सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

कुर्बानी ? यह कुर्बानी कैसे कहलाएगी ?


कुर्बानी शब्द के सही मायने क्या हैं ? हमने बचपन से विद्यालयों में जो शब्दार्थ पढ़ा - उसके अनुसार तो "कुर्बानी" का अर्थ "त्याग" होता है | किसी के लिए / धर्म के लिए अपने निजी दुःख / नुकसान / जान की भी कीमत पर कुछ त्याग करना क़ुरबानी होती है | यही पढ़ा है, यही सुना है |

कुछ सवाल हैं, जो पूछना चाहूंगी
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यदि कोई कार्य करना मेरा कर्त्तव्य/ धर्म है - तो भले ही उससे मुझे कितनी ही निजी क्षति हो, भले ही मुझे उस काम को करने से कितनी ही निजी तकलीफ हो, भले ही मेरे अपनों का कितना ही नुक्सान हो - फिर भी - असह्य निजी दुःख/ क्षति की कीमत पर भी मैं वह करूँ - क्योंकि यह कर्त्तव्य कर्म करना किसी उच्च उद्देश्य के लिए आवश्यक है - तो यह कुर्बानी कहलाएगी |

कुर्बानी के कुछ उदाहरण
१) भगतसिंह / चंद्रशेखर आज़ाद/ लक्ष्मीबाई देश के प्रति अपने कर्त्तव्य के लिए प्राण दे देते हैं | यह कुर्बानी है |
२) सैनिक देश के लिए कट जाते हैं - यह क़ुरबानी है |
३) एक दोस्त ( माँ / पत्नी) अपने दोस्त (बच्चे / पति ) की छाती पर लगने वाली गोली अपने ह्रदय पर ले और अपनी जान दे कर उस की जान बचाए - यह कुर्बानी है |
४) अपनी kidney किसी की जान बचाने को दे देना - यह कुर्बानी है |

इन सभी उदाहरणों में एक चीज़ common है - निजी तकलीफ / नुक्सान उस कार्य के कर्ता के लिए कर्त्तव्य पथ का रोड़ा नहीं बन पाता कभी भी | यदि उसके निश्चित धर्म के पथ में कुछ भी त्याग / कुर्बान करना पड़े - वह नहीं हिचकता |

अब मैं यह पूछना चाहूंगी - कि यह एक निरीह बकरे को बाज़ार से खरीद लाना - और उसे कसाई से कटवा कर खा लेना, - कुर्बानी कैसे है ? इसमें यह "कुर्बानी" देने वाले ने क्या दुःख उठाया ? इससे किस उच्च उद्देश्य की पूर्ती हुई ? 

"कुर्बानी" देने के लिए आज क्या किया जा रहा है ? अधिकांशतः बाज़ार से दो दिन पहले मोटा सा बकरा खरीद लाया जाता है | यह बकरा खरीदा ही जा रहा है काटने और खाने के लिए - न कोई प्रेम है, न इसके मारने पर कोई दुःख होने वाला है | फिर उसे (अधिकतर) खुद नहीं काटा जाता, कसाई से कटवाया जाता है | और इसमें कोई दुःख या तकलीफ नहीं उठाना है  | इसमें उस व्यक्ति को तकलीफ क्या हुई ? उसने क्या कुर्बानी दी ?  दुःख क्या उठाया ? त्याग क्या किया ? कौनसे उच्च उद्देश्य की प्राप्ति हुई ?

गरीबों में बांटने की बात - अधिकतर बकरे के अच्छे भाग फ्रीज़र में रख लिए जाते हैं - और ख़राब / बेकार भाग (थोडा सा ही ) बाँट दिए जाते हैं | कई दिनों तक इसे खाया जाता है |

यह तो सुख दे रहा है न - फिर कुर्बानी कैसी ? खरीदने में पैसे ज़रूर खर्च हुए - पर वह तो वैसे भी होते ही हैं न ? उसी पैसे से सामूहिक भोज भी कराये जा सकते हैं गरीबों को यदि इसे ही कुर्बानी कहा जा रहा है । उतने ही पैसे से कई गुणा अधिक लोग खा सकेंगे, क्योंकि मांस शाकाहार से कहीं अधिक महंगा है । और महंगा हो भी क्यों न ? एक किलो अन्न की अपेक्षा एक किलो मांस को तैयार करने में धरा के कई गुणा अधिक संसाधन व्यर्थ होते हैं ।
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अब कुछ प्रश्न इसे "वैज्ञानिक" कह कर हम शाकाहार की बात करने वालों को "ढोंगी और पाखंडी" कहते हुए लेख लिखने वालों से (देखिये लिंक ) :

१. आप यदि हिंसा / अहिंसा को विज्ञान के अनुसार देखना चाहते हैं - तो विज्ञान तो सिरे से इश्वर / अल्लाह के अस्तित्व को ही नकारता है - क्या आप इस बात को भी "विज्ञान के अनुसार" कह कर स्वीकार कर लेते हैं ? क्योंकि जिस "विज्ञान" का आप हवाला दे रहे हैं - वही विज्ञान तो यह भी कहता है न, कि दुनिया किसी ने बनाई ही नहीं है - यह अपने आप बिग बैंग / गॉड पार्टिकल आदि आदि से बनी ? फिर क्या विज्ञान के कहने से आप यह मान लीजियेगा ? विज्ञानं तो यह कहता है कि इश्वर / अल्लाह है ही नहीं क्योंकि उसे किसी ने देखा नहीं, नापा नहीं - और विज्ञान अनदेखे अनजाने पर विश्वास नहीं करता ।या तो आप इस बारे में भी विज्ञान की सुनिए या फिर चर्चा में अपने पक्ष को आगे करने को विज्ञान की बैसाखी मत पकड़िए।

२. विज्ञान के अनुसार तो मानव और बकरे का शरीर एक ही है ( vertebral mammals ) - सिर्फ बुद्धि भर का फर्क है | तो क्या आप मानव मांस को भी / मानव बलि को भी स्वीकारते हैं ? क्योंकि जिन पैगम्बर के नाम पर आप यह "कुर्बानी की प्रतीकात्मक परम्परा" बनाये हुए हैं [quote from the article " हज़रत इबराहीम की ज़िन्दगी का प्रतीकात्मक प्रदर्शन (Symbolic performance) है।" - वे तो अपने स्वयं के "बेटे" को कुर्बान करने गए थे | क्या आपने भी ऐसा करने के बारे में सोचा है ?

३. आपके आदरणीय पैगम्बर मुहम्मद जी ने प्रतीकों को पकड़ने के लिए अल्लाह का साफ़ इनकार बताया है - तब यह प्रतीक क्यों ? मूर्ती पूजा बंद कराने के पीछे भी यही कारण था न ? कि मूर्ती "प्रतीक" भर है, इश्वर नहीं है ? क्या पवित्र कुरआन में बताया नहीं गया है कि "आखरी पैगम्बर" की बताई बातें सही हैं और जो भी पुरानी मान्यताएं इनसे टकराती हों , वे रद्द कर दी जानी चाहिए ? मान्यता तो यह भी है / थी कि "जीज़स खुदा के बेटे हैं" यह मान्यता रद्द की गयी न  ? फिर यह "प्रतीकात्मक" मान्यता क्यों ?

४. क्या आपको अपने धर्म के आदेशों के सही होने के बारे में शक शुबहा है ? कि आपको विज्ञान की बैसाखी पकडनी पड़ रही है ? विज्ञान के अनुसार तो बकरे के मांस और सूअर के मांस में बराबर प्रोटीन हैं - लेकिन वहां तो आप विज्ञान की दुहाई देते नहीं दिखते ? धर्म के मसलों के बीच विज्ञानं को खींचेंगे तो फिर हर वैज्ञानिक सवाल का वैज्ञानिक उत्तर देना होगा न?

५. आप दिए गए लिंक पर लिखते है की "ये लोग दूध, दही और शहद भी बेहिचक खाते हैं और मक्खी मच्छर भी मारते रहते हैं और ये सब " कुकर्म " करने के बाद भी " - अर्थात - आप भी यह मानते हैं कि ये सब "कुकर्म" हैं ? तो फिर एक चीखते तड़पते बकरे को मारना कैसे "कुकर्म" नहीं बल्कि "सुकर्म" हो सकता है ? और, क्या आप स्वयं यह "कुकर्म " त्याग चुके हैं - अर्थात आप बकरे को तो "कुर्बान" करते हैं, किन्तु मच्छर को नहीं मारते ?

६. वहां आपने हम मांसाहार विरोधियों को "ढोंगी और पाखंडी" कहा है । मच्छर-मक्खी को मारने को तो "कुकर्म" कहते हुए , उसी सांस में बकरे को मारने का कर्म "सत्कर्म / सुकर्म" बल्कि "कुर्बानी" कहना - क्या यह आप के अनुसार "ढोंग और पाखण्ड" की परिभाषा में आएगा या नहीं आयेगा ?

7. आप कहते हैं की मानव मात्र जीवित ही नहीं रह सकता बिना जीवहत्या के । तो इसलिए, छोटी जीवहत्या   "हो रही है" के बहाने से ह्त्या की राह पर चल दिया जाए ? अपराध जैविक प्रक्रिया में अनजाने ही "हो जाना" और जानते बूझते "करना" में कोई फर्क नहीं है ? क़ानून में भी manslaughter / accidental death  और cold blooded मर्डर अलग अलग अपराध हैं, इनकी अलग अलग सजायें हैं । क्या आपकी धार्मिक किताब में यह लिखा है या नहीं कि अनजाने में हो जाने वाले अपराध और जानते बूझते किये जाने वाले अपराध की सजाएं बराबर नहीं होती हैं ?

फिर पूछती हूँ - "कुर्बानी" क्या होती है ?
सम्पादकीय टिप्पणी (28 अक्टूबर 2012) - हम क्षमाप्रार्थी हैं कि किसी त्रुटि के कारण सभी कमेँट हट गए हैं, उन्हेँ वापस पाने का प्रयास किया जा रहा है. आशा है आप इसे अन्यथा न लेंगे और आपका सहयोग बना रहेगा।

54 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. • रचना26 अक्तूबर 2012 5:03 pm

      पिछली होली पर जाकिर ने पेड काटने के खिलाफ तर्क आधारित पोस्ट लगाई थी और मैने तथा कुछ और लोगो ने आपत्ति की थी की त्यौहार पर इस प्रकार की पोस्ट देने से सद्भावना की जगह दुर्भावना मन में आती हैं . वही इस पोस्ट के लिये भी कहूँगी की इस पोस्ट को लगाने का समय बिलकुल गलत हैं क्युकी कल बकरीद हैं और इस प्रकार की पोस्ट का कोई औचित्य नहीं हैं .
      हर धर्म के अपने नियम कानून हैं और वो उसी हिसाब से चलता हैं , कम से कम जिस दिन भी किसी भी धर्म का कोई उत्सव हो उस दिन उस धर्म के विरध कुछ भी लिखना केवल दुर्भावना को ही जन्म देगा . आप ईद पर लिखो , वो दिवाली पर लिखे आप रमजान के खिलाफ लिखो वो नवरात्र के खिलाफ लिखे क्या हासिल होगा ?? पोस्ट इस समय हटा ली जाये तो बेहतर होगा और सही समय पर दुबारा दी जाये

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    2. 1.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता26 अक्तूबर 2012 7:19 pm

      रचना जी - असहमत हूँ । और यह विषय परिवर्तन है ।

      2.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता27 अक्तूबर 2012 6:41 am

      यह पोस्ट इस्लाम पर प्रश्न नहीं कर रही, सिर्फ क़ुरबानी पर प्रश्न कर रही है ।

      इस पर दुर्भावना क्यों जोड़ी जानी चाहिए ? हिन्दू त्यौहारों पर हिन्दू प्रथाओं के विरुद्ध भी तो लिखा जाता है ? एक प्रथा का विरोध उस धर्म का विरोध नहीं होता । रामायण और महाभारत महाकाव्य के पात्रों के कर्मों का विरोध तो ब्लॉग जगत में लगातार होता ही रहता है । राम और कृष्ण के चरित्र पर लगातार सवाल उठाये जाते हैं । तब तो उसमे दुर्भावना की बात नहीं उठती ? शिवरात्री पर शिवलिंग के सम्बन्ध में पता नहीं क्या क्या लिखा जाता है - तब तो उसमे दुर्भावना की बात नहीं उठती ?

