वेदों के नाम पर थोपी गई इन सारी मिथ्या बातों का उत्तरदायित्व मुख्यतः मध्यकालीन वेदभाष्यकार महीधर, उव्वट और सायण द्वारा की गई व्याख्याओं पर है तथा वाम मार्गियों या तंत्र मार्गियों द्वारा वेदों के नाम से अपनी पुस्तकों में चलायी गई कुप्रथाओं पर है । ~अग्निवीरप्रागैतिहासिक मानव प्राकृतिक रूप से शाकाहारी था, यह एक वैज्ञानिक तथ्य है। जब मानव के जंगली समुदाय बनने लगे तब उनके क्षेत्रीय प्रभुत्व के झगड़े और तामसिक वृत्तियों के कारण वे एक दूसरे से संघर्ष करते रहे। बहुत सी जंगली जातियों में आदमखोरी जैसी पैशाचिक प्रथायें भी पनपीं। अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये आदमखोरी पर तो प्रतिबन्ध लगे परंतु "माइट इज़ राइट" वाले जंगली समुदायों में कमज़ोर का दमन चलता रहा। हाँ, सभ्यता का प्रकाश आने के साथ-साथ ऐसी प्रवृत्तियों में कमी आती गयी। भारत जैसे पवित्र क्षेत्रों में सभ्यता का सूर्योदय शेष विश्व से बहुत पहले हुआ और साक्षरता विकास का स्वर्णयुग तभी आ गया जब शेष विश्व में क़बीलाई हिंसा सामान्य जीवन का अभिन्न अंग थी। स्पष्ट है कि अहिंसा, करुणा और दया की भावनायें भी जल्दी ही हमारे दैनिक जीवन का सामान्य अंग बन गयी थीं। जब दुनिया के कई हिस्से खून के बदल खून और आँख के बदले आंख की मांग कर रहे थे हम विश्वव्यापी हिंसा को पीछे छोड़कर "क्षमा वीरस्य भूषणम" की ओर बढ रहे थे। पश्चिम में पशु-अधिकार की बात नई है परंतु "ईशावास्यमिदं सर्वं" का उद्घोष करने वाली भारतीय संस्कृति में कण-कण में प्रभु का अंश देखना अति प्राचीन विचार है।
मेरे स्वामी शाकाहारी थे, यद्यपि देवीप्रसाद में मिलने पर वे माँस को भी सर माथे लगाते थे। जीवनहरण निश्चित रूप से पाप है ... जिनका शुद्ध सत्व विकसित होता है मांस-मच्छी के प्रति उनकी सारी रुचि नष्ट हो जाती है। यह आत्मा के उदात्त होने का चिन्ह है। ~स्वामी विवेकानन्दसिकन्दर के हमले के समय भारत आये लेखक मेगस्थनीज़ ने इंडिका में भारत में डंडों से बिना मधुमक्खी के शहद बनाने की बात कही है क्योंकि यूरोप की तथाकथित सभ्यता के लिये ईख और शर्करा एक अनोखा आश्चर्य था। इसी प्रकार हज़ारों वर्षों से भरतीयों द्वारा प्रयुक्त हो रहे हीरों के खनन के बारे में शेष विश्व को केवल कुछ शती पहले ही जानकारी हुई। दशमलव अंक पद्धति, शून्य व अनंत की परिकल्पना और वैज्ञानिक और सुस्पष्ट नियमबद्ध संस्कृत वाक व व्याकरण तक पहुँचना तो अन्य समुदायों के लिये असम्भव ही था। यूरोपीय लिपियों में भारतीय अंकों की स्वीकृति तो सामान्य ही लगती है परंतु अरबी, फ़ारसी जैसी उलटी दिशा में लिखी जाने वाली लिपियों द्वारा भी सीधे लिखे जाने वाले भारतीय अंकों को अपनाना इस पद्धति की विश्व-स्वीकार्यता का स्पष्ट उदाहरण है। अपने ज्ञान से विश्व को चमत्कृत करने वाली भारतीय सभ्यता "असतो मा सद्गमय" के साथ ही "मृत्योर्मामृतं गमय" की वाहक है। यह संस्कृति न कभी मृतजीवी थी और न ही कभी हो सकती है।
