भारतीय
संस्कृति सदा से ही अहिंसा की पक्षधर रही है ।
अन्याय,
अनाचार, हिंसा, परपीडन आदि समस्त आसुरी प्रवृतियों का निषेध सभी आर्ष ग्रंथों में किया
गया है । भारत की पुण्य भूमि में उत्पन्न हर परंपरा में अहिंसा को ही परम धर्म
बताते हुये "अहिंसा परमोधर्म" का पावन उद्घोष किया गया है ।
और यह उद्घोषणा सृष्टि के आदि मे प्रकाशित वेदों में सर्वप्रथम सुनाई
दी थी, वेदों में सभी जीवों को अभय प्रदान करते हुये घोषित
किया गया "मा हिंस्यात सर्व भूतानि "
और अहिंसा की यही धारा उपनिषदों, स्मृतियों,
पुराणों, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी द्वारा संरक्षित होती हुयी आज तक अविरल बहती आ रही है ।
लेकिन निरामिष वृति का यह डिंडिम घोष कई तामस वृत्तियों के चित्त को उद्विग्न कर देता है जिससे वे अपनी प्रवृत्तियों के वशीभूत हो प्रचारित करना शुरू कर देते है कि यह पावन ध्वनि "अहिंसा अहिंसा अहिंसा" नहीं "अहो हिंसा - अहो हिंसा" है ।
भारतीय संस्कृति का ही जिनको ज्ञान नहीं और जो भारत में जन्म लेकर भी भारतीय संस्कृति को आत्मसात नहीं कर पाये वे दुर्बुद्धिगण भारती-संस्कृत से अनभिज्ञ होते हुये भी संस्कृत में लिखित आर्ष ग्रन्थों के अर्थ का अनर्थ करने पर आमादा है । ये रक्त-पिपासु इस रक्त से ना केवल भारतीय ज्ञान-गंगा बल्कि इस गंगा के उद्गम गंगोत्री स्वरूप पावन वेदों को भी भ्रष्ट करने का प्रयास करतें है ।
जो साधारण संस्कृत नहीं जानते वे वेदों की क्लिष्ट संस्कृत के विद्वान बनते हुये अर्थ का अनर्थ करते है । शब्द तो काम धेनु है उनके अनेक लौकिक और पारलौकिक अर्थ निकलते है । अब किस शब्द की जहाँ संगति बैठती है, वही अर्थ ग्रहण किया जाये तो युक्तियुक्त होता है अन्यथा अनर्थकारी ।
ऐसे ही बहुत से शब्द वेदों मे प्राप्त होते है, जिनको संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति से हीन व्यक्ति अनर्गल अर्थ लेते हुये अर्थ का कुअर्थ करते हुये अहिंसा की गंगोत्री वेदों को हिंसक सिद्ध करने की भरसक कोशिश करते है । लेकिन ऐसे रक्त पिपासुओं के कुमत का खंडन सदा से होता आया है, और वर्तमान में भी अहिंसक भारतीयता के साधकों द्वारा सभी जगह इन नर पिशाचों को सार्थक उत्तर दिया जा रहा है । इसी महान कार्य में अपनी आहुती निरामिष द्वारा भी निरंतर अर्पित की जा रही है, जहाँ शाकाहार के प्रचार के साथ आर्ष ग्रन्थों की पवित्रता को उजागर करते हुये लेख प्रकाशित किए जाते हैं । जिनके पठन और मनन से कई मांसाहारी भाई-बहन मांसाहार त्याग चुके है, जो निरामिष परिवार की महान सफलता है ।
लेकिन फिर भी कई रक्त मांस लोलुप आसुरी वृतियों के स्वामी अपने जड़-विहीन आग्रहों से ग्रसित हो मांसाहार का पक्ष लेने के लिए बालू की भींत सरीखे तर्क-वितर्क करते फिरते है । इसी क्रम में निरामिष के एक लेख जिसमें यज्ञ के वैदिक शब्दों के संगत अर्थ बताते हुये इनके प्रचार का भंडाफोड़ किया गया था । वहाँ इसी दुराग्रह का परिचय देते हुये ऋग्वेद का यह मंत्र ----------
लेकिन निरामिष वृति का यह डिंडिम घोष कई तामस वृत्तियों के चित्त को उद्विग्न कर देता है जिससे वे अपनी प्रवृत्तियों के वशीभूत हो प्रचारित करना शुरू कर देते है कि यह पावन ध्वनि "अहिंसा अहिंसा अहिंसा" नहीं "अहो हिंसा - अहो हिंसा" है ।
भारतीय संस्कृति का ही जिनको ज्ञान नहीं और जो भारत में जन्म लेकर भी भारतीय संस्कृति को आत्मसात नहीं कर पाये वे दुर्बुद्धिगण भारती-संस्कृत से अनभिज्ञ होते हुये भी संस्कृत में लिखित आर्ष ग्रन्थों के अर्थ का अनर्थ करने पर आमादा है । ये रक्त-पिपासु इस रक्त से ना केवल भारतीय ज्ञान-गंगा बल्कि इस गंगा के उद्गम गंगोत्री स्वरूप पावन वेदों को भी भ्रष्ट करने का प्रयास करतें है ।
