सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

पौष्टिक, आरोग्यप्रद और रेशा समृद्ध शाकाहार


जीवन का  सेहत भरा तरीका
सभी चोकर सहित अनाज व दालें, ताज़े फल,
मेवे और सब्ज़ियाँ आहार-रेशों के प्रमुख स्रोत है।
पोषण ऐसा विज्ञान है जो प्रकृति एवं भोजन में पौष्टिक तत्वों के वितरण, उनके उपापचयी प्रभाव और अपर्याप्त खाना खाने के परिणामों से संबंधित है। पौष्टिक तत्व भोजन में पाए जाने वाले वे रासायनिक यौगिक हैं जो भोजन में अवशोषित होकर स्वास्थ्य को बेहतर बनाते हैं। कुछ ऐसे आवश्यक पौष्टिक तत्व होते हैं जिन्हें हमारा शरीर संश्लिष्ट नहीं कर सकता। उनकी आपूर्ति आहार के द्वारा ही की जानी चाहिए।

आवश्यक पौष्टिक तत्वों में विटामिन, खनिज पदार्थ, एमिनो अम्ल, वसीय अम्ल और ऊर्जा के स्रोत के रूप में कुछ कार्बोहाइड्रेट शामिल हैं। अनावश्यक पौष्टिक तत्व वे होते हैं जो शरीर अन्य यौगिकों से संश्लिष्ट कर सकता है तथापि वे आहार से भी व्युत्पन्न किए जा सकते हैं। पौष्टिक तत्व आमतौर पर वृहत पौष्टिक तत्वों और सूक्ष्म पौष्टिक तत्वों में विभाजित किए जा सकते हैं। वृहत पौष्टिक तत्व आहार और ऊर्जा की आपूर्ति संगठित करने के साथ-साथ शरीर के विकास और उसके विभिन्न क्रियाकलापों के लिए ज़रूरी पौष्टिक तत्व बनाते हैं। कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन, सूक्ष्म खनिज तत्व और पानी वृहत पौष्टिक तत्व हैं। सूक्ष्म पोषक तत्वों में विटामिन (पानी और वसा दोनों में घुलनशील) और आवश्यक सूक्ष्म खनिज तत्व शामिल होते हैं। इन पौष्टिक तत्वों की पर्याप्त आपूर्ति अच्छे स्वास्थ्य, कार्यात्मक दक्षता एवं उत्पादकता के लिए बुनियादी मूलभूत ज़रूरत है। पर्याप्त मात्रा में पौष्टिक भोजन करने से पौषणिक स्थिति बढ़ती है और उसके फलस्वरूप मनुष्यों की सेहत अच्छी रहती है।

पौष्टिक और पर्याप्त भोजन वह होता है जो शरीर की ज़रूरतों के अनुसार सभी पौष्टिक तत्व उपलब्ध कराता है। संतुलित आहार के जरिए अच्छा पोषण मिलता है जिससे आवश्यक और अनावश्यक पौष्टिक तत्व सही व संतुलित रूप में शरीर को मिलते हैं। उच्च स्तर के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए ऐसा होना बहुत ज़रूरी है। पोषण न सिर्फ समुचित शारीरिक विकास के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि यह पर्याप्त प्रतिरक्षा क्षमता और ज्ञानात्मक विकास भी सुनिश्चित करता है।

शाकाहारी आहार अधिक पौष्टिक होते हैं। पादप उत्पाद जटिल कार्बोहाइड्रेट (आहारीय रेशे), B- कैरोटीन जैसे विटामिन, विटामिन E , एक्रोबिक अम्ल, थियामिन, राइबोफ्लेविन और फोलिक अम्ल तथा अनेक खनिज पदार्थ विशेषरूप से लोहा, कैलशियम, सोडियम, पोटेशियम और आयोडीन का समृध्द स्रोत होते हैं। वे पादप रसायनों और एंटी-ऑक्सीडेंट्स का भी समृध्द स्रोत होते हैं। इसके अतिरिक्त, पादप मूल के ज्यादातर खाद्य पदार्थों में (तेल और तिलहनों को छोड़कर) वसा की अधिक मात्रा नहीं होती है और इनमें मौजूद वसा अपाश्चुरीकृत वसीय अम्लों- MUFAs और PUFAs में समृध्द होते हैं जो अच्छी सेहत बनाए रखने के लिए भी ज़रूरी होते हैं। उनमें से कुछ आवश्यक वसीय अम्ल के नाम से जाने जाते हैं। शाकाहारी खाद्य पदार्थों में कोलेस्टेरॉल नहीं होता है। शाकाहार रक्त में कोलेस्टेरॉल के स्तर को सामान्य सीमा में रखता है और हृदय धमनी की बीमारियों से बचाने में मदद कर सकता है।

