वैदिक शब्दावली की एक जो सबसे बडी विशेषता है, वो ये कि वैदिक नामपद अपने नामारूप पूर्णत: सार्थक हैं. वेदों में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के जो नाम मिलते हैं, वे किसी भी रूप में अपने धात्वर्थों का त्याग नहीं करते. उदाहरण के लिए पाठक "पंकज" शब्द पर विचार करें. प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि "पंकज" शब्द का अर्थ होता है---"कमल". यह शब्द दो हिस्सों से बना है. एक "पंक" और दूसरा "ज". "पंक" का अर्थ होता है---"कीचड" और "ज" का अर्थ है---"पैदा हुआ". अत: पंकज का अर्थ है---"कीचड से पैदा हुआ पदार्थ". कमल यदि कीचड से पैदा हुआ न हो तो उसके लिए "पंकज" शब्द का प्रयोग वैदिक शब्द शास्त्र कि दृष्टि से सर्वथा अनुचित होगा. वैदिक दृष्टि में कमल के लिए तभी पंकज शब्द का प्रयोग किया जा सकता है, जब कि कमल में "पंक से पैदा होना" रूपी धर्म विद्यमान हो.
लोक में, जिसके न दीन की खबर और न ईमान का ठिकाना, वो भले चाहे खुद को "मुस्सलसल ईमान" साबित करने को तुला रहे, भले ही किसी भिखारी को धनीराम के नाम से संबोधित किया जाए या आँख के अंधे का "नयनसुख" नामकरण कर दिया जाये, लेकिन वैदिक दृष्टि में वस्तुओं/पदार्थों/जीवों के नामकरण/संबोधन का यह ढंग किसी प्रकार भी स्वीकृत नहीं. वैदिक दृष्टि में ईमान वाले का संबोधन मुसलमान, पैसे वाला धनीराम और आँखों वाले का नाम ही "नयनसुख" संभव है.
इस उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार अब हमें देखना चाहिए कि वेदों में यज्ञ के जो-जो पर्यायवाची नाम मिलते हैं, उनके धात्वर्थों द्वारा "यज्ञ में पशुबली" विषय पर कोई प्रकाश पडता है या नहीं. यज्ञ के पर्यायवाची नाम निम्न है:--
यज्ञ:, वेन:, अध्वर:, मेध:, विदथ:, नार्य:, सवनम, होत्रा, इष्टि:, देवताता:, मख:, विष्णु:, इन्दु:, प्रजापति:, धर्म:---(निघण्टु अध्याय 3/खण्ड 17)
इनमें से "अध्वर " और " देवताता "--इन नामों पर विचार करना अत्यावश्यक है.
अध्वर:---अध्वर शब्द की निरूक्ति( Derivation) में निरूक्तकार यास्कमुनि लिखते हैं कि:---
" अध्वर इति यज्ञनाम ! ध्वरतिहिंसाकर्मा, तत्प्रतिषेध: !! " (निरुक्त अध्याय 1/खण्ड 8)
अध्वर शब्द दो हिस्सों से बना है. एक "अ" और दूसरा "ध्वर" . अ का अर्थ है----निषेध, और ध्वर का अर्थ है---हिँसा करना या वध करना. अत: अध्वर का अर्थ हुआ कि ऎसा कर्म जिसमें हिँसा न की जाये. इस प्रकार यज्ञ का नाम "अध्वर" होना ही इस सिद्धान्त की पुष्टि कर रहा है कि यज्ञ में हिँसा कदापि न होनी चाहिए. जिसमें हिँसा है, वह यज्ञ ही नहीं. इसलिए अध्वर शब्द अपने निर्वचन द्वारा स्पष्ट रूप से निर्देश कर रहा है कि यज्ञ में "पशुवध" सर्वथा निषिद्ध है. यदि यज्ञ में पशु का वध करना वेदों को अभीष्ट होता तो वैदिक साहित्य में इसका नाम अध्वर कभी भी न होता. फिर तो इसका नाम "ध्वर" या "सध्वर" होना चाहिए था, न कि "अध्वर".
देवताता:- यज्ञ का एक दूसरा नाम देवताता भी है. देवताता दो शब्दों के संयोग से बना है---देव और ताता, जिनमें देव शब्द के अर्थ से तो हर कोई भलीभान्ती परिचित ही है. देव अर्थात देवता और ताता शब्द निर्मित हुआ है 'तन" धातु से, जिसका अर्थ होता है---विस्तार. यथा "तनु विस्तारे". अत: देवताता का अर्थ है---"देवों के लिए विस्तृत किया गया". इससे स्पष्ट हो जाता है कि यज्ञ केवल देवताओं के ही उद्देश्य से किया जाता है, न कि असुर और राक्षसों के निमित. अर्थात यज्ञ में जो घी इत्यादि सामग्री होती है, उसकी आहुति देवताओं के नाम से दी जाती है, न कि असुरों या राक्षसों के नाम से. "ॐ अग्नये स्वाहा", "सोमाय स्वाहा" या "प्रजापतये स्वाहा" इत्यादि ऎसे मन्त्रोच्चारण तो जरूर सभी नें कभी न कभी अवश्य सुने होंगें, लेकिन क्या किसी नें कभी देखा है कि किसी यज्ञ में "असुराय नम:" या "राक्षसाय नम:"---ऎसे वाक्यों से आहुति दी गई हो या किसी वेद, पुराण, उपनिषद इत्यादि किसी भी धर्मग्रन्थ में ऎसा राक्षसों की प्रसन्नतार्थ कोई मन्त्र/श्लोक दिया गया हो.
अब बात आती है कि वेद आदि धर्मशास्त्र देवताओं के भोजन के सम्बन्ध में क्या कहते हैं. यदि तो वेदों में लिखा हो कि देव माँस भी खाते थे, तब तो सिद्ध हो ही जायेगा कि यज्ञ में पशु की बलि या कि देवों को माँस की आहुति वेदोक्त ही है. परन्तु किसी वेद/पुराण में यह नहीं लिखा कि देव माँस-भक्षक हैं. बल्कि वेद तो ये कहते हैं कि "देवा आज्यपा:" जिसका अर्थ है कि "देवता घी का पान करने वाले हैं". इसीलिए यज्ञ में घृताहुति पर ही अधिक बल दिया जाता है. यदि यज्ञ में माँसाहुति वेदों को अभीष्ट होती तो, चूँकि यज्ञ देवताओं के निमित किया जाता है, तब देवों के भोजन में माँस का गिनाना भी वेदों के लिए आवश्यक होता.
हाँ, वेदों में माँस और रूधिर आदि अन्न राक्षसों के भोज्य पदार्थों में अवश्य गिनाये गये हैं. वेदों में रक्तपा:, मांसादा:, पिशाचा:, क्रव्यादा:----आदि नाम राक्षसों के लिए पठित हैं. रक्तपा:---अर्थात रक्त के पीने वाले. मांसादा:----अर्थात माँस का भक्षण करने वाले, पिशाचा:----पिश अर्थात शरीर के अवयवों को खाने वाले. क्रव्यादा:----अर्थात हिँसा से प्राप्त आहार का भक्षण करने वाले.