      अभी हाल ही में मैंने नवरात्र में एक शृंखला लिखी थी जिसमे देवी के भोग में मांसाहार (जैसा नीचे चला बिहारी जी ने देवी के आगे पशुबलि का कहा था) को भी गलत कहा था । क्या उसमे मेरी हिन्दू धर्म के प्रति दुर्भावना थी ? नहीं, नवरात्र पूजन के साथ जुडी पशु बलि की कुप्रथा का विरोध भर था ।

      एक प्रथा के विरोध और धर्म के विरोध में फर्क होता है ।

      3.
      रचना27 अक्तूबर 2012 9:06 am

      मैने पोस्ट के जिस समय वो पब्लिश की गयी हैं उस समय की बात की हैं . बहस करने के लिये त्योहार का समय ही क्यूँ ??? ठीक उसी दिन क्यूँ जिस दिन दुर्गा की पूजा हैं या ईद हैं या होली हैं . क्या होता हैं इससे क्या उसी दिन लोग ये पढ़ तुरंत सुधर कर अपने धर्म के गलत प्रचलन के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं ??? नहीं केवल दुर्भावना बढ़ती हैं उस दिन जिस दिन हम सब खुश हो सकते हैं . कुर्बानी क्यूँ पर आप ईद से पहले या उसके बाद भी तो लिख सकती हैं . बेमतलब वैमनस्य की भावना को बढाने से त्यौहार के दिन क्या फायदा वही जाकिर ने किया था , वही आप कर रही हैं .

      ये कुछ उसी तरह से हैं जैसे अगर किसी हिन्दू की अर्थी शमशान में रखी हो और कोई मुस्लिम वही कहे लकड़ी जलाने से पर्यावरण दूषित होता हैं .

      आप सहमत हो असहमत हो पर मै I OBJECT कहना चाहती हूँ क्युकी मुझे लगता हैं इस से त्यौहार की मिठास कम होती हैं

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    3. 4.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता27 अक्तूबर 2012 10:12 am

      @ प्रवीण जी एंड रचना जी

      जी । आपको इस "I Object" का पूरा पूरा अधिकार है, और उतना ही अधिकार मुझे भी यही "I Object" कहने का है जब हलाल को जाते बकरों को देख कर मेरी और कई अन्य जीवदया युक्त व्यक्तियों की आँखों से आंसू बहते हैं । इसलिए मुझे निजी तौर पर यह पोस्ट इस समय लिखना ठीक समझ में आया । दुर्गा पूजा के गरबे के दिनों में कई शिकायतें होती हैं जिनकी वजह से रात को निश्चित समय के बाद लाउड स्पीकर बंद कर दिए जाते हैं - हिन्दू भी यह कह सकते हैं न की हमारे त्यौहार के समय यह आपत्ति क्यों की जा रही है ? इससे दुर्भावना आएगी ?

      रही बात इस पोस्ट को अभी लगाने की या हटाने के - तो अभी मुझे रोज़ कुर्बानी को जाते बकरे सडकों पर दिख रहे हैं । मेरा दिल उनके लिए उतना ही उदास होता है जितना आपका इस पोस्ट को अभी लगाने से हो रहा है । इसलिए मैंने अभी यह पोस्ट लिखी । पोस्ट में कहीं भी इस्लाम धर्म पर कोई आपति नहीं की गयी है । मीठी ईद के दिन मैं खुद भी मुबारकें देती भी हूँ और लेती भी हूँ । रमजान का महीना मैं भी बड़ा महीना मानती हूँ ।

      हिन्दू धर्म का पर्व आ रहा है - दीपावली - उस पर्व पर मैं कई वर्षों से लगातार अपने आस पड़ोस आदि में पटाखे जला कर पर्यावरण को खराब करने का मुखर विरोध करती आई हूँ । होली पर केमिकल लोगों के मुंह पर मलने का भी मैंने हमेशा से मुखर विरोध किया है । लेकिन कभी किसी भी धर्म के प्रति मेरी कोई दुर्भावना नहीं रही ।

      आप कई परम्पराओं का लगातार विरोध करती रही हैं । इनमे से कई परम्पराएं हम में से कई लोगों को मान्य लगती हैं , तो आपका विरोध हमें भी खलता है । नीचे प्रवीण जी ने भी आपकी बात से सहमती कही है । प्रवीण जी की कही / लिखी कई बातों से मैं असहमत होती रही हूँ । लेकिन दुर्भावना ? नहीं - मेरे मन से तो इन परस्पर असहमतियों को और अपनी आपत्ति कहने / लिखने के कारण दुर्भावना को जन्म देना नहीं चाहिए ।

      वैसे यह सब विषय परिवर्तन ही हो रहा है - बात बलि की हो रही थी, हिन्दू मुस्लिम धर्म की नहीं हो रही थी...

      मुझे निजी तौर पर यह समय उचित लगा इस पोस्ट के लिए | यदि आप लोगों को इसके लिए यह समय अनुचित लग रहा है, तो मैं निजी तौर पर इस पोस्ट को अभी हटाने के लिए और बाद में दोबारा लगाने के लिए तैयार हूँ । निर्णय ब्लॉग एड्मिनीस्ट्रेटर्स पर छोड़ देती हूँ ।

      हटाएं
    4. 5.
      रचना27 अक्तूबर 2012 10:47 am

      वैसे यह सब विषय परिवर्तन ही हो रहा है - बात बलि की हो रही थी, हिन्दू मुस्लिम धर्म की नहीं हो रही थी..

      we are more bothered about the timing of the post and the hurt it may cause to others as its posted on a day when muslims celebrate bakreed

      हिन्दू धर्म का पर्व आ रहा है - दीपावली - उस पर्व पर मैं कई वर्षों से लगातार अपने आस पड़ोस आदि में पटाखे जला कर पर्यावरण को खराब करने का मुखर विरोध करती आई हूँ । होली पर केमिकल लोगों के मुंह पर मलने का भी मैंने हमेशा से मुखर विरोध किया है ।
      great work but do you go to your family members exactly on that day ie diwali and tell them to stop the crackers I MEAN EXACTLY WHEN THEY ARE BURNING THE CRACKERS . IF YOU DO MY SALUTE TO YOU AND YOU ARE JUSTIFIED IN PUTTING THIS POST IF YOU DONT THEN ITS MERELY A WAY TO TELL MUSLIMS ON THEIR FESTIVAL WHAT IS RIGHT AND WRONG
      6.
      रचना27 अक्तूबर 2012 10:48 am

      इनमे से कई परम्पराएं हम में से कई लोगों को मान्य लगती हैं , तो आपका विरोध हमें भी खलता है ।

      mera virodh aap ko khaltaa haen aap aaptti karti haen aap kaa adhikaar haen

      maene to aap kaa virodh kiyaa hee nahin haen

      maenae post ki timing kaa virodh kiyaa haen

      7.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता27 अक्तूबर 2012 11:09 am

      @ I MEAN EXACTLY WHEN THEY ARE BURNING THE CRACKERS
      rachna ji - we in our family have stopped burning crackers due to the ill effects on the atmosphere, and the stark wastage of resources. so i can't object to something they are already not doing, can i ?

      yes - we do light one or two twinklers for a "token" (prateekaatmak so to say) and i know that HAS TO BE STOPPED too. and probably will happen with time and striving towards it. but at least we have moved in this direction. this stage has come due TO OPPOSING ..... and i am fortunate enough that my family do NOT keep durbhaavana and do not misunderstand my intentions when i raise my doubts.

      also , "sati pratha" been discarded in our society due to opposing at THAT MOMENT. "baal vivaah" has reduced for the same reason. the effort has to be classified seeing that is being done with good intentions, or bad intentions.

      8.
      एक बेहद साधारण पाठक27 अक्तूबर 2012 11:20 am

      इस प्रकार की पोस्ट देने से सद्भावना की जगह दुर्भावना मन में आ सकती हैं , रचना जी की बात से सहमत हूँ

      9.
      सुज्ञ27 अक्तूबर 2012 5:38 pm

      प्रथाओं पर बात करना दुर्भावना मानी जाएगी तो प्रयास ही कैसे होंगे। यथास्थितिवादी तो सुधार चाहने से रहे। रही बात समय की तो समस्या के निवारण उपाय तभी कारगर होते है जब आपदा मंड़रा रही हो। असमय की बरसात में पानी व्यर्थ ही बह जाएगा। त्यौहार की मिठास कम होने की बात ही महत्वपूर्ण हो तो 'एक तरफ मानव के उत्साह में मात्र खलल की भीति' है और दूसरी तरफ 'लाखों जीवों के प्राण'। मानव होने के दर्प के कारण मानव की तुच्छ खुशीयों का तो ख्याल आना पर लाखों जीवों के जीवन की उपेक्षा करना? दुर्भावना किसको किसके प्रति है?

      10.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता27 अक्तूबर 2012 6:08 pm

      सुग्य जी, आभार.

      मेरे मन में किसी व्यक्ति के या किसी धर्म के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है. यह समझने व कहने का आभार.

      गौरव जी, आभार

      11.
      Smart Indian - स्मार्ट इंडियन27 अक्तूबर 2012 6:27 pm

      शिल्पा जी,
      जीवहत्या बुरी है यह बात हम सब जानते हैं| अपने सच कहा है| इस सच को बिना लाग लपेट के निडरता से कहने का आभार!

      12.
      एक बेहद साधारण पाठक27 अक्तूबर 2012 9:40 pm

      आपकी भावनाओं की पवित्रता पर रत्ती भर भी संदेह नहीं है, मैंने वही कहा जो मैंने ब्लोग्वुड में देखा .. जब ऐसा होते देखा था तो मुझे भी बहुत आश्चर्य हुआ था |

      हटाएं
  2. उत्तर
    1. Shah Nawaz26 अक्तूबर 2012 5:45 pm

      देखिये शिल्पा जी इस मसले पर पहले भी बहुत सी बहस-मुहाबिसे हो चुके हैं, मगर उनका कोई नतीजा नहीं निकला.... और उसका कारण है अलग-अलग परिवेश में पालन, अलग-अलग मान्यताएं इत्यादि...

      जैसे कि आप मानती हैं कि मांसाहार जीव हत्या है और शाकाहार जीव हत्या नहीं है. जबकि मुसलमान मानते हैं कि जानवर और पेड़-पौधें ईश्वर की बनाई हुई वस्तुएँ हैं, जिसे उसने मनुष्य उपयोग जैसे भोजन तथा अन्य कार्यों के लिए बनाया है. दोनों में जीवन है यह केवल मान्यता नहीं बल्कि वैज्ञानिक सत्य है. और हाँ यह आपसे किसने कह दिया कि विज्ञान को मानना ईश्वर का इनकार है? विज्ञान तो केवल इंसानी खोज भर है जिसे आवश्यकता होने पर मनुष्य के द्वारा खोजा जाता है. अनेकों वैज्ञानिक ईश्वर पर विश्वास भी करते हैं और नहीं भी करते हैं...

      कुर्बानी के लिए अच्छा तरीका तो यही है कि अपने पालतू जानवर को अपने घर वालों, रिश्तेदारों और गरीब लोगो के भोजन के लिए कुर्बान किया जाए. इसमें कुर्बानी किसी जानवर के गोश्त की नहीं बल्कि कुर्बानी करने वाले की नियत की है.... क्योंकि वह चाहता तो इस जानवर या इसे बेचकर मिलने वाले पैसे को अपने फायदे के लिए प्रयोग कर सकता था, परन्तु इसने इस लोभ को कुर्बान किया.

