रविवार, 23 दिसंबर 2012

मांसाहार प्रचारकों के कुतर्की जाल का खण्ड़न।

मांसाहारी प्रचारक:- - "हिन्दू मत अन्य धर्मों से प्रभावित"

“हालाँकि हिन्दू धर्म ग्रन्थ अपने मानने वालों को मांसाहार की अनुमति देते हैं, फिर भी बहुत से हिन्दुओं ने शाकाहारी व्यवस्था अपना ली, क्यूंकि वे जैन जैसे धर्मों से प्रभावित हो गए थे.”

प्रत्युत्तर : वैदिक मत प्रारम्भ से ही अहिंसक और शाकाहारी रहा है, यह देखिए-

य आमं मांसमदन्ति पौरूषेयं च ये क्रवि: !
गर्भान खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि !! (अथर्ववेद- 8:6:23)

-जो कच्चा माँस खाते हैं, जो मनुष्यों द्वारा पकाया हुआ माँस खाते हैं, जो गर्भ रूप अंडों का सेवन करते हैं, उन के इस दुष्ट व्यसन का नाश करो !

अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि (यजुर्वेद-1:1)

-हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो |

अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः। (आदिपर्व- 11:13)

-किसी भी प्राणी को न मारना ही परमधर्म है ।

सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥ (शान्तिपर्व- 265:9)

-सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि भोजन, धूर्त प्रवर्तित है जिन्होनें ऐसे अखाद्य को वेदों में कल्पित कर दिया है।

अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥ (मनुस्मृति- 5:51)

- मारने की अनुमति देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले - ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं ।

इस स्पष्ट  सच्चाई को जानने के बाद, मात्र जैन-मार्ग से प्रभावित मानने का प्रश्न ही नहीं उठता। हां, अवार्चिन में, आगे चलकर बहुत बाद में प्रवर्तित, यज्ञों में पशुबलि रूप कुरीति का विरोध अवश्य जैन मत या बौद्ध मत नें किया होगा, लेकिन वह मात्र परिमार्जन था। फिर भी अगर प्रभावित भी हुआ हो तो वह अपने ही सिद्धान्तों का जीर्णोद्धार था । सुसंस्कृति अगर किसी भी संसर्ग से प्रगाढ होती है तो उसमें बुरा क्या है? क्या मात्र इसलिये कि अहिंसा आपकी अवधारणाओं से मेल नहीं खाती? धर्म का मूल अहिंसा, सर्वे भवन्तु सु्खिनः सूक्त के लिए एक आवश्यक सिद्धांत है। यह भारतीय संस्कृति का यथार्थ है।

मांसाहारी प्रचारक:- - "पेड़ पौधों में भी जीवन"

“कुछ धर्मों ने शुद्ध शाकाहार अपना लिया क्यूंकि वे पूर्णरूप से जीव-हत्या से विरुद्ध है. अतीत में लोगों का विचार था कि पौधों में जीवन नहीं होता. आज यह विश्वव्यापी सत्य है कि पौधों में भी जीवन होता है. अतः जीव हत्या के सम्बन्ध में उनका तर्क शुद्ध शाकाहारी होकर भी पूरा नहीं होता.”

प्रत्युत्तर : अतीत में ऐसे किन लोगों का मानना था कि पेड़-पौधो में जीवन नहीं है? ऐसी 'ज़ाहिल' सभ्यताएं कौन थी? आर्यावर्त में तो सभ्यता युगारम्भ में ही पुख्त बन चुकी थी, अहिंसा में आस्था रखने वाली आर्य सभ्यता न केवल वनस्पति में बल्कि पृथ्वी, वायु, जल और अग्नी में भी जीवन को प्रमाणित कर चुकी थी, जबकि विज्ञान को अभी वहां तक पहुंचना शेष है। अहिंसा की अवधारणा, हिंसा को न्यून से न्यूनत्तम करने की है और उसके लिए शाकाहार ही श्रेष्ठ माध्यम है।

मांसाहारी प्रचारक:- - "पौधों को भी पीड़ा होती है"

