खाद्य शृंखला में सभी जीव (organisms) की सामान्यतया तीन कडि़यां होती हैं -
1-उत्पादक
2-उपभोक्ता
3-अपघटक
दूसरे उपभोक्ता के अन्तर्गत खाद्य उपभोग के आधार पर जीव को इन तीन कक्षाओं में वर्गीकृत किया जा सकता हैं।
1-शाकाहारी जीव (Herbivores)
2-माँसाहारी जीव (Carnivores)
3-सर्वाहारी जीव (Omnivores)
शाकाहारी जीव (Herbivores) हिरण, गाय, भैस, बैल, घोडा, हाथी आदि
माँसाहारी जीव (Carnivores) शेर चिता लोमडी भेड़िया आदि
सर्वाहारी जीव (Omnivores) भालू, सुअर (कुछ कुछ कुत्ता बिल्ली भी)आदि
तो मानव की कक्षा क्या है?
सर्वाहारी? खाने को तो मानव कुछ भी खा सकता है, पचा भी लेता है। धूल, काँच, जहर आदि कुछ भी!! पर क्या इस कौतुक भरी आदतों को सामान्य आहर कहकर ग्रहण किया जा सकता हैं? माँसाहार भी मानव का अभ्यास उपार्जित कौशल मात्र ही है। यह प्राकृतिक सहज स्वभाव नहीं है। इसलिए मानव सर्वाहार लेकर भी सर्वाहारी नहीं है।
तो फिर खाद्य उपभोग कक्षा में मानव का स्थान क्या है?
वस्तुतः मानव इन तीनो वर्गों से इतर विशिष्ट वर्ग का जीव है।
वह है “विवेकाहारी (विवेकाचारी) जीव”!!
‘विवेकाहारी’ कैसे?
1-वह विवेक से खाद्य प्रबंध करता है ताकि उर्ज़ा-चक्र और जैव-चक्र बाधित न हो
2-वह विवेक से अपनी भोजन आवश्यकता की पूर्ति के लिए सम्भवतया हिंसा और अहिंसा में से अहिंसक आहार का चुनाव करता है।
3-वह सुपोषण और कुपोषण में अन्तर करके विवेक से अल्प किन्तु सुपोषण अपनाता है।
4-वह सुपाच्य दुपाच्य में चिंतन करके विवेक से सुपाच्य ग्रहण करता है।
5-अपने आहार स्वार्थ की प्रतिपूर्ति से कहीं अधिक, समस्त जीव-जगत के हित हेतु विवेक से संयम को सर्वोपरि स्थान देता है।
6-स्वाद, मनमौज से उपर उठकर विवेक से आरोग्य को महत्व देता है।
7-अल्पकालीन व दीर्घकालीन प्रभावों पर चिंतन करके विवेक से दीर्घकालीन प्रभावों पर क्रियाशील रहता है।
मानव का विवेक उसे निरामिष रहने को प्रेरित करता है।
बुद्धिमान मनुष्य का वर्गीकरण ‘विवेकाहारी’ (विवेकाचारी) में ही हो सकता है।
1-उत्पादक
2-उपभोक्ता
3-अपघटक
दूसरे उपभोक्ता के अन्तर्गत खाद्य उपभोग के आधार पर जीव को इन तीन कक्षाओं में वर्गीकृत किया जा सकता हैं।
1-शाकाहारी जीव (Herbivores)
2-माँसाहारी जीव (Carnivores)
3-सर्वाहारी जीव (Omnivores)
शाकाहारी जीव (Herbivores) हिरण, गाय, भैस, बैल, घोडा, हाथी आदि
माँसाहारी जीव (Carnivores) शेर चिता लोमडी भेड़िया आदि
सर्वाहारी जीव (Omnivores) भालू, सुअर (कुछ कुछ कुत्ता बिल्ली भी)आदि
तो मानव की कक्षा क्या है?
सर्वाहारी? खाने को तो मानव कुछ भी खा सकता है, पचा भी लेता है। धूल, काँच, जहर आदि कुछ भी!! पर क्या इस कौतुक भरी आदतों को सामान्य आहर कहकर ग्रहण किया जा सकता हैं? माँसाहार भी मानव का अभ्यास उपार्जित कौशल मात्र ही है। यह प्राकृतिक सहज स्वभाव नहीं है। इसलिए मानव सर्वाहार लेकर भी सर्वाहारी नहीं है।
तो फिर खाद्य उपभोग कक्षा में मानव का स्थान क्या है?
वस्तुतः मानव इन तीनो वर्गों से इतर विशिष्ट वर्ग का जीव है।
वह है “विवेकाहारी (विवेकाचारी) जीव”!!
‘विवेकाहारी’ कैसे?
