मंगलवार, 31 जुलाई 2012

मांस का आहार या अवशिष्ट का?

चिकित्सा वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि प्रत्येक शरीर जीवित कोशिकाओं से मिल कर बनता है और शरीर में जब भोजन पहुंचता है तो ये सब कोशिकायें अपना-अपना भोजन प्राप्त करती हैं व मल त्याग करती हैं। यह मल एक निश्चित अंतराल पर शरीर बाहर फेंकता रहता है। यदि किसी जीव की हत्या कर दी जाये तो उसके शरीर की कोशिकायें मृत शरीर में मौजूद नौरिश्मेंट का उपभोग करके यथासंभव जीवित रहने का प्रयास करेगी। यह कुछ ऐसा ही है कि जैसे किसी बंद कमरे में पांच-सात व्यक्ति ऑक्सीजन न मिल पाने के कारण मर जायें तो उस कमरे में ऑक्सीजन का प्रतिशत शून्य मिलेगा। जितनी भी ऑक्सीजन कमरे में थी, उस सब का उपभोग हो जाने के बाद ही, एक-एक व्यक्ति मरना शुरु होगा। इसी प्रकार शरीर से काट कर अलग कर दिये गये अंग में जितना भी नौरिश्मेंट मौजूद होगा, वह सब कोशिकायें प्राप्त करती रहेंगी और जब नौरिश्मेंट समाप्तप्रायः हो जाएगा, तब मात्र मल ही शेष रहेगा और कोशिकायें धीरे धीरे मरती चली जायेंगी। ऐसे में कहा जा सकता है कि मृत पशु से नौरिश्मेंट पाने के प्रयास में हम वास्तव में कोशिका मल खा रहे होते हैं। सम्भव है यह बात कुछ लोगों को अरुचिकर लगे। पर यथार्थ तो यही है क्योंकि यह बायोलोजिकल तथ्य हैं। न केवल मल बल्कि उस मल पर निर्भर जिवाणुओं की भी उत्पत्ति होती है।

भारत जैसे देश में, जहां मानव के लिये भी स्वास्थ्य-सेवायें व स्वास्थ्यकर, पोषक भोजन दुर्लभ हैं, पशुओं के स्वास्थ्य की, उनके लिये पोषक व स्वास्थ्यकर भोजन की चिन्ता कौन करेगा? घोर अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में रहते हुए, जहां जो भी, जैसा भी, सड़ा-गला मिल गया, खाकर बेचारे पशु अपना पेट पालते हैं। उनमें से अधिकांश घनघोर बीमारियों से ग्रस्त हैं। ऐसे बीमार पशुओं को भोजन के रूप में प्रयोग करने की तो कल्पना भी मुझे कंपकंपी उत्पन्न कर देती है। यदि आप फिर भी उनको भोजन के रूप में बड़े चाव से देख पाते हैं तो ऐसा भोजन आपको मुबारक। हम तो पेड़ - पौधों पर छिड़के जाने वाले कीटनाशकों से निबट लें तो ही खैर मना लेंगे।
-- लेखक श्री सुशान्त सिंहल

बुधवार, 11 जुलाई 2012

खाद्य शृंखला और निरामिष

खाद्य श्रृंखला

पृथ्वी भिन्न भिन्न प्रकार के जीवों की आश्रय स्थली है जिसमें जटिल वनस्पतियों और प्राणियों से लेकर सरल एककोशीय जीव सम्मिलित हैं। परन्तु चाहे बड़ा हो या छोटा, सरल हो या जटिल, कोई भी जीव अकेला नहीं रहता। हर कोई किसी न किसी रूप में अपने आस-पास स्थित जीवों या निर्जीव पर्यावरण पर निर्भर करता है। यह हमें एक श्रृंखला में जोड़ता है जिसे खाद्य श्रृंखला कहा जाता है।