      हालाँकि आजकल अधिकतर गोश्त केवल अपने घर वालो के लिए बचाकर रखने का रिवाज है, इसके भी कई कारण हो सकते हैं... जिसमें से एक यह भी है एक आजकल अधिकतर लोगो के यहाँ कुर्बानी होती है... और फिर कुर्बानी का गोश्त देते समय यह भी देखा जाता है कि जिसे दिया जा रहा है उसमें कोई सामाजिक बुराई जैसे शराब का आदी होना इत्यादि तो नहीं है... और यह भी कि लोग गरीबों को ढूँढने में होने वाली ज़हमत को नहीं उठाना चाहते.... और यह लोभ भी अक्सर लोगो में हो सकता है कि अपने घर पर रख कर कई दिन तक खा सकें... लेकिन इसमें भी वह अकेला नहीं खाता है बल्कि घर वालों के लिए रखता है...

      हालाँकि वह खुद खाना चाहता तो बाजार से केवल 300-350 रूपये का मांस खरीदकर भी खा सकता था, लेकिन ईद पर 1000-1500 किलो रूपये तक खर्च करता है, इसलिए केवल और केवल अपने घर वालों के खाने का लोभ तो मुझे नज़र नहीं आता है... फिर भी आपकी यह बात काफी हद तक जायज़ होने की गुन्जायिश है... और अगर ऐसा भी होता है तो बहुत ज़्यादा परेशानी का सबब नहीं है.... क्योंकि अपने घर वालो पर खर्च करना भी अच्छा काम ही तो है.

      मैंने पहले अपनी एक पोस्ट में भी बताया था कि अगर बात कुर्बानी की करें तो इसमें एक बात तो यह है कि मुसलमान कुर्बानी केवल ईद-उल-ज़ुहा (बकराईद) पर ही नहीं बल्कि आम जीवन में अक्सर करते रहते हैं। जो कि कई तरह की होती है जैसे इमदाद के लिए जानवर की कुर्बानी, सदके के लिए कुर्बानी और ईद-उल-ज़ुहा (बकराईद) पर कुर्बानी इत्यादि।

      इसमें से इमदाद अर्थात मदद करने की नियत से की गई कुर्बानी के द्वारा अपने घर वालों, रिश्तेदारों, पडौसियों और अन्य गरीबों के लिए भोजन की व्यवस्था की जाती है और इस तरह के भोजन को केवल घरवालो को ही नहीं खिलाया जाता बल्कि गरीब रिश्तेदारों, पडौसियों और अन्य गरीबों को भी भोजन कराया जाता है।

      दूसरी तरह की कुर्बानी अर्थात सदके के लिए की गई कुर्बानी से बनने वाले भोजन को केवल और केवल गरीब लोगों को खिलाया जाता है, इसमें घरवालों का हिस्सा नहीं होता।

      तथा तीसरी तरह की कुर्बानी अर्थात ईद-उल-ज़ुहा (बकराईद) वाली कुर्बानी के लिए अच्छा तरीका यही है कि मांस अथवा पके हुए भोजन के तीन हिस्से किये जाए और उसमें से एक हिस्सा अपने घर वालों के लिए, दूसरा हिस्सा गरीब रिश्तेदारों के लिए तथा तीसरा हिस्सा अन्य गरीब लोगों के लिए निकाला जाए। हालाँकि इसमें कोई ज़बरदस्ती नहीं है, बल्कि जिसकी जैसी आस्था है वह उस हिसाब से भी बंटवारा कर सकता है।

      हटाएं
    2. 1.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता26 अक्तूबर 2012 7:10 pm

      आदरणीय भाई शाह नवाज़ जी
      @ जैसे कि आप मानती हैं कि मांसाहार जीव हत्या है और शाकाहार जीव हत्या नहीं है.
      ऊपर पोस्ट में सबसे अंत में लिखा प्रश्न 7 इसका detailed उत्तर है ।

      @ जबकि मुसलमान मानते हैं कि जानवर और पेड़-पौधें ईश्वर की बनाई हुई वस्तुएँ हैं, जिसे उसने मनुष्य उपयोग जैसे भोजन तथा अन्य कार्यों के लिए बनाया है. दोनों में जीवन है यह केवल मान्यता नहीं बल्कि वैज्ञानिक सत्य है. -
      यह तो हम सब मानते ही हैं की पशु और पादप दोनों में जीवन है । इस पर इसी निरामिष ब्लॉग पर मैंने स्वयं ही एक जैव विज्ञान सम्बंधित पोस्ट शृंखला लिखी थी - जिसमे पादपों और पशुओं के शारीरिक फर्क के details दिए थे । एक जीवित चलता फिरता हँसता रोता प्राणी वस्तु भर होता है क्या ? एक बार महात्मा बुद्ध और उनके भाई के बीच यही हुआ था - कि उस भाई ने एक चिड़िया को तीर मार कर गिराया, और इन्होने उसे उठा कर बचाया । भाई कहने लगा कि यह चिड़िया मेरी है , क्योंकि मैंने इसे मारा है ।

      @ और हाँ यह आपसे किसने कह दिया कि विज्ञान को मानना ईश्वर का इनकार है?-
      :) मुझसे किसी ने नहीं कहा । मैंने यह नहीं लिखा है कि "वैज्ञानिक" इश्वर को नहीं मानते , बल्कि यह लिखा है की "विज्ञान" अनदेखी अनजानी वास्तु को नहीं मानता । विज्ञान के अनुसार सारी सृष्टि और जीवन अकस्मात् big bang या god particle से बना है ।

      @ विज्ञान तो केवल इंसानी खोज भर है जिसे आवश्यकता होने पर मनुष्य के द्वारा खोजा जाता है. अनेकों वैज्ञानिक ईश्वर पर विश्वास भी करते हैं और नहीं भी करते हैं...
      जी । फिर विज्ञान के आधार पर कुर्बानी या बलि को उचित या अनुचित दोनों ही ठहराने के लेख क्यों लिखे जाते हैं ? यह प्रश्न उसी लेख पर से आये थे ।

      @ कुर्बानी के लिए अच्छा तरीका तो यही है कि अपने पालतू जानवर को अपने घर वालों, रिश्तेदारों और गरीब लोगो के भोजन के लिए कुर्बान किया जाए. इसमें कुर्बानी किसी जानवर के गोश्त की नहीं बल्कि कुर्बानी करने वाले की नियत की है.... क्योंकि वह चाहता तो इस जानवर या इसे बेचकर मिलने वाले पैसे को अपने फायदे के लिए प्रयोग कर सकता था, परन्तु इसने इस लोभ को कुर्बान किया.
      परन्तु उस ही जानवर को तो पाला ही काटने के लिए गया न ?

      @ हालाँकि वह खुद खाना चाहता तो बाजार से केवल 300-350 रूपये का मांस खरीदकर भी खा सकता था,
      जी 300 -350 रुपये में मैं अपने तीन सदस्यीय परिवार के लिए ***हफ्ते भर की सब्जी*** ले आती हूँ । और 1500 में तो जाने कितने लोगों का एक समय का भोजन हो जाए ।

      @ मैंने पहले अपनी एक पोस्ट में भी बताया था कि अगर बात कुर्बानी की करें तो इसमें एक बात तो यह है कि मुसलमान कुर्बानी केवल ईद-उल-ज़ुहा (बकराईद) पर ही नहीं बल्कि आम जीवन में अक्सर करते रहते हैं। जो कि कई तरह की होती है जैसे इमदाद के लिए जानवर की कुर्बानी, सदके के लिए कुर्बानी और ईद-उल-ज़ुहा (बकराईद) पर कुर्बानी इत्यादि।
      जी - लेकिन उन पशुओं को मारना ***हमारी*** कुर्बानी कैसे हुई ? क्या हम उन पशुओं को sacrificer मान रहे हैं जो अपने प्राण दे रहे हैं इश्वर की सेवा में, या उस मनुष्य को जो उन्हें मार रहा है ?

      @ केवल घरवालो को ही नहीं खिलाया जाता बल्कि गरीब रिश्तेदारों, पडौसियों और अन्य गरीबों को भी भोजन कराया जाता है।
      लेकिन उतने ही पैसे में उससे कई गुणा अधिक जनों को भरपेट भोजन कराया जा सकता था न ?


      हटाएं
    3. 2.
      निरामिष26 अक्तूबर 2012 8:31 pm

      @ जानवर और पेड़-पौधें ईश्वर की बनाई हुई वस्तुएँ हैं, जिसे उसने मनुष्य उपयोग जैसे भोजन तथा अन्य कार्यों के लिए बनाया है.

      लेकिन एक बात समझ नहीं आती कि पेड़-पौधें, जानवर आदि ‘वस्तुएं’ हमारे भोजन व अन्य उपयोग हेतु बनाए हो तो उसमें ‘जान’ क्यों डाली? उन्हें ‘जीवन’ क्यों दिया? भोज्य सामग्री के लिए तो जड़ पदार्थ ही बना सकते थे। उनमें जान होना ही यह प्रमाणित करता है कि वो जान उनके अपने जीवन के लिए है। जीवित अवस्था में तो वे कदाचित हमारी सहायता के लिए हों, किन्तु वे मात्र हमारे भोजन उपभोग के लिए तो कदापि नहीं बनाए गए।
      और जो हिंसक पशु मनुष्य को खा जाते है तो कैसे स्वीकार किया जाय कि हम उन दरिन्दों के भोजन के लिए बने है। यदि नहीं तो मांसाहारी पशु किस उद्देश्य से बनाए या उन्हे जीवन दिया गया?

      सर्वाधिक व्यवहार्य विकल्प तो यह है कि यदि सभी कृत्यों में हिंसा है तो सम्भवतया हिंसा से बचने का विकल्प अपनाना चाहिए। तथापि हिंसा अपरिहार्य हो सूक्ष्म से सूक्ष्म, न्यून से न्यूत्तम, अल्प से अल्पतम का चुनाव होना चाहिए। यह क्या बात हुई कि स्थावर पेड-पौधों और त्रस पशुओं दोनों में जीवन है, दोनो में हिंसा है तो इन दोनों में से जो हिंसा अधिक क्रूर व वीभत्स हत्या हो, जहां स्पष्ट आर्तनाद व अत्याचार दृष्टिगोचर होता हो, उसमें भी अधिक क्रूरतम वीभत्स हिंसा का चुनाव करना चाहिए। यह तो मानव का उद्दंड निर्णय ही होगा।


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    4. 3.
      सुज्ञ27 अक्तूबर 2012 5:45 pm
      अपनी इच्छाओं, तृष्णाओ और प्रलोभनों को दरकिनार करते हुए 'शुभ मार्ग' में प्रवृत होना, उसमें समर्पित कर देना सच्चे अर्थ में क़ुरबानी है।
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      4.
      Smart Indian - स्मार्ट इंडियन27 अक्तूबर 2012 6:31 pm

      शाह नवाज़ भाई, बात हिन्दू मुसलमान की नहीं बल्कि जीव ह्त्या की है| जीव ह्त्या एक क्रूर और अमानवीय कृत्य है| दान और अन्य दैवी सद्गुणों के लिए किसी निरीह पशु की जान लेने की कोइ ज़रुरत नहीं है| देश के अनेक मंदिरों में चल रहे अन्नक्षेत्र और गुरुद्वारों के शाकाहारी लंगर इस बात की गवाही हर रोज़ देते हैं

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    5. 5.
      Shah Nawaz27 अक्तूबर 2012 7:19 pm

      यह तो हम सब मानते ही हैं की पशु और पादप दोनों में जीवन है । इस पर इसी निरामिष ब्लॉग पर मैंने स्वयं ही एक जैव विज्ञान सम्बंधित पोस्ट शृंखला लिखी थी - जिसमे पादपों और पशुओं के शारीरिक फर्क के details दिए थे । एक जीवित चलता फिरता हँसता रोता प्राणी वस्तु भर होता है क्या ?