वेदों में देवताओं का एक पर्यायवाची नाम आता है----"अमृतान्धस:".जिसका अर्थ है "जो कि मृत अन्न का सेवन नहीं करते". क्या ये सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि मरने से पैदा हुआ अन्न अर्थात माँस देवों का भोजन नहीं.
प्रजापति:- यज्ञ का तीसरा नाम है---प्रजापति. प्रजा का अर्थ है----उत्पन्न प्राणी और पति का अर्थ है---रक्षक. अत: प्रजापति का अर्थ है---प्राणियों का रक्षक. अब यदि यज्ञ बलि के नाम पर स्वयं ही पशुप्रजा का भक्षक हो तो उसका प्रजापति नाम होना ही निरर्थक हो जाये.
अत: विधर्मी दुष्प्रचारकों को यह समझ लेना चाहिए कि यज्ञ के अध्वर, देवताता एवं प्रजापति इत्यादि पर्यायवाची नाम ही उनके "वेदों में पशुबलि" विषयक दुष्प्रचार का भांडाफोड करने में पर्याप्त हैं और ये भी कि सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का कल्याण चाहने वाली इस सनातन संस्कृति में हिँसा का कभी कोई स्थान नहीं रहा...........
लोक में, जिसके न दीन की खबर और न ईमान का ठिकाना, वो भले चाहे खुद को "मुस्सलसल ईमान" साबित करने को तुला रहे, भले ही किसी भिखारी को धनीराम के नाम से संबोधित किया जाए या आँख के अंधे का "नयनसुख" नामकरण कर दिया जाये, लेकिन वैदिक दृष्टि में वस्तुओं/पदार्थों/जीवों के नामकरण/संबोधन का यह ढंग किसी प्रकार भी स्वीकृत नहीं. वैदिक दृष्टि में ईमान वाले का संबोधन मुसलमान, पैसे वाला धनीराम और आँखों वाले का नाम ही "नयनसुख" संभव है.
इस उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार अब हमें देखना चाहिए कि वेदों में यज्ञ के जो-जो पर्यायवाची नाम मिलते हैं, उनके धात्वर्थों द्वारा "यज्ञ में पशुबली" विषय पर कोई प्रकाश पडता है या नहीं. यज्ञ के पर्यायवाची नाम निम्न है:--
यज्ञ:, वेन:, अध्वर:, मेध:, विदथ:, नार्य:, सवनम, होत्रा, इष्टि:, देवताता:, मख:, विष्णु:, इन्दु:, प्रजापति:, धर्म:---(निघण्टु अध्याय 3/खण्ड 17)
इनमें से "अध्वर " और " देवताता "--इन नामों पर विचार करना अत्यावश्यक है.
अध्वर:---अध्वर शब्द की निरूक्ति( Derivation) में निरूक्तकार यास्कमुनि लिखते हैं कि:---
" अध्वर इति यज्ञनाम ! ध्वरतिहिंसाकर्मा, तत्प्रतिषेध: !! " (निरुक्त अध्याय 1/खण्ड 8)
अध्वर शब्द दो हिस्सों से बना है. एक "अ" और दूसरा "ध्वर" . अ का अर्थ है----निषेध, और ध्वर का अर्थ है---हिँसा करना या वध करना. अत: अध्वर का अर्थ हुआ कि ऎसा कर्म जिसमें हिँसा न की जाये. इस प्रकार यज्ञ का नाम "अध्वर" होना ही इस सिद्धान्त की पुष्टि कर रहा है कि यज्ञ में हिँसा कदापि न होनी चाहिए. जिसमें हिँसा है, वह यज्ञ ही नहीं. इसलिए अध्वर शब्द अपने निर्वचन द्वारा स्पष्ट रूप से निर्देश कर रहा है कि यज्ञ में "पशुवध" सर्वथा निषिद्ध है. यदि यज्ञ में पशु का वध करना वेदों को अभीष्ट होता तो वैदिक साहित्य में इसका नाम अध्वर कभी भी न होता. फिर तो इसका नाम "ध्वर" या "सध्वर" होना चाहिए था, न कि "अध्वर".
देवताता:- यज्ञ का एक दूसरा नाम देवताता भी है. देवताता दो शब्दों के संयोग से बना है---देव और ताता, जिनमें देव शब्द के अर्थ से तो हर कोई भलीभान्ती परिचित ही है. देव अर्थात देवता और ताता शब्द निर्मित हुआ है 'तन" धातु से, जिसका अर्थ होता है---विस्तार. यथा "तनु विस्तारे". अत: देवताता का अर्थ है---"देवों के लिए विस्तृत किया गया". इससे स्पष्ट हो जाता है कि यज्ञ केवल देवताओं के ही उद्देश्य से किया जाता है, न कि असुर और राक्षसों के निमित. अर्थात यज्ञ में जो घी इत्यादि सामग्री होती है, उसकी आहुति देवताओं के नाम से दी जाती है, न कि असुरों या राक्षसों के नाम से. "ॐ अग्नये स्वाहा", "सोमाय स्वाहा" या "प्रजापतये स्वाहा" इत्यादि ऎसे मन्त्रोच्चारण तो जरूर सभी नें कभी न कभी अवश्य सुने होंगें, लेकिन क्या किसी नें कभी देखा है कि किसी यज्ञ में "असुराय नम:" या "राक्षसाय नम:"---ऎसे वाक्यों से आहुति दी गई हो या किसी वेद, पुराण, उपनिषद इत्यादि किसी भी धर्मग्रन्थ में ऎसा राक्षसों की प्रसन्नतार्थ कोई मन्त्र/श्लोक दिया गया हो.
अब बात आती है कि वेद आदि धर्मशास्त्र देवताओं के भोजन के सम्बन्ध में क्या कहते हैं. यदि तो वेदों में लिखा हो कि देव माँस भी खाते थे, तब तो सिद्ध हो ही जायेगा कि यज्ञ में पशु की बलि या कि देवों को माँस की आहुति वेदोक्त ही है. परन्तु किसी वेद/पुराण में यह नहीं लिखा कि देव माँस-भक्षक हैं. बल्कि वेद तो ये कहते हैं कि "देवा आज्यपा:" जिसका अर्थ है कि "देवता घी का पान करने वाले हैं". इसीलिए यज्ञ में घृताहुति पर ही अधिक बल दिया जाता है. यदि यज्ञ में माँसाहुति वेदों को अभीष्ट होती तो, चूँकि यज्ञ देवताओं के निमित किया जाता है, तब देवों के भोजन में माँस का गिनाना भी वेदों के लिए आवश्यक होता.
हाँ, वेदों में माँस और रूधिर आदि अन्न राक्षसों के भोज्य पदार्थों में अवश्य गिनाये गये हैं. वेदों में रक्तपा:, मांसादा:, पिशाचा:, क्रव्यादा:----आदि नाम राक्षसों के लिए पठित हैं. रक्तपा:---अर्थात रक्त के पीने वाले. मांसादा:----अर्थात माँस का भक्षण करने वाले, पिशाचा:----पिश अर्थात शरीर के अवयवों को खाने वाले. क्रव्यादा:----अर्थात हिँसा से प्राप्त आहार का भक्षण करने वाले.