खाद्य श्रृंखला और उर्जा प्रसारण

श्रृंखला की हर कड़ी पर ऊर्जा का अत्यधिक ह्रास होता है, किसी खाद्य श्रृंखला में एक प्राणी उसे प्राप्त होने वाली ऊर्जा का मात्रा 10 प्रतिशत ही आगे प्रसारित करता है। स्थितिज ऊर्जा का 90 प्रतिशत भाग ऊष्मा के रूप में लुप्त हो जाता है। इसलिए खाद्य श्रृंखला में जितना आगे आप जाएंगे उतनी कम ऊर्जा की उपलब्धता पाएंगे। इससे स्पष्ट होता है कि शाकाहारियों के एक सामान्य आकार के झुण्ड के भरण-पोषण के लिए काफी कम संख्या में वृक्ष और हरियाली की आवश्यकता होती है जबकि कुछ मांसाहारियों का पेट एक शाकाहारियों का सामान्य आकार का झुण्ड भी नहीं पाल सकता है। खाद्य श्रृंखला जितनी प्रत्यक्ष और कम कडी की होगी, जीवों के लिए उतनी अधिक ऊर्जा उपलब्ध होगी।


एक खाद्य श्रृंखला में सामान्यतया निम्न कडि़यां होती हैं:
- मूल या प्रारंभिक उत्पादक
- मूल या प्रारंभिक उपभोक्ता
- द्वितीयक या माध्यमिक उपभोक्ता
- तृतीयक उपभोक्ता
- अपघटक



उत्पादक

उत्पादक अपना भोजन स्वयं तैयार करने में सक्षम होते हैं। स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र में उत्पादक सामान्यतः हरे पौधे होते हैं। स्वच्छ जल और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में आमतौर पर शैवाल प्रमुख उत्पादक होते हैं। प्रकृति के चक्र में वनस्पतियां सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। इनके बिना धरा पर जीवन संभव नहीं है। ये प्रारंभिक उत्पादक हैं जो सभी अन्य जीव प्रकारों को कायम रखते हैं। यह इसलिए है कि वनस्पति ही वह जीव है जो अपना भोजन खुद निर्मित कर सकता है। प्राणी, जो भोजन निर्माण में सक्षम नहीं होते, अपनी खाद्य आपूर्ति के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वनस्पतियों पर निर्भर रहते हैं। सभी प्राणी और जो भोजन वे ग्रहण करते हैं, उसे मूल रूप से पौधों से निसृत माना जा सकता है।

जिस ऑक्सीजन को हम सांस के द्वारा लेते हैं वह पौधों से प्राप्त होती है। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में पौधे सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करते हैं, वायु से कार्बन डाइऑक्साइड लेते हैं तथा मिट्टी से पानी एवं खनिज अवशोषित करते हैं। इसके बाद वे पानी और ऑक्सीजन को मुक्त कर देते हैं। इस चक्र में प्राणी एवं अन्य गैर उत्पादक जीव श्वसन क्रिया के माध्यम से भागीदारी करते हैं। श्वसन वह प्रक्रिया है जिसमें जीव द्वारा भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए ऑक्सीजन का उपयोग किया जाता है और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ी जाती है। प्रकाश संश्लेषण और श्वसन चक्र की मदद से पृथ्वी पर ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड और जल का सन्तुलन बरकरार रहता है।

उपभोक्ता

उपभोक्ता वे होते हैं जो अपने भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं। वे या तो सीधे ही मूल उत्पादक पर या अन्य उपभोक्ताओं पर निर्भर रहते हैं। चूंकि शाकाहारी अपना भोजन सीधे उत्पादक से प्राप्त करते हैं, उन्हें प्रारंभिक या प्रथम उपभोक्ता कहा जाता है। जानवर अपना भोजन खुद नहीं बना सकते इसलिए उनके लिए पौधों या अन्य प्राणियों को खाना आवश्यक होता है। उपभोक्ता तीन प्रकार के हो सकते हैं; जो प्राणी सिर्फ और सिर्फ वनस्पति खाते हैं, उन्हें शाकाहारी कहा जाता है, जो प्राणी दूसरे प्राणियों का भक्षण करते हैं, मांसाहारी कहलाते हैं और जो  प्राणी वनस्पति एवं प्राणी दोनों को खाते हैं वे सर्वाहारी कहलाते हैं।

अपघटक

अपघटक वे जीव होते हैं जो अपक्षय या सड़न की प्रक्रिया को तेज करते हैं जिससे पोषक तत्वों का पुनः चक्रीकरण हो सके। ये निर्जीव कार्बनिक तत्वों को अकार्बनिक यौगिकों में तोड़ते हैं। अपघटक खनिज तत्वों को पुनः खाद्य श्रृंखला से जोड़ने के लिए मुक्त करने में सहायक होते हैं जिससे उत्पादक यानि वनस्पतियां इन्हें अवशोषित कर सकें। पोषण तल