      शिल्प जी, मैंने आपसे पहले भी कहा था, कि आपकी और हमारी मान्यताओं में फर्क है लेकिन शायद आपकी समझ में यह बात नहीं आई. अब जब मैंने बता ही दिया कि हमारी मान्यता के अनुसार भोजन के रूप में पेड़-पौधों और जानवरों में कोई फर्क नहीं होता तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि उनकी शारीरिक सरंचना में फर्क होता है या नहीं? आपको इससे फर्क पड़ता होगा कि वह चलता है, मुझे नहीं फर्क पड़ता... क्योंकि मेरे अनुसार तो पेड़-पौधे भी हँसते-रोते हैं, सांस लेते हैं, एहसास करते हैं, मतलब जीवित होते हैं...

      क्या इसके बाद भी इस बहस की कोई गुन्जायिश बनती है?

      6.
      Shah Nawaz27 अक्तूबर 2012 7:24 pm

      :) मुझसे किसी ने नहीं कहा । मैंने यह नहीं लिखा है कि "वैज्ञानिक" इश्वर को नहीं मानते , बल्कि यह लिखा है की "विज्ञान" अनदेखी अनजानी वास्तु को नहीं मानता । विज्ञान के अनुसार सारी सृष्टि और जीवन अकस्मात् big bang या god particle से बना है ।

      विज्ञान अनदेखी अनजानी वस्तुओं को नहीं मानता, इस बात से उसकी खोजो को मानने-ना मानने पर फर्क पड़ता है क्या? करोडो वैज्ञानिक विज्ञान के अनुरूप चलते हैं फिर भी ईश्वर को मानते हैं तो क्या उनको केवल इसलिए ईश्वर को नहीं मानना चाहिए क्योंकि विज्ञान नहीं मानता? क्या बेतुकी बात है यह?

      मैं विज्ञान को मानता हूँ, लेकिन अंतिम सत्य नहीं मानता... और वैसे भी विज्ञान अपनी नवीनतम खोज को ही सही मानता है, नयी खोज होने पर पुरानी को अमान्य करार दिया जाता है... इसलिए विज्ञान को माना तो जा सकता है पर अंतिम सत्य कभी भी नहीं माना जा सकता... हो सकता है कल कोई और तथ्य सामने आजाए...

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    6. 7.
      Shah Nawaz27 अक्तूबर 2012 7:35 pm

      परन्तु उस ही जानवर को तो पाला ही काटने के लिए गया न ?

      हाँ, क्योंकि काटने के बाद उसका मांस एक भोज्य पदार्थ है... जैसे साग-सब्जी... काटने से पहले उसपर अत्याचार सख्ती से मना है जैसे कि अन्य पेड़-पौधों पर मना है...

      जी 300 -350 रुपये में मैं अपने तीन सदस्यीय परिवार के लिए ***हफ्ते भर की सब्जी*** ले आती हूँ । और 1500 में तो जाने कितने लोगों का एक समय का भोजन हो जाए ।

      इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता, यह तो अपनी-अपनी पसंद की बात है... आपको शाकाहारी भोजन पसंद है, किसी और को मांसाहारी.... और पसंद के अनुसार खर्च तो आएगा है...

      जी - लेकिन उन पशुओं को मारना ***हमारी*** कुर्बानी कैसे हुई ? क्या हम उन पशुओं को sacrificer मान रहे हैं जो अपने प्राण दे रहे हैं इश्वर की सेवा में, या उस मनुष्य को जो उन्हें मार रहा है ?

      मैंने ऊपर बताया तो था कि कुर्बानी कैसे हुई.... शायद आपने जल्दबाजी में पढ़ी नहीं, कोई बात नहीं दुबारा कोपी-पेस्ट कर देता हूँ....

      इसमें कुर्बानी किसी जानवर के गोश्त की नहीं बल्कि कुर्बानी करने वाले की नियत की है.... क्योंकि वह चाहता तो इस जानवर या इसे बेचकर मिलने वाले पैसे को अपने फायदे के लिए प्रयोग कर सकता था, परन्तु इसने इस लोभ को कुर्बान किया... जानवर तो इस कुर्बानी का जरिया भर बना... अगर ईद-उल-जुहा ना हो और खाने वाले शाकाहार पसंद करने वाले हो तो यह क़ुरबानी शाकाहारी भोजन भी हो सकती है... परन्तु जब करने वाले के लिए शाकाहार-मांसाहार में कोई फर्क ही नहीं है तो इस बात का प्रश्न ही कहाँ उठता है?

      लेकिन उतने ही पैसे में उससे कई गुणा अधिक जनों को भरपेट भोजन कराया जा सकता था न ?

      इसका फैसला तो करने वाले को करने दीजिए न कि वह कितना पैसा और कहाँ खर्च करना चाहता है? और वैसे भी ईद-उल-ज़ोहा पर कम से कम एक वर्ष के बकरे की कुर्बानी ही होती है.... और वह भी कुछ शर्तों के साथ... इसमें इससे नीचे के पशु के मांस की या फिर किसी तरह के शाकाहार की कोई गुन्जायिश ही नहीं है...

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      8.
      Shah Nawaz27 अक्तूबर 2012 7:43 pm
      @ निरामिष

      लेकिन एक बात समझ नहीं आती कि पेड़-पौधें, जानवर आदि ‘वस्तुएं’ हमारे भोजन व अन्य उपयोग हेतु बनाए हो तो उसमें ‘जान’ क्यों डाली? उन्हें ‘जीवन’ क्यों दिया? भोज्य सामग्री के लिए तो जड़ पदार्थ ही बना सकते थे। उनमें जान होना ही यह प्रमाणित करता है कि वो जान उनके अपने जीवन के लिए है। जीवित अवस्था में तो वे कदाचित हमारी सहायता के लिए हों, किन्तु वे मात्र हमारे भोजन उपभोग के लिए तो कदापि नहीं बनाए गए।
      और जो हिंसक पशु मनुष्य को खा जाते है तो कैसे स्वीकार किया जाय कि हम उन दरिन्दों के भोजन के लिए बने है। यदि नहीं तो मांसाहारी पशु किस उद्देश्य से बनाए या उन्हे जीवन दिया गया?

      मैं तो पहले ही बता चुका हूँ कि भोजन के लिए जीवित प्राणी ही बनाए गए हैं... चाहे वह जानवर हो या पेड़-पौधे.... और "क्यों बनाए" अथवा 'मांसाहारी पशु का क्या उद्देश्य' के उत्तर बनाने वाला ही दे तो बेहतर है...



      सर्वाधिक व्यवहार्य विकल्प तो यह है कि यदि सभी कृत्यों में हिंसा है तो सम्भवतया हिंसा से बचने का विकल्प अपनाना चाहिए। तथापि हिंसा अपरिहार्य हो सूक्ष्म से सूक्ष्म, न्यून से न्यूत्तम, अल्प से अल्पतम का चुनाव होना चाहिए। यह क्या बात हुई कि स्थावर पेड-पौधों और त्रस पशुओं दोनों में जीवन है, दोनो में हिंसा है तो इन दोनों में से जो हिंसा अधिक क्रूर व वीभत्स हत्या हो, जहां स्पष्ट आर्तनाद व अत्याचार दृष्टिगोचर होता हो, उसमें भी अधिक क्रूरतम वीभत्स हिंसा का चुनाव करना चाहिए। यह तो मानव का उद्दंड निर्णय ही होगा।

      आपकी इस बात का मैं समर्थन करता हूँ... मगर शाकाहार या मांसाहार पर निर्णय व्यक्तिगत होना चाहिए... अक्सर मुसलमान शाकाहारी भी होते हैं... खुद मेरे घर मैं भी बहुत से लोग शाकाहारी हैं... मैं खुद भी शाकाहार को पसंद करता हूँ... इसके बावजूद मांसाहार पर मेरे विचार आप लोगो से बिलकुल अलग हैं...

      और आपको और मुझे अपनी सोच रखने का पूरा हक़ भी है...

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    8. 9.
      Shah Nawaz27 अक्तूबर 2012 7:47 pm

      @ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
      शाह नवाज़ भाई, बात हिन्दू मुसलमान की नहीं बल्कि जीव ह्त्या की है| जीव ह्त्या एक क्रूर और अमानवीय कृत्य है| दान और अन्य दैवी सद्गुणों के लिए किसी निरीह पशु की जान लेने की कोइ ज़रुरत नहीं है| देश के अनेक मंदिरों में चल रहे अन्नक्षेत्र और गुरुद्वारों के शाकाहारी लंगर इस बात की गवाही हर रोज़ देते हैं

      स्मार्ट इन्डियन भाई, बात जीव हत्या की भी नहीं है... क्योंकि बिना जीव हत्या के पूर्णत: भोजन संभव भी नहीं है... जैसा कि मैं ऊपर बता भी चुका हूँ, कि मेरी मान्यता के अनुसार शाकाहार और मांसाहार में कोई फर्क ही नहीं है... दोनों के लिए किसी न किसी जीव की हत्या करना मज़बूरी है...

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    9. 10.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता27 अक्तूबर 2012 7:50 pm

      @शिल्प जी, मैंने आपसे पहले भी कहा था, कि आपकी और हमारी मान्यताओं में फर्क है लेकिन शायद आपकी समझ में यह बात नहीं आई. ....आपको इससे फर्क पड़ता होगा कि वह चलता है, मुझे नहीं फर्क पड़ता... क्योंकि मेरे अनुसार तो पेड़-पौधे भी हँसते-रोते हैं, सांस लेते हैं, एहसास करते हैं, मतलब जीवित होते हैं...

      ---- आपने स्वयं ही उत्तर दे दिया है - आपको फर्क नहीं पड़ता - मुझे पड़ता है । आम का फल खाने के लिए आप के पेड़ की हत्या करने की आवश्यकता नहीं होती, उसे काटना नहीं पड़ता । अन्न पाने के लिए अन्न के पौधे तब काटे जाते हैं जब वे अपनी जीवन अवधि पूरी कर चुके होते हैं । न भी काटा जाए तब भी वे सूख कर गिर ही जायंगे । आदि ... इसलिए जीवहत्या वहां आवश्यक नहीं होती ।
      -----------------------
      @ क्या इसके बाद भी इस बहस की कोई गुन्जायिश बनती है?

      - नहीं । यदि सिरे से एक दूसरे की बात खारिज ही करनी है - तो बहस करने का कोई फायदा नहीं होगा । आप अपने विश्वासों पर चल कर अपना कर्म कर रहे हैं, मैं जो बात मुझे दुखद और गलत लगे - उसका विरोध कर के अपना कर्त्तव्य कर रही हूँ ।
      -------------------
      @ करोडो वैज्ञानिक विज्ञान के अनुरूप चलते हैं फिर भी ईश्वर को मानते हैं तो क्या उनको केवल इसलिए ईश्वर को नहीं मानना चाहिए क्योंकि विज्ञान नहीं मानता? क्या बेतुकी बात है यह?----

      है न बिलकुल बेतुकी बात ? यही तो मैं भी कह रही थी पोस्ट में । आपने ध्यान नहीं दिया - यह प्रश्न उस पोस्ट के उत्तर में लिखा गया है जो कहती है "विज्ञान के युग में क़ुरबानी पर ऐतराज़ क्यों ?" पोस्ट में लिंक भी है । यह प्रश्न उनसे था जो विज्ञान के आधार पर बात कर रहे थे ।
      ------------------------
      @ मैं विज्ञान को मानता हूँ, लेकिन अंतिम सत्य नहीं मानता...
      जी बिलकुल । मैं भी ऐसा ही मानती हूँ ।
      ------------------------
      @ और वैसे भी विज्ञान अपनी नवीनतम खोज को ही सही मानता है, नयी खोज होने पर पुरानी को अमान्य करार दिया जाता है... इसलिए विज्ञान को माना तो जा सकता है पर अंतिम सत्य कभी भी नहीं माना जा सकता.... हो सकता है कल कोई और तथ्य सामने आजाए...