प्राचीन काल से यज्ञ केवल अन्न से होते आये है। मद्य-मांस की प्रथा इन धूर्त असुरों ने अपनी मर्जी से चला दी है। वेद में इन वस्तुओं का विधान ही नहीं है। (महाभारत)विश्व भर में सम्माननीय इस भारतीय संस्कृति की आधारशिलाओं में अहिंसा और सद्भाव एक प्रमुख स्थान रखते है। अन्य राष्ट्रों की तरह भारत में भी हिंसक समुदाय रहे हैं परंतु भारतीय संस्कृति अभारतीय राष्ट्रों व असंस्कृत भाषायी समुदायों से इस मामले में एकदम अलग है कि यहाँ हिंसा को कभी भी शास्त्रीय स्वीकृति नहीं मिली। समय-समय पर विश्व भर में स्वादलोलुप लोगों ने कभी स्थानीय आवश्यकता, कभी स्वास्थ्य और कभी देवी, देवता, ईश्वर को बलि या क़ुर्बानी के नाम पर अपने हिंसक कृत्यों को जायज़ ठहराने के प्रयास किये हैं मगर कम से कम भारत में धार्मिक और सामाजिक विचारधारा में ऐसे प्रयासों को सदा ही निरुत्साहित किया गया है। यही कारण है कि जिन धार्मिक स्थलों पर पशुबलि के दृश्य आम थे उनमें भी बहुतायत से कमी आयी है। और यह परिवर्तन किसी बाहरी दवाब से नहीं बल्कि आंतरिक चेतना से ही हुआ है।
ब्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम् एष वां भागोजहाँ जंगली जातियों में असहिष्णुता और हिंसा को सामाजिक व धार्मिक स्वीकृति प्राप्त थी वहीं हमारे समाज में ऐसा कभी नहीं रहा। दुनिया में मौजूद तत्वों जैसे असुर, पिशाच आदि का वर्णन भी ग्रंथों में वैसे ही मिलता है जैसे देवत्व और मानवता का परंतु हिंसा का महिमामंडन कहीं नहीं है। हाँ दया, करुणा, प्रेम, अहिंसा, अनुशासन, त्याग, सत्यनिष्ठा, न्याय आदि को सर्वदा उन्नत स्थान प्रदान किया गया है। खुशी की बात है कि हमारी उस उन्नत विचारधारा को आज बेल्जियम हो या जर्मनी, सब जगह हर्षोल्लास से अपनाया जा रहा है।
निहितो रत्नधेयाय दान्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च (अथर्ववेद 6/140/2)
हे दंतपंक्तियों! चावल, जौ, उड़द और तिल खाओ। यह अनाज तुम्हारे लिए ही बनाये गए हैं| उन्हें मत मारो जो माता–पिता बनने की योग्यता रखते हैं|
अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्न संभवः। यज्ञाद्भवति पर्जन्या यज्ञः कर्म समुद्भवः।। (गीता 3/14)शांतिकाल के ग्रंथों में करुणा और दया की बात तो शायद बहुत सी सभ्यताओं में की गयी हो परंतु 18 अक्षौहिणी सेना के सामने रणभूमि के बीच गाये गये ग्रंथ में भी अहिंसा और समता का गुणगान भारत की विशेषता है। पूर्ण अहिंसक राजाओं का चक्रवर्ती सम्राट बने रहना अहिंसा की इस जन्मभूमि में ही सम्भव है। दुःख की बात है कि भारतीय संस्कृति की इस मूलभावना पर आज काफ़ी प्रहार किये जा रहे हैं। मुझे विश्वास है कि जिस विचारधारा को बनाने में सहस्रों वर्षों का अटूट श्रम लगा है वह सहस्रों वर्षों के आलस के बिना नहीं टूट सकती है। तो आइये आलस और अज्ञान के इस दुष्चक्र को तोड़ें जो हमारी संस्कृति की गरिमामय आधारशिला को काटने का प्रयास कर रहा है।
सम्पूर्ण प्राणी अन्न से ही होते हैं।