वे जीव, जिनका भोजन वनस्पतियों से समान चरणों में प्राप्त होता है, एक पोषण तल या ट्रोफिक लेवल में आते हैं। उत्पादक होने के नाते हरी वनस्पतियां पहले पोषण तल पर आती हैं। शाकाहारी दूसरी मंजिल या तल पर माने जाते हैं। मांसाहारी, जो शाकाहारियों को अपना आहार बनाते हैं, तीसरे पोषण तल पर आते हैं, जबकि मांसाहारी जो मांसाहारियों का ही भक्षण करते हैं, चौथे पोषण तल पर माने जाते हैं। एक प्रजाति अपने आहार के आधार पर एक या एक से अधिक पोषण तल पर मौजूद रह सकती है।

ऊर्जा का पिरैमिड

ऊर्जा का पिरैमिड किसी खाद्य श्रृंखला या जाल में आहार और ऊर्जा के संबंध को दर्शाता है। तीनों पारिस्थितिकीय पिरैमिडों में से ऊर्जा का पिरैमिड प्रजातियों के समूहों की क्रियात्मक प्रकृति का अब तक का सर्वश्रेष्ठ चित्रण प्रस्तुत करता है।

यह समझना आवश्यक है कि खाद्य श्रृंखलाओं और जालों में ऊर्जा पोषण तलों से प्रवाहित होती है और हर अगले तल में ऊर्जा की मात्रा घटती जाती है। अंत में पूरी ऊर्जा नष्ट हो जाती है जिसका अधिकांश भाग ऊष्मा के रूप में लुप्त होता है। पोषक तत्व, हालांकि, खाद्य श्रृंखलाओं में कभी समाप्त नहीं होते और पुनर्चक्रित होते रहते हैं। इस प्रकार के चक्र में जीव, जल, वायुमण्डल और मिट्टी शामिल होते हैं। ये तत्व स्वपोषी जीवों, जिनमें भोजन निर्माण की क्षमता होती है, द्वारा कार्बनिक यौगिकों के साथ समाविष्ट कर दिए जाते हैं जहां से खाद्य जाल के विभिन्न उपभोक्ताओं में से गुजरते हुए पुनः सैप्रोफाइट यानी मृतजीवी (वे जीव जो मृत या सड़े-गले पदार्थों से अपना पोषण प्राप्त करते हैं) द्वारा अकार्बनिक रसायनों के रूप में पुनर्चक्रित कर दिए जाते हैं।

जैव-भूरसायन चक्र

जैव-भूरसायन चक्र मानवीय गतिविधियों से गड़बड़ा सकते हैं और गड़बड़ा रहे हैं। जब हम अवयवों को उनके स्रोत या आश्रय स्थल से जबरदस्ती निकालकर प्रयोग करते हैं तो हम प्राकृतिक जैव-भूरसायन चक्र को अव्यवस्थित कर देते हैं। उदाहरण के तौर पर, हमने धरती की गहराइयों से हाइड्रोकार्बन ईंधनों को निकालकर और जलाकर स्पष्ट रूप से कार्बन चक्र में बदलाव कर दिया है। हमने नाइट्रोजन और फास्फोरस को कृषि उर्वरकों के रूप में बड़ी मात्रा में प्रयोग कर इनके चक्रों में भी बदलाव पैदा कर दिया है। मात्रा की आधिक्यता ने जल स्रोतों में प्रवेश कर जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में भी अतिउर्वरता पैदा कर दी है। इन विशाल, भूमंडलीय चक्रों की सबसे रोचक बात यह नहीं है कि ये लगातार बगैर रूके चलते रहते हैं, बल्कि यह है कि हमें धरती पर उपस्थित जीवन पर उनके प्रभाव का पता भी नहीं चलता है।
प्रस्तुत अंश, जीव-विज्ञानी सुश्री सुकन्या दत्ता की पुस्तक ‘धरा पर जीवन’ के ‘जीवन श्रृंखलाएं और जीवन जाल’ अध्याय से साभार लिया गया है।
सम्पादकीय टिप्पणी-

