जेएनयू कैंपस में पार्टी का आयोजन करने जा रही कमेटी (फॉर्मेशन कमेटी फॉर बीफ एंड पॉर्क फेस्टिवल) का सक्रिय सदस्य भी है, जिसने 'द दिल्ली एग्रीकल्चर कैटल प्रिजर्वेशन एक्ट-1994' की जानकारी होने के बाद भी इस तरह के आयोजन की तैयारी में सक्रिय भागीदारी निभाई है।
इसके अलावा पार्टी आयोजन कमेटी से जुडे़ छात्र आनंधा कृष्णराज, अभय कुमार और छात्रा कुसुम लता को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है। उन्हें 24 सितंबर शाम पांच बजे तक नोटिस का जवाब दाखिल करने को कहा गया है। साथ ही पूछा गया है कि जब आप लोगों को यह पता है कि 'द दिल्ली एग्रीकल्चर कैटल प्रिजर्वेशन एक्ट-1994' की धारा 2 'ए' के तहत गोमांस पार्टी करना गैर कानूनी है और इसके आयोजन पर पांच साल की कैद व दस हजार रुपये तक जुर्माने का प्रावधान है तो, आपने ऐसा करने की चेष्टा क्यों की? क्यों न आपके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए?



यह हिंदू धर्म का अपमान है ……आज तक पर

अपने को बुद्धिजीवी बताने वाले कुछ लोगों ने बीफ और पोर्क फेस्टिवल के आयोजन के लिए एक समिति बनाई है. इस आयोजन समिति ने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के छात्रों और शिक्षकों को इस माह के अंत में जेएनयू परिसर में ही आयोजित होने वाले बीफ डिश समारोह में शामिल होने का खुला निमंत्रण दिया है.
आयोजकों ने इस समारोह में सूअर के मांस के डिश भी उपलब्ध कराने का वायदा किया है, शायद यह दिखाने के लिए कि वे हिंदू और मुसलमानों के प्रति धार्मिक रूप से तटस्थ हैं. मुसलमान सूअर के मांस से नफरत करते हैं क्योंकि उसे गंदा माना जाता है, इसलिए नहीं कि इस्लाम में सूअर को कोई पवित्र दर्जा प्राप्त है. लेकिन गोवध कर हासिल किया गया गाय का मांस तो हिंदू धर्म का घोर अपमान है क्योंकि हिंदू लोग गाय को पवित्र मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं.
गोमांस का पकवान तैयार करना भारतीय संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों, 1958 के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए कई निर्णयों के भी खिलाफ है. इन निर्णयों से गोहत्या को पूरी तरह से प्रतिबंधित किया गया है. जेएनयू की इस गतिविधि पर आइपीसी की धारा 295 और 295ए के तहत कार्रवाई की जा सकती है.
मैं नहीं समझ पा रहा कि छात्रों और शिक्षकों को बीफ और पोर्क के लिए आयोजन समिति गठित करने या कैंपस में इस तरह के गोश्त परोसने वाले समारोह आयोजित करने की क्या जरूरत थीक्या जेएनयू के छात्र यह सीख रहे हैं कि किस तरह से कुक बना जाए और ऐसे देशों के फाइव स्टार होटलों में जाकर काम किया जाए जहां गोमांस लोगों की खुराक में शामिल है?
मैंने इस मामले की जानकारी मंत्री कपिल सिब्बल तक पहुंचा दी है. यदि उदारवाद के नाम पर उकसाने की इस कार्रवाई से संवैधानिक रूप से सशक्त संस्थानों के माध्यम नहीं निबटा गया तो प्राकृतिक न्याय के तहत लोग सीधे कार्रवाई पर उतर सकते हैं.
डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी जनता पार्टी के अध्यक्ष हैं
 

बुधवार, 11 जुलाई 2012

खाद्य शृंखला और निरामिष

खाद्य श्रृंखला

पृथ्वी भिन्न भिन्न प्रकार के जीवों की आश्रय स्थली है जिसमें जटिल वनस्पतियों और प्राणियों से लेकर सरल एककोशीय जीव सम्मिलित हैं। परन्तु चाहे बड़ा हो या छोटा, सरल हो या जटिल, कोई भी जीव अकेला नहीं रहता। हर कोई किसी न किसी रूप में अपने आस-पास स्थित जीवों या निर्जीव पर्यावरण पर निर्भर करता है। यह हमें एक श्रृंखला में जोड़ता है जिसे खाद्य श्रृंखला कहा जाता है।

खाद्य श्रृंखला और उर्जा प्रसारण

श्रृंखला की हर कड़ी पर ऊर्जा का अत्यधिक ह्रास होता है, किसी खाद्य श्रृंखला में एक प्राणी उसे प्राप्त होने वाली ऊर्जा का मात्रा 10 प्रतिशत ही आगे प्रसारित करता है। स्थितिज ऊर्जा का 90 प्रतिशत भाग ऊष्मा के रूप में लुप्त हो जाता है। इसलिए खाद्य श्रृंखला में जितना आगे आप जाएंगे उतनी कम ऊर्जा की उपलब्धता पाएंगे। इससे स्पष्ट होता है कि शाकाहारियों के एक सामान्य आकार के झुण्ड के भरण-पोषण के लिए काफी कम संख्या में वृक्ष और हरियाली की आवश्यकता होती है जबकि कुछ मांसाहारियों का पेट एक शाकाहारियों का सामान्य आकार का झुण्ड भी नहीं पाल सकता है। खाद्य श्रृंखला जितनी प्रत्यक्ष और कम कडी की होगी, जीवों के लिए उतनी अधिक ऊर्जा उपलब्ध होगी।


एक खाद्य श्रृंखला में सामान्यतया निम्न कडि़यां होती हैं:
- मूल या प्रारंभिक उत्पादक
- मूल या प्रारंभिक उपभोक्ता
- द्वितीयक या माध्यमिक उपभोक्ता
- तृतीयक उपभोक्ता
- अपघटक



उत्पादक

उत्पादक अपना भोजन स्वयं तैयार करने में सक्षम होते हैं। स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र में उत्पादक सामान्यतः हरे पौधे होते हैं। स्वच्छ जल और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में आमतौर पर शैवाल प्रमुख उत्पादक होते हैं। प्रकृति के चक्र में वनस्पतियां सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। इनके बिना धरा पर जीवन संभव नहीं है। ये प्रारंभिक उत्पादक हैं जो सभी अन्य जीव प्रकारों को कायम रखते हैं। यह इसलिए है कि वनस्पति ही वह जीव है जो अपना भोजन खुद निर्मित कर सकता है। प्राणी, जो भोजन निर्माण में सक्षम नहीं होते, अपनी खाद्य आपूर्ति के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वनस्पतियों पर निर्भर रहते हैं। सभी प्राणी और जो भोजन वे ग्रहण करते हैं, उसे मूल रूप से पौधों से निसृत माना जा सकता है।

