वेद का अर्थ ज्ञान होता है. वेद को ज्ञान का सर्वोच्च शिखर भी कहा जाता है . और ज्ञान ही ब्रह्म का स्वरुप है. इस तरह वेद और परमात्मा भिन्न नहीं है . और परमात्मा के लिए उपनिषद कहतें है ----
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते।।
जैसे ब्रह्म अनवद्य और अनामय है, वैसे ही वेद भी है; अतः वेद में कोई ऐसी बात नहीं हो सकती जो मनुष्य के लिए परम कल्याणमयी न हो. जब ब्रह्म ही शांत और शिवरूप है तब उसी का ज्ञान वेद अशिवरूप कैसे हो सकता है ?
कोई भी सामान्य विचारशील आदमी भी विवेक का उपयोग करे तो उसे जीव हिंसा अनुचित लगने लगती है . यहाँ तक की मांसाहारी लोग भी अगर पशुओं को निर्ममतापूर्वक काटे जाते हुए देख लें तो शायद ज्यादातर मांसाहारी जो की परंपरा से मांसाहारी नहीं है मांसाहार करना छोड़ दें. सामान्य संवेदना भी जिसमें है वह भावनाशील व्यक्ति भी किसी की हिंसा करना तो दूर रहा उसे देखना भी पसंद नहीं कर सकता. ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि सामान्य भावशीलता के रहते जो कर्म अनुचित लगता है, उस कर्म का समर्थन, उद्दात्त और स्वाभाव से ही प्राणिमात्र के कल्याण की कामना करने वाली भारतीय संस्कृति के आधार-ग्रंथों में किस प्रकार हो सकता है.
बहुत से मतवादी लोग वेद पर आक्षेप लागतें है कि वेदों में यज्ञ के लिए पशुहिंसा की विधि है. कहने की आवश्यकता नहीं कि गीता अध्याय सोलह में वर्णित प्रकृति के लोग ही मांस और अश्लीलता के सेवक होते है. और अधिकांशतया ऐसे ही लोगों ने अर्थ का अनर्थ करके वेदों के विषय में अपने सत्यानाशी मत का प्रचलन किया है.
यहाँ यह भी उतना ही सत्य है कि कुछ परम आदरणीय आचार्यों और महानुभावों ने भी किन्ही किन्ही शब्दों का मांस-परक अर्थ किया है. इसका सबसे प्रधान कारण यह है कि उनमें से अधिकाँश परमार्थवादी साधक थे. गूढ़ आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विषयों पर विशेष द्रष्टि रखकर उनका विषद अर्थ करने पर उनका जितना ध्यान था, उतना लौकिक विषयों पर नहीं था. इसलिए उन्होंने ऐसे विषयों का वही अर्थ लिख दिया है जो देश की परिस्थिति विशेष में उस समय अधिकाँश में प्रचलित था.
लेकिन इसका मतलब बिलकुल भी यह नहीं है कि वेद में यह अनाचार निर्दिष्ट है. कारण वही कि वेद साक्षात ब्रह्म का स्वरुप होने से पूर्ण है तथा उनको समझने का प्रयत्न करने वाला जीव अपूर्ण तथा अल्पज्ञ .
वेद की पूर्णता का ज्ञान इस हानिकर तथ्य से भी होता है कि असुर प्रकृति के वैचारिक भी अपने मत के स्थापन के लिए वेद को ही प्रमाण बतलातें है और प्रथम द्रष्टतया यह प्रमाणिक भी भासता है.
पर ऋषियों ने वेदार्थ को समझने के लिए कुछ पदत्तियाँ निश्चित की हैं; उन्हीके हिसाब से चलकर ही हमें श्रद्धापूर्वक वेदार्थ को समझने की साधना करनी चाहिये
देवसंस्कृति के मर्मज्ञ ऋषियों ने इसी कारण से वेदाध्ययन करने वालों के लिए दो तत्व अनिवार्य बताए हैं—श्रद्धा एवं साधना. श्रद्धा की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि आलंकारिक भाषा में कहे गए रूपकों के प्रतिमान—शाश्वत सत्यों को पढ़कर बुद्धि भ्रमित न हो जाय. साधना इस कारण आवश्यक है कि श्रवण-मनन-निदिध्यासन की परिधि से भू ऊपर उठकर मन ‘‘अनन्तं निर्विकल्पम्’’ की विकसित स्थिति में जाकर इन सत्यों का स्वयं साक्षात्कार कर सके. मंत्रों का गुह्यार्थ तभी जाना जा सकता है.
ऋग्वेद में लिखा है -- ' यज्ञेन वाचं पदवीयमानम्' अर्थात समस्त वेदवाणी यज्ञ के द्वारा ही स्थान पाती है. अतः वेद का जो भी अर्थ किया जाये, वह यज्ञ में कहीं-न-कहीं अवश्य उपयुक्त होता हो- यह ध्यान रखना आवश्यक है. वेदार्थ के औचित्य की दूसरी कसौटी है ---
'बुद्धिपूर्वा वाक्प्रकृतिर्वेदे' (वैशेषिकदर्शन)
'बुद्धिपूर्वा वाक्प्रकृतिर्वेदे' (वैशेषिकदर्शन)
अर्थात वेदवाणी की प्रकृति बुद्धिपूर्वक है. वेदमंत्र का अपना किया हुआ अर्थ बुद्धि के विपरीत न हो - बुद्धि में बैठने योग्य हो, इस बात पर भी ध्यान रखने की जरुरत है. साथ ही यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि हमने जो अर्थ किया है, वह तर्क से सिद्ध होता है या नहीं. स्म्रतिकार भी कहतें है - ''यस्तर्केणानुसन्ध्त्ते स धर्मं वेद नापरः'
' जो तर्क से वेदार्थ का अनुसंधान करता है, वही धर्म को जानता है, दूसरा नहीं' अतः समुचित तर्क से समीक्षा करना वेदार्थ के परिक्षण का तीसरा मार्ग है.
चौथी रीति यह है कि इस बात पर नज़र रखी जाए कि हमारा किया हुआ अर्थ शब्द के मूलधातु के उलट तो नहीं है; क्योंकि निरुक्तकार ने धातुज अर्थ को ही ग्रहण किया है . इन चारों हेतुओं को सामने रखकर यदि वेदार्थ पर विचार किया जाये तो भ्रम कि संभावना नहीं रहती है ऐसा महापुरषों ने निर्देशित किया है.
संस्कृत भाषा की वैदिक और लौकिक इन दो शाखाओं में से वेद की भाषा प्रथम शाखा के अंतर्गत है.
वेद कि भाषा अलौकिक है और इसके शब्दरूपों में लौकिक संस्कृत से पर्याप्त अंतर है. इसलिए वेदों में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ में अनेक भ्रांतियां भी है.
वैदिक शब्दों के गूढ़ अर्थों के स्पस्थिकरण के लिए 'निघंटु' नाम के वैदिक भाषा के शब्दकोष की रचना हुई तथा अनेक ऋषियों ने 'निरुक्त' नाम से उसके व्याख्या-ग्रन्थ लिखे.
महर्षि यास्क ने अपने निरुक्त में अट्ठारह निरुक्तों के उद्धरण दियें है. इससे पता चलता है कि गूढ़ वैदिक शब्दों कि अर्थाभिव्यक्ति के लिए अट्ठारह से ज्यादा निरुक्त-ग्रंथों कि रचना हो चुकी थी.
वेदार्थ निर्णय में महर्षि यास्क ने अर्थगूढ़ वैदिक शब्दों का अर्थ प्रकृति-प्रत्यय-विभाग की पद्दति से स्पष्ट किया है.
इस पद्दति से अर्थ के स्पष्ठीकरण में यह सिद्ध करने का उनका प्रयास रहा है कि वेदों में भिन्नार्थक शब्दों के योग से यदि मिश्रित अर्थ की अभिव्यक्ति होती है तो गुण-धर्म के आधार पर एक ही शब्द विभिन्न सन्दर्भों में विभिन्न अर्थों का द्योतन करता है.
उदहारण के लिए निरुक्त के पंचम अध्याय के प्रथम पाद में 'वराह' शब्द का निर्वचन दृष्टव्य है.
संस्कृत में 'वराह' शब्द शूकर के अर्थ में ही प्रयुक्त है, पर वेदों में यह शब्द कई भिन्न अर्थों में भी प्रयुक्त है. जैसे --
१. 'वराहो मेघो भवति वराहार:'
----- मेघ उत्तम या अभीष्ट आहार देने वाला होता है, इसीलिए इसका नाम 'वराह' है.
२. 'अयाम्पीतरो वराह एतस्मादेव। वृहति मूलानि। वरं वरं मूलं वृह्तीति वा।' 'वराहमिन्द्र एमुषम्'
----- उत्तम-उत्तम फल, मूल आदि आहार प्रदान करने वाला होने के कारण पर्वत को भी 'वराह' कहतें है.
३. ' वरं वरं वृहती मूलानी'
----- उत्तम-उत्तम जड़ों या औषधियों को खोदकर खाने के कारण शूकर 'वराह' कहलाता है.
हिंदी में 'गो' शब्द गाय के अर्थ में ही प्रयुक्त है पर संस्कृत में गाय और इन्द्रिय के अर्थ में प्रयुक्त है. वही वेदों में 'गो' गाय तथा इन्द्रिय के अर्थ में तो है ही, महर्षि यास्क के अनुसार 'गौर्यवस्तिलो वत्सः' अर्थात गो 'यव' के और तिल 'वत्सः' के अर्थ में भी प्रयुक्त है.
सभी जानतें है, कि लगभग सभी भाषाओँ में अनेकार्थी शब्द होतें है. काव्य में उनका अलंकारिक प्रयोग भी किया जाता है और सहज रूप से भी वे भाषा में प्रयुक्त होते रहतें है. उनका सन्दर्भ के अनुरूप कोई एक अर्थ ही निकाला जाता है. दूसरा अर्थ निकालना अपने अज्ञान या भाषा के प्रति अन्याय का ही प्रमाण होता है.
तर्क और बुद्धि से भी यही बात मालूम होती है की वेद हिंसात्मक या अनाचारात्मक कार्यों के लिए आदेश नहीं दे सकतें है. यदि कहीं कोई ऐसी बात मिलती भी है तो वह अर्थ करने वालों की ही भूल है .
प्राय यज्ञ में पशुवध की बात बड़े जोर शोर से उठायी जाती है. पर यज्ञ के ही जो प्राचीन नाम मिलतें है, उनसे यह सिद्ध हो जाता है की यज्ञ सर्वथा अहिंसात्मक ही होते आयें है.
निघंटु में यज्ञ के १५ नाम दियें है -
१. यज्ञ --- यह यज् घातु से बना है. यज् देवपूजा-संगतिकरण-दनेशु- यह सूत्र है. देवों का पूजन अर्थात श्रेष्ठ प्रवृति वालों का सम्मान अन्सरन करना , प्रेमपूर्वक हिलमिल कर सहकारिता से रहना यज्ञ है.
२. वेनः --- वें-गति-ज्ञान-चिंता-निशामन वादित्र- ग्रहणेषु अर्थात गति देने, जानने, चिंतन करने, देखने, वाध्य बजने तथा ग्याहन करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है.
३. अध्वर: --- 'ध्वरति वधकर्मा ' 'नध्वर:' इति अध्वर' - अर्थात हिंसा का निषेध करने वाला . इस संबोधन से भी स्पष्ट होता है कि हिंसा का निषेध करने वाले कर्म के किसी अन्य नाम का अर्थ भी हिन्सापरक नहीं हो सकता है. सभी जानतें है की यज्ञ कर्म में भूल से भी कोई कर्मी-कीट अग्नि से मर ना जाये इसके लिए अनेक सावधानियां बरती जाती है. वेदी पर जब अग्नि की स्थापना होती है तो उसमें से थोड़ी सी आग निकालकर बाहर रख दी जाती है कि कहीं उसमें 'क्रव्याद' (मांस-भक्षी या मांस जलाने वाली आग ) के परमाणु न मिल गएँ हो, इसके लिए 'क्रव्यादांशं त्यक्त्वा' होम की विधि है.
४. मेध: --- मेधृ- मेधा, हिंसनयो: संगमे च --- मेधा(बुद्धि) का संवर्धन, हिंसा और संगतिकरण इसके अर्थ है. अब जब यह यज्ञ अर्थात अध्वर: का पर्यायवाची संबोधन है तो यज्ञीय सन्दर्भ में इसका अर्थ हिन्सापरक लेना सुसंगत किस तरह होगा ?
५. विदध् -- विद ज्ञाने सत्तायाम, लाभे, विचारणे, चेतना-आख्यान-निवासेषु।
६. नार्यः --- नारी 'नृ -नये' मनुष्यों के नेतृत्व के लिए, उन्हें श्रेष्ट्र मार्ग पर चलने के अर्थ में प्रयुक्त होता है.
७. सवनम् --- सु-प्रसवे-एश्वर्यो: ---- प्रेरणा देना, उत्पन्न कर्ण और प्रभुत्व प्राप्त करना.
८. होत्रा--- हु-दान-आदानयो:, अदने -- सहायता देना, आदान-प्रदान करना एवं भोजन करना इसके भाव है.
९. इष्टि , १०. मख: , ११. देव-ताता , १२. विष्णु , १३. इंदु , १४. प्रजापति , १५. घर्म:
उक्त सभी संबोधनों के अर्थ देखने से भी यही निष्कर्ष निकलता है की यज्ञ में हिंसक कर्मों का समावेश नहीं है. एक सिर्फ मेध शब्द का एक अर्थ हिंसापरक है लेकिन यज्ञीय सन्दर्भ में उसकी संगती अन्य पर्यायवाची शब्दों के अनुसार ही होगी ना कि अनर्थकारी असंगत हत्या के अर्थ में.
यहाँ थोडा विचार आलभन और बलि शब्दों पर भी कर लेना चाहिये.
आलभन का अर्थ स्पर्श, प्राप्त करना तथा वध करना होता है. पर वैदिक सन्दर्भ में इसका अर्थ वध के सन्दर्भ में असंगत बैठेगा जैसे कि ---
'ब्राह्मणे ब्राह्मणं आलभेत'
' क्षत्राय राजन्यं आलभेत'
इसका सीधा अर्थ होता है ' ब्राह्मणत्व के लिए ब्राह्मण को प्राप्त करें, उसकी संगती करें और शौर्य के लिए क्षत्रिय को प्राप्त करें उसकी संगती करें.
पर यदि आलभेत का अर्थ वध लिया जाये तो बेतुका अर्थ बनता है, ' ब्राह्मणत्व के लिए ब्राह्मण तथा शौर्य के लिए क्षत्रिय का वध करें'
बलि --- इस शब्द का अर्थ भी वध के अर्थ में निकाला जाने लगा है , जबकि वास्तव में सूत्र है -- बलि-बल्+इन् , अर्थात आहुति,भेंट, चढ़ावा तथा भोज्य पदार्थ अर्पित करना.
हिन्दू ग्राहस्थ के नित्यकर्मों में 'बलि वैश्व देवयज्ञ' का विधान है. इसमें भोजन का एक अंश निकालकर उसे अग्नि को अर्पित किया जाता है, कुछ अंश निकालकर पशुपक्षियों व चींटियों के लिए डाला जाता है . बलि कहलाने वाली इस क्रिया में किसी जीव का वध दिखाई देता है या दुर्बल जीवों को भोजन द्वारा बल-पोषण देना दिखाई देता है ?
स्पष्ट है 'बलि' बलिवैश्व के रूप में अर्पित अन्नादि ही है. बलि का अर्थ 'कर-टैक्स' भी होता है.
रघुवंश महाकाव्य में राजा दिलीप की शाशन व्यवस्था का वर्णन करते हुए कहा गया है ----
प्रजानेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत
सहस्रगुणमुत्स्रष्ठुम आदत्ते हि रसं रवि:
यहाँ भी बलि का प्रचलित अर्थ किया जाय को कैसा रहेगा ?????
श्राद्ध कर्म में गोबली, कुक्कुर बलि, काकबलि, पिपिलिकादी बलि, का विधान है उसमें गौ, कुत्ता, कौआ और चींटी के लिए श्रद्धापूर्वक भोज्यपदार्थ अर्पित किया जाता है ना कि उनके वध किया जाता है.
वृहत्पाराषर में कहा गया है कि श्राद्ध में मांस देने वाला व्यक्ति मानो चन्दन की लकड़ी जलाकर उसका कोयला बेचता है. वह तो वैसा ही मूर्ख है जैसे कोई बालक अगाध कुँए में अपनी वस्तु डालकर उसे वापस पाने की इच्छा करता है.
श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि न तो कभी मांस खाना चहिये, न श्राद्ध में ही देना चहिये.
वेदों की तो यह स्पष्ट आज्ञा है कि--- "मा हिंस्यात सर्व भूतानि " (किसी भी प्राणी की हिंसा ना करे).
जारी .......
रघुवंश महाकाव्य में राजा दिलीप की शाशन व्यवस्था का वर्णन करते हुए कहा गया है ----
प्रजानेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत
सहस्रगुणमुत्स्रष्ठुम आदत्ते हि रसं रवि:
यहाँ भी बलि का प्रचलित अर्थ किया जाय को कैसा रहेगा ?????
श्राद्ध कर्म में गोबली, कुक्कुर बलि, काकबलि, पिपिलिकादी बलि, का विधान है उसमें गौ, कुत्ता, कौआ और चींटी के लिए श्रद्धापूर्वक भोज्यपदार्थ अर्पित किया जाता है ना कि उनके वध किया जाता है.
वृहत्पाराषर में कहा गया है कि श्राद्ध में मांस देने वाला व्यक्ति मानो चन्दन की लकड़ी जलाकर उसका कोयला बेचता है. वह तो वैसा ही मूर्ख है जैसे कोई बालक अगाध कुँए में अपनी वस्तु डालकर उसे वापस पाने की इच्छा करता है.
श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि न तो कभी मांस खाना चहिये, न श्राद्ध में ही देना चहिये.
वेदों की तो यह स्पष्ट आज्ञा है कि--- "मा हिंस्यात सर्व भूतानि " (किसी भी प्राणी की हिंसा ना करे).
जारी .......
अतिसुन्दर विवेचना...
जवाब देंहटाएंसाधुवाद...आभार...
अमित जी,
जवाब देंहटाएंवेदों पर हिंसा का आरोपण करके, ये लोग वेदों को अहिंसा के सर्वोच्छ सिद्धांत शिखर से उतारने को तत्पर बने है। आपका प्रयास वंदनीय है। ऐसे ही भ्रमखण्डन से शुद्ध-वेदों की रक्षा होगी। और हमारी संस्कृति अपना विशिष्ठ स्थान कायम भी रहेगा।
ऋषि दयानंद ने इस दिशा में ठोस प्रयास किए और उनके सुपरिणाम भी निकले।
जवाब देंहटाएंयज्ञों में विभिन्न पशुओं की बलि दिए जाने की बात मान लेने के कारण ही उन्हें संपन्न करना कठिन होता गया अन्यथा यज्ञ आज भी संपन्न किए जा सकते हैं।
अमित जी,
जवाब देंहटाएंइस सुन्दर आलेख के लिये साधुवाद स्वीकारें। अपौरुषेय वेदत्रयी हो या भारतीय परम्परा के अन्य ग्रंथ, हमारे मनीषियों ने सदा जीवन का आदर और कण कण में परमेश्वर का अंश देखने की शिक्षा दी है। अब यह हम पर है कि हम कितना समझते और सीखते हैं।
♥ यज्ञ में पशुबलि की सनातन परंपरा
जवाब देंहटाएंक्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पतति द्विजः .
-मनु. 3, 55
अर्थात यज्ञ और श्राद्ध में जो द्विज मांस नहीं खाता, वह पतित हो जाता है.
ऐसी ही बात कूर्मपुराण (2,17,40) में कही गई है.
विष्णुधर्मोत्तरपुराण (1,40,49-50) में कहा गया है कि जो व्यक्ति श्राद्ध में भोजन करने वालों की पंक्ति में परोसे गए मांस का भक्षण नहीं करता, वह नरक में जाता है.
(देखें, धर्मशास्त्रों का इतिहास, जिल्द 3 , पृ. 1244)
महाभारत में गौओं के मांस के हवन से राज्य को नष्ट करने का ज़िक्र मिलता है। दाल्भ्य की कथा में आता है-
यदृच्छया मृता दृष्ट्वा गास्तदा नृपसत्तम
एतान् पशून् नय क्षिप्रं ब्रह्मबंधो यदीच्छसि
स तूतकृत्य मृतानां वै मांसानि मुनिसत्तमः
जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्रं नरपतेः पुरा.
अवाकीर्णे सरस्वत्यास्तीर्थे प्रज्वाल्य पावकम्
बको दाल्भ्यो महाराज नियमं परमं स्थितः.
स तैरेव जुहावस्य राष्ट्रं मांसैर्महातपाः ..
तस्मिंस्तु विधिवत् सत्रे संप्रवृत्ते सुदारूणे .
अक्षीयत ततो राष्ट्रं धृतराष्ट्रस्य पार्थिव .
-महाभारत , शाल्यपर्व , 41,8-9 व 11-14
अर्थात इन मृत गौओं को यदि ले जाना चाहते हो तो ले जाओ.
दाल्भ्य ने उन मृत गौओं का मांस काट काट कर सरस्वती के किनारे अवाकीर्ण नामक तीर्थस्थल पर अग्नि जला कर हवन किया.
विधिपूर्वक यज्ञ के संपन्न होने पर राजा धृतराष्ट्र का राज्य क्षीण हो गया.
यज्ञ और श्राद्ध में पशु बलि का वेदों में कही वर्णन नहीं है और आपने सूत्र लिखा है वो प्रक्षिप्त है ..
हटाएंhttp://aryamantavya.in/?s=%E0%A4%9C%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B2
हटाएंमनुस्मृति में मधुपर्के च यज्ञे च..का श्लोक क्यों है.?
हटाएंश्रीमद् भगवद्गीता के सोलहवे अध्याय के द्वितीय व तृतीय श्लोकानुसार…
हटाएंअहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्। दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता। भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥
अर्थात हे भरतवंशी अहिंसा, सत्यं, क्रोध न करना शान्ति व शरीर, मन व मष्तिक की शुद्धता जीवों के प्रति दया भाव, मन, वचन व कर्मो से किसी को क्षति ना पहुँचाना. अपनी समस्त इन्द्रियों को अपने वश मे रखना किसी भी कार्य के प्रति पूर्णतः समर्पित होना. तेज, क्षमा, धैर्यं व किसी से भी शत्रुता न रखना तथा सम्मान का मोह ना होना व अपमान का भय ना होना ये सभी लक्षणं देवतुल्य मनुष्यों मे विद्यमान होते है.
अनुमन्ता, विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
जवाब देंहटाएंसंस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ॥५१॥ मनुस्मृति
सम्मति देने वाला, अंग काटने वाला, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला, खाने वाले - ये सब घातक हैं । अर्थात् मारने वाले आठ कसाई होते हैं । ऐसे हिंसक कसाई अधर्मियों के लोक परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं ।
योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया ।
स जीवंश्च मृत्श्चैव न क्वचित् सुखमेधते ॥
मनुस्मृति.
जो अहिंसक निर्दोष प्राणियों को खाने आदि के लिये अपने सुख की इच्छा से मारता है वह इस लोक और परलोक में सुख नहीं पाता ।
**********************************
कूर्मपुराण उपरिविभाग अध्याय ३२ ----
चान्द्रायणम पराकं वा गां हत्वा तू प्रमादतः /
मतिपूर्वं वधे चास्याः प्रायश्चित्तम न विद्यते //कू० पु ० २/३२ /५९
प्रमादवश अनजाने में गौ की हत्या करने पर चान्द्रायण अथवा पराक व्रत करना चहिये और जान बूझकर वध करने पर इस हिंसा का कोई प्रायश्चित नहीं है .
कूर्मपुराण उपरिविभाग अध्याय ३३, अभक्ष्य-भक्षण प्रायश्चित्त प्रकरण श्लोक ८-१६ ------
नरमांसाशनं कृत्वा चान्द्रायणमथाचरेत
काकं चैव तथा श्वानम जग्ध्वा हस्तिनमेव च
वराहं कुक्कुटं चाथ तप्तकृछेंण शुध्यति //८//
................................................
................................................//९,१०,११,१२,१३,१४,१५//
शुनो मांसं शुष्क्मांसमात्मार्थं च तथा कृतं
भुक्त्वा मांसं चरेदेतत तत्पापस्यापनुतत्ये //१६//
मनुष्य का मांस भक्षण करने पर चान्द्रायण व्रत करना चहिये. कौवा, कुत्ता, हाथी, वराह और कुक्कुट मांस खाने पर तप्तकृछ्र व्रत से शुद्धि होती है .
मांस खाने वाले जानवरों , सियारों तथा बंदरों का मांस तथा मॉल-मूत्र भक्षण करने पर तप्तकृछ्र व्रत करना चहिये तथा बारह दिनों तक उपवास करके कुष्मांड -संज्ञक मन्त्रों से घी की आहुती देनी चहिये. नेवला , उल्लू, तथा बिल्ली का मांस भक्षण करने पर सांतपन व्रत करना चहिये. शिकारी पशु, ऊंट और गधे का मांस खाने पर तप्तकृछ्र व्रत से शुद्धि होती है . पहले निर्दिष्ट विधान के अनुसार व्रत के समान ही संस्कार भी करना चहिये.
बगुला,बलाक,हंस,कर्णाव,चक्रवाक तथा प्लाव पक्षी का मांस भक्षण करने पर बारह दिन तक कुछ नहीं खाकर प्रय्चित करें . कपोत, टिड्डी, तोता,सारस,उल्लू, तथा कलहंस का मांस भक्षण करने पर भी यही व्रत करना चहिये. शिशुमार, नीलकंठ, मछली का मांस तथा गीदड़ का मांस खाने पर भी यही व्रत करना चहिये . कोयल, मछली, मेंडक तथा सर्प का भक्षण करने पर एक महीने तक गौमूत्र में अधपके जौ के सत्तू का भक्षण करने पर शुद्धि होती है. जलचर, जलज, प्रत्तुद यानी चोंच से खोदकर खाने वाले कौआ आदि अन्य पक्षी , नखविषिकर नख से खोदकर खाने वाले तितर आदि और लाल पैर वाले पक्षियों का मांस भक्षण करने पर एक सप्ताह तक उपर्युक्त व्रत करना चहिये . शुन आदि का मांस खाने पर एक महीने तक उपर्युक्त व्रत करना चहिये. कू० पु ० २/३३/८-१६
**************************************
महाभारत ---
सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥
(शान्तिपर्व २६५।९॥)
सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि खाना धूर्तों ने प्रचलित किया है, वेद में इन पदार्थों के खाने-पीने का विधान नहीं है ।
अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः । (आदिपर्व ११।१३)
किसी भी प्राणी को न मारना ही परमधर्म है ।
प्राणिनामवधस्तात सर्वज्यायान्मतो मम ।
अनृतं वा वदेद्वाचं न हिंस्यात्कथं च न ॥
(कर्णपर्व ६९।२३)
मैं प्राणियों को न मारना ही सबसे उत्तम मानता हूँ । झूठ चाहे बोल दे, पर किसी की हिंसा न करे ।
अति सुन्दर.....अनवर जमाल जैसे लोगों को तो सन्स्क्रित शब्दों के अर्थ तक पता नहीं हैं.....ऊल-जुलूल अर्थ लगा कर खुश होते रहते हैं...