खाद्य शृंखला के शाकाहार निहितार्थ –

“श्रृंखला की हर कड़ी पर ऊर्जा का अत्यधिक ह्रास होता है”

पेड़ - पौधे प्रथम कड़ी में 'उत्पादक' है शाकाहार श्रेणी में सीधे प्रथम 'उपभोक्ता' स्तर पर ही आहार ग्रहण करने पर उर्जा का भारी अपव्यय बच जाता है।

“जैव-भूरसायन चक्र मानवीय गतिविधियों से गड़बड़ा सकते हैं और गड़बड़ा रहे हैं। जब हम अवयवों को उनके स्रोत या आश्रय स्थल से जबरदस्ती निकालकर प्रयोग करते हैं”

प्रथम 'उपभोक्ता' स्तर पर शाकाहार से सहज निर्वाह होने के उपरांत भी जब हम जबरद्स्ती तीसरे तल पर भी अपना अधिकार जमाते है और मांसाहार ग्रहण करते है तो जैवीय चक्र को अनधिकार गड़बड़ा रहे होते है, अतिक्रमण कर रहे होते है। सीधा प्रबल उर्जा स्रोत प्राप्य होते हुए भी शृंखला में एक और उपभोक्ता कड़ी को बढ़ाकर खाद्य शृंखला को अदृ्श्य आघात पहुँचाते है। उर्जा प्रवाह और उपभोग को असंतुलित कर देते है।

लोग खाद्य शृंखला का तर्क आगे कर मांसाहार को ग्रहणीय साबित करने का अबोध प्रयास करते है जबकि 'उर्जा', 'कड़ी' और 'पिरामिड़-तल' के आधार पर 'खाद्य शृंखला' चीख चीख कर कह रही है, मनुष्य को शीघ्रातिशीघ्र उर्जा का प्राथमिक और मितव्ययी उपभोक्ता हो जाना चाहिए। अर्थात् शाकाहारी बनकर प्रकृति संयम के प्रति निष्ठावान हो जाना चाहिए।

रविवार, 1 जुलाई 2012

भोजन में क्रूरता: 1. प्रस्तावना - फ़ोइ ग्रा

[आलेख: शिल्पा मेहता]

सभी जीवदया युक्त बंधुओं को बधाई! क्यों? क्योंकि आजएक जुलाई 2012, से अमेरिका के केलिफोर्निया ( California USA ) प्रदेश में "Foie gras" [फोई ग्रा] यानी कलहंस और बत्तख़ (goose और duck) पक्षी को बेहद दर्दनाक बीमारी वसीय यकृत व्याधि (fatty liver disease) से बीमार बना करउनके सूजे हुए यकृत (लीवर liver) से बनाया जाने वाला स्पेशल "स्वादिष्ट व्यंजन", प्रतिबन्धित कर दिया जाएगा। 

इससे पहले ब्रिटेन, जर्मनी, जेक रिपब्लिक, इजरायलइटली और स्वितज़रलैंड आदि 16 देशों में यह प्रतिबन्धित किया जा चुका था। दुर्भाग्य से यह अब तक भारत में प्रतिबन्धित नहीं है

यह श्रंखला ख़ास तौर पर सामिष मित्रों के लिए बना रही हूँ, वे कृपया इसे पढ़ें। यदि इसे पढ़ कर भी आप अपना भोजन न बदलना चाहें, तो कोई बात नहीं। परंतु यह जान तो लीजिये कि यह भोजन बन कैसे रहा है? जो पहले से निरामिष हैं - उनसे यहाँ की जानकारी अपने अपने सामिष मित्रों तक पहुंचाने की प्रार्थना करती हूँ। 

यह विडियो या चित्र देखना दुखदायी हो सकता है - इसे पढना भी - किन्तु याद रखिये - भारत में यह अभी तक प्रतिबन्धित नहीं हुआ है, यदि हमें यह रुकवाना है - तो पहले इस प्रक्रिया को जान लेना आवश्यक है। यह पढ़ कर आपको जो तकलीफ होगीउसके लिए क्षमा कीजियेगा मुझे। लिखने में मुझे भी उतनी ही तकलीफ हो रही है। यदि यह पोस्ट पढ़ कर एक भी व्यक्ति आज से यह तथाकथित "delicacy" खाना छोड़ देगा, तो यह लिखना सफल हो जाएगा मेरे लिए। 

