बात सभ्यता की हो, अध्यात्म की, योग की या शाकाहार की, भारत का नाम ज़ुबान पर आना स्वाभाविक ही है। सच है कि इन सभी क्षेत्रों में भारत अग्रणी रहा है। वैदिक ऋषियों, जैन तीर्थंकरों, बौद्ध मुनियों और सिख गुरुओं ने अपने आचरण और उपदेश में वीरता, त्याग, प्रेम, करुणा और अहिंसा को अपनाया है मगर शाकाहार का प्रसार छिटपुट ही सही, भारत के बाहर भी रहा अवश्य होगा ऐसा सोचना भी नैसर्गिक ही है।
निरामिष पर एक पिछली पोस्ट में हमने इंग्लैंड में हुए एक अध्ययन के हवाले से देखा था कि वहाँ सर्वोच्च बुद्धि-क्षमता वाले अधिकांश बच्चे 30 वर्ष की आयु तक पहुँचने से पहले ही शाकाहारी हो गये थे। इसी प्रकार बेल्जियम के नगर घेंट में नगर प्रशासन ने सप्ताह के एक दिन को शाकाहार अनिवार्य घोषित करके शाकाहार के प्रति प्रतिबद्धता का एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया था। पश्चिम जर्मनी व अमेरिका में बढते शाकाहार की झलकियाँ भी हम निरामिष पर पिछले आलेखों में देख चुके हैं। शाकाहार के प्रति वैश्विक आकर्षण कोई नई बात नहीं है। आइये आज इस आलेख में हम यह पड़ताल करते हैं कि भारत के बाहर शाकाहार के बीज किस तरह पड़े और निरामिष प्रवृत्ति ने वहाँ किस प्रकार एक आन्दोलन का रूप लिया।
पायथागोरस इतने बुद्धिमान थे कि उन्होंने कभी मांस नहीं खाया और मांसाहार को सदा पाप कहाआज के भारत में शाकाहारी होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हमारे पास भूतदया, करुणा और शाकाहार की इतनी पुरानी और सुदृढ परम्परा है कि शाकाहार पर नहीं, आश्चर्य तो मांसाहार पर होना चाहिये। लेकिन सरसरी तौर पर देखने से पश्चिमी जगत में शाकाहार के लिए पर्याप्त उदाहरण, उपदेश और प्रेरणाएं नज़र नहीं आतीं बल्कि वह कुछ असाधारण व्यक्तियों के हृदय में स्वतः ही उत्पन्न हुआ लगता है। निश्चित रूप से इसके पीछे अच्छे स्वास्थ्य की कामना और पर्याप्त ज्ञान तो है ही, जीवदया और करुणा का महत्व भी कम नहीं है।
~ पायथागोरस की जीवनी खंड 23
जिन लोगों ने आरम्भिक गणित पढा होगा उन्हें धर्मसूत्र के रचनाकार के रूप मे प्रसिद्ध बौधायन (800 ईसा पूर्व) की समकोण त्रिकोण प्रमेय (Pythagoras theorem) को पश्चिम में स्वतंत्र रूप से सिद्ध करने वाले पाइथागोरस (इटली 570 - 495 ईसा पूर्व) की याद तो होगी ही। एक समय में पायथागोरस और उनका गणित इतना आदरणीय था कि उनके वैसे ही अनेक अनुसरणकर्ता बन गये थे जैसे कि किसी धर्मगुरु के अनुयायी होते हैं। किमाश्चर्यम् कि घनघोर मांसाहारी यूरोप का यह प्रसिद्ध गणितज्ञ और विचारक पूर्णतया शाकाहारी था। वैसे पायथागोरस को पुनर्जन्म में भी न केवल विश्वास था बल्कि उनका दावा यह था कि उन्हें अपने चार पिछले जन्मों की बातें याद हैं। पायथागोरस के प्रमुख शिष्यों ने भी शाकाहारी जीवन अपनाया। ये लोग न केवल मछली, अंडा आदि खाने के विरोधी थे बल्कि धर्म के बहाने से की जाने वाली पशुहत्या को भी अमानवीय मानते थे।
