खाद्य श्रृंखला
पृथ्वी भिन्न भिन्न प्रकार के जीवों की आश्रय स्थली है जिसमें जटिल वनस्पतियों और प्राणियों से लेकर सरल एककोशीय जीव सम्मिलित हैं। परन्तु चाहे बड़ा हो या छोटा, सरल हो या जटिल, कोई भी जीव अकेला नहीं रहता। हर कोई किसी न किसी रूप में अपने आस-पास स्थित जीवों या निर्जीव पर्यावरण पर निर्भर करता है। यह हमें एक श्रृंखला में जोड़ता है जिसे खाद्य श्रृंखला कहा जाता है।
खाद्य श्रृंखला और उर्जा प्रसारण
श्रृंखला की हर कड़ी पर ऊर्जा का अत्यधिक ह्रास होता है, किसी खाद्य श्रृंखला में एक प्राणी उसे प्राप्त होने वाली ऊर्जा का मात्रा 10 प्रतिशत ही आगे प्रसारित करता है। स्थितिज ऊर्जा का 90 प्रतिशत भाग ऊष्मा के रूप में लुप्त हो जाता है। इसलिए खाद्य श्रृंखला में जितना आगे आप जाएंगे उतनी कम ऊर्जा की उपलब्धता पाएंगे। इससे स्पष्ट होता है कि शाकाहारियों के एक सामान्य आकार के झुण्ड के भरण-पोषण के लिए काफी कम संख्या में वृक्ष और हरियाली की आवश्यकता होती है जबकि कुछ मांसाहारियों का पेट एक शाकाहारियों का सामान्य आकार का झुण्ड भी नहीं पाल सकता है। खाद्य श्रृंखला जितनी प्रत्यक्ष और कम कडी की होगी, जीवों के लिए उतनी अधिक ऊर्जा उपलब्ध होगी।
एक खाद्य श्रृंखला में सामान्यतया निम्न कडि़यां होती हैं:
- मूल या प्रारंभिक उत्पादक
- मूल या प्रारंभिक उपभोक्ता
- द्वितीयक या माध्यमिक उपभोक्ता
- तृतीयक उपभोक्ता
- अपघटक
उत्पादक
उत्पादक अपना भोजन स्वयं तैयार करने में सक्षम होते हैं। स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र में उत्पादक सामान्यतः हरे पौधे होते हैं। स्वच्छ जल और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में आमतौर पर शैवाल प्रमुख उत्पादक होते हैं। प्रकृति के चक्र में वनस्पतियां सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। इनके बिना धरा पर जीवन संभव नहीं है। ये प्रारंभिक उत्पादक हैं जो सभी अन्य जीव प्रकारों को कायम रखते हैं। यह इसलिए है कि वनस्पति ही वह जीव है जो अपना भोजन खुद निर्मित कर सकता है। प्राणी, जो भोजन निर्माण में सक्षम नहीं होते, अपनी खाद्य आपूर्ति के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वनस्पतियों पर निर्भर रहते हैं। सभी प्राणी और जो भोजन वे ग्रहण करते हैं, उसे मूल रूप से पौधों से निसृत माना जा सकता है।
जिस ऑक्सीजन को हम सांस के द्वारा लेते हैं वह पौधों से प्राप्त होती है। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में पौधे सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करते हैं, वायु से कार्बन डाइऑक्साइड लेते हैं तथा मिट्टी से पानी एवं खनिज अवशोषित करते हैं। इसके बाद वे पानी और ऑक्सीजन को मुक्त कर देते हैं। इस चक्र में प्राणी एवं अन्य गैर उत्पादक जीव श्वसन क्रिया के माध्यम से भागीदारी करते हैं। श्वसन वह प्रक्रिया है जिसमें जीव द्वारा भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए ऑक्सीजन का उपयोग किया जाता है और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ी जाती है। प्रकाश संश्लेषण और श्वसन चक्र की मदद से पृथ्वी पर ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड और जल का सन्तुलन बरकरार रहता है।
उपभोक्ता