इस मौके पर मैं यह कहना चाहूंगी कि प्रतिबन्ध का यह कदम अचानक नहीं उठाया गया। आठ साल से यह क़ानून बन गया था कि यह बंद हो, सन 2004 में यह क़ानून पारित हुआ था। रेस्त्रौं मालिकों आदि को आठ साल का समय दिया गया इसे बंद कर के वैकल्पिक डिशेज़ डेवलप करने के लिए। एक जुलाई के बाद यह परोसने पर रेस्त्रौं मालिक को हर दिन 1000 डॉलर का जुर्माना भरना होगा।

लेकिन यह निर्णय लिया क्यों गया? यह हम निरामिष सदस्यों के लिए भी जानना आवश्यक है, और अपने सामिष मित्रों तक पहुंचाना भी आवश्यक है - कि  यह प्रतिबन्धित किया क्यों गया?

यह प्रतिबन्धित इसलिए किया गया कि यह "स्वादिष्ट व्यंजन"  प्राप्त करने के लिए बेचारी बेबस चिड़ियों (ducks and geese) पर इतनी अधिक क्रूरता होती है - कि हम कंस आदि को इसके मुकाबले शायद दयालु कहें :(

यह प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि वह चिड़िया "fatty liver disease " से ग्रस्त हो। उसका यकृत हम मनुष्यों को होने वाली श्वेत पीलिया (white jaundice) जैसी ही एक बीमारी से खराब हो कर सूज जाए - और उस बीमारी के भयानक दर्द में भी वह बेचारी तड़पती चिड़िया तब तक जीवित रहे जब तक उसका लीवर सूजते-सूजते इतना बड़ा न हो जाए, कि हमें अपनी "पसंदीदा स्वादिष्ट डिश" में परोसे जाने योग्य मात्रा में मांस मिले :( । इस पूरे आलेख में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है, बल्कि साधारण शब्दों में उस "normal" प्रक्रिया का वर्णन है जो इसे प्राप्त करने के लिए होती है।)

तो यह कैसे किया जाता है? (यहाँ एक  लिंक भी दे रही हूँ, यूट्यूब का - जिसमे यह प्रक्रिया दिखाई गयी है।) चेतावनी है - यदि आप यह विडियो या चित्र भी देखेंगे, तो शायद आप 2-3 रातों तक सो न सकें। जो यह विडियो नहीं देखना चाहें - वे चाहें तो यहाँ (इस लिंक पर) कुछ चित्र देख सकते हैं। जो चित्र भी न देखना चाहें,  वे यहाँ नीचे दिए शब्दों को पढ़ कर उन तड़पती हुई हजारों लाखों चिड़ियों के दर्द को समझने के प्रयास करें, और मैं प्रार्थना करूंगी कि इस श्रंखला में "मांसाहारी भोजन की प्राप्ति" पर मैं जो जानकारी दूं - वह अपने सामिष मित्रों तक पहुंचाएं। अनेक मांसाहारी लोग जानते ही नहीं कि हो क्या रहा है परदे के पीछे। इस श्रंखला के हर लेख में मैं अलग अलग मांसाहारी भोजन के बारे में बात करूंगी। चिकन (अंडे भी), बीफ, पोर्क, फिश आदि।

Foie Gras Recipe, फोई ग्रा बनाने की विधि

 जैसा कि हम जानते ही हैं, हम में से अधिकतर लोगों ने देखा है - बत्तख (ducks) खुले वातावरण में कैसे जीते हैं। ये उड़ना पसंद करते हैंतैरते हैं, झुण्ड में एक दूसरे से बातें करते सामाजिक व्यवहार करते हैअपनी चोंच से अपने आप को साफ़ रखते हैं, और यहाँ तक कि अपने घोंसले भी बिलकुल साफ़ रखते हैं। लेकिन इन्हें इन  "Foie gras" के farms पर कैसा जीवन जीना पड़ता है - आइये समझते हैं। PETA के लोग इसे प्रतिबन्धित करने के लिए ताज और ओबेरॉय जैसे बड़े होटलों से अनुरोध करते आ रहे हैं। यदि आप चाहें तो गूगल सर्च में "Foie gras india" भर कर खोज करें, जानकारी मिलेगी। वहां इसे बंद कराने की याचिका (petition) हस्ताक्षरित करने के लिंक भी मिलेंगे आपको। मदद करना चाहें तो याचिका हस्ताक्षरित करें।