जिगर हमारे शरीर में कोलेस्टेरॉल संश्लेषण का प्रमुख स्थान है। जिगर में संश्लिष्ट कोलेस्टेरॉल का कुछ अंश पित्त अम्लों और पित्त लवणों में मिल जाता है। भोजन को पचाने और उसके अवशोषण में मदद करने के लिए आंत में उपस्थित पित्त भोजन को पचाने में मदद करता है । भोजन के पचने के बाद वह जिगर में जाता है जहां उसे फिर से अवशोषित किया जाता है।आहारीय रेशे इस चक्र को बाधित करते हैं ताकि पित्त लवण को फिर से आंत में अवशोषित होने से बचाया जा सके। इसलिए ये बिना पचे भोजन के साथ मलोत्सर्जित हो जाते हैं। रेशे कोलेस्टेरॉल उत्सर्जन को बढ़ाते हैं और जिगर में कोलेस्टेरॉल की उपलब्धता भी कम करते हैं ताकि संचरित रक्त में कोलेस्टेरॉल समृध्द कण (लाइपोप्रोटीन) मिलाएं जा सकें।

हाल ही में यह भी प्रस्तावित किया गया है कि आंत्रिक विषाणु के जरिए रेशों का किण्वन होता है जिसके फलस्वरूप शॉर्ट चेन वसीय अम्ल (SFAcs) बनते हैं जो जिगर में कोलेस्टेरॉल संश्लेषण को बाधित कर सकते हैं। इससे इस तथ्य को बल मिलता है कि साबुत अनाज, दलहन (छिलके सहित) और अनेक फल और सब्जियां आहारीय रेशे का समृध्द स्रोत होते हैं। इसके अतिरिक्त फल और सब्जियां बी- कैरोटीन, विटामिन ई, विटामिन सी, और पादप रसायनों का समृध्द स्रोत होते हैं जिनमें एंटीऑक्सीडेंट गुण होते हैं यानी वे रक्त कोलेस्टेरॉल के ऑक्सीकरण को रोकते हैं। यह कोलेस्टेरॉल का मुख्य रूप है जो हमारी धमनियों की भित्तियों में जमा हो जाते हैं। ये कार्डियो प्रोटेक्टिव एजेंट भी मुक्त मूलभूत तत्वों के कारण कोशिका क्षति को रोकते हैं और इसलिए कोशिका का जीवन बढ़ाने में मदद कर सकते हैं।

शाकाहारी आहार मधुमेह के उपचार/नियंत्रण में भी मदद कर सकता है। आहारीय रेशे पित्त से ग्लूकोज अवशोषण की दर को नियंत्रित करते हैं और इस प्रकार भोजन के बाद रक्त ग्लूकोज में अत्यधिक वृध्दि नहीं होने देते। भोजन करने के दौरान रक्त ग्लूकोज में तेजी से कमी को भी रोका जा सकता है क्योंकि रेशे गैस को जल्दी नहीं निकलने देते। क्रोमियम और कुछ विशिष्ट विटामिन संशोधित इंसुलिन क्षमता से संबंधित पाए गए हैं। इस प्रकार, शाकाहारी आहार ग्लूकोज सहनशीलता बढ़ाने और विशिष्ट रोगियों में औष्धियों व इंसुलिन की ज़रूरत को कम करने में मदद करते हैं।