जिस ऑक्सीजन को हम सांस के द्वारा लेते हैं वह पौधों से प्राप्त होती है। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में पौधे सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करते हैं, वायु से कार्बन डाइऑक्साइड लेते हैं तथा मिट्टी से पानी एवं खनिज अवशोषित करते हैं। इसके बाद वे पानी और ऑक्सीजन को मुक्त कर देते हैं। इस चक्र में प्राणी एवं अन्य गैर उत्पादक जीव श्वसन क्रिया के माध्यम से भागीदारी करते हैं। श्वसन वह प्रक्रिया है जिसमें जीव द्वारा भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए ऑक्सीजन का उपयोग किया जाता है और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ी जाती है। प्रकाश संश्लेषण और श्वसन चक्र की मदद से पृथ्वी पर ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड और जल का सन्तुलन बरकरार रहता है।

उपभोक्ता

उपभोक्ता वे होते हैं जो अपने भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं। वे या तो सीधे ही मूल उत्पादक पर या अन्य उपभोक्ताओं पर निर्भर रहते हैं। चूंकि शाकाहारी अपना भोजन सीधे उत्पादक से प्राप्त करते हैं, उन्हें प्रारंभिक या प्रथम उपभोक्ता कहा जाता है। जानवर अपना भोजन खुद नहीं बना सकते इसलिए उनके लिए पौधों या अन्य प्राणियों को खाना आवश्यक होता है। उपभोक्ता तीन प्रकार के हो सकते हैं; जो प्राणी सिर्फ और सिर्फ वनस्पति खाते हैं, उन्हें शाकाहारी कहा जाता है, जो प्राणी दूसरे प्राणियों का भक्षण करते हैं, मांसाहारी कहलाते हैं और जो  प्राणी वनस्पति एवं प्राणी दोनों को खाते हैं वे सर्वाहारी कहलाते हैं।

अपघटक

अपघटक वे जीव होते हैं जो अपक्षय या सड़न की प्रक्रिया को तेज करते हैं जिससे पोषक तत्वों का पुनः चक्रीकरण हो सके। ये निर्जीव कार्बनिक तत्वों को अकार्बनिक यौगिकों में तोड़ते हैं। अपघटक खनिज तत्वों को पुनः खाद्य श्रृंखला से जोड़ने के लिए मुक्त करने में सहायक होते हैं जिससे उत्पादक यानि वनस्पतियां इन्हें अवशोषित कर सकें। पोषण तल

वे जीव, जिनका भोजन वनस्पतियों से समान चरणों में प्राप्त होता है, एक पोषण तल या ट्रोफिक लेवल में आते हैं। उत्पादक होने के नाते हरी वनस्पतियां पहले पोषण तल पर आती हैं। शाकाहारी दूसरी मंजिल या तल पर माने जाते हैं। मांसाहारी, जो शाकाहारियों को अपना आहार बनाते हैं, तीसरे पोषण तल पर आते हैं, जबकि मांसाहारी जो मांसाहारियों का ही भक्षण करते हैं, चौथे पोषण तल पर माने जाते हैं। एक प्रजाति अपने आहार के आधार पर एक या एक से अधिक पोषण तल पर मौजूद रह सकती है।

ऊर्जा का पिरैमिड

ऊर्जा का पिरैमिड किसी खाद्य श्रृंखला या जाल में आहार और ऊर्जा के संबंध को दर्शाता है। तीनों पारिस्थितिकीय पिरैमिडों में से ऊर्जा का पिरैमिड प्रजातियों के समूहों की क्रियात्मक प्रकृति का अब तक का सर्वश्रेष्ठ चित्रण प्रस्तुत करता है।

यह समझना आवश्यक है कि खाद्य श्रृंखलाओं और जालों में ऊर्जा पोषण तलों से प्रवाहित होती है और हर अगले तल में ऊर्जा की मात्रा घटती जाती है। अंत में पूरी ऊर्जा नष्ट हो जाती है जिसका अधिकांश भाग ऊष्मा के रूप में लुप्त होता है। पोषक तत्व, हालांकि, खाद्य श्रृंखलाओं में कभी समाप्त नहीं होते और पुनर्चक्रित होते रहते हैं। इस प्रकार के चक्र में जीव, जल, वायुमण्डल और मिट्टी शामिल होते हैं। ये तत्व स्वपोषी जीवों, जिनमें भोजन निर्माण की क्षमता होती है, द्वारा कार्बनिक यौगिकों के साथ समाविष्ट कर दिए जाते हैं जहां से खाद्य जाल के विभिन्न उपभोक्ताओं में से गुजरते हुए पुनः सैप्रोफाइट यानी मृतजीवी (वे जीव जो मृत या सड़े-गले पदार्थों से अपना पोषण प्राप्त करते हैं) द्वारा अकार्बनिक रसायनों के रूप में पुनर्चक्रित कर दिए जाते हैं।

जैव-भूरसायन चक्र

जैव-भूरसायन चक्र मानवीय गतिविधियों से गड़बड़ा सकते हैं और गड़बड़ा रहे हैं। जब हम अवयवों को उनके स्रोत या आश्रय स्थल से जबरदस्ती निकालकर प्रयोग करते हैं तो हम प्राकृतिक जैव-भूरसायन चक्र को अव्यवस्थित कर देते हैं। उदाहरण के तौर पर, हमने धरती की गहराइयों से हाइड्रोकार्बन ईंधनों को निकालकर और जलाकर स्पष्ट रूप से कार्बन चक्र में बदलाव कर दिया है। हमने नाइट्रोजन और फास्फोरस को कृषि उर्वरकों के रूप में बड़ी मात्रा में प्रयोग कर इनके चक्रों में भी बदलाव पैदा कर दिया है। मात्रा की आधिक्यता ने जल स्रोतों में प्रवेश कर जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में भी अतिउर्वरता पैदा कर दी है। इन विशाल, भूमंडलीय चक्रों की सबसे रोचक बात यह नहीं है कि ये लगातार बगैर रूके चलते रहते हैं, बल्कि यह है कि हमें धरती पर उपस्थित जीवन पर उनके प्रभाव का पता भी नहीं चलता है।
प्रस्तुत अंश, जीव-विज्ञानी सुश्री सुकन्या दत्ता की पुस्तक ‘धरा पर जीवन’ के ‘जीवन श्रृंखलाएं और जीवन जाल’ अध्याय से साभार लिया गया है।
सम्पादकीय टिप्पणी-

खाद्य शृंखला के शाकाहार निहितार्थ –

“श्रृंखला की हर कड़ी पर ऊर्जा का अत्यधिक ह्रास होता है”

पेड़ - पौधे प्रथम कड़ी में 'उत्पादक' है शाकाहार श्रेणी में सीधे प्रथम 'उपभोक्ता' स्तर पर ही आहार ग्रहण करने पर उर्जा का भारी अपव्यय बच जाता है।

“जैव-भूरसायन चक्र मानवीय गतिविधियों से गड़बड़ा सकते हैं और गड़बड़ा रहे हैं। जब हम अवयवों को उनके स्रोत या आश्रय स्थल से जबरदस्ती निकालकर प्रयोग करते हैं”