उपभोक्ता वे होते हैं जो अपने भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं। वे या तो सीधे ही मूल उत्पादक पर या अन्य उपभोक्ताओं पर निर्भर रहते हैं। चूंकि शाकाहारी अपना भोजन सीधे उत्पादक से प्राप्त करते हैं, उन्हें प्रारंभिक या प्रथम उपभोक्ता कहा जाता है। जानवर अपना भोजन खुद नहीं बना सकते इसलिए उनके लिए पौधों या अन्य प्राणियों को खाना आवश्यक होता है। उपभोक्ता तीन प्रकार के हो सकते हैं; जो प्राणी सिर्फ और सिर्फ वनस्पति खाते हैं, उन्हें शाकाहारी कहा जाता है, जो प्राणी दूसरे प्राणियों का भक्षण करते हैं, मांसाहारी कहलाते हैं और जो प्राणी वनस्पति एवं प्राणी दोनों को खाते हैं वे सर्वाहारी कहलाते हैं।
अपघटक
अपघटक वे जीव होते हैं जो अपक्षय या सड़न की प्रक्रिया को तेज करते हैं जिससे पोषक तत्वों का पुनः चक्रीकरण हो सके। ये निर्जीव कार्बनिक तत्वों को अकार्बनिक यौगिकों में तोड़ते हैं। अपघटक खनिज तत्वों को पुनः खाद्य श्रृंखला से जोड़ने के लिए मुक्त करने में सहायक होते हैं जिससे उत्पादक यानि वनस्पतियां इन्हें अवशोषित कर सकें। पोषण तल
वे जीव, जिनका भोजन वनस्पतियों से समान चरणों में प्राप्त होता है, एक पोषण तल या ट्रोफिक लेवल में आते हैं। उत्पादक होने के नाते हरी वनस्पतियां पहले पोषण तल पर आती हैं। शाकाहारी दूसरी मंजिल या तल पर माने जाते हैं। मांसाहारी, जो शाकाहारियों को अपना आहार बनाते हैं, तीसरे पोषण तल पर आते हैं, जबकि मांसाहारी जो मांसाहारियों का ही भक्षण करते हैं, चौथे पोषण तल पर माने जाते हैं। एक प्रजाति अपने आहार के आधार पर एक या एक से अधिक पोषण तल पर मौजूद रह सकती है।
ऊर्जा का पिरैमिड
ऊर्जा का पिरैमिड किसी खाद्य श्रृंखला या जाल में आहार और ऊर्जा के संबंध को दर्शाता है। तीनों पारिस्थितिकीय पिरैमिडों में से ऊर्जा का पिरैमिड प्रजातियों के समूहों की क्रियात्मक प्रकृति का अब तक का सर्वश्रेष्ठ चित्रण प्रस्तुत करता है।
यह समझना आवश्यक है कि खाद्य श्रृंखलाओं और जालों में ऊर्जा पोषण तलों से प्रवाहित होती है और हर अगले तल में ऊर्जा की मात्रा घटती जाती है। अंत में पूरी ऊर्जा नष्ट हो जाती है जिसका अधिकांश भाग ऊष्मा के रूप में लुप्त होता है। पोषक तत्व, हालांकि, खाद्य श्रृंखलाओं में कभी समाप्त नहीं होते और पुनर्चक्रित होते रहते हैं। इस प्रकार के चक्र में जीव, जल, वायुमण्डल और मिट्टी शामिल होते हैं। ये तत्व स्वपोषी जीवों, जिनमें भोजन निर्माण की क्षमता होती है, द्वारा कार्बनिक यौगिकों के साथ समाविष्ट कर दिए जाते हैं जहां से खाद्य जाल के विभिन्न उपभोक्ताओं में से गुजरते हुए पुनः सैप्रोफाइट यानी मृतजीवी (वे जीव जो मृत या सड़े-गले पदार्थों से अपना पोषण प्राप्त करते हैं) द्वारा अकार्बनिक रसायनों के रूप में पुनर्चक्रित कर दिए जाते हैं।
जैव-भूरसायन चक्र
जैव-भूरसायन चक्र मानवीय गतिविधियों से गड़बड़ा सकते हैं और गड़बड़ा रहे हैं। जब हम अवयवों को उनके स्रोत या आश्रय स्थल से जबरदस्ती निकालकर प्रयोग करते हैं तो हम प्राकृतिक जैव-भूरसायन चक्र को अव्यवस्थित कर देते हैं। उदाहरण के तौर पर, हमने धरती की गहराइयों से हाइड्रोकार्बन ईंधनों को निकालकर और जलाकर स्पष्ट रूप से कार्बन चक्र में बदलाव कर दिया है। हमने नाइट्रोजन और फास्फोरस को कृषि उर्वरकों के रूप में बड़ी मात्रा में प्रयोग कर इनके चक्रों में भी बदलाव पैदा कर दिया है। मात्रा की आधिक्यता ने जल स्रोतों में प्रवेश कर जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में भी अतिउर्वरता पैदा कर दी है। इन विशाल, भूमंडलीय चक्रों की सबसे रोचक बात यह नहीं है कि ये लगातार बगैर रूके चलते रहते हैं, बल्कि यह है कि हमें धरती पर उपस्थित जीवन पर उनके प्रभाव का पता भी नहीं चलता है।
खाद्य शृंखला के शाकाहार निहितार्थ –
“श्रृंखला की हर कड़ी पर ऊर्जा का अत्यधिक ह्रास होता है”