शाकाहारी आहार कैंसर रोग का जोखिम कम करने में भी मदद कर सकता है क्योंकि आहारीय रेशे अनेक रयायनों और विषैले एजेंट से लिपट जाते हैं और फलस्वरूप उनको मलोत्सर्जन के रास्ते बाहर निकाल देते हैं। अनेक विटामिन और खनिज पदार्थ भी कोशिका भित्ति की अखंडता बनाए रखने में मदद करते हैं। वे डीएनए और आरएनए जैसी कोशिका के विभिन्न अवयवों को क्षतिग्रस्त होने से बचाते हैं जिनसे टयूमर बनने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है।

पादप खाद्य पदार्थों का उपभोग उच्च रक्त चाप की आशंका को भी कम करता है। पादप खाद्य पदार्थों में मौजूद रेशे आहारीय सोडियम की कुछ मात्रा से लिपट जाते हैं और फलस्वरूप मलोत्सर्जन के जरिए उसे बाहर निकाल देते हैं। पादप खाद्य पदार्थों में पाश्चुरीकृत वसा कम होती है और कोलेस्टेरॉल नहीं होता इसलिए ये रक्त कोलेस्टेरॉल को बढ़ने से रोकते हैं। अतिकोलेस्टेरॉलरक्तता के फलस्वरूप धमनियों में कोलेस्टेरॉल जमा हो जाता है जो अप्रत्यक्ष रूप से रक्त चाप बढ़ने का कारण बनता है। शाकाहारी भोजन संतृप्ति का पूरा अहसास देता है और यह वजन काबू में रखने में भी मददगार है।

शोध अध्ययनों से संकेत मिलते हैं कि चार सप्ताह की अवधि तक आहार में रोजाना 15 ग्राम ग्वार गम ( क्लस्टर बीन्स के बीज से प्राप्त) जैसे घुलनशील रेशे शामिल करने से कुल कोलेस्टेरॉल को 13 प्रतिशत कम करने तथा भोजनोत्तर रक्त ग्लूकोज को 21 प्रतिशत कम करने में मदद मिल सकती है। गेंहू के आटे के बदले साबुत बंगाली चने के 50 ग्राम बेसन के उपभोग से कुल कोलेस्टेरॉल को 6.2 प्रतिशत कम करने में सहायता मिल सकती है। सोया आटे और जई के चोकर के अनुपूरकों के मामले में भी ऐसे ही सकारात्मक प्रभाव देखे गए हैं।

हालांकि विशुध्द रूप से शाकाहारी आहार ( जिसमें दूध और दूध उत्पाद शामिल न हों ) में प्रोटीन कम होती है। पादप खाद्य पदार्थों में प्रोटीन का प्रमुख स्रोत दलहन और गिरीदार फल हैं। मोटे अनाज सामान्य स्रोत हैं जबकि फल और सब्जियों में बहुत कम प्रोटीन होता है। इसके इसलिए आहार में प्रोटीन की पर्याप्त मात्रा सुनिश्चित करने के लिए कम से कम 2-3 सर्विंग साबुत दलहन और कुछ गिरी (बादाम) जरूर खानी चाहिए। साबुत दलहनों को अंकुरित करके, मोटे अनाजों और दलहनों को मिलाकर लेने तथा मोटे अनाजों और दलहनों को खमीर उठा कर उपयोग में लाने से प्रोटीन की जैव-उपलब्धता बढ़ाने में मदद मिल सकती है और इस प्रकार आहार को संतुलित बनाने में सहायता मिल सकती है। शाकाहारवाद सेहत के लिए कई तरह से फायदेमंद है। मौजूदा रहन सहन और आहार संबंधित त्रुटियों के मद्देनजर अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए शाकाहार को अपनाना अच्छा विकल्प है।
••स्वतंत्र लेखक : डॉ. संतोष जैन पासी