प्रथम 'उपभोक्ता' स्तर पर शाकाहार से सहज निर्वाह होने के उपरांत भी जब हम जबरद्स्ती तीसरे तल पर भी अपना अधिकार जमाते है और मांसाहार ग्रहण करते है तो जैवीय चक्र को अनधिकार गड़बड़ा रहे होते है, अतिक्रमण कर रहे होते है। सीधा प्रबल उर्जा स्रोत प्राप्य होते हुए भी शृंखला में एक और उपभोक्ता कड़ी को बढ़ाकर खाद्य शृंखला को अदृ्श्य आघात पहुँचाते है। उर्जा प्रवाह और उपभोग को असंतुलित कर देते है।

लोग खाद्य शृंखला का तर्क आगे कर मांसाहार को ग्रहणीय साबित करने का अबोध प्रयास करते है जबकि 'उर्जा', 'कड़ी' और 'पिरामिड़-तल' के आधार पर 'खाद्य शृंखला' चीख चीख कर कह रही है, मनुष्य को शीघ्रातिशीघ्र उर्जा का प्राथमिक और मितव्ययी उपभोक्ता हो जाना चाहिए। अर्थात् शाकाहारी बनकर प्रकृति संयम के प्रति निष्ठावान हो जाना चाहिए।

मंगलवार, 29 मई 2012

पादप एवं जंतु -3: प्रजनन में अंतर


पिछले दो भागों में हमने पादपों और जंतुओं की शारीरिक संरचना और पोषण में फर्क को जाना, अब इस आखिरी भाग में हम इनमे प्रजनन प्रक्रियाओं पर एक तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयास करते हैं ।

किसी भी जीव की उत्तरजीविता (continuation of species ) के लिए प्रजनन आवश्यक है । हर तरह के प्राणी - चाहे पादप हों या जंतु, उत्तरजीवी बने रहने के लिए प्रजनन करते हैं । यहाँ हम दोनो पर अलग अलग नज़र डालते हैं ।
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पादपों में जनन :                 

अधिकाँश पादपों में जड़ें, तने, टहनियां और पत्ते होते हैं । ये सब कायिक अंग (vegetative parts) कहलाते हैं। फूल, फल, बीज, आदि जनन अंग (reproductive parts) कहलाते हैं। पौधों में जनन दो प्रकार से होता है: लैंगिक या अलैंगिक जनन (sexual and asexual reproduction)। 

जब पौधे अपने कायिक अंगो (vegetative parts) से नयी पौध को जन्मे देते हैं - तो इसे अलैंगिक जनन (चित्रों के लिए लिंक क्लिक कीजिये) कहा जाता है । इसके कुछ उदाहरण हम सब जानते ही हैं, गुलाब की कटी हुई टहनी से नया पौधा उगना, आलू से नए पौधे का उगना, ब्रायोफिलम की पत्तियों से प्रजनन, यीस्ट ( ब्रेड बनाने में प्रयुक्त होने वाली) में मुकुलन, स्पाइरोगाइरा में खंडन आदि ।

पौधों के प्रजनन अंग हैं उनके फूल । फूलों की पंखुड़ियों को हटाया जाए तो भीतर ऐसा कुछ पायेंगे :
(चित्र गूगल इमेजेस से साभार)
इस चित्र में stamen  (पुंकेसर) पुरुष जनन अंग और pistil (स्त्रीकेसर)मादा जनन अंग हैं । किन्ही फूलों में इनमे से सिर्फ एक ही हो सकता है - ऐसे फूल एकलिंगी पुष्प कहलाते हैं । जिनमे ये दोनों हों - वे द्विलिंगी पुष्प हैं । इनके लिए यह चित्र देखिये ( हिंदी और अंग्रेजी दोनों लेबल वाले चित्र लगा रही हूँ ) :
(चित्र NCERT की वेबसाईट से साभार )

अब परागकोष (anther) में जो पराग है वह स्वयमेव तो अंडकोष (ovary) तक पहुँच नहीं सकता - सो तितलियों, मधुमखियों आदि की सहायता चाहिए । इसीलिए पुष्पों में इन के लिए nectar होता है और खुशबू भी। जब ये फूल का रस लेने आते हैं, तो इनके पंखों आदि से पराग कोष से पराग गण वर्तिकाग्र (stigma - अंडाशय का प्रवेश द्वार) पर गिरते हैं । फिर इन से एक पराग नलिका (pollen tube ) बढती है (नर युग्मक को मादा युग्मक तक ले जाने के लिए)। इसे germination (या अंकुरण ) कहते हैं । नर युग्मक और अंडाणु के मिल जाने पर युग्मनज़ ( zygote) बनता है - जो आगे जाकर बीज में विकसित होता है। यह जुड़ने की प्रक्रिया निषेचन (fertilization) कहलाती है । यदि एक ही पुष्प के अपने ही नर और मादा युग्मक इस प्रक्रिया में जुडें तो यह स्वपरागण और दूसरे पुष्प के जुड़े तो पर परागण  कहलाती है ।

                           
germination and fertilization (अंकुरण एवं निषेचन)
- formation of zygote 








स्व परागन और पर परागण
 (self and cross pollination )












यह निषेचन हो जाने के बाद पुष्प सूख कर झड जाते हैं और pistil  सूजने लगती है । युग्मनज़ अब बीज में परिवर्तित होने लगता है और स्त्रीकेसर का अंडाशय (ovary ) फल में बदलने लगती है । इस फल में स्वादिष्ट गूदा आदि है - जो पौधे द्वारा बनाया गया अतिरिक्त भोजन है । ध्यान दीजिये की पौधे विचरण नहीं कर सकते - सो प्रजनन प्रक्रिया में सफलता के लिए दो जगह सहायता चाहिए । निषेचन के लिए कीटों की सहायता - जिसके लिए फूलों की खुशबू और मधु मेहनताने जैसा है, और फिर बने हुए बीजों को जनक पौधे से दूर ले जाकर रोपित करने के लिए भी पौधों को सहायता चाहिए । इसे बीज प्रकीर्णन (seed dispersal ) कहते हैं । यह इसलिए आवश्यक है की यदि सब बीज वहीँ गिर जाएँ जहां जनक पौधा था - तो मिटटी के खनिजों, सूर्य के प्रकाश , जल आदि के लिए गंभीर प्रतिस्पर्धा होगी , और शायद कोई भी नव अंकुरित पौधा पनप नहीं पायेगा ।  इस बीज प्रकीर्णन के लिए अलग अलग प्रक्रियाएं हैं ।

1.  कुछ बीजों में कांटे से होते हैं - जो पशुओं की खाल, उनकी पूँछों के बाल, भेड़ों के ऊन, मनुष्यों के कपड़ो आदि में फंस कर दूर तक पहुँच जाते हैं ।
2. कोई इतने हलके रेशों (रोमों) के साथ हैं की वे हवा में उड़ कर फैलते हैं (रुई या कपास)
3. कुछ भीतर से खोखले हैं और इनके खोल स्पंजी या तंतुमय होने से ये पानी में तैर कर दूर पहुँच सकते हैं (नारियल)
4. किन्ही में पंख हैं (मेपल) ..... आदि