      बिलकुल सच है । किन्तु यह तथ्य तो सदियों से प्रमाणित है (बोस जी के पहले से ही) कि पशु पक्षियों के साथ ही पेड़ पौधों में प्राण हैं ।
      गीता में कृष्ण भी अर्जुन से कहते हैं की "ग्यानी जन मनुष्य , पशु , पेड़ हर जीव में एक ही परमात्मा का वास देखते हैं" - तब तो उन्होंने यह बात बोस जी की discovery देख कर नहीं ही कही थी ।
      -------------------------

      हटाएं
    10. 11.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता27 अक्तूबर 2012 7:56 pm

      @ इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता, यह तो अपनी-अपनी पसंद की बात है... आपको शाकाहारी भोजन पसंद है, किसी और को मांसाहारी.... और पसंद के अनुसार खर्च तो आएगा है...

      bilkul - apni apni pasand par apna paisaa kharchaa karne kee baat ho rahi hai - to fir baat aur hai |

      uske liye kahin aur charcha ho sakti hai | yahaan tyaag kee baat ho rahi thee |

      abhaar aapka - itne khule dil se apni baatein kahne aur apna mat bataane ke liye
      हटाएं
      12.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता27 अक्तूबर 2012 8:01 pm

      @ और हाँ यह कोई रिवाज नहीं है, बल्कि धर्म का हिस्सा है... और इस्लाम एक मुकम्मल धर्म है, जिसमें कम-या-जायद की भी कोई गुन्जायिश नहीं है...

      kya yah sach hai ? us post me diye gaye link me to likha hai ki yah ek "parampara" hai jo paigambar ji ke apne bete ko kurban karne ko taiyar hone ko yaad karne ko banee thee ?

      हटाएं
    11. 13.
      Shah Nawaz27 अक्तूबर 2012 8:37 pm

      kya yah sach hai ? us post me diye gaye link me to likha hai ki yah ek "parampara" hai jo paigambar ji ke apne bete ko kurban karne ko taiyar hone ko yaad karne ko banee thee ?

      यह बात बिलकुल सही है, लेकिन साथ-ही-साथ यह इस्लाम धर्म का अहम हिस्सा भी है और पैगम्बर मुहम्मद (स.) की सुन्नत भी... [मुहमद (सल.) के तरीके को सुन्नत अथवा सुन्नाह कहा जाता है]

      और इस्लाम धर्म का मतलब अल्लाह का आदेश (मतलब कुरआन) और मुहम्मद (सल.) का तरीका (मतलब सुन्नत) ही है...

      14.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता27 अक्तूबर 2012 8:58 pm

      1.
      हमें यह बताया गया है (- पहले की पोस्टों पर -) quote कर रही हूँ - as it is :
      "
      रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सहाबा ने पूछा कि ‘हे ईशदूत ! ये कुरबानियां क्या हैं ?‘
      ‘आपने जवाब दिया कि तुम्हारे बाप इबराहीम की परंपरा है‘
      (मुस्नद अहमद, जिल्द 4, पृष्ठ 368; इब्ने माजा, किताबुल-अज़ाही)
      "
      कहा गया की यह """परम्परा""" है

      2.
      मेरे पहचान के एक बहुत ही अच्छे और सच्चे मुसलमान हैं - पांच वक़्त के नमाज़ी । उन्होंने ही मुझे पवित्र कुरान भी दी थी पढने के लिए । वे कहते थे कि मैं भी मुसलमान ही हूँ । उन्होंने तो यह बताया है कि , इस्लाम धर्म का मतलब है यह स्वीकार करना कि ...

      " दुनिया /संसार/ (जो भी इसे अरबी भाषा में कहा जाता हो ) को बनाने वाल सिर्फ एक रचयिता है जिसे "अल्लाह" (और दूसरे भी नामों) से जाना जाता है , इसके अलावा और कोई नहीं है , नहीं है, नहीं है । और आदरणीय मुहम्मद जी उनके पैगम्बर हैं "

      ....क्या unki bataayi यह जानकारी गलत है ? क्योंकि यह तो मैं और मेरे कई साथी पहले से मानते ही हैं कि रचयिता एक ही हैं और उन्हें ही अलग अलग भाषाओं / प्रदेशों में अलग अलग नामों से जाना गया ।

      fir ek baar aapka aabhaar shah nawaz ji, itne sanyamit roop se is baat ke charcha karne ke liye |

      हटाएं
    12. 15.
      Shah Nawaz27 अक्तूबर 2012 10:12 pm

      यहाँ आपकी बात भी सही है, कुर्बानी इब्राहीम (अ.) की सुन्नत भी है और बाद में मुहम्मद (सल.) की सुन्नत हुई...


      " दुनिया /संसार/ (जो भी इसे अरबी भाषा में कहा जाता हो ) को बनाने वाल सिर्फ एक रचयिता है जिसे "अल्लाह" (और दूसरे भी नामों) से जाना जाता है , इसके अलावा और कोई नहीं है , नहीं है, नहीं है । और आदरणीय मुहम्मद जी उनके पैगम्बर हैं "

      बिलकुल सही... उपरोक्त पंक्तियों के अनुसार रचियता एक ही है जिसे अलग-अलग भाषाओँ में अलग-अलग नामो से जाना जाता है... फर्क केवल इतना ही है कि हम मानते हैं कि मुहम्मद (सल.) ईश्वर के पैगाम को इंसानों तक पहुंचाने वाले हैं...

      और उनसे पहले करीब सवा लाख महापुरुष इस पृथ्वी के हर एक कोने में ईश्वर का सन्देश अर्थात जिंदगी गुज़ारने का तरीका लेकर इस पृथ्वी पर आए. और इसीलिए कुरआन हर एक धर्म के धर्म गुरुओं का आदर करने का हुक्म देता है...

      16.
      Shah Nawaz27 अक्तूबर 2012 10:18 pm

      जब भी कोई शाकाहार का समर्थन करता है तो मैं उसका अपना समर्थन देता रहा हूँ, लेकिन अगर शाकाहार की आड़ में मेरे धर्म पर आक्षेप लगाने की कोशिश की जाती है तो मुझे अपना पक्ष रखने का पूरा हक़ बनता है... और मैंने वही करने की कोशिश की है...

      मेरा धर्म मुझे शाकाहार अथवा मांसाहार अपनाने का पूरा हक़ देता है... परन्तु बात बस इतनी सी है कि जिस चीज़ को मेरे धर्म ने जायज़ करार दिया गया है उसको नाजायज़ करार देने का हक़ मेरा धर्म मुझे या किसी और को बिलकुल नहीं देता...

      और ईद-उल-जोहा पर कुर्बानी तो वह लोग भी करते हैं जो कि पूरी तरह शाकाहारी हैं... क्योंकि क़ुरबानी केवल खुद के अथवा अपने परिवार के लोगो के लिए ही नहीं है...

      17.
      सुज्ञ27 अक्तूबर 2012 11:02 pm

      @ लेकिन अगर शाकाहार की आड़ में मेरे धर्म पर आक्षेप लगाने की कोशिश की जाती है तो मुझे अपना पक्ष रखने का पूरा हक़ बनता है

      शाहनवाज साहब,

      बेशक आपको अपना पक्ष रखने का पूरा अधिकार है हम भी चाहते है आपके पॉइंट ऑफ व्यूह से मात्र जाने समझेँ अतः चर्चा का स्वागत है. किंतु एक परम्परा पर जिसे खुद पैगम्बर मुहम्मद (स.) की सुन्नत मेँ भी बाप-दादाओँ की 'परम्परा' कहा गया. कुरआन मेँ कुरबानी का आदेश तो है किंतु पशु से ही क़ुरबानी हो ऐसा कोई उल्लेख नही है. इसलिए उसे 'धर्म' नाम की ओट देकर आक्षेप गिनाना उचित नही है न ऐसा कोई आपको हक़ है. कईँ आलीम भी इसे प्रतीकात्मक क़ुरबानी की परम्परा मानते है.(Symbolic performance)-Maulana Wahiduddin Khan . कईँ साधारण बँधु इसे धर्म-कर्तव्य या धर्माचरण मानते है 'यथार्थ- कुरबानी' धर्म हो सकता है किंतु पशुबलि धर्म कर्तव्य का हिस्सा नहीँ है.इसलिए इसे धर्म के खिलाफ प्रसारित करना नही चाहिए.

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  3. उत्तर

    1. चला बिहारी ब्लॉगर बनने26 अक्तूबर 2012 6:02 pm

      पशुओं की कुर्बानी पर यह पोस्ट ऐसे समय आयी है जब अभी-अभी नवरात्री का पर्व बीता है, जिसमें नवमी पर बलि की प्रथा सदियों से प्रचलित है.. घर के सामने देवी-मंदिर में प्रत्येक वर्ष श्रावण पूर्णिमा और नवमी के दिन दी जाने वाली बलि और पशुओं के आर्त्तनाद को सुनकर ही शायद मेरे अंदर शाकाहार के प्रति झुकाव पैदा हुआ और समय के साथ दृढ होती गयी यह धारणा. पूरे मांसाहारी परिवार में मैं अकेला निरामिष था और मेरा एक भाई मेरे साथ है.
      बलि-प्रथा आज भी प्रचलित है.
      पैगम्बर साहब ने कुर्बानी दी थी अपने पुत्र की, अपने प्रियतम जन की और आदेश भी वही था उनका. शायद सच्ची कुर्बानी की इससे बेहतर मिसाल नहीं मिल सकती कि जिसे आप सबसे प्रिय मानते हों उसे कुर्बान करने का जज्बा हो. लेकिन कालांतर में समयाभाव और भाग-दौड की ज़िंदगी ने सभी त्यौहारों से उनकी पवित्रता छीन ली. ऐसे में बकरीद के त्यौहार के साथ भी वही हुआ है.
      व्यक्तिगत रूप से मैं इस तरह की सभी जीव ह्त्या का विरोध करता हूँ. किन्तु परम्पराओं या रूढियों को व्यक्ति विशेष की राय से क्या अंतर पडता है!!

      हटाएं
    2. 1.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता26 अक्तूबर 2012 7:11 pm

      जी । देवी के सामने पशु बलि भी "कुप्रथा" ही कहलाई । इससे पहले मानव बलि भी होती थी - वह भी कुप्रथा ही कहलाई । इसका विरोध भी किया गया । मैं निजी तौर पर भी इसका कड़ा से कडा विरोध करती हूँ ।

      बलि आज कानूनन बंद हो चुकी है - क्योंकि इसका विरोध हुआ । हिंसा चाहे कोई भी करे, किसी भी धर्म / अर्चना पद्धति से हो - वह गलत ही है और हमेशा रहेगी ।

      2.
      Arvind Mishra27 अक्तूबर 2012 12:30 pm

      महज अंशतः असहमत {अब इतना भी न कहूं तो विद्वान् कैसे कहाऊँ :-) }
      -हिन्दुओं ने समय के साथ अपने रीति रिवाजों में बहुत से सामयिक परिवर्तन किये हैं -बलि अब मात्र क्षौर कर्म -मुंडन आदि तक सीमित होकर रह गयी है और "बड़ा" भोज केवल उड़द के 'बड़े' तक आ चुकी है -अश्वमेध तो अब किताबों में ही हैं .....समय देश और काल का तकाजा है कि मुसलमान दिशा दर्शक अब आगे आयें और अपने यहाँ सामूहिक पशुवेध की परंपरा को बंद करें -ऊंटों की कुर्बानी तो अत्यंत वीभत्स दृश्य उत्पन्न करती है -कुर्बानी का मूल अर्थ जो है और जैसा शाह नवाज़ जी ने बताया है उसका अनुसरण क्यों नहीं किया जाय? त्याग और आत्म बलिदान की -बिचारे निरीह पशु क्यों इस सनक के शिकार बनें! .
      कुर्बानी का अर्थ तो पशु अत्याचार कतई नहीं हो सकता -यह विकृत सिम्बोलिक परम्परा इतनी पुरानी होती गयी ,आश्चर्य है!
      शिल्पा जी बलि किस कानून से प्रतिबंधित है? आई पी सी या सी आर पी सी की कौन धारा? वैसे कानून को जन सहमति न होने पर उसका मखौल ही होता है .
      समाज की कुरीतियों पर क्या हिंदू क्या मुस्लमान सभी को आगे बढ़कर सकारात्मक कदम उठाना चाहिए -तभी हम एक बेहतर भविष्य और रहने योग्य धरती की कल्पना कर सकते हैं !