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

शाकाहारी था प्रागैतिहासिक मानव

लंदन। नेशनल अकादमी आफ साइंसेज जर्नल में कल प्रकाशित अनुसंधान रिपोर्ट के मुताबिक पुरापाषाण काल के यूरोपीय आलू जैसे किसी शाक को पीस कर आटा बनाते थे और बाद में इसमें पानी मिला कर इस आटे को माढ लेते थे। अनुसंधानकर्ताओं में शामिल इटालियन इंस्टीटयूट आफ प्रिहिस्ट्री एडं अर्ली हिस्ट्री की खोजकर्ता लाउरा लोन्गो ने बताया कि यह बिल्कुल चपटी रोटी के जैसा होता था। उन्होंने कहा कि इसे गर्म पत्थरों पर सेंका जाता था, जो पकने के बाद करारी तो भले होती थी, लेकिन बहुत स्वादिष्ट नहीं होती थी। किसी वयस्क की हथेली में लगभग समा जाने वाले और पीसने के काम में आने वाले पत्थर इटली, रूस और चेक गणतंत्र में पुरातात्विक जगहों पर मिले हैं। करीब 30 हजार वर्ष पुराने पत्थरों पर खाद्यान्न के टुकडे पाए गए हैं। रोटी से पुराना है नाता इससे पहले इजरायल में मिले 20 हजार वर्ष पुराने पत्थरों पर खाद्यान्न मिलने के बाद यह अनुमान लगाया गया था कि पहली बार आटे का इस्तेमाल 20 हजार वर्ष पहले किया गया था। नयी खोज से पता चला है कि रोटी का प्रचलन 30 हजार वर्ष पहले भी था। इस अनुसंधान ने इस धारणा को चुनौती दी है कि प्रागैतिहासिक काल का मानव मुख्य भोजन के रूप में मांस खाता था। नए साक्ष्य बताते हैं कि भारत जैसे देशों में मुख्य भोजन रोटी का उपयोग प्राचीन काल में भी होता था।
एक समाचार, प्रस्तुतकर्ता श्री ग्लोबल अग्रवाल

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

सात्विक आहार : साकारात्मक उर्जा

ऊर्जा शब्द का प्रयोग दैनिक जीवन में निरंतर होता है। ऊर्जा ऐसा अद्भुत तत्व है जिसके अभाव में कर्म या क्रिया संभव नहीं है। समस्त सृष्टि जड़-चेतन तत्त्‍‌वों के संयोग का परिणाम है। यह चेतनत्व या चेतनता ही ऊर्जा है, जिसे आंतरिक या अंत:करण की शक्ति के रूप में माना जाता है। मानव शरीर तथा मनोमस्तिष्क में प्रतिक्षण ऊर्जा का संचय तथा क्षरण होता रहता है। इसके पुन: संचय के लिए अन्नादि की आवश्यकता होती है। अन्न तथा विश्राम के द्वारा प्राप्त ऊर्जा मनुष्य को दो रूपों में प्रभावित करती है-सकारात्मक तथा नकारात्मक। भारतीय संस्कृति में अन्न व आहार की बहुत महिमा है। इनकी शुद्धि पर विशेष बल देते हुए शास्त्रों में लिखा है कि अन्न से ही मन बनता है। जैसा अन्न खाया जाता है, वैसा ही मन हो जाता है, तद्नुरूप ही बुद्धि, भावना, विचार एवं कल्पनाशक्ति निर्मित हो जाती है।

आहारगत सकारात्मक ऊर्जा की प्राप्ति के लिए तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं- अन्न की प्राप्ति शुद्धाचरण तथा न्यायोचित ढंग से की गई हो, भोजन संपादन व ग्रहण का स्थान स्वच्छ व पवित्र हो तथा आहार निर्माता की मन:स्थिति सकारात्मक तथा सद्भावपूर्ण हो। इस प्रकार का आहार बल व ऊर्जा, दोनों का प्रदाता होता है तथा शरीर में हल्कापन व तृप्ति का अनुभव होता है। इसके विपरीत अपूजित अर्थात निंदाभाव से बिना प्रशंसा किए, खिन्न मन से बनाया गया तथा ग्रहण किया गया आहार शरीर को नकारात्मक ऊर्जा से भरता है तथा शरीर में भारीपन, असंतुलन साथ ही जठराग्नि के विकार को उत्पन्न करता है। इससे बल व ऊर्जा, दोनों का क्षय होता है। आहार मात्र स्वाद प्राप्ति या जिह्वा का विलास मात्र नहीं, अपितु क्षुधा निवारण तथा शरीर रक्षा का साधन है। उपयुक्त आहार-विहार ईश्वरोपासना का अंग है। आहार के विषय में मनुष्य को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। मानव के पास अन्य भौतिकवादी अभिलाषाओं की पूर्ति के कर्मचक्र के मध्य आहार या भोजन के लिए समय नहीं है, परंतु यह आहार ही जीवनोर्जा का आधार है।

(डा. सुरचना त्रिवेदी, दैनिक जागरण,21.2.11) 
आलेख प्रस्तुति : श्री कुमार राधारमण जी द्वारा स्वास्थ्य-सबके लिए ब्लॉग में प्रकाशित

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

रोग क्यों होता है?

