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शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

मांसाहार और शाकाहार समान हैं ?

मांसाहार और शाकाहार समान हैं ?

अक्सर सुनती हूँ मैं 
तर्क मांसाहार के सन्दर्भ में 
कि 
शाकाहार और मांसाहार समान हैं। 

क्या सच ?

एक सुखद अनुभूति की
याद है मन में
कॉलेज की खिड़की पर बैठी मैं 
खिड़की से भीतर आती 
सौम्य जीवनदायी वायु।  

गहरी साँसें लेती मैं 
अमृत को भीतर प्रविष्ट होते 
महसूस कर पाती हूँ। 
पौधों की हंसती टहनियाँ 
पेड़ों की झूमती डालियाँ 
दूर तक दिखते ,
नारियल के गर्वित वृक्ष 
जिनसे अनेकानेक बार 
अगणित नारियल तोड़ 
नारियल पानी वाले 
कितने प्यासे राहियों को 
अमृतपान कराते हैं। 
किन्तु वह वृक्ष 
तनिक भी तो कुम्हलाते नहीं ?

उनकी ओर से हवा में 
वही सुगंध 
हर दिन क्यों बिखरती है ?
क्या वे दर्द में हैं ,
अपने फल देकर ?
लगते तो खुश हैं न ?
झूमते नाचते 
रोज़ प्रसन्नता बिखेरते हैं न ?

और एक याद है मन में 
गए थे हम 
अपार्टमेंट्स में फ्लैट खरीदने
सस्ता था उस समय के अनुपात से 
सोचा यह सस्ता है - घर ले लेते हैं। 
गए वहाँ देखने 
पीछे की खिड़की से 
सुनाई दिया अजीब सा कोलाहल 
उस तरफ जाने लगी तो 
एजेंट ने रोका - अजी उधर तो 
"वियु" नहीं है, ना "एलिवेशन" ही 
फिर भी गयी 
दरवाजा खोला तो 
अजब सड़ांध आयी 
और चीखती आवाज़ें 
पूछ ताछ की 
पता चला उधर कत्लखाना है 
पास के बाज़ार में मांस 
ऊंचे दामों बिकता है। 

इसीलिए इस जगह पर 
फ्लैट बिकते नहीं। 
लोग आना नहीं चाहते, 
ना ही किराया अच्छा मिलेगा 

सोचने लगी मैं। 

कहाँ वह नारियल के पेड़ 
और उनसे बरसती सुख शान्ति 
मिलता पीने को अमृत 
सांस लेने को अमृत 
और यहाँ यह ……

क्या सचमुच एक से ही हैं 
मांसाहार और शाकाहार ?

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

जीवन-दात्री

इसलिये नहीँ कि हिन्दू
मुस्लिम ।।।
इसलिये कि रूबी और
रेहाना की माँ को जब
दूध
नहीँ उतरा तो हमारी गौरी
ने भर भर माता का दूध दिया
पल गयीं।

मुफ्त में गाँव
की धेवती मानकर।

तो
धाय माँ दूध
माँ की हत्या ग़ुनाह है।
जब माँ नहीँ तो दुधारू
गाय भैंस
बकरी ही माँ होती है ।
एक बेटे का फर्ज है
जिसका दूध
पिया उसकी जान
बचाये ।
जबकि पश्चिमी यूपी।
सहित तमाम भारतीय ग्रामीणों का ।
खेती के बाद दूसरा रोजगार दूध घी दही है
तब गौ भैंस बकरी पालन को बढ़ावा देना चाहिये
और दुधारू पशु वध बंद होने चाहिये
ये
न मजहब है न जाति न
राजनीति
दुधारू गाय भैंस
बकरी ऊँटनी भेङ ।
बचे
तो
कुपोषण भारत छोङेगा
विज्ञापनों में
आमिर के चीखने से कुपोषण नहीं हटेगा ।
एक गाय भैंस
बीस साल तक परिवार को आधा आहार और पूरा रोजगार देती है ।
जबकि मार कर खाने पर केवल पाँच लोगो का एक दिन का चटोरापन
तो
बीस साल तक परिवार पालना ज्यादा जरूरी है
दुधारू पशु वध बंद कीजिये
--सुधा राजे