वेदों में देवताओं का एक पर्यायवाची नाम आता है----"अमृतान्धस:".जिसका अर्थ है "जो कि मृत अन्न का सेवन नहीं करते". क्या ये सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि मरने से पैदा हुआ अन्न अर्थात माँस देवों का भोजन नहीं.
प्रजापति:- यज्ञ का तीसरा नाम है---प्रजापति. प्रजा का अर्थ है----उत्पन्न प्राणी और पति का अर्थ है---रक्षक. अत: प्रजापति का अर्थ है---प्राणियों का रक्षक. अब यदि यज्ञ बलि के नाम पर स्वयं ही पशुप्रजा का भक्षक हो तो उसका प्रजापति नाम होना ही निरर्थक हो जाये.
अत: विधर्मी दुष्प्रचारकों को यह समझ लेना चाहिए कि यज्ञ के अध्वर, देवताता एवं प्रजापति इत्यादि पर्यायवाची नाम ही उनके "वेदों में पशुबलि" विषयक दुष्प्रचार का भांडाफोड करने में पर्याप्त हैं और ये भी कि सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का कल्याण चाहने वाली इस सनातन संस्कृति में हिँसा का कभी कोई स्थान नहीं रहा...........
यह भ्रामक प्रचार, सोचा समझा षड्यंत्र है, वेद-अनुयायियों को भी मांसभक्षी समान निम्न स्तर पर दर्शा कर, अपने समकक्ष पतित मनवाने की चाल है।
जवाब देंहटाएंऔर मनु नें स्पष्ट कहा भी है………
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः (मनुस्मृति 5/51)
-पशु को मारने की आज्ञा देने वाला, मारने के लिए लेने वाला, बेचने वाला, मारने वाला, मांस को खरीदने और बेचने वाला, पकाने वाला और खाने वाला यह सभी हत्यारे हैं|
पंडित जी लाख लाख आभार इस स्पष्ट प्रकटीकरण के लिए!!
आपने बेहतरीन जानकारी दी, आगे भी ऐसी ही सच्ची जानकारी की उम्मीद रहेगी। कुछ मांसभक्षी इस बात को गलत ठहराते है कि वेद में ऐसा लिखा है जबकि उन मांसभक्षी में से चारों वेद को पढने वाले कोई एक-आध टपका भी हो ऐसा मुझे नहीं लगता है। हालात तो ये आ गये है कि अपनी झूठी व गलत बात सही करने के लिये ये लोग पहले ही शोर मचाने लगते है कि कही वेदों के असली राज लोगों के सामने आ गये तो क्या होगा? मैंने संस्कृत से स्नातक(शास्त्री) किया हुआ है और ज्यादातर पुस्तक पढ चुका हूँ लेकिन मुझे अभी तक ऐसी गलत बात नहीं मिली जिस में ऐसा कुछ लिखा हो कि मांस भक्षण करना चाहिए।
जवाब देंहटाएंऐसे भ्रम दूर होने ज़रूरी हैं..... बहुत बढ़िया पोस्ट
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया जानकारी .असल में युग कोई भी हो शक्तिशाली व्यक्ति ने अपने हिसाब से नियम बना लिए और वही प्रचारित किये.अब आवश्यकता है सही जानकारी देने की.
जवाब देंहटाएंmuslam jis burai ko apne andr se door nhi kr pa rehe ,to use jabran hi vedo me khoj kr hindo ko bhramit kerne me lage hai..
जवाब देंहटाएंBahut hi badiya post
१. बिलकुल सच कहा आपने - सोचा समझा षड्यंत्र ही है | तिस पर दिखावा ये - की हम वेदों का सम्मान करते हैं - और यह कह कर उन्ही वेदों के अर्थों के अनर्थ करने का निरंतर प्रयास |
जवाब देंहटाएं२. फिर - एक बात और भी है | कई बातें वेदों में नहीं भी हैं - बाद में "भाष्य" में जोड़ी गयी हैं, उन बातों को highlight कर कर के उन्हें वेदों की मूल भावना से भी अधिक महत्व देने का प्रयास |
३. श्री कृष्ण गीता में कहते हैं -"पत्रं पुष्पं फलं तोयम " अर्थात ये चार चीज़ें ही स्वीकार्य हैं प्रभु को चढाने के लिए | यह नहीं कहते की "अंडम मीटम मटनम " :)
४. यज्ञ के बारे में श्री कृष्ण गीता के श्लोक २.१४ में कहते हैं - जीव अन्न से होते हैं, अन्न वर्षा से और वर्षा यज्ञ से - इसलिए यज्ञ करो |
५. एक बहुत महत्वपूर्ण बात है - गीता ३.३४
वेदवाणी {या किसी भी बताये हुए कर्मकांड} को समझने के लिए सद्गुरु (अर्थात जो गुरु परम्परा से हों और सत्य जानते हों, जो सिर्फ भाषाई खेल न खेल रहे हों, बल्कि सच ही वेदों में क्या है यह जानते हों } के आश्रय में जाओ, उनकी कृपा मांगो, उनकी सेवा करो, और फिर विनम्र प्रश्न कर के, और अपनी लगातार जिज्ञासाएं पूछ कर कही बात का अर्थ समझने का प्रयास करो | ..... प्रश्न का उद्देश्य अपनी बात स्थापित कर के गुरु को हराना नहीं , बल्कि गुरु की बात समझ कर ज्ञान पाना हो |
६. किन्तु यह जो अभी वेद वाणी को घुमा फिर कर बलि को स्थापित करने का प्रयास चल रहा है - यह सब सिर्फ भाषानुवाद के आधार पर है | इसके लिए गीता में श्लोक है २.४२ से २.४६ तक
२.४२ - यामिमां पुष्पितां ....
२.४३ - कामात्मानः स्वर्गपरा ...
२.४४ - भोगैश्वर्य प्रसक्तानाम ....
२.४५ - त्रिगुण्य विषया वेदा ....
जिनकी (कम) बुद्धि वाले लोगों की बुद्धि वेदों की flowery (घुमावदार ) भाषा में ही फंस कर रह गयी है - वे वेदों के सन्दर्भ दे कर
" 'न अन्यत अस्ति इति ' ....वादिनः "
अर्थात -
वे कहते हैं कि 'बस इतना ही है - और कुछ नहीं' " |
तो बेहतर हो कि हम गीता के सन्दर्भ में समझने का प्रयास हो कि वेद असलियत में कह क्या रहे हैं | जो यह कहें कि राम एक महापुरुष हैं सृष्टिकर्ता नहीं, कृष्ण एक महापुरुष हैं - क्या उनके कहे अनुसार वेदों को समझने का प्रयास किया जाए - तो वह प्रयास कभी भी सफल हो सकता है ?? क्या ये स्वयंभू ज्ञानी जन वेदों को कृष्ण से भी बेहतर समझते हैं और समझा सकते हैं ?
इस षड़यंत्र का शिकार वैदिक साहित्य लगातार हो रहा है, विलियम मोनियर से लेकर आज तक। वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के अंतर को समझने वाला व्यक्ति ही भावार्थ एवं तत्वार्थ से परिचित हो सकता है।
जवाब देंहटाएंजय हो महाराज बड़े दिनों के बाद दर्शन पाकर धन्य हुए। :)
आपकी पोस्ट से बहुत कुछ जानने का मौका मिला ..