प्राकृतिक ढंग से जब मानव, करता आहार विहार नहीं.
जब प्रकृति अवज्ञा करता है, अरु प्रकृति उसे दरकार नहीं.
तब उसे स्वस्थ रह जाने का, रहता कोई अधिकार नहीं.
फिर उसका कोई भी सपना, है हो पाता साकार नहीं.

शारीरिक वात पित्त और कफ़, यह ही त्रिदोष कहलाते हैं.
त्रिदोष विषमता आते ही, मानव रोगी हो जाते हैं.
हम किसे चिकित्सा कहते हैं, त्रिदोषों में समता लाना.
मन्दाग्नि से ही होता है, रोगों का पैदा हो जाना.

जिस घर में तुलसी होती है, उस घर में वैद्य न आता है.
यह चलता फिरता अस्पताल, वास्तव में प्रिय गौमाता है.

मानव शरीर कफ़ पित्त वात से, सदा प्रभावित पाते हैं.
काया के सारे रोगों में, यह ही त्रिदोष दिखलाते हैं.
कफ़ सदा मनुज वक्षस्थल के, ऊपरी भाग में रहता है.
कफ़ ही से तो मस्तिष्क और सर सदा प्रभावित रहता है.

मल मूत्र द्वार के ऊपर अरु, जो उदर भाग में रहता है.
त्रिदोषों में दूसरा दोष, है पित्त - चरक यह कहता है.
तीसरा रोग है वात वायु, सारे शरीर में भ्रमण करे.
जब यह संतुलन बिगाड़े तो, मानव रोगों में रमण करे.

यह बात नियंत्रित होते ही, हर रोग नियंत्रण पाता है.
यह चलता फिरता अस्पताल, वास्तव में प्रिय गौमाता है.

[श्री सतीश चन्द्र चौरसिया 'सरस' जी द्वारा रचित 'गौ अभिनन्दन ग्रन्थ' से साभार] __________________________________________________________________________
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उपर्युक्त छंद में अंतिम पंक्ति सम्पूर्ण सौपान की टेक है. कृति के षष्ठम सौपान में गाय को एक चलता फिरता अस्पताल एक पावर स्टेशन सिद्ध किया गया है. इसलिए पाठकों को यह टेक अभी असंगत-सी प्रतीत होगी. इसके साथ ही कृति में शाकाहार और गाय की मनुष्य जीवन में महत्ता बतायी गयी है. मेरा उद्देश्य 'निरामिष' ब्लॉग के माध्यम से उन कई बातों को सामने लाना होगा जो कम प्रचारित-प्रसारित हैं.

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

शाकाहारी बनकर धरती के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभायें

संसार में भुखमरी जैसी गम्भीर समस्याओं के बावजूद मांस व्यवसाय द्वारा अन्न, जल एवम अन्य संसाधनों की बर्बादी सभ्य समाज के लिये सदा ही चिंता का विषय रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्बन्धित संस्थान "भोजन एवम कृषि संघ" ने इस चिंता से कई कदम आगे आकर अपनी रपट  LIVESTOCK'S LONG SHADOW (लाइव्स्टॉक'स लॉंन्ग शेडो - सन 2006) में इस बात पर ज़ोर दिया है कि धरती को हानि पहुंचा रही ग्रीनहाउस गैसों का कम से कम 18% भाग  मांस व्यवसाय द्वारा फैलाया जा रहा है।

इस रिपोर्ट के अनुसार, पर्यावरण को अठारह प्रतिशत हानि पहुंचाने वाला यह व्यवसाय विश्व के सकल उत्पादन का केवल डेढ प्रतिशत है। इसके द्वारा धरा को मुख्यतः चार प्रकार से हानि पहुंचाई जा रही है: भूमि, जल, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, जैविक हानि।