तो - यह जो प्रश्न बार बार उठाया जाता है - कि क्या पौधे सिर्फ दूसरे प्राणियों के लिए भोजन बनाते हैं ? उसका उत्तर यहाँ है । पौधे अपने लिए भी भोजन बनाते हैं और दूसरे प्राणियों के लिए भी । अतिरिक्त भोजन को दूसरे प्राणियों के लिए प्रलोभन / प्रोत्साहन / मेहनताने की तरह प्रयुक्त किया जाता है । फूलों के मधु से कीट पतंगे आकर्षित होते हैं जिससे निषेचन में सहायता मिलती है । फल का गूदा, जन्तुओं (मनुष्यों भी) द्वारा बीजों को दूर ले जाने का प्रतिलाभ (incentive) है ।

अब आते हैं - अन्न पर । बहुत बार यह पढ़ा / सुना है की अन्न को खाना "भ्रूण" को खाना है । हाँ  अन्न अपने पौधे का बीज ही हैं । यदि वे रोपित हों - तो नयी पौध को जन्म दे सकते हैं । अन्न देने वाले (घास प्रजाति के) पौधे बालियों में अनेकों बीजों को धारण करते हैं । ऐसी बालियाँ भी एक पौधे पर बहुत सी होती हैं । यह संभव ही नहीं की वहीँ गिरे हुए ये सारे बीज वहीँ पर रोपित हो सकें । ध्यान देने की बात है कि ये अन्न के दाने भारी हैं - सो उड़ नहीं सकते, इनमे कांटे नहीं - सो खाल आदि से चिपक कर दूर नहीं फ़ैल सकते, इनमे पंख भी नहीं, ये तैर भी नहीं सकते । तब बीजों का प्रकीर्णन कैसे हो ? यदि ये सारे बीज वहीँ गिर जाएँ जहां पौधा था - तो शायद ये सब मर जाएँ । क्यों ? क्योंकि प्रतिस्पर्धा गहरी होगी और संसाधन कम । ऊपर से दूसरी मुश्किल यह की - जो parent पौधा था (जिसने अन्न के बीज बनाए) - वह बीज के तैयार होने तक मृत हो गया होता है - सो उसकी जड़े और तने नए बीजों को अपने डंठलों से निकल कर मिटटी में रोपित होने में भी अड़चन  करेंगे । ऐसा नहीं कि कोई पौधा उगेगा ही नहीं - उगेगा अवश्य - किन्तु वह शायद स्वस्थ नस्ल नहीं होगी ।

तो - अन्न के बीज कैसे फैलें ? प्राकृतिक तरीका यह है कि इन्हें स्तनपायी जीव (गाय आदि) घास के साथ खाएं । फिर जब यह गाय गोबर करती है - तो ये बीज ऐसे ही निकल कर दूसरी जगह पहुँच जाते हैं (बिना आग पर पकाए हुए बीजों पर एक सुरक्षा परत होती है - जो इसे पाचन तंत्र में पचने से बचाती है) । गाय का पाचन तंत्र घास को पचाता है, बालियों को भी - और बीज ऐसे ही बाहर निकल आते हैं । ( हमारे एक ऋषि ऐसे भी थे - जो अहिंसा के चलते गाय के गोबर से चुने हुए अन्न बीजों को ही धोकर प्रयुक्त करते थे ) । दूसरा तरीका यह भी है की हम मनुष्य खेत में प्राकृतिक से अधिक संख्या में एक ही तरह के अन्न के कई पौधे उगायें । फिर इनके बीज उपयोग में भी ला, और कुछ संख्या में उन्हें अगले बरस के लिए संरक्षित कर के रख लें - जिससे उतनी ही भूमि में उतने ही पौधे फिर से उग सकें । यदि मानव ये अन्न के बीज न भी लेता - तो भी उतने ही पौधे उगते - और ले रहा है - तब भी उतने ही (बल्कि शायद उससे अधिक, क्योंकि किसान द्वारा देख रेख हो रही है) उग रहे हैं । इसमें प्रजनन में कोई हानि नहीं होती है । भ्रूण हत्या यह इसलिए नहीं कहला सकता है कि बीज जब भूमि में रोपित होता है - तब अंकुरित होता है - मिटटी को पौधे की माँ यूँ ही नहीं कहा जाता :)। यदि बीज मिटटी में रोपित न हो - तो वह वैसे ही नए पौधे में नहीं बदल सकता - भले ही हम उसे खाएं - या न खाएं ।
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 जंतुओं में प्रजनन :             

जंतु विचरण कर सकते हैं । इसलिए इन्हें प्रजनन के लिए बाहरी सहायता नहीं चाहिए , और इसीलिए इन्हें किसी को "मेहनताने" के रूप में भोजन भी नहीं देना । तो ये अपने शरीर में अतिरिक्त पोषक तत्व इकट्ठे नहीं करते । सिर्फ उतना ही शरीर बनता है - जितना स्वयं अपने ही जीवन यापन के लिए आवश्यक हो । जंतुओं को विचरण के लिए ऊर्जा अधिक चाहिए - और उनके शरीर का वजन जितना अधिक होगा, ऊर्जा उतनी ही अधिक बर्बाद होगी । सो - स्वाभाविक तौर पर - जंतु अपने शरीर में उतना ही मांस बनाते हैं जितना आवश्यक हो - अतिरिक्त "भार" नहीं ढोते ।  कुछ अतिरिक्त चर्बी जो जंतुओं के शरीर बनाते हैं (और ढ़ोते हैं) - वह मुश्किल समय में (अकाल आदि- जब भोजन उपलब्ध न हो) काम आने के लिए है । मृत कोशिकाएं तो जंतुओं के शरीर के वजन के अनुपात में न के बराबर हैं - सिर्फ पंजे / नाखून और बाल - क्योंकि मृत कोशिकाएं भार बढ़ाती हैं, और ऊर्जा का अपव्यय करती हैं । जबकि पौधों में मृत कोशिकाएं ही अधिक हैं - mechanical strength and support के लिए । पंजे और नाखून अँगुलियों को चोट से बचाने और भोजन पाने के लिए हैं, और बाल सर्दी आदि से बचाव के लिए । इसके अलावा शरीर में संगृहीत fat भी सर्दी से बचाव में इन्सुलेटर का काम करता है । शरीर की हर जीवित कोशिका से तंत्रिका तंत्र जुड़ा है, और रक्त का प्रवाह भी । कोई भी अंग काटना - पीड़ादायक तो है ही - रक्त के बहाव से मृत्युकारक भी हो सकता है ।

जैसे पौधों में अनेक प्रकार से प्रजनन/ बीज प्रकीर्णन होता है , उसी तरह जंतुओं में भी भेद हैं । मुख्य रूप से तीन तरह से प्रजनन होता है ।

1. स्तनपायी जीवों में (गाय, मनुष्य, व्हेल मछली - the mammals ) मादा शरीर के भीतर ही निषेचन होता है । यह भ्रूण भी माँ के शरीर के भीतर ही विकसित होता है - पूरे विकास के बाद ही बच्चे का जन्म होता है । किन्तु यह बच्चा अभी भी अपने आप survive कर सके यह बहुत कठिन है - माँ इसे दूध पिलाती है । माता ही (कभी कभी पिता भी) अक्सर बच्चे / बच्चों का पालन पोषण भी करती है । इस तरह के प्राणियों में माँ और संतान के बीच भावनात्मक लगाव भी बहुत अधिक होता है - जो की बच्चे के जीवन के लिए बहुत हद तक आवश्यक भी है ।