हटाएंवेदों की तो यह स्पष्ट आज्ञा है कि--- "मा हिंस्यात सर्व भूतानि " -(किसी भी प्राणी की हिंसा ना करे).
जवाब देंहटाएंचलो यह स्थापना तो हुई कि वेद-वेदांगों में कोई हिंसात्मक उपदेश नहीं है, और न पवित्र यज्ञों में हिंसा की कोई आज्ञा।
वेद से कोई नया सन्दर्भ भी अप्रसतुत है। वेद-वेदांग से इतर, वेदेतर वाञ्ग्मय साहित्य पर चर्चा चल पडी है।
अमित जी नें मनुस्मृति से पाप संकेत, कूर्मपुराण से अभक्ष्य-भक्षण प्रायश्चित्त और महाभारत से सिद्ध किया कि मांसाहार धूर्त-प्रवर्तित है, और अहिंसा परम् धर्म है।
माननीय अमित शर्मा जी,
जवाब देंहटाएंआपनें तो एक ही सूत्र में, वेद से लेकर महाभारत तक, वेदों में हिंसा की कल्पना करने वाले आक्षेप का पटाक्षेप कर दिया।
महाभारत के शान्तिपर्व का श्रलोक- २६५:९
सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥
सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि भोजन, धूर्त प्रवर्तित है जिन्होनें ऐसे अखाद्य को वेदों में कल्पित कर दिया है।
साधुवाद!!!
आलेख और फिर टिप्पणी में व्यक्त शंकाओं के समाधान के लिये आभार अमित!
जवाब देंहटाएंयह साफ़ हुआ कि रस्सी में साँप देखने-दिखाने वाले कुछ "विद्वान" स्वर्णयुग में भी होते थे।
सुंदर विवेचना के लिए बधाई,...
जवाब देंहटाएं@ गौओं के मांस के हवन से राज्य को नष्ट करने
जवाब देंहटाएंजी अनवर जमाल भाई साहब | परन्तु यदि यज्ञ को वेदों के अनुरूप समझने हो - तो सद्गुरु के कहे अनुसार समझना है | कृष्ण से बढ़ कर कोई सद्गुरु नहीं मिलता, और गेट से बढ़ कर पाठ नहीं - सो वहीँ से कहूँगी - गीता में सोलहवे अध्याय के सत्रहवे श्लोक में देखें -
आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः ॥
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम ॥१६।१७ ॥
self complacent , impudent, deluded by wealth and ego, they sometimes proudly perform sacrifices IN NAME ONLY without following rules or regulations
यह जो आप बार बार उदाहरण देते हैं - ये आसुरी प्रवृत्ति के बनाये rules and regulations हैं - यह जो आप यज्ञ कह रहे हैं - यह भी शत्रु भाव से किया हुआ ही है | ऐसे और उदहारण मिल जायेंगे आपको | जैसे - राम से युद्ध के समय रावण के पुत्र इन्द्रजीत ने भी यज्ञ किया - जिसमे मांस और खून चढ़ाया | तो यदि ऐसे स्वाभाव के बनना हो, ऐसे goals achieve करना हो - तो ऐसे यज्ञ भी ऐसे लोगों ने किये हैं | सीखने को सब कुछ है - परम पिता की दी हुई अच्छाई भी है, शैतान की दी हुई buraai भी | ऐसे तो आदम ने भी सेब खाया ही था जन्नत में - तो क्या उसका उदहारण लेकर की यह आदम ने किया, इसे परंपरा मन कर हम सब वह वास्तु खाएं / वह कार्य करें , जो परमात्मा के आदेश के विरुद्ध हो ?
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फिर सत्रहवे अध्याय में arjun उन्हें सतो, रजो और तमोगुणी स्वाभाव समझाने को कहते हैं | इसमें भी भोजन पर बताया है - श्लोक ८, ९, १० में | फिर श्लोक ११, १२, १३ में यज्ञ पर - जिसमे कहा है की कौनसे bhojan aur yagya respectively सतो, रजो और तमोगुण प्रधान लोग करते हैं |
अन्न प्राप्ति की कामना से जो यज्ञ किए जाते थे , उन में इन्द्र के लिए बैल पकाए जाते थे। ऐसा ऋग्वेद से पता चलता है-
जवाब देंहटाएंअद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान् पिबसि त्वमेषाम्.
पचन्ति ते वृषभां अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन् हूयमानः .
-ऋग्वेद, 10, 28, 3
अर्थात हे इंद्र, अन्न की कामना से जिस समय तुम्हारे लिए हवन किया जाता है, उस समय यजमान जल्दी जल्दी पत्थर के टुकड़ों पर सोमरस तैयार करते हैं. उसे तुम पीते हो. यजमान बैल पकाते हैं, तुम उन्हें खाते हो.
मधुपर्के च यज्ञे च पितृदैवकर्मणि . अत्रैव पशवो हिंस्या
-मनुस्मृति 5, 41
अर्थात मधुपर्क , यज्ञ , पितृकार्य (श्राद्ध) तथा देवकार्य (देवताओं की पूजा आदि) के लिए ही पशु का वध करना चाहिए।
गव्येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्सरमिहोचयते .
-अनुशासन पर्व , 88, 5
अर्थात गौ के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की एक साल के लिए तृप्ति होती है।
आपके सारे अर्थ ऊल-जुलूल हैं....
हटाएं१-गव्येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्सरमिहोचयते .....इसमें मांस शब्द कहां है?....दत्तं का अर्थ देना होता है... अर्थात गौदान से.....त्रप्ति...आदि
-२-...व्रिषभ---स्वयं इन्द्र को कहा है...= बलवान
३-- मधुपर्क अर्थात शहद के लिये क्यों पशु वध करना चाहिये ?
ये सब मैक्समूलर की ब्याख्या को पढ़कर विद्वान बने है ...संधवं आनय कहने पर सैन्धव नमक की जगह घोड़ा ले जाएंगे...मैक्समूलर ने सबसे ज्यादा नुकसान किया है
हटाएंवेदों को जानना हो - तो निर्देश है की सिर्फ भाषा नहीं - जानने वाले गुरु से जानना है - क्योंकि भाषा के अर्थों के जैसे अनर्थ आप कर रहे हैं - ऐसे होने की संभावना बहुत है - क्योंकि एक शब्द के एक से अधिक अर्थ हैं | जैसे गो - गाय है या इन्द्रिय ? दुहिता पुत्री है या गौ दुहने वाली ? कुमारिका ? रिषभ ? आदि
जवाब देंहटाएंतो गुरु की शरण में सीखना है - केवल भाष्यकारों से वही होगा जो आपके साथ हो रहा है | जैसा आपके ही कथन के ही अनुसार यदि हम पवित्र कुरआन के सिर्फ translations देखें, जानकारों से न सीखें - तो हम नहीं जान सकते - वही बात वेदों के साथ भी लागू है |
वेद श्रुत ज्ञान थे - लिखे तो बहुत बाद में गए - सुन कर ही प्राप्त हुए - पहले श्री विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्मा आये - उन्होंने ध्यान किया - विष्णु ने उन्हें वेद दिए - फिर ब्रह्मा ने अपने मानस पुत्रों को - ऐसे यह परंपरा बढ़ी | लिखे तो बहुत समय बाद में वेदव्यास जी के द्वारा गए | तो बिना गुरु परंपरा के सिर्फ मन मर्जी अर्थों के translations से इन्हें समझा ही नहीं जा सकता |
आपके कथन के अनुसार (मैं नहीं जानती असल में यह बात महाभारत में है या नहीं - किन्तु मान रही हूँ की आप सत्य कह रहे होंगे ) \
१.उपरोक्त यज्ञ गायों को मार कर नहीं - मरी गायों की लाशों से हुआ |
२. यह द्वेष और बदले के लिए हुआ |
३. ऐसे यज्ञ आसुरी (तामसिक) हैं |
४.यज्ञों की ३ categories हैं - सतो / रजो / तमो गुणी | जिन शोक्तियों को प्रसन्न कर के जिन उद्देश्यों के लिए हों - उसके अनुसार |
५. ॐ तत सत - कर्त्तव्य भाव से (सतो) ; कुछ अच्छे उद्देश्य के लिए (जनक जी ने धरती जोती - (रजो) ; और निज लाभ /दूसरे की हानि के लिए (तमो)
६. वेद - अर्थात ज्ञान को जान लेना - विदित होना |
७. सब तरह का ज्ञान है - + भी, और minus भी | वेदों में SAB है |
८. अब nuclear technology लीजिये - एक तो उससे हम power प्लांट लगायें, या फिर nuclear bomb बनाएं - यह हम पर है |
मधुपर्क का अर्थ दही , शहद , घी के योग से भी लगाया जाता है ..
हटाएंसार्थक और विस्तृत विवेचना ..... आभार
जवाब देंहटाएं@गव्येन दत्तं श्राद्धे
जवाब देंहटाएंdattam - ka artha "daan dena" hota hai ya maarna ????? fir se man marji ke artha / anarth ???
मनुस्मृति में माँसाहार निषेध
जवाब देंहटाएंयद्ध्यायति यतकुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च
तद्वाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किञ्चन ॥ (मनुस्मृति- 5:47)
-ऐसा व्यक्ति जो किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करता तो उसमें इतनी शक्ति आ जाती है कि वह जो चिंतन या कर्म करता है तथा जिसमें एकाग्र होकर ध्यान करता है वह उसको बिना किसी प्रयत्न के प्राप्त हो जाता है
नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित्
न च प्राणिवशः स्वर्ग् यस्तस्मान्मांसं क्विर्जयेत् ॥ (मनुस्मृति- 5:48)
-किसी दूसरे जीव का वध किया जाये तभी मांस की प्राप्ति होती है इसलिए यह निश्चित है कि जीव हिंसा से कभी स्वर्ग नही मिलता, इसलिए सुख तथा स्वर्ग को पाने की कामना रखने वाले लोगों को मांस भक्षण वर्जित करना चाहिए।
अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥ (मनुस्मृति- 5:51)
अर्थ - अनुमति = मारने की आज्ञा देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले - ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं ।
मां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाद् म्यहम्।
एतत्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः॥ (मनुस्मृति- 5:55)
अर्थ – जिस प्राणी को हे मनुष्य तूं इस जीवन में खायेगा, अगामी जीवन मे वह प्राणी तुझे खायेगा।
प्रकृति खंड में महादेव सुयज्ञ नामक राजा का वर्णन करते हैं, जिसके राज्य में सुपक्व मांस ब्राह्मणों के लिए नित्य दिया जाता है.
जवाब देंहटाएंसुपक्वानि च मांसानि ब्राह्मणेभ्यश्च पार्वति..
ब्रह्मवैवर्त पुराण, 50, 13
पुराणों के उद्धरण को प्रमाणिक नहीं माना जा सकता है ..
हटाएंवस्तुत: संस्कृत शब्दों के पुरातन प्रयोग अगर आज उसी रूप में भी रखे जाते हैं तो भी शब्दार्थ का एकधा ज्ञान होने के कारण ही ब्यक्ति शंकित हो जाता है।
जवाब देंहटाएंकुछ बहुप्रचलित उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूं जिनका आप लोक में भी बहुधा प्रयोग देखते होंगे पर आज उनका सामान्य रूप से प्रयोग किये जाने पर दुर्घटनाएं जन्म ले सकती हैं।
1-सैन्धव शब्द का दो अर्थ क्रमश: घोडा तथा नमक होता है।
कोई ब्यक्ति भोजन पर बैठा है और सैन्धवमानय यह आदेश देता है तो वहां अगर हम नमक के बदले घोडा ले जाएं तो द्वन्द्व की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी।
2-गायत्रीमंत्र में प्रयुक्त शब्द प्रचोदयात
प्रचोदयात शब्द प्र उपसर्ग पूर्वक चुद् धातु से बना है जिसका अर्थ प्रेरित करना होता है। इसके रूप पठ के सदृश ही चलते हैं।
अब आज आप अगर इस धातु का प्रयोग (त्वं पठितुं स्व बालिकां चुदसि- तुम पढने के लिये अपनी बालिका या पुत्री को प्ररित करते हो) आप लोक में कर दें तो आप पर लाठियां भी बरस सकती हैं।
3-अभिज्ञान शाकुन्तल के चतुर्थ अध्याय में प्रयुक्त शब्द (चूतशाखावलम्बिता)
चूत का अर्थ आम या आम के पेड से है मगर आज आप इनका प्रयोग जनसामान्य में कर दीजिये तो जाने क्या गजब हो जाए।
ऐसे ही कई और शब्द हैं जिनका प्रयोग आज अप्रासंगिक है पर पहले जो काव्य की शोभा या लालित्य बढाने के लिये प्रयुक्त होते थे, और क्यूंकि तब संस्कृत जनभाषा थी अत: लोग इनका उचित अर्थ ही ग्रहण करते थे जो आज नहीं है , अब आप ही बताइये इसमें किसी ग्रन्थ या ग्रन्थकार की क्या गलती।
साभार -आनंद पांडेयजी के ब्लॉग महाकवि वचनं से
http://www.kavyam.co.in/2010_05_01_archive.html
सुन्दर अति सुन्दर अमित जी...जमाल जैसे लोगों को सन्स्क्रित का ग्यान कहां....सिर्फ़ अपनी दुकान चलान चाहते हैं...
हटाएंसंस्कृत एक अति समृद्ध भाषा है। इसमें कुछ शब्द ऐसे भी हैं जिनके अर्थ एक से ज़्यादा हैं। यदि एक अर्थ के बजाय अन्य अर्थ ले लिया जाए तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है। इस समस्या का निराकरण वेद के विद्वान सदा से करते ही आये हैं क्योंकि यह समस्या नई नहीं है।
जवाब देंहटाएंसायण और महीधर आदि के भाष्य इसी समस्या को हल करने के लिए लिखे गए हैं और आज भी हिंदू धर्म के सर्वोच्च अधिकारी शंकराचार्य इस समस्या का निराकरण करने में सक्षम हैं।
यदि इनके माध्यम से वेद को जाना जाए तो वेद के प्राचीन परंपरागत अर्थ समझने में किसी तरह की परेशानी पेश ही नहीं आती।
सायण और महीधर ने उचित अर्थ किये हैं न कि अनर्थ....शन्कराचार्य एक विशेष तन्त्र के सर्वोच्च हैं ...न कि सारे हिन्दू धर्म के...
हटाएंदयानंद के भाष्य से क्यों डरते हैं मिया अनवर जमाल :D
हटाएंअरब कि जंगली प्रवर्तियो का मोहम्मद ने सिर्फ विस्तार किया अब क्यों आप लोग उसी जंगल युग में रह रहे हैं | मानवता कि ओर आने का प्रयास तो कर हि सकते हैं यदि देवत्व कि ना सोच सके |
सायण का भाष्य काफ़ी हद तक कर्मकाण्डपरक है। कह सकते हैं कि संहिताओं का अर्थ करने के लिए सायण ने ब्राह्मण ग्रंथों की परम्परा को सबसे पुख़्ता आधार माना है। वैसे भी सायण-भाष्य में पूर्वमीमांसा का गहरा प्रभाव साफ़ नज़र आता है। सायण भाष्य के बारे में महर्षि अरविन्द का कथन है – “सायण की प्रणाली की केन्द्रिय त्रुटि यह है कि वह सदा कर्मकाण्ड विधि में ही ग्रस्त रहता है और निरंतर वेद के आशय को बलपूर्वक कर्मकाण्ड के संकुचित सांचे में डालकर वैसा ही रूप देने का यत्न करता है। सायण का ग्रंथ एक ऐसी चाबी है जिसने वेद के आंतरिक आशय पर दोहरा ताला लगा दिया है, सायण भाष्य पढ़कर कोई इतना भर कह सकता है कि यह ब्राह्मण-ग्रंथों का एक्सटेंशन भर है।
जवाब देंहटाएंमैक्समूलर नें इसी सायण भाष्य के आधार पर भाष्य प्रस्तुत किया, हालाँकि वेद संहिताओं को विश्व सम्मुख रखने का श्रेय मैक्समूलर को जाता है पर सायण के प्रभाव से विकार स्पष्ट दृष्तिगोचर होता है। मैक्समूलर के भाष्य का सबसे बड़ा दोष यह है भाष्यकार को संस्कृत का गम्भीर ज्ञान न होने की वजह से ज़्यादातर अर्थ सतही ही रह जाता है। इसके अलावा कई पूर्वाग्रह भी साफ़ तौर पर परिलक्षित होते हैं, हालाँकि हो सकता है ऐसा जानबूझ न हो बल्कि अवचेतन रूप से हो गया हो। दूसरा, मैक्समूलर ने कई औसत बुद्धि पण्डितों की सहायता से भाष्य तैयार किया था, इसलिए भाष्य का स्तर उतना अच्छा नहीं है। साथ ही भाष्य में जगह-जगह ‘कंसिस्टेंसी’ का अभाव है।
(अंश फेस-बुक के वेद पन्ने से साभार)
कुछ गलत फहमी है जमाल साहब आपको की ईसाईयत में पोप की तरह और इस्लाम में ख़लीफ़ा की तरह से वैदिक परम्परा में श्रीशंकराचार्य एकमेव धर्माधिकार प्रभुत्व संपन्न है . श्रीशंकराचार्य वेदान्त दर्शन में अद्वैत मत प्रतिपादक थे . आपकी जानकारी के लिए बता दूँ , श्री आदिशंकराचार्य से पहले श्रीनिम्बार्काचार्य ने द्वैताद्वैत, श्री आदिशंकराचार्य के बाद श्रीरामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत, श्रीमध्वाचार्य ने द्वैतमत और श्रीवल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैत मत के अनुसार वैदिक सिधान्तों की स्थापना की थी. सभी आचार्यों की सुगठित और सुप्रचारित शिष्य परम्पराएँ अध्यावधि प्रचलित है. सभी आचार्यपीठों के सारे भारत और विश्व में भी अनेक स्थानों पर अनुयायी है, सभी अपने आचार्य के मत के प्रति अनन्य आग्रही होते हुए भी अन्य आचार्यों के प्रति समान श्रद्धालु हैं. इसलिए आपका यह कथन "हिंदू धर्म के सर्वोच्च अधिकारी शंकराचार्य' थोड़ा असंगत है. हिंदू धर्म का सर्वोच्च अधिकारी कोई भी आचार्य या संस्था नहीं है. महिमामान आचार्यों को तो छोड़िये स्वयं मंत्र द्रष्टा ऋषि गण भी वैदिक धर्म के सर्वोच्च अधिकारी नहीं हैं. यह लोकधर्म का लोकतंत्र है भैया अन्य इस्लाम-इसाई सम्प्रदायों की भांति तानाशाई नहीं :)
जवाब देंहटाएंएक दम सटीक तथ्य है....
हटाएंरंजना जी, सुज्ञ जी, अनुरागजी, धीरेन्द्र जी, शिल्पाजी, डॉ॰ मोनिका शर्मा जी बात सिर्फ लेख के अच्छे होने मात्र की या कुप्रचारियों को तथ्य से अवगत कराने भर की नहीं है. क्योंकि तथ्य तो अपने अंतर्मन में यह खुद भी जानते हैं. मूल मुद्दा तो यह है की जैसे स्वयं जमाल साहब के ही ४०-५० ब्लॉग है, उसके अलावा एक एक कुप्रचारी जो की समस्त वैदिक परंपरा के विरुद्ध अनर्गल वमन करतें है, तब उसी अनुपात में सही तथ्यों का प्रकाशन नहीं हो पाता है क्योंकि आप और मेरे जैसे कितना समय इस बात में लगा सकतें है. क्योंकि और भी काम है; जो जिन्हें तनख्वा ही वैदिक परम्परा पर कालिख पोतने की मिलती हो वे कैसे ढील देंगे. जो थोडा सा प्रयास आप-हम करतें है वह इनको तथ्यों से अवगत करवाने के लिए नहीं होता, बल्कि इनके लेखों को ही पढ़कर भ्रमित होने वाले बंधुओं के लिए है. इसलिए हम सभी की कोशिश होनी चहिये की इस बारें में अधिक से अधिक जानकारी एकत्रित कर नेट पर डालने की कोशिश करें ताकि. भारतीय संस्कृति के वास्तविक पावन स्वरुप से ही सब परिचित हो ना की कुप्रचारियों द्वारा विकृत करके प्रस्तुत किये गए रूप से. यह संस्कृति महान ऋषियों द्वारा, श्रीमहावीर,श्रीबुद्धदेव द्वारा पोषित पल्लवित हुयी संस्कृति है. हमारा इतना कर्त्तव्य तो बनता ही है की कोई इस महान सांस्कृतिक लता को नोंच खसोट ना जाएँ. सर्वकल्याण की भावना, सर्व भूतों के प्रति करुना, विश्वबंधुत्व समता अहिंसा आदि सद्गुणों को अधिक से अधिक अपने जीवन में उतार कर ही हम महान ऋषियों के राम-कृष्ण के श्रीमहावीर-बुद्ध की संतति होने का दावा कर सकतें है. और तभी भारत गौरव के ध्वजवाहक होने के अधिकारी हो सकतें है.
जवाब देंहटाएंअत्युत्तम कथन है अमित जी....
हटाएं--- ये कुप्रचारी ...मुफ़्त ब्लोग सुविधा का खूब लाभ उठा कर वैदिक व हिन्दू धर्म व समाज को गुमराह कर रहे है..अन्यथा आखिर इन्हें क्या आवश्यकता है कि हिन्दू धर्म पर बात करें ...हम अपना धर्म देख लेंगे ...आप स्वयं अपना देखिये...इन्हें मुंह तोड उत्तर देना अत्यावश्यक है....
---आप इस प्रकार वस्तुतः एक यग्य ही कर रहे हैं....
हमारा इतना कर्त्तव्य तो बनता ही है की कोई इस महान सांस्कृतिक लता को नोंच खसोट ना जाएँ. सर्वकल्याण की भावना, सर्व भूतों के प्रति करुना, विश्वबंधुत्व समता अहिंसा आदि सद्गुणों को अधिक से अधिक अपने जीवन में उतार कर ही हम महान ऋषियों के राम-कृष्ण के श्रीमहावीर-बुद्ध की संतति होने का दावा कर सकतें है.
हटाएंबिलकुल करणीय कर्म बताया है अमितभाई, यह हिंसक और भोगी कुसंस्कृतियाँ हमारे विशिष्ट सांस्कृतिक गुण - विश्वबंधुत्व, समता, अहिंसा को विकृत बनाकर पेश कर रहे है। ताकि हम भी इन हिंसको के समान हेय हो जांय। निरामिष मंच से इसी कुसंस्कृति के आगमन को उखाड फैकने का प्रयत्न है।
अति प्राचीन काल में ही महर्षि वेद व्यास जी का महाभारत में कहा गया यह कथन पुनः दोहराना आवश्यक हो गया है……………
जवाब देंहटाएंमहाभारत के शान्तिपर्व का श्रलोक- २६५:९
सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥
अर्थात् : सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि भोजन, धूर्त प्रवर्तित है जिन्होनें ऐसे अखाद्य को वेदों में कल्पित कर दिया है।
वेदों में, किसी भी करण कारण प्रयोजन से हिंसा निषिद्ध ही है। फिर परम पावन अनुष्ठान – आराधना रूप यज्ञ में हिंसा रूप विराधना कैसे कल्पित की जा सकती है। सात्विक देव स्वरूप, सहजबोध मनुष्य तो ऐसा विचार भी नहीं कर सकते।
साधारण मनुष्य जिस घृणास्पद विकृति की कल्पना तक नहीं कर सकते, उस विकृत हिंसक अर्थ के लिए असुर ही जवाबदार हो सकते है। आज्ञा के विरूद्ध कर्म, विपरित आराधना, यज्ञों को पशुबलि से अपवित्र करने का कार्य असुर ही करते थे। (किसी भी अपवित्र कार्य के लिए “हवन में हड्डी डालने” की कहावत इसीलिए बनी होगी, जो आज भी विद्यमान है) हालांकि सुर व असुर एक ही ॠषि की सन्ताने है, पर स्वभाव से ही उनका कर्म हिंसाप्रधान है। अतः वैदिक मंत्रों का हिंसा युक्त अर्थ और यज्ञों में पशु-बलि का कुकृत्य असुरों की ही प्रस्थापना है।
सभी समृद्ध भाषाओं में बहुत से शब्द ऐसे ढूँढे जा सकते हैं जिनके अर्थ एकाधिक होते हैं...
जवाब देंहटाएंजैसा कि अमित जी और आनंद पाण्डेय जी ने समय-समय पर बताया है. यथा सैंधव jaise shabd ...
एक बड़ा रोचक प्रसंग है :
एक मियाँ जी थे. अपने मोहल्ले की बैठक में हमेशा एक पुजारी को यह कहकर नीचा दिखाते रहते थे कि "तुम्हारी संस्कृत भाषा तो बड़ी अजीब है ... गायत्री मंत्र में ही गंदगी भरी हुई है...'प्रचोदयात....' आदि-आदि..."
एक दिन मोहल्ले में हरियाणा के पंडित रहने आये... मोहल्ले की मासिक बैठक में जब फिर वही बात दोहरायी गयी तो उनसे रहा नहीं गया, बोले..."सुण मियाँ, थारी भाषा कूण सी न्यारी सै, बता इसका क्या अर्थ सै ...."दस्त से खाना परोसा फूफी ने, पेश आब बेगम ने कर दिया."
सावधान.मियाँ, ... आगे अर्थ के अनर्थ मत करियो.....
@DR. ANWER JAMAL ने कहा…
जवाब देंहटाएंआज भी हिंदू धर्म के सर्वोच्च अधिकारी शंकराचार्य इस समस्या का निराकरण करने में सक्षम हैं।
ऑफ़ कोर्स, शंकराचार्य जी के सामने कोई समस्या ही नहीं है। समस्या धर्म के अन्य अधिकारी विद्वानों के सामने भी नहीं है। समस्या उन सात्विक धर्मपालकों को भी नहीं है जो वीर अहिंसक सनातन परम्परा से लगातार जुड़े रहे हैं। समस्या उन्हीं के सामने है जो दया और प्रेम की सनातन भारतीय परम्परा को अपने-अपने रंग के चश्मे से परिभाषित करने की टूटी-फ़ूटी कोशिश करते हैं। संकीर्ण सीमाओं का लबादा फेंके बिना महान भारत और उदात्त भारतीय परम्पराओं को समझ पाना कठिन ही नहीं असम्भव है।
हाँ, जैसा अमित जी ने स्पष्ट किया, आपका वाक्य "हिंदू धर्म के सर्वोच्च अधिकारी शंकराचार्य' वाकई असंगत है। लेकिन भारतीय परम्पराओं के बारे में ऐसी ज्ञानी-अज्ञानी विसंगतियाँ अब मुझे आश्चर्य में नहीं डालती पर वह विषयांतर हो जायेगा।
वैदिक वांगमय में वृषभ शब्द के अनेक अर्थ हैं जो कि सन्दर्भ पर निर्भर करते हैं। इन अर्थों में एक अर्थ औषधि और एक शक्तिवान भी है।
जवाब देंहटाएं@ अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान् पिबसि त्वमेषाम्।
पचन्ति ते वृषभां अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन्हूयमानः॥
(ऋग्वेद, मण्डल 10, सूक्त 28, मंत्र 3)
हे इंद्रदेव! आपके लिये जब यजमान जल्दी जल्दी पत्थर के टुकड़ों पर आनन्दप्रद सोमरस तैयार करते हैं तब आप उसे पीते हैं।
हे ऐश्वर्य-सम्पन्न इन्द्रदेव! जब यजमान हविष्य के अन्न से यज्ञ करते हुए शक्तिसम्पन्न हव्य को अग्नि में डालते हैं तब आप उसका सेवन करते हैं।
इस मंत्र के सन्दर्भ में यज्ञ और अन्न के सम्बन्ध को पुष्ट करता हुआ गीता का एक मंत्र भी अभी याद आ रह है।
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा यह पचन्त्यात्मकारणात्
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, मंत्र १३)
यज्ञ में अन्न का दान करने के बाद बचे हुए अन्न को खाने वाला अमृत खाता है। जो व्यक्ति (देवता, ऋषि, पितर, पशु-पक्षी, वृक्ष-लता, नदी-सरोवर, समाज आदि का) ऋण न चुकाकर, धन-धान्य को अपना मानकर अकेला हड़प जाता है, वह पाप का भागी बनता है।
परम्परागत भारतीय घरों में आज भी पहली रोटी गाय की बनती है और भगवान के भोग के बाद भोजन खाया जाता है। यह एक लम्बी सनातन परम्परा है जिसकी भावना को भारतीय मानस आसानी से समझ सकता है।
----वे अधर्मी-अग्यानी नहीं जानते( या जानबूझ कर जानना नहीं चाहते) कि वे वास्तविक धर्म व तत्व-ग्यान से बहुत दूर हैं...बहुत दूर...