जो साधारण संस्कृत नहीं जानते वे वेदों की क्लिष्ट संस्कृत के विद्वान बनते हुये अर्थ का अनर्थ करते है । शब्द तो काम धेनु है उनके अनेक लौकिक और पारलौकिक अर्थ निकलते है । अब किस शब्द की जहाँ संगति बैठती है, वही अर्थ ग्रहण किया जाये तो युक्तियुक्त होता है अन्यथा अनर्थकारी ।
ऐसे ही बहुत से शब्द वेदों मे प्राप्त होते है, जिनको संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति से हीन व्यक्ति अनर्गल अर्थ लेते हुये अर्थ का कुअर्थ करते हुये अहिंसा की गंगोत्री वेदों को हिंसक सिद्ध करने की भरसक कोशिश करते है । लेकिन ऐसे रक्त पिपासुओं के कुमत का खंडन सदा से होता आया है, और वर्तमान में भी अहिंसक भारतीयता के साधकों द्वारा सभी जगह इन नर पिशाचों को सार्थक उत्तर दिया जा रहा है । इसी महान कार्य में अपनी आहुती निरामिष द्वारा भी निरंतर अर्पित की जा रही है, जहाँ शाकाहार के प्रचार के साथ आर्ष ग्रन्थों की पवित्रता को उजागर करते हुये लेख प्रकाशित किए जाते हैं । जिनके पठन और मनन से कई मांसाहारी भाई-बहन मांसाहार त्याग चुके है, जो निरामिष परिवार की महान सफलता है ।
लेकिन फिर भी कई रक्त मांस लोलुप आसुरी वृतियों के स्वामी अपने जड़-विहीन आग्रहों से ग्रसित हो मांसाहार का पक्ष लेने के लिए बालू की भींत सरीखे तर्क-वितर्क करते फिरते है । इसी क्रम में निरामिष के एक लेख जिसमें यज्ञ के वैदिक शब्दों के संगत अर्थ बताते हुये इनके प्रचार का भंडाफोड़ किया गया था । वहाँ इसी दुराग्रह का परिचय देते हुये ऋग्वेद का यह मंत्र ----------
अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति
सोमान् पिबसि त्वमेषाम्।
पचन्ति ते वृषभां अत्सि तेषां
पृक्षेण यन्मघवन् हूयमानः ॥
-ऋग्वेद, 10, 28, 3
लिखते हुये इसमें प्रयुक्त "वृषभां"
का अर्थ बैल करते हुये कुअर्थी कहते हैं की इसमें बैल पकाने की बात कही गयी है । जिसका उचित निराकरण करते हुये बताया गया की नहीं ये बैल नहीं है
; इसका अर्थ है ------सोमान् पिबसि त्वमेषाम्।
पचन्ति ते वृषभां अत्सि तेषां
पृक्षेण यन्मघवन् हूयमानः ॥
-ऋग्वेद, 10, 28, 3
-हे इंद्रदेव! आपके लिये जब यजमान जल्दी जल्दी पत्थर के
टुकड़ों पर आनन्दप्रद सोमरस तैयार करते हैं तब आप उसे पीते हैं। हे ऐश्वर्य-सम्पन्न इन्द्रदेव! जब यजमान हविष्य के अन्न से
यज्ञ करते हुए शक्तिसम्पन्न हव्य को अग्नि में डालते हैं तब आप उसका सेवन करते
हैं।
इसमे शक्तिसंपन्न हव्य को स्पष्ट करते हुये बताया गया की वह शक्तिसम्पन्न हव्य "वृषभां" - "बैल" नहीं बल्कि बलकारक "ऋषभक" (ऋषभ कंद) नामक औषधि है ।
लेकिन दुर्बुद्धियों को यहाँ भी संतुष्टि नहीं और अपने अज्ञान का प्रदर्शन करते हुये पूछते है की ऋषभ कंद का "मार्केट रेट" क्या चल रहा है आजकल ?????
अब दुर्भावना प्रेरित कुप्रश्नों के उत्तर उनको तो क्या दिये जाये, लेकिन भारतीय संस्कृति में आस्था व निरामिष के मत को पुष्ठ करने के लिए ऋषभ कंद -ऋषभक का थोड़ा सा प्राथमिक परिचय यहाँ दिया जा रहा है ----
आयुर्वेद में बल-पुष्टि कारक, काया कल्प करने की अद्भुत क्षमता रखने वाली आठ महान औषधियों का वर्णन किया गया है, इन्हे संयुक्त रूप से "अष्टवर्ग" के नाम से भी जाना जाता है ।
अष्ट वर्ग में सम्मिलित आठ पौधों के नाम इस प्रकार हैं-
इसमे शक्तिसंपन्न हव्य को स्पष्ट करते हुये बताया गया की वह शक्तिसम्पन्न हव्य "वृषभां" - "बैल" नहीं बल्कि बलकारक "ऋषभक" (ऋषभ कंद) नामक औषधि है ।
लेकिन दुर्बुद्धियों को यहाँ भी संतुष्टि नहीं और अपने अज्ञान का प्रदर्शन करते हुये पूछते है की ऋषभ कंद का "मार्केट रेट" क्या चल रहा है आजकल ?????