(सत्य घटना से प्रेरित, 'गौरी' सुधा राजे जी की गाय और रूबी रेहाना पङौस की बच्चियाँ है।) 

सोमवार, 14 अक्टूबर 2013

अमृतपान - एक कविता

(अनुराग शर्मा)

हमारे पूर्वजों के चलाये
हजारों पर्व और त्यौहार
पूरे नहीं पड़ते
तेजस्वी, दाता, द्युतिवान
उत्सवप्रिय देवों को
जभी तो वे नाचते गाते
गुनगुनाते
शामिल होते हैं
लोसार, ओली व खमोरो ही नहीं
हैलोवीन और क्रिसमस में भी
लेकिन मुझे यकीन है कि
बकरीद हो या दसाइन
बेज़ुबान प्राणियों की
कुर्बानी, बलि या हत्या में
उनकी उपस्थिति नहीं
स्वीकृति भी नहीं होती
मृतभोजी नहीं हो सकते वे
जो अमृतपान पर जीते हैं

गुरुवार, 21 जून 2012

देखो कैसे प्राण बचाते है


शाक, सब्जियों, फलों को पौधे 
पर - आहार के लिए बनाते हैं
जब आते हैं फल पेड़ो पर
देखो वे झुक जाते हैं 

जितने फल लीजै पेड़ों से
फिर उतने उग आते हैं
फलों से लदे वृक्ष देखो कैसे 
ख़ुशी से झूमते जाते हैं

किन्तु जंतु बदन को अपने
निज के लिए बनाते हैं
हर इक अंग, तन का अपने 
हर चोट से, हरपल, बचाते हैं

कोई भी अंग चोटिल हो जाए तो 
दर्द से तड़प वे जाते हैं
और कोई अंग जो खो जाए तो 
सदा को अपंग हो जाते हैं

पौधे जब फल सृजन करते हैं
खुशबू बिखेर बुलाते हैं
जो फल लेने कोई न आये 
तो फल भूमि पर गिराते हैं

जंतुओं का मांस लेने जाओ
देखो कैसे प्राण बचाते है
सारी जीवनी शक्ति पावों में भर 
सरपट दौड़े जाते हैं 

जो हत्यारा फांस ही ले उनको 
बेबस वे हो जाते हैं
असहाय अश्रुपूर्ण कातर आँखों से
देखते हैं - अपने प्राण कैसे जाते हैं


और उस निर्मम को वे बस 

भोजन भर नज़र आते हैं ???

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

सूरज को दिया दिखाने की जिद।

मैंने देखी है कुछ लोगों की इस दुनिया में, 
      मांसाहार को शाकाहार से श्रेष्ठ बताने की जिद। 
जगमगाते सूर्यदेव को अंधियारा बतलाकर, 
      जुगनू की टिमटिमाहट को रौशन कहवाने की जिद। 

हलाल होते हुए तड़पते जीव को "दर्द नहीं है" कह कर, 
      अन्नाहार में भ्रूण हत्या साबित कराने की जिद। 
"गौ शुद्ध मानी गयी है" का मुखौटा ओढ़ कर, 
      गौमाता को वैदिक यज्ञों में बलि चढ़वाने की जिद। 

गोरक्षक इन्द्रदेव को ऋषभ कंद की आहुति, 
      वृषभों की बलि की सीख बनाने की जिद। 
कहीं और के लाये संस्कृत शब्दों को, 
      वेदवाणी बना कर पेश कराने की जिद। 

पोषण की झूठी, घुमावदार बातों के झांसों में, 
      उच्चाहारियों को निम्न भोज्य पर खींच लाने की जिद। 
भारत की महान संस्कृति को लीप पोतकर, 
      अहिंसा के आदेश को हिंसात्मक जतलाने की जिद। 

शाक फलों को ग्रहण करने में पादप हिंसा ढूंढ कर, 
      पशु काटने को प्रभु आज्ञा साबित कराने की जिद। 
टमाटर जैसे पौधे को मांसाहारी कह कर, 
      मछली को आलू सा शाकाहार कहलवाने की जिद। 