होमर के ग्रंथों में कमलपोषित कहकर उत्तरी अफ़्रीका की शाकाहारी प्रजातियों के और इथोपिया के शाकाहारियों के सन्दर्भ आये हैं। पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व के दार्शनिक एम्पेडोक्लीज़ भी अपने शाकाहार के लिये जाने गये थे। उस समय के यूरोप के शाकाहारी विद्वानों और मांसाहारी आमजनों के बीच अनेक शास्त्रार्थ होने के बावजूद उनमें इस बात पर सहमति थी कि एक आदर्श समाज में जीवहत्या, शिकार आदि के लिये कोई स्थान नहीं होना चाहिये, ऐसी जानकारी प्लेटो, हेसोइड व ओविड आदि दार्शनिकों के आलेखों से ज्ञात है। प्लेटो और उसके अनुयायी भी पूर्णतः शाकाहारी थे। इनसे इतर विचारधारा का दार्शनिक स्टोइक यद्यपि स्वयं शाकाहारी नहीं था पर उसके प्रसिद्ध शिष्य सेनेका शाकाहारी थे।
विश्व भर में विभिन्न चैम्पियन खिलाड़ियों ने शाकाहार अपनाकर अपने को शिखर पर बनाये रखा है। मगर पश्चिम में भी क्षमतावान होने के लिये शाकाहार का यह प्रयोग कोई नई बात नहीं है। सिकन्दर के विश्वविजयी सैनिकों को युद्धकाल में शाकाहारी रहने के निर्देश थे। अध्ययनों से यह सिद्ध हुआ है कि रोम के विश्वविख्यात ग्लैडियेटर्स अधिक शक्ति, स्फूर्ति व गति के लिये न केवल शाकाहारी बल्कि वीगन हुआ करते थे।
यूरोप में ईसाई धर्म के प्रसार के साथ विद्वानों व संतों के बीच शाकाहार की अनिवार्यता समाप्त हो गयी तथापि अनेक ईसाई संत या तो शाकाहारी रहे या शाकाहार के साथ मत्स्याहारी। परंतु धीरे-धीरे चर्च और विद्वानों के बीच टकराव बढता गया। शक्तिशाली चर्च ने विद्वानों के दमन की नीति अपनाई। यहाँ तक कि कई विद्वानों, विचारकों, दार्शनिकों, वैज्ञानिकों को धर्मविरोधी होने के आरोप में मार दिया गया। ऐसे अन्धकारमय काल के यूरोपीय जीवन में हिंसा और मांसाहार सामान्य सा हो गया। इंग्लैंड में तो कई समूह यह दावा करते दिखते थे कि पशुओं को ईश्वर ने उनके आहार के लिये ही बनाया है। यूरोप के पुनर्जागरण के काल (रेनेसां = Renaissance) में एक लगभग पूर्ण मांसाहारी यूरोप में जन्मी विभूतियों जैसे लियोनार्दो दा विंची (1452–1519) और पियरे गासेन्दी (1592–1655) ने शाकाहार अपनाकर उसे फिर से विद्वानों के भोजन की प्रतिष्ठा दिलाई। इनके कुछ समय बाद इंग्लिश लेखक टॉमस ट्रायन (1634–1703) ने इंग्लैंड में शाकाहार की वकालत की।
अमेरिका में शाकाहार का जन्म मेरे वर्तमान राज्य पेंसिल्वेनिया में 1732 में योहान कॉनराड द्वारा स्थापित एफ़्राटा क्लॉइस्टर (Ephrata Cloister) समुदाय में हुआ। तत्कालीन इंगलैंड में अनेक कवि, लेखक, विचारक और विद्वान शाकाहार अपना रहे थे। सन 1809 में विलियम काउहर्ड द्वारा शाकाहारी सिद्धांतों पर आधारित बाइबल क्रिस्चियन चर्च की स्थापना हुई। 1838 में लंडन के पास खुले कंकॉर्डियम स्कूल ने मांसाहार को पूर्णतः प्रतिबन्धित कर दिया। भारत के बाहर शाकाहार के आधुनिक इतिहास में एक प्रमुख घटना 30 सितम्बर 1847 को घटी जब 140 अंग्रेज़ों ने एक स्वयंसेवी संस्था "वेजीटेरियन सोसायटी" को पंजीकृत कराया। इसके बाद तो शाकाहार की ऐसी धूम मची कि सन 1853 में 889 सदस्यों की संस्था में सन 1897 तक 5,000 सदस्य थे। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, महात्मा गान्धी और पॉल मैककॉर्टनी जैसे महानुभाव इस संस्था के सदस्य रह चुके हैं। वेजीटेरियन सोसायटी आज भी कार्यरत है और अन्य ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ विभिन्न आहारों को शाकाहारी प्रमाणित करने का काम भी करती है। जिलेटिन और पशु रेनेट (animal rennet) युक्त खाद्य पदार्थों को भोजन से हटाने या स्पष्टतः मांसाहार के रूप में लिखे जाने का दवाब बनाना जैसे कार्य भी इसकी सूची में हैं।
जीवदया के उद्देश्य से सन 1980 में स्थापित संस्था पीटा (PETA = People for the Ethical Treatment of Animals) अपने तीस लाख सदस्यों के साथ शायद इस समय संसार की सबसे बड़ी पशु संरक्षक संस्था है जिसका एक सहयोगी उद्देश्य शाकाहार को बढावा देना भी है। पीटा का मुख्यालय नॉर्फ़ोक वर्जिनिया (अमेरिका) में है।
इस प्रकार हमने देखा कि विश्व भर में अलग-अलग बिखरे हुए विद्वानों व बुद्धिजीवियों द्वारा अपनाई जाने वाली निरामिष आहार शैली किस प्रकार जनमानस के सामान्यजीवन का अंग बनी। भारत में भी यही सब लगभग इसी प्रकार से हुआ होगा। हाँ इतना अवश्य है कि इस मामले में हम शेष विश्व से कई हज़ार साल आगे निकल आये थे और इसीलिये आज भी भारत शाकाहारियों के लिये स्वर्ग है। प्रसन्नता की बात है कि विज्ञान की प्रगति और नित नये अध्ययनों के आधार पर शाकाहार के संतुलित और सम्पूर्ण होने का ज्ञान विद्वानों से आगे बढकर आम जनता तक पहुँच रहा है।
इंसानियत तो दुनियाभर में शाकाहार की प्रगति का मुख्य कारण है ही परंतु मांस उद्योग द्वारा किये जा रहे पर्यावरण प्रदूषण, संसाधन हानि और मानव स्वास्थ्य पर मांस द्वारा पड़ने वाले दुष्प्रभावों के कारण भी विदेश में शाकाहार का प्रचलन बढ रहा है। संयुक्त राष्ट्र ने आधुनिक विश्व में अहिंसा के पुरोधा महात्मा गान्धी के जन्मदिन को अंतर्राष्ट्रीय शाकाहार दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की है। ब्रिटेन में 1985 मे जहॉ कुल जनसंख्या का 2.6 प्रतिशत शाकाहारी था वही आज बढ़कर 7 प्रतिशत से अधिक हो गया है। परम्परागत रूप से मांसाहारी ताइवान में पिछले वर्ष पर्यावरण संरक्षण के लिये "नो मीट नो हीट" अभियान में लगभग दस लाख नागरिकों ने शाकाहार अपनाने की शपथ ली जिसमें ताइवान की संसद के प्रमुख और ताइपेइ तथा काओस्युंग के मेयर भी शामिल हैं।
शाकाहार के सम्बन्ध में यदि आपको कोई भी जानकारी अपेक्षित हो तो आप इन संस्थाओं (वेजीटेरियन सोसायटी व पीटा) से सीधे भी सम्पर्क कर सकते हैं और यदि उचित समझें तो हमसे भी पूछ सकते हैं। इस विषय में आपकी सहायता करने में हमें हार्दिक प्रसन्नता होगी।
* सम्बन्धित कड़ियाँ ** पायथागोरस एवम पशु अधिकार
* वेजीटेरियन सोसायटी
* पीटा