ध्यान देने योग्य कुछ बिन्दु
9 प्रतिशत :- कार्बन डाइ ऑक्साइड प्रदूषण - परिवहन द्वारा
37 प्रतिशत :- मीथेन गैस प्रदूषण - मांस प्रसंसकरण के बाद सडते अवशेषों से
65  प्रतिशत :- नाइट्रस ऑक्साइड -  मांस प्रसंसकरण के बाद बची गन्दगी से
67  प्रतिशत :- तेज़ाबी बारिश की ज़िम्मेदार अमोनिया गैस
जल हानि :- पीने योग्य जल का 9 प्रतिशत मांस उत्पादन में बर्बाद

मांस के लिये पाले गये पशुओं को खिलाये गये ऐंटिबायटिक, हार्मोन और उनके चारे में प्रयुक्त   ज़हरीले कीटनाशकों द्वारा फैलाया गया प्रदूषण भी विश्व के लिये एक बडा खतरा है। इसके अलावा जंगली पशुओं के रहने योग्य धरती का एक बडा हिस्सा धीरे-धीरे मांस के लिये पाले गये पशुओं के लिये छीना जा रहा है जिससे विश्व के अनेकों अभयारण्य विनाश के कगार पर धकेले जा रहे हैं। हालत यह है कि आजकल विश्व के कुल जैविक भार का पाँचवाँ भाग मांस के लिये पाले गये पशुओं का है।

यह पूरी रिपोर्ट "भोजन एवम कृषि संघ" की वैबसाइट से मूल अंग्रेज़ी में पढी जा सकती है:
पीडीऐफ (19 एमबी)
     

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

कुतर्कियों के सिर पर चढा प्रोटीन का भूत

(माँसाहार के पक्ष में फैलाया जा रहा अन्धविश्वास)

दालें व अनाज प्रोटीन स्रोत
इन्सान पर हावी होने वाले भूत-प्रेतों को उतारने के लिए तो ओझाओं-गुनियों, तान्त्रिक, पीर-फकीरों, बाबाओं वगैरह को बुलाना पडता है. लेकिन आज के इस वैज्ञानिक युग में कईं भूत ऎसे भी हैं जिनका किसी के पास कोई इलाज नजर नहीं आ रहा. इन्ही में एक भूत है---प्रोटीन का, जिसने अधिकाँश डाक्टरों, आहार वैज्ञानिकों और इन्सान को तन्दरूस्त रखने के नए नए तरीके इजाद करने वाले लोगों को इस तरह जकड लिया है कि इससे छुटकारा पाना निहायत ही मुश्किल है. अब आदमी बीमार हो तो वो डाक्टर से इलाज करा ले, पर बेचारा डाक्टर ही किसी भूत से जकडा जाए तो फिर उसका इलाज भला कौन करे? अब ऎसे ही एक प्रेत ग्रसित डाक्टर हैं--जनाब अनवर जमाल साहब. अब ये बात दूसरी है कि वो सिर्फ नाम के ही डाक्टर हों. कहीं साल छ: महीनें किसी डाक्टर के यहाँ कम्पाऊंडरी करते करते डाक्टर बन गए हों. खैर अल्लाह बेहतर जानता है :)

बहरहाल हम मूल विषय पर आते हैं. प्रोटीन-----जिसकी होड नें आज अनेक समस्याएं पैदा कर दी है. प्रोटीन पाने के लिए सरकारें तक कसर कसे बैठी हैं.देश भर में जगह-जगह कसाईघर खुलवा रखे हैं, जहाँ से माँस डिब्बों में बन्द कर बेचा जाता है. टेलीवीजन, समाचार पत्र जैसे संचार माध्यमों नें भी शोर मचा रखा है कि अंडे खाओ ताकि शरीर में जान पडे. प्राण चाहते हो तो प्रोटीन खाओ. बेचारे पशु-पक्षियों की शामत है. अनेक सदबुद्धि वालों नें उनकी पैरवी की, पर कुतर्क यह दिया जाता है कि वैज्ञानिक खोजों के आधार पर ऎसा करना उचित है. हमारे जैसा आदमी यह कहे कि हमारे बाप-दादाओं नें तो कभी इन सब चीजों को छुआ तक नहीं...तो क्या उन लोगों नें स्वस्थ जीवन व्यतीत नहीं किया. वे दूध, दही, फल, फ्रूट खाते थे और उन्हे रोग भी कम होते थे. पर दुर्बुद्धि लोग अपने विचार बदलने को तैयार ही नहीं है ... बदलें भी कैसे, उन पर प्रोटीन का भूत जो सवार है.