जवाब देंहटाएंवैदिक यज्ञों में पशुबलि पर विचार करके आपने एक अच्छी पहल की है।
जवाब देंहटाएंइस विषय पर पिछले काफ़ी समय से चर्चा होती आ रही है और हरेक विद्वान ने इस विषय पर विचार किया है कि
♠ क्या वैदिक यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी ?
और अगर दी जाती थी तो फिर उसे बौद्धों और जैनियों के विरोध के कारण छोड़ क्यों दिया गया ?
क्या हिन्दू कभी गोमांस नहीं खाते थे?
प्रत्येक हिन्दू इस प्रश्न का उत्तर में कहेगा नहीं, कभी नहीं। मान्यता है कि वे सदैव गौ को पवित्र मानते रहे और गोह्त्या के विरोधी रहे।
उनके इस मत के पक्ष में क्या प्रमाण हैं कि वे गोवध के विरोधी थे? ऋग्वेद में दो प्रकार के प्रमाण है; एक जिनमें गो को अवध्य कहा गया है और दूसरा जिसमें गो को पवित्र कहा गया है। चूँकि धर्म के मामले में वेद अन्तिम प्रमाण हैं इसलिये कहा जा सकता है कि गोमांस खाना तो दूर आर्य गोहत्या भी नहीं कर सकते। और उसे रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, आदित्यों की बहन, अमृत का केन्द्र और यहाँ तक कि देवी भी कहा गया है।
शतपथ ब्राह्मण (३.१-२.२१) में कहा है; “..उसे गो या बैल का मांस नहीं खाना चाहिये, क्यों कि पृथ्वी पर जितनी चीज़ें हैं, गो और बैल उन सब का आधार है,..आओ हम दूसरों (पशु योनियों) की जो शक्ति है वह गो और बैल को ही दे दें..”।
इसी प्रकार आपस्तम्ब धर्मसूत्र के श्लोक १, ५, १७, १९ में भी गोमांसाहार पर एक प्रतिबंध लगाया है। हिन्दुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया, इस पक्ष में इतने ही साक्ष्य उपलब्ध हैं।
मगर यह निष्कर्ष इन साक्ष्यों के गलत अर्थ पर आधारित है।
ऋग्वेद में अघन्य (अवध्य) उस गो के सन्दर्भ में आया है जो दूध देती है अतः नहीं मारी जानी चाहिये। फिर भी यह सत्य है कि वैदिक काल में गो आदरणीय थी, पवित्र थी और इसीलिये उसकी हत्या होती थी।
श्री काणे अपने ग्रंथ धर्मशास्त्र विचार में लिखते हैं;”
ऐसा नहीं था कि वैदिक काल में गो पवित्र नहीं थी। उसकी पवित्रता के कारण ही वजसनेयी संहिता में यह व्यवस्था दी गई है कि गोमांस खाना चाहिये। “
♥ ऋग्वेद में इन्द्र का कथन आता है (१०.८६.१४), “वे पकाते हैं मेरे लिये पन्द्र्ह बैल, मैं खाता हूँ उनका वसा और वे भर देते हैं मेरा पेट खाने से” ।
♥ ♥ ऋग्वेद में ही अग्नि के सन्दर्भ में आता है (१०. ९१. १४)कि “उन्हे घोड़ों, साँड़ों, बैलों, और बाँझ गायों, तथा भेड़ों की बलि दी जाती थी..”
डॉ अनवर जमाल जी,
जवाब देंहटाएंसार्थक परिणामी चर्चा के लिए तो स्वागत रहेगा, किन्तु कुतर्कपूर्ण बहस के लिए ‘निरामिष’ पर कोई स्थान नहीं है।
प्रस्तुत आलेख वैदिक यज्ञों में पशुबलि---एक भ्रामक दुष्प्रचार पर आधारित है, ‘वेदों’ के परिपेक्ष्य में और ‘यज्ञों में पशुबलि’ पर ही अपनी वाचा को, इस आलेख पर नियंत्रित रखें।
मांसाहार की अनुपयोगिता और हिंसा के त्याग पर ‘निरामिष’ पर अनवरत विषय प्रस्तुत होंगे। क्योंकि निरामिष का उद्देश्य भी यही है “ अहिंसा-जीवदया प्रोत्साहन के लिए शाकाहार”। मांसलोलुप प्राय: धर्म की आड़ लेकर स्वार्थ सिद्ध करते है। अत: धर्म में हिंसा की उपादेयता या हिंसोपदेश दाता कोई धर्म हो सकता है? आदि विषय पर आलेख आने की पूरी सम्भावना है तब उससे सम्बंधित विचार अवश्य प्रस्तुत किजिएगा। पर यहां इसी विषय पर सीमित रहें.
इसलिए जब भ्रांतियाँ निवारण की चर्चा चल रही हो, कृपया भ्रांत और अप्रमाणिक आलेखों का लिंक न दें। साथ ही अपने प्रचारात्मक लेखों का लिंक भी अपनी टिप्पणियों में न दें अन्यथा हमें ऐसी टिप्पणियों के प्रकाशन पर रोक लगानी पडेगी।
माननीय प्रबुद्ध लेखकों-पाठकों से सविनय अनुरोध है संयत और सार्थक चर्चा में सहयोग करे।
पोस्ट में भोजन पर भी बात की गई है
जवाब देंहटाएं♥ @ 'निरामिष' सुज्ञ जी ! आपको ठीक से देखना चाहिए कि पोस्ट में देवताओं के भोजन के विषय में भी विचार किया गया है।
पोस्ट में कहा गया है-
अब बात आती है कि वेद आदि धर्मशास्त्र देवताओं के भोजन के सम्बन्ध में क्या कहते हैं. यदि तो वेदों में लिखा हो कि देव माँस भी खाते थे, तब तो सिद्ध हो ही जायेगा कि यज्ञ में पशु की बलि या कि देवों को माँस की आहुति वेदोक्त ही है.
इसीलिए टिप्पणी में देवताओं के भोजन के संबंध में वेद से उद्धरण दिया गया है और बताया गया है कि इंद्र को मांस प्रिय था और अग्नि को भी मांस अर्पित किया जाता था।
अतः वैदिक यज्ञों में बलि होती थी क्योंकि मांस देवताओं का भोजन था।
2- लेख का लिंक देना ब्लाग जगत का सामान्य प्रचलन है और आपको मानना चाहिए कि लोगों को समझ है कि क्या भ्रामक है ?
फिर लिंक से डर कैसा ?
3- सच सामने आने से अगर आपको किसी भी प्रकार का डर हो तो आप हमें यहां टिप्पणी करने से साफ़ मना कर सकते हैं।
आपके लिए शुभकामनाएं !!!
सारे नियम दूसरों के लिए हैं और ख़ुद आज़ाद हैं ?
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट पर पहली टिप्पणी भाई सुज्ञ जी की है और उन्होंने अपनी टिप्पणी में केवल मांसाहार निषेध पर ही बात की है। उन्हें कोई चेतावनी क्यों न दी गई ?