1-वह विवेक से खाद्य प्रबंध करता है ताकि उर्ज़ा-चक्र और जैव-चक्र बाधित न हो
2-वह विवेक से अपनी भोजन आवश्यकता की पूर्ति के लिए सम्भवतया हिंसा और अहिंसा में से अहिंसक आहार का चुनाव करता है।
3-वह सुपोषण और कुपोषण में अन्तर करके विवेक से अल्प किन्तु सुपोषण अपनाता है।
4-वह सुपाच्य दुपाच्य में चिंतन करके विवेक से सुपाच्य ग्रहण करता है।
5-अपने आहार स्वार्थ की प्रतिपूर्ति से कहीं अधिक, समस्त जीव-जगत के हित हेतु विवेक से संयम को सर्वोपरि स्थान देता है।
6-स्वाद, मनमौज से उपर उठकर विवेक से आरोग्य को महत्व देता है।
7-अल्पकालीन व दीर्घकालीन प्रभावों पर चिंतन करके विवेक से दीर्घकालीन प्रभावों पर क्रियाशील रहता है।
मानव का विवेक उसे निरामिष रहने को प्रेरित करता है।
बुद्धिमान मनुष्य का वर्गीकरण ‘विवेकाहारी’ (विवेकाचारी) में ही हो सकता है।
बिलकुल सच कह रहे हैं आप | मनुष्य और पशु में जो फर्क है , उसका मुख्य आधार विवेक ही तो है | जैविक प्रक्रियाओं को करना, और मृत्यु तक पहुँच जाना, ही यदि जीवन होता, तो मनुष्य के सभ्य होने का , विवेकवान होने का कोई अर्थ ही न होता |
जवाब देंहटाएंसिर्फ पाचन करने के लिए सक्षम भर होना ही क्या हमें "सर्वहारी" बना दे ? क्या भोजन का उद्देश्य सिर्फ पेट भरना और पोषण भर होना चाहिए ? क्या हमें अपने विवेक को बिलकुल सुला देना चाहिए ? एक तरफ तो हम "परमात्मा " और "धार्मिकता" के बातें करें, और दूसरी और अपनी जीभ को संतुष्ट करने के लिए उसी ईश्वर को एक साधन बना लें, और कहने लगें की उसने हमें आज्ञा दी है "सर्वहारी" होने की ?
नहीं |
ऐसी बहुत सी चीज़ें हैं जो हम शारीरिक स्तर पर कर सकते हैं - जैसे दूसरे मनुष्यों की हत्या | अफ्रीका में कई जनजातियाँ हैं जो नरभक्षी हैं - तो क्या हम "मानावाहारी" बन जाएँ ??? ......... नहीं, क्योंकि "कर सकना" ही "सही" का पर्याय नहीं होता | सिर्फ इसलिए कि मैं एक जीव के "शरीर" को "शारीरिक तौर पर पचा" सकता हूँ, तो मुझे उसे मार देने का अधिकार नहीं मिल जाता !!
नहीं - हम सर्वहारी नहीं - हम विवेकाहारी हैं | सहमत |
विवेकाहारी ....मनुष्य का विवेक जीवन के हर क्षेत्र में काम आता है, आहार चयन में क्यों नहीं..... सुंदर
जवाब देंहटाएंखाद्य श्रृंखला ,विवेकाहारी ,
जवाब देंहटाएंआलेख अच्छा है .लेकिन 'विवेकाहारी 'शब्द प्रयोग अखरता है .दरअसल आहारी से पहले कुछ ठोस खाद्य होना चाहिए यही आहारी शब्द का भाव बोध है जैसे अन्नाहारी .
यूं अल्पाहारी ,निताहारी ,स्वल्पाहारी ,नराहारी yaani राक्षस (नर भक्षी )भी होता है .
लेकिन मांसाहारी ,शाकाहारी ,सर्वाहारी के साथ विवेकाहारी से लगता है जो विवेक का भक्षण करता हो विवेक को परे रखके आहार करता हो .जबकि आपके आलेख का स्वर इसके विपरीत है .आप विवेक पूर्ण आहारी की बात कर रहें हैं उस मनुष्य की जिसका आहार विवेक सम्मत हो पर्यावरण पारिस्थिति के अनुरूप हो .
यूं निराहारी शब्द भी है . अति -आहारी भी हो सकता है लेकिन ये सब भाव वाचक संज्ञाएँ हैं .अत :विवेकाहारी शब्द प्रयोग से बचें .इससे अर्थ का अनर्थ हो सकता है .