द्विपादव चतुष्पात् पाहि। (यजुर्वेद 14/8)संस्कृत में प्रचलित कुछ शब्दों से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय परम्परा में सब प्राणियों पर दया करने की परम्परा कितनी गहरी है। वनस्पति के लिये एक शब्द शस्य प्रयुक्त हुआ है जिससे भारतीय परम्परा में वनस्पति के भोज्य होने की पूर्ण स्वीकृति स्पष्ट होती है। जिसका स्पष्ट अर्थ है कि जीवहत्या को स्वीकृति नहीं है। मनुस्मृति के अनुसार मांस शब्द का अर्थ: मांस: = मम + स: = मुझे + यह = यह मुझे वही करेगा जो मैं इसे कर रहा हूँ = मैंने इसे खाया/सताया तो यह मुझे खायेगा/सतायेगा। यहाँ भी पशुहत्या और मांसाहार को अवांछनीय बताया गया है। भोज्य पदार्थों के लिये अन्न का प्रयोग आज भी भोजन को रोटी कहने या विवाह में भात की परम्परा जैसे नामों से जीवित है। पर्वों के खिचड़ी संक्रांति या पोंगल जैसे लोक नाम भी इसी परम्परा का उदाहरण हैं। शाकाहार की परम्परा न केवल मठों व मन्दिरों का सामान्य अंग है, अखाड़ों, गुरुद्वारों व डेरों आदि में भी अहिंसा व शाकाहार अपेक्षित और सर्व-स्वीकृत है। पका भोजन पक्वान्न है, मिठाई मिष्ठान्न है। और तो और देवी माँ का एक नाम अन्नपूर्णा होना भारतीय भोजन के अन्न-आधारित होने का जीता-जागता सबूत है। देवताओं का एक लक्षण अमृतजीवी होना है। मतलब यह कि देव मृत पशुओं का माँस नहीं खाते हैं। उस महान प्राचीन सतत परम्परा के बीच से यदि एकाध असम्बद्ध से उदाहरणों का परम्परा-विपरीत अनर्थ अनुवाद करके कोई यह समझने लगे कि हिंसा को शास्त्रीय स्वीकृति है तो क्या ऐसी नासमझी पर केवल हँसकर रहा सकता है? यदि भारतीय संस्कृति में से भूतदया की बात हटा दी जाये तो एक निर्वात सा बन जायेगा यह सर्वविदित है।
दो पैर वाले और चार पैर वाले की भी रक्षा हो|
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः (मनुस्मृति 5/51)
पशु को मारने की आज्ञा देने वाला, मारने के लिए लेने वाला, बेचने वाला, मारने वाला, मांस को खरीदने और बेचने वाला, पकाने वाला और खाने वाला यह सभी हत्यारे हैं|
शैली को मार्क्स ने भी सराहा था |
क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः।भारत की इस प्राचीन परम्परा का आदर करते हुए जहाँ अनेक पशु-पक्षियों का शिकार दंडनीय अपराध है वहीं भारतीय संविधान की धारा 51 ए (जी) के अंतर्गत वन, झील,वन्य पशुओं की रक्षा और सभी प्राणियों के प्रति दया प्रत्येक भारतीय नागरिक का मौलिक कर्तव्य है। आइये, हम भी अपनी गर्वीली मानवीय और दैवी परम्परा के वाहक बनें।
एहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन।। (ऋग्वेद 10/16/9)
मांसभक्षक या जलाने वाली अग्नि को हम यहाँ से दूर करते हैं, यह पाप का भार ढोने वाली है अतः यमराज के घर जाए। इससे भिन्न जो यह दूसरे सुप्रसिद्ध "जातवेद" अग्निदेव पवित्र और सर्वज्ञ हैं, इनको ही यहाँ स्थापित करता हूँ। ये इस हविष्य को देवताओं के समीप पहुँचायेंगे क्योंकि ये सब देवताओं को जानने वाले है।
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* वेदों में गोमांस? (अग्निवीर)
* शाकाहार और हत्या
* हम क्या शेरों के भोजन के लिये जन्मे हैं?