1.
एक तो बत्तख़ों को इस बीमारी से ग्रस्त कराने के लिए इन्हें इनकी पाचन शक्ति से कई गुना अधिक खाना खिलाना आवश्यक है।  जाहिर है - अपने मन से तो ये नहीं खायेंगे - तो इन्हें - पैदाइश के 6-8 हफ्ते बाद से ही - बिलकुल नन्ही नन्ही चिडियाओँ को - दिन में तीन बारएक धातु की नली (metal pipe ) गले के अन्दर डाल कर करीब तीन से पांच पाउंड वसा व अनाज (fat and grain ) सीधे इनके पेट में पम्प किया जाता है। इनके बदन के वजन से एक तिहाई वजन अन्न - सीधे पेट में।

इसे ऐसे समझें - 5 पौंड यानी कितना? एक नवजात मानव शिशु का जन्म वजन करीब 5-6 पौंड होता है। सोचिये - इतना भोजन एक नन्ही सी बत्तख को - जो अभी सिर्फ 2 महीने की है - रोज़ जबरदस्ती खिलाया जाना, कितना दर्दनाक होगा इन्सान के शरीर का वजन यदि 60 किलो है, तो समझिये 20 किलो पास्ता या कोई अन्य भारी (हमारे पाचन यंत्र के लिए भारी - उन पक्षियों के लिए यह उतना ही भारी भोजन है) बिना चबाये सीधे पेट में पम्प किया जा रहा है - हर दिन - फिर अगले दिन - फिर अगले दिन हम तो नूडल्स खाने में भी कहते हैं, कि मैदा है, पेट दुखेगा। और कितना खाते हैं हम नूडल्स? दिन में शायद 200 ग्राम - और वह भी शायद हफ्ते में एक बार। 

लेकिन इन बेचारी चिड़ियों को तो यह खिलाया ही इसलिए जा रहा है, कि उनका पेट दुखे, न सिर्फ दुखे, बल्कि तड़पने की हद तक दुखे।

परन्तु यदि ये तड़पते हुए हिलेंगी, तो व्यायाम होगा और इनकी बीमारी उतनी तेज़ी से नहीं बढ़ेगी, तो इन्हें इतने छोटे छोटे पिंजरों में रखा जाता है - कि ये हिल भी न सकें। दर्द से तड़पें, परन्तु हिल न पाएं सोचिये - हमारा पेट दुखता है - तो हम पूरी तरह झुक कर मुड़ जाते हैं, या मुड़े हुए लेट जाते हैं करवट पर अक्सर - परन्तु ये बेचारी चिड़ियाँ वह भी नहीं कर सकती। :(

2. 
यह मेटल ट्यूब अन्दर घुसाना ठीक वैसे ही किया जाता है जैसे आप ऑफिस को लेट होते हुए जल्दी जल्दी अपने मोज़े में पाँव डालते हैं। बत्तख की लम्बी चोंच से, उसकी लम्बी गर्दन से होते हुए पेट तक सीधी मेटल पाइप। और यह पूरा "force feed "सिर्फ 10-15 सेकण्ड में होता है - कितनी तेज़ी से उसे पकड़ा जाता होगा, पाइप घुसाई जाती होगी, किस वेग से वह अन्न उसके नन्हे से पेट में गिराया जाता होगा, और ट्यूब निकाल भी ली जाती होगी। सिर्फ 15 सेकण्ड में यह सब

अंतर इतना है कि मोज़े को दर्द नहीं होता, चोट नहीं आती, क्योंकि आपका पैर धातु का नहीं बना है, और मोजा एक जीवित प्राणी नहीं है। जिन्होंने कभी भी एंडोस्कोपी (endoscopy)  कराई होगी, वे जानते हैं कि एक ट्यूब को गले से भीतर पेट तक उतारा जाना कितना कष्टकर है। जबकि हमारे डॉक्टर पूरा ध्यान रखते हैं कि हमें दर्द न हो। किन्तु जो वर्कर इन चिड़ियों के मुंह में यह पाइप घुसा रहा है - उसे दिन में हज़ारों बार यह करना है, 10-15 सेकण्ड में एक चिड़िया। तो उसे क्या इनके दर्द का ध्यान रह सकता है?