हटाएंअमित जी की ये सार्थक पोस्ट और इस पोस्ट पर आए कमेंट्स को पढ़कर बहुत कुछ जानने को मिला! मेरी राय में ये पोस्ट सभी को अवश्य ही पढ़नी चाहिए! वैसे भी निरामिष पर जितने भी लेख आते हैं वो सभी उच्च कोटि के होते हैं ! यही कारण है कि 'निरामिष' ब्लॉग आज सफलता के नित नए मुकाम छू रहा है! इसका पूरा श्रेय निरामिष के सभी विद्धान लेखकों को जाता है!
जवाब देंहटाएं/ प्रिय अनुज अमित शर्मा जी !
जवाब देंहटाएं1. व्यक्तिगत आक्षेप से बचते हुए केवल पोस्ट के विषय पर बातचीत करना ही ज़्यादा उचित है। जिसे जो काम जितना प्यारा होता है वह उसके लिए उतना ही समय देता है।
2.वेदांत दर्शन की व्याख्या में मतभेद होने से अलग अलग आचार्यों ने द्वैतवाद आदि मत का प्रतिपादन किया लेकिन शंकराचार्य को सर्वोच्च स्थान जिस काम ने दिलाया वह है वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना का प्रयास, इस प्रयास में कोई भी उनके बराबर न पहुंच सका। उनका प्रयास योजनाबद्ध और संगठित था और उनकी क़ायम की गई पीठों को दुनिया जानती है जबकि दूसरे आचार्यों की पीठों को जानने के लिए और उनके मत का पता करने के लिए बहुत ढूंढ भाल करनी पड़ेगी।
इसीलिए शंकराचार्य का स्थान उन्हें मानने वालों के लिए तो सर्वोच्च है ही और दूसरे आचार्यों की नज़र में भी वे सम्मानित हैं और ख़ास बात यह है कि इन सबके बीच केवल दार्शनिक अंतर थे लेकिन कर्मकांड को अंजाम देने के मामले में उनमें कोई मतभेद न थे।
शंकराचार्य कुछ के लिए सर्वोच्च हैं तो बाक़ी के लिए भी उच्च तो हैं ही और ऐसे धर्माधिकारी का मत निश्चय ही उपासना विधि के मामले में तो निर्णायक माना ही जाना चाहिए।
जमाल साहब यही तो आपका अग्यान है....अमित ने एक दम सही कहा है ...न तो शन्कराचार्य सर्वोच्च सता हैं....न हिन्दू धर्म किसी एक किताब पर चलता है वह मानव-व्यवहार पर चलता है ....
हटाएं@ भाई सुज्ञ जी ! आपने सायण भाष्य के बारे में श्री अरविंद जी का कथन दिया।
जवाब देंहटाएंआभार,
अब आप मांसाहार के बारे में भी उनके विचार दें और यह भी बताएं कि वे वैदिक यज्ञ में पशु बलि के बारे में क्या विचार रखते थे ?
धन्यवााद !!!
@ भाई अनुराग जी ! वेदमंत्र का यह नवीन अर्थ आपने ख़ुद किया है क्या ?
जवाब देंहटाएंअनवर जमाल साहब,
जवाब देंहटाएंएक बार पुनः टिप्पणी को गहनता से पढ़े और और टिप्पणी के आशय पर केन्द्रित रहें। प्रस्तुत टिप्पणी सायण भाष्य की वस्तुस्थिति को महर्षी अरविंद के शब्दों में स्पष्ट किया गया है। इसका तात्पर्य यह नहीं है सायण की त्रृटि इंगित करने वाले के इन विचारों से इतर विचारों से आंख मूंद कर सहमत हुआ जाय।
जड़त्व छोडिए, और दोहराव व रटन्त से सार्थक चर्चा की ओर बढ़िए। भारतीय वांग्मय के विद्यार्थी किसी भी व्याख्याकार की अंध भक्ति नहीं करते, जो सही है स्वीकार करते है, पर आंख बंद कर मात्र नाम से ही सहमत नहीं हो जाते।
विमर्श की उपयोगिता तभी ही है जब साक्ष्य, प्रमाण और तार्किकता युक्तियुक्त हो तो उस पर सहमत होते हुए, उससे आगे के संशयों पर विमर्श हों।
पूरे लेख और चर्चा का सार यही है कि आर्षवाणी में हिंसा और अहिंसा एक साथ नहीं हो सकती। जहां हर सुक्त में अहिंसा के उपदेश हो, उसी में हिंसा के आचरण का आदेश कैसे हो सकता है। न ग्रंथों में ऐसा विरोधाभासी कथन होता है। अतः यह हिंसा अर्थारोपण किया गया है। ऐसे हिंसक अर्थ मूल सिद्धांतो के ही विपरित है। जो उपदेश ही जन को अहिंसक बनाने के लिए कहे गए हो उनका आशय हिंसक कैसे हो सकता है?
अनवर जमाल साहब,
जवाब देंहटाएंआपने पूछा…
@ भाई अनुराग जी ! वेदमंत्र का यह नवीन अर्थ आपने ख़ुद किया है क्या ?
कैसे चर्चाकार हो अनवर भाई? जल्दबाज़ी में भूल गए कि इसी वेदमंत्र के अर्थ को आपने भी प्रस्तुत किया है, अर्थात आप भी ऐसे झूठे अर्थ बना बना कर यहां झूठ भ्रम और दुर्भावना फैला रहे है? आपने स्वयं उस मंत्र के भाष्यकार का सन्दर्भ नहीं दिया है। देते भी कहां से आपके पास हवाले और सन्दर्भ तो होते नहीं है, झूठ प्रसारित करना और सन्दर्भ पूछने पर ठीठता से कहना कि जाकर शंकराचार्य से पूछ लो? क्या यह विद्वानों की चर्चा है?
आपके इस प्रश्न से यह तो खुलकर सामने आया कि वेद के पवित्र मंत्रों का हिंसक अर्थ करके आप जैसे लोग झूठ फैलाते है।
रही बात अनुराग जी के अर्थ करने की तो, जान लो कि अनुराग जी बिना साक्ष्य सन्दर्भ के कोई बात नहीं रखते। अनुराग जी नें जो भाष्य प्रस्तुत किया है उनके भाष्यकार की तो मुझे भी जानकारी है और भाष्य यथार्थ अर्थ में प्रस्तुत हुआ है।
आपके प्रश्न का युक्ति युक्त प्रत्युत्तर अनुराग जी ही प्रस्तुत करेंगे।
अनुराग जी तो बता देंगे पर अनवर भाई आप अपने झूठ से कैसे बच पाएँगे?
एक बेहद अच्छी चर्चा .... बौद्धिक आनंद तभी आता है जब सवालों को उसके जवाब मिलते हैं, अहंकारी कुतर्क चित होता है.
जवाब देंहटाएंधीरे धीरे देखते चलिए ...
जवाब देंहटाएंसच सामने कैसे आता जा रहा है ?
@ भाई अनुराग जी ! वेदमंत्र का यह नवीन अर्थ आपने ख़ुद किया है क्या ?
जवाब देंहटाएंडॉ. जमाल साहब,
चलिये,अच्छा हुआ कि आपके मुँह से ही यह बात निकल गयी कि वेद की ज्ञान, अहिंसा, कर्म, जनकल्याण, समन्वयीकरण और अन्नदान की मूलभावना पर कुठाराघात करने के लिये किसी संस्थान में संगठित रूप से नवीन और हिंसक अर्थ भी गढे जा रहे हैं। हिन्दी कहावत भी है, चोर की दाढी में तिनका।
पिछले डेढ-दो हज़ार सालों में जन्मे मज़हबों की केन्द्रीय नियन्त्रण की प्रवृत्ति से हम भारतीय परिचित हैं और इस मजबूरी को अच्छी तरह समझते भी हैं। हमें यह भी पता है कि "सत्यमेव जयते" की सनातन परम्परा में यकीन रखने वाली संस्कृति को जन-सामान्य पर कोई एक विचार, पुस्तक या बलप्रयोग और हिंसा थोपने की आवश्यकता नहीं है। सत्य अपने आप उभरकर सामने आता है। आज संसारभर में कोई खलीफ़ा नहीं है। सार्वभौम राजे, रानी, डिक्टेटर, मिलिट्री रूलर भी एक-एक करके खत्म हो रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में वर्णित और प्रचलित व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गणराज्य पद्धतियाँ दुनिया भर में अपने आप ही अपनायी जा रही हैं। ठीक वही हाल शाकाहार, अहिंसा और करुणा का है। जंगली समाज जितने अधिक सभ्य हो रहे हैं, यह प्रकाश वहाँ भी फैल रहा है।
जब किसी विकसित अहिंसक सभ्यता पर अल्पविकसित हिसक जंगली समुदाय का आक्रमण होता है तो कई बातें होती हैं, मसलन
- कुछ कायर सत्य छोड़, असत्य अपनाकर जान बचाते हैं
- कुछ वीर सत्य के लिये लड़कर मर जाते हैं
- कुछ वीर और ज्ञानी न केवल बचते हैं, बल्कि अपने ज्ञान से उस जंगली समुदाय को भी प्रकाशित और प्रभावित करते हैं और सम्मान का पात्र बनते हैं। ज़ाहिर है कि कुछ लोग इनसे और उस ज्ञान से कुंठित भी होते हैं। कुछ परम्पराभंजक आदर्श परम्परा को पुनर्परिभाषित करने का लंगड़ा प्रयास भी करते हैं लेकिन वे अपनी सीमाओं को और सत्य के अनंत स्वरूप को नहीं पहचानते।
लेकिन सत्य यही है कि जैसे रुका हुआ पानी सड़ता है वैसे ही संकीर्ण सीमाओं में जकड़ी परम्परायें ही मरती हैं। "सत्यमेव जयते" की परम्परा "चरैवेति" के सिद्धांत का पालन करते हुए "मृत्योर्मामृतम्गमय" की ओर अग्रसर रहती है। अमृत संस्कृति को न तो मिटने का भय है और न नवीन और हिंसक अर्थ गढने की आवश्यकता। बात किसी एक मंत्र या ग्रंथ की नहीं है। भारतीय अमृत संस्कृति में मृतभोज का महिमामंडन नहीं है यह समझना कठिन नहीं है ।
बात किसी एक मंत्र या ग्रंथ की नहीं है। भारतीय अमृत संस्कृति में मृत्यु की सहज स्वीकृति तो है परंतु मृतभोज का महिमामंडन नहीं है यह समझना कठिन नहीं है लेकिन गंगा स्नान का आनन्द जलप्रवेश से ही मिलता है दूर बैठकर रेत मसलने से नहीं। जो लोग केवल तर्क,वितर्क,कुतर्क के लिये वेदमंत्रों को पढते हों वे भारतीय संस्कृति के उन वाहकों को कैसे समझेंगे जो वेद के मार्ग पर पिछले कई सहस्र वर्षों से सतत चल रहे हैं
भारतीय संस्कृति अपने मूल सद्विचारों पर दृढ होते हुए भी नित-नूतन रही है। उसमें तमसो मा ज्योतिर्गमय का सिद्धांत प्रतिपादन के साथ ही बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की मूल भावना बनी रहती है। हमने जिस सत्य को हज़ारों साल पहले पकड़ा, दुनिया आज या कल पकड़ेगी ही| इससे झूठ को बेचैनी होनी स्वाभाविक है
लेकिन "अहिंसा", जनतंत्र, व्यवस्था, ज्ञान जैसे सत्य तो जन-मानस को प्रकाशित करके ही मानेंगे
1. सत्य से घृणा करते हुए पूर्ण सत्य को पाया नहीं जा सकता। उसके लिये सत्य की शरण में आना पड़ता है।
2. जो ऋषि वेदमंत्रों के दृष्टा थे और जो व्यास ज्ञान के संकलनकर्ता थे, उनके हत्यारे कब के दफ़न हो गये, पर ऋषियों का ज्ञान भी जीवित है और उनकी संतति भी। उनके बच्चों को अपनी विरासत साबित करने की आवश्यकता नहींहै। उनके पास तो वह ज्ञान, परम्परा, संस्कार सतत, अनवरत सनातन रूप से न केवल जीवित है बल्कि वे बच्चे आज भी अज्ञानियों को राह दिखाने में सक्षम है।
जो लोग केवल तर्क,वितर्क,कुतर्क के लिये वेदमंत्रों को पढते हों वे उन्हें कैसे समझेंगे जो वेद के मार्ग पर पिछले हज़ारों साल से सतत चल रहे हैं। संकीर्ण विचारधारा के चश्मे से भारतीय संस्कृति को आंकना ऐसा ही है जैसे कोई कलर-ब्लाइंड रंगीन फ़िल्म देखे।
चोर की दाढी में तिनका।---वह क्या बात है स्मार्ट जी......
हटाएं--- शाकाहार का सबसे बडा सत्य-प्रमाण तो बाइबल की कथा ही है.....ईव ने अडम्स को फ़ल ही क्यों खिलाया.....मांस का टुकडा, मुर्गे की टांग, बकरे का अन्डकोश क्यों नहीं खिलाया....
सही कहा डॉ श्याम जी
हटाएं... और हाँ, आपसे बात करते-करते यह बताना तो भूल ही गया कि वेदमंत्र का प्रस्तुत अर्थ मेरा नहीं है। यह वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य के मुखारविन्द से उद्धृत है।
जवाब देंहटाएं@ अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान् पिबसि त्वमेषाम्।
पचन्ति ते वृषभां अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन्हूयमानः॥
(ऋग्वेद, मण्डल 10, सूक्त 28, मंत्र 3)
हे इंद्रदेव! आपके लिये जब यजमान जल्दी जल्दी पत्थर के टुकड़ों पर आनन्दप्रद सोमरस तैयार करते हैं तब आप उसे पीते हैं। हे ऐश्वर्य-सम्पन्न इन्द्रदेव! जब यजमान हविष्य के अन्न से यज्ञ करते हुए शक्तिसम्पन्न हव्य को अग्नि में डालते हैं तब आप उसका सेवन करते हैं।
1. संस्कृत वाक की इस आधिकारिक जर्मन वेबसाइट पर वृषभ के 15 अर्थ ऑनलाइन देखे जा सकते हैं:
जवाब देंहटाएंसम्भाषणसंस्कृतम् शब्दकोषः
2. एक अन्य ऑनलाइन शब्दकोष
@ आदरणीय भाई अनुराग जी ! पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के वेदानुवाद को देखा तो हमें उसमें यह लिखा हुआ मिला-
जवाब देंहटाएंअद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान् त्सुन्वन्ति सोमान् पिबसि त्वमेषाम्.
पचन्ति ते वृषभां अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन् हूयमानः .
-ऋग्वेद, 10, 28, 3
(ऋषि) हे इंद्र ! जब यजमान अभिषव फलकों पर शीघ्रता से हर्षकारी सोम को प्रस्तुत करता है तब तुम उसे पीते हो। उस समय अन्न की कामना करते हुए तुम्हें हवि और स्तुति अर्पित की जाती है।
आपका दिया हुआ वेदानुवाद इससे भिन्न क्यों है ?
क्या आप यह बताने की कृपा करेंगे ?
### हमने आपसे एक प्रश्न किया और आपने इल्ज़ाम की झड़ी लगा दी ?
ख़ैर हम आपका आदर करते हैं और बदले में हम आपके लिए वैसे ही शब्द नहीं बोलेंगे।
हम केवल पोस्ट के विषय पर ही बात करेंगे।
क्या आप पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के वेदानुवाद को सही और प्रामाणिक मानते हैं ?
दोनों का अर्थ एक ही है....एक शब्दार्थ है दूसरा विश्वार्थ...आचार्य जी वैदिक अर्थों में वैग्यानिकता व प्राक्रतिक अर्थ समाहित करते हैं..
हटाएं@आपका दिया हुआ वेदानुवाद इससे भिन्न क्यों है ? क्या आप यह बताने की कृपा करेंगे ?
जवाब देंहटाएंआपने कागज़ पर छपा/सम्पादित/पढा उधृत किया है, मैने मुख से कहा और कानों से सुना उद्धृत किया है। यदि हमें वेद के आशय में शंका होती तो शायद हम भी छपे हुए कागज़ ढूंढ रहे होते।
@क्या आप पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के वेदानुवाद को सही और प्रामाणिक मानते हैं ?
मेरे या आपके मानने न मानने से न सत्य बदलेगा और न वेद की सनातन परम्परा। जैसा मैने पहले कहा कि भारतीय परम्परा आग्रह की नहीं, समझ की है। हज़ारों साल तक वेदवाणी और उसके उपदेश को सम्भालने, पालन करने, और हम तक लाने वालों पर शक़ करने की कोई वजह नहीं है। उनका आचरण ही वेद के मन्तव्य का इशारा है। आपका आभार कि आपने भारतीय संस्कृति के अहिंसक मन्तव्य के विपरीत लगने वाली शंकायें यहाँ रखीं और इस बहाने आपके हाइलाइट किये शब्दों के उपयुक्त अर्थ भी सामने आये हैं और आपके उद्धृत मत्रों के अनुवाद भी।
डा. अनवर जमाल साहब ने अपनी टिप्पणियों में वैदिक सभ्यता का वह पक्ष भी यहां रख दिया है जिसे आम तौर पर शाकाहारी सामने आने नहीं देना चाहते।
जवाब देंहटाएंइस से चर्चा की क्वालिटी में इज़ाफ़ा हुआ है और पता चला है कि असल बात को कैसे बदलने की कोशिश की गई है ?
हम पिछली पोस्ट पर भी दो-तीन टिप्पणियां कर चुके हैं मगर उन्हें पब्लिश होने के बाद हटा दिया गया।
यह तो कोई अच्छी बात नहीं है कि अपने पक्ष के हरेक तरह के आदमी की टिप्पणियां प्रकाशित की जाएं चाहे उसमें ऐसी बात भी हो जिसे औरतें पढ़ते हुए शर्म महसूस करें और हमारी ठीक ठाक टिप्पणियां भी हटा दी जाएं।
इसे हटाना मत,
वर्ना इसे कहीं और दिखाया जाएगा और वह आपको पसंद न आएगा।
अयाज जी...अनवर जमाल ने कोई पक्ष नही रखा है..अपितु भ्रमित अर्थ लिये हुए घूमरहे हैं..सभी ने लानत भेजी है....आप अपने मुंह मियां मिट्ठू बन रहे हैं...
हटाएंआप लोग आर्य समाज के भाष्यो से इतना क्यों डरते हैं ?
हटाएंवेद आचार्यो के बस कि बात नहीं | कोई भी सामान्य संस्कृत जानने वाला अगर वेद का अनुवाद करे तो बिना अर्थ कि बाते बनेगी | क्यों के उसके ज्ञान का स्तर इतना हैं हि नहीं | क्यों कि कुरान मांसाहार बढ़ाती हैं सिर्फ इसलिए आपलोगों को तकलीफ हो रही हैं के वेद कैसे मानवता कि बात कर रहे हैं | महर्षि दयानंद कृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का अध्यान करिये द्वेष रहित होकर समझ आजाएगा | धन्यवाद
जमाल साहेब पहले लांछन लगाने की कुबुद्धि का त्याग कीजिये तब वेदार्थ ही नहीं मानाव जीवन का अर्थ भी समझ में आयेगा.
जवाब देंहटाएंवोह कहते है ना की 'थोथा चना बाजे घना' .............. वैसे मत बनिए. अनुरागजी के बताये और आपके दर्शाए में कहाँ भाव-विभेद है ज़रा बताइए तो ???
अनुराग जी के लिखे पत्थर और आपके दर्शाए अभिषव फलक दोनों ही अभिषव कर्म के अंगीभूत है जिसका आशय सोमलता को पत्थर पर चटनी के भांति पीसकर वस्त्र से छानकर मंथन किया हुआ दही मिलाकर तैयार करना होता है.
आप उस परम्परा के अनुगामी हैं जहाँ लिखे हुए को बिना अपनी बुद्धि लगाए भेड़-चाल से अनुगमन करने का आदेश है, जबकि वैदिक मार्ग ज्ञान को अनुभवगम्य अनुगमन करने की स्वतन्त्रता देता है.
इसलिए दोष आपका नहीं है की आप सद्शास्त्रों में अपनी सोची बात आरोपित करने का उपक्रम करतें है.
अब आप को तो शायद यह भी नहीं पता होगा की वेदों में, गीता में या उपनिषदों में "यज्ञ" किस कर्म के लिए आया है, जो स्थूल अर्थ आपकी स्थूल बुद्धि में गम्य हुआ है उसी के अनुसार भी जब आपकी तिकड़में भ्रष्ट है तो वैदिक दर्शन के "यज्ञ-कर्म" के सन्दर्भ में तो आप जैसे वेदों आदि में हिंसा-मांसाहार सिद्ध करने वालों की बुद्धि पर तरस आता है.
परमेश्वर ने इस पावन ज्ञान से आप लोगों को वंचित क्यों रखा है. बात किसी मुसलमान या इसाई की नहीं है , बात हम सभी की हैं जो वैदिक ज्ञान को ठीक से नहीं समझ सकें है. चाहे आजके हिन्दू हों या अन्यधर्मी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि वेदों में तो इस तरह के उपासना विभेद का कोई वर्णन नहीं है.
जो विभेद सुर-असुर का किया है उसी सन्दर्भ में यह बात कह रहा हूँ की जो वेद निर्देशित करुणा, अहिंसा, विश्वबंधुत्व, त्याग, संयम आदि के पथ पर अधिकाधिक चलने का उपक्रम करता है वह तो वेद ज्ञान के प्रकाश से पूत सुर है और जो वेदज्ञान के प्रकाश को नकार कर उलजुलूल स्थापना का प्रयास करतें है वे कुपंथी असुर हैं . निच्शित हमें ही करना है की हम सुर बनेंगे या असुर.
वाह...वाह ...वाह....
हटाएंदेवासुर संग्राम
@ आदरणीय भाई अनुराग शर्मा जी ! आपने पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जी के मुख से वेदानुवाद सुना, अच्छा किया लेकिन जो कुछ आपने सुना है वह केवल आप तक ही रहेगा जबकि जो वेदानुवाद आचार्य जी ने प्रकाशित किया है। उसका लाभ सबको मिल रहा है। हमारी ख़ुशक़िस्मी यह है कि हमारे पास उनका प्रामाणिक किताबी वेद-अनुवाद भी है और आप जैसा भाई भी है, जिसने उनके श्रीमुख से भी वेदानुवाद सुना है और उसे उनके वेदानुवाद पर कोई शंका और संशय भी नहीं है।
जवाब देंहटाएंहम यहां पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के वेदानुवाद के दो मंत्रों को आपकी मदद से समझने की कोशिश करेंगे-
# पहला मंत्र
क्रव्यादमग्निं प्र हिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः।
इहवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन्।।
अर्थात मांस भक्षक अग्नि जिनके स्वामी यम हैं, उन्हीं का सामीप्य प्राप्त करें। जो अग्नि यहां हैं, वे ही हमारी हवियों को देवताओं के पास पहुंचावें।
-ऋग्वेद, 10, 16, 9
‘अग्नि‘ को इस मंत्र का देवता बताया गया है और इस मंत्र में अग्नि को स्पष्ट रूप से मांस भक्षक कहा गया है।
## दूसरा मंत्र
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् त्सो अंग वेद यहि वा न वेद ।।
अर्थात यह विभिन्न सृष्टियां किस प्रकार हुईं ? इन्हें किसने रचा ? इन सृष्टियों के जो स्वामी हैं वह दिव्यधाम में निवास करते हैं, वही इनकी रचना के विषय से जानते हैं, यह भी संभव है कि उन्हें भी यह सब बातें ज्ञात न हों।
-ऋग्वेद, 10, 129, 7
इन मंत्रों के बारे में आपने पं. श्री राम शर्मा आचार्य जी के मुख से कुछ सुना हो तो आप इस विषय में बताने की कृपा करें !
क्या परमेश्वर के बारे में यह मान लेना ठीक होगा कि वह सारी सृष्टियों का स्वामी तो है लेकिन हो सकता है कि
‘उन्हें भी यह सब बातें ज्ञात न हों ?‘
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@@ प्रिय बंधु अमित शर्मा जी ! आपने ऋग्वेद 10, 28, 3 के पूरे अनुवाद का मिलान किया होता तो आप जान लेते कि ‘पचन्ति ते वृषभां‘ का जो अर्थ प्रकाशित वेदानुवाद में किया गया है, उसमें वृषभ का अर्थ नहीं मिल पा रहा है और आपने भी उसे गोल कर दिया है। इसके बाद आप व्यक्तिगत आक्षेप पर उतर आए।
तर्क न हो तो कोई बात नहीं है,
साफ़ स्वीकारने में क्या हर्ज है ?
पता आपको भी है कि हमारा आपका संबंध ऐसे ही टूटने वाला तो है नहीं,
हमें आपकी मुस्कान शुरू से ही प्यारी लगती है।
ख़ैर, इस टिप्पणी में दिए गए मंत्रों पर आप भी विचार करके हमारा ज्ञानवर्धन कीजिए,
हम आपके आभारी रहेंगे।
आप दोनों साहिबान का बहुत बहुत शुक्रिया !
I send afar flesh eating Agni, bearing off stains may he depart to Yama's subjects.
हटाएंBut let this other Jātavedas carry oblation to the Gods, for he is skilful.