पेड़ - पौधे प्रथम कड़ी में 'उत्पादक' है शाकाहार श्रेणी में सीधे प्रथम 'उपभोक्ता' स्तर पर ही आहार ग्रहण करने पर उर्जा का भारी अपव्यय बच जाता है।
“जैव-भूरसायन चक्र मानवीय गतिविधियों से गड़बड़ा सकते हैं और गड़बड़ा रहे हैं। जब हम अवयवों को उनके स्रोत या आश्रय स्थल से जबरदस्ती निकालकर प्रयोग करते हैं”
प्रथम 'उपभोक्ता' स्तर पर शाकाहार से सहज निर्वाह होने के उपरांत भी जब हम जबरद्स्ती तीसरे तल पर भी अपना अधिकार जमाते है और मांसाहार ग्रहण करते है तो जैवीय चक्र को अनधिकार गड़बड़ा रहे होते है, अतिक्रमण कर रहे होते है। सीधा प्रबल उर्जा स्रोत प्राप्य होते हुए भी शृंखला में एक और उपभोक्ता कड़ी को बढ़ाकर खाद्य शृंखला को अदृ्श्य आघात पहुँचाते है। उर्जा प्रवाह और उपभोग को असंतुलित कर देते है।
पृथ्वी भिन्न भिन्न प्रकार के जीवों की आश्रय स्थली है जिसमें जटिल वनस्पतियों और प्राणियों से लेकर सरल एककोशीय जीव सम्मिलित हैं। परन्तु चाहे बड़ा हो या छोटा, सरल हो या जटिल, कोई भी जीव अकेला नहीं रहता। हर कोई किसी न किसी रूप में अपने आस-पास स्थित जीवों या निर्जीव पर्यावरण पर निर्भर करता है। यह हमें एक श्रृंखला में जोड़ता है जिसे खाद्य श्रृंखला कहा जाता है।
खाद्य श्रृंखला और उर्जा प्रसारण
श्रृंखला की हर कड़ी पर ऊर्जा का अत्यधिक ह्रास होता है, किसी खाद्य श्रृंखला में एक प्राणी उसे प्राप्त होने वाली ऊर्जा का मात्रा 10 प्रतिशत ही आगे प्रसारित करता है। स्थितिज ऊर्जा का 90 प्रतिशत भाग ऊष्मा के रूप में लुप्त हो जाता है। इसलिए खाद्य श्रृंखला में जितना आगे आप जाएंगे उतनी कम ऊर्जा की उपलब्धता पाएंगे। इससे स्पष्ट होता है कि शाकाहारियों के एक सामान्य आकार के झुण्ड के भरण-पोषण के लिए काफी कम संख्या में वृक्ष और हरियाली की आवश्यकता होती है जबकि कुछ मांसाहारियों का पेट एक शाकाहारियों का सामान्य आकार का झुण्ड भी नहीं पाल सकता है। खाद्य श्रृंखला जितनी प्रत्यक्ष और कम कडी की होगी, जीवों के लिए उतनी अधिक ऊर्जा उपलब्ध होगी।
एक खाद्य श्रृंखला में सामान्यतया निम्न कडि़यां होती हैं:
- मूल या प्रारंभिक उत्पादक
- मूल या प्रारंभिक उपभोक्ता
- द्वितीयक या माध्यमिक उपभोक्ता
- तृतीयक उपभोक्ता
- अपघटक
उत्पादक
उत्पादक अपना भोजन स्वयं तैयार करने में सक्षम होते हैं। स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र में उत्पादक सामान्यतः हरे पौधे होते हैं। स्वच्छ जल और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में आमतौर पर शैवाल प्रमुख उत्पादक होते हैं। प्रकृति के चक्र में वनस्पतियां सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। इनके बिना धरा पर जीवन संभव नहीं है। ये प्रारंभिक उत्पादक हैं जो सभी अन्य जीव प्रकारों को कायम रखते हैं। यह इसलिए है कि वनस्पति ही वह जीव है जो अपना भोजन खुद निर्मित कर सकता है। प्राणी, जो भोजन निर्माण में सक्षम नहीं होते, अपनी खाद्य आपूर्ति के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वनस्पतियों पर निर्भर रहते हैं। सभी प्राणी और जो भोजन वे ग्रहण करते हैं, उसे मूल रूप से पौधों से निसृत माना जा सकता है।