अब दुर्भावना प्रेरित कुप्रश्नों के उत्तर उनको तो क्या दिये जाये, लेकिन भारतीय संस्कृति में आस्था व निरामिष के मत को पुष्ठ करने के लिए ऋषभ कंद -ऋषभक का थोड़ा सा प्राथमिक परिचय यहाँ दिया जा रहा है ----
आयुर्वेद में बल-पुष्टि कारक, काया कल्प करने की अद्भुत क्षमता रखने वाली आठ महान औषधियों का वर्णन किया गया है, इन्हे संयुक्त रूप से "अष्टवर्ग" के नाम से भी जाना जाता है ।
अष्ट वर्ग में सम्मिलित आठ पौधों के नाम इस प्रकार हैं-
१॰ ऋद्धि
२॰ वृद्धि
३॰ जीवक
४॰ ऋषभक
५॰ काकोली
६॰ क्षीरकाकोली
७॰ मेदा
८॰ महामेदा
ये सभी आर्किड फैमिली के पादप होते हैं, जिन्हें दुर्लभ प्रजातियों की श्रेणी में रखा जाता है। शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता व दमखम बढ़ाने में काम आने वाली ये औषधिया सिर्फ अत्यधिक ठंडे इलाकों में पैदा होती हैं। इनके पौधे वातावरण में बदलाव सहन नहीं कर सकते ।
वन अनुसंधान संस्थान [एफआरआइ] और वनस्पति विज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक अष्ट वर्ग औषधियां बहुत कम बची हैं। जीवक, ऋषभ व क्षीर कोकली औषधियां नाममात्र की बची हैं। अन्य औषध पौधे भी विलुप्ति की ओर बढ़ रहे हैं।
जिस औषधि की यहाँ चर्चा कर रहे है वह ऋषभक नामक औषधी इस अष्ट वर्ग का महत्वपूर्ण घटक है । वैधकीय ग्रंथों में इसे - "बन्धुर , धीरा , दुर्धरा , गोपती .इंद्रक्सा , काकुदा , मातृका , विशानी , वृषा और वृषभा" के नाम से भी पुकारा जाता है । आधुनिक वनस्पति शास्त्र में इसे Microstylis muscifera Ridley के नाम से जाना जाता है ।
२॰ वृद्धि
३॰ जीवक
४॰ ऋषभक
५॰ काकोली
६॰ क्षीरकाकोली
७॰ मेदा
८॰ महामेदा
ये सभी आर्किड फैमिली के पादप होते हैं, जिन्हें दुर्लभ प्रजातियों की श्रेणी में रखा जाता है। शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता व दमखम बढ़ाने में काम आने वाली ये औषधिया सिर्फ अत्यधिक ठंडे इलाकों में पैदा होती हैं। इनके पौधे वातावरण में बदलाव सहन नहीं कर सकते ।
वन अनुसंधान संस्थान [एफआरआइ] और वनस्पति विज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक अष्ट वर्ग औषधियां बहुत कम बची हैं। जीवक, ऋषभ व क्षीर कोकली औषधियां नाममात्र की बची हैं। अन्य औषध पौधे भी विलुप्ति की ओर बढ़ रहे हैं।
जिस औषधि की यहाँ चर्चा कर रहे है वह ऋषभक नामक औषधी इस अष्ट वर्ग का महत्वपूर्ण घटक है । वैधकीय ग्रंथों में इसे - "बन्धुर , धीरा , दुर्धरा , गोपती .इंद्रक्सा , काकुदा , मातृका , विशानी , वृषा और वृषभा" के नाम से भी पुकारा जाता है । आधुनिक वनस्पति शास्त्र में इसे Microstylis muscifera Ridley के नाम से जाना जाता है ।
ऋषभक
और अष्ठवर्ग की अन्य औषधियों के विषय में विस्तृत जानकारी अगले लेख में दी जाएगी।
जारी ...................
जारी ...................
अमित जी इस अनमोल जानकारी के लिए आपका आभार | :)
जवाब देंहटाएंइसी सन्दर्भ में "आजकल मार्केट रेट क्या चल रहा है " पूछने वाले सज्जनों के लिए एक और रेफरेंस -
"
सोमलता - जो सोमरस बनाने में प्रयुक्त होती थी - वह भी अब नहीं होती | ....
पाश्चात्य वेदाध्यायी इसे अलग अलग बताते हैं - कोई "सुरा" , कोई "अंगूर का रस", कोई "आंवले का रस" तो कोई कोई "ईख का रस" बताते हैं
ऐतरेय ब्राह्मण की अनुक्रमाणिका में हाग जी ने लिखा है की उन्होंने सोमरस तैयार कर के पिया भी | पता नहीं उन्हें कहाँ सोमलता मिल गयी थी ?
कहीं गुडूच के रस को सोमरस बता कर बेचा जा रहा है, कहीं राशनेर वनस्पति को सोमलता कहा जा रहा है |
किन्तु अब यज्ञ में आश्वलायनश्रौत सूत्र के अनुसार सोमलता के अनुकल्प स्वरुप पूतिक तृण व फाल्गुन नामक वनस्पतियों का उपयोग हो रहा है |
"
{ :- पंडित रामगोविंद त्रिवेदी जी के ऋग्वेद भाषांतर से साभार }
सही कहा शिल्पाजी आपने ............. पाश्चात्य वेदध्यायी तो अपने संसाधनो व बुद्धि की न्यूनयता में ऐसा बकवादन अगर कर गए तो बिचारों को ज्यादा दोष नहीं दिया जा सकता, पर अध्यन व अन्वेषन संबंधी सभी साधनो की उपलब्धता के बावजूद अगर एसा अनर्गल अनुगमन चलता रहे तो ऐसे अनुगामियों को धिक्कार ही है ।
हटाएंयह टिपण्णी मैंने यहाँ की थी
हटाएंhttp://pittpat.blogspot.in/2011/02/blog-post.html -
परन्तु यह इस पोस्ट पर भी जंचती सी लगती है मुझे |
कहते हैं कि झूठ के पाँव नहीं होते -
पर जब भी देखा तो
पाया हमेशा यही कि
ना सिर्फ होते हैं पाँव
वरन
हमेशा ही पाँव भारी होते हैं
कि
एक झूठ सिर्फ एक झूठ को ही जन्म नहीं देता
एक से दो - दो से चार फिर आठ के
"जोमेत्रिक प्रोग्रेशन" में बढाता जाता है अपना कुनबा
एक शुरूआती झूठ
इतने झूठों को जन्म दे देता है
कि सच छुप सा जाता है उसकी आंधी में
पर जब सत्य हुँकार भरता है
तो ज़र्रा जर्रा उड़ जाता है
झूठ का पूरा पर्वत |
धन्यवाद अमित, अत्यन्त जानकारीपूर्ण यह पोस्ट सन्दर्भ के रूप में संग्रहणीय है।
जवाब देंहटाएं@लेकिन निरामिष वृति का यह डिंडिम घोष कई तामस वृत्तियों के चित्त को उद्विग्न कर देता है जिससे वे अपनी प्रवृत्तियों के वशीभूत हो प्रचारित करना शुरू कर देते है कि यह पावन ध्वनि "अहिंसा अहिंसा अहिंसा" नहीं "अहो हिंसा - अहो हिंसा" है ।
वर्तमान सच्चाई का सटीक प्रस्तुतिकरण! :)
वाह! सुन्दर
जवाब देंहटाएंसमस्त सूचनाएं मेरे लिए सर्वथा नवीन हैं... आश्चर्य जनक किन्तु सत्य!! तथ्यात्मक!!