      3.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता27 अक्तूबर 2012 1:13 pm

      @ arvind mishra sir - this info is from the Internet - I am not sure about the authenticity of the same:

      1. "• Sections 428 and 429 of the Indian Penal Code make it illegal to maim or cause injury to any animal with a monetary value greater than Rs 10. "

      2. http://www.strawindia.org/STRAWPAGES/Laws-btm.htm

      3. http://www.peopleforanimalsindia.org/animal-protection-laws.html

      4. Q 30) Is slaughtering of animal apart from the slaughter house forbidden?
      A) Wherever there is a Government slaughter-house, the slaughter cannot be done anywhere else. If there is no government slaughter house in that area then killing can only take place in licenced slaughter houses which should be situated where they are not public nusisance and an environmental hazard. These slaughterhouses have to follow the Municipal Corporation laws and the ISI regulations. Lambs or any other animals cannot be slaughtered in slums, in roadside ramshackle meat shops or in dhabas or in private houses.

      4.
      सुज्ञ27 अक्तूबर 2012 5:59 pm

      "बिचारे निरीह पशु क्यों इस सनक के शिकार बनें!" कुर्बानी का अर्थ तो पशु अत्याचार कतई नहीं हो सकता -यह विकृत सिम्बोलिक परम्परा इतनी पुरानी होती गयी ,आश्चर्य है!" "समाज की कुरीतियों पर क्या हिंदू क्या मुस्लमान सभी को आगे बढ़कर सकारात्मक कदम उठाना चाहिए -तभी हम एक बेहतर भविष्य और रहने योग्य धरती की कल्पना कर सकते हैं !"

      डॉ अरविन्द मिश्रा जी से शब्दशः सहमत!!

      5.
      सुज्ञ27 अक्तूबर 2012 6:19 pm

      @ पूरे मांसाहारी परिवार में मैं अकेला निरामिष था और मेरा एक भाई मेरे साथ है.

      सलिल जी, आपकी इस सम्वेदनशील भावना के आगे नतमस्तक हूँ!!

      @ किन्तु परम्पराओं या रूढियों को व्यक्ति विशेष की राय से क्या अंतर पडता है!!

      बूंद बूंद से सागर भरता है और आद्र होने से किसी दूसरे को अन्तर पडे न पडे अपने नैत्र स्वच्छ अवश्य हो जाते है।

      हटाएं
    3. 6.
      Shah Nawaz27 अक्तूबर 2012 7:55 pm

      @ Arvind Mishra
      बिचारे निरीह पशु क्यों इस सनक के शिकार बनें! .
      कुर्बानी का अर्थ तो पशु अत्याचार कतई नहीं हो सकता -यह विकृत सिम्बोलिक परम्परा इतनी पुरानी होती गयी ,आश्चर्य है!

      अरविन्द जी पहली बात तो यह कोई सनक नहीं है.... भोजन करना और कराना मेरे समुदाय में तो कम से कम सनक नहीं ही कही जाती है... और यह कोई विकृत सिम्बोलिक परम्परा नहीं है बल्कि मेरे धर्म का हिस्सा है... और कम से कम हमें एक-दूसरे के धर्म की इज्ज़त करना सीखना चाहिए...

      फर्क बस इतना है कि आपको मांसाहार शब्द से नफरत हो सकती है और मुझे नहीं... क्यों अपनी सोच को दूसरों पर थोपने की ज़िद लिए हुए हैं?

      आपको बहुत सी राय इस्लामिक राय के खिलाफ होंगी और हमारी बहुत से राय आपके धर्म की राय के खिलाफ होंगी... तभी तो हम अलग-अलग धर्म के मानने वाले हैं... लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं आपके धर्म की बातों का मज़ाक उडाऊं या आप मेरी? क्या यह अच्छी बात हो सकती है?

      हटाएं
  4. उत्तर

    1. डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)26 अक्तूबर 2012 10:05 pm
      सादर अभिवादन!
      --
      बहुत अच्छी प्रस्तुति!
      इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (27-10-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
      सूचनार्थ!

      उत्तर
      1.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता27 अक्तूबर 2012 6:24 am
      आभार सर

      हटाएं
  5. उत्तर

    1. राष्ट्र प्रहरी27 अक्तूबर 2012 12:48 am
      नमस्ते शिल्पा जी
      बहुत हि सराहनीय कार्य हैं आपका कोटि कोटि धन्यवाद

      उत्तर
      1.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता27 अक्तूबर 2012 10:44 pm
      आभार आपका.

      हटाएं
  6. उत्तर

    1. प्रतिभा सक्सेना27 अक्तूबर 2012 6:25 am
      पुरानी मान्यताओं को नये संदर्भों में देखे जाने की ज़रूरत है !

      उत्तर
      1.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता27 अक्तूबर 2012 10:54 am
      ji , sach kah rhi hain aap... aabhaar .

      हटाएं
  7. उत्तर


    1. प्रवीण शाह27 अक्तूबर 2012 9:29 am
      .
      .
      .
      आदरणीय शिल्पा जी,

      आप एक विदुषी महिला हैं परंतु आपके आज के इस आलेख पर रचना जी की टिप्पणी की भावना से सहमत होना मुझे उचित लग रहा है।

      कुछ और बात करने से पहले स्पष्ट कर दूँ कि एक उच्च जीवन आदर्श के रूप में हर सम्भव हिंसा से बचने व यदि हिंसा अपरिहार्य हो, तो सूक्ष्म से सूक्ष्म, न्यून से न्यूनतम, अल्प से अल्पतम हिंसा का चुनाव होना चाहिये, इसमें संदेह नहीं... मैं स्वयं भी शाकाहारी बनने की राह पर हूँ...

      शाहनवाज सही कहते हैं कि 'अलग-अलग परिवेश में पालन, अलग-अलग मान्यताएं, अलग अलग किस्म का जीवन' हमारे विचारों का आधार तय करता है... अन्यथा न लें, तो निरामिष लेखक मन्डल पर ही एक नजर डाल लें, इसमें ब्राह्मणों व वैश्य/जैनों की बहुलता व दलित-अन्य वर्ण के हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाइयों का प्रतिनिधित्व न होना अनायास ही नहीं है...

      मेरा हमेशा से मानना रहा है और यह सही भी है कि हमारे धार्मिक विश्वास-आस्थाओं-परंपराओं को तर्क के तराजू पर तौल कर नहीं आंका जा सकता... क्या सही है और क्या गलत यह उद्घाटन व्यक्ति के अंतर्मन से होना चाहिये...

      हिंसा कई प्रकार की होती है, केवल जीव को काटना ही हिंसा नहीं है, वह वाचिक, लिखित व वैचारिक भी हो सकती है... यह आप मुझ से बेहतर समझ सकती हैं...

      धर्म के मामले में हम सभी को दूसरे के घर की सफाई करने का हक तभी है जब हमने अपना घर अच्छे से साफ कर लिया हो...

      मैं लिखना नहीं चाहता था पर जिस तरह आपने रचना जी की सही सलाह को सरसरे तौर पर खारिज किया है इसीलिये लिख रहा हूँ कि हिंसा अप्रत्यक्ष भी होती है... मतलब हमारे कर्मों-आचरण से यदि किसी को उसका देय नहीं मिलता और उसकी मौत हो जाती है तो यह भी हिंसा होती है...

      हम हिंदू अपनी धार्मिक आस्थाओं के चलते हर साल अरबों लीटर दूध मूर्तियों पर चढ़ा देते हैं, करोड़ों किलो देशी घी आग में जला देते हैं, अरबों लीटर तेल के दिये जला देते हैं, अरबों किलो खाद्म जिसमें फल, मेवे, गुड़, चावल, दालें, मिठाई, पान, सुपारी आदि अनेकों पदार्थ शामिल हैं, यज्ञ-महायज्ञ-हवन के नाम पर आग में फूंक देते हैं...यानी भोजन की बर्बादी करते हैं...

      और दूसरी ओर हमारे गरीब देश में करोड़ों बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, लाखों मर जाते हैं... इनका मरना अप्रत्यक्ष तरीके से की गयी हिंसा है... यह हिंसा निश्चित तौर पर जानवर को मारने में हुई हिंसा से बड़ी है... जिम्मेदार कौन है ?... आशा है आप इस पर भी प्रकाश डालेंगी...




      ...

      हटाएं
    2. 1.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता27 अक्तूबर 2012 10:14 am

      आदरणीय प्रवीण जी आपकी बात का भी उत्तर ऊपर रचना जी के कमेन्ट के उत्तर में लिख दिया है ।

      @ आशा है आप इस पर भी प्रकाश डालेंगी... ji prayaas karoongi jab samay milega... yahaa nahi, mere apne blog ret ke mahal par ...

      2.
      Arvind Mishra27 अक्तूबर 2012 12:36 pm

      "हम हिंदू अपनी धार्मिक आस्थाओं के चलते हर साल अरबों लीटर दूध मूर्तियों पर चढ़ा देते हैं, करोड़ों किलो देशी घी आग में जला देते हैं, अरबों लीटर तेल के दिये जला देते हैं, अरबों किलो खाद्म जिसमें फल, मेवे, गुड़, चावल, दालें, मिठाई, पान, सुपारी आदि अनेकों पदार्थ शामिल हैं, यज्ञ-महायज्ञ-हवन के नाम पर आग में फूंक देते हैं...यानी भोजन की बर्बादी करते हैं..."

      -काबिले गौर तक़रीर! मगर सामूहिक पशु हिंसा और बह भी बड़े जानवरों की -अब वो जमाना नहीं रहा -शिकार तक प्रतिबंधित हो गए हैं .दुनिया एक पर्यावरणीय संचेतना (कान्शेंस) से गुजर रही है ..हमें क्या हिन्दू क्या मुस्लिम अनुचित प्रथाओं का विरोध करना ही होगा!

      3.
      एक बेहद साधारण पाठक27 अक्तूबर 2012 1:31 pm

      इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

      4.
      Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता27 अक्तूबर 2012 1:44 pm

      @ aadarneey mishra sir -
      aabhaari hoon ki aapne pratha ke virodh ko hindu muslim issue se alag hone ko samjhaa aur maana

      @ sadhaaran paathak ji ?
      samajh nahi paayi aapne kya kahaa ?

      5.
      एक बेहद साधारण पाठक27 अक्तूबर 2012 1:50 pm

      मैं खुद नहीं समझ पा रहा ....एक तरफ तो प्रवीण जी ने कहा ...."हिंसा अपरिहार्य हो, तो सूक्ष्म से सूक्ष्म, न्यून से न्यूनतम, अल्प से अल्पतम हिंसा का चुनाव होना चाहिये, इसमें संदेह नहीं." फिर अप्रत्यक्ष हिंसा की बात कर रहे हैं .. और सबसे अजीब बात यज्ञ को उससे जोड़ दिया है

      6.
      एक बेहद साधारण पाठक27 अक्तूबर 2012 2:24 pm

      @अनुचित प्रथाओं का विरोध करना ही होगा!