Griffit mahoday iska anuvaad ye karte hai
@ Dr. Ayaz Ahmad
जवाब देंहटाएंडा. अनवर जमाल साहब ने अपनी मिथ्या(असन्दर्भित) टिप्पणियों से वैदिक सभ्यता पर हिंसा का कुत्सित आरोपण ही किया है। और सभी को अपनी ही तरह मांसभक्षी दर्शाने का असफल प्रयास किया है जिसका अन्य विद्वान प्रमाण और मूल सिद्धांत की भावना को बार बार उद्घाटित कर, हिंसाचार दुराग्रह को स्पष्ट रूप से वेदों से दूर ही किया है।
इस या पिछली पोस्ट से आपकी कोई भी टिप्पणी न तो हटाई गई न अभी तक अप्रकाशित रखी गई है। निरामिष ब्लॉग स्वयं चाहता है आप और डॉ अनवर जमाल जैसे लोग अवश्य इस चर्चा में हिस्सा ले और अपने मांसाचार, हिंसाचार की उपादेयता पर अपने विचार रखे। हम स्पष्टता से मानते प्रबुद्ध पाठक वर्ग स्वयंमेव नीर क्षीर विभाजन कर लेगा।
निरामिष ब्लॉग दृढता से इस बात में विश्वास रखता है कि मांसाहार किसी के भी जीवन में अपरिहार्य नहीं है। फिर करूणावान सभी जीवों का कल्याण चाहने वाले परमेश्वर की वाणी वेद में हिंसाचार को आचरणीय कैसे बताया जा सकता है?
आपकी टिप्पणी यहां प्रकाशित करने के बाद भी आप इसे चाहें वहां प्रकाशित कर सकते है, हां निरामिष के लेख और उसपे आई टिप्पणीयां निरामिष की सामग्री है, बिना अनुमति इसे प्रकाशित करना चोरी है। अनुमति मात्र लेकर इसे साभार कहीं भी प्रकाशित किया जा सकता है। बस इस शर्त के साथ कि इनका प्रयोग ज़हर उगलने, नफ़रतें फैलानें और निंदा करने के लिए नहीं किया जाएगा।
@ क्रव्यादमग्निं प्र हिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः।
जवाब देंहटाएंइहवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन्।।
अर्थात मांस भक्षक अग्नि जिनके स्वामी यम हैं, उन्हीं का सामीप्य प्राप्त करें। जो अग्नि यहां हैं, वे ही हमारी हवियों को देवताओं के पास पहुंचावें।
-ऋग्वेद, 10, 16, ९
जमाल साहेब इसीलिए तो कहता हूँ की जब तक हम सभी स्थूल बुद्धि से ही समझने का प्रयास करेंगे तो कुछ समझने में नहीं आयेगा.
मांस भक्षक अग्नि जिनके स्वामी यम हैं इसमें तो सीधा सीधा अर्थ प्रकाशित है की जो अग्नि चिता पर मांस को जलाती है उसे "क्रव्याद" यानी मांस भक्षक अग्नि कहते हैं वह अपने स्वामी यम जो की मृत्यु के देवता हैं के पास ही रहें. और जो अग्नि इस यज्ञकर्म की अग्नि "हव्यवाहिनी" अग्नि यहाँ है वे ही हमारी हवियों को देवताओं के पास पहुंचावें।
अर्थात क्रव्याद अग्नि इस यज्ञकर्म से दूर रहें .
आप शायद पोस्ट को भी ध्यान से नहीं पढतें है इस पोस्ट में ही साफ़ साफ़ लिखा है -----
सभी जानतें है की यज्ञ कर्म में भूल से भी कोई कर्मी-कीट अग्नि से मर ना जाये इसके लिए अनेक सावधानियां बरती जाती है. वेदी पर जब अग्नि की स्थापना होती है तो उसमें से थोड़ी सी आग निकालकर बाहर रख दी जाती है की कहीं उसमें 'क्रव्याद' (मांस-भक्षी या मांस जलाने वाली आग ) के परमाणु न मिल गएँ हो, इसके लिए 'क्रव्यादांशं त्यक्त्वा' होम की विधि है.
जमाल साहेब मैंने सिर्फ पत्थर के टुकड़े और अभिषव फलकों का निराकरण किया है. इत्निसी बात क्यों नहीं समझे :))
इसी लिए मैं भी कह रहा हूँ की तर्क न हो तो कोई बात नहीं है, साफ़ स्वीकारने में क्या हर्ज है ? की आप साफ़ बात को नहीं स्वीकारने की शपथ खाकर सिर्फ कीचड़ उछालने के लिए ही प्रयासरत हैं.
दूसरे मंत्र के बारे में बाद में बात होगी पहले आप प्रथम मंत्र का जो अनर्थकारी अर्थ आपके समझ में आया और जो निराकरण आपके सामने आया है उससे सहमत हैं या नहीं यह बताइए .
@ भाई सुज्ञ जी ! आपने कहा है कि
जवाब देंहटाएं‘मांसाहार किसी के भी जीवन में अपरिहार्य नहीं है।‘
इस संबंध में ‘साइंस ब्लॉगर्स आफ़ इंडिया‘ की ताज़ा पोस्ट पर बताया गया है कि
शरीर का ढांचा हड्डियों पर खड़ा है और हड्डियों के लिए ज़रूरी तत्वों में से एक है ‘विटामिन डी‘।
शाकाहारी खुराक से विटामिन डी की आपूर्ति नहीं हो पाती है.
फिश तथा फिश आयल (तेल वाली मछली, मछली का तेल), विटामिन डी सम्पूर्ण तथा इससे पुष्टिकृत खाद्य विटामिन डी का स्रोत हैं. यदि धूप नहीं खाते हैं आप या कमतर एक्सपोज़र मिलता है सन का तब इन्हें आजमाएं.
देखें यह पोस्ट:
...क्या आपको अपनी हड्डियों का मिजाज़ मालूम है?
♠ ♥ आप विज्ञान और सत्य के विरूद्ध कोई विश्वास रखना चाहते हैं तो आप स्वतंत्र हैं।
विटामिन डी - सूर्य नमस्कार से पोषण
हटाएंअरे साइन्स ब्लोगर आफ़ इन्डिआ ...वही ज़ाकिर भाई का ही तो नहीं जो विग्यान से ही अनभिग्य ...और हर बात पर विग्यान विग्यान चिल्लाते हैं..
हटाएं@ प्रिय अमित जी ! आपका मत हमारे सामने आ गया है,
जवाब देंहटाएंज़रा अन्य विद्वानों की टिप्पणियां भी आ जाएं तो फिर हम इस पर अपनी राय देंगे,
इंशा अल्लाह !
@ शाकाहारी खुराक से विटामिन डी की आपूर्ति नहीं हो पाती है.
जवाब देंहटाएंअनवर जमाल साहब,
कोई पूर्वाग्रही छद्म वैज्ञानिक ही ऐसी वाक्य रचना कर सकता है।
क्योंकि आज सभी जानते है विटामिन डी का प्राईम स्रोत सूर्य-प्रकाश है। फिर भी दुग्ध-उत्पाद में प्रधानता से विटामिन डी पाया जाता है।
आगे आप और आपका वैज्ञानिक चुपके से कराहते है………
@ यदि धूप नहीं खाते हैं आप या कमतर एक्सपोज़र मिलता है सन का तब इन्हें आजमाएं.
हम कहते हैं, धूप से आपको केल्शियम सोखने के लिए पर्याप्त विटामिन डी मिल जाता है, तथापि आप दुग्ध उत्पादों को अपने भोजन में रखते ही है। मात्र आजमाने के लिए तुच्छ मांसाहार की तरफ जाने की जरूरत नहीं, फिर भी शरीर में बडी नॉर्मल सी मात्रा की जरूरत पड भी जाय तो उस की प्रतिपूर्ती आप औषध से भी कर सकते है।
एक बार फिर से देखें वह पंक्ति!!!, यह मांसभक्षियों के भ्रमजाल युक्त विज्ञापन से अधिक क्या है?
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
जवाब देंहटाएं@शाकाहारी खुराक से विटामिन डी की आपूर्ति नहीं हो पाती है.
एकदम भ्रामक कथन. ऊपर "निरामिष" की टिप्पणी पढिये और आज से ही इस अज्ञान को त्याग दीजिये। मांसाहारियों में भी विटामिन डी की कमी के बहुत से केस पाये जाते हैं। सौर किरणे हमारी त्वचा के संसर्ग में आकर विटामिन डी का निर्माण करती हैं। वैसे दूध और उसके उत्पाद में भी विटामिन डी बहुतायत में होता है।
आपकी विटामिन बी की आशंका का निराकरण इसी ब्लॉग पर पहले ही किया जा चुका है और अब विटामिन डी की आपकी आशंका भी हल हो गयी है। वेदपालक ब्राह्मणोंके जीवन से प्रेरणा लेकर आप सात्विक शाकाहारी भोजन आरम्भ करेंगे तो आपकी इस प्रकार की कमियों की आशंका समाप्त हो जायेगी। तो कब शुरू कर कर रहे हैं आप शाकाहार समर्थन अभियान?
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
जवाब देंहटाएं@हमारी ख़ुशक़िस्मी यह है कि हमारे पास उनका प्रामाणिक किताबी वेद-अनुवाद भी है और आप जैसा भाई भी है, जिसने उनके श्रीमुख से भी वेदानुवाद सुना है और उसे उनके वेदानुवाद पर कोई शंका और संशय भी नहीं है।
पिछले मंत्रों के बारे में आपकी शंका मिट गयी है, अच्छा हुआ। अज्ञानवश उन मंत्रों के साथ जो भी व्यवहार हुआ हो, आशा है कि अब उनका सही और भारतीय संस्कृति और महान अहिंसक परम्परा के अनुकूल अर्थ मिल जाने के बाद आप हिंसा के प्रचार से बच सकेंगे, शुभकामनायें।
@ प्रिय अमित जी ! आपका मत हमारे सामने आ गया है,
मंत्र की व्याख्या अमित जी ने फिर से कर दी है। स्पष्ट है कि मंत्र का अभिमत ही अमित जी का मत है। "भारतीय संस्कृति में मांस भक्षण?" आलेख में मैं भी वही अभिप्राय आपके सामने रख चुका हूँ। अग्नि देवों का हव्य और पितरों का कव्य, यह दोनों ही ले जाने का माध्यम है। देवों व पितरों के लिये यज्ञ के अन्न और अन्न के पिंड तो अग्नि स्वीकारती ही है हमारी मृत देह भी ही उसे समर्पित होती हैं। उपरोक्त मंत्र में बस यही स्पष्ट किया है कि यज्ञकुण्ड की अग्नि श्मशान की अग्नि से भिन्न है। श्मशान की अग्नि यम की है। भारत में रहते हुए भी यदि किसी का आज तक इन दोनों ही प्राचीन परम्पराओं से परिचय न हो तो आश्चर्य की बात है।
अयाज़ जी,
जवाब देंहटाएंविषय से इतर बात है परंतु बताना आवश्यक है कि टिप्पणियों की समस्या इस समय ब्लॉगर प्लेटफ़ॉर्म पर सर्वव्यापक है। यह किसी ब्लॉग विशेष की नहीं बल्कि गूगल की तकनीकी समस्या है। न केवल टिप्पणियाँ स्पैम में जा रही हैं बल्कि बहुत से केस में - और यह व्यवहार मैने अपनी टिप्पणियों के साथ कई ब्लॉग्स पर देखा है - प्रकाशित होने के बाद भी गायब हो जा रही हैं।
@@ आदरणीय भाई अनुराग शर्मा जी व प्रिय बंधु अमित शर्मा जी !
जवाब देंहटाएंकृप्या ध्यान दें कि हमने यह भी पूछा है कि ‘पचन्ति ते वृषभां‘ का जो अर्थ प्रकाशित वेदानुवाद में किया गया है, उसमें वृषभ का अर्थ नहीं मिल पा रहा है और आपने भी उसे गोल कर दिया है।
इसी के साथ हमने यह भी पूछा था कि
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् त्सो अंग वेद यहि वा न वेद ।।
अर्थात यह विभिन्न सृष्टियां किस प्रकार हुईं ? इन्हें किसने रचा ? इन सृष्टियों के जो स्वामी हैं वह दिव्यधाम में निवास करते हैं, वही इनकी रचना के विषय से जानते हैं, यह भी संभव है कि उन्हें भी यह सब बातें ज्ञात न हों।
-ऋग्वेद, 10, 129, 7
इन मंत्रों के बारे में आपने पं. श्री राम शर्मा आचार्य जी के मुख से कुछ सुना हो तो आप इस विषय में बताने की कृपा करें !
क्या परमेश्वर के बारे में यह मान लेना ठीक होगा कि वह सारी सृष्टियों का स्वामी तो है लेकिन हो सकता है कि
‘उन्हें भी यह सब बातें ज्ञात न हों ?‘
जब आप बता ही रहे हैं तो इनके बारे में भी अपना मत बता दीजिए ताकि फिर पूरी तरह से हम आपके जवाब की समीक्षा कर सकें और बात आगे बढ़े।
आभार !
ऊपर विज्ञ महानुभाओं जिनकी बातों ने आपकी जड़ें हिला दीं है...के द्वारा प्रस्तुत संस्कृत शब्दकोश के लिंक पर जाएं वृषभ के अर्थों में vigorous, strong, bull,velvet bean (mucuna prurita)आदि दिए गए है...सोम भी औषधि है और वेलवेट बीन अर्थात कपिकच्छु आत्मगुप्ता कंडूरा मार्कटि ( वानरी... केवांच) भी है। यह बल्य वृष्य और वृहण है
हटाएंतद्वीजं वातशमनं स्मृतं वाजीकरम् परम्।(भाव प्रकाश) ....अब रही बात अर्थ ग्रहण करने की मियां जमाल वेद वाङ्गमय कुरान की लकीर नहीं...हम भी लकीर के फकीर नही ...रही सदाशयता और शांति की बात पूरा मध्यपूर्व एक धर्म की शांति पूर्ण कार्यों से आपकी भाषा में लबरेज है ...
आदरणीय जमाल साहब यह ब्लॉग शाकाहार के प्रचार -प्रसार के लिए है, और तद्विषयक पोस्टें यहाँ प्रकाशित हो रही है. अब जब आपने वेदों में मांसाहार आरोपित किया है और आपको समुचित निराकरण भी मिल रहें है तो मैदान क्यों कर छोड़ रहें है ???? चर्चा वेदों में शाकाहार-मांसाहार से हटा कर ; नासदियसूक्त की गहनज्ञान गुहा में क्योंकर ले जाना चाह रहें है ???? समाधान तो इसका भी समुचित है आपके लिए पर एक विषय तो पहले पूरा कीजिये वेदों में मांसाहार को तो सिद्ध कीजिये !!!
जवाब देंहटाएंऔर जो आप "‘पचन्ति ते वृषभां" का अर्थ नहीं समझ पायें तो बात पक्की है की कभी समझ भी नहीं पायेंगे क्योंकि आप सिर्फ अनर्गल आक्षेप लगाने के लिए ही नाम-साम्य प्रकरण ढूंढने/उठाने का उद्योग करतें है; लेकिन सन्दर्भ से काटकर. जब पूरा प्रकरण ही इन्द्र के बल-वर्णन स्तुति के लिये है, तो यहाँ स्पष्ठ है की बलकारक सोमरस के साथ बलकारक ऋषभकंद का ही उल्लेख है, सांड/बैल के मांस का नहीं.
जवाब देंहटाएं@ प्रिय बंधु अमित शर्मा जी ! नासदीय सूक्त के बारे में हमने भाई अनुराग जी से इसलिए पूछा था कि हो सकता है उन्होंने पं. श्री राम शर्मा आचार्य जी के मुख से इस मंत्र के बारे में कुछ सुना हो ?
जवाब देंहटाएंउनके उत्तर की हम प्रतीक्षा कर रहे हैं।
आपने बताया है कि ऋग्वेद 10, 28, 3 में ‘वृषभ‘ से तात्पर्य बैल न होकर ‘ऋषभकंद‘ है।
आपने इस मंत्र से क्या अर्थ ग्रहण किया है यह अलग बात है,
हमने यहां पं. श्री राम शर्मा आचार्य जी का मत जानना चाहा था क्योंकि उन्होंने मंत्र के अनुवाद में न तो बैल का ज़िक्र किया है और न ही ऋषभकंद का। हो सकता है कि पं. श्री राम शर्मा आचार्य जी इस मंत्र का अनुवाद करते समय ‘ऋषभ‘ शब्द का अनुवाद करना भूल गए हों।
ख़ैर, आप ऋषभकंद के बारे में ही कुछ जानकारी दीजिए,
यह क्या होता है और यज्ञ सामग्री में इसका क्या उपयोग किया जाता है ?
क्या इसके पैर, आंखें और पसलियां आदि भी होती हैं ?
♥ यज्ञ में पशुओं के साथ व्यवहार ♥
उदीचीनां अस्य पदो निधत्तात् सूर्यं चक्षुर्गमयताद् वातं प्राणमन्ववसृजताद्.
अंतरिक्षमसुं दिशः श्रोत्रं पृथिवीं शरीरमित्येष्वेवैनं तल्लोकेष्वादधाति.
एकषाऽस्य त्वचमाछ्य तात्पुरा नाभ्या अपि शसो वपामुत्खिदता दंतरेवोष्माणं
वारयध्वादिति पशुष्वेव तत् प्राणान् दधाति.
श्येनमस्य वक्षः कृणुतात् प्रशसा बाहू शला दोषणी कश्यपेवांसाच्छिद्रे श्रोणी
कवषोरूस्रेकपर्णाऽष्ठीवन्ता षड्विंशतिरस्य वड्. क्रयस्ता अनुष्ठ्योच्च्यावयताद्. गात्रं गात्रमस्यानूनं कृणुतादित्यंगान्येवास्य तद् गात्राणि प्रीणाति...ऊवध्यगोहं पार्थिवं खनताद् ...अस्ना रक्षः संसृजतादित्याह.
-ऐतरेय ब्राह्मण 6,7
अर्थात इस पशु के पैर उत्तर की ओर मोड़ो, इस की आंखें सूर्य को, इस के श्वास वायु को, इस का जीवन (प्राण) अंतरिक्ष को, इस की श्रवणशक्ति दिशाओं को और इस का शरीर पृथ्वी को सौंप दो. इस प्रकार होता (पुरोहित) इसे (पशु को) दूसरे लोकों से जोड़ देता है. सारी चमड़ी बिना काटे उतार लो. नाभि को काटने से पहले आंतों के ऊपर की झिल्ली की तह को चीर डालो. इस प्रकार का वह पुरोहित पशुओं में श्वास डालता है. इस की छाती का एक टुकड़ा बाज की शक्ल का, अगले बाज़ुओं के कुल्हाड़ी की शक्ल के दो टुकड़े, अगले पांव के धान की बालों की शक्ल के दो टुकड़े, कमर के नीचे का अटूट हिस्सा, ढाल की शक्ल के जांघ के दो टुकड़े और 26 पसलियां सब क्रमशः निकाल लिए जाएं. इसके प्रत्येक अंग को सुरक्षित रखा जाए, इस प्रकार वह उस के सारे अंगों को लाभ पहुंचाता है. इस का गोबर छिपाने के लिए जमीन में एक गड्ढा खोदें. प्रेतात्माओं को रक्त दें.
अब आप ख़ुद देख सकते हैं कि यह पशु का वर्णन है या किसी औषधि का ?
वह कौन सी औषधि है जिसके पैर , आंखें और 26 पसलियां हों ?
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@@ क्या भाई अनुराग शर्मा जी अमित जी से सहमत हैं कि वृषभ का अर्थ ऋषभकंद ही है या उनका नज़रिया कुछ और है ?
कृप्या जानकारी दें !
डॉ अनवर जमाल साहब,
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो आपने निवेदन है, बात को अनावश्यक फैलाएं नहीं, और न विषयान्तर करने का प्रयत्न करें।
1-आपने पहले भी आपने वेदमंत्रों के हिंसामूलक अर्थ प्रस्तुत किए है। और ‘सन्दर्भ’ पूछने पर आप मौन है। पता तो चले यह कौन लोग है जो वेदों में हिंसा आरोपित करते है। आप और आपके संस्थान का ऐसे प्रचार में क्या हित है? आपने शंकराचार्य पर वैदिक यज्ञों में पशुबलि का आरोप लगाया, आपके इस कथन का स्रोत क्या है? आप बता सकते है, शंकराचार्य यज्ञ निर्दोष करवाते है या हिंसार्थक? शंकराचार्य का आहार कौनसा है?
2-यहां संस्कृत की पाठशाला नहीं चल रही, पहले ही बता चुके है कि वेदिक संस्कृत और उसका अर्थाभिगम दुर्लभ है। पहले आप लौकिक संस्कृत का ज्ञान प्राप्त कर लें। फिर वैदिक संस्कृत को किसी विद्वान का समर्पण भाव से शिष्यत्व ग्रहण कर सीखें। अर्थाभिगम तो आपकी मेघा पर निर्भर करेगा। वृषभ के अनेकार्थी (यह लिंक देखें: संभाषण संस्कृतं पर वृषभ शब्द) सहित सापेक्ष अर्थ के प्रयोग पर अमित जी और अनुराग जी स्पष्ट करते रहे है। फिर भी श्रीराम शर्मा प्रकाशित वेदानुवाद की यह प्रतिलिपि (यह लिंक देखें: पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा किये वेदमंत्र की छपी हुई प्रति)
देखें, यहां वृषभ शब्द गोल नहीं हुआ है, सही अर्थ में प्रस्तुत हुआ है, यदि इस प्रकार अध्ययन भी नहीं कर सकते तो सार्थक अर्थ कैसे समझ पाएंगे?
और अब ऋग्वेद के शब्द व्यवहार पर, कुदकर ऐतरेय ब्राह्मण का सन्दर्भ क्यों?
3-ईश्वर की परिभाषा पूछ कर यहां विषयान्तर चेष्टा न करें।
@ @ भाई सुज्ञ जी ! आदरणीय शंकराचार्य जी के बारे में भी बताया जाएगा और जहां से बताया जाएगा , उसका हवाला भी दिया जाएगा लेकिन आप थोड़ा धीरज तो धरें और जिससे जो बात चल रही है, उसमें दख़ल देकर ख़लल न डालें।
जवाब देंहटाएंउपरोक्त टिप्पणी में आपको मुख़ातिब नहीं किया गया है और वृषभ के अर्थ पर बात चल रही है।
हम नहीं समझ पाएंगे ,
यह तय करने वाले आप कौन हैं ?
वैसे भी हम अपने बल पर समझने का दावा कर ही कब रहे हैं भाई ?
हम तो आप सबसे यह कह रहे हैं कि वैदिक यज्ञ में पशुओं की बलि के बारे में वैदिक विद्वान हमेशा से जानकारी रखते हैं।
बीच में बोलकर ख़लल डालना लाज़िमी था क्या ?
बात का तारतम्य ही भंग हो गया।
हां, तो अमित जी और भाई अनुराग जी हम आपके जवाब की प्रतीक्षा में हैं और फिर कुछ टिप्पणियों के बाद हम बताएंगे शंकराचार्य जी का मत।
धन्यवाद !
देखो डाक्टर साहब अल्लाह ने तो ये भी कहा है कि दया भाव रखो पर बकरीद पर वो दया भाव कहा चला जाता है, जब बकरे को काटना तुम लोग पुण्य समझते हो। और हमारे गिरेबान मे झाकने से पहले उन्हे समझाआो जो अल्लाह के नाम पर कत्लेआम करते फिरते है। हम लोग शांकि व्यवस्था का समर्थन कर रहे,है और तुम तब से मारकाट का समर्थन कर रहे हो। अब मुझे समझ आ गया कि आतंकवादी कहाँ से आते है। बुरा मत मानना आपके विचारो को पढ़ने के बाद ही इस निष्कर्ष पर पहुँचा। क्योकि यहाँ पर किसी हिनदू ने मारकाट का समर्थन नही किया। पर आप उसी का समर्थन कर रहे है। जो बकरीद पर बकरा काट सकता है निर्दयी होकर,अल्लाह के नाम से वो तो फिर, उसके लिए कफिरो को मारना भी पुण्य ही हुआ। मुझे मेरे एक मुस्लिम मित्र ने ही बताया था कि कैसे हाफिज लोग मुस्लिमो को काफिर(हिन्दू) के खिलाफ भड़काते है, और वो आज भी मुस्लिम है,पर माँसाहारी नही रहा। समझ गयें आप या और कुछ भी बताऊ, क्योकि जहाँ तक मै जानता हूँ, आप जानते होंगे ये सब पर कभी नही कुबूल करेंगे। और JNU का केस इसका एक सीधा सा प्रमाण है, जहाँ हिन्दुस्तान मुर्दाबाद के नारे लगायें गये।
हटाएंकट्टर हम भी है,पर उससे किसी अन्य को नुकसान नही पहुचता है।
और न ही हम अपने देश जहाँ पढ़ लिखें खाया पिया उसके मुर्दाबाद के नारे लगाते है। ये सब छोड़कर आप अगर खालिद भाई को कुछ समझा पायें तो वो ज्यादा अच्छा लगेगा। और उन्हे साथ मे ये भी सिखाये की थाली(देश) मे छेंद करने की बजाय उस थाली(देश) का सम्मान करना सिखायें।
हटाएं@ डॉ. जमाल,
जवाब देंहटाएंआप वृषभ के अर्थ देखिये तो सही, ऋषभकन्द की बात भी अपने आप ही क्लीयर हो जायेगी। ऑक्स्फ़ोर्ड के संस्कृत प्राध्यापक सर मॉनियेर मॉनियेर-विलियम्स के ऋग्वैदिक शब्दकोष के अनुसार भी वृषभ का एक अर्थ बैल के सींग जैसी शक्ल की कन्द होता है। इसके अलावा वृषभ शब्द का अर्थ शक्ति और शक्तिमान है। आप तो पोषण के बारे में काफ़ी टिप्पणियाँ देते रहे हैं, आपको यह तो पता होगा कि शर्करा तुरंत शक्ति देती है। आप तो संस्कृत के विद्वान हैं, यह भी समझते होंगे कि वृषभ ऋषभ का ही एक रूप है, ठीक वैसे ही जैसे विशुद्ध, शुद्ध का। पहले जैन तीर्थंकर ऋषभदेव अयोध्या के प्रसिद्ध इक्ष्वाकु वंश में जन्मे थे और इक्ष्वाकु वंश को संसार में पहली बार ईख की खेती करने का श्रेय जाता है। वही गन्ने जिसके लिये सिकन्दर के साथ आये मेगस्थनीज़ ने आश्चर्य से लिखा था कि भारतीय लोग बिना मधुमक्खी के शहद बनाते हैं। ऋषभकन्द के बारे में इतनी जानकारी पाकर अब आपको अन्दाज़ लग जाना चाहिये कि बात किस चीज़ की हो रही है।
वेद और यज्ञ में हिंसा के आपके अब तक के आक्षेप का अच्छी तरह निराकरण हुआ है। अब और नया उधार लेने से पहले, पहले का पूरा नहीं तो कुछ तो चुकता करते जाओ। बात शाकाहार की हुई हो या वेदमंत्रों की, आपने पोषण और विटामिन के बारे में जो बात की, गलत साबित हुई, मंत्रों की बात की गलत साबित हुई, शब्दार्थ की बात की, गलत साबित हुई। लेकिन आप अभी भी नये सवाल लाये जा रहे हैं। इत्मीनान रखिये, आपके ताज़ातरीन सवालों के सटीक जवाब देने में हमें कोई समस्या नहीं है। सच तो यह है कि वे जवाब हज़ारो साल पहले दिये जा चुके हैं, और वो भी उन्हीं किताबों में जिनमें आप अभी तक बस सवाल ढूंढ रहे हैं। फिर भी अगर आप अपनी नई शंकाओं का निराकरण भी हमीं से सुनना चाहते हैं तो आपकी वह इच्छा भी अवश्य पूरी होगी मगर समय आने पर। तब तक के लिये स्पूनफ़ीडिंग करने के बजाय मैं उसका होमवर्क आज आप को ही देता हूँ:
होमवर्क: आपने जिस मंत्र को उद्धृत किया, उसके सूक्त में वर्णित संसार के उद्गम का विश्व का प्राचीनतम और सुन्दरतम विमर्श आगे वेदांत तक चला है, ज़रा ढूंढकर लाइये और पाठकों को बस इतना बता दीजिये कि यह विमर्श आगे कैसा चला और इसका निष्पादन किस उपनिषद में हुआ है?