जवाब देंहटाएंलोगों के मन में प्रश्न उठता है हिंसाप्रधान मान्यता के लोग अपनी किताबों में हिंसा के उल्लेख बढ़ चढ कर बताएं, समझ में आता है किन्तु वे पवित्र आर्ष-वाणी वेदों में भी हिंसा क्यों साबित करना चाहते है?
जवाब देंहटाएंतभीं विद्वान डॉ अनवर जमाल साहब की बात ध्यान में आयी-
"रांड तो यही चाहेगी न सबके खसम मर जाय"
(उक्ति डॉ अनवर जमाल के एक पोस्ट शिर्षक से साभार):)
दर-असल जिन्हें संस्कृत का ज्ञान ही नहीं वे अर्थ का अनर्थ तो करेंगे ही. दिक्कत यह है कि काफी सनातनी भी बिना पढ़े लिखे ही इनकी हाँ में हाँ मिला देते हैं. ये सब वे लोग हैं जो तिल के बने हुए किसी प्रतीक को लेकर जीवों पर दया बरतने का प्रवचन देने लगते हैं, लेकिन किसी विशेष अवसर पर धार्मिक उत्सव के नाम पर हिंसा को जायज ठहराने में थकते नहीं. एक फ़िल्म देखी थी नरसिम्हा, जिसमें जब खलनायक कहता था कि आत्मा तो अमर है, जिसे मैंने मारा है उसने कहीं और जन्म ले लिया होगा, फिर चिन्ता क्यों, जिस पर नायक कहता है कि यदि तुम भी इसे मानते हो तो क्यों परेशान हो, फाँसी होते ही तुम्हारी आत्मा कहीं और जन्म ले लेगी, परेशान क्यों होते हो. बिलकुल ऐसा ही व्यवहार यहाँ देखा जा सकता है.
जवाब देंहटाएंऔर इनमें सभी शामिल हैं, विशेषत: वे भी जो देवी पर बलि को जायज ठहराते हैं.
जवाब देंहटाएंसत्य कहा दयानिधि वत्स जी,
हटाएंहिंसा और पशुबलि वस्तुतः दानववृति की कुसंस्कृति के प्रभाव से ही व्याप्त है
यह शास्वत सत्य है कि हिंसा हिंसा ही होती है और पशुबलि घोरतम पाप है, चाहे किसी भी मान्यता या प्रयोजन से की जाय। प्रलोभी उसे जायज़ ठहराने का पर्यत्न करते रहते है।
बिलकुल सही कहा आपने दयानिधि जी.................. अगर क्रूरता धर्म है तो भाड़ में जाये ऐसा धर्म और भाड़ में जाये ऐसे धर्म को मानने वाले ..................... भारतीय संस्कृति में पुष्पित पल्लवित सभी विचारधाराओं में ऐसे दानवी कर्म के लिए कोई निर्देशन नहीं है ............... इस महान परंपरा में जो कुछ भी विकृति दिखाई देती है वह ऐसे ही धर्मभ्रष्ठ रक्त-पपिशाचों द्वारा आरोपित है ............. जिनका उन्मूलन ही प्रथम कर्तव्य है ।
हटाएं@ "भाई साहिबो ! टाल-मटोल से काम नहीं चलेगा। आपको ‘ऋषभकंद‘ के बारे में जानकारी तो देनी ही पड़ेगी।
जवाब देंहटाएंऋषभकंद का मार्कीट रेट आजकल क्या चल रहा है ?"
माँसाहार और पशुबलि समर्थको के लिए यह बहुप्रतीक्षित जानकारी है। अब उन्हे पशुहिंसा का कसाई कर्म छोडकर इस वृषभ के बल समान, बलवर्धक औषध ॠषभक का व्यवसाय प्रारम्भ कर देना चाहिए। इससे आपके वैद्यक कार्य में भी ईमान आएगा और जनकल्याण में न्यूनाधिक हविष्य भी हो जाएगा। यदि आप यह बलिकर्म छोडकर जन-स्वास्थ्य कर्म अपनाते है तो भाव के प्रबंध और व्यवसाय के गुर सहित समग्र जानकारी उपलब्ध करवाने में निरामिष परिवार का सहयोग रहेगा।
@ "आपकी धृष्टता को हम क्षमा करते हैं।
सत्य को कड़वा यों ही तो नहीं कहा जाता।"
आदरणीय अमित जी तो आपकी धृष्टता की क्षमा करते हुए उससे चार कदम आगे जाकर सहयोग में तत्पर है। सत्य इतना मधुर व हितचिंतक भी हो सकता है।
@ सत्य को कड़वा यों ही तो नहीं कहा जाता
हटाएंइस "सत्य कडवा होता है" की अवधारणा से मैं बिलकुल सहमत नहीं हूँ | सत्य तो शिव है, और शिव ही सुन्दर है, यही सुनते हुए बड़ी हुई हूँ | सत्य को कडवा बनाते हैं निहित स्वार्थ | इसी पर आज एक पोस्ट भी लिखी है |
यहाँ -
हटाएंhttp://shilpamehta1.blogspot.in/2012/02/is-truth-bitter.html
बहुत अच्छा और समाजोपयोगी लेखन है आपका.महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंऋषभक और अष्ट वर्ग के अन्य औषध द्रव्य अप्राप्त या संदिग्ध घोषित कर दिए गए हैं...वर्त्तमान में इनके प्रतिनिधि द्रव्य प्रचलित हैं. जो लोग मार्केट रेट पूछते हैं वे इसी लिए व्यंग्य करते हैं. आचार्य प्रियव्रत शर्मा ( ब. हि. वि. वि.) ने अथर्व वेद की अप्राप्त औषधियों पर चिंतन किया है. इस विषय पर जितना शोध होना चाहिए वह हो नहीं सका. कुछ तो टांग खिचाई की प्रवृत्ति और कुछ शोध में ईमानदारी का अभाव .....