“वे आगे तर्क देते हैं कि पौधों को पीड़ा महसूस नहीं होती, अतः पौधों को मारना जानवरों को मारने की अपेक्षा कम अपराध है. आज विज्ञान कहता है कि पौधे भी पीड़ा महसूस करते हैं …………अमेरिका के एक किसान ने एक मशीन का अविष्कार किया जो पौधे की चीख को ऊँची आवाज़ में परिवर्तित करती है जिसे मनुष्य सुन सकता है. जब कभी पौधे पानी के लिए चिल्लाते तो उस किसान को तुंरत ज्ञान हो जाता था. वर्तमान के अध्ययन इस तथ्य को उजागर करते है कि पौधे भी पीड़ा, दुःख-सुख का अनुभव करते हैं और वे चिल्लाते भी हैं.”

प्रत्युत्तर : हाँ, उसके बाद भी सूक्ष्म हिंसा कम अपराध ही है, इसी में अहिंसक मूल्यों की सुरक्षा है। एक उदा्हरण से समझें- यदि प्रशासन को कोई मार्ग चौडा करना हो, उस मार्ग के एक तरफ विराट निर्माण बने हुए हो, जबकि दूसरी तरफ छोटे साधारण छप्परनुमा अवशेष हो तो प्रशासन किस तरफ के निर्माण को ढआएगा? निश्चित ही वे साधारण व कम व्यय के निर्माण को ही हटाएंगे।  जीवन के विकासक्रम की दृष्टि से अविकसित या अल्पविकसित जीवन की तुलना में अधिक विकसित जीवों को मारना बड़ा अपराध है। रही बात पीड़ा की तो, अगर जीवन है तो पीडा तो होगी ही, वनस्पति जीवन को तो छूने मात्र से उन्हे मरणान्तक पीडा होती है। पर बेहद जरूरी उनकी पीडा को सम्वेदना से महसुस करना। सवाल उनकी पीड़ा से कहीं अधिक, हमारी सम्वेदनाओं को पहुँचती चोट की पीडा का है।जैसे कि, किसी कारण से बालक की गर्भाधान के समय ही मृत्यु हो जाय, पूरे माह पर मृत्यु हो जाय, जन्म लेकर मृत्यु हो, किशोर अवस्था में मृत्यु हो, जवान हो्कर मृत्यु हो या शादी के बाद मृत्यु हो। कहिए किस मृत्यु पर हमें अधिक दुख होगा? निश्चित ही अधिक विकसित होने पर दुख अधिक ही होगा। छोटे से बडे में क्रमशः  हमारे दुख व पीडा महसुस करने में अधिकता आएगी। क्योंकि इसका सम्बंध हमारे भाव से है। जितना दुख ज्यादा, उसे मारने के लिए इतने ही अधिक क्रूर भाव चाहिए। अविकसित से पूर्ण विकसित जीवन की हिंसा करने पर क्रूर भाव की श्रेणी बढती जाती है। बडे पशु की हिंसा के समय अधिक असम्वेदनशीलता की आवश्यकता रहती है, अधिक विकृत व क्रूर भाव चाहिए। इसलिए प्राणहीन होते जीव की पीड़ा से कहीं अधिक, हमारी मरती सम्वेदनाओं की पीड़ा का सवाल है।

मांसाहारी प्रचारक:- - "दो इन्द्रियों से वंचित प्राणी की हत्या कम अपराध नहीं !!!"

“एक बार एक शाकाहारी ने तर्क दिया कि पौधों में दो अथवा तीन इन्द्रियाँ होती है जबकि जानवरों में पॉँच होती हैं| अतः पौधों की हत्या जानवरों की हत्या के मुक़ाबले छोटा अपराध है.”

"कल्पना करें कि अगर आप का भाई पैदाईशी गूंगा और बहरा है, दुसरे मनुष्य के मुक़ाबले उनमें दो इन्द्रियाँ कम हैं. वह जवान होता है और कोई उसकी हत्या कर देता है तो क्या आप न्यायधीश से कहेंगे कि वह हत्या करने वाले (दोषी) को कम दंड दें क्यूंकि आपके भाई की दो इन्द्रियाँ कम हैं. वास्तव में आप ऐसा नहीं कहेंगे. वास्तव में आपको यह कहना चाहिए उस अपराधी ने एक निर्दोष की हत्या की है और न्यायधीश को उसे कड़ी से कड़ी सज़ा देनी चाहिए."