* आपका धर्म भी तो यही कहता है
* वेद भगवान की वाणी हैं
आभार स्वीकारें..... गहरे शोध और श्रम से इतना सटीक और सार्थक चिंतन आपने प्रस्तुत किया है ... बहुत सुंदर और संग्रहणीय विवेचन
जवाब देंहटाएंकमाल का उत्कृष्ट चिंतन है.
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार आपका.
बहुत ही गहरा विश्लेषण किया है आपने ...बहुत कुछ जानने को मिला ,आभार आपका
जवाब देंहटाएंबेहद ही बढिया समझाते हुए लिखा है। हमेशा लगे रहो ऐसे बेहतरीन जानकारी देने में।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सत्य व् सार्थक जानकरी लिखी है जानकारी लिखी है आपने ...धन्यवाद
जवाब देंहटाएंऐसे आलेख पढ़कर गौरवान्वित होता हूँ मैं तो।
जवाब देंहटाएंअनुराग जी,
जवाब देंहटाएंबड़ा अद्भुत चिंतन निसृत हुआ है। स्वर्णिम सूत्र है……
1-जब दुनिया के कई हिस्से खून के बदल खून और आँख के बदले आंख की मांग कर रहे थे हम विश्वव्यापी हिंसा को पीछे छोड़कर "क्षमा वीरस्य भूषणम" की ओर बढ रहे थे।
2-अपने ज्ञान से विश्व को चमत्कृत करने वाली भारतीय सभ्यता "असतो मा सद्गमय" के साथ ही "मृत्योर्मामृतं गमय" की वाहक है। यह संस्कृति न कभी मृतजीवी थी और न ही कभी हो सकती है।
3-उन्हें मत मारो जो माता–पिता बनने की योग्यता रखते हैं|
4-पूर्ण अहिंसक राजाओं का चक्रवर्ती सम्राट बने रहना अहिंसा की इस जन्मभूमि में ही सम्भव है।
5-यदि भारतीय संस्कृति में से भूतदया की बात हटा दी जाये तो एक निर्वात सा बन जायेगा
6-परंतु भारत अकेला ऐसा राष्ट्र है जहाँ शाकाहार और अहिंसा हज़ारों साल से आम जीवन का हिस्सा बन सकी है।
7-सभी प्राणियों के प्रति दया प्रत्येक भारतीय नागरिक का संवैधानिक कर्तव्य है।(धारा 51 ए (जी) )
सत्य की स्थापना भरा आलेख। सभ्यता और संस्कृति के विकासक्रम में शाकाहार के आधार का स्पष्ट आलेखन!!
समय समय पर ऐसा एक लेख जरूरी हो जाता है
जवाब देंहटाएंअनुराग जी का बहुत बहुत आभार
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अहिंसा ही सभ्य सुसंस्कृति का मूल तत्व है, और शाकाहार उसकी अभिव्यक्ति की जीवनशैली। धर्म का आधार ही अहिंसक जीवनमूल्यों का सन्देश होता है।
जवाब देंहटाएंपता नहीं माँसाहार में ऐसा क्या है कि लोग अपने मजहब और खुदा की अमृतमयी करूणा भरी वाणी को भी इस मांसलोलुपता के लिए दाँव पर लगा देते है। ईश्वर ऐसे लोगों को सदबुद्धि दे।
:) जो शाकाहार अपनाएँगे उन्हें सद्बुद्धि भी जल्दी आएगी, आभार!
हटाएंजो शाकाहार रहेगा ऊन्हे भगवान सुख वोर समुध्दी देती है
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