इसका मतलब क्या यह नहीं है कि हमारा अपना शाकलोलुप आदमी कुछ भी कहे, उसे टोका न जाएगा ?
यह तो न्याय नहीं है।
क्या शुद्ध शाकाहार करने के बाद इसी तरह की मानसिकता डेवलप हो जाती है ?
इस पोस्ट में कौन ईश्वर है और कौन महापुरूष है ?
यह बात उठाई ही नहीं गई है ,
हां, इस विषय में पिछली पोस्ट पर ज़रूर टिप्पणीकारों ने चर्चा की थी।
वही विषय फिर से यहां उठाया गया और इस पर भी टिप्पणीकारा को किसी ने नहीं टोका ?
सारे नियम दूसरों के लिए हैं और ख़ुद आज़ाद हैं ?
जो सज्जन , रामचरितमानस के रचयिता , महा राम भक्त , श्री तुलसीदास जी को सती माँ पर झूठा आरोप लगाने वाला कहते हैं,
जवाब देंहटाएं"कि सती कभी अपने पति की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करती। किसी सती के बारे में ऐसी बात कहना उस पर झूठा आरोप लगाना है।"
(इस निरामिष ब्लॉग की पिछली ही पोस्ट में )
उनसे संवाद कैसे हो पायेगा वेदों के बारे में???
शिल्पा जी,
जवाब देंहटाएंअनवर जमाल साहब,
पिछली पोस्ट की तो यहां चर्चा ही न करें क्योंकि उसे अनावश्यक बहस में बदला जा रहा था।
मात्र दो टिप्पणी पहले भगवान श्री राम को पूजनीय आदरणीय कहकर उनकी आलोचना करने वालों पर सख्ती अखत्यार करने वाले,अनवर जमाल साहब की बादमें मैने इस रामभक्ति के लिए भूरि भूरि प्रशंसा की। ऐसा क्या हुआ कि अगली ही टिप्पणी में उन्ही श्री राम को भ्रांत और सामान्य मानव कहकर आलोचना करने लगे।
मुझे यकिन हो गया कि जमाल साहब के विचार स्थिर नहीं है, और पूज्यों पर आरोप प्रत्यारोप प्रारम्भ हो जाएंगे। उस चर्चा का अंत करना उत्तम था।
संचालक 'निरामिष'महोदय,और पोस्ट लेखक पण्डित जी क्षमा करे, यह स्पष्टिकरण आवश्यक था। पिछली पोस्ट की चर्चा यहां न होनी चाहिए।
@ कि वैदिक काल में गो आदरणीय थी, पवित्र थी और इसीलिये उसकी हत्या होती थी।
जवाब देंहटाएंअनवर जमाल साहब,
बड़ा अज़ीब तुक भिड़ाया है, जो आदरणीय और पवित्र हो उसकी हत्या होनी चाहिए? क्या वेद का यह भाव हो सकता है?
इसीलिए इसे भ्रामक दुष्प्रचार कहा गया है।
देवों के भोजन का सन्दर्भ 'यज्ञ' से ही था। पर आपने "क्या हिन्दू कभी गोमांस नहीं खाते थे?" का प्रश्न उठा कर उसको आम लोगो से सम्बंधित बनाने का प्रयास किया है। मैने प्रथम टिप्पणी भ्रामक दुष्प्रचार के सन्दर्भ में की थी जो पोस्ट का आधार है।
बच्चों की तरह दूसरों की शिकायतें न करिए, चर्चा सार्थक और संयमित रहेगी तो आपको भी लाभ है।
ऋग्वेद पर किस तरह कुत्सित अर्थ किए जाते है, यह देखिए ‘अग्नीवीर जी’ http://agniveer.com/4387/there-is-no-beef-in-vedas-hi/ के शब्द………
"d. वेदों से संबंधित जिन दो मंत्रों को प्रस्तुत कर वे गोमांस भक्षण को सिद्ध मान रहे हैं, आइए उनकी पड़ताल करें -
दावा:- ऋग्वेद (१०/८५/१३) कहता है -” कन्या के विवाह अवसर पर गाय और बैल का वध किया जाए | ”
तथ्य : – मंत्र में बताया गया है कि शीत ऋतु में मद्धिम हो चुकी सूर्य किरणें पुनः वसंत ऋतु में प्रखर हो जाती हैं | यहां सूर्य
-किरणों के लिए प्रयुक्त शब्द ’गो’ है, जिसका एक अर्थ ‘गाय’ भी होता है | और इसीलिए मंत्र का अर्थ करते समय सूर्य – किरणों के बजाये गाय को विषय रूप में लेकर भी किया जा सकता है | ‘मद्धिम’ को सूचित करने के लिए ‘हन्यते’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका मतलब हत्या भी हो सकता है | परन्तु यदि ऐसा मान भी लें, तब भी मंत्र की अगली पंक्ति (जिसका अनुवाद जानबूझ कर छोड़ा गया है) कहती है कि -वसंत ऋतु में वे अपने वास्तविक स्वरुप को पुनः प्राप्त होती हैं | भला सर्दियों में मारी गई गाय दोबारा वसंत ऋतु में पुष्ट कैसे हो सकती है ?