जी - यह बात भी है | अर्थ तो सच में बड़े अनर्थकारी निकाल लिया करते हैं लोग यहाँ | :)
हटाएंआपकी बात सही है, 'विवेकाहारी' से आशय 'विवेकाचारी' ही है।
हटाएंदरअसल विवेकाहारी शब्द का प्रयोग लाक्षणिकता में हुआ है, यह वैज्ञानिक विधि से चौथा वर्गीकरण नहीं है। फिर भी जरूरी नहीं है हर शब्द का सटीक अर्थबोध स्थिर हो जाय, जैसे मांसाहारी एकांत मांसाहारी नहीं होता, उलट उसके आहार का अधिकांश भाग शाकाहार होता है। जिसे हम शाकाहारी कहते है वे भी मात्र शाक पर निर्भर नहीं है बल्कि एक हिस्सा दुग्ध पदार्थ का होता है जिसे लेक्टो-वेजेटेरियन कहना सार्थक होगा। सर्वाहारी से अभिप्रायः शाब्दिक अर्थ समान नहीं है पदार्थ तो यहां स्पष्ट भी नहीं है, फिर भी अर्थ धूल-पत्थर-लकडी अभिप्रेत नहीं है। आशय उभय आहार से है।
विवेकाहारी शब्द का अनर्थ होने की सम्भावनाएं क्षीण है। विवेक की तीन दशाएं है, 1-विवेक का उदय, 2-विवेक का प्रवर्तमान रहना और 3-विवेक का नष्ट होना।
मुहावरेदार भाषा में भी 'विवेकाहारी' का आशय 'विवेक के भक्षण' से अर्थ-समर्थ नहीं होगा,यदि 'विवेक को उदरस्थ' करने का अभिप्राय भी निकल आता है तो अर्थ सापेक्ष ही होगा। विपरित अर्थ तो तब होता अगर आशय 'विवेक के नष्ट' होने से होता। जैसे अल्पाहारी में आशय मात्रा से है न कि अल्प शब्द को आहार बनाने से।
तथापि आपके ध्यान में यह इसतरह आया तो अन्य कोई भी इसका अनर्थ कर सकता है। भाषा के प्रति सावधानी और गम्भीरता का उत्तरदायित्व निभाने के लिए और इसे स्पष्ट करने के लिए 'विवेकाहारी' शब्द के आगे कोष्टक में 'विवेकाचारी' शब्द जोड देना मेरे लिए उचित ही होगा।
सही बात है, मानव अपने आहार में भी विवेक का प्रयोग कर सकता है, बल्कि करता ही है।
जवाब देंहटाएंअच्छा आलेख.... आदरणीय विरुभाई जी से सहमत...
जवाब देंहटाएंसादर.
आहार में विवेक भी महत्व रखता है ...
जवाब देंहटाएंसही तो !
सच है, विवेक तो यही कहता है..
जवाब देंहटाएंईश्वर ने बुद्धि तो इसीलिए ही दी है कि भला-बुरा विचार कर विवेक से काम लिया जाए और इसीलिए विवेक का अपना महत्त्व है. आहार में भी, व्यवहार में भी.
जवाब देंहटाएंजानवरों के पास तो विवेक की कमी है , मगर इंसान के पास तो बहुत विवेक है.
जवाब देंहटाएंखान पान में अपने विवेक का इस्तेमाल करे और खुद निर्णय करे की उसके और इस प्रकृति के
भले के लिए उसे किस प्रकार का आहार लेना है . सुन्दर लेख
यदि विवेक जाग्रत रहे तो जीवन व प्रकृति किसी के साथ खिलवाड़ न हो पाएगा!!
जवाब देंहटाएंब्लॉगर veerubhai ने कहा…
जवाब देंहटाएंकौन से ज़माने में जी रहें हैं डॉ अनवर ज़माल साहब .गधे घोड़े सब एक पांत में बिठा दिए.लीन मीट और रेड मीट में आपके लिए कोई फर्क ही नहीं है .तब से लेकर अब तक (संहिता काल से अबतक )गंगा जमुना में कितना पानी बह चुका है रहनी सहनी खान पान कितना बदला है ?सुश्रुत के दौर में तो निश्चेतक की जगह एक तार को गर्म करके अंग विच्छेदन किया जाता था किया जाता था ?क्या आज भी ऐसे ही कीजिएगा ? जब की यह बारहा प्रमाणित और पुष्ट हुआ है ,जीवन शैली रोगों की नव्ज़ हमारे गलत खान पान से जुडी है .रेड मीट भक्षण का सम्बन्ध साफ़ तौर पर कोलन कैंसर रोग समूह से जोड़ा जा चुका है .
ब्लॉगर DR. ANWER JAMAL ने कहा…
बर्हितित्तरिदक्षाणां हंसानां शूकरोष्ट्रयोः
खरगोमहिषाणां च मांसं मांसकरं परम्.
-चरकसंहिता चिकित्सा स्थानानम् 8,158
अर्थात मोर,तीतर,मुरग़ा,हंस,सुअर,ऊंट,गधा,गाय और भैंस का मांस रोगी के शरीर का मांस बढ़ाने के लिए यक्ष्मा रोगी के लिए उत्तम
यहाँ इस टिपण्णी और प्रति -टिपण्णी का उल्लेख प्रासंगिक लगा ,लिख दिया .आपकी टिपण्णी के लिए शुक्रिया .शाकाहार तो एक जीवन दर्शन है इस आहार नहीं है जीवन शैली है पथ्य अपथ्य से जुडी .
सही कहा आपने वहाँ वीरूभाई, DR. ANWER JAMAL (डॉ जमाल) को डॉक्टर नहीं 'प्रचारक मांस व्यवसायी' होना चाहिए था। उक्त श्रलोक में 'रोगी' शब्द तक नहीं है और आश्चर्य यह कि चरक के बहाने कुफ्र कर रहे है माँस बढ़ाने के इच्छुक लोगों को सुअर माँस की भी सलाह दे रहे है।
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