जवाब देंहटाएंयहाँ मेरा मानना है कि-
१- "अनआइडेंटीफाइड" घोषित करना एक सोची समझी चाल हो सकती है.
२- संदिग्ध द्रव्यों के बारे में शोधकर्ता एक मत नहीं हो पाते...जिससे संदिग्धता बनी रहती है. श्रम का अभाव भी शोध के मार्ग में एक बड़ी रुकावट है.
३- जिस तरह आज इफेड्रा को सोमलता के रूप में प्रचारित किया गया है उसी तरह किसी भी ऑर्किड को कुछ भी कह देने से काम नहीं चलेगा. संहिता ग्रंथों में सोमलता के बारे में स्पष्ट कहा गया है कि यह एक लता प्रजाति की औषध है जिसमें शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन एक-एक पत्ता निकलता है यानी पूर्ण मासी तक पूरे १५ पत्ते. फिर कृष्ण पक्ष में उसी तरह प्रतिलोम गति से प्रतिदिन एक-एक पत्ते का क्षरण होता है यानी अमावस्या के दिन उसमें एक भी पत्ता नहीं होता. इसकी लता अँधेरे में चमकती है. इस तरह के लक्षण वाली किसी लता को श्रम से ही खोजा सकता है ...वातानुकूलित कक्ष में बैठ कर शोध नहीं होते. आयुर्वेद में शोध को लेकर बड़ी ही दयनीय स्थिति है ...कुल संकेत यह है कि आयुर्वेद का एलोपैथीकरण करने पर पूरा तंत्र न्योछावर है.
४- अंतिम बात यह कि संदिग्ध, अप्राप्त या दुर्लभ द्रव्यों के गुणधर्म के समान गुणधर्म वाले द्रव्यों को ही स्वीकार कर लेने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. हमें औषध के चिकित्सकीय महत्व से वास्ता होना चाहिए.....अतः काम मुश्किल नहीं है ...किन्तु जो मुश्किल है वह है दृढ इच्छा शक्ति और ईमानदारी.
५- Family Monemiaceae प्रजाति का एक द्रव्य है Peumas boldus जोकि चिली का मूल द्रव्य है...भारत में नहीं मिलता. इसकी तीन सौ से अधिक प्रजातियों में से मात्र एक प्रजाति श्रीलंका में प्राप्य है. एक औषधि निर्माता कंपनी के लिए एक विद्वान महोदय उसे अथर्ववेद की अप्राप्त औषध में से किसी एक का नाम देने के लिए तैयार हो गए....जब मैंने कहा कि मैं इस सौदे का भंड़ाफोड़ कर दूंगा ...तब जाकर यह फर्जी शोध रुक सका. इस तरह के शोध कार्यों से भारतीय ज्ञान का अहित ही हुआ है.
६- व्यक्तिगत स्तर से....शोध के इच्छुक लोगों को आगे आकर इस क्षेत्र में काम करने की आवश्यकता है ...कोई आवश्यक नहीं कि वह आयुर्वेद का विद्वान ही हो .....कोई भी वनस्पति शास्त्र में रूचि रखने वाला व्यक्ति आगे आ सकता है.
आयुर्वेद में वर्णित रसायन द्रव्यों में शक्ति वर्धक और वार्धक्य रोधक औषध द्रव्यों की कमी नहीं है ......मांसाहार से कभी वार्धक्य को नहीं रोका जा सकता. अन्यथा एस्कीमोज की उम्र सबसे अधिक होती. केवल शाकाहार से तो आप पूरी उम्र गुज़ार सकते हैं पर केवल मांसाहार से काम नहीं चलने वाला. तब क्यों न केवल शाकाहार ही लिया जाय !
कौशलेन्द्र जी,
हटाएंएक चिंतनीय यथार्थ प्रस्तुत किया है, निसंदेह इस क्षेत्र में गम्भीर प्रयास की आवश्यकता है। आपने सच ही कहा "अनआइडेंटीफाइड" घोषित करना एक सोची समझी चाल हो सकती है. सटीक गुणधर्म वाली वनस्पति विलुप्त भी हो सकती है और संदिग्ध या दुर्लभ भी।
जहां तक बात इस आलेख के मंतव्य की है। वृषभक व ॠषभक शब्द का अर्थ एकांत बैल से नहीं किया जाता और प्रस्तुत मंत्र में उल्लेखित 'ॠषभक' अष्ट वर्ग का औषध द्रव्य है आज उपलब्ध हो भी अथवा नहीं, नथिंग मैटर पर 'ॠषभक'होता है यह अटल सत्य है।
बहुत आभार कौश्लेंद्र जी आपका!
हटाएंउपयोगी और रोचक जानकारी.
जवाब देंहटाएंयह वैदिक मन्त्र इंद्र के सोमपान से ही सम्बन्धित है -सोम की खोज एक श्वास्वत खोज है ..मेरा सहज बोध है कि इसे एक मशरूम होना चाहिए!