दावा :- ऋग्वेद (६/१७/१) का कथन है, ” इन्द्र गाय, बछड़े, घोड़े और भैंस का मांस खाया करते थे |”
तथ्य :- मंत्र में वर्णन है कि प्रतिभाशाली विद्वान, यज्ञ की अग्नि को प्रज्वलित करने वाली समिधा की भांति विश्व को दीप्तिमान कर देते हैं | अवतार गिल और उनके मित्रों को इस में इन्द्र,गाय,बछड़ा, घोड़ा और भैंस कहां से मिल गए,यह मेरी समझ से बाहर है |"
मान्यवर सुज, आपने अग्निवीर जी का लिंक देकर बहुत ही अच्छा कार्य किया है अग्निवीर ने उन लोगों की बोलती बन्द कर दी है जो वेदों को गलत ठहराने पर तुले हुए है। अग्निवीर जी ने जो सही बात बतायी है। उसके बाद कुछ और कहने की जरुरत ही नहीं रही।
जवाब देंहटाएंवेद जो हजारों साल पुराने है जबकि कुछ सौ वर्ष पुराने धर्म(सनातन धर्म को छोड कर अन्य सभी नये नवेले है) हजारों साल तक भी वेद की अच्छाई को नहीं अपना सकते। अगर कोई बुराई पहले तो है ही नहीं लेकिन अगर लग भी रही है तो उसे आधार बनाकर अपनी गलती(धर्म के नाम पर बलि) ठीक मनवाने की बात हो रही है।
सुज्ञ भैया - आपने ठीक कहा | आगे प्रयास रखूंगी कि ऐसा न हो |
जवाब देंहटाएंभाई अग्निवीर जी आर्य समाजी हैं।
जवाब देंहटाएंआर्य समाजी तो सायण, उव्वट और महीधर आदि सनातनी विद्वानों को धूर्त, भांड और निशाचर कहते हैं और उनके भाष्य को नकारते हैं।
उनके कहने से इन विद्वानों के कथन की महत्ता समाप्त नहीं हो जाती।
जो करोड़ों सनातनी भाई बहन इन विद्वानों में आस्था रखते हैं। वे इनके लिखे को सही मानते हैं। उनके लिए इनका साहित्य आज भी प्रमाण की हैसियत रखता है और विश्व भर में इन्हीं लोगों का वेदभाष्य स्वीकृत है।
अतः अग्निवीर के नकारने से कोई अंतर नहीं पड़ता।
@ मांसाहार के नाम से प्रचारित किये जा रहे मौलिक वेदमंत्र में मांस, बैल या वसा का कोई सन्दर्भ नहीं है। यह रहे मंत्र और उनका अर्थ:
जवाब देंहटाएंउक्ष्णो हि मे पंचदश साकं पचन्ति विंशमित्।
उताहमद्मि पवि इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः।।
ऋग्वेद (मंडल १० सूक्त ८६ मंत्र १४)
विश्व में इन्द्र ही सर्वोपरि है। शची द्वारा प्रेरित 15-20 औषधियाँ एक साथ मेरे लिये परिपक्व होती हैं। उनके सेवन से मेरे दोनों कोख पुष्ट होते हैं।
मज़े की बात यह है कि इसके अगले ही मंत्र (10/86/15) में इन्द्र को गोयूथ के बीच प्रसन्न वृषभ की तरह कल्याणकारी होने की प्रार्थना करते समय बैल के लिये स्पष्ट रूप से वृषभ शब्द का प्रयोग किया गया है। यदि उपरोक्त मंत्र में भी मंत्रदृष्टा ऋषि का आशय वृषभ होता तो उन्हें शब्द छिपाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। इस एक उदाहरण से भी स्पष्ट है कि वेदों मंत्रों का मंतव्य क्या है।
पहले वेदमंत्र की तरह ही अगले सन्दर्भित मंत्र में भी पशुधन देने की नहीं, (देवताओं को प्रसन्न करके) लेने की बात हो रही है।
जवाब देंहटाएंयस्मिन्नश्वास ऋषभास उक्षणो वशा मेषा अवसृष्टास आहुताः।
कीलालपे सोमपृष्ठाय वेधसे हृदा मतिं जनये चारुमग्नये॥
ऋग्वेद (मण्डल १० सूक्त ९१ मंत्र १४)
अन्न-रस का पान करने वाले, सोम की आहुति ग्रहण करने वाले, श्रेष्ठमति वाले अग्निदेव के लिये अपने मन और बुद्धि शुद्ध करो; तभी तो अश्व, गौ, मेष और वृषभ की सज्जित भेंट प्राप्त होगी।
डॉ अनवर जमाल साहब,
जवाब देंहटाएंभाष्यकारों का महत्व मात्र इसलिए है कि वे हमें वेद समझने में सहायता करते है। उनका भाष्य अभिप्रायः ही होता है। वेदों के गूढार्थ को प्रकट करने के लिए उनका सम्मान तो किया जा सकता पर भाष्यकारों के प्रति अंध आस्था को कोई स्थान नहीं है।
वेदों का भाष्यकार वेदभाष्यकार ही होता है, आर्यसमाजी या सनातनी नहीं। यह बात अलग है कि भाष्यकार का न्यूनाधिक पूर्वाग्रह भाष्य पर अपनी छाप छोडता है। पर वेदविद्यार्थी को चाहिए कि भाष्य का भी युक्तियुक्त सार्थक मूल आशय का अर्थाभिगम ग्रहण करे।
सायण के भाष्य में कर्मकाण्ड को प्रधानता दी गई है, और ‘बहुदेववादी असर दिखाई देता है, वहां दयानन्द के भाष्य में एकेश्वरवाद प्रमाणित किया गया है। सायण जिस शब्दों से कर्मकाण्ड़ी मानसिकता से यज्ञों में पशुबलि का अर्थ करते है, दयानन्द उन्ही शब्दो से प्रकृति के प्रति निष्ठा भाव और अहिंसा का निरूपण करते है।
दयानन्द के भाष्य से अमूर्तिपूजा, जातिप्रथा आदि के लिए आलोचना की जाती है तो अहिंसा और एकेश्वरवाद के आर्य तरीके से निरूपण के लिए आदर व्यक्त किया जाता। अतः भाष्यकार को भाष्यकार की तरह ही लेना चाहिए, ईशवाणी के समकक्ष आस्था की तरह नहीं।
एक भाष्यकार के सभी निष्कर्ष सही नहीं हो सकते उसी प्रकार उनके सभी निष्कर्ष गलत भी नहीं हो सकते। प्रज्ञावान को चाहिए कि वह वेद के मूल आश्य को हृदयगम रखकर विवेचना करे।
इसलिए भाई अग्निवीर जी आर्य समाजी होने से सत्य में कोई अन्तर नहीं पड़ता, सत्य तो सत्य ही रहता है।विश्व भर में तो मेक्समूलर का वेदभाष्य भी स्वीकृत है, जिन्हें वैदिक संस्कृत का आवश्यक ज्ञान भी न था। आज मेक्समूलर के निष्कर्षों को पक्षपाती संदेह से देखा जाता है।
@ भाई सुज्ञ जी ! आप बता रहे हैं कि
जवाब देंहटाएंसायण के भाष्य में कर्मकाण्ड को प्रधानता दी गई है, और ‘बहुदेववादी असर दिखाई देता है, वहां दयानन्द के भाष्य में एकेश्वरवाद प्रमाणित किया गया है। सायण जिस शब्दों से कर्मकाण्ड़ी मानसिकता से यज्ञों में पशुबलि का अर्थ करते है, दयानन्द उन्ही शब्दो से प्रकृति के प्रति निष्ठा भाव और अहिंसा का निरूपण करते है।
यह बताने के बाद भी आप कहते हैं कि कोई अंतर नहीं पड़ता ?
लोग सायणभाष्य को मानेंगे तो उन्हें बहुदेववाद में आस्था रखनी पड़ती है और यज्ञों में पशु बलि करनी पड़ती है जबकि दयानंदी भाष्य को मानते ही बहुदेववाद में भी आस्था ख़त्म हो जाती है और पशु बलि भी नहीं करनी पड़ती।
आकाश पाताल का अंतर आ रहा है और आप कहते हैं कि कोई अंतर ही नहीं पड़ता।
अगर वास्तव में ही कोई अंतर नहीं पड़ता तो आप सायण भाष्य को स्वीकार क्यों नहीं करते ?,
जबकि देश के समस्त शंकराचार्य और सनातनी जनता उसे प्रामाणिक मानते हैं और दयानंदी भाष्य को भ्रष्ट और परंपरा के विपरीत मानते हैं।
आर्य समाजी साहित्य और सनातनी साहित्य ही बताता है कि कौन क्या मानता है ?
जवाब देंहटाएंख़ैर आपने यह तो मान ही लिया है कि सायण वैदिक यज्ञ में बलि देने के समर्थक हैं।
बस इतना ही काफ़ी है कि
नवीन भाष्यों के वुजूद में आने और विरोध होने से पहले देश में वैदिक यज्ञों में बलि दी जाती थी।
इतना ही सिद्ध करना अभीष्ट था।
बाद के भाष्य क्या कहते हैं ?