2. अंडे देकर उन्हें सेने वाले प्राणी : चिड़िया, मुर्गी, आदि - ये मादाएं अंडे देती हैं । परन्तु अंडे अपने आप में बच्चों को जन्म नहीं देते - माँ उन्हें सेती है (कभी कभी पिता भी ) जब अण्डों से बच्चे निकलते हैं - तो माता पिता (या दोनों) उन बच्चों का पालन पोषण करते हैं । ये प्राणी बहुत अधिक मात्रा में अंडे नहीं देते - क्योंकि बच्चों के जीवित रहने की संभावना अधिक है (क्योंकि माता पिता उनका रख रखाव, देख भाल कर रहे हैं)। किन्तु फिर भी अधिकतर एक साथ ही एक से अधिक बच्चों का जन्म होता है । भावनात्मक लगाव यहाँ भी बहुत है ।

3. अंडे देने वाली प्रजातियाँ जो अंडे नहीं सेतीं : तितलियाँ, मच्छर आदि - ये भी अंडे देते हैं - किन्तु ये अंडे की देखभाल आदि नहीं करते । अंडे अपने आप ही विकसित होते हैं और समय आने पर बच्चे निकल आते हैं । क्योंकि इन अण्डों / बच्चों की कोई देखभाल नहीं करने वाला है - इसलिए जीवित रहने की संभावनाएं कम हैं । सो एक तो ये प्रजातियाँ एक ही समय में बहुत अधिक संख्या में अंडे देती हैं, और अधिकतर अंडे किसी ऐसे सुरक्षित स्थान पर देती हैं जहाँ जीवित रहने की संभावना अधिक हो । परन्तु इसके आगे ये अपनी संतति के लिए कुछ नहीं करते ।


इन सभी केसेज़ में - जंतु या तो अपनी संतति के भोजन का इंतज़ाम खुद करते है (स्तनपायी) या फिर अंडे के भीतर almost perfectly सिर्फ उतना पोषक तत्व जमा होता है जितना उस भ्रूण के विकास होकर जन्म लेने तक के लिए काफी हो । यह मात्रा कभी भी आवश्यक से अधिक नहीं होती। तो इससे तो यही लगता है कि अंडे प्राकृतिक रूप से सिर्फ संतति के जन्म के लिए हैं - न कि मनुष्य या अन्य प्राणियों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए [ पढ़िए -  अंडे का क्रूर फंडा ]

यह आलेख शृंखला पढने के लिए आप सभी का आभार । आशा है यह उपयोगी हुआ हो । आभार ।
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सम्बंधित कड़ियाँ :                  

http://www.ncert.nic.in/NCERTS/textbook/textbook.htm?ghsc1=12-18 (पादपों में जनन - कक्षा 7 पाठ 12 - हिंदी में)
http://www.ncert.nic.in/NCERTS/textbook/textbook.htm?gesc1=12-18 (plant reproduction class 7-lesson 12 in english )
http://www.ncert.nic.in/NCERTS/textbook/textbook.htm?hhsc1=9-18 (जंतुओं में जनन - कक्षा 8 पाठ 9 - हिंदी में)
http://www.ncert.nic.in/NCERTS/textbook/textbook.htm?hesc1=9-18(animal reproduction - class 8 - lesson 9)

गुरुवार, 24 मई 2012

पादप एवं जंतु -2: पोषण का अंतर

पिछले भाग में हमने देखा कि पादपों और जंतुओं के कोशिकाओँ और ऊतकों में क्या फर्क है । इस भाग में हम पोषण के फर्क और समानता को समझने का प्रयास करते हैं । इसमें भी मैंने कई जगह से सामग्री ली है - किन्तु नीचे सिर्फ NCERT पुस्तकों के लिंक ही दे रही हूँ, जो कि (आठवी और सातवी कक्षा की ) स्कूली किताबें हैं, CBSE के विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम के लिए ।

भोजन हर जीव लिए आवश्यक है - जंतुओं के लिए भी, और पादपों के लिए भी। किन्तु इन दोनों में बहुत से फर्क हैं । पहली बात तो यह कि  जंतुओं को विचरण करना होता है - तो उनमे पेशियाँ होती हैं - और उन्हें ऊर्जा अधिक चाहिए । पादप एक स्थान पर स्थिर रहते हैं - सो उन्हें जंतुओं की तुलना में कम भोजन चाहिए, किन्तु भोजन चाहिए अवश्य। दूसरी बात यह कि, जंतुओं को विचरण करते हुए चोटिल होने की भी संभावना है, और हिल सकने की काबिलियत से उस चोट के स्रोत से दूर हटने / बचने भागने की भी । ये दोनों ही बातें पादपों में नहीं हैं । सो दर्द महसूस करने / खतरे के स्रोत को देखने / सूंघने / सुन पाने से अपने शरीर की रक्षा की संभावनाएं जंतुओं में अधिक हैं । इसिलिये तंत्रिका तंत्र (nervous system) अधिक विकसित होता है । हम इलेक्ट्रोनिक इंजीनियर्स जो artificial neural networks बनाते हैं, उसमे पढ़ते हैं की जीवों का तंत्रिका तंत्र कैसे सीखने की प्रक्रिया करता है । इसे विकसित होने के लिए feedback loop पूरा होना चाहिए - एक तरफा दर्द महसूस भर करने और उससे बच न पाने की स्थिति में यह पूरा नहीं हो पाता । हम मनुष्यों के doctors भी बताते हैं की कैसे, जिन बच्चों का दिमाग ठीक से विकसित नहीं हुआ हो - वे मानसिक कमजोरी के चलते धीरे धीरे अपनी उम्र के दूसरे बच्चों से शारीरिक रूप से भी पिछड़ जाते हैं - क्योंकि feedback लूप अधूरा होता है। 

अब आते हैं भोजन की आवश्यकता की आपूर्ति पर । यदि कोई जीव अपना भोजन स्वयं संश्लेषित (photosynthesis) कर सकते हैं - तो इस प्रक्रिया को स्वपोषण कहते हैं। यह सिर्फ वे पादप ही कर सकते हैं जिनमे क्लोरोफिल हो। जंतु यह नहीं कर सकते - वे पूरी तरह बाहरी स्रोतों पर निर्भर हैं पोषण के लिए। जंतुओँ को (और ऐसे पौधों को जो पोषण के लिए दूसरे पर निर्भर हैं) विषमपोषी कहते हैं।

पत्तियां पादपों की खाद्य फैक्टरियां हैं। यहाँ कुछ चित्र आप देख सकते हैं इस संश्लेषण की प्रक्रिया पर। कुछ पौधों में पत्तियां नहीं, बल्कि हरी टहनियां और तने भी संश्लेषण करते हैं । इनमे नन्हे छिद्र (रंध्र या stomata ) होते हैं - जिससे ये कार्बन डाई ओक्साइड भीतर लेते हैं और ओक्सिजन और पानी की भाप बाहर छोड़ते हैं । सूर्य से धूप (सौर ऊर्जा) मिलती है, और जडें मिटटी से पानी और खनिज सोखती हैं । हमारी रक्त धमनियों की तरह, जाइलम धरती से सोखे हुए खनिजों को ऊपर पत्तियों तक ले आती हैं । इसमें पत्तियों से सूखे हुए पानी का ऋणात्मक दबाव, और सर्फेस टेंशन (surface tension - सतही तनाव या खिंचाव ) मदद करते हैं । ये चित्र देखिये
 पत्ती की रचना (STRUCTURE OF LEAF) 