3.
यह करते हुए उस चिड़िया के गले, मुँह और खाद्य नलिका में चोटें आती हैं, जिससे कई के मुंह से लगातार खून बहता है। और यह चोट ठीक कैसे हो? अगले 6-8 घंटे बाद फिर से एक और पाइप डाली जायेगी, और फिर से, और फिर से, और फिर से .... करीब 40 दिन तक लगातार अत्याचार, torture ... 

गनीमत है की इतने समय में ये इतनी बीमार हो चुकी होती हैं कि इन्हें काटा जाए, मौत तो शायद एक वरदान होती होगी उस स्थिति में। इनका लीवर तब तक अपने normal  आकार से दस गुना तक सूज जाता है - यह चित्र देखिये - साधारण और बीमार लीवर - आकार और रंग दोनों। करीब तीन महीने की उम्र में इन्हें निर्दयता से काट दिया जाता है - और लीवर ले लिए जाता है यह "व्यंजन" बनाने के लिए। तीन महीने का भयानक जीवन!
बढे हुए बीमार यकृत की तुलना स्वस्थ यकृत से
 4. 
इन्हें तंग पिंजरों में बंद कर के रखा जाता है ताकि ये हिल डुल कर व्यायाम न पा सकें और इनके बदन में विषाक्त पदार्थ (toxins) अधिक बनें जिससे ये जल्दी से जल्दी वसीय यकृत व्याधि (fatty liver disease) से ग्रस्त हों। ये उड़ने तैरने की शौक़ीन निरीह चिड़ियाँ - अपने जीवन भर एक बार भी पंख नहीं फैला सकतीं, खुली हवा, और धूप नहीं देख सकतीं। 

5. 
लीवर शरीर की विषाक्त पदार्थों (toxins) को बाहर निकालने के काम में मदद करता है। यदि विषाक्त पदार्थ सफ़ाई की उसकी क्षमता से अधिक हों - तो वह ख़राब होने लगता है। यह बीमारी बहुत दर्दनाक होती है। लीवर सूजते सूजते अपने नोर्मल आकार से दस गुना तक सूज जाता है। यह इतना भारी हो जाता है कि चिड़िया हिल भी नहीं पातीं। इसके अलावा जब लीवर अपना काम करना बंद कर दे, तो इनके शरीर से विषाक्त पदार्थ निकालने की प्रक्रिया ठीक से नहीं हो पाती। विषाक्त पदार्थों की यह वृद्धि अन्य अनेक बीमारियों का कारण बनती है। कई पक्षी इतने भयानक दर्द में होते हैं कि जहां (गले और छाती) तक इनकी चोंच पहुंचे, वहां के पंख उखाड़ देते हैं (जैसे इंसान परेशानी में अपने बाल नोचता है), लेकिन तंग पिंजरे में इनकी गर्दन इनके पूरे शरीर तक नहीं पहुँच सकती। 

6.
अत्यधिक और अस्वाभाविक भोजन करने, और व्यायाम न होने से इन्हें कब्ज होता है, और इनके मलद्वार (anus) सूज कर खून बहने लगता है। अपने साधारण जीवन में साफ़ सफाई से रहने वाली ये चिड़ियाँ (यदि पिंजरे जमीन पर हैं) अपने ही मलमूत्र से सनी हुई एक नन्हे से दुर्गन्धयुक्त पिंजरे में बंद अपना "जीवन (?)" जीती हैं। दूसरे तरह की स्थिति भी है - जहां पिंजरे जाली के हैं (पिंजरे की ज़मीन भी) और हवा में लटके हैं, जिससे मलमूत्र जाली के पार नीच फर्श पर गिरता रह सके। नीचे ज़मीन पर मल मूत्र की ठहरी हुई नदी से हो जाती है, जिसकी उठती दुर्गन्ध में ये सफाई पसंद पक्षी जीते(?) हैं।

7. 
इनके बदन गंदे हो जाते हैं। खुजली भी होती है और कीड़े भी लग जाते हैं। परन्तु पिंजरे में इतनी जगह नहीं कि  ये अपनी चोंच से खुद को साफ़ रख सकें, उन कीड़ों के काटने से खुद को बचा सकें।