जवाब देंहटाएंअपने लिये नवीन जानकारी ही है हालाँकि यकीन था कि असली अर्थ ऐसा ही होगा।
जवाब देंहटाएंभारतीय संस्कृति का ही जिनको ज्ञान नहीं और जो भारत में जन्म लेकर भी भारतीय संस्कृति को आत्मसात नहीं कर पाये वे दुर्बुद्धिगण भारती-संस्कृत से अनभिज्ञ होते हुये भी संस्कृत में लिखित आर्ष ग्रन्थों के अर्थ का अनर्थ करने पर आमादा है । ये रक्त-पिपासु इस रक्त से ना केवल भारतीय ज्ञान-गंगा बल्कि इस गंगा के उद्गम गंगोत्री स्वरूप पावन वेदों को भी भ्रष्ट करने का प्रयास करतें है । आपके ही शब्दों से आपकी कथन का समर्थन कर रहा हूं।
जवाब देंहटाएंअमित जी ....उम्मीद है कि लोगों के भ्रम दूर हुए होंगे। आपका ये ज्ञानवर्द्धक आलेख बेहद पसंद आया। मुझे भी काफी अच्छी जानकारी मिली है। दो-एक बार आपकी पोस्ट और पंढ़ूगा। कुछ कमेंट्स भी बेहद पसंद आए हैं।
जवाब देंहटाएंनिरामिष की पूरी टीम को महाशिवरात्रि के शुभ अवसर पर मंगलकामनाएँ।
हमारे लिए बिलकुल नवीन जानकारी है . किसी भी बात का कुछ भी मतलब निकाल लेना जितना ही आसान है वेद मन्त्रों का मनमुताबिक अर्थ गढ़ लेना!
जवाब देंहटाएंभ्रांतियों को दूर करने में आपका वृहद् ज्ञान और श्रम प्रशंसनीय है !
पंडित अमित शर्मा जी इस श्रमसाध्य शोधपूर्ण आलेख के लिये बधाई के पात्र हैं... आचार्य कौशलेन्द्र जी की टिप्पणी में जो वास्तविकता प्रस्तुत की गई है .. वह भी विचारणीय है.
जवाब देंहटाएंआमिष और निरामिष के शास्त्रार्थ में ऋषभ कंद और सोमलता के सन्दर्भ के जो भी तथ्य प्रस्तुत किये हैं वे सभी सभासदों को संतुष्ट करते हैं.... कुतर्कियों को लापता बनाने के लिये इस पोस्ट को सदैव स्मरण रखा जायेगा..... अमित जी को सभी सभासदों की ओर से हमारा साधुवाद.
आदरणीया शिल्पा जी की तार्किक कविता ने फिर से मुझे निर्वाक कर दिया... मुझे गर्व की अनुभूति होती है जब भी इस निरामिष परिवार में शिल्पा जैसी विदूषी को पाता हूँ.
आदरणीय प्रतुल जी, आपका बहुत आभार |
हटाएंप्रतुल जी का ये कमेन्ट मेरा भी माना जाए|
हटाएंइस तरह के शोध कार्यों से भारतीय ज्ञान का अहित ही हुआ है.
हटाएंsabhi ke liye sarvatha navin jankari dene hetu aabhar .
kutarkiyo ke naamo ka khulasa bhi karna chahiye tha .
hamere blog par bhi aa sako to aao .
हिंसा-धर्मी मानसिकता शाकाहार के शीतल प्रसार से भी दग्ध होने लगी है।
जवाब देंहटाएंपूछने वाले ने तो पहले यह पूछा था कि-
जवाब देंहटाएंवह कौन सी औषधि है जिसके पैर , आंखें और 26 पसलियां हों ?
### क्या इस न मिलने वाले "ऋषभक" के पैर , आंखें और 26 पसलियां हैं ?
### अगर नहीं हैं तो फिर यह "ऋषभक" कहाँ हुआ ?
‘आपको यह जानकर हैरानी होगी कि प्राचीन कर्मकांड के मुताबिक़ वह अच्छा हिंदू नहीं जो गोमांस नहीं खाता. उसे कुछ निश्चित अवसरों पर बैल की बलि दे कर मांस अवश्य खाना चाहिए.‘
(देखें ‘द कंपलीट वकर््स आफ़ स्वामी विवेकानंद, जिल्द तीन, पृ. 536)
इसी पुस्तक में पृष्ठ संख्या 174 पर स्वामी विवेकानंद ने कहा है ,
‘भारत में एक ऐसा समय भी रहा है जब बिना गोमांस खाए कोई ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं रह सकता था.‘
भाई साहब ब्राह्मणों पर हम कोई आक्षेप नहीं लगा रहे हैं बल्कि जो कुछ स्वामी विवेकानंद जी आदि बता रहे हैं उसी का उद्धरण हम यहां दे रहे हैं और आप ऐसा नहीं कह सकते कि उन्हें वैदिक संस्कृति का सही ज्ञान नहीं था।
यज्ञ में पशुओं के साथ व्यवहार
उदीचीनां अस्य पदो निधत्तात् सूर्यं चक्षुर्गमयताद् वातं प्राणमन्ववसृजताद्.
अंतरिक्षमसुं दिशः श्रोत्रं पृथिवीं शरीरमित्येष्वेवैनं तल्लोकेष्वादधाति.
एकषाऽस्य त्वचमाछ्य तात्पुरा नाभ्या अपि शसो वपामुत्खिदता दंतरेवोष्माणं
वारयध्वादिति पशुष्वेव तत् प्राणान् दधाति.
श्येनमस्य वक्षः कृणुतात् प्रशसा बाहू शला दोषणी कश्यपेवांसाच्छिद्रे श्रोणी
कवषोरूस्रेकपर्णाऽष्ठीवन्ता षड्विंशतिरस्य वड्. क्रयस्ता अनुष्ठ्योच्च्यावयताद्. गात्रं गात्रमस्यानूनं कृणुतादित्यंगान्येवास्य तद् गात्राणि प्रीणाति...ऊवध्यगोहं पार्थिवं खनताद् ...अस्ना रक्षः संसृजतादित्याह.