वैदिक संस्कृत पर अपने अधूरे अर्थ थोप कर, 
      वेदों को पशु हिंसापूर्ण जतलाने की जिद। 
बाहरी संस्कृतियों के निचोड़ों को ला कर, 
      भारतीय संस्कृति पर पानी चढाने की जिद। 

किसी महापुरुष के प्रिय पुत्र कुर्बान करने को,
      बकरों की कटवाई की आज्ञा बनाने की जिद। 
जीभ के स्वाद के क्रूर आनंद की पूर्ति के लिए, 
      परमपिता को ही क्रूर साबित कराने की जिद। 

जिस धर्म की आज्ञा है कि प्रतीकों को न पकड़ो, 
      उसी धर्म को पुरजोर प्रतीकात्मक बनाने की जिद। 
गलत परम्पराओं के विरोध में खड़े ज्ञानी पुरुषों को, 
      स्वयं एक परंपरा भर में बदलवाने की जिद। 

जुगनुओं की टिमटिमाती रौशनियों में, 
      खलिहान में सुई खोज लाने की जिद। 
कबसे देख रही हूँ बारम्बार दुनिया में , 
      सूरज को दिया दिखाने की जिद।

-शिल्पा मेहता

शनिवार, 16 जुलाई 2011

मनुज प्रकृति से शाकाहारी

मनुज प्रकृति से शाकाहारी
माँस उसे अनुकूल नहीं है !
पशु भी मानव जैसे प्राणी
वे मेवा फल फूल नहीं हैं !!

वे जीते हैं अपने श्रम पर
होती उनके नहीं दुकानें
मोती देते उन्हे न सागर
हीरे देती उन्हे न खानें
नहीं उन्हे हैं आय कहीं से
और न उनके कोष कहीं हैं
केवल तृण से क्षुधा शान्त कर
वे संतोषी खेल रहे हैं
नंगे तन पर धूप जेठ की
ठंड पूस की झेल रहे हैं
इतने पर भी चलें कभी वें
मानव के प्रतिकूल नहीं हैं

अत: स्वाद हित उन्हे निगलना
सभ्यता के अनुकूल नहीं है!
मनुज प्रकृति से शाकाहारी
माँस उसे अनुकूल नहीं है !!

नदियों का मल खाकर खारा,
पानी पी जी रही मछलियाँ
कभी मनुज के खेतों में घुस
चरती नहीं वे मटर की फलियाँ
अत: निहत्थी जल कुमारियों
के घर जाकर जाल बिछाना
छल से उन्हे बलात पकडना
निरीह जीव पर छुरी चलाना
दुराचार है ! अनाचार है !
यह छोटी सी भूल नहीं है
मनुज प्रकृति से शाकाहारी
माँस उसे अनुकूल नहीं है  !!

मित्रो माँस को तज कर उसका
उत्पादन तुम आज घटाओ,
बनो निरामिष अन्न उगानें--
में तुम अपना हाथ बँटाओ,
तजो रे मानव! छुरी कटारी,
नदियों मे अब जाल न डालो
और चला हल खेतों में तुम
अब गेहूँ की बाल निकालो
शाकाहारी और अहिँसक
बनो धर्म का मूल यही है
मनुज प्रकृति से शाकाहारी,
माँस उसे अनुकूल नहीं है !!

रचनाकार:-----श्री धन्यकुमार

बुधवार, 6 जुलाई 2011

बंद करो ये अत्याचार


मित्रों एक मित्र ने ये कविता मुझे भेजी...किसने लिखी है पता नहीं, किन्तु जिसकी भी ये कृति है उन्हें बहुत बहुत धन्यवाद...