प्रत्युत्तर : एकेन्द्रिय  और पंचेन्द्रिय को समझना आपके बूते से बाहर की बात है, क्योकि आपके उदाहरण से ही लग रहा है कि उसे समझने का न तो दृष्टिकोण आपमें है न वह सामर्थ्य। किसी भी पंचेन्द्रिय प्राणी में, एक दो या तीन इन्द्रिय कम होने से, वह चौरेन्द्रिय,तेइन्द्रिय,या बेइन्द्रिय नहीं हो जाता, रहेगा वह पंचेन्द्रिय ही। वह विकलांग (अपूर्ण इन्द्रिय) अवश्य माना जा सकता है, किन्तु पाँचो इन्द्रिय धारण करने की योग्यता के कारण वह पंचेन्द्रिय ही रहता है। उसका आन्तरिक इन्द्रिय सामर्थ्य सक्रिय रहता है। जीव के एकेन्द्रीय से पंचेन्द्रीय श्रेणी मुख्य आधार, उसके इन्द्रिय अव्यव नहीं बल्कि उसकी इन्द्रिय शक्तियाँ है। नाक कान आदि तो उपकरण है, शक्तियाँ तो आत्मिक है।और रही बात सहानुभूति की तो निश्चित ही विकलांग के प्रति सहानुभूति अधिक ही होगी। अधिक कम क्या, दया और करूणा तो प्रत्येक जीव के प्रति होनी चाहिए, किन्तु व्यवहार का यथार्थ उपर दिए गये पीड़ा व दुख के उदाहरण से स्पष्ट है। भारतीय संसकृति में अभयदान देय है, न्यायाधीश बनकर सजा देना लक्ष्य नहीं है।क्षमा को यहां वीरों का गहना कहा जाता है, भारतिय संसकृति को यूँ ही उदार व सहिष्णुता की उपमाएं नहीं मिल गई। विवेक यहाँ साफ कहता है कि अधिक इन्द्रीय समर्थ जीव की हत्या, अधिक क्रूर होगी।

आपको तो आपके ही उदाह्रण से समझ आ सकता है………

कल्पना करें कि अगर आप का भाई पैदाईशी गूंगा और बहरा है, आप के दूसरे भाई के मुक़ाबले उनमें दो इन्द्रियाँ कम हैं। वह जवान होता है, और वह किसी आरोप में फांसी की सजा पाता है ।तो क्या आप न्यायधीश से कहेंगे कि वह उस भाई को छोड दें, क्यूंकि इसकी दो इन्द्रियाँ कम हैं, और वह सज़ा-ए-फांसी की पीड़ा को महसुस तो करेगा पर चिल्ला कर अभिव्यक्त नहीं कर सकता, इसलिए यह फांसी उसके बदले, इस दूसरे भाई को दे दें जिसकी सभी इन्द्रियाँ परिपूर्ण हैं, यह मर्मान्तक जोर से चिल्लाएगा, तडपेगा, स्वयं की तड़प देख, करूण रुदन करेगा, इसे ही मृत्यु दंड़ दिया जाय। क्या आप ऐसा करेंगे? किन्तु वास्तव में आप ऐसा नहीं कहेंगे। क्योंकि आप तो समझदार(?) जो है। ठीक उसी तरह वनस्पति के होते हुए भी बड़े पशु की घात कर मांसाहार करना बड़ा अपराध है।

यह यथार्थ है कि हिंसा तो वनस्पति के आहार में भी है। पर विवेक यह कहता है कि जितना हिंसा से बचा जाये, बचना चाहिये। न्यून से न्यूनतम हिंसा का विवेक रखना ही हमारे सम्वेदनशील मानवीय जीवन मूल्य है। वनस्पति आदि सुक्ष्म को आहार बनाने के लिए हमें क्रूर व निष्ठुर भाव नहीं बनाने पडते, किन्तु पंचेन्द्रिय प्राणी का वध कर अपना आहार बनाने से लेकर,आहार ग्रहण करने तक, हमें बेहद क्रूर भावों और निष्ठुर मनोवृति की आवश्यकता होती है। अपरिहार्य हिंसा में भी द्वेष व क्रूर भावों के दुष्प्रभाव से  अपने मानस को सुरक्षित रखना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए । यही तो भाव अहिंसा है। अहिंसक मनोवृति के निर्माण की यह मांग है कि बुद्धि, विवेक और सजगता से हम हिंसकभाव से विरत रहें और अपरिहार्य हिंसा को भी छोटी से छोटी बनाए रखें, सुक्ष्म से सुक्ष्मतर करें, न्यून से न्यूनत्तम करें, अपने भोग को संयमित करते चले जाएं।