प्रकाश संश्लेषण (PHOTOSYNTHESIS)









यह प्रवाह (हमारे रक्त की तरह) दो तरफा नहीं, बल्कि एक तरफा है - सिर्फ नीचे से ऊपर की और। इसी तरह फ्लोएम पत्तियों में बने भोजन को पौधे में दूसरे भागों तक पहुंचाती हैं। दूसरे भागों में इस भोजन का उपयोग भी होता है - परन्तु कम मात्रा में ऐसा इसलिए है, क्योंकि पौधे स्थिर हैं तो उन्हें विचरण के लिए ऊर्जा नहीं चाहिए। अधिकतर बना हुआ भोजन एकत्रित और परिमार्जित किया जाता है, दूसरे जीवों के उपयोग लिए। पहले पत्तियां सिर्फ SIMPLE CARBOHYDRATE का उत्पादन करती हैं। बाद में इसका परिमार्जन कर के प्रोटीन आदि बनते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि पौधे सिर्फ दूसरे जीवों को भोजन देने भर के लिए हैं। सिर्फ कुछ -हिस्से - जिनमे अतिरिक्त भोजन जमा है - सिर्फ वही दुसरे जीवों के ग्रहण योग्य हैं, बाकी का पूरा पौधा नहीं। न ही ऐसा है की उस भाग को दुसरे जीव लें तो इससे उस पौधे की जीवन अवधि में कोई फर्क आये - क्योंकि ये भाग ऐसे हैं जिनके निकाले या काटे जाने से भी पौधे के जीवन पर प्रभाव नहीं पड़ेगा। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि पादप अपनी निजी ज़रुरत से बहुत अधिक भोजन का उत्पाद करते हैं - जो जीव साइकल का एक हिस्सा है।

यह अतिरिक्त भोजन इस तरह से संगृहित किया जाता है जिससे यह बिना पौधे को नुक्सान पहुंचाए दूसरे जीवों द्वारा ग्रहण किया जा सके । उदाहरण के लिए - पत्तियों में और घास में सेल्युलोज (CELLULOSE ) नामक स्टार्च है - जो गायें आदि (RUMINANT - रुमिनंट प्राणी ) खाती हैं और पचा सकती हैं (हम मनुष्य नहीं - हमारे पास इन्हें पचाने वाले अंग नहीं हैं - नीचे इसे समझाया गया है ) - किन्तु उनके खाने से वह पौधा मरता नहीं

इसी तरह से अतिरिक्त भोजन फल के गूदे में भी संगृहित किया जाता है - जिससे फल खाने वाले जंतु फल खाने के लिए पादप के स्थान से दूर ले जा सकें, और फल खाने के बाद उसके बीज को जनक पौधे से दूर स्थापित कर सकें यह एक तरह का मेहनताना जैसा समझा जा सकता है :)ऐसा इसलिए है कि, जंतु अपने बच्चे का पालन, पोषण, संरक्षण कर सकते हैं, क्योंकि वे विचरण कर सकते हैं। जंतु दूर से भोजन ला कर संतान को खिला सकते हैं, शत्रु जीवों को भगा कर / मार कर अपनी संतान की रक्षा कर सकते हैं। किन्तु पादपों के बारे में ऐसा नहीं है - क्योंकि वे विचरण कर ही नहीं सकते। यदि संतति भी वहीँ जन्मे जहां पैतृक पादप पहले से है, तो उसी जगह की मिटटी, धुप और हवा के लिए प्रतियोगिता हो, जिसकी वजह से नए पौधे का पनपना भी मुश्किल होगा और जनक पौधे को भी नुकसान होगा। अन्न आदि बीज के बारे में भी ऐसा ही है। एक पौधा एक से बहुत अधिक अन्नबीजों को बनाता है । वे सभी बीज वहीँ गिर जाएँ , तो कोई भी नहीं पनप सकेगा क्योंकि मिटटी में खनिज इसके लिए काफी नहीं होंगे। इस पूरी विधि पर अगले भाग (जंतुओं और पादपों में प्रजनन) में विस्तृत रूप से बात करूंगी।

सभी पौधे भोजन उत्पन्न नहीं करते। जिनमे chlorophyll ( पर्ण हरिमा ) न हो, या जिन्हें धूप न मिल पाती हो , या फिर जिन्हें कार्बन डाई ओक्साइड न मिले - ऐसे पौधे भी अपने पोषण के लिए बाहरी स्त्रोत पर निर्भर होते हैं। ऐसे पौधे जो स्वयं भोजन न बना पाएं वे भी अलग अलग प्रकार से भोजन प्राप्त करने के लिए विकसित हुए हैं। इनमे से कुछ परजीवी (parasitic ) हो जाते हैं (अमरबेल की तरह दूसरे पेड़ों आदि पर चढ़ कर उनसे भोजन प्राप्त करते हैं ), कुछ मृतजीवी (saprophytic ) होकर पहले से मृत जीवों/ जैव वस्तुओं (जैसे जूते का चमड़ा,ऊनी कपडे, रेशम) पर अपना पालन करते हैं (कुकुर मुत्ते और फंगस की तरह जो जो, सडती हुई ब्रेड आदि पर बनती है) और कुछ कीटभक्षी (insectivorous ) बन कर कीड़े मकोड़ों आदि को पकड़ कर खाते हैं।

स्वपोषी और विशमपोषी के अलावा कुछ पौधे परस्परजीवी भी हैं। जैसे दालों के पौधे (लिग्यूमनस = leguminous plants) । इन्हें नाइट्रोजन अधिक चाहिए - जड़ों के द्वारा सोखे जाने योग्य रूप में मिटटी में नाइट्रोजन । हवा में gas के रूप में जो नाइट्रोजन है - उसे ये प्रयुक्त नहीं कर सकते । सो इनकी जड़ों में कुछ विशिष्ट (रिज़ोबियम - rhizobium bacteria) बैक्टेरिया रहते हैं जो हवा के नाइट्रोजन को सोखे जाने लायक रूप में परिवर्तित करते हैं। बदले में उन्हें पौधे की जड़ों से विशिष्ट पोषण मिलता है।
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जंतुओं में पोषण की शैलियाँ  :

जैसे पौधे अलग-अलग पोषण शैलियों से अपना पोषण पाते हैं, उसी तरह जंतुओं में भी अलग-अलग प्रक्रियाएं हैं ।  घोंघा, चील, मच्छर, मधुमक्खी, अजगर, मनुष्य सब में पोषण विधियाँ अलग हैं। छीलना, चूसना, निगलना, चबाना, पचाना आदि ग्रहण  के अलग-अलग तरीके हैं ।

मैं यहाँ ख़ास तौर पर मनुष्य, शाकाहारी, और मांसाहारी जीवों की पोषण विधियों पर ही बात करूंगी। यह चित्र देखिये : (चित्र गूगल इमेजेस और edublogs से साभार )