[वैसे तो आपका सवाल विषय से इतर ही था, इसलिये "निरामिष" प्रवक्ता की अनुमति से यहाँ रखें अन्यथा मुझे ईमेल पर भेज दें, धन्यवाद]
@ भाई अनुराग शर्मा जी ! आपकी ख्वाहिश का सम्मान करते हुए हमने नासदीय सूक्त पर हुए विमर्श को तलाश किया तो हमें यह मिला है, आप एक नज़र देख लेंगे तो हम आपके शुक्रगुज़ार होंगे।
हटाएंवेद में सरवरे कायनात स. का ज़िक्र है Mohammad in Ved Upanishad & Quran Hadees
यह जानने के लिए आज हम वेद भाष्यकार पंडित दुर्गाशंकर सत्यार्थी जी का एक लेख यहां पेश कर रहे हैं।
आज तक लोगों ने यही जाना है कि ‘ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो ज्ञानी होय‘ लेकिन अगर ‘ज्ञान‘ के दो आखर का बोध ढंग से हो जाए तो दिलों से प्रेम के शीतल झरने ख़ुद ब ख़ुद बहने लगते हैं। यह एक साइक्लिक प्रॉसेस है।
पंडित जी का लेख पढ़कर यही अहसास होता है।
मालिक उन्हें इसका अच्छा पुरस्कार दे, आमीन !
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‘इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। यो अस्याध्यक्षः परमेव्योमन्तसो अंग वेद यदि वा न वेद।‘
वेद 1,10,129,7
यह विविध प्रकार की सृष्टि जहां से हुई, इसे वह धारण करता है अथवा नहीं धारण करता जो इसका अध्यक्ष है परमव्योम में, वह हे अंग ! जानता है अथवा नहीं जानता।
सामान्यतः वेद भाष्यकारों ने इस मंत्र में ‘सृष्टि के अध्यक्ष‘ से ईशान परब्रह्म परमेश्वर अर्थ ग्रहण किया है, किन्तु इस मंत्र में एक बात ऐसी है जिससे यहां ‘सृष्टि के अध्यक्ष‘ से ईशान अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह बात यह है कि इस मंत्र में सृष्टि के अध्यक्ष के विषय में कहा गया है - ‘सो अंग ! वेद यदि वा न वेद‘ ‘वह, हे अंग ! जानता है अथवा नहीं जानता‘। ईशान के विषय में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि वह कोई बात नहीं जानता। फलतः यह सर्वथा स्पष्ट है कि ईशान ने यहां सृष्टि के जिस अध्यक्ष की बात की है, वह सर्वज्ञ नहीं है। मेरे अध्ययन के अनुसार यही वेद में हुज़ूर स. का उल्लेख है। शब्द ‘नराशंस‘ का प्रयोग भी कई स्थानों पर उनके लिए हुआ है किन्तु सर्वत्र नहीं। इसी सृष्टि के अध्यक्ष का अनुवाद उर्दू में सरवरे कायनात स. किया जाता है।
फलतः श्वेताश्वतरोपनिषद के अनुसार वेद का सर्वप्रथम प्रकाश जिस पर हुआ। वह यही सृष्टि का अध्यक्ष है। जिसे इस्लाम में हुज़ूर स. का सृष्टि-पूर्व स्वरूप माना जाता है।
मैं जिन प्रमाणों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं, आइये अब उसका सर्वेक्षण किया जाए।
Go to -
http://www.vedquran.blogspot.in/2012/01/mohammad-in-ved-upanishad-quran-hadees.html
डॉ अनवर जमाल साहब,
हटाएंदो माह बाद यहां यह टिप्पणी चिपकाने का क्या अर्थ है? पूर्व में आपकी सभी बातों को मिथ्या साबित किया जा चुका है।
यह लेख "यज्ञ हो तो हिंसा कैसे" के प्रत्युत्तर में वेदों में 'सरवरे कायनात स.' की उपस्थिति बता कर कहना क्या चाहते है? इससे हिंसाचार सिद्ध हो जाएगा?
यह बात डंके की चोट पर सूर्य-चन्द्र के सत्य समान शास्वत सत्य है कि वेद और यज्ञ न हिंसा की अनुमति देते है न ही आज्ञा। इस सच्चाई को हम भी बार बार दोहराना नहीं चाहते। यह अटल सत्य है कि वेदों में हिंसा व हिंसको के लिए कोई स्थान नहीं है।
यह सत्य महाभारत में स्पष्ट हो चुका है………जो पूर्व में भी वर्णित है, फिर से देख लें……
महाभारत के शान्तिपर्व का श्रलोक- २६५:९
सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥
सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि भोजन, धूर्त प्रवर्तित है जिन्होनें ऐसे अखाद्य को वेदों में कल्पित कर दिया है।
@ फलतः श्वेताश्वतरोपनिषद के अनुसार वेद का सर्वप्रथम प्रकाश जिस पर हुआ। वह यही सृष्टि का अध्यक्ष है। जिसे इस्लाम में हुज़ूर स. का सृष्टि-पूर्व स्वरूप माना जाता है।
हुज़ूर स. का सृष्टि-पूर्व स्वरूप? ‘नराशंस‘??? यानि पूर्व-जन्म, वैदिक-काल में? चलो अच्छा है आप जन्म-जन्मातर तो मानने लगे!!!
@ भाई सुज्ञ जी ! समय से पहले कोई कुछ नहीं कर सकता। यह बात आप अच्छी तरह जानते हैं।
हटाएंआप यह भी जानते हैं कि वेद उपनिषद गूढ़ विषय हैं। अतः आपकी आपत्ति फ़िज़ूल है कि दो माह टिप्पणी क्यों की ?
दूसरी बात यह है कि हम यह मानते हैं कि इस धरती पर जन्म लेने से पहले भी जन्म लेने वाले की आत्मा अपना अस्तित्व रखती है। इस तरह हम जन्म को भी मानते हैं और जन्मातंर को भी और पुनर्जन्म को भी।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. की आत्मा इस लोक की सृष्टि से पूर्व अस्तित्व रखती थी। उसी का ज़िक्र इस टिप्पणी में किया गया है।
♠ इसी लोक में 84 लाख योनियों में आने जाने को न तो वेद मानते हैं और न ही हम !
http://www.vishvbook.com/hindu-holy-books.html
@ वेद उपनिषद गूढ़ विषय हैं। अतः आपकी आपत्ति फ़िज़ूल है कि दो माह टिप्पणी क्यों की ?
हटाएंअनवर साहब,
अज्ञान को लाख छुपाओ छुप नहीं सकता, किसी विद्वान की जूठन मिलने तक उसे इन्तजार करना पडता है जो इस टिप्पणी में लिखी बातों से स्पष्ट है
@ पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. की आत्मा इस लोक की सृष्टि से पूर्व अस्तित्व रखती थी
आप इस्लामिक सिद्धांतो का बेडा गर्क करके ही रहेंगे!! जिस वेदों के अर्थ बनाकर पेश किए गए है वह सृष्टि से पूर्व की मात्र आत्मा नहीं है।
कुल मिलाकर बात भटकाने की कोशिश कर रहें है अग्रज महोदय :)) अच्छा यह भी बताइए की अब तक आपने जो मंत्र आदि मांसाहार सिद्ध करने के लिए बताये उनके निराकरण से आप संतुष्ट हैं ना ???? क्योंकि नई जिज्ञासा तो तभी रखी जाती है जब पुरानी का निराकरण हो जाता है तो अब आप बतलाइये की अब तक की बात आपकी कहाँ तक सिद्ध हुयी है !!!!!!
जवाब देंहटाएंदूसरी महत्वपूर्ण बात जो आपके बुद्धि-परिक्षण के लिए परमावश्यक है की आप "यज्ञ" किसे मानते/जानते है ???? आपका बुद्धि-परिक्षण आवश्यक है .... बात व्यक्तिगत नहीं है , क्योंकि जो वेद पर आक्षेप लगा रहें है ; और निराकरण प्रस्तुत होने पर भी आगे वही बात दोहरा रहें है तो यह तो पता चले की "यज्ञ" से आप समझतें क्या है . यह प्रश्न आपसे ही नहीं है ;सभी असुर-बुद्धिसम्पन्न वेदार्थ अनर्थकर्ताओं से है लेकिन मेरे सामने तो आप ही मुखातिब है ; मुझे और कहीं पहुचने जितनी फुर्सत भी नहीं है इसलिए आपको माध्यम बनाकर प्रश्न पूछा गया है.
शंका आपने बहुत रखी समाधान भी निरामिष पर प्रकाशित हुए है,, अब आप भी तो हमें शंका प्रस्तुत करने का मौक़ा दीजिये !!!!
अनुरागजी की बात और मेरी शंका का निराकरण कीजिये बताइए
"यज्ञ" से आप क्या समझतें है , और वैदिक परम्परा में यज्ञ का स्वरुप क्या है."
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इस पोस्ट की समग्र सामग्री संग्रहणीय बन पड़ी है.... अनुराग जी और अमित जी ने साक्ष्यों के साथ जिन सवालों का उत्तर दिया .. मन प्रफुल्लित हुआ है.
जवाब देंहटाएंउनके किये प्रश्नों के उत्तर जानने के लिये इस निरामिष सभा में हम भी आ बैठे हैं.
@ pratul ji,
जवाब देंहटाएंham bhi is niramish sabha me intazaar kar rahe hain |
@ भाई अनुराग शर्मा जी ! आपने गन्ने के बारे में बहुत अच्छी जानकारी दी है, हमारा दिल ख़ुश हो गया है। आपके कहने का अर्थ यह है कि वेदमंत्रों में जहां वृषभ शब्द आया है वहां बैल के बजाय उसका अर्थ गन्ना लिया जाए।
जवाब देंहटाएंठीक है, अगर वृषभ का अर्थ ‘गन्ना‘ लेकर वेद, स्मृति और ब्राह्मण आदि ग्रंथों में आये विधि विधान को पूरा किया जा सकता है तो आपका अर्थ मानने में कोई आपत्ति नहीं है।
ऊपर आए ऐतरेय ब्राह्मण 6,7 के विधि विधान को आप गन्ने के साथ कैसे पूरा करेंगे ?
यज्ञ में हम भी शामिल होते रहते हैं लेकिन हमें तो वहां गन्ना दिखाई ही न दिया,
न तो खड़ा और न ही पड़ा। जबकि वृषभ का अर्थ बैल लेते ही सारे विधि विधान पूरे हो जाते हैं और इस तरह अर्थ की संगति ठीक बैठ जाती है।
देखिए
एक यज्ञ के कुछ फ़ोटो जिसमें हम शामिल हुए थे.
वह कौन सी औषधि है जिसके पैर , आंखें और 26 पसलियां हों ?
@ प्रिय अनुज अमित शर्मा जी !
जवाब देंहटाएंहम वेद पर कोई आक्षेप नहीं लगा रहे हैं और न ही उनके मंत्रों के अर्थ हम ख़ुद कर रहे हैं। पं. श्रीराम शर्मा आचार्य आदि सनातनी हिंदू विद्वानों द्वारा अनूदित ग्रंथों से ही अनुवाद लेकर हम यहां पेश कर रहे हैं।
ऊपर की टिप्पणी में ऋग्वेद 10, 16, 9 का अर्थ स्पष्ट करते हुए आपने कहा है कि
‘जो अग्नि चिता पर मांस को जलाती है उसे ‘क्रव्याद‘ यानि मांसभक्षक अग्नि कहते हैं।‘
हां, यहां चिता की बात ही हो रही है। चिता में तो अग्निदेव मांस खाते हैं न और वह भी मानव का मांस। इससे वैदिक देवता के स्वभाव के बारे में तो पता चलता है न कि वे चिता में मानव मांस खाते हैं।
यज्ञकर्म में अग्निदेव क्या ग्रहण करते हैं, इस पर आगे बात की जाएगी।
आज Hindizen blog की लाइन है
जवाब देंहटाएं" You see, in the final analysis, it is between you and God.....- it was never between you and him anyway."
अर्थात - आखिर तक आ कर , जो बात आप जिससे discuss कर रहे हैं, उसका अंतिम निर्णय आप दोनों ( वाद करने वाले पक्षों ) के बीच नहीं, बल्कि ( हम में से हर एक का ) स्वयं और परमेश्वर के बीच है |
यहाँ कोई बातों को कितना ही घुमा कर कैसे भी प्रस्तुत कर ले, यहाँ के निर्णय से आगे का निर्णय हर एक का इश्वर के साथ ही होना है | यहाँ पढने वाले सब जानते हैं की कौन, क्या , क्यों, और किस उद्देश्य से कर रहा है | और हम सब के जानने से पहले वह - जिसके नाम पर यह सब किया जा रहा है , वह जानता है की यह क्यों किया जा रहा है |
niramish ji , amit ji - yadi yah tippani vishay se itar lage - to kripaya prakashit n karein |
@ आपके कहने का अर्थ यह है कि वेदमंत्रों में जहां वृषभ शब्द आया है वहां बैल के बजाय उसका अर्थ गन्ना लिया जाए।
जवाब देंहटाएंक्यों जनाब, क्यों कर दें सभी जगह गन्ना अर्थ?, अनुराग जी नें आपको बार बार समझाया है कि वृषभ के अनेक अर्थ है, जिसका लिंक भी आपको दिया गया, हर अर्थ कथन सापेक्ष होता है, जिस अपेक्षा से कहा गया उसी अर्थ में उसे ग्रहण करना चाहिए। यह छोटी सी बात आपको पोस्ट से लेकर विभिन्न टिप्पणियों से कही गई। ज्ञानार्थी, मूढ़ता से एक ही शब्दार्थ सभी जगह लागू नहीं करते।
@ "यज्ञ में हम भी शामिल होते रहते हैं लेकिन हमें तो वहां गन्ना दिखाई ही न दिया,
न तो खड़ा और न ही पड़ा। जबकि वृषभ का अर्थ बैल लेते ही सारे विधि विधान पूरे हो जाते हैं और इस तरह अर्थ की संगति ठीक बैठ जाती है।"
डॉ अनवर जमाल साहब,
आज तो बैल देखने को मिलेगा,आघातजनक जिज्ञासा से हम आपके दिए इस लिंक पर पहुंचे, हमें तो उस यज्ञ चित्र में कोई बैल नज़र नहीं आया? "बैल लेते ही सारे विधि विधान पूरे" होते भी नहीं दृष्टिगोचर होते।
@यह लिंक मिथ्या सन्दर्भ है……
@एक यज्ञ के कुछ फ़ोटो जिसमें हम शामिल हुए थे.
@वह कौन सी औषधि है जिसके पैर , आंखें और 26 पसलियां हों ?
यहां न बैल है, न औषधि को स्पष्ट देखा जा सकता है, न आंखें और न 26 पसलियां ?
और यह अमित जी के प्रश्न ""यज्ञ" से आप क्या समझतें है , और वैदिक परम्परा में यज्ञ का स्वरुप क्या है." का जवाब भी नहीं।
इतने भोले तो आप नहीं हो जितना अपनी टिप्पणियों में दिखा रहे हैं :))
जवाब देंहटाएंजो अग्नि चिताग्नि है वह अपने नियत कर्म को कर रही है ; कर्म विमुख नहीं है .
लेकिन क्रव्याद होने से यज्ञ आदि कर्म में सर्वथा त्याज्य है . अर्थात वैदिक यज्ञ का एक प्रकार जिसमें वेदी में स्थापित यज्ञाग्नि में हविष्य समर्पित किया जाता है में , मांस सम्बन्धी परमाणु को भी दूर रखने के लिए "क्रव्याद-त्यक्तेन" किया जाता है . साफ़ है वैदिक यज्ञ में अहिंसा की कितनी सावधानी रखी गयी है.
और असुर लोग चले है वेदों में मांसहार सिद्ध करने . हा हा हा हा !!!
उदहारण तो ठीक दिया कीजिये !
यह देवता ही तो हैं जो अपने कर्म से विमुख नहीं होते , इसीलिए देवता कहलाते है . इसमें क्या अन्याय है की मृत शरीर की निवृति के लिए अग्नि उसका भक्षण :))
जवाब देंहटाएंकरती है.........हाँ अगर यह अग्नि कुर्बानी/बलि आदि विधि से मांस खाती तब तो आपका पक्ष वजनदार होता भैयाजी !!!
@चिता में तो अग्निदेव मांस खाते हैं न और वह भी मानव का मांस। इससे वैदिक देवता के स्वभाव के बारे में तो पता चलता है न कि वे चिता में मानव मांस खाते हैं।
जवाब देंहटाएंअनवर जमाल साहब,
पहले तो ऋग्वेद 10, 16, 9 के अर्थ पर मनन करें,"अर्थात मांस भक्षक अग्नि जिनके स्वामी यम हैं। उन्हीं का सामीप्य प्राप्त करें, जो अग्नि यहां हैं, वे ही हमारी हवियों को देवताओं के पास पहुंचावें।
1-‘क्रव्याद‘ अग्नी के स्वामी 'यम' है , अग्नीदेव नहीं।
2- इस तरह की अग्नी के देव (स्वामी)यम मृत्यु के देवता है।
3- यह अग्नी 'मृतकों' के मांस को जलाती है।
4- इसलिए ऐसी (मांसभक्षी)अग्नी को मैं दूर करता हूँ।
5- जो पवित्र अग्नी यहां है, मैं उसी का सामिप्य लेता हूँ।
6- क्योंकि यह पवित्र अग्नी ही हविष्य को देवताओं तक पहुंचाती है।
7- यहां पहुंचाने का कथन है, अग्नीदेव का मांसभक्षण का अर्थ नहीं।
आपके बुद्धि-विलास की बलिहारी है जो वेद-ज्ञान से भागते/पछाड़ खाते शमशान में चिताग्नी की रौशनी में वैदिक-यज्ञ में मांसहार ढूंढने लगें है.
जवाब देंहटाएंपरमेश्वर आप जैसे अन्य आक्षेपियों सहित हम सभी का कल्याण करें.
और हाँ जब आप ही विषयांतर करतें है तो मैं भी विषयांतर करके आपसे पूछ ही लूँ की इस वैदिक सुभाषित की जोड़ का कोई सुभाषित वैदिक साहित्य के इतर किसी धार्मिक साहित्य में आपको देखने को मिला है क्या, ------
"सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥"
ऐसे हजारों सुभाषित वैदिक साहित्य में मिलेंगे
अमित जी, कृपया जो श्लोक दे रहे हैं, उसका अर्थ (शब्दार्थ + भावार्थ) भी दे दीजिये साथ ही, कही ऐसा न हो की इसके अर्थ भी बदल कर आ जायें :) | हम सब तो वैदिक संस्कृत पांडित्य प्राप्त नहीं हैं न ?
जवाब देंहटाएंमासूमियत इतनी! भाई न तो मैंने कहीं वृषभ का अर्थ गन्ना कहा है और न ही गन्ना कन्द होता है। जैसा कि अमित जी ने स्पष्ट किया, उस मंत्र में वृषभ का अर्थ ऋषभकन्द ही है।
जवाब देंहटाएंवैसे हमने यज्ञ में खाद्यान्न की बालियों के साथ गन्ने, नारियल, मखाने, शकरकन्द, आदि बहुत कुछ देखा है। यदि आपने इतने वर्ष भारत रहते हुए भी यज्ञ में केवल बैल की परिकल्पना की तो यह भावना ही काफ़ी कुछ दर्शा रही है।
होमवर्क कब पूरा कर रहे हैं?
तो यह सिद्ध हो गया है की वेदों में मांसाहार का दुष्प्रचार मात्र दुष्प्रचार ही है . स्वयं वेद-भगवान् के अंतर्साक्ष्यों से स्वयं सिद्ध है की वेदों में हिंसा की अनुमति/समर्थन नहीं है. जो कुछ अनर्गल आक्षेपण वैदिक मन्त्रों के कुअर्थ करके लगाए जाते है वह सब कुछ असुर प्रकृति के लोगों का काम है.
जवाब देंहटाएंऔर यह भी सिद्ध हुआ है की यह कभी अपनी दुष्प्रवृत्ति छोड़ भी नहीं सकतें है ; कुछ समय तर्कहीन हो जाने पर चुप बैठ जाते है , फिर कुछ समय बाद वही घिसे-पिटे समाधित किये जा चुके तर्क लेकर फिर आ धमकते है. ऐसे ही लोगों के लिए भर्तृहरि नीतिशतकम् में कहा गया है -------
अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः ।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि तं नरं न रञ्जयति ॥
(भर्तृहरि विरचित नीतिशतकम्, श्लोक 3)
अज्ञः सुखम् आराध्यः, सुखतरम् आराध्यते विशेषज्ञः, ज्ञान-लव-दुः-विदग्धं ब्रह्मा अपि तं नरं न रञ्जयति ।
अर्थः गैरजानकार मनुष्य को समझाना सामान्यतः सरल होता है । उससे भी आसान होता है जानकार या विशेषज्ञ अर्थात् चर्चा में निहित विषय को जानने वाले को समझाना । किंतु जो व्यक्ति अल्पज्ञ होता है, जिसकी जानकारी आधी-अधूरी होती है, उसे समझाना तो स्वयं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के भी वश से बाहर होता है ।
“अधजल गगरी छलकत जात” की उक्ति अल्पज्ञ जनों के लिए ही प्रयोग में ली जाती है । ऐसे लोगों को अक्सर अपने ज्ञान के बारे में भ्रम रहता है । गैरजानकार या अज्ञ व्यक्ति मुझे नहीं मालूम कहने में नहीं हिचकता है और जानकार की बात स्वीकारने में नहीं हिचकता है । विशेषज्ञ भी आपने ज्ञान की सीमाओं को समझता है, अतः उनके साथ तार्किक विमर्ष संभव हो पाता है, परंतु अल्पज्ञ अपनी जिद पर अड़ा रहता है ।
(साभार --http://vichaarsankalan.wordpress.com/category/%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%A4%E0%A4%95/).
यह सिद्ध हो गया है कि ‘पचन्ति ते वृषभां‘ का जो अर्थ प्रकाशित वेदानुवाद में किया गया है, उसमें वृषभ का अर्थ नहीं मिल पा रहा है और आपने भी उसे गोल कर दिया है।
जवाब देंहटाएंआपने बताया है कि ऋग्वेद 10, 28, 3 में ‘वृषभ‘ से तात्पर्य बैल न होकर ‘ऋषभकंद‘ है।
ख़ैर, आप ऋषभकंद के बारे में ही कुछ जानकारी दीजिए,
यह क्या होता है और यज्ञ सामग्री में इसका क्या उपयोग किया जाता है ?
यह सिद्ध हो गया है कि “अधजल गगरी छलकत जात” की उक्ति अल्पज्ञ जनों के लिए ही प्रयोग में ली जाती है । ऐसे लोगों को अक्सर अपने ज्ञान के बारे में भ्रम रहता है । गैरजानकार या अज्ञ व्यक्ति मुझे नहीं मालूम कहने में नहीं हिचकता है और जानकार की बात स्वीकारने में नहीं हिचकता है । विशेषज्ञ भी आपने ज्ञान की सीमाओं को समझता है, अतः उनके साथ तार्किक विमर्ष संभव हो पाता है, परंतु अल्पज्ञ अपनी जिद पर अड़ा रहता है ।
डॉ अयाज़ अहमद साहब,
जवाब देंहटाएंडॉ अनवर जमाल साहब के सारे तर्कों को झूठ साबित करने के लिए यह एक प्रमाण ही काफी है………
डॉ अनवर जमाल साहब पेश करते है………
गव्येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्सरमिहोचयते .
-अनुशासन पर्व , 88, 5
अर्थात गौ के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की एक साल के लिए तृप्ति होती है।
अब यहां, संस्कृत का गैरजानकार भी ऐसा अर्थ नहीं कर सकता। इस पद में कहीं भी मांस शब्द है ही नहीं। "गव्येन दत्तं" का अर्थ है गौ-दान।
इस पूरे पद का अर्थ होता है- "श्राद्ध में गाय का दान करने से पितरों की वर्ष-भर की तृप्ति का लाभ मिलता है।
इससे यह भी प्रमाणित होता है कि प्रस्तुत सारे अर्थ दुर्भावना से तोड़े मरोड़े गए है। और निश्चित ही झूठ पर आधारित है।
हमने क्या पूछा है आप जवाब क्या दे रहे हैं ?
जवाब देंहटाएंकिस बात की घबराहट है ?
हम पूछ रहे हैं ऋषभकंद के बारे में और आप बता रहे हैं गाय के बारे में ?
हमने यह पूछा है कि आप जिस चीज़ को ऋषभकंद कह रहे हैं। वह क्या चीज़ है ?
उसका उपयोग यज्ञ में आप किस तरह करते हैं ?
जब वह एक वनस्पति है तो उसका बॉटैनिकल नाम भी होगा और उस पर वेद के शोधकों ने बहुत सी रिसर्च भी कर रखी होगी।
आप हमें ऋषभकंद की जानकारी दें और यह भी बताएं कि आजकल आपके शहर में यह क्या भाव मिल रहा है ?
उम्मीद है कि इस बार आप पूछे गए सवालों का ही जवाब देंगे।
बाक़ी "गव्येन दत्तं" का सही मतलब क्या है यह बहस आप उससे करें जिसने इसका अर्थ यहां लिखा हो।
शुक्रिया !
महोदय आयुर्वेद के महन ग्रन्थ चरक में देख लीजिये ऋषभ अष्ट वर्ग औषधि है. जो पूर्व काल मीं च्यवन्प्राश में प्रयुक्त होती थी
हटाएंडॉ अयाज़ अहमद साहब,
जवाब देंहटाएंहम पूछ रहे हैं ऋषभकंद के बारे में और आप बता रहे हैं गाय के बारे में ?
बाक़ी "गव्येन दत्तं" का सही मतलब क्या है यह बहस आप उससे करें जिसने इसका अर्थ यहां लिखा हो।
आपने सही समझा………
आपने पूछा 'ऋषभकंद' का और हमनें 'झूठ के बेनकाब' की बात की। क्योंकि आपकी तरफ से झूठ को प्रचारित किया जाता है, यह तथ्य आपको बता कर हमने ऋषभकंद का अर्थ आपको बताना टाला है। क्योंकि आप लोगों द्वारा ऐसे अर्थ को अनर्थ बनाकर दुष्प्रचार में तो खूब इस्तेमाल किया जाएगा, पर जब झूठ पकड़ा जाएगा तो बोल पडेंगे "यह बहस आप उससे करें जिसने इसका अर्थ यहां लिखा हो।"
अजी अयाज साहब आपको तो मैंने पहले भी कहा था की कुछ अपने ज्ञान से भी बोला कीजिये , किसी का जूठा वमन मत किया कीजिये . पर आप सुनतें ही नहीं है कभी विश्व प्रकाशन वाले की घटिया साहित्य से कभी और कुछ नहीं तो जमाल साहब के उल-जुलूल कथनांशों को काट-पेट कर यत्र-तत्र चेपतें रहतें हो .