      काश मिश्र जी की तरह सभी लोग सोचते होते, लेकिन ऐसा नहीं होता अक्सर

      7.
      Smart Indian - स्मार्ट इंडियन27 अक्तूबर 2012 6:34 pm

      @ एक उच्च जीवन आदर्श के रूप में हर सम्भव हिंसा से बचने व यदि हिंसा अपरिहार्य हो, तो सूक्ष्म से सूक्ष्म, न्यून से न्यूनतम, अल्प से अल्पतम हिंसा का चुनाव होना चाहिये, इसमें संदेह नहीं... मैं स्वयं भी शाकाहारी बनने की राह पर हूँ...

      - बहुत पते की बात कही है, आपका मार्ग निष्कंटक हो!

      हटाएं
    3. 8.
      सुज्ञ27 अक्तूबर 2012 6:53 pm

      @ मैं स्वयं भी शाकाहारी बनने की राह पर हूँ...

      आदरणीय प्रवीण जी, निरामय शुभकामनाएँ अर्पण करता हूँ!! और प्रणाम !!

      @ इसमें ब्राह्मणों व वैश्य/जैनों की बहुलता व दलित-अन्य वर्ण के हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाइयों का प्रतिनिधित्व न होना अनायास ही नहीं है...

      आपकी बात शतप्रतिशत सही है अहिंसा, जीवदया के मामलों में यह अधूरापन हमें भी बहुत खलता है। आकांशा है बिना जात-पात धर्म-पंथ के मात्र 'मानव-समूह' की तरह पहचाने जाय और समग्र सृष्टि के लिए मानवीयता उद्देश्य हो।

      @ मेरा हमेशा से मानना रहा है और यह सही भी है कि हमारे धार्मिक विश्वास-आस्थाओं-परंपराओं को तर्क के तराजू पर तौल कर नहीं आंका जा सकता... क्या सही है और क्या गलत यह उद्घाटन व्यक्ति के अंतर्मन से होना चाहिये...

      आपका यह कथन आपके ज्ञात व्यवहार का विरोधाभासी है, आपके समग्र ब्लॉग पर ईश्वर, धर्म, धर्मग्रंथ और आस्थाओं की तर्क के माध्यम से खुलकर बखिया उधेडी गई है। इन चीजों को भांडने का आपने कोई अवसर नहीं खोया। आस्थाओं को खारिज करने का तर्क ही हथियार होता है और आपने तर्क के आधार पर आंका ही नहीं और न अपने अंतर्मन तक सीमित रखा बल्कि प्रसारित भी किया है। खैर आपके उक्त व्यवहार पर आपत्ति नहीं, यदि हमें लगता हो धारणाएं गलत है कुरितियाँ है, मन्तव्य प्रकट होने ही चाहिए, आगे चल कर वे अंध-आस्थाएं साबित हो तो दूर की जा सके।

      हटाएं
    4. मित्र प्रवीण की करवाचौथ के विशेष अवसर पर लिखी पोस्ट पढी

      http://praveenshah.blogspot.com/2012/11/blog-post.html

      यहाँ पर पाठकों के विचारों में परिवर्तन की झलक देखिये

      http://mypoeticresponse.blogspot.in/2012/10/blog-post_26.html

      ऐसा लगता है कमेन्ट ब्लॉग पोस्ट पर नहीं लेखक/लेखिका के हिसाब से किये जाते हैं

      हटाएं
  8. उत्तर

    1. सुज्ञ27 अक्तूबर 2012 5:12 pm
      समसामायिक जागृत्तिप्रेरक प्रश्नावली!! समय अनुसार इसलिए कि जब घटनाएँ आदि प्रकट होती है रूढ़ि निवारण चेतना तभी कारगर होती है। अन्यथा लाख जागृत्ति लाओ, बेमौसम बरसात की तरह है। पता नहीं इस द्रह से कितना पानी बह चुका, किन्तु यदि इन प्रयासो से प्रत्येकबार दिलों में एक कण समान भी परिवर्तन आया शुभ ही होगा। वह बड़ी सफलता होगा।

      इसे धर्म या दुर्भावना की तरह देखना ही दुर्भाग्यपूर्ण है। यहाँ धर्म नहीं, प्रथा व रूढ़ि पर बात की गई है। बात अलग-अलग परिवेश में पालन, अलग-अलग मान्यताएं अलग-अलग आस्थाएँ आदि की भी हो तब भी कुप्रथाएं कुरीतियों को प्रकाश में लाना कैसे गलत हो गया? कोई भी जाति धर्म परिवेश हो उनकी कुरीतियाँ इंगित करने को सप्रयोजन दुर्भावना कौन कहेगा, या तो जिन्हें कुरितियाँ रूढ़ बनाए रखने की चाह हो या आस्था के नाम पर सुधारवाद को धमकाने की मंशा।

      शिल्पा जी आपकी बात से सहमत हूँ कि प्रथा के विरोध और धर्म के विरोध में बड़ा भारी अन्तर होता है। आपके जैसा सौहार्द में मानने वाला किसी भी धर्म की निंदा नहीं कर सकता। यह प्रश्नावली स्पष्ट रूप से प्रथा पर प्रश्न है जो किंचित भी दुर्भावना प्रेरित नहीं है।

      हटाएं
  9. उत्तर

    1. Vinay Prajapati27 अक्तूबर 2012 6:14 pm
      Such a beautiful post...

      Make Blog Index: All Posts at 1 Page

      हटाएं
  10. उत्तर
    1. Shah Nawaz27 अक्तूबर 2012 8:00 pm

      @Arvind Mishra

      हमें क्या हिन्दू क्या मुस्लिम अनुचित प्रथाओं का विरोध करना ही होगा!

      क्योंकि मेरी मान्यताएं इस्लाम धर्म के एतबार से हैं इसलिए मुझे आपकी सभी प्रथाएँ अनुचित लगेंगी और आपकी मान्यताएं हिंदू या किसी और धर्म के एतबार से हैं तो आपको इस्लाम की सभी प्रथाएं अनुचित ही लगेंगी...

      तो क्या करेंगे ऐसे में? विरोध-विरोध खेलेंगे क्या?

      हटाएं
    2. 1.
      सुज्ञ28 अक्तूबर 2012 8:36 am

      विरोध-विरोध खेलते हुए स्वच्छता के लिए स्नान करेँ. तेरी पीठ का मैल तुझे नही दिखता मेरी पीठ का मैल मुझे नही दिखता. आपनी-अपनी पीठ तक अपने हाथ भी नही पहुँचते! यह खेल उपयोगी हो सकता है स्नान इच्छुक एक दूसरे पर विश्वास धरे और एक दूसरे की पीठ मल दे.
      :)

      (.....वातावरण को थोडा हल्का फुलका बनाने के लिए :))

      हटाएं
  11. उत्तर

    1. Shah Nawaz27 अक्तूबर 2012 8:15 pm

      हालाँकि मैंने इस्लामिक मत ऊपर स्पष्ट किया था, फिर भी एक बार फिर से दोहरा देता हूँ.... जिससे समझने में आसानी रहे....

      इस्लामिक मत के अनुसार ईश्वर ने भोजन तथा अन्य इंसानी ज़रूरतों के लिए पेड़-पौधे तथा पशुओं को बनाया है यहाँ तक कि दोनों ही जानवरों की कैटेगरी में आते हैं... अर्थात इस्लाम के अनुसार भोजन के लिए शाकाहार या मांसाहार में फर्क नहीं है, क्योंकि दोनों को ही मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति मात्र के लिए बनाया गया है...

      कुर्बानी क्या है?

      इसमें बहुत सी अन्य दलीलों के अलावा एक बात यह भी है कि इन तीनो ही तरीकों में कोई भी मर्द / औरत चाहता / चाहती तो उसके द्वारा अपने जानवर अथवा पैसे को खुद अपने काम में प्रयोग किया जा सकता था। लेकिन उसने अपने अन्दर के लालच को कुर्बान करके अपने घरवालो, गरीब रिश्तेदारों तथा अन्य गरीबों को लिए भोजन की व्यवस्था की।

      अगर बात कुर्बानी के तरीके की जाए तो यह जान लेना आवश्यक है कि मुसलमान हर एक धार्मिक कार्य पैगम्बर मुहम्मद (स.) के तरीके पर करते है, जिसे कि सुन्नत अथवा सुन्नाह कहा जाता है। और सुन्नत के अनुसार अन्य तरह के आयोजनों में भोजन के लिए मांसाहार अथवा शाकाहार दोनों में से किसी भी तरीके को अपनाया जा सकता है, लेकिन ईद-उल-ज़ुहा (बकराईद) के मौके पर कुर्बानी में केवल कुछ जानवरों के मांस को ही भोजन के लिए प्रयोग करने की इजाज़त है और वह भी कुछ शर्तों के साथ।

      साथ ही यह बात भी जान लेना आवश्यक है कि इस्लाम में जानवरों और पेड़-पौधों पर खासतौर पर रहम और मुहब्बत का हुक्म है और भोजन जैसी आवश्यकता को छोड़कर उनका वध करना वर्जित है। यहाँ तक कि इसको बहुत बड़ा गुनाह और नरक में पहुंचाने वाला बताया गया है। बल्कि पेड़ों को पानी डालना तथा प्यासे जानवर को पानी पिलाने जैसे कामों के बदले में बड़े-बड़े गुनाहों को माफ़ करने जैसे ईनाम है।