उनके विचार भी यहां दिए गए हैं तो हम उनका भी स्वागत करते हैं।
इससे पोस्ट समृद्ध ही हुई है।
डॉ अनवर जमाल साहब,
जवाब देंहटाएंआप पूरी टिप्पणी तो गहनता से पढ़िए…………
हां, इतना सब होते हुए भी कोई अन्तर नहीं पड़ता, क्योंकि सत्यसाधक तो सत्यान्वेषण कर सत्य-तथ्य ही प्राप्त करेगा।
मैने कहा ही था कि…… "प्रज्ञावान को चाहिए कि वह वेद के मूल आश्य को हृदयगम रखकर विवेचना करे।" और "वेदविद्यार्थी को चाहिए कि भाष्य का भी युक्तियुक्त सार्थक मूल आशय का अर्थाभिगम ग्रहण करे।"
@ जबकि देश के समस्त शंकराचार्य और सनातनी जनता उसे प्रामाणिक मानते हैं और दयानंदी भाष्य को भ्रष्ट और परंपरा के विपरीत मानते हैं।
अनवर जमाल साहब,
आप प्रतिनिधि तो नहीं है सनातनी जनता के? और न आपने रायशुमारी करवाई हो ऐसा ज्ञात होता है। फिर कैसे इतने विश्वास से कह सकते है कि 'सनातनी जनता' क्या मानती है?
क्या आपके पास, देश के समस्त शंकराचार्यों के कथन का कोई 'अधिकारिक सन्दर्भ' है कि वे सब किसी एक भाष्य को ही एकमेव प्रमाणित मानते है?
@ भाई सुज्ञ जी !
जवाब देंहटाएंदेश की सनातनी जनता आदि शंकराचार्य को और उनकी पीठों को मानती है और वर्तमान पीठों के शंकराचार्य सायण के वेदभाष्य को मानते हैं।
यह एक स्थापित सत्य है।
इसे साबित करने के लिए किसी हवाले की ज़रूरत नहीं है।
आपको हमारे कथन में शक हो तो शंकराचार्यों से या बीएचयू आदि किसी भी संस्था से पत्राचार करके पता कर लीजिए।
बीएचयू में आज भी सायण भाष्य ही पढ़ाया जाता है।
अनवर जमाल साहब,
जवाब देंहटाएंइतनी जल्दी भी न मचाईए, अभीष्ट सिद्ध करनें मे???
"कोई भी आर्यसमाजी हो या सनातनी 'वैदिक यज्ञों में पशुबली' को नहीं मानता और न वेदों में है ऐसा स्वीकार सकता है" सायण को मात्र पढ़ने से कोई भी सायण के पशुबलि अर्थों का समर्थक नहीं हो जाता।
मिथ्या आलाप करें आप और साबित करने के लिए पूछने जाएं हम? आपके पास तो अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए कोई निर्देशतात्मक हवाला भी नहीं है।
जबकि अनुराग जी ने आपके द्वारा दुष्प्रचार में प्रस्तुत ॠग्वेद के दो मंत्रो को मूल स्वरूप एवं भावार्थ सहीत रखकर, सत्य उजागर किया है, आप तो उसी समय निरूत्तर हो गए थे। भ्रम खण्ड़न तो तभी ही हो गया था।
अनुराग जी,
जवाब देंहटाएंदुष्प्रचार के हेतु से अक्सर प्रस्तुत किए जाने वाले, परम सात्विक ॠग्वेद के इन दो मंत्रो को, आपने उसके मूल स्वरूप के साथ ही पवित्र वेद के आशय को अखंड रखते हुए जो भावार्थ प्रस्तुत किए है, वह अज्ञान तिमिर का नाश और मिथ्या प्रचार को विनिष्ट करने में सहायक सिद्ध हुए है।
आपका यह प्रकटीकरण, इस भ्रम निकंदन चर्चा में मील का पत्थर सिद्ध होगा।
और परम् पावन वेदों को ‘हिंसा’ के मिथ्या आरोपण से मुक्ति मिलेगी।
आर्य समाज पशु बलि का विरोधी है और वेदों में भी नहीं मानता.
जवाब देंहटाएंसहमत .
इतनी जल्दी भी न मचाईए, अभीष्ट सिद्ध करनें मे ???
जवाब देंहटाएं@ भाई सुज्ञ जी ! अगर आपकी सलाह है तो हम आपकी सलाह का सम्मान करते हैं और थोड़ी देर के बाद मान लेंगे जो कि शंकराचार्य जी मानते ही हैं कि
♥ ♥ ♥ ‘वैदिक यज्ञों में पशु बलि हुआ करती थी।‘ ♥ ♥ ♥
♠, ♥, ♥ धन्यवाद !
वंदे ईश्वरम् !!!
डॉ अनवर जमाल साहब,
जवाब देंहटाएंइस आलेख की भावना के अनुसार, हमारा यह प्रमाणित करना ही पर्याप्त है कि कि “वेद जैसे धर्म शास्त्रों में पशुबली का कोई विधान नहीं है।“ वेद भी पवित्र अहिंसा की ही शिक्षा देते है। आपके असंदर्भित कथन से मान भी लें कि शंकराचार्य जी मानते ही हैं कि ‘वैदिक यज्ञों में पशु बलि हुआ करती थी।‘ तो इसमें भी कोई विचित्र स्थापना नहीं है। कथ्य-कथन से विदित ही है कि बाद के समय में कभी यह कुरीति चली भी आई हो, तब भी यह कभी जन-सामान्य के धर्म-जीवन का अंग नहीं रही। प्रथा कुरिति आदि जैसी घटनाओं से किसे इन्कार है। पर यह स्पष्ट है कि धर्म में हिंसक उपदेश हो ही नहीं सकते। ऐसे कर्मकाण्ड़ कुरीतियां ही होती है वे किसी भी काल में धर्म का अंग नहीं बन सकती। और कुरीतियां मिटाना ही तो धर्म संस्कृति सभ्यता का कार्य और लक्षण है।
युक्तियुक्त इतनी सारगर्भित, सुन्दर विवेचना...किन शब्दों में आभार व्यक्त करूँ, समझ नहीं पड़ रहा...
जवाब देंहटाएंकोटि कोटि आभार...
कुतर्कियों को किसिकर भी संतुष्ट नहीं किया जा सकता, अतएव मेरी प्रार्थना है कि इन्हें प्रत्युत्तर दे नाहक श्रम का अपव्यय न किया जाय...
जवाब देंहटाएंस्पष्ट तो है, इनका अपना एक मिशन है...
सार्थक सकारात्मक बातें, जिनके ह्रदय में सत रूपी वह परमात्मा है, वहां तक पहुँच ही जायेंगी...और जहाँ वो हैं ही नहीं, वहां तक सत का प्रकाश पहुँच सकता है...???
रंजना जी का दूसरा कमेंट बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंतथ्य - मंत्र में बताया गया है कि शीत ऋतु ...............भला सर्दियों में मारी गई गाय दोबारा वसंत ऋतु में पुष्ट कैसे हो सकती है ?