जवाब देंहटाएंअब जो जमाल साहब ने बातें पूछी उन्हें जवाब मिल गया तो वेह खुद ही यहाँ से गोल हो लिए थे ,कुछ दिन चुप बैठने के लिए . यह हमें भी पता है वे फिर इधर उधर वमन करते फिरेंगे , अभी आप उनका फैलाया छिड़क रहें है.
@ वृषभ का अर्थ नहीं मिल पा रहा है और आपने भी उसे गोल कर दिया है।
अरे महाशयजी पहले ज्ञान-प्राप्त करने की कोशिश तो ढंग से कीजिये जो भाष्य में शक्तिसम्पन्न हव्य को अग्नि में डालते हैं आया है वह
पचन्ति ते वृषभां के लिए ही आया है ................... ऋषभकंद एक बलवर्धक औषधि है ....................... अब आप कैसे समझेंगे ??? जब बिना जाने ही टांडने की सौगंध खायी है :))
सत्य किसी के झुठलाने से झुठलाया नहीं जा सकता।
जवाब देंहटाएंश्राद्ध में गौ मांस खिलाने से पितर एक वर्ष के लिए संतुष्ट हो जाते हैं, यह बात केवल अनुशासन पर्व में ही नहीं बल्कि आपस्तंब धर्मसूत्र में भी कही गई है।
संवत्सरं गव्येन प्रीतिः, भूयांसमतो माहिषेण,
एतेन ग्राम्यारण्यानां पशूनां मांसं मेध्यं व्याख्यातम्.
खड्गोपस्तरणे खड्गमांसेनानन्त्यं कालम्.
तथा शतबलेर्मत्स्यस्य मांसेन वाध्रीणसस्य च.
-आ. धर्मसूत्र 2,7,16,25 व 2,7,17,3
श्राद्ध में गोमांस खिलाने से पितर एक वर्ष के लिए संतुष्ट हो जाते हैं। भैंस का मांस खिलाने से वे उस से भी ज़्यादा समय के लिए संतुष्ट होते हैं। यही नियम खरगोश आदि जंगली पशुओं और बकरी आदि ग्रामीण पशुओं के मांस के विषय में है। यदि गैंडे के चर्म पर ब्राह्मणों को बैठा कर गैंडे का ही मांस खिलाया जाए तो पितर अनंत काल के लिए संतुष्ट हो जाते हैं। यही बात ‘शतबलि‘ नामक मछली के मांस के विषय में है।
अब आप मनुस्मृति में भी देख लीजिए-
यज्ञाय जग्धिर्मांसस्येत्येष दैवो विधिः स्मृतः।
अतोन्यथा प्रवृत्तिस्तु राक्षसो विधिरूच्यते ।।
क्रीत्वा स्वयं वाप्युत्वाद्य परोपकृतमेव वा ।
देवान्पितृंश्चाचार्चयित्वा खादन्मांसं न दुष्यति।।
मनु स्मृति 5, 31-32
अर्थात यज्ञ के लिए मांस भक्षण को दैवीविधि बताया है, इसके अतिरिक्त मांस खाना राक्षसी प्रवृत्ति है। ख़रीद कर , कहीं से लाकर या किसी के द्वारा उपहार में प्राप्त मांस देवता और पितरों को अर्पण करके खाने से दोषभागी नहीं होता।
हमने भी यज्ञ के अच्छे जानकार दो लोगों से फ़ोन करके पूछा कि ‘ऋषभकंद‘ क्या होता है ?
तो वह कहने लगे कि हमने तो आज तक देखा नहीं कि यह कौन सा कंद है और किस काम आता है ?
आप में से किसी ने देखा हो तो इसके बारे में जानकारी दें।
किसी के कहने से कोई कंद अचानक तो बन नहीं सकता।
खुद अनुराग जी ने यज्ञ स्थल पर कई तरह के अन्न और शकरकंद रखा देखा है लेकिन उन्होंने भी यह नहीं कहा कि हमने कभी ‘ऋषभकंद‘ देखा है।
भाई साहिबो ! टाल-मटोल से काम नहीं चलेगा। आपको ‘ऋषभकंद‘ के बारे में जानकारी तो देनी ही पड़ेगी।
@ सत्य किसी के झुठलाने से झुठलाया नहीं जा सकता।
हटाएंबात तो सही है, पर पहले भी आपका झूठ प्रकाशित किया गया था कि आप लोग वेद आदि ग्रथों के अर्थों में फेर-फार कर कैसे झूठ फैलाते हो……
यह रहा आपका झूठा बयान……
आपने श्र्लोक देते हुए घोर मिथ्या दुष्कृत्य पूर्वक अर्थ किया कि…
गव्येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्सरमिहोचयते .
-अनुशासन पर्व , 88, 5
अर्थात गौ के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की एक साल के लिए तृप्ति होती है।
जबकि उसका सीधा साधा सा अर्थ है……
गाय का दान करने से पितरों की एक साल की तृप्ति का लाभ मिलता है।
दुर्भावनापूर्वक ऐसे झूठे अर्थ करनें से मांसाहार सही सिद्ध नहीं हो जाता।
निश्चित ही आपके यहां होगा मिथ्यावरण से अपने मजहब को सही साबित करने का तन तोड़ प्रयास, पर वैदिकों में धर्म, सत्य और अहिंसा एक दूसरे के पर्याय ही है। जहाँ सत्य है वहां धर्म है, जहां धर्म है वहां अहिंसा है।
Anwar Jamaal Khan sahib.
जवाब देंहटाएंआपका प्रयास सराहनीय है
अनवर जनाब,
जवाब देंहटाएंपहले यह तो बताओ यह झूठ क्यों बोला?
गव्येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्सरमिहोचयते .
-अनुशासन पर्व , 88, 5
क्यों बोला वह झूठ इस अनुशासन पर्व वाले श्रलोक के अर्थ में?
फिर जवाब दो जो पहले पूछा गया है।
उसके बाद इन श्रलोकों के आपके झूठ की भी पोल खोल देते है।
जनाब मुसाफिक़ के लिए आपका वैसा प्रयास सराहनीय है। :)
‘क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?‘, क्या आपने पढ़ी है ?
हटाएं@ भाई सुज्ञ जी ! अनुशासन पर्व के इस श्लोक का अनुवाद डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात‘ ने किया है और इसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?‘ के पृष्ठ 135 पर दिया है। ‘प्राचीन भारत में गोहत्या एवं गोमांसाहार‘ शीर्षक के अंतर्गत उन्होंने कई दर्जन प्रमाण दिए हैं। यह उन्हीं में से एक है। लेखक महोदय का नाम गूगल सर्च के ज़रिये ढूंढेंगे तो भी शायद कुछ हाथ आ जाए।
इसे लिखने से पूर्व उन्होंने आपस्तंब धर्म सूत्र का उद्धरण भी दिया था ताकि आप जैसा दुराग्रह कोई कर ही न पाए।
संवत्सरं गव्येन प्रीतिः, भूयांसमतो माहिषेण,
एतेन ग्राम्यारण्यानां पशूनां मांसं मेध्यं व्याख्यातम्.
खड्गोपस्तरणे खड्गमांसेनानन्त्यं कालम्.
तथा शतबलेर्मत्स्यस्य मांसेन वाध्रीणसस्य च.
-आ. धर्मसूत्र 2,7,16,25 व 2,7,17,3
श्राद्ध में गोमांस खिलाने से पितर एक वर्ष के लिए संतुष्ट हो जाते हैं। भैंस का मांस खिलाने से वे उस से भी ज़्यादा समय के लिए संतुष्ट होते हैं। यही नियम खरगोश आदि जंगली पशुओं और बकरी आदि ग्रामीण पशुओं के मांस के विषय में है। यदि गैंडे के चर्म पर ब्राह्मणों को बैठा कर गैंडे का ही मांस खिलाया जाए तो पितर अनंत काल के लिए संतुष्ट हो जाते हैं। यही बात ‘शतबलि‘ नामक मछली के मांस के विषय में है।
गव्येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्सरमिहोचयते .
-अनुशासन पर्व , 88, 5
अर्थात गौ के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की एक साल के लिए तृप्ति होती है।
आशा है कि अब आप असंतुष्ट होने का अभिनय नहीं करेंगे।
♠ इस पुस्तक को आप एम 12, कनॉट सरकस, नई दिल्ली से मंगा सकते हैं। इस प्रकाशन का फ़ोन नं. है 011-41517890 और इसकी वेबसाइट है www.vishvbook.com
इस पुस्तक को मनोयोग से पढ़िए और देखिए कि प्राचीन भारत में वैदिक हिंदू कैसे , कब और कितना करते थे मांसाहार ?
@ डॉ अनवर जमाल, सरिता मुक्ता तंत्र के सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात , हमारे लिए अज्ञात नहीं है और इसलिए भी जानते है कि ब्लॉगजगत में डॉ अनवर जमाल को पचासों टिप्पणीयों में पचासों बार उनके नाम-जाप की इबादत करते पाया है। क्योंकि उन्ही के लेखन से आपका उद्धार होना है। अन्यथा आप कैसे शुद्धाचारियों को अपने समकक्ष माँसभक्षी स्तर पर उतारने का निर्थक प्रयत्न करते? उनकी ‘वाणी’ के बिना वेदार्थों को अपने स्तर तल पर उतारने का आपमें साहस भी न होता।
हटाएंलेकिन बंधु क्या किसी की किताब के छपने भर से कोई बात सही हो जाती है? तब तो ‘सैटर्निक वर्सेज’ आपने अवश्य पढ़ी होगी, क्या आप सलमान रूश्दी की किताब ‘शैतान की आयतें’ से पूर्ण सहमत है?
अभिनय नहीं हम तो वाकई असन्तुष्ट है क्योंकि सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात ‘ तो शायद सरिता मुक्ता के प्रचार तंत्र तक ज्ञात है पर सलमान रूश्दी तो विश्व-विख्यात है, क्या आप उनके उद्धरण का उसी तरह प्रचार करके सन्तुष्ट होंगे?
@ भाई सुज्ञ जी ! आपने अपने कमेंट में अब ‘श्राद्ध में गाय का मांस देने‘ को नकारने का कोई तर्क प्रस्तुत नहीं किया है और बिना प्रमाण दिए केवल ज़बानी कह देना हठधर्मी कहलाती है।
हटाएंसलमान रूश्दी ने कोई तथ्यात्मक पुस्तक नहीं लिखी है बल्कि एक उपन्यास लिखा है जिसमें उनकी कल्पनाएं शामिल हैं। हमने उसे पढ़ा नहीं है और जिन्होंने उसे पढ़ा है वे बहुत से लेखादि लिखकर बता चुके हैं कि हक़ीक़त क्या है ?
इस सिलसिले में आप मौलाना वहीदुददीन ख़ान साहब की ताज़ा किताब ‘प्रॉफ़ैट ऑफ़ पीस‘ देख सकते हैं और इसे भी पेंग्विन ने ही प्रकाशित किया है।
‘क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?‘ एक तथ्यात्मक पुस्तक है। अगर आपको या किसी को भी लगता है कि इस पुस्तक में लेखक ने ग़लत लिखा है तो एक पुस्तक लिखकर हक़ीक़त सामने लाएं।
इबादत तो हम बस एक पैदा करने वाले रब की ही करते हैं और उसी के प्रति पूर्ण समर्पण का अनुरोध आपसे भी करते हैं।
धन्यवाद !
1. आरे गोहा नृहा वधो वो अस्तु (ऋग्वेद)
हटाएंगौ- हत्या जघन्य अपराध और मनुष्य हत्या जैसा है, ऐसा महापाप करने वाले के लिये घोर दण्ड का विधान है |
२. यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः
यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च (ऋग्वेद)
मनुष्य, अश्व या अन्य पशुओं के मांस से पेट भरने वाले, अघ्न्या गायों का नाश करने वालों को कठोरतम दण्ड देना चाहिए |
३. मा गामनागामदितिं वधिष्ट (ऋग्वेद)
गाय को मत मारो | गाय निष्पाप , अदिति अखंडनीया है |
४. अन्तकाय गोघातं (यजुर्वेद)
गौ हत्यारे का संहार किया जाये |
वेद, पुराण और स्मृतियों में गाय का मांस खाने और खिलाने का भी ज़िक्र है और उसके निषेध का भी। किन अवसरों में किस उददेश्य के लिए गोमांस खाया जाता था और कब इसका निषेध किया गया और क्यों ?
हटाएंइस विषय पर डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात ने एक विस्तृत लेख लिखा है -
‘प्राचीन भारत में गोहत्या और गोमांसाहार‘। आपके लिए हमने इसे गूगल सर्च के ज़रिये तलाश किया है। आप इसकी हार्ड कॉपी निकाल कर तसल्ली से पढ़ें।
धन्यवाद !
Link :
http://www.scribd.com/doc/24669576/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9A%E0%A5%80%E0%A4%A8-%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E2%80%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%8F%E0%A4%B5%E0%A4%82-%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0-India-Cow
बहुत बार देखा सुना है की कमजोर आदमी बहुत ज्यादा आक्रोश में आता है, और जैसे देखते ही है की भ्रष्टाचारी अनाचारी ही सदाचार सात्विकता के भाषण अधिक देते है ................. हम तो मानते थे की इस्लाम एक अच्छा सम्प्रदाय है ............ लेकिन अनवर जमाल सिद्ध करने में लगे है (खुदा करे गलत हो ) की इस्लाम निहायत ही वाहियात किस्म का पाखंडाचारी पंथ है जिसके अनुयायी अपने पंथ की कमिया सुधारने की बजाये, अन्य आस्थाओं में झूंठे ही उल-जुलूल आक्षेपण करने में माहिर है ........................ अगर इस्लाम एसा ही है तो धिक्कार है ऐसे मत पर और धिक्कार ऐसे मतानुयाईयों पर.
हटाएंअरे निकृष्ट विचारों इरादों से परिपूर्ण इंसान कभी इस्लामियों की दुर्दशा उनकी अशिक्षा, उनकी लाचारी, उनके पिछड़ेपन के कारणों को ढूंढ़ कर उन्हें दूर करने का प्रयास करते तो शायद कुछ इस्लाम का भला भी करते ............................. खुद के फिरके के लोग तो नरक की आग में जल ही रहे है और पूरी दुनिया को भी उसी आग में झोंक देना कहते है.................. घिन आती है जब मुस्लिम बस्तियों से होकर गुजरता हूँ कभी इन कमियों को दूर करने की कोशिश करो ................ चले है महान हिन्दू धर्म की बुराइयां खोजने !
इस गेल्ये अज्ञात की जूठन को ही इधर उधर उछालकर वेदों और अन्य ग्रंथों में कमिया बताने चले है, जिनका समय समय पर हर जगह निराकरण किया जाता है पर जिस चीज को सीधा होना ही नहीं है वह कैसे सीधी होगी .................. बलिहारी है कुतर्क बुद्धियों की
हटाएं@ डॉ अनवर जमाल, मेरा आपसे अनुरोध यही था कि किसी के वमन पर निर्भर रहने से बेहतर है कि स्वविवेक से निर्णय किया जाय।
हटाएंसर्वप्रथम गौमाँस के लिए आपने एक श्र्लोक का चरण प्रस्तुत किया है, पहले उसके अर्थ का निर्णय हो जाय तो आगे बढ़ा जा सकता है अन्यथा बिना सुलझाए नए नए श्रलोक व संदर्भ प्रस्तुत करना वितंडावाद मक़सद से अधिक कुछ नहीं है। और न तथ्य समझने की दरकार है।
@ “आपने अपने कमेंट में अब ‘श्राद्ध में गाय का मांस देने‘ को नकारने का कोई तर्क प्रस्तुत नहीं किया है”
बुद्धिमान बंधुवर, जिस श्रलोक – चरण में “माँस” पद (शब्द) ही नहीं है तो ‘मांस देने‘ को नकारने का प्रश्न ही कहाँ है? जो वस्तु है ही नहीं उसे भी नकारने के लिए प्रमाण देना? समझ लेने की जरूरत थी, मेरे तर्क की वहां कत्तई आवश्यकता नहीं थी।
वह श्र्लोक का चरण है…… “गव्येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्सरमिहोचयते।“ बताईए किस संस्कृत शब्द का अर्थ आप “माँस” करते है? गव्येन? या दत्तं? या फिर श्राद्धे? कोई अज्ञानी मूढ़ भी इसमें मांस शब्द को नहीं पा सकता, अर्थ की बात दूर की कौडी है।
अब आप खुद ही डॉक्टरेट किए है और विद्वान भी, इस एक चरण के अर्थ के लिए आपको डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात की शरण में जाने की क्या आवश्यक्ता? अब भी देर नहीं हुई है, इस एक चरण पर बुद्धि को केन्द्रित रख, मनोयोग से ध्यान धर कर संक्षिप्त में माँस शब्द उजागर कर दिजिए बस हो गया।
अन्यथा मिथ्या संभाषण और वितंड़ा को साबित करने के लिए यह प्रमाण काफी है। एक ही झूठ सारे सन्दर्भों को अस्वीकार्य प्रमाणित करता है।
@इस सिलसिले में आप मौलाना वहीदुददीन ख़ान साहब की ताज़ा किताब ‘प्रॉफ़ैट ऑफ़ पीस‘ देख सकते हैं और इसे भी पेंग्विन ने ही प्रकाशित किया है।
आप यह कहना क्या चाहते है कि सलमान रूश्दी की कल्पना शक्ति रूप ‘शैतान की आयते’ इतनी विशिष्ट और महत्वपूर्ण है कि स्वयं मौलाना वहीदुददीन ख़ान साहब को स्पष्ट करने के लिए किताब लिखनी पडी? ईशवाणी को बचाने के लिए बंदो की मश्क्कत? तो फिर वो लोग डिंग हाँकते है कि इस ईशवाणी की हिफाज़त स्वयं अल्लाह करता है?
हम भी चाहते है आप इबादत मात्र उस मालिक की ही करें जिसने आपको पैदा किया, डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात जी के जाप की क्या आवश्यकता? चाहे अपने वालिद आलिम ही क्यों न हो, उस मालिक से उपर नहीं हो सकते। इसलिए मालिक के कथन की तुलना में किसी भी सामान्य मानव के किए अर्थ का कोई मूल्य नहीं है। जब वेद स्वयं चीख चीख कर गवाही दे रहे है कि गौमांस तो क्या गौ-हत्या भी जघन्य अपराध है (देखिए उपर शिल्पा जी की टिप्पणी) फिर संदिग्ध अर्थों का क्या औचित्य?
हम अपनी छोटी बुद्धि भी लगाएं तो पाएंगे की वेद ही प्रमाण है उन्ही वेदों में असंख्य बार गाय के संरक्षण पोषण और सुरक्षा का उपदेश मिलता है जबकि विपरित कुअर्थ भी दुष्प्राप्य है गढ़ने पडते है। और इस दुष्प्रचार पर ध्यान न दें तो समझ जाएंगे कि ऐसा विरोधाभास सम्भव ही नहीं है।
@ उसी के प्रति पूर्ण समर्पण का अनुरोध आपसे भी करते हैं।
हम तो पहले से ही उसी मालिक की आज्ञा के विवेकयुक्त अनुपालक है, अहिंसक है, मनोयोग से उच्च नैतिक जीवन-धारा को आत्मसात किए हुए है। हम क्यों कुतर्की, मिथ्यात्वी, प्रतीकाडम्बरी बिचोलियों की गुमराही में फंसे?
मालिक आपको ऋषि मार्ग पर चलाए और संयम आदि गुणों से युक्त करे
हटाएं@ प्यारे भाई अमित शर्मा जी ! ‘आपने बार बार देखा है कि कमज़ोर आदमी बहुत ज़्यादा आक्रोश में आ जाता है।‘
यह देखने के बावजूद भी आप बहुत ज़्यादा आक्रोश में आ गए ?, जबकि हम पूर्ववत शांत हैं।
ताज्जुब है।
हम हिंदू धर्म या वेद में कोई कमी नहीं मानते। विधिपूर्वक मांसाहार करना कोई कमी नहीं है बल्कि एक ख़ूबी है। मांसाहार तो कोई भी कर सकता है लेकिन ‘विधिपूर्वक‘ केवल ‘ज्ञानी‘ ही कर सकता है।
आप ‘ज्ञानियों‘ के वंशज हैं, आपके लिए अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करना उचित नहीं है। भावनाओं में बहने के बजाय तथ्यों पर बात कीजिए।
सन 2011 में हमने आपके दावे के बाद आपसे पूछा था कि अगर वास्तव में ही ऋषभकंद नाम का कोई कंदमूल होता है तो कृप्या उसका वानस्पतिक नाम और बाज़ार भाव बता दीजिए।
अभी तक आपने यह भी नहीं बताया है, क्यों भाई ?
इस्लाम के बारे में आपके जो भी विचार हैं वे आपके चित्त में अंकित हो चुके हैं। इसे लेकर आप जब अपने रब के सामने जाएंगे तो वहीं आपका हिसाब होगा।
आपको मुसलमानों की बस्तियों से गुज़रते हुए घिन आती है ?
यह आपका हाल है। आदमी कितना ही अद्वैतवाद का ढोल बजा ले और कहता रहे कि कण कण में ईश्वर है लेकिन जब उसे मुसलमान नज़र आता है तो फिर उसे ईश्वर तो क्या इंसान भी नज़र नहीं आता। आदमी अपनी नफ़रत में आज इतना अंधा हो चुका है।
जब आप राजस्थान में जलाकर मार दी गई सतियों के मंदिरों के सामने से गुज़रते हैं तब तो आपको हिंदू बस्तियों से गुज़रते हुए घिन नहीं आती।
आज भी मौक़ा लगते ही राजस्थान में मज़लूम विधवा को सती कर दिया जाता है और दलितों को भी घोड़ी पर बैठकर बारात नहीं निकालने दी जाती। यह सब देखकर तो आपको कभी नहीं लगा कि इन बस्तियों से गुज़रते हुए भी घिन आनी चाहिए ?
इलाज का एक तरीक़ा एक्यूप्रेशर भी होता है और इसमें चिकित्सक उसी बिंदु पर हाथ रखता है जिस पर प्रेशर पड़ते ही मरीज़ बिलबिला जाता है। ऐसा वह मरीज़ के हित में करता है और धीरे धीरे वह निरोग हो जाता है। इंशा अल्लाह, आप भी जल्दी ही घिनमुक्त और प्रेमयुक्त हो जाएंगे।
आपके किसी भी वचन दुर्वचन के बावजूद हमारा प्यार आपके लिए कम न होगा। हम सब एक ही स्वयंभू मनु आदम की औलाद जो हैं और एक ही ईश्वर की रचना हैं और एक ही धर्म सनातन वैदिक धर्म उर्फ़ इस्लाम के अनुयायी भी हैं।
प्रेम के लिए इतना आधार बहुत है।
मालिक आपको ऋषि मार्ग पर चलाए और संयम आदि गुणों से युक्त करे।
आमीन !
jamal साहब शांत तो हम अभी है बस आप जिस अमर्यादित भाषा का उपयोग सदा से करते आयें है, उसके कुछ अंश का उपयोग मैंने आपकी दुखती रग के लिए किया है और इतने से ही आप बिलबिला गए ......................... सच्चाई नहीं स्वीकार कर सकते की मुश्लिम समाज की दुर्दशा के लिए आप जैसे असंख्य पढ़े लिखे कहलाने वाले ही जिम्मेदार है, जो खुद तो पढ़ लिए लेकिन उसका उपयोग अन्यो को शिक्षित करने की बजाये उल-जुलूल मटरगश्ती में लगे रहते है ........................ और प्रचार करते है की ज्ञान सिर्फ अल्लाह को मानना है, विश्वबंधुत्व तभी होगा जब सारी कायनात मुसलमान बन जाएगी, रोजगार की चिंता ना करो अल्लाह्जी देंगे रोटी मकान .....(चाहे उन मकानात के आसपास नरक बसता हो) ......... जबकि जिन ग्रंथों में आप नुक्स निकालने पर तुले रहते है उन में सिखाया जाता है की ज्ञान का मतलब है सदाचरण पूर्वक सर्व कल्याण की भावना से ओतप्रोत रहना, विश्वबंधुत्व माने विश्वबंधुत्व यह नहीं की जो वेद को माने वही बन्धु .... (बाकी जो ना माने उसका क़त्ल करदो या उसकी मान्यताओ के बारे में बरगला कर अपने मत में ले आओ ) ..... यह ग्रन्थ सिखाते है की नेकी से कमा के खा कोई भगवान् तेरे मुंह में रोटी ठूंसने नहीं आयेगा,
हटाएं@ गव्येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्सरमिहोचयते
हटाएंगव्येन का अर्थ "गौमांस" किस व्याकरण से होता है महाशयजी ???????
फिर तो पंचगव्य जो गाय के दूध, दही, घी, आदि से बनता है को पांच गायों को काट कर प्राप्त मांस होना चाहिये, और गोमय का
मतलब सम्पूर्ण गौमांस .................... बलिहारी है कुतर्कबुद्धियों की!!!!!!!
धरती पर स्वर्ग है घर हमारा जहां हम रहते हैं
हटाएं@ प्यारे भाई अमित शर्मा जी ! आपके शब्द बता रहे हैं आपकी शांति को।
1. हमने तो मान्यताओं के अंतर के बावजूद सदा अपना छोटा भाई ही समझा है। लिहाज़ा आप यह नहीं कह सकते कि हम आपको या दूसरे मतावलंबियों को अपना भाई नहीं समझते।
आपको हम फिर बता दें कि हम किसी ग्रंथ की सही बात को कभी ग़लत नहीं बताते।
आपने ग़लत अनुमान लगा लिया है कि हमारे मकान आस पास नर्क बसता है। आप ख़ूब जानते हैं कि जहां हम रहते हैं उस जगह को देवभूमि कहा जाता है। हम जिस मुहल्ले में रहते हैं, वह तो स्वर्ग की छायाप्रति है। पूरे शहर का दिल है हमारा मुहल्ला। मुहल्ले का नाम है क़िला हसनगढ़। यह शहर के बीचों बीच और सबसे ऊंचाई पर बना है। और यहां भी सबसे ऊंची जगह जो है, उस पर हमारा मकान है। भोर की पहली किरन हमारे मकान पर पड़ती है और कितनी भी बारिश हो जाए, हमारे यहां कभी पानी जमा नहीं होता। हम भी अपने व्यापार में व्यस्त हैं और हमारे भाई भी, हम सब कमाकर ही खा रहे हैं।
हम शिक्षित होने के बाद कितनों को ही मुफ़्त में शिक्षित कर चुके हैं। हमारे चाचा ने व्यवसायिक प्रशिक्षण देने के लिए एक आईटीआई संस्थान खोला है और उसमें हिंदू मुस्लिम सभी को प्रशिक्षण दिया जाता है। हमारे दो मित्र यूनानी पैथी के सरकारी मान्यता प्राप्त संस्थान चला रहे हैं और एक मित्र ग़रीबों का इलाज न्यूनतम क़ीमत पर कर रहे हैं। हमारे एक भाई ने मुफ़्त शिक्षा के लिए एक स्कूल चला रखा है। एक मित्र के कॉलेज को इग्नू ने एडॉप्ट कर लिया है और उसमें इग्नू के 19 कोर्स पढ़ाए जा रहे हैं।
अपने पास आने वाले ग़रीब मरीज़ों का इलाज हम मुफ़्त ही करते हैं। मदद की आस अपने पास आने वालों की मदद करते हुए भी हम उनकी मान्यताएं नहीं देखते। हमारे ख़ानदान में कितने डाक्टर, वकील, इंजीनियर और प्रोफ़ेसर्स हैं, हम चाहकर भी गिन नहीं सकते।
दूसरे दर्जनों मित्र भी अपने अपने शहरों में ऐसे ही सेवा कार्यों में लगे हुए हैं। आपका स्वागत है। आप ख़ुद आकर देखिए कि हमारे मुहल्ले की शिक्षा, रहन सहन और खान पान का स्तर क्या है ?