      हटाएं

    2. Arvind Mishra28 अक्तूबर 2012 7:22 am

      शाह नवाज़ भाई,
      मुझे अपना दृष्टिकोण कुछ और स्पष्ट करना होगा .सबसे पहले यह कि मैं किसी भी तरह की ईशनिंदा या धर्म विरोध का पक्षधर नहीं हूँ -हिन्दू हूँ किन्तु अज्ञेयवादी (अग्नास्टिक) या कह सकते हैं नास्तिक हूँ . दुनिया के सभी धर्म मूलतः श्रेष्ठ हैं ,इस्लाम ने भी मानवता को बहुत सी अच्छी सीखें और विचार दिए हैं .किन्तु सभी धर्म समय के अनुसार बहुत सी नासमझी और गलतियां ओढ़ते गए हैं -अपनी चादर मैली करते गए हैं -हिन्दू धर्म में कभी हजारों अश्वों की एक साथ बलि दे दी जाती थी ,वैदिक काल घोर हिंसा से भरा था ...यहाँ तक कालांतर तक लोग उस हिंसा को वैसे ही जस्टीफाई(वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति ) करते थे जैसा कि आप प्राण पण से कर रहे हैं -इसलिए ही हिंसा की प्रतिक्रया स्वरुप एक महान धर्म का उदय हुआ -बौद्ध धर्म और इसने भी दुनिया को अहिंसा ,प्रेम और शान्ति का सन्देश दिया -यह एक नास्तिक धर्म है ,मूर्ति पूजा का यह भी विरोध करता है मगर मजे की बात देखिये कि आज इसके अनुयायी विशाल और भव्य मूर्तियाँ बना रहे हैं -बुद्ध की विशाल प्रतिमाएं ही तालिबानियों ने पहले तोडीं -धर्मों के बीच के ये सारे आपसी झगड़ें मूर्ख मुल्लों और पंडितों ने रचे बनाए हैं ....इसी में से एक कुर्बानी है जो कुछ और नहीं बस वैदिक काल की वीभत्स पशु हिंसा ही है -मुझे तो कभी कभी लगता है कि कालांतर की कुछ तिरस्कृत वैदिक विचार और परम्पराएं ही इस्लाम में प्रश्रय पा गयी हैं ,
      आज पूरी दुनिया में सह अस्तित्व की एक पारिस्थितिकीय सोच परिपक्व हो रही है . यह भी हमारी एक मूल सोच का ही आधुनिक प्रस्फुटन है -आज पेटा जैसी संस्थायें -(पीपुल फार एथिकल ट्रीटमेंट टू एनिमल्स) आज पशु हिंसा का प्रबल विरोध करती हैं -और यह उचित भी है -इस धरती पर सभी प्राणियों का सह अस्तित्व है -हम स्वर्ग से धरती पर नहीं उतारे गए हैं बल्कि हमारा जैविक विकास हुआ है -ये सारे जीव जंतु एक तरह से हमारे आदि पूर्वजों की ही वर्तमान पीढियां हैं . नैतिकता तो यही कहती है कि हम इन्हें न मारें -जीवा हत्या न करें .किन्तु जैसा कि प्रवीण शाह जी कहा कि जीविकोपार्जन के लिए सूक्ष्म से सूक्ष्मतर मांसाहार में बुराई नहीं है -किन्तु उसका आडम्बर पूर्ण प्रदर्शन बिलकुल भी उचित नहीं है -और हाँ छोटे जीवों और बड़े जीवों के प्रति भी मानवीय संवेदना का फर्क होना चाहिए .
      बड़े स्तनपोषी हमारे अधिक जैवीय करीबी है .उन्हें मारने में सहजतः एक विकर्षण भाव होना चाहिए मगर धर्म का लफडा देखिये -इस कृत्य का भी उत्सवीकरण शुरू कर दिया ....यह हमारा ही कर्तव्य है कि हम कठमुल्ले या पोंगा पंडित ही न बने रहें बल्कि अपने धर्मों का निरंतर परित्राण करते रहें -
      दुनिया के लगभग सभी धर्मों में एक अपरिहार्य सी बुराई घर कर गयी है -सभी बेहद जड़ हैं -कोई गति नहीं हैं उनमें -बस लकीर का फ़कीर बने हुए हैं जबकि विज्ञान कितना गतिशील है -आज आवश्यकता इस बात की है कि हम विज्ञान के नजरिये को अपना कर अपने धर्मों की कालिख और बुरी परम्पराओं का प्रक्षालन करें -यह मानवता का एक साझा कर्तव्य है -यहाँ धर्मों की श्रेष्ठता की कोई लड़ाई नहीं है -मैं हिन्दू धर्म की अनेक बुराईयों को सुनने और प्रतिकार करने को तैयार हूँ . किन्तु क्या आप भी तैयार हैं शाहनवाज़ भाई ?

      हटाएं
  12. उत्तर

    1. Arvind Mishra28 अक्तूबर 2012 7:36 am

      मैं देख रहा हूँ कि यहाँ बस बहस के लिए ही अब बहस हो रही है जो अनर्गल और अनुत्पादक है -ठीक है पेड़ पौधों में भी जान है और मनुष्य में भी जान है -तो क्या मनुष्य भी भोज्य बन जाना चाहिए ? कुछ धर्म नरमेध को भी उचित मानते रहे -शुक्र है अब आख़िरी साँसे ले रहे हैं . किसी भी धर्म को अगर अपने श्रेष्ठ मूल्यों को बचाए रखना है तो उसे समय के साथ आ रही बुराईयों को पहचानना और प्रतिकार भी करना होगा .....और यह जितना ही शीघ्र हो उतना ही अच्छा .आज यह कितना दुखद है कि मानवता के बीच की कितनी ही खाइयां धर्मों ने तैयार की है -जहां हम अच्छे मित्र हैं ,सहपाठी हैं ,एक जगह काम करने वाले सहकर्मी हैं ,ब्लॉगर हैं -सब ठीक है मगर जैसे ही हम हिन्दू और मुसलमान होते हैं परले दर्जे के अहमक बन जाते हैं ....आखों के आगे पर्दा पड़ जाता है -गार धर्मों का यही यही उत्स है तो ऐसा कोई धर्म भी मुझे स्वीकार नहीं है. आईये हम सभी यहाँ धर्मों की बजाय अपने स्वतंत्र विचारों को प्रस्फुटित होने का मौका दें!

      हटाएं
  13. क्षमा करें! बात दूसरी दिशा में जा रही है इसलिये आना पड़ा। हम धर्म को लेकर बहुत भ्रमित हैं। धर्म यदि जीवन की आचरण संहिता है तो एक भौगोलिक वातावरण में एक ही धर्म हो सकता है, कई धर्म होंगे तो अपनी-अपनी भौगोलिक परिस्थितिजन्य मान्यताओं के अनुरूप आवश्यकताओं को एक-दूसरे पर थोपने का प्रयास करेंगे जो निश्चित ही टकराव का कारण बनेगा। यह भी समझना होगा कि धर्माचरण परिवर्तनशील हैं ...उनमें निरंतर परिमार्जन होना चाहिये...हठधर्मिता धर्म को रूढ़ और विकृत करती है। हिन्दू धर्म में आयी विकृतियों का समय-समय पर परिमार्जन होता रहा है.. यहाँ तर्क और विमर्ष को सदा स्थान मिलता रहा है। लकीर के फ़कीर होना किसी भी समाज को कट्टर और अस्वीकार्य बनाता है। इसीलिये हिन्दू धर्म की कुरीतियों पर प्रहार को कभी जड़्तापूर्ण विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। बात कुर्बानी की चल रही थी, तो कुर्बानी जीवन के आचरण से जुड़ी चीज होनी चाहिये। जब किसी बात को जीवन से जोड़ते हैं तो उसे प्रतीकात्मक नहीं अपितु यथार्थ में व्यवहार्य होना चाहिये ...तभी उसकी सार्थकता है अन्यथा वह पाखण्ड है। दूसरों के हित के लिये अपने स्वार्थ का परित्याग ही कुर्बानी है, इसके अतिरिक्त भी इसका कोई अर्थ है तो वह मुझे नहीं पता। जहाँ तक वनस्पतियों और प्राणियों में जीवनीय तत्व को अभेद्य देखते हुये सभी को समान रूप से अपने हित के लिये उपयोग में लाने की बात है तो यह तर्क किसी भी दृष्टिकोण से व्यवहार्य और स्वीकार्य नहीं है। यह दृष्टिकोण प्राणिमात्र के लिये...पर्यावरण के लिये और मनुष्य समाज के लिये अत्यंत घातक है। शायद यही दृष्टिकोण है जिसके कारण औरंगज़ेब जैसे लोगों ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और लिप्सा की पूर्ति के लिये सगे रक्त संबंधियों की निर्मम हत्या करने में भी धर्म की अनुकूलता ही देखी। बीज रूप में यही मानसिकता आतंकवाद के रूप में प्रस्फुटित और पल्लवित होती है जिससे आज पूरा विश्व विचलित, परेशान और पीड़ित हुआ है। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि मांसाहारी अन्यधर्मी लोग मांसाहार को धर्म से जोड़कर न्यायसंगत ठहराने की कुचेष्टा नहीं करते, इसलिये मांसाहार को लेकर उनका आचरण उचित न होते हुये भी इतना ख़तरनाक नहीं है। अब बात करते हैं हिन्दू धर्म में बलिप्रथा आदि की- तो इसका सुधारवादियों द्वारा विरोध न हुआ हो और अंत में परिमार्जन न हुआ हो ऐसा तो कहीं देखने में नहीं आता। भोजन के लिये जीव हत्या किसी भी संवेदनशील मनुष्य के लिये किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है फिर वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो।
    विमर्ष में एक बात और भी सामने आयी कि हिन्दुओं में मांसाहार का विरोध करने वालों में ब्राह्मण जैसी कुछ चन्द जाति के लोग ही हैं ....शेष हिन्दू नहीं। इसमें दो बाते हैं, पहली यह कि जो जातियाँ मांसाहार के लिये जीवहिंसा को अनुचित मानती हैं निश्चित ही तमाम सामाजिक अधोपतन के पश्चात् भी उनके चिंतन का स्तर उत्कृष्ट और सुधारवादी होना प्रमाणित स्वीकार किया गया है। दूसरी यह कि बहुसंख्य हिन्दू यदि मांसाहार के पक्षाधर हैं तो केवल संख्या के आधार पर ही उनके पक्ष को सनातन सत्य स्वीकार नहीं किया जा सकता। मांसाहार और जीव हिंसा का विरोध केवल मुस्लिमों के लिये नहीं ...सभी के लिये है । आजकल तो पश्चिमी देशों के लोग भी मांसाहार के विरोध में उठकर खड़े हो गये हैं।
    जहाँ तक इसेंशियल अमीनो एसिड्स की बात है तो यह आवश्यकता तो अन्य शाकाहारी प्राणियों की भी है पर वे इसके लिये मांसाहार नहीं करते। इस बारे में अभी आधुनिक विज्ञान को और शोध की आवश्यकता है कि आख़िर शाकाहारियों को इनकी पूर्ति कहाँ से होती है।
    कुल मिलाकर हम मांसाहार को धर्म से जोड़कर तर्कसंगत ठहराये जाने की मानसिकता को उचित नहीं मानते।

    जवाब देंहटाएं

  14. महत्वपूर्ण ,मौजू मुद्दा उठाया है .


    बकरी पांति खात है ,ताकी मोटी खाल ,

    जे नर बकरी खात हैं ,तिनको कौन हवाल .

    जवाब देंहटाएं
  15. अति सार्थक सुन्दर प्राणि मात्र के प्रति प्रेम से आप्लावित आवाहन .

    महाशिवरात्रि भी शिव लिंग पर अपने दुर्गुण चढ़ाने का पर्व है ,ईदुल जुहा भी .कुबानी दुर्व्यसनों की कीजिए सिगरेट और मयखोरी की कीजिए ,देहखोरी की कीजिए किसी देही की बलि

    क्यों ?
    ram ram bhai
    मुखपृष्ठ

    रविवार, 28 अक्तूबर 2012
    तर्क की मीनार

    http://veerubhai1947.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  16. कबीरा तेरी झौंपडी गलकटियन के पास ,

    करेगें सो भरेंगे ,तू क्यों भयो उदास .

    दिन में माला जपत हैं ,रात हनत हैं गाय .

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  17. (मूर्ति ,कर्तव्य ,ईश्वर ,) गॉड पार्टिकिल अन्य कणों को द्रव्यमान (मॉस ) उपलब्ध करवाता है .विज्ञान ने ईश्वर को कभी नहीं नकारा ,यहाँ आस्था का स्वरूप भिन्न है बस .सत्य का अन्वेषण है ईश्वर .अनवरत अन्वेषण अनथक .

    कुर्बानी अपने दुर्गुणों की ,सबसे बड़ी कुर्बानी मानी गई है रमादान के दौरान भी रोज़ा सिर्फ शरीर का नहीं है मन की पवित्रता का भी है ,सु -विचार का भी है .

    सेहत के हिसाब से आज शाकाहार ही सारी दुनिया के लिए निरापद माना जा रहा है .कैंसर समूह के रोग रेड मीट के सेवन से जुड़े हैं .दीर्घावधि अध्ययनों से यह संपन्न हुआ है .ख़ास कर बड़ी आंत का कैंसर जो रेड मीट खाने वाले ब्रितानी लोगों में सर्वाधिक मिला है .

    अलबत्ता धार्मिक मान्यताएं (भले रूढ़ हो गईं हों )सभी धर्मों में हैं .



    मकसद कुर्बानी शब्द की व्याख्या है .कुरआन या मोहम्मद साहब के कहे बताये की नहीं है

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  18. आपके उदाहरन मे .जिसने भि कुरबानि दि है,वो खुद अपनि इच्छा से दि है खुद कि कुरबानि,दुसरे कि द्वारा मारा जाना कुर्बानि नहि होति

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