बंद करो ये लहूधार का , जीवन का व्यापार
मूक पशू की पीड़ा समझो,अपनाओ शाकाहार

अरे मनुज ने मानवता तज , पशुता का यह मार्ग चुना
नीच कर्म यह महापाप है , सब पापों से कई गुना

दर दर भटके शांति खोजता , मानवता के नारों में
 उलझा तीन टके के पीछे , पशू वध के व्यापारों में

कहाँ सुकून मिलेगा हमको,जब हर घर में चित्कार है
लाल लहू से जीभ रंगी है , अरु हाथों में तलवार है

चोट यदि मुन्ने को लगती , तब कितनी पीड़ा होती है
क्यों कोई फर्क नहीं पड़ता,जब बकरे की अम्मा रोती है

कई माओं की छिपी व्यथा है,तेरी षटरस थाली में
कई वधों की लिखी कथा , तेरे होटों की लाली में

मंदिर में पूजे गोमाता , कब घर में आदर पाती है
दूध पिलाना बंद करे तो , गाय कतल की जाती है

आज यदि पशू रोता है तो , कल तेरी भी बारी है
इन तलवारों की धारों की , नहीं किसी से यारी है

अरे पशू की छोड़ो चिंता , अब अपनी ही बात करो
रहे नहीं जो यदि काम के ,वे बोलेंगे अपघात करो

कहो कहाँ दरकार रही , अब बाहर के शत्रु की
गर्भपात कर करते ह्त्या,खुद अपने शिशुओं की

मेरी तेरी हो या पशुओं की , अरे जान तो जान है
इसमें उसमें जो फर्क करे,वह कायर है,बेईमान है

मांसाहार का दूषण लोगों,नहीं दूर क्षितिज का रहा अन्धेरा
आज द्वार पर दस्तक देता , जाने कब कर लेगा डेरा

अरे अश्रु की धाराओं ने , अपने आशय खो डाले
अरे लहू के लाल रंगों से , खेलें बालक भोले भाले

उनके जीवन में कहाँ दया , क्या प्रेम भावना रह पायेगी
खुद ही आपको लुटा पाओगे , जब बाढ़ खेत को खायेगी

करे शूल का बीजारोपण , उगता पेड़ बबूल का
अनंत काल भुगतोगे दूषण,एक समय की भूल का

इससे पहिले की लुट जाएँ, जाग्रत हो जाना चाहिए
हम भी रहें शाकाहारी , औरों को बनाना चाहिए

अब नेक दयालू युवकों ने , छेड़ दिया अभियान
अरे निरीह पशुओं के प्रति अब,करलो युद्धविराम

तुम खुद भी हो जीव, जीव का रखो तो सम्मान
नहीं बनो कातिल हत्यारे, तुम तो हो भगवान्

अरे! एक जीवन की खातिर, कितने जीवन छीनोगे
अपनी उनकी एक जात है, कब इस सच को चीन्होगे


शनिवार, 2 जुलाई 2011

गैया की पुकार





ए हिंद देश के लोगों, सुन लो मेरी दर्द कहानी।
क्यों दया धर्म विसराया, क्यों दुनिया हुई वीरानी।

जब सबको दूध पिलाया, मैं गौ माता कहलाई,
क्या है अपराध हमारा, जो काटे आज कसाई।
बस भीख प्राण की दे दो, मै द्वार तिहारे आई,
मैं सबसे निर्बल प्राणी, मत करो आज मनमानी॥

जब जाउँ कसाईखाने, चाबुक से पीटी जाती,
उस उबले जल को तन पर, मैं सहन नहीं कर पाती।
जब यंत्र मौत का आता, मेरी रुह तक कम्प जाती,
मेरा कोई साथ न देता, यहाँ सब की प्रीत पहचानी॥

उस समदृष्टि सृष्टि नें, क्यों हमें मूक बनाया,
न हाथ दिए लड़नें को, हिन्दु भी हुआ पराया।
कोई मोहन बन जाओ रे, जिसने मोहे कंठ लगाया,
मैं फर्ज़ निभाउँ माँ का, दूँ जग को ममता निशानी॥

मैं माँ बन दूध पिलाती, तुम माँ का मांस बिकाते,
क्यों जननी के चमड़े से, तुम पैसा आज कमाते।
मेरे बछड़े अन्न उपजाते, पर तुम सब दया न लाते,
गौ हत्या बंद करो रे, रहनें दो वंश निशानी॥