1. छोटी अंत की लम्बाई : माँसाहारी प्राणियों में शरीर से तीन गुना के आस पास और शाकाहारियों में 12 गुना । मानवों में यह लम्बाई शाकाहारी जीवों जैसी है । 
2. मुंह: मांसाहारी जीवों (जैसे शेर) का मुंह उनके सर का अधिकतर भाग होता है - यानि की सर का आधे से अधिक भाग मुंह है - क्योंकि उन्हें शिकार को पकड़ना, जकड़ना, चीरना और फाड़ना है। शाकाहारी प्राणियों के सर का बहुत छोटा भाग होता है उनका मुख। मनुष्य में भी ऐसा ही है ।
3. शिकार करने योग्य विशिष्ट क्षमताओं वाला शरीर : मांसाहारी जीवों की शारीरिक संरचना हुई ही इस प्रकार से है कि  वे शिकार को पकड़ सकें - उनका शरीर एंड्यूरेंस में कम परंतु ताकत में भी आगे है और उनके नाखून, पंजे आदि भी शिकार करने के लिए बने हैं । मनुष्य को जंगल में शिकार करना हो - तो बिना जाल / हथियारों के संभव नहीं ।
4. हम , कच्चा मांस तो पचा ही नहीं पाते आमतौर पर, क्योंकि हमारा पाचनतंत्र उस तरह के रस (enzymes) नहीं बनाता । 
5. हमारे दाँतों की संरचना मांस को चीरने फाड़ने के लिए नहीं बनी है । सिर्फ चार ही canine teeth  हैं, वे भी मांसाहारी जीवों की तरह बड़े, तीखे और गहरी जड़ों वाले नहीं हैं । 
6. हम शाकाहारी जीवों की तरह कच्चा सेल्ल्युलोज़ भी (हरी घास और पत्तियों में एक विशेष कर्बोहाइड्रेट ) नहीं पचा सकते, क्योंकि हमारे पास  सीकम नहीं है (ऊपर चित्र  देखिये ), न  ही रुमन है ।
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सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली रचना माना गया है मानव। सो इस अग्रतम जीव की आपात स्थितियों में रक्षा/संरक्षण / survival के लिए, हमारे शरीर में शाक और मांस दोनों स्रोतों से पाया गया भोजन पचा सकने की क्षमता है तो अवश्य, किन्तु हमारे पाचन तंत्र की तुलना यदि शाकाहारी और मांसाहारी दोनों जीव जंतुओं से की जाए तो ऐसा लगता है कि मूल रूप से शाकाहार के लिए बना तंत्र, सिर्फ आपातस्थिति में जीवन यापन के लिए मांसाहार को पचाने की काबिलियत के अनुकूलित (adapted ) तो है, परन्तु दीर्घकाल में उसी पर जीने के लिए नहीं बनाया गया है ।

अगले भाग में पादपों और जंतुओं के प्रजनन प्रक्रियाओं पर बात करेंगे और जानेंगे कि प्रजनन में सफलता के लिए क्यों पादप अपनी आवश्यकता से अधिक भोजन बना कर संगृहीत करते हैं और क्यों जंतुओं के शरीर ऐसा नहीं करते ।

पढने के लिए आप सभी का आभार ।

यदि यह कुछ ज्यादा जटिल हो रहा हो - तो टिप्पणियों में बताइये - अगले भाग में कम गहराई में जाऊंगी। आभार ।
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सम्बंधित कड़ियाँ 
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शुक्रवार, 18 मई 2012

पादप एवं जंतु -1: शारीरिक संरचना में अन्तर


पौधों और जंतुओं में शारीरिक संरचना में फर्क : एक वैज्ञानिक तुलना 
कई बार, कई जगह, कई लोगों को, कहते सुना है कि - 
पौधों में भी जीव है / शाकाहार में भी हिंसा है / श्री बोस ने प्रमाणित किया है ..... आदि आदि | इस ही सम्बन्ध में यह पोस्ट लिख रही हूँ | एक वैज्ञानिक तुलना, कि क्या दोनों प्रकार के आहार सामान्य / बराबरी से हिंसाकारक कहे जा सकते हैं ?

पौधों और जंतुओं के ऊतक (tissues) और कोशिकाएं (cells ) एक सामान नहीं होते हैं | ncert की पाठ्य पुस्तिकाएं देखिये - आठवी ओर नवी कक्षा की विज्ञान की किताबें - ऑनलाइन उपलब्ध है (कड़ियाँ नीचे दी गयी हैं ) 

यहाँ कोशिकाओं और ऊतकों के बारे में समझाते हुए कहा गया है कि एक समान आकृति की कोशिकाएं (cells) एक समूह में एक ऊतक (tissue ) बनाती हैं जो एक प्रकार का कार्य करते हैं | वहां से कुछ जानकारी 

"
क्या पौधों और जंतुओं की संरचनाएं समान हैं? नहीं | दोनों में स्पष्ट अंतर है |

पौधे स्थिर होते हैं - विचरण नहीं करते | सो इनके अधिकाँश ऊतक सहारा देने वाले होते हैं | ये पौधे को संरचनात्मक शक्ति देते हैं | ऐसे अधिकाँश ऊतक मृत होते हैं | ये मृत ऊतक जीवित ऊतकों के ही सामान यांत्रिक शक्ति (mechanical strength ) देते हैं, और इन्हें संरक्षण की आवश्यकता कम है |

 जंतु विचरण करते हैं इसलिए उनकी ऊर्जा उतनी अधिक व्यय होती है जितना भार अधिक हो | तो मृत ऊतकों को ढोना अतिरिक्त ऊर्जा व्यय करेगा - सो अधिकतर जीवित ऊतक हैं |
"   
किस किस तरह की ऊतक हैं पौधों और जंतुओं में ? इनमे भी classes हैं | 

१  पेशीय कोशिका (muscle ) - फैलने सिकुड़ने का काम - विचरण के लिए | जाहिर है कि पौधों को विचरण नहीं करना, सो पेशियों की आवश्यकता नहीं है | इसलिए इस तरह के ऊतक जंतुओं में होते हैं, किन्तु पौधों में नहीं होते । 

२. तंत्रिका कोशिका (nerves ) सन्देश ले जाने के लिए - दो तरह के सन्देश - एक शरीर  के विभिन्न अंगों से मस्तिष्क की ओर, ओर दूसरे मस्तिष्क से अंगों की ओर | {जैसे आपने कहीं जलते तवे पर हाथ रखा - तो पहले तरह की nerves यह सन्देश ले जायेंगी कि दर्द हुआ, और फिर दूसरी nerves दिमाग से हाथ को यह सन्देश लायेंगी कि पेशियाँ सिकुडें और हाथ तुरंत हटाया जाए |} | 