अब रही बात जैन मार्ग की तो, जैन गृहस्थ भी प्रायः जैसे जैसे त्याग में समर्थ होते जाते है, वैसे वैसे, योग्यतानुसार शाकाहार में भी, अधिक हिन्साजन्य पदार्थो का त्याग करते जाते है। वे शाकाहार में भी हिंसा त्याग बढ़ाने के उद्देश्य से कन्दमूल, हरी पत्तेदार सब्जीओं आदि का भी त्याग करते है।और इसी तरह स्वयं को कम से कम हिंसा की ओर बढ़ाते चले जाते है।

जबकि मांसाहार में, मांस केवल क्रूरता और प्राणांत की उपज ही नहीं, बल्कि उस उपजे मांस में सडन गलन की प्रक्रिया भी तेज गति से होती है। परिणाम स्वरूप जीवोत्पत्ति भी तीव्र व बहुसंख्य होती है।सबसे भयंकर तथ्य तो यह है कि पकने की प्रक्रिया के बाद भी उसमे जीवों की उत्पत्ति निरन्तर जारी रहती है। अधिक जीवोत्पत्ति और रोग की सम्भावना के साथ साथ यह महाहिंसा का कारण है। अपार हिंसा और हिंसक मनोवृति के साथ क्रूरता ही मांसाहार निषेध का प्रमुख कारण है।

12 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर आलेख! धन्यवाद!
    हिंसा और मांसाहार का प्रचार तो बाद की बात है, ऐसे खुद्गर्ज़ों का पहला उद्देश्य तो महान भारतीय परम्पराओ को अपमानित करके उनसे विश्वास हटाने का है. हमारे आदर्शों, बोधवचनों, सत्पुरुषों, परम्पराओं को नीचा या ग़लत साबित करना एक सुनियोजित साज़िश के तहत हो रहा है. क्योंकि श्रेष्ठ परम्परा की स्थापना के बाद ज़ाहिलियाना और वहशी हिंसक विचारधाराये किसी भी रूप में टिक नहीं सकती हैं.

    फिर भी, उनके दुष्कृत्य भी दो तरह से लाभप्रद हैं -
    1. हिंसक विचारधाराओं के प्रवर्तकों व प्रायोजकों की असलियत सामने आ रही है.
    2. निरामिष के माध्यम से उनके दुष्प्रचार की असत्यता ब्लॉग के द्वारा तर्क और तथ्यों द्वारा सदा-सदा के लिये रिकॉर्ड हो रही है.

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    1. अनुराग जी,
      बहुत ही यथार्थ बात कही है………
      1. हिंसक विचारधाराओं के प्रवर्तकों व प्रायोजकों की असलियत सामने आ रही है.
      2. निरामिष के माध्यम से उनके दुष्प्रचार की असत्यता ब्लॉग के द्वारा तर्क और तथ्यों द्वारा सदा-सदा के लिये रिकॉर्ड हो रही है.

      एक ही उद्देश्य है, जगत में हिंसकता की मानसिकता के प्रसार को किसी भी तरह रोकने का प्रयास करना।

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  2. सार्थकता लिये सशक्‍त प्रस्‍तुति

    सादर

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  3. अपनी जीभ लोगों को गलत बोलने पर भी विवश करती होगी।

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    1. जी, जीभ का तो दोष है ही ...

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    2. अनावश्यक स्वाद और अनावश्यक विवाद दोनो का कारण रसना!!

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  4. प्रशंसनीय आलेख ....

    "न्यून से न्यूनतम हिंसा का विवेक रखना ही हमारे सम्वेदनशील मानवीय जीवन मूल्य है।"

    ...... ऐसे आलेख पढ़कर अशांत मन भी शांत होते हैं। क्रूरतम तनावों से मुक्ति मिलती है।

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