                             --रचनाकार (अज्ञात गौ-प्रेमी)

(लय है, ए मेरे वतन के लोगों…)

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

इनमें भी जाँ समझ कर, इनको जकात दे दो

हालाँकि इस समय मुझे उनका नाम तो स्मरण नहीं हो पा रहा. उर्दू के एक मुसलमान कवि थे, जिन्होने अपने भावों को निम्न प्रकार से प्रकट करते हुए निर्दोष, मूक प्राणियो पर दया करने की ये अपील की है :---

पशुओं की हडियों को अब न तबर से तोडो 
चिडियों को देख उडती, छर्रे न इन पे छोडो !! 
मजलूम जिसको देखो, उसकी मदद को दोडो 
जख्मी के जख्म सीदो और टूटे उज्व जोडो !! 
बागों में बुलबुलों को फूलों को चूमने दो 
चिडियों को आसमाँ में आजाद घूमने दो !! 
तुम्ही को यह दिया है, इक हौंसला खुदा नें 
जो रस्म अच्छी देखो, उसको लगो चलाने !! 
लाखों नें माँस छोडा, सब्जी लगे हैं खाने 
और प्रेम रस जल से, हरजा लगे रचाने !! 
इनमें भी जाँ समझ कर, इनको जकात दे दो 
यह काम धर्म का है, तुम इसमें साथ दे दो !! 

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

रोग क्यों होता है?

प्राकृतिक ढंग से जब मानव, करता आहार विहार नहीं.
जब प्रकृति अवज्ञा करता है, अरु प्रकृति उसे दरकार नहीं.
तब उसे स्वस्थ रह जाने का, रहता कोई अधिकार नहीं.
फिर उसका कोई भी सपना, है हो पाता साकार नहीं.

शारीरिक वात पित्त और कफ़, यह ही त्रिदोष कहलाते हैं.
त्रिदोष विषमता आते ही, मानव रोगी हो जाते हैं.
हम किसे चिकित्सा कहते हैं, त्रिदोषों में समता लाना.
मन्दाग्नि से ही होता है, रोगों का पैदा हो जाना.

जिस घर में तुलसी होती है, उस घर में वैद्य न आता है.
यह चलता फिरता अस्पताल, वास्तव में प्रिय गौमाता है.

मानव शरीर कफ़ पित्त वात से, सदा प्रभावित पाते हैं.
काया के सारे रोगों में, यह ही त्रिदोष दिखलाते हैं.
कफ़ सदा मनुज वक्षस्थल के, ऊपरी भाग में रहता है.
कफ़ ही से तो मस्तिष्क और सर सदा प्रभावित रहता है.

मल मूत्र द्वार के ऊपर अरु, जो उदर भाग में रहता है.
त्रिदोषों में दूसरा दोष, है पित्त - चरक यह कहता है.
तीसरा रोग है वात वायु, सारे शरीर में भ्रमण करे.
जब यह संतुलन बिगाड़े तो, मानव रोगों में रमण करे.

यह बात नियंत्रित होते ही, हर रोग नियंत्रण पाता है.
यह चलता फिरता अस्पताल, वास्तव में प्रिय गौमाता है.

[श्री सतीश चन्द्र चौरसिया 'सरस' जी द्वारा रचित 'गौ अभिनन्दन ग्रन्थ' से साभार] __________________________________________________________________________
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उपर्युक्त छंद में अंतिम पंक्ति सम्पूर्ण सौपान की टेक है. कृति के षष्ठम सौपान में गाय को एक चलता फिरता अस्पताल एक पावर स्टेशन सिद्ध किया गया है. इसलिए पाठकों को यह टेक अभी असंगत-सी प्रतीत होगी. इसके साथ ही कृति में शाकाहार और गाय की मनुष्य जीवन में महत्ता बतायी गयी है. मेरा उद्देश्य 'निरामिष' ब्लॉग के माध्यम से उन कई बातों को सामने लाना होगा जो कम प्रचारित-प्रसारित हैं.