    शोध चल रही है कि पौधों में भी दर्द आदि के अनुभव करने के लिए तंत्रिका ऊतक हैं - परन्तु शोध अधूरी ही है | मस्तिष्क की खोज तो हुई ही नहीं है | किन्तु वैज्ञानिकों का मानना है कि इलेक्ट्रोनिक यंत्रों में जिस प्रकार "सेंसर" और "फीडबैक" होता है, सिस्टम को असामान्य स्थिति में स्वयं को विनष्ट होने से बचाने के लिए (जैसे यदि स्टील बनाने के लिए आयरन ओर  पिघलाने वाली फर्नेस का तापमान अधिक हो रहा है तो सेंसर यह फीडबैक माइक्रो कंट्रोलर को देंगे, जो तुरंत यंत्र को बचने के लिए बिजली बंद करेगा आदि) इसी तरह हमारे शरीर में nervous system दर्द की अनुभूति करता कराता है हमें चोट से बचाने के लिए | जब तंत्रिकाएँ दर्द के स्त्रोत का अनुभव करती हैं , वे मस्तिष्क तक यह खबर ले जाती हैं, और मस्तिष्क पेशियों को आदेश देता है कि चोट की जगह से दूर हटा जाए | 

    क्योंकि पौधे हट तो सकते नहीं (पेशियाँ नहीं हैं ) तो सिर्फ एकतरफा दर्द का अनुभव उनकी फीडबैक लूपको पूर्ण नहीं होने देता । और अधूरा लूप - सिर्फ सेंसर्स का होना, मस्तिष्क और पेशियों का अभाव कुछ लोजीकल नहीं लगता | फिर से कहूँगी - शोध चकल रही है - नतीजे नहीं हैं - किन्तु लोजिकल दृष्टि से यही प्रतीत होता है । 

३. वाहक/संयोजक कोशिकाएं - जंतुओं के शरीर में रक्त ओर धमनियां ओर दिल - ये शरीर में हजम हुआ भोजन, ओक्सिजन, आदि इधर से उधर ले जाने लाने का काम करते हैं । दिल रक्त को पम्प करता है - और धमनियों में बहता हुआ रक्त, फेफड़ों (lungs) से ऑक्सीजन , अंतड़ियों से पचा हुआ भोजन आदि शरीर में प्रवाहित करता है ।  
   
   धमनियों जैसी कोशिकाएं पौधों में भी हैं | जैसे हमारे शरीर में रक्त धमनियां (arteries and veins ) हैं, पौधों में xylem  (जाइलेम) ओर phloem (फ्लोएम ) हैं | ये दो काम करती हैं । एक तो ये (जाइलेम) जड़ों द्वारा जमीन से सोखा हुआ पानी और खनिज (minerals ) ऊपर को ले जाती हैं, दूसरा (फ्लोएम पत्तियों में बना भोजन पौधे के अन्य भागो को ले जाती हैं ।  इनमे अधिकतर मृत कोशिकाओं के रेशे हैं । 

   ध्यान देने वाली बात है कि  पौधे में दिल नहीं होता - न रक्त होता है । इनमे ऊपर जाने वाला द्रव्य ऊपर जाने की प्रक्रिया कुछ लम्बी है - साधारण शब्दों में यह (जाइलेम) ऐसे काम करती है :
   
   capilary action का अर्थ है - बहुत ही पतली ट्यूबों में द्रव्य का खुद बी खुद प्रवाहित होंना - यह surface tension से होता है । कुछ वैसा ही जैसे कपडा एक जगह पानी में या स्याही में छू जाए - तो वह स्याही/ पानी  खुद ही ऊपर को चढ़ता है - उसे पम्प करने की आवश्यकता नहीं होती । तो इस प्रक्रिया से पानी जड़ों से ऊपर को चढ़ने लगता है । इसके अलावा एक और phenomenon  इसमें योगदान करता है - जिसे कहते हैं transpiration  । इसका अर्थ है - पत्तियों के बेहद महीन छेदों से पानी का भाप बन कर सूखना - जिससे ऋणात्मक दबाव बनता है और पानी नीचे की तरफ से ऊपर की और खिंचता है ।

     और बने हुए भोजन को दुसरे भागों तक ले जाने का काम करती है फ्लोएम - जो osmosis  (जैसे की आजकल reverse  osmosis वाले water purifiers में होता है ) से काम करती हैं । 

४. वृद्धि (growth / merismatic) कोशिकाएं  जहां एक ओर पादपों के शरीर की कुछ ही कोशिकाएं वृद्धि करती हैं (जैसे टहनी का अंतिम भाग, जड़ का अंतिम भाग ) इसे merismatic tissue (विभज्योतक ऊतक ) कहते हैं | वहीँ जंतुओं के शरीर की हर कोशिका जीवित है ओर बढती है (cell division ) | 
नीचे कोशिकाओं के चित्र हैं - ncert से साभार |
   


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आप देख सकते हैं कि पादप कोशिका का अधिक भाग vacuole (रिक्तिका) है - जो पौधे द्वारा बनाए अतिरिक्त भोजन को सहेज कर रखने का स्थान देता है | 

जैसा पहले भी कहा गया है - क्योंकि पौधे विचरण नहीं करते - उनके अधिकाँश ऊतक मृत हैं - जो उसे यांत्रिक शक्ति तो देते हैं - किन्तु उन्हें संरक्षण की आवश्यकता नहीं होती ।

५. फिर जंतुओं के शरीरों की कई अंग प्रणालियाँ हैं - जैसे digestive system (पाचन तंत्र) , respiratory system (श्वसन प्रणाली) , excretary system (उत्सर्जन संबंधी) आदि | इनमे से हर प्रणाली पादपों में नहीं होती क्योंकि उन्हें इसकी आवश्यकता ही नहीं होती | हाँ प्रजनन तंत्र (reproductory system पादपों और जंतुओं दोनों में है, और करीब करीब एक सा ही है - जिसके हिस्से हैं पादपों के बीज (जिनमे अन्न भी हैं ) , फल और फूल | जिन पौधों से फल लिया जाता है - उनके बारे में भी कहा जाता है कि हम फल लेकर पौधे को "दर्द" दे रहे हैं, क्रूरता या हिंसा कर रहे हैं | इस विषय में इस तीन पोस्ट्स की शृंखला की आगे की पोस्टस  में विस्तार से बात करूंगी | यहाँ इस सिलसिले में इतना ही कहूँगी : अन्न देने वाले पौधे अन्न के तैयार होने तक अपनी जीवन यात्रा समाप्त कर चुके होते हैं | पौधे को काटने में कोई हिंसा नहीं होती क्योंकि वह जीवन विहीन हो ही चुका होता है (याद दिला दूं कि पौधों में सिर्फ बढ़ते स्थान पर जीवित merismatic tissue है, बाकी की कोशिकाएं पहले ही मृत कोशिकाएं हैं - सो जो पौधा काटा जा रहा है अन्न लेने के लिए - वह पहले ही मृत है )

तो जैविक वैज्ञानिक तौर पर किये अध्ययन भी यही दिखाते हैं कि पौधों की संरचना में कुछ ऊतक (जैसे फलों का गूदा ) पौधे द्वारा बनाया अतिरिक्त भोजन जमा करने और दूसरे प्राणियों को भोजन देने के ही लिए ख़ास तौर पर specialised है, जबकि जंतुओं के बारे में ऐसा नहीं है |

शायद इस जानकारी से आपको निर्णय लेने में सहायता मिले कि शाकाहारी भोजन हमारे लिए बेहतर choice है , या मांसाहारी भोजन |  आभार ।

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सम्बंधित कड़ियाँ - ( कोशिकाएं और ऊतक - cells and tissues )