हम धरती के स्वर्ग में रहते हैं और इस स्वर्ग में आपका स्वागत करते हैं।
ऋषभकंद के बारे में आज भी आपने कुछ जानकारी नहीं दी ?
लोगों को हम क्या शिक्षा देते हैं ?, इसे आप इस लिंक पर देख सकते हैं-
‘ग़ुस्सा ईमान में फ़साद डाल देता है।‘
http://ahsaskiparten.blogspot.in/2012/01/jihad-and-jannat.html
2. क्या आपने कभी किसी पंडित से पूछा है कि गायत्री मंत्र में ‘सन्मार्ग‘ की प्रेरणा हेतु जो प्रार्थना की जाती है तो वहां ‘सन्मार्ग‘ किस शब्द का अनुवाद है ?
3. ‘गव्येन दत्तं श्राद्धे ...‘ को समझना आपके लिए इतना कठिन क्यों हो रहा है भाई ?
जबकि आपस्तंब धर्म सूत्र का उद्धरण उसके साथ बता रहा है कि श्राद्ध में किस किस पशु का मांस दिया जाता था। हमसे तो आप पूछ रहे हैं लेकिन ख़ुद ऋषभकंद के बारे में कोई जानकारी ही नहीं दे रहे हैं कि इसका बॉटैनिकल नाम क्या है और यह बाज़ार में किस भाव मिलता है ?
@ आपको मुसलमानों की बस्तियों से गुज़रते हुए घिन आती है ?
हटाएंजुगसलाई पीपी रोड निवासी वाजदा तब्बसुम की ओर से उपायुक्त को प्रेषित शिकायत में बताया गया कि खुलेआम गो-हत्या कर अवैध रूप से मांस की बिक्री होने के कारण इलाके का वातावरण लोगों के रहने लायक नहीं रह गया है। यहां हर वक्त उठने वाली दुर्गध से लोग परेशान है। शिकायत पत्र में तब्बसुम ने अपने दरवाजे के सामने ही मांस बिक्री होने पर आपत्ति जतायी है। बताया गया है कि सुबह तीन बजे से ही मो. हलीम उर्फ बाबू यहां पशु काटना शुरू कर देता है। फिर मांस की बिक्री उनके दरवाजे पर मेज लगाकर की जाती है। इससे आसपास रह रहे लोगों का सांस लेना दूभर हो जाता है। शिकायतकर्ता के अनुसार बकरीद के दौरान पशु काटने की संख्या बढ़ जाने के कारण और परेशानी होती है। मिली शिकायत के आधार पर डीसी ने जुगसलाई नगरपालिका के विशेष पदाधिकारी को स्थिति की जांच कर कानून सम्मत कार्रवाई करने और कृत कार्रवाई से उन्हें अवगत कराने को कहा है।
बैलेंस के साथ सभी चीज़ों को ध्यान में रखा जाए तो आदमी गुमराह नहीं होता
हटाएं@ प्यारे भाई अमित शर्मा जी ! जहां हम रहते हैं वहां कोई गाय काट नहीं सकता ताकि सामाजिक सदभाव बना रहे। जहां हम रहते हैं वहां कोई क़साई न तो रहता है और न ही कोई वहां गोश्त बेच सकता है। जो समस्या वाजिदा तबस्सुम की है उसे आप हमारी समस्या न कहें भाई। वाजिदा बहन की समस्या प्रशासन ध्यान देगा, ऐसी हमें आशा है। हमारी हमदर्दी उनके साथ है।
बेशुमार दलित और विधवाएं उच्च जातियों के उत्पीड़न के विरूद्ध आए दिन ही प्रार्थना पत्र देते रहते हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि हरेक सवर्ण ज़ालिम है। सवर्णों में बहुत लोग बहुत से रचनात्मक कार्य भी कर रहे हैं, बैलेंस के साथ सभी चीज़ों को ध्यान में रखा जाए तो आदमी गुमराह नहीं होता।
♥ आपसे चर्चा करके अच्छा लगा और इसका चर्चा हमने आज अपने ‘ब्लॉग की ख़बरें‘ पर भी किया है जिसने हिंदी ब्लॉग जगत में पथप्रदर्शक की भूमिका निभाई है, देखिए अपनी पोस्ट की तारीफ़ और एक हक़ीक़त :
निरामिष ब्लॉग Niraamish.blogspot.in
http://blogkikhabren.blogspot.in/2012/02/niraamishblogspotin.html
@ एक हक़ीक़त :
हटाएंनिरामिष ब्लॉग Niraamish.blogspot.in
http://blogkikhabren.blogspot.in/2012/02/niraamishblogspotin.html
वहाँ पर आपने पूरी हकीकत नहीं लिखी है जिसमें आपके वाहियात धतकर्म को "मूर्खतापूर्ण" बताते हुए अक्षम्य कहा गया है...............निकृष्टता की हद से भी आगे है आपका यह प्रयास ऐसे ही आधे अधूरे सन्दर्भ और उद्धरण आप ग्रंथों में मांसाहार के लिए भी देतें है..................... पूरी टिपण्णी क्यों नहीं लिखी आपने जिसमें आपके इसी तरह के प्रयास को मिश्रजी ने अक्षम्य कहा है........................धिक्कार है आपको
निरामिष से सामिष होना पसंद कर रहे हैं पुश्तैनी शाकाहारी ब्राह्मण
हटाएं@ प्यारे भाई अमित जी ! हमने तो यहां किसी मिश्रजी का ज़िक्र भी नहीं किया। अगर आप उनका ज़िक्र कर रहे हैं और उनकी किसी टिप्पणी का भी तो फिर आप आधा अधूरा ज़िक्र क्यों कर रहे हैं ?
उनकी टिप्पणी को आप ही पूरा यहां रख दीजिए न !
क्या कहा है उन्होंने अपनी टिप्पणी में ?
क्या आप यह बताना पसंद करेंगे ?
अपनी टिप्पणी में ‘निरामिष के ज़्यादातर अनुयायियों को कम अध्येता और ज़्यादा हल्ला मचाने वाला‘ बिल्कुल सही कहा है। उनकी ही मूर्खताओं और उदघोषणाओं के चलते आदरणीय श्री मिश्रा जी निरामिष से सामिष होना पसंद कर रहे हैं।
उनकी टिप्पणी का वह अंश ले लिया है जो निरामिष का हो हल्ला मचाने वालों से संबंधित है। बाक़ी जो उन्होंने कहा है उसका जवाब हमने अपनी टिप्पणी में दिया ही है।
पुश्तैनी शाकाहारी ब्राह्मण निरामिष से सामिष होने का संकल्प जता रहे हैं। असफलता से उत्पन्न आपके आपके क्षोभ को समझा जा सकता है।
आपकी धृष्टता को हम क्षमा करते हैं।
सत्य को कड़वा यों ही तो नहीं कहा जाता।
...और सुनाइये भाई, ऋषभकंद का मार्कीट रेट आजकल क्या चल रहा है ?,
@ अनवर जमाल, आपका वह प्रयोग निष्फल है जिस मंशा से यह पोस्ट http://blogkikhabren.blogspot.in/2012/02/niraamishblogspotin.html लगाई है, क्योंकि वहां से भी पाठक और निरामिष समर्थक आ आकर आपकी सच्चाई प्रकट करते जा रहे है।
हटाएंआज के श्री श्याम गुप्त जी के दर्जनो कमेंट देखे जा सकते है।
@ अनवर जमाल साहब उस श्रलोकार्थ में मांस खोज पाने में आपकी डॉक्टरेट ने जवाब दे दिया? :) :)
हटाएंकैसे विद्वान है आप? मेरे मामूली से प्रश्नो के उत्तर नहीं दे पा रहे है। या डॉ सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात जी को ढ़ूंढ रहे है?
@ भाई सुज्ञ जी ! हमने अपनी पोस्ट में पाठकों से कहा था कि वे यहां आकर कमेंट ज़रूर करें। इससे आपके ब्लॉग को लाभ मिला और आपको ख़ुशी। यही हमारा मक़सद था। अतः हमारा प्रयोग तो सफल ही रहा है। इसका एक दूसरा पक्ष भी है जिसे आप शायद समझ जाएं लेकिन डा. श्याम गुप्त जी कभी समझने वाले नहीं हैं।
हटाएं‘ब्लॉग की ख़बरें‘ सबको स्थान देता है और जो कोई इस पर अपनी पोस्ट या किसी पुस्तक आदि का विज्ञापन देना चाहे, वह दे सकता है। उसका विज्ञापन यहां मुफ़्त किया जाता है।
डॉ अरविन्द मिश्रा जी का अभिमत………
हटाएं....मगर क्रूरता और बर्बरता के साथ पशु हत्या को मैं घृणित ,जघन्य कृत्य मानता हूँ....हिन्दू धर्म और इस्लाम का जो मौजूदा स्वरुप है उसमें कई विकृतियाँ हैं ,आज जरुरत इस बात की हैं कि हम अपने अपने पूर्वाग्रहों और निरी मूर्खताओं से उबरें और मानव समुदाय की बेहतरी के लिए काम करें ...
निरामिष ब्लॉग का मकसद बिलकुल साफ़ लगता है कि लोगों में निरामिष भोजन के प्रति अभिरुचि जगायी जाय ....और शाकाहार को लेकर एक बड़ा जनमानस आज इकठ्ठा हो रहा है ....कई वैज्ञानिकों का मानना है कि स्वस्थ संतुलित जीवन के लिए यह उचित है -दूसरी और प्रोटीन और कतिपय अमीनो अम्लों के लिए मांसाहार की भी वकालत की जाती है -जो भी पशु हिंसा सभी मनुष्य पर एक दाग है -हमें निसर्ग के प्रति मानवीयता और नैतिक चेतना का उदाहरण देना चाहिए -हम सर्वोपरि हैं और यह हमारा फ़र्ज़ है -चाहे वह देवी को प्रसन्न करने के लिए बलि हो या फिर ईद के अवसर का कत्लेआम मैं इसका पुरजोर विरोध करता हूँ ,अपील करता हूँ कि इसे बंद किया जाय
जमाल सहाब आपका तो देवभूमि में रहना ही निष्फल रहा, हमारे जैसे रेगिस्तान के शुष्क लोगो को औषधियों के बारे में कुछ ना पता हो तो चलता है पर आप तो औषधियों के मुख्य स्थान में बसते है।
हटाएंक्या आपको नहीं पता ऋषभक के बारे में ????
अच्छा यह बताइये की आपको चव्यनप्राश की बैकबोन औषधियों के बारे में भी कुछ पता है या नहीं, नहीं पता हो तो भी कोई बात नहीं ................... निरामिष सब निराकरण कर देगा :)
ऋषभक के बारे में भी बताएगा और किसी दूसरी कोई शंका हो तो उसका भी निराकरण करेगा :)
मछली और झींगा को हमें अपने आहार में ज़रूर शामिल करना चाहिए
हटाएं@ भाई सुज्ञ जी ! आदरणीय अरविंद मिश्रा जी ने मछली और झींगा आदि खाने की जो सलाह दी है वह बिल्कुल वैज्ञानिक और व्यवहारिक है। वैसे तो हम मांस न के बराबर ही खाते हैं और मछली तो कभी कभार और झींगा तो बिल्कुल नहीं लेकिन अब हम कोशिश करेंगे कि ओमेगा 3 वसा अम्ल की प्राप्ति के लिए इन्हें खाया जाए।
♥ कुछ मछलियां तो बकरे के बराबर होती हैं और कुछ उनसे भी बड़ी।
जब बकरे से बड़ी मछली खाई जा सकती है तो फिर बकरे को भी खाया जा सकता है और जब ये सब रोज़ खाए जा सकते हैं तो फिर बक़रीद के दिन भी क्यों नहीं ?
♥ मूर्ति वाले मंदिरों और मज़ारों पर जहां बलि दी जाती है या बलि के नाम पर बकरे का कान काट कर उसे बेच दिया जाता है, इसका विरोध आपके साथ हम भी करते हैं।
आप अपना विचार बनाने और उसे प्रकट करने में आज़ाद हैं और आपकी आज़ादी का हम सम्मान करते हैं और अपने लिए भी हम ऐसा ही चाहते हैं।
अब तो जीव के साइज़ का विरोध भी नहीं लगता बल्कि केवल परंपरा का विरोध ही लगता है।
धन्यवाद !
च्यवनप्राश भी मात्र एक फल था लेकिन उसे भी लोगों ने एक न छोड़ा
@ भाई अमित जी ! ख़ुशक़िस्मती से हमने फ़ाज़िले तिब्ब भी कर रखा है।
♠ वेद पहले एक था और बाद में 3 बना दिए और फिर और बाद में 4 बना दिए और बाद में ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों को भी वेद ही कह दिया और उसके बाद तो गीता को भी पंचम वेद कह दिया और आयुर्वेद को भी वेद कह दिया गया।
च्यवनप्राश भी मात्र एक फल था लेकिन उसे भी लोगों ने एक न छोड़ा।
आदरणीय च्यवन ऋषि ने आंवला खाया था। वास्तव में आंवला ही च्यवनप्राश है। बाज़ार में च्यवनप्राश के नाम से कंपनियां 4 दर्जन दवाओं का योग बेच रही हैं और अपना पेटेंट अधिकार जताने के लिए अब भी उसके नुस्ख़ों में आए दिन फेर बदल करते रहते हैं। इन नुस्ख़ों का इस्तेमाल च्यवन ऋषि ने कभी नहीं किया।
♠ अब आप बताएं कि आप कौन से च्यवनप्राश की बात कर रहे हैं ?
ओमेगा 3 पर आज की पोस्ट्…
हटाएंऑमेगा 3 व ओमेगा 6 वसीय अम्ल
@ 3. ‘गव्येन दत्तं श्राद्धे ...‘ को समझना आपके लिए इतना कठिन क्यों हो रहा है भाई ?
हटाएंजबकि आपस्तंब धर्म सूत्र का उद्धरण उसके साथ बता रहा है कि श्राद्ध में किस किस पशु का मांस दिया जाता था।
अनवर जमाल साहब
बिना किसी दूसरे ग्रंथ धर्म-सूत्र का तुक भिडाए बिना सीधा सीधा अर्थ आप ही बता दें महाशय क्यों बगलें झांक रहे है। समझना आसान है तो सीधा शब्द दर शब्दार्थ कर दें
@"जहां हम रहते हैं उस जगह को देवभूमि कहा जाता है। हम जिस मुहल्ले में रहते हैं, वह तो स्वर्ग की छायाप्रति है।………।……अपने पास आने वाले ग़रीब मरीज़ों का इलाज हम मुफ़्त ही करते हैं। मदद की आस अपने पास आने वालों की मदद करते हुए भी हम उनकी मान्यताएं नहीं देखते।"
अनवर जमाल साहब,
शिक्षा तो दिखाई दे रही है, और आप इतनी साफ-सुतरी जगह पर समृद्धि में रहते है तो अपने मतावलम्बीयों की गन्दी बस्तियों मांस फैलाने आदि की गंदी आदतों को साफ करने में मदद क्यों नहीं करते? सभी को समृद्धि प्रिय है, स्वार्थियों की बात कोई नहीं सुनता।
@ मांसाहार तो कोई भी कर सकता है लेकिन ‘विधिपूर्वक‘ केवल ‘ज्ञानी‘ ही कर सकता है।
हटाएंहिंसक और ज्ञानी??? धिक्कार है सौ बार धिक्कार!! ऐसी ओछी सोच और क्रूर 'ज्ञान'को!!
हिंसा और वो भी विधिपूर्वक, कोढ़ में खाज़!! हिंसकों के ऐसे विधान नफरत के भी लायक नहीं।
@आपके किसी भी वचन दुर्वचन के बावजूद हमारा प्यार आपके लिए कम न होगा। हम सब एक ही स्वयंभू मनु आदम की औलाद जो हैं
हटाएंहिंसा से सदैव नफरत ही की जानी चाहिए!! सनातन वैदिक धर्म के सात्विक अनुयायी होने के कारण समता भाव प्रकट हो और हिंसा करने वालों और माँस समर्थकों से घोर नफरत न कर पाएँ पर उनपर प्यार तो कदापि नहीं आ सकता। और न हिंसको से प्रेम की चाहना ही करनी चाहिए।
@एक ही ईश्वर की रचना हैं और एक ही धर्म सनातन वैदिक धर्म उर्फ़ इस्लाम के अनुयायी भी हैं।
अहिंसक और संयमी गुण- धर्म की हिंसक और भोगी तंत्र से क्या तुलना?
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंअमित भाई जी ,
जवाब देंहटाएंवाह .... वाह , आनंद आ गया , क्या बात है , लेख तो है ही चर्चा भी बहुत बढ़िया है |
निरामिष परिवार के सदस्य बधाई के पात्र हैं |
मैं अपनी तरफ से स्पष्ट कर दूँ की मैंने अपने स्तर पर वेदों के विषय में बहुत सी जानकारी [एक्सपर्ट ओपिनियन , इतिहास , भाष्य की जानकारी , पुस्तकें] जमा की थी | पक्ष विपक्ष दोनों पढ़े समझे और उन्हें पढने के बाद अब वेदों के प्रति श्रृद्धा बढ़ती जा रही है |
जवाब देंहटाएंनिरामिष समर्थक मित्र यहाँ जाकर (पेज के निचले हिस्से में)
जवाब देंहटाएंhttp://www.blogger-index.com/1823893-
निरामिष को रेटिंग दे सकते हैं
शब्द आइना भर ही तो होते हैं
जवाब देंहटाएंविचारों का जिनमे बिम्ब दीखता है |
जैसे शांत झील के ठहरे जल में
सूर्योदय का प्रतिबिम्ब दीखता है |
पानी झील का छेड़ दे कोई तो
सूरज खम्बा दिखने लगता है |
शब्दों की परिभाषाओं मोड़ वैसे ही
पाठक मूल विचार बदल देता है
आईने को तोड़ देने भर से
नायक बदल नहीं जाता है |
पत्र के शब्द मोड़ देने से लेकिन
मजमून बदल दिया जाता है |
शब्द को सौंप दिए ख्याल जो अपने,
शब्द अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं |
पढने सुनने वाले पर उन्हें मरोड़े तो
शब्द कुछ भी कर नहीं पाते हैं|
सुन्दर, सार्थक कविता। "अहिंसा परमो धर्मः" भारतीय संस्कृति के मूल में रहा है और असभ्यताओं के सभ्य छोर पर निकट भविष्य में होगा। "तमसो मा ज्योतिर्गमय" का उद्घोष कान में पड़ने से अन्धेरे के समर्थकों को बेचैनी होनी स्वाभाविक है।
हटाएं
हटाएंमेरा तो ध्यान ही लग गया।
शिल्पा जी धन्यवाद।
शिल्पा जी, कविता के माध्यम से आपने उन दुष्ट मति पाठकों और श्रोताओं की सोच को दर्पण दिखा दिया जिसमें उनकी नंगई साफ़-साफ़ झलक रही है।
हटाएंअरे अमित जी ....अग्यानी को आप सिखा सकते हैं ...धूर्त को नहीं..जो धूर्तता एक विशेष मिशन के तहत कर रहा हो.......ये सर्वरे कायना...और सत्यार्थी जी को मैं बहुत पहले झाड चुका हूं...परन्तु धूर्तों को कौन समझा पाया है...
जवाब देंहटाएंवाह! शिल्पा बहिना.
जवाब देंहटाएंकमाल की कविता है आपकी.
शब्दों के घर्षण से प्रज्जवलित अग्नि को,
शब्दों के जल से शमन करती हुई सी.
सभी महानुभावों के विचार युक्तिपूर्ण और विचारणीय हैं.
दिल जो गवाही दे,वही अपनाया जाए.
शराब सर चढ़ी हो तो बहकना हो ही जाता है.
आभार :)
हटाएंच्यवनप्राश भी मात्र एक फल था लेकिन उसे भी लोगों ने एक न छोड़ा।.... डॉ. जमाल
जवाब देंहटाएं@ मनुष्यों को तो भक्ष्य केवल 'शाक' था लेकिन उसे भी अनर्थकारियों ने एक न छोड़ा.
@ क्या मानवीय सृष्टि में (क्या किसी देश में, क्या किसी मजहब में) व्यक्तियों के नाम मांसभक्षण पर आधारित होते हैं? हमें आहार से सम्बंधित जो भी नाम मिलते हैं, वे शाक से तो जुड़े मिलते हैं. लेकिन मांस आहार से जुड़े नहीं... ... पकौडामल, राबड़ीदेवी, केलावती, दालचंद, खिचडीलाल, मूंगदेवी, अनार सिंह आदि.... इन शाक आधारित नामों में 'मल', 'देवी', 'वती', 'चंद', 'लाल', 'सिंह' आदि दूसरे नाम ... वर्ण (जाति), अथवा पैत्रिक विरासत के कारण जुड़ते चलते हैं.
किन्तु, स्वभाव को बताने के लिये 'मानव' प्राणियों के नाम वाले विशेषण जरूर प्रयोग करता है.... यथा...सिंह, शेर.... मुलायम सिंह, शम शेर,
लेकिन मुझे अभी तक किसी मजहब में मांसाहार वाले नाम नहीं मिले हैं.... जैसे... चिकन अहमद, मटन जमाल, झींगा मिश्रा या फिश/ झष मिश्र...
यदि इसके बाद भी जबरदस्ती के पंडित और मौलवी... 'मीना कुमारी', 'मीनाक्षी', 'अश्व कुमार', अश्वनी', गौपाल, गोविंद आदि में मांस भक्षण की झलक लेने बैठ जाएँ... तब क्या किया जा सकता है?... जबकि इनके अर्थ तो व्याकरण का सामान्य विद्यार्थी भी सही करके समझ लेगा.
भारतीय सौलह संस्कारों में नवजात शिशु को दुग्ध के बाद... भक्षण के नाम पर जो अल्पाहार कराया जाता है... उसे 'अन्नप्राशन' कहते हैं... न कि कुछ और .... अब अन्न प्राशन में कोई अन्न विशेष के नाम का उल्लेख नहीं हैं.. फिर भी अन्न के अंतर्गत केवल गेहूँ व चावल सर्वाधिक पहचाने जाने वाले अन्न हैं.
आदरणीय च्यवन ऋषि ने आंवला खाया था। वास्तव में आंवला ही च्यवनप्राश है। ....
जवाब देंहटाएंबाज़ार में च्यवनप्राश के नाम से कंपनियां 4 दर्जन दवाओं का योग बेच रही हैं और अपना पेटेंट अधिकार जताने के लिए अब भी उसके नुस्ख़ों में आए दिन फेर बदल करते रहते हैं। इन नुस्ख़ों का इस्तेमाल च्यवन ऋषि ने कभी नहीं किया।
♠ अब आप बताएं कि आप कौन से च्यवनप्राश की बात कर रहे हैं ? ....... डॉ. अ.ज.
@ भाषा विज्ञान में बहुतेरे रूढ़ शब्दों का उल्लेख है जो बहु प्रचार के कारण अपने अर्थ संकुचित और प्रसारित किये हैं, और कभी-कभी अर्थ-परिवर्तन के शिकार भी हुए हैं. ऐसे अनेक शब्द हैं.
फिर भी वर्तमान में बाजार में 'डालडा' वनस्पति घी के लिये, 'सर्फ़' डिटर्जेंट/अपमार्जक के लिये प्रयोग में आ रहा है... 'डिटोल' बेक्टीरिया रोधक और 'गूगल' सर्च इंजन के पर्याय बन गये हैं.
क्या यह संभव नहीं लगता कि .... आज 'च्यवनप्राश' 'औषधियों के मिश्रण का दिव्य पाक' ..... का पर्याय बनकर हमारे सामने है.
चव्यनप्राश आंवले का नाम है ?????
जवाब देंहटाएंयह मि. जमाल की अपनी पर्सनल वैदिक डिक्शनरी का कमाल लगता है।
हटाएं@ शिल्पा जी की रचना पर मंत्रमुग्ध हूँ....तर्कों को काव्य में बुना देखकर आनंद बहुगुणित हो जाता है.
जवाब देंहटाएंआपका आभार प्रतुल जी :)
हटाएंसारे शब्दकोष छान मारे पर ऐसा कहीं नहीं मिला............................मिलता भी कैसे यह अद्भुत ज्ञान अभी ताज़ा ही सिर्फ जमाल साहब पर ही तो नाजिल हुआ है
जवाब देंहटाएंप्रतुल जी, अमित जी,
जवाब देंहटाएंजैसे वसंतकुंज में रहता हुआ कौआ, मधुर रसीले आम्रफल छोड कर सड़ते हुए मांस के टुकडे पर चोच मारता है। वैसे ही सड़ते हुए स्ट्रॉबैरी फल को माँस की बोटी समझने की मूर्खता करता ही है। जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि। हिंसक सहज वस्तु छोडकर भी हिंस्र उपाय में गिद्ध दृष्टि रखता है।
@ एक ही इश्वर की रचना हैं , एक ही धर्म ...
जवाब देंहटाएंजब परम एक है तो सब उसी की रचना हैं
- परन्तु -----
एक ही धर्म - नहीं
"अकारण मूक प्राणियों की हिंसा और हत्या"
और
"स्वाभाविक करुणा और अहिंसा"
कभी एक ही धर्म हो ही नहीं सकते |
आप किताबों में लिखे शब्दों को अपनी इच्छाओं के अनुसार घुमा फिरा भले ही लें, परन्तु वे शब्द तो सिर्फ एक सच्चाई का बिम्ब हैं | the truth is that you DO NOT beleive in things like "shraaddha" etc., but use the word descriptions just to support the point of view you have. मैं पूछती हूँ - यदि आप सच में इसे मानते हैं - तो क्या इसी बताई विधि के अनुसार श्राद्ध कर के अपने पितरों की तृप्ति के लिए यज्ञ करेंगे ? नहीं करेंगे| क्योंकि आप इसे सही नहीं मानते |तब फिर इसे क्यों quote करते हैं ?
सच्चाई यह है की परमात्मा कृपालु है और अपने बनाए हरेक जीव पर उतना ही प्रेम रखता है जितना अपने बनाए हर एक मानव पर |
धर्म पुस्तकों में लिखी बातों के अर्थ बदलने से परमेश्वर की अहैतुकी कृपा, करुणा, और प्रेम नहीं बदल जाते | न ही फैसले के दिन जब खुदा अपने प्यारे उन मूक प्राणियों की हाहाकारी फरियाद सुनेगा, तब उन्हें मार कर खा जाने वालों के इस बहाने से संतुष्ट होगा की "ए खुदा - मैं तो यही समझता रहा की तेरी रजा ही यह है की मैं इसे खा जाऊं "
इस क्रूरता और हिंसा का हिसाब तो देना ही होगा |
-----------
और एक बात जिसका जवाब आप जैसे "वैज्ञानिक तर्क " देने वालों को देना होगा क़यामत के दिन,...... वह है कि
"
- आपकी इतनी हिम्मत / मजाल / धृष्टता कैसे हुई की आप यह कह कर की "यदि सब शाकाहार करें तो धरती पर मानव जाती के लिए भोजन कम पड़ जाए " - यह कह कह कर उस सर्व शक्तिमान अल्लाह के अपने बनाए प्राणियों के पेट भरने की काबिलियत पर प्रश्नचिन्ह लगाते रहे ????.... यह कहते रहे की उसकी देने की ताकत इतनी छोटी है की अपने बनाये प्राणियों का वह पेट नहीं भर सकता!!!!!