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी ! समयाभाव के कारण ब्लाग्स पर जाना नहीं हो पाता । और अभी मैंने यहाँ कुछ आलेख टिप्पणी सहित सरसरी तौर पर ही देखे हैं । तब आपकी इस टिप्पणी ने आकर्षित किया । इस सम्बन्ध में जो ठोस जानकारी मुझे हैं । वो ये कि - समस्त गृन्थों में ’गो’ शब्द का प्रयोग इन्द्रियों के लिये ही किया गया है । किसी भी रूप में गाय के लिये नहीं । कहीं भी नहीं । गाय के लिये गौ ही है । गोचर शब्द का प्रयोग - इन्द्रियों के विचरण क्षेत्र हेतु है । क्योंकि आपने पूरा मन्त्र नहीं लिखा । अन्यथा मैं उसका गूढ अर्थ आपको बताने की कोशिश करता । हनुमान शब्द में भी हनु का अर्थ मारना । यानी अपने मान रखने की इच्छा को मारना । इसी प्रकार ‘हन्यते’ शब्द का आशय इन्द्रियों के निरन्तर भोग विलास की चेष्टा को हनन करना है । अब आप गो - इन्द्रिय । अर्थ से इस मन्त्र को आसानी से समझ सकते हैं । शीत ऋतु में सभी जीवधारी इन्द्रिय स्तर पर शिथिल हो जाते हैं । और बसन्त में पुष्टता को प्राप्त होते हैं । ध्यान रहे । ये बात सिर्फ़ मनुष्य नहीं । पशु पक्षी और वृक्षों पर भी लागू होती है ।
एक निवेदन और भी है । मैं अब अध्ययन नहीं करता । यदि आप या अन्य सज्जन गृन्थों से उदाहरण दें । तो सिर्फ़ उस अंश को मुझे भी मेल कर दें । तो मैं भी अपना मत यहाँ रख सकूँ । यह मेरी सहयोग भावना है । बाकी पूरे लेख का अध्ययन और उस पर अपना दृष्टिकोण मेरे लिये सम्भव नहीं हैं । जबकि ऐसी चर्चाओं में मेरी रुचि है ।
डा. अनवर जमाल साहब ने अपनी टिप्पणियों में वैदिक सभ्यता का वह पक्ष भी यहां रख दिया है जिसे आम तौर पर शाकाहारी सामने आने नहीं देना चाहते।
जवाब देंहटाएंइस से चर्चा की क्वालिटी में इज़ाफ़ा हुआ है और पता चला है कि असल बात को कैसे बदलने की कोशिश की गई है ?
हम पिछली पोस्ट पर भी दो-तीन टिप्पणियां कर चुके हैं मगर उन्हें पब्लिश होने के बाद हटा दिया गया।
यह तो कोई अच्छी बात नहीं है कि अपने पक्ष के हरेक तरह के आदमी की टिप्पणियां प्रकाशित की जाएं चाहे उसमें ऐसी बात भी हो जिसे औरतें पढ़ते हुए शर्म महसूस करें और हमारी ठीक ठाक टिप्पणियां भी हटा दी जाएं।
इसे हटाना मत,
वर्ना इसे कहीं और दिखाया जाएगा और वह आपको पसंद न आएगा।
सुग्य जी---अनवर जमाल व उन जैसे अन्य को न तो गम्भीर भाषा समझ में आती है न तर्क ही....जिनका मूल अभिप्रायः सिर्फ़ ईश्वरं अल्लां का मन्त्र ही गुनगुनाना हो...वह कभी कभी दिखाने के लिये राम की वेदों की प्रसन्शा कर दिया करते हैं....उन्हें कुछ भी समझाना व्यर्थ है...
जवाब देंहटाएं---गाय के वैदिक अर्थ= गाय, प्रथ्वी, बुद्धि ,प्रक्रिति,समष्टि-भाव, भी होता है.....
---मांस का अर्थ...= फ़लों का गूदा अर्थात छिले हुए फ़ल,किसी भी वस्तु क मूल प्रयुक्त होने वाला भाग...जैसे ..
एक प्रचलित पहेली है...
--एक चिडिया चट, उसका पन्ख बोले पट,
उसकी खाल उतार खा मांस मजेदार ।..उत्तर है...गन्ना.
--.अर्थात गन्ना छीलने पर छिलका प्राय चट-चट आवाज़ से खुलता है, उसकी खाल (छिलका) उतार कर मजेदार मांस( गूदा) खायें...
इसीप्रकार सारे वैदिक अर्थ हैं..जो आजकल भी प्रचलित हैं सारे भारत भर में..
--------वैदिक युग मे भी असुर, राक्षस, दुष्ट हुआ करते थे ...वे मांस-भक्षण ्भी करते होंगे...इसका अर्थ यह नहीं है कि
सुग्य जी---अनवर जमाल व उन जैसे अन्य को न तो गम्भीर भाषा समझ में आती है न तर्क ही....जिनका मूल अभिप्रायः सिर्फ़ ईश्वरं अल्लां का मन्त्र ही गुनगुनाना हो...वह कभी कभी दिखाने के लिये राम की वेदों की प्रसन्शा कर दिया करते हैं....उन्हें कुछ भी समझाना व्यर्थ है...
जवाब देंहटाएं---गाय के वैदिक अर्थ= गाय, प्रथ्वी, बुद्धि ,प्रक्रिति,समष्टि-भाव, भी होता है.....
---मांस का अर्थ...= फ़लों का गूदा अर्थात छिले हुए फ़ल,किसी भी वस्तु क मूल प्रयुक्त होने वाला भाग...जैसे ..
एक प्रचलित पहेली है...
--एक चिडिया चट, उसका पन्ख बोले पट,
उसकी खाल उतार खा मांस मजेदार ।..उत्तर है...गन्ना.
--.अर्थात गन्ना छीलने पर छिलका प्राय चट-चट आवाज़ से खुलता है, उसकी खाल (छिलका) उतार कर मजेदार मांस( गूदा) खायें...
इसीप्रकार सारे वैदिक अर्थ हैं..जो आजकल भी प्रचलित हैं सारे भारत भर में..
--------वैदिक युग मे भी असुर, राक्षस, दुष्ट हुआ करते थे ...वे मांस-भक्षण भी करते होंगे...इसका अर्थ यह नहीं है कि वैदिक लोग मास-भक्षी थे...
२ जनवरी २०१२ ८:२८ अपराह्न
aap gaumans ke sambandh me phailaye ja rahe kuchh bhramo ke nivaran ke liye is lekh ko padhen
जवाब देंहटाएंमहाभारत ,गाय और राजा रन्तिदेव :एक और इस्लामिक कम्युनिस्ट कुटिलता
http://nationalizm.blogspot.in/2012/04/blog-post.html
हिन्दू जन को तो मांस भक्षण किसी भी प्रकार से नहीं करना चाहए
जवाब देंहटाएंक्या आप 'अश्वमेघ' यज्ञ सम्बन्धी कुछ दुश्प्रचारों पर लिखेंगे?
जवाब देंहटाएंक्या आप 'अश्वमेघ' यज्ञ सम्बन्धी कुछ दुश्प्रचारों पर लिखेंगे?
जवाब देंहटाएं