-ऐतरेय ब्राह्मण 6,7
अर्थात इस पशु के पैर उत्तर की ओर मोड़ो, इस की आंखें सूर्य को, इस के श्वास वायु को, इस का जीवन (प्राण) अंतरिक्ष को, इस की श्रवणशक्ति दिशाओं को और इस का शरीर पृथ्वी को सौंप दो. इस प्रकार होता (पुरोहित) इसे (पशु को) दूसरे लोकों से जोड़ देता है. सारी चमड़ी बिना काटे उतार लो. नाभि को काटने से पहले आंतों के ऊपर की झिल्ली की तह को चीर डालो. इस प्रकार का वह पुरोहित पशुओं में श्वास डालता है. इस की छाती का एक टुकड़ा बाज की शक्ल का, अगले बाज़ुओं के कुल्हाड़ी की शक्ल के दो टुकड़े, अगले पांव के धान की बालों की शक्ल के दो टुकड़े, कमर के नीचे का अटूट हिस्सा, ढाल की शक्ल के जांघ के दो टुकड़े और 26 पसलियां सब क्रमशः निकाल लिए जाएं. इसके प्रत्येक अंग को सुरक्षित रखा जाए, इस प्रकार वह उस के सारे अंगों को लाभ पहुंचाता है. इस का गोबर छिपाने के लिए जमीन में एक गड्ढा खोदें. प्रेतात्माओं को रक्त दें.
अब आप ख़ुद देख सकते हैं कि यह पशु का वर्णन है या किसी औषधि का ?
Link-
http://www.niraamish.blogspot.in/2011/11/mass-animal-sacrifice-on-eid.html
and
http://drayazahmad.blogspot.in/2012/02/blog-post_29.html
डॉ अ'ज अहमंद जनाब,
हटाएंयह रही आपकी टिप्पणी…………
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Dr. Ayaz AhmadDec 8, 2011 06:23 AM
यह सिद्ध हो गया है कि ‘पचन्ति ते वृषभां‘ का जो अर्थ प्रकाशित वेदानुवाद में किया गया है, उसमें वृषभ का अर्थ नहीं मिल पा रहा है और आपने भी उसे गोल कर दिया है।
आपने बताया है कि ऋग्वेद 10, 28, 3 में ‘वृषभ‘ से तात्पर्य बैल न होकर ‘ऋषभकंद‘ है।
ख़ैर, आप ऋषभकंद के बारे में ही कुछ जानकारी दीजिए,
यह क्या होता है और यज्ञ सामग्री में इसका क्या उपयोग किया जाता है ?
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बात वेद ऋग्वेद 10, 28, 3 के मंत्र में आए 'वृषभां' के अर्थ की हो रही है। और आपकी विपरित बुद्धि का ही समाधान किया गया है।
चर्चा मूल ग्रंथ पर ही की जा रही है। सारा का सारा कुअर्थ इसी शब्द पर टिका हुआ था न?
हां पूंछन वाले ने डॉ अ ज नें अवश्य 'ऋग्वेद' के मंत्र के साथ कुटिलता से अन्य भिन्न ग्रंथ 'ऐतरेय ब्राह्मण' के श्रलोक को जोड़ कर अनर्थ करने का दुष्कृत्य किया था।
वेद ही मूल ग्रंथ है हमनें यहां साबित कर दिया कि ऋग्वेद के मंत्र में आए 'वृषभां' का अर्थ विकृत किया गया है और उसका अर्थ ॠषभक नामक वनस्पति ही है। पहले ॠग्वेद के यथार्थ अर्थ को स्वीकार करलें तभी एतरेय ब्राह्मण पर भी चर्चा करेंगे
और वहां क्या वर्णन है और किस प्रकार की औषधि है, आप ज्ञान प्राप्त कर पाएंगे।
कोई मूर्ख ही दो अलग अलग ग्रंथों का आपकी तरह जोड-तोड कर अर्थ बिठाने की धृष्टता करता है, आपकी उसी टिप्पणी में लिखने को लिख मारा वाक्य आपके ही अनुकूल है…यथा…
"यह सिद्ध हो गया है कि “अधजल गगरी छलकत जात” की उक्ति अल्पज्ञ जनों के लिए ही प्रयोग में ली जाती है । ऐसे लोगों को अक्सर अपने ज्ञान के बारे में भ्रम रहता है । गैरजानकार या अज्ञ व्यक्ति मुझे नहीं मालूम कहने में नहीं हिचकता है और जानकार की बात स्वीकारने में नहीं हिचकता है । विशेषज्ञ भी आपने ज्ञान की सीमाओं को समझता है, अतः उनके साथ तार्किक विमर्ष संभव हो पाता है, परंतु अल्पज्ञ अपनी जिद पर अड़ा रहता है ।"
http://niraamish.blogspot.in/2011/12/blog-post.html?showComment=1323354203372#c3457880760602770114
सत्य उतना ही नहीं है जितना कि हम जानते हैं या कि जितना हमें अनेक माध्यमों से पता चला है। सत्य के प्रति हमारी सतत भूख बनी रहनी चाहिये, तब फिर दुराग्रह और हठ समाप्त हो जाता है। सभ्यता और विकास की यह एक अनिवार्य शर्त है।
जवाब देंहटाएंभारत की उत्कृष्ट परम्पराओं और सत्यज्ञान को विकृत करने के नाना उपाय किये जाते रहे हैं। मैकाले इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इसी तरह कुछ लोभी विद्वानों ने भी प्रक्षिप्तांशों के माध्यम से विदेशियों के उद्देश्य को पूरा करने में कुख्यात भूमिका निभायी है। इन्हीं विद्वानों(?) में से एक थे कोलकाता निवासी वाचस्पति महोदय जिन्हें ब्रिटिश काल में प्रचुर धन केवल इस कार्य़ के लिये दिया गया था कि वे वेदों की ऐसी व्याख्या करें जिससे वेद विवादास्पद हो जायँ और उनके प्रति लोगों में अश्रद्धा उत्पन्न हो जाय। उन्होंने वही किया और अपने ग्रंथ का नाम रखा "वाचस्पत्यम"।
विज्ञान के साथ कला का सम्मिश्रण भारतीय विद्वानों की रोचक मौलिकता रही है। गणित जैसे क्लिष्ट विषय को भी श्लोकबद्ध करना इसका उदाहरण है, किंतु इस कलात्मकता एवम भाषा में अलंकारों के प्रयोग के कारण दूषित विचार के लोगों को अर्थ का अनर्थ करने का अवसर प्राप्त हो गया। यह दुर्भाग्य की बात है कि ऋषियों के विचारों का हम भारतीय सम्मान नहीं कर पाये। और आज वैदिक ज्ञान की धज्जियाँ उडाने में लगे हैं। तथापि भारत की उत्कृष्ट परम्पराओं और ज्ञान के रक्षण के लिये हम खंडन का मार्ग अपनाने से भी नहीं चूकेंगे। और यह स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हम उन सभी प्रक्षिप्तांशों को वैदिक ग्रंथों/पोस्ट वैदिक ग्रंथों का अंश मानने से इंकार करते हैं जो मांस भक्षण की स्तुति करते हैं। अपने आर्ष ग्रंथों के बारे में और ऐसी कितनी सभ्यतायें हैं विश्व में जो हठी नहीं हैं?