"
@"ए खुदा - मैं तो यही समझता रहा की तेरी रजा ही यह है की मैं इसे खा जाऊं "
हटाएंइस क्रूरता और हिंसा का हिसाब तो देना ही होगा |
अगर करणीय अकरणीय का इतना ही वि्वेक होता तो कर्मों में से कम से कम उस कर्म को चुनते जिसमें अज़ाब की आग की सम्भावना और जोखिम कम से कमतर हो। अज़ाब का भय तो नहीं है, अन्यथा हिंसा और अहिंसा में अन्तर स्पष्ट है। डर होता तो भले सभी कहे कि खुदा की रज़ा है,पर विवेक कहता है कि मै हिंसा कम से कमतर कर सकता हूँ और खुदा को इसमें एतराज़ भी न होगा। साधारण सा विवेक!!
शिल्पा जी, आपकी बात सही है। वेदों में त्रुटियाँ खोजते-खोजते मि. जमाल अल्लाह की अपने बन्दों का पेट भर पाने की क्षमता पर ही शक़ करने लगे, यह पढकर मुझे भी धक्का सा लगा।
हटाएं@मैं पूछती हूँ - यदि आप सच में इसे मानते हैं - तो क्या इसी बताई विधि के अनुसार श्राद्ध कर के अपने पितरों की तृप्ति के लिए यज्ञ करेंगे ? नहीं करेंगे| क्योंकि आप इसे सही नहीं मानते |तब फिर इसे क्यों quote करते हैं?
हटाएंजो भाई श्राद्ध में गेंडे का मांस आदि रखने की इतनी ज़िद कर रहे हैं तो शायद वे श्राद्ध करते ही होंगे और उसमें अपने पूर्वजों को मांसाहार खिलाने की जिद भी करते होंगे इस बात पर तो मुझे आश्चर्य नहीं है, ताज्जुब तो इस बात पर है कि गेंडे का मांस खाने के लिये कोई ब्राह्मण तो आने से रहा। तो क्या मि. जमाल श्राद्धभोज पर मौलवियों को बुलाते हैं? मुझे तो लगता है कि श्राद्ध में किसी मौलवी को जबरिया गेंडा खिलाना तो कुफ़्र ही होता होगा। मगर उनका कर्मकांड वे ही जानें।
@ प्यारे भाई अमित जी ! ज़्यादातर लोग वही कथा जानते हैं जो कि सुकन्या द्वारा च्यवन ऋषि की भूलवश आंख फोड़ देने के विषय में मशहूर है कि इस घटना से कुपित होकर च्यवन ऋषि ने सुकन्या के राज्य के सभी नागरिकों का पेशाब पाख़ाना ही रोक दिया था और राजा से कहा कि वह अपनी बेटी का विवाह उससे कर दे। अपनी प्रजा की जान बचाने के लिए राजा ने अपनी सुकुमारी बेटी बूढ़े ऋषि को दे दी और उसके बाद एक अश्विनी कुमार सुकन्या को नंगे नहाते हुए देखकर उस पर आसक्त हो जाते हैं और वे उसे अपनाने का प्रस्ताव देते हैं।
जवाब देंहटाएंइसी कथा में आता है कि च्यवनप्राश का अवलेह 52 जड़ी बूटियों के योग से अश्विनी कुमारों ने बनाया था।
आप ऐसा मानना चाहें तो मान सकते हैं लेकिन हमें पता है कि ऋषि और देवताओं का चरित्र क्या होता है ?
अक्रोध और क्षमा ऋषि का मूल लक्षण होता है। वह भूल से किए गए कार्य को तो छोड़िए जानबूझ कर किए गए उत्पीड़न को भी क्षमा कर देता है। वह एक के कर्म का दंड दूसरे को नहीं देता और किसी की भूल का श्राप पूरे राज्य को कभी नहीं देता और न ही वह ब्लैकमेल करता है।
सत्पुरूष पराई स्त्री पर बुरी नज़र नहीं डालते और देवता उनसे भी ज़्यादा दिव्य चरित्र वाले होते हैं।
घटना को चमत्कारपूर्ण बनाने के मक़सद से ही ये सब तत्व बाद में डाल दिए गए हैं।
अस्ल बात कुछ और थी जिसे वह बता सकता है जो वैदिक परंपरा को भी जानता हो और औषधियों की प्रकृति और शक्ति को भी। हमें ऐसे ही एक विद्वान ब्राह्मण ने च्यवन ऋषि की वास्तविक कथा बताई थी जो कि इससे भिन्न है।
हम उसे ही मानते हैं।
बहरहाल आज बाज़ार में 25 से लेकर 80 घटकों तक के योग से निर्मित च्यवनप्राश बिक रहे हैं।
हरेक नुस्खे का मुख्य घटक आंवला ही है।
यह अकेला ही बुढ़ापे को भगाने की शक्ति रखता है बशर्ते कि इसे ताज़ा खाया जाए।
असली और नक़ली च्यवनप्राश की पहचान
आप ख़ुद चेक कर लीजिए।
एक बार आप एक महीना तक 52 घटकों वाला च्यवनप्राश खाएं और देखें कि आपके अंदर कितनी ताक़त का संचार हुआ ?
इसके बाद सुबह शाम, आप महीना भर ताज़ा आंवले खाएं।
अब आप ख़ुद देख लेंगे कि ताक़त किसने ज़्यादा दी ?
रिज़ल्ट आपको बताएगा कि च्यवन ऋषि ने क्या खाया था ?
♠ ख़ैर अब बताएं कि ऋषभकंद क्या है जिसका इस्तेमाल वैदिक यज्ञ में किया जाता है ?
http://commentsgarden.blogspot.in/2012/02/blog-post.html
आँवला ईश्वर की बनाई एक उत्कृष्ट वनस्पति है, इसमें कोई शक़ नहीं। ईश्वर ने मानव और अन्य प्राणियों के लिये और भी अनेक वनस्पति स्रोत बनाये हैं। निरामिष तो शुरू से ही वनस्पति के पोषक महत्व को समझता है, आपने भी अब मान लिया यह अच्छी बात है। यहाँ आकर पढने, बहस करने से शाकाहार के कट्टर विरोधियों को भी इसी प्रकार ज्ञान-लाभ होता रहे तो यह निरामिष की सफलता है।
हटाएंआप च्यवन ऋषि से मिलकर आये हैं ???? या उनसे फ़ोन पर बात हुई ??? या उन्होंने आपको मेल भेजी है कि उन्होंने आंवला खाया था ???
हटाएंनहीं नहीं - यह भी किसी छद्म हिन्दू नाम से बनाये ब्लॉग / प्रिंटेड सोर्स से उद्धृत किया जा रहा होगा :)
इसमें कोई शक नहीं कि आंवला मनुष्य को इश्वर की अद्भुत देन है = परन्तु यह कुछ ज्यादा ही ऊंची फेंक हो गयी कि उन्होंने वाही खाया जो आप बता रहे हैं |
@ हमें पता है कि ऋषि और देवताओं का चरित्र क्या होता है ?
हटाएंअक्रोध और क्षमा ऋषि का मूल लक्षण .................. क्षमा कर देता है।
ओह्हो - आप बड़ी ग़लतफ़हमी में हैं | असली ऋषि ईश्वर विरोध/ वेदवाणी का अपमान जैसे भीषण अपराध को क्षमा नहीं करते | ये जो वेद वाणी के साथ आप छेड़ छाड़ करते रहते हैं - इस ग़लतफ़हमी में न रहे कि यह माफ़ होने वाली है |
""असली ऋषि"" examples :
१. परशुराम जी ने एक नहीं अनेकों बार अधर्मियों का नाश किया |
२. वशिष्ठ जी की गाय जबरन ले जाने की कोशिश पर विश्वामित्र का क्या हश्र हुआ, सब जानते हैं|
३. अश्वत्थामा ने उत्तरा गर्भ पर जो वाण चलाया - उसकी सजा से बचने के लिए ऋषि वेदव्यास से प्रार्थना की - जिसके उत्तर में उन्होंने कहा कि वह सजा से बच नहीं सकता , वे उसे क्षमा के योग्य नहीं मानते |
४. अगस्त्य जी सागर पी गए थे |
एक और बात -
हटाएंआप कहते हैं कि " एक ही धर्म सनातन वैदिक धर्म उर्फ़ इस्लाम "
यह कह कर आप पवित्र वेदों और इस्लाम की सीखों, दोनों ही का अपमान कर रहे हैं |
* वेद तो कई प्रथक देवताओं - सूर्य, इन्द्र, अग्नि, आदि की एक साथ अर्चना गाते हैं / उपासना करने को कहते हैं| पूरे वेद इंद्र, सूर्य , अग्नि और अनेक अन्य देवताओं के प्रति प्रार्थनाओं से भरे हुए हैं |
* जबकि इस्लाम में पहला ही वाक्य यह है कि एक अल्लाह के अलावा किसी की उपासना न हो | तो बार बार वेदों के और इस्लाम के मार्ग को एक कहने का कुफ्र करना / विभिन्न देवताओं की अर्चनाओं को गाना छोड़ दीजिये | अल्लाह से डरिये |
च्यवन ऋषि की ओर से यह भी बताया जाता है कि आंख फूटने के बाद आंख ठीक होने का उन्होंने यह नुस्ख़ा बताया था।
हटाएंइसे आंख के घायल मरीज़ों पर तजर्बा करके परीक्षा की जा सकती है कि क्या वाक़ई यह नुस्ख़ा काम करता है ?
अगर उनकी ओर से बताया गया यह नुस्ख़ा ठीक निकलता है तो फिर च्यवनप्राश के 52 घटकों वाला नुस्ख़ा भी ठीक मानना चाहिए।
ऋषि च्यवन ने कहा-
“प्रजापतेर्जात चित्रोर्वीम खलु रसेश गंधोपसमुद्र छिश्तः .
गरोर्द्वायाम शीतध्रिंग राजः चक्षुर्निलय मम अवस्थितो यत.”
अर्थात हे राजन ! यदि मेरी पत्नी नील वर्ण के पुष्प से युक्त ब्राह्मी घास को रोहिणी नक्षत्र के चन्द्रमा के रहते उसकी किरणों में समुद्र फेन में पाक कर माजू फल, श्वेत चन्दन एवं हल्दी के आर्द्र अवलेह में मिलाकर मेरी आँखों के गड्ढे में डालें तों मेरी आँखें पुनः रोशनी प्राप्त कर सकती है.
किन्तु ऋषि का तों विवाह ही नहीं हुआ था. उनकी पत्नी कहाँ से आयेगी? राजा ने यह बात ऋषि से ही पूछी. ऋषि ने कहा कि जिस कन्या ने मेरी आँखें फोडी है उसी से मेरी शादी होगी. कुछ देर के लिये राजा मूर्छित हो गये. किन्तु अपनी प्रजा का ध्यान कर तथा अपने कुल को ऋषि के शाप से बचाने के लिये पहले उन्होंने अपनी पुत्री सुकन्या से यह बात पूछा. सुकन्या तैयार हो गयी. राजा ने एक सप्ताह के अन्दर सारी औषधियां एकत्र करवाया. तब तक चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश कर गया. फिर सबका अवलेह बनवाकर ऋषि क़ी आँखों में डाला गया. उनकी आँखें फिर से रोशनी पा गयीं.
http://bhartiynari.blogspot.in/2012/02/sukanya.html
वेद और क़ुरआन एक ही मौलिक सिद्धांत की शिक्षा देते हैं
हटाएंवेद में अग्नि इंद्र मित्र वरूण और अश्विनी कुमार आदि नाम आए हैं। यह बात सही है लेकिन आपको ध्यान रखना होगा कि जो नाम ईश्वर का है वही नाम किसी राजा का भी है और वही नाम किसी वस्तु का भी है। ईश्वर का नाम भी इंद्र है और आर्य राजा का नाम भी इंद्र है। यही बात अग्नि की है कि जिस आग को जलाकर प्रकाश किया जाता है उसका नाम भी अग्नि है और ईश्वर का नाम भी अग्नि है।
वेद में ईश्वर को भी सम्मान देकर बात कही गई है और राजा को भी। वेदों में तो पशु पक्षियों और जड़ी बूटियों तक से संवाद किया गया है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि ऋषि जो आदर ईश्वर को दे रहे हैं, वह उत्पन्न होकर नष्ट होने वाली चीज़ों को भी दे रहे हैं। हक़ीक़त यह है कि जिसका जो स्वरूप है या जिसने जो प्रशंसनीय कार्य किया है या जिसके ज़रिये जो काम हो सकता है, उसका वर्णन मात्र किया जा रहा है।
इसी के साथ यह भी याद रहे कि एक ही ईश्वर के भी बहुत से नाम आए हैं और एक ही मनुष्य के भी बहुत से नाम आए हैं। अगर ढंग से पहचान लिया जाए कि कहां किस नाम से ईश्वर अभिप्रेत है और कहां देवता, राजा और अन्य सृष्टि तो फिर इस तरह का भ्रम नहीं लगता कि वेदों में बहुत सारे देवताओं की पूजा का विधान है।
वेद में साफ़ कहा गया है कि
एक एव नमस्यो विक्ष्वीड्यः
अथर्ववेद 2,2,1
अर्थात केवल एक के आगे ही सिर झुकाओ। सारी प्रजाएं (सृष्टि) उसी की उपासना करें।
यही बात क़ुरआन कहता है-
अतः जान रखो कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य प्रभु नहीं ।
क़ुरआन 47,19
सृष्टि वृक्ष का मूल परमात्मा है जो कि जगत का सूर्य है Sun & The Spirit
http://vedquran.blogspot.in/2012/02/sun-spirit.html
सुज्ञFeb 17, 2012 11:11 AM
हटाएं@अपनी प्रजा की जान बचाने के लिए राजा ने अपनी सुकुमारी बेटी बूढ़े ऋषि को दे दी
च्यवन ऋषि तो एक साधक-आराधक ऋषि थे कोई अवतार या ईशवाणीवाहक नहीं।
अमित जी सावधान, डॉ अनवर जमाल साहब किसी विशिष्ट पुरूष की इसी कथा से तुलना और उनकी निन्दा करवाना चाहते है।
@अक्रोध और क्षमा ऋषि का मूल लक्षण होता है।
अमित जी जैसी शान्त लेकिन सुदृढ प्रतिक्रिया इस पोस्ट और टिप्पणियों में आपने बनाए रखी यह आपके उत्तम ऋषि लक्षण है। समताभाव व क्षमादान का अर्पण जारी रखें। मन्यु भी नहीं॥
हटाएंRANG NATH SHUKLA30 जनवरी 2018 को 7:45 pm
ऊपर विज्ञ महानुभाओं जिनकी बातों ने आपकी जड़ें हिला दीं है...के द्वारा प्रस्तुत संस्कृत शब्दकोश के लिंक पर जाएं वृषभ के अर्थों में vigorous, strong, bull,velvet bean (mucuna prurita)आदि दिए गए है...सोम भी औषधि है और वेलवेट बीन अर्थात कपिकच्छु आत्मगुप्ता कंडूरा मार्कटि ( वानरी... केवांच) भी है। यह बल्य वृष्य और वृहण है
तद्वीजं वातशमनं स्मृतं वाजीकरम् परम्।(भाव प्रकाश) ....अब रही बात अर्थ ग्रहण करने की मियां जमाल वेद वाङ्गमय कुरान की लकीर नहीं...हम भी लकीर के फकीर नही ...रही सदाशयता और शांति की बात पूरा मध्यपूर्व एक धर्म की शांति पूर्ण कार्यों से आपकी भाषा में लबरेज है ...
प्रस्तुत आलेख में अमित जी नें वेद मंत्रों के लिए जाते अनर्थ को सुस्पष्ट किया और वेदों के अहिंसक आशय को प्रमाण सहित स्थापित है। वस्तुतः वेदों के अनर्थक अर्थ व पर्याय अज्ञानी होते हुए भी मिथ्याज्ञान के अहंकार से पोषित हुए है।
जवाब देंहटाएंपूरी चर्चा से यह भी निकलकर आया कि हिंसाप्रधान मनोवृति के कथित जानकार उद्देश्यपूर्वक वेदों के हिंसक अर्थ करने में लिप्त है। यह मलीनवृति इसलिए भी है कि मलीन मानसिकता किसी भी वस्तु को स्वच्छ बरदास्त नहीं कर सकती।
वेदों में पशुनाम से मिलते-जुलते शब्दों के अर्थ दुराग्रह पूर्वक मात्र पशुहिंसा से ही बिठाने का दुर्लक्ष साफ दृष्टिगोचर होता है। वृषभां से ॠषभक नामक शक्तिवर्धक औषधि इसका स्पष्ट उदाहरण है, कुतर्कवादी इसतरह चर्चा कर रहे है जैसे यदि ॠषभक या ॠषभकंद जैसी किसी औषधि का अस्तित्व ही नहीं था, स्मृति से लगभग विलुप्तप्रायः इस वैदिक-काल की औषधि को कोई बता दे तो हम मान लेंगे कि जहाँ जहाँ पशुनाम्ना शब्द का उपयोग हुआ है बलवर्धक औषधि हो सकती है। लेकिन यह भी सच्चाई है कि वितंडावादियों को झूठा पडने की कोई लज्जा नहीं होती। फिर भी दुराग्रही के दुराग्रह को कमसे कम दूर करने का प्रयास तो होना ही चाहिए………
इसी प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए और इस वाद को परिणामी दिशा में अंत देने के लिए ॠषभक के बारे में जानकारी भरा आलेख प्रकाशित किया जा रहा है।
ऋषभ कंद - ऋषभक का परिचय ।। वेद विशेष ।।
प्रिय अमित जी ,
जवाब देंहटाएंसब पढ़ने के बाद बस तुलसीदास जी का एक दोहा मन मे आरहा हैं
फूलह फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम।
इस लिए मूर्खो को कभी भी मुंह नहीं लगाना चाहिए !!
न षृणुतव्यं न मंतव्यं वक्तव्यं तु पुनःपुनः - यह सूत्र है विगृह्य सम्भाषा का। ऋषियों ने इससे बचने का उपदेश किया है क्योंकि इससे समय ही व्यर्थ जाता है। उपलब्धि कुछ नहीं होती। सुपात्र को ही ज्ञान देने की बात भी कही गयी है। कुपात्र को ज्ञान देने से उसका दुरुपयोग ही होता है। वैदिक ज्ञान का अनर्थ करने वाले लोग कुपात्र हैं, उनसे किसी संभाषा का कोई उद्देश्य नहीं।
जवाब देंहटाएं'यः तर्केण अनुसन्धत्ते स धर्मं वेद न अपरः' स्पष्ट है कि टीकायें और भाष्य मन्द बुद्धि लोगों को विषय का यथार्थ समझने में सहयोग करने के लिये योजित किये गये हैं। ज्ञान प्राप्ति के लिये स्वयं अनुसन्धान करना पड़्ता है अन्यथा प्रेस में काम करने वाले कम्पोज़र अब तक महाज्ञानी हो गये होते, दुनिया के सारे बुकसेलर्स भी परमज्ञानी होते। ज़माल जैसे लोग क्या अनुसन्धान कर रहे हैं वही जाने मुझे तो वह व्यक्ति विद्वत सभा के योग्य नहीं लगता। लोग अपनी-अपनी प्रकृति,भावना,क्षमता और बुद्धि के अनुरूप सूचनायें और अर्थ ग्रहण करते हैं। आज ही स्पेन की सुश्री मारिआ जी ने निरामिष पर टिप्पणी दी है कि मांसाहार हमारे व्यवहार को एग्रेसिव बनाता है। हृदय रोगों से त्रस्त होने के बाद पश्चिमी देशों में शाकाहार की बात चल रही है और यहाँ हम मांसहार की वकालत कर रहे हैं वह भी वेदों पर लांछन लगाते हुये। वेद विरोधाभासी होते तो अब तक उनका अस्तित्व समाप्त हो गया होता। कुछ टीकाकार भारतीय ज्ञान को विकृत करके प्रस्तुत करने के लिये द्रव्य प्राप्त करते हैं। यह एक साज़िश है जो मैकाले के ज़माने से चली आ रही है। खेद है कि भारत में जन्म लिये कुछ लोग भारतीय संस्कृति के विरुद्ध विषवमन करने में ही अपना जीवन खपाये दे रहे हैं। "अहिंसा परमोधर्मः" के उपदेश के बाद कुछ भी कहना शेष नहीं रह जाता है। इस परम वाक्य के बाद जो है वह कुतर्क है
आप लोग ज़माल की प्रकृति को बदल नहीं सकते। यह हमारी उदारता है कि वेदों पर मिथ्या आरोप के बाद भी हम शांत हैं( और शांत ही रहेंगे) यदि यह मामला किसी इस्लामिक ग्रंथ का होता तो अब तक पता नहीं क्या हुआ होता। किंतु हम हर सद्विचार को स्वीकार करने की परम्परा से जुड़े हैं इसलिये हमारे मंच विद्वानों के लिये खुले हैं कुतर्कियों के लिये नहीं। अष्टवर्ग की ओषधि ऋषभक कन्द को पता नहीं क्या सिद्ध करने पर तुले हुये हैं लोग? तर्क से बुद्धिगम्य होने के उपरांत सहमत होने पर विद्वत्परिषद में बनी एकता (Harmony in the conclusion of the discussion) से "सुर" समुदाय बनता है शेष अपनी (Disharmony)के कारण असुर समुदाय बनाते हैं।
हमें अपनी बुद्धि के अनुरूप और देश के कानून की मर्यादा में रहते हुये आचरण की स्वतंत्रता प्राप्त है, किंतु किसी स्कूल के विचारों को विकृत करने की नैतिक स्वतंत्रता नहीं है जैसी कि ज़माल जी उपभोग कर रहे हैं।
कृपया "षृणुतव्यं" को सुधार कर "श्रुणुतव्यम् "पढ़ने की कृपा की जाय।
जवाब देंहटाएंहम वही देखते हैं जो हम देखना चाह्ते हैं, हम वही समझते हैं जो हम समझना चाह्ते है। इसलिये विद्वानों की सभा में हठी और दुराग्रही का कोई स्थान नहीं।
जवाब देंहटाएंब्राज़ील की फ्लाविया जी के इस कथन पर भी गौर किया जाय -
Você pode reparar, por exemplo, a partir de sua própria experiência, como seu sentimento em relação a alguma coisa que você observa mudará dependendo de seu próprio estado mental. Embora o objeto permaneça o mesmo, sua reação será muito menos intensa quando a mente estiver calma do que quando estiver dominada por alguma emoção forte como a raiva."
और यह रहा इसका आंग्लानुवाद
"You may notice, for example, from her own experience, as your feeling about something that you see will change depending on your own mental state. Although the object remains the same, your response will be much less intense when the mind is calm than when you are dominated by some strong emotion like anger.
लगता है डा. जमाल सहाब दुराग्रही हैं। और वह किसी बात को समझकर भी समझना ही नही चाहते सच बात तो यह है कि किसी बात को इस्लामी चश्मा उतार कर देखे तब तो कुछ समझ आये लैकिन जहाँ समझना उद्देश्य ही न हो केवल भारत व भारतीय संस्कृति का विरोध ही करना हो तो अनबर जमाल सहाव का नजरिया विल्कुल सटीक दिखाई देता है।इन लोगों को अपने बाप दादाओं पर भरोसा तो हुआ नही तुम पर सुज्ञ जी क्या करेगें ये लोग ये तो उस विदेशी मुहम्मद के कारनामों के अंध भक्त बन चुके हैं जिसकी कोई भी बात तर्क पर पूरी हो ही नही सकती हाँ अगर आप ज्यादा कहोगे तो आपको फतबा सुना देंगे औऱ भारत में आजकल उस फतवे की बहुत वेल्यु नही रह गयी है सो बेचारे बार बार विना ज्ञान की बहस कर रहे हैं
जवाब देंहटाएंhttp://ayurvedlight.blogspot.in
बहुत बहुत धन्यवाद, लेखक को।
जवाब देंहटाएंअकस्मात आज इस जालस्थल पर आया, और आलेख पढकर आनन्दित हुआ।
निघंटु और निरुक्त से सही सही सुसंगत अर्थ निकालने की विधि, लेखक ने स्पष्ट की है।
मेरी दृष्टि से बडी तर्क संगत है।
धन्यता अनुभव कर रहा हूँ, कि इस आलेख को पढ पाया।
आदरणीय मधुसुदन जी,
हटाएंसबसे पहले तो आपका बहुत बहुत आभार आप 'निरामिष' पर पधारे.
आपके आने से हमारा कार्य सार्थक हो गया.
(१)
जवाब देंहटाएंतारानाथ को १८६६ में १०.००० रूपए देकर, वैदिक शब्दों के अर्थ का अनर्थ करने की शर्त पर काम दिया गया था, जो आज के मूल्यों के अनुसार कम से कम ३०० गुना ३,०००,००० (तीन मिलियन) होगा। इसमें गोघ्ब, अश्वमेध इत्यादि बहुत सारे शब्द सम्मिलित थे। इसका आधार संदर्भ है; "True History and Religion of India" १९९९ में छपा --"Encyclopedia of Authentic Hinduism"--- के २६६-२६७ पृष्ठों पर पायी जाएगी।
(२)
१८६६ अप्रैल १० के दिन Royal Asiatic Society की लन्दन षाखा की बैठक में भारत का इतिहास विकृत करने का षड्यन्त्र रचा गया था। सारे इसाइ मिशनरी-और रिलिजनाचार्य (धर्माचार्य नहीं)एकत्रित हुए थे।--संदर्भ-"A Comprehensive Study of Vivekananda" --page 366
(३) Nicholas Dirks -Columbia University के प्रोफ़ेसर की पुस्तक "Castes of Mind--British Mischief" --to corrupt Indian History नामक पुस्तक पढें.
www.pravakta.com पर ३-४ आलेख इस पुस्तक के आधार पर मेरे द्वारा डाले गए हैं।
(४) David Frawley की "Mantra Darshan"---पढें, जिस में --शब्दार्थों का सही और सुसंगत ऊंचा अर्थ लगा कर का मन्त्र दर्शन करवाया है।
भला इस कॅथोलिक प्रिचर के पुत्र को क्या मिलेगा, वेदों का गुणगान करके?
Dr. Madhusudan Jhaveri
University Of Massachusetts, Dartmouth.USA
Ph. D. (Structural Engineering)
आपका आभार यहाँ आने और हमें पढने के लिए ।
हटाएंअमित जी,
जवाब देंहटाएंएक बार फिर से पूरी चर्चा का आनंद लिया। सुज्ञ जी, अनुराग जी, और आपकी तार्किक किलेबंदी ने और साथ ही शिल्पा जी, श्याम गुप्त जी, वीरेंदर जी और मधुसूदन जी, कौशलेन्द्र जी, ज्ञानेश जी, गौरव जी की मौर्चेमंदी ने शत्रु पक्ष के अनवर अयाज की घुसपैठ होने से रोकी।
मा हिंस्यात् सर्वभूतानि इस वेदवाक्य का संदर्भ क्या है?
जवाब देंहटाएं