बीसवीं सदी के शुरू में आहार का मसला बकायदा एक विज्ञान के तौर पर सामने आया. भोजन में उर्जा के स्त्रोतों जैसे कार्बोहाईड्रेट, चर्बी और प्रोटीन की खोज हुई. प्रोटीन को माँसपेशियों और बच्चों के विकास के लिए जरूरी समझा गया. चर्बी और कार्बोहाईड्रेट को उर्जा का प्रमुख स्त्रोत माना गया. मैक कालम और डेविस नाम के वैज्ञानिकों नें विटामिन "ए" खोजा, फिर दूसरे विटामिन खोजे गये. आज विटामिन ए, बी, सी, डी, ई इत्यादि न जाने कितने प्रकार के विटामिन्स का विस्तृत ज्ञान मेडिकल साईन्स को है.
प्रचलित भ्रान्तियाँ:-
प्रोटीन को लेकर भ्रान्तियाँ कब शुरू हुई, यह कहना तो कठिन है, पर वे बहुप्रचलित हैं. यह एक आम धारणा है कि प्रोटीन अधिक मात्रा में लेना चाहिए. नतीजतन डिब्बों में बन्द बहुत से प्रोटीनमय पदार्थों की बिक्री बहुत होने लगी. इन चीजों को दूध या पानी में घोलकर पिया जाने लगा. माओं नें बच्चों को जबरिया पिलाना शुरू कर दिया. मायें भी बडे लाड से कहती हैं कि हॉर्लिक्स पियोगे तो जल्दी से बडे हो जाओगे.
सूरदास का पद याद करें तो कृष्ण भी यही कहते थे-----"मैया कबहूँ बढेगी चोटी! कित्ती बार मोहि दूध पियावत, है अजहू छोटी की छोटी!!" लगभग यही बात प्रोटीन वाले भोजन को घोल-घोलकर पिलाने के लिए कही जा रही है. टीवी पर विज्ञापनों के जरिए मानो "प्रोटीन ही जीवन है" का सन्देश हमारे गले उतरवाने की कौशिशें जारी हैं.

दरअसल प्रोटीन की मात्रा भोजन में सन्तुलित होनी चाहिए. उर्जा देने वाले तत्व के रुप में प्रोटीन की विशेष जरूरत नहीं होती. उर्जा के अच्छे स्त्रोत तो वसा और कार्बोहाईड्रेट हैं. आहार वैज्ञानिक इस पर एकराय हैं कि प्रति एक किलो वजन पर एक ग्राम प्रोटीन एक आम इन्सान के लिए काफी है. बच्चों को अधिक से अधिक 2 ग्राम प्रति किलो प्रोटीन पर्याप्त होगी. साधारण भोजन में तो प्रोटीन की इतनी मात्रा अपने आप ही मिल जाती है. आमतौर पर एक औसत व्यक्ति 250 ग्राम अनाज और 50-100 ग्राम दाल या दाल से बनी चीजें जरूर खाता है. 250ग्राम अन्न से लगभग 30 ग्राम प्रोटीन, दाल में 20 ग्राम से अधिक प्रोटीन और दूध,दही, पनीर आदि में 10-20 ग्राम प्रोटीन मिल जाती है. इस तरह आदमी 60-70 ग्राम प्रोटीन रोजाना उदरस्थ कर लेता है. तब बताईये फिर प्रोटीन की कमी कहाँ?
प्रोटीन के स्रोत:-
यह बात काफी प्रचारित हुई है कि माँसाहार और अंडे उच्च कोटि के प्रोटीन के स्रोत है. यह विचार सबसे पहले कहाँ से आया, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता. डाक्टरों से पूछिए कि प्रोटीन का ऎसा वर्गीकरण किसने किया और इसका कहाँ उल्लेख है, तो मैं आपको गारंटी देता हूँ कि उनसे जवाब देते नहीं बनेगा. दरअसल ये सब एक दूसरे से सुनी-सुनाई बातें हैं और इन सुनी सुनाई बातों को ही किताबों में लिख-लिखकर दुनिया में ये भ्रमजाल फैलाया जा रहा है कि पशुओं के माँस और अंडों में उच्च कोटि के प्रोटीन होते हैं और वनस्पतियों में दोयम दर्जे के . प्रसिद्ध वैज्ञानिक Dr.Semsan Wright के अनुसार ऎसा विभाजन निहायत ही अवैज्ञानिक और अव्यवहारिक हैं. उनका कहना था कि पशुओं की माँसपेशियाँ तो घास खाने से बनती हैं. जिस प्रोटीन को हम उच्च स्तर का कहते हैं---वह घास से बनती है.