यथार्थ प्रस्थापना की है आपने कौशलेन्द्र जी,
हटाएंसत्यज्ञान विकृति के दुराग्रह और हिंसा के हठाग्रह को जड़मूल से उखाड़ फैकने समय आ चुका है।
"भारत की उत्कृष्ट परम्पराओं और ज्ञान के रक्षण के लिये हम खंडन का मार्ग अपनाने से भी नहीं चूकेंगे।"
बिलकुल यह हमारी जिम्मेदारी भी है और कर्तव्य भी!!
".........और यह स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हम उन सभी प्रक्षिप्तांशों को वैदिक ग्रंथों/पोस्ट वैदिक ग्रंथों का अंश मानने से इंकार करते हैं जो मांस भक्षण की स्तुति करते हैं। अपने आर्ष ग्रंथों के बारे में और ऐसी कितनी सभ्यतायें हैं विश्व में जो हठी नहीं हैं?....."
हटाएंसाधू साधू ...
........यह भी हमारा दुर्भाग्य है कि भारत की प्राचीन विरासत के प्रति सभी भारतीय गम्भीर नहीं हैं। कुछ लोगों ने इसे अपनी व्यक्तिगत बपौती मान लिया है तो कुछ लोगों ने अपने सारे आदर्श भारत भूमि के बाहर विदेशों में खोज लिये हैं. दोनो ही अतिवादों का हम विरोध करते हैं। शुद्ध ज्ञान मानव मात्र के कल्याण के लिये है। जो ज्ञान इस लक्ष्य को पूरा नहीं करता वह सूचना मात्र है ज्ञान तो कदापि नहीं। कितने दुख की बात है कि जिस देश की संस्कृति ने सर्वप्रथम स्त्री को पुरुष से अधिक प्रतिष्ठित स्थान दिया, कृषि का ज्ञान दिया, यहाँ तक कि मल-विसर्जन का ज्ञान दिया उसी देश के लोग ज्ञान का दीपक विदेशी धरती पर जलता हुआ देख पा रहे हैं। बात बहुत पुरानी नहीं है,अभी पिछली शतावब्दी में ही 80 के दशक में पूरे विश्व को मल विसर्जन का ज्ञान देने वाला देश भारत ही था, पटना में गान्धी मैदान के पास आज भी इसके मॉडेल पूरे विश्व को यह ज्ञान दे रहे हैं विशेषकर पश्चिमी देशों को। सुलभ शौचालय की तकनीक पश्चिमी देशों को भारत ने ही दी है। और हम हैं कि अपने आर्ष ग्रंथों में छिद्रांवेषण को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना चुके हैं, क्योंकि उन्हें आयातित संस्कृति का विस्तार जो करना है। आज हम इस मंच से यह घोषणा करते हैं कि जीव हिंसा का समर्थन करने वाले सभी ग्रंथ, सभी मनुष्य, सभी सभ्यतायें हमारे सम्मान के पात्र नहीं हैं फिर भले ही वह स्वामी विवेकानन्द या कोई भी प्रतिष्ठित ऋषि ही क्यों न हों। जीने का जितना अधिकार हमें है उतना ही अन्य सभी जीवों को भी ....और इस मत की प्रतिष्ठापना के लिये हम किसी भी महान व्यक्ति का भी विरोध करेंगे।
हटाएंअमित शर्मा जी अगर आप अपना मेल आईडी दे तो आपके काम की कुछ वस्तु मेरे पास है जो इस विषय में आपके काम आएगी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
निरामिष का एक सक्रिय पाठक ।
aap gaumans ke sambandh me phailaye ja rahe kuchh bhramo ke nivaran ke liye is lekh ko padhen
जवाब देंहटाएंमहाभारत ,गाय और राजा रन्तिदेव :एक और इस्लामिक कम्युनिस्ट कुटिलता
http://nationalizm.blogspot.in/2012/04/blog-post.html
सनातन शास्त्रों में ऋषभ का अर्थ श्रेष्ठ भी माना गया है। यथा- भरतर्षभ, पुरुषर्षभ आदि। ब्राह्मण एवं श्रमण संस्कृति में भगवान् श्री हरि का ऋषभावतार तो प्रसिद्ध है ही। अतः विद्वानों को सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर इस विषय में विचार करना चाहिए।
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति - डॉ.शिवदत्ताचार्यः शिवसर्वज्ञ, अपराकाशी जयपुर,