8. 
लगातार तारों पर (जमीन पर नहीं - तारों की जाली wire mesh पर) खड़े रहने का जीवन - पंजे ख़राब और दर्दीले हो जाते हैं (हम कभी कभी पथरीली सड़क पर बिना चप्पल पहने जाते हैं - कुछ पलों के लिए) याद रखिये, स्वाभाविक जीवन में बत्तख पानी में तैरते हैं- तो इनके पैर webbed होते हैं, मुर्गी के पंजों की तरह नहीं, बल्कि नाज़ुक झिल्लियों से जुड़े पंजे। और ये तार पर खड़े रहने के लिए नहीं बने हैं।   याद रखिये - इनकी उम्र तीन महीने से भी कम है, अभी ये चूजे ही होते साधारण जीवन में। एक वयस्क पक्षी जितने मजबूत नहीं हुए हैं इनके पैर, परतु इनका वजन एक परिपक्व पक्षी से अधिक है - क्योंकि लीवर सूजा हुआ है। और दिन में चौबीस घंटे खड़े ही रहना है, न चलना है, न उड़ना, न तैरना - तो तारों पर टिके नन्हे पंजों से यह बोझ कभी नहीं हटता।

9. 
ये बुरी तरह बीमार हैं, लीवर इतना भारी है कि  ये हिल भी नहीं सकतीं। चूहे इनके खुले हुए जख्मो को काटते हैं - तो ये मुड़ कर उनसे अपने आप को बचा भी नहीं सकतीं (इस विडिओ में यह दृश्य दिखाया गया है कि एक चूहा पक्षी को काट रहा है - 5-6 सेकण्ड तक, और वह चिड़िया हिली तक नहीं । उसके पेट का दर्द शायद उस चूहे के काटने के दर्द से भी असह्य रहा हो - सोचिये ।

10. 
गले से बहते हुए खून से दम घुट कर यदि चिड़िया मर गयी - और यदि लीवर अभी अच्छे दामों में बेचने योग्य बड़ा न हुआ - तो मालिक का नुकसान होगा न? तो जिनके मुंह से ज्यादा ही खून  रहा हो (पाइप से की गयी force feeding से आई चोट के कारण) उन्हें पंजो से बाँध कर उल्टा लटका दिया जाता है, जिससे खून साँस को न रोके - बाहर गिरे। लेकिन पाइप डाल कर force feeding अब भी दिन में तीन बार जारी रहती है। यह उसे कितना दर्द देगा - यह सोचने का समय किसी के पास नहीं। यह चोंच से टपकता हुआ खून नीचे की दूसरी चिड़ियों को भिगोता रहता है। :(

11. 
आखिर 3 महीने, सिर्फ 3 महीने की उम्र तक आते आते ये इतनी बीमार हो चुकी होती हैं, कि इन्हें काटा जा सके। तब इन्हें उल्टा लटका कर - पूरे होश में - इनका गला रेता (काटा नहीं - सिर्फ रेता) जाता है - और खून बह कर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, क्योंकि यदि गर्दन काट दी तो वह मर जायगी और दिल नहीं धड़केगा, तो लीवर में खून बचा रहेगा। तब भी शायद यह दर्द कम से कम, रोज़ रोज़ के torture का तो अंत ला ही रहा है इनके लिए :(। 

तीन महीने की उम्र मेंअंडे से व्यंजन बनने तक का दर्दनाक सफ़र - ख़त्म हो जाता है। जिस उम्र तक साधारण तौर पर ये अपनी माँ के साथ किसी तालाब आदि में तैरते होते (साधारण परिवेश में अब तक शायद ये उड़ना सीखना शुरू करने वाले होते अपने माँ से)।

अब भी क्या हम कह सकते हैं कि नर्क नहीं होते??

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अगले भाग में - चिकन, अंडे, और पोल्ट्री फार्म पर बात करूंगी।

आप सभी का आभार, और यह पोस्ट पढ़ते हुए आपके मन को जो तकलीफ पहुंचाईउसके लिए पुनः क्षमा याचना करती हूँ। यदि चाहें - तो  आप भी "Foie gras india" गूगल सर्च कर भारत में इसे बंद करवाने के प्रयासों का हिस्सा बन सकते हैं, online petition sign कर के।

आभार।