अचरज की बात यह है कि सभी जगह मेडिकल के छात्रों को डा. सैमसन राईट की किताब पढाई जाती है, पर इस वैज्ञानिक की इस बात को पूरी तरह से नजरअन्दाज कर दिया जाता है. जनाब अनवर जमाल साहब जैसे स्वनामधन्य डाक्टरों को तो यह भी नहीं पता होगा कि किताब में इस बात का उल्लेख है.
प्रोटीन आवश्यकता से अधिक ले लिए जायें तो क्या हो ? 
आधुनिक वैज्ञानिक खोजों से पता चला है कि प्रोटीन के मेटाबोलिज्म के बाद, प्राणी-प्रोटीन की तोडफोड से कईं विषैले पदार्थ पैदा होते हैं-----यूरिया, यूरिक एसिड क्रीटीन, क्रोटीनीन आदि. ये सीधे इन्सान के गुर्दों पर असर करते हैं. अधिक मात्रा में इनकी उत्पति होने से इनका गुर्दों से निकलना कठिन हो जाता है और गुर्दे समय से पहले जवाब भी दे सकते हैं. देश में गुर्दे की बीमारी की बढोतरी का एक कारण यह भी समझा जा रहा है. लंदन के मेडिकल जनरल "Lancet" के अनुसार गठिया की बीमारी का कारण भी भोजन में प्रोटीन की अधिकता ही है.
दालें और दूध:-
प्रोटीन सबको मिले, इसके लिए जरूरी है कि इसकी कीमत कम हो. पर क्या अंडे या माँस सस्ते पडते हैं. एक अंडा 4-5 रूपये का आता है जिसका वजन लगभग 50-60 ग्राम होता है. उसमें प्रोटीन की मात्रा लगभग 6 ग्राम होती है. इस तरह 100 ग्राम अंडे में लगभग 12-13 ग्राम प्रोटीन. कीमत 8-9 रूपये के लगभग. इसके विपरीत 100 ग्राम सोयाबीन में 83 ग्राम प्रोटीन होता है, जिसकी कीमत पडती है महज अढाई रूपये. यानि अंकों की तुलना में लगभग 8 गुणा.

प्रोटीन के अच्छे स्त्रोत्र दालें, अन्न और दूध हैं. सोयाबीन में प्रोटीन की मात्रा 43 ग्राम प्रतिशत है. दालों में भी यह पर्याप्त मात्रा में होता है. माँस, अंडे में प्रोटीन की मात्रा क्रमश: 18 और 13 ग्राम होती है. फिर भी मासँसाहार से प्रोटीन पाने का भूत इन लोगों के सिर से नहीं उतर रहा. प्रकृति और पर्यावरण का संतुलन बिगडने की एक प्रमुख वजह आज यह भी है.

इसलिए आज इस युग की ये सब से बडी जरूरत है कि अपने दुराग्रहों का परित्याग कर खुले मस्तिष्क से इस विषय पर विचार किया जाए और खोखली वैज्ञानिकता के नाम पर फैलाये जा रहे इन भ्रमों को दूर कर निज, समाज और प्रकृति के प्रति अपने उतरदायित्व को समझते हुए शाकाहार को अपनाया जाए.