निरामिष-आहार, निर्मल-विचार, निर्दोष-आचार, निरवध्य-कर्म, निरावेश-मानस।
अहिंसा जीवन का आधार है, सहजीवन का सार है और जगत के सुख और शान्ति का एक मात्र उपाय है। अहिंसा के कोमल और उत्कृष्ट भाव में समस्त जीवों के प्रति अनुकम्पा और दया छिपी है। अहिंसा प्राणीमात्र के लिए शान्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। स्पष्ट है कि किसी भी जीव को हानि पहुँचाना, किसी प्राणी को कष्ट देना अनैतिक है। यूँ तो सभी धार्मिक सामाजिक परम्पराओं में जीवन का आदर है परंतु "अहिंसा परमो धर्मः" का उद्गार भारतीय संस्कृति की एकमेव अभिन्न विशेषता है। अपौरुषेय वचन के तानेबाने अहिंसा, प्रेम, करुणा और नैतिकता के मूल आधार पर ही बुने गये हैं।
चूँकि आहार जीवन की एक मुख्य आवश्यकता है, इसलिये अहिंसा भाव का प्रारंभ आहार से ही होता है और हम अपना आहार निर्वध्य रखते हुए सात्विक निर्दोष आहार की ओर बढते हैं तो हमारे जीवन में सात्विकता प्रगाढ होती है। इसीलिये "निरामिष" आहार पर हमारा विशेष आग्रह है। जीवदया का मार्ग सात्विक आहार से प्रशस्त होता है। ज्ञातव्य है कि कुछ लोगों के लिये भोजन भी एक अति-सम्वेदनशील विषय है यद्यपि सभ्य समाज में हिंसा को सही ठहराने वाले लोग मांसाहारियों में भी कम ही मिलते हैं। सिख, बौद्ध, हिन्दू, जैन समुदाय में तो शाकाहार सामान्य ही है परंतु इनके बाहर भी कितने ही ईसाई, पारसी और मुसलमान शुद्ध शाकाहारी हैं जो जानते बूझते किसी प्राणी को दुख नहीं देना चाहते हैं, स्वाद के लिये हत्या का तो सवाल ही नहीं उठता। इस प्रकार हम देखते हैं कि अहिंसा जैसे दैवी गुण धर्म, क्षेत्र, रंग, जाति भेद आदि के बन्धनों से कहीं ऊपर हैं। जब यह कोमल भाव हमारे अन्तर में दृढभूत हो जाते हैं तब मानव की मानव के प्रति हिंसा भी रुकती है जो कि आज संसार भर में एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है।
आज कई मांसाहार प्रचारक अपने निहित स्वार्थों, व्यवसायिक हितों, या धार्मिक कुरीतियों के वशीभूत होकर अपना योजनाबद्ध षड्यंत्र चला रहे हैं। वस्तुतः कुसंस्कृतियाँ सामिष आहार के माध्यम से ही आक्रमण करने को तत्पर है। न केवल विज्ञान के नाम पर भ्रामक और आधी-अधूरी जानकारियाँ दी जा रही हैं, बल्कि अक्सर धर्मग्रंथों की अधार्मिक व्याख्यायें भी इस उद्देश्य के लिये प्रचार माध्यमों से फैलाई जा रही हैं। यह सब हमारी अहिंसक संस्कृति को दूषित कर पतित बनाने का प्रयोजन है। ऐसे सामिष प्रचारी 'हर आहार के प्रति सौहार्द', 'आहार चुनाव की स्वतंत्रता', व 'आवेश उत्थान शक्ति' आदि भ्रांत तर्कों के माध्यम से प्रभावित करते नज़र आते है। हमारी नवपीढी सामिष दुष्प्रचार की शिकार हो रही है। कहीं अधिक पोषण का झांसा दिया जा रहा है तो कहीं स्वास्थ्य का, कही खाद्य अभाव का रोना रोया जाता है और कभी स्टेटस सिंबल का प्रलोभन। जबकि उसके पीछे सच्चाई का अंश भी नहीं है।
‘निरामिष’ सामुदयिक ब्लॉग एक जागृति अभियान है, एक दयावान, करूणावान ‘निरामिष समाज’ के निर्माण का। हमारा मुख्य प्रयोजन, जगत में शान्ति के उद्देश्य से अहिंसा भाव के प्रसार का है। मनुष्य के हृदय में अहिंसा भाव परिपूर्णता से स्थापित नहीं हो सकता जब तक उसमें निरीह जीवों पर हिंसा कर मांसाहार करने का जंगली संस्कार विद्यमान हो। शाकाहार समर्थन के लिए लोकहित में यहां तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ लेख उपलब्ध होंगे। हमारी निष्ठा सत्य और अहिंसा के प्रति है। हमारा प्रयत्न यहाँ पर अहिंसा और जीवदया के उस गौरव को पुनर्स्थापित करना है जो सदा से भारतीय संस्कृति की आधारशिला रहा है। "निरामिष" पर उपलब्ध सभी सामग्री न केवल श्रमसाध्य है बल्कि हमारी विशेष निष्ठा इस बात पर है कि यहाँ केवल विश्वसनीय सामग्री ही उपलब्ध हो।
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