जिस ऑक्सीजन को हम सांस के द्वारा लेते हैं वह पौधों से प्राप्त होती है। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में पौधे सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करते हैं, वायु से कार्बन डाइऑक्साइड लेते हैं तथा मिट्टी से पानी एवं खनिज अवशोषित करते हैं। इसके बाद वे पानी और ऑक्सीजन को मुक्त कर देते हैं। इस चक्र में प्राणी एवं अन्य गैर उत्पादक जीव श्वसन क्रिया के माध्यम से भागीदारी करते हैं। श्वसन वह प्रक्रिया है जिसमें जीव द्वारा भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए ऑक्सीजन का उपयोग किया जाता है और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ी जाती है। प्रकाश संश्लेषण और श्वसन चक्र की मदद से पृथ्वी पर ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड और जल का सन्तुलन बरकरार रहता है।
उपभोक्ता
उपभोक्ता वे होते हैं जो अपने भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं। वे या तो सीधे ही मूल उत्पादक पर या अन्य उपभोक्ताओं पर निर्भर रहते हैं। चूंकि शाकाहारी अपना भोजन सीधे उत्पादक से प्राप्त करते हैं, उन्हें प्रारंभिक या प्रथम उपभोक्ता कहा जाता है। जानवर अपना भोजन खुद नहीं बना सकते इसलिए उनके लिए पौधों या अन्य प्राणियों को खाना आवश्यक होता है। उपभोक्ता तीन प्रकार के हो सकते हैं; जो प्राणी सिर्फ और सिर्फ वनस्पति खाते हैं, उन्हें शाकाहारी कहा जाता है, जो प्राणी दूसरे प्राणियों का भक्षण करते हैं, मांसाहारी कहलाते हैं और जो प्राणी वनस्पति एवं प्राणी दोनों को खाते हैं वे सर्वाहारी कहलाते हैं।
अपघटक
अपघटक वे जीव होते हैं जो अपक्षय या सड़न की प्रक्रिया को तेज करते हैं जिससे पोषक तत्वों का पुनः चक्रीकरण हो सके। ये निर्जीव कार्बनिक तत्वों को अकार्बनिक यौगिकों में तोड़ते हैं। अपघटक खनिज तत्वों को पुनः खाद्य श्रृंखला से जोड़ने के लिए मुक्त करने में सहायक होते हैं जिससे उत्पादक यानि वनस्पतियां इन्हें अवशोषित कर सकें। पोषण तल
वे जीव, जिनका भोजन वनस्पतियों से समान चरणों में प्राप्त होता है, एक पोषण तल या ट्रोफिक लेवल में आते हैं। उत्पादक होने के नाते हरी वनस्पतियां पहले पोषण तल पर आती हैं। शाकाहारी दूसरी मंजिल या तल पर माने जाते हैं। मांसाहारी, जो शाकाहारियों को अपना आहार बनाते हैं, तीसरे पोषण तल पर आते हैं, जबकि मांसाहारी जो मांसाहारियों का ही भक्षण करते हैं, चौथे पोषण तल पर माने जाते हैं। एक प्रजाति अपने आहार के आधार पर एक या एक से अधिक पोषण तल पर मौजूद रह सकती है।
ऊर्जा का पिरैमिड
ऊर्जा का पिरैमिड किसी खाद्य श्रृंखला या जाल में आहार और ऊर्जा के संबंध को दर्शाता है। तीनों पारिस्थितिकीय पिरैमिडों में से ऊर्जा का पिरैमिड प्रजातियों के समूहों की क्रियात्मक प्रकृति का अब तक का सर्वश्रेष्ठ चित्रण प्रस्तुत करता है।
यह समझना आवश्यक है कि खाद्य श्रृंखलाओं और जालों में ऊर्जा पोषण तलों से प्रवाहित होती है और हर अगले तल में ऊर्जा की मात्रा घटती जाती है। अंत में पूरी ऊर्जा नष्ट हो जाती है जिसका अधिकांश भाग ऊष्मा के रूप में लुप्त होता है। पोषक तत्व, हालांकि, खाद्य श्रृंखलाओं में कभी समाप्त नहीं होते और पुनर्चक्रित होते रहते हैं। इस प्रकार के चक्र में जीव, जल, वायुमण्डल और मिट्टी शामिल होते हैं। ये तत्व स्वपोषी जीवों, जिनमें भोजन निर्माण की क्षमता होती है, द्वारा कार्बनिक यौगिकों के साथ समाविष्ट कर दिए जाते हैं जहां से खाद्य जाल के विभिन्न उपभोक्ताओं में से गुजरते हुए पुनः सैप्रोफाइट यानी मृतजीवी (वे जीव जो मृत या सड़े-गले पदार्थों से अपना पोषण प्राप्त करते हैं) द्वारा अकार्बनिक रसायनों के रूप में पुनर्चक्रित कर दिए जाते हैं।
जैव-भूरसायन चक्र
जैव-भूरसायन चक्र मानवीय गतिविधियों से गड़बड़ा सकते हैं और गड़बड़ा रहे हैं। जब हम अवयवों को उनके स्रोत या आश्रय स्थल से जबरदस्ती निकालकर प्रयोग करते हैं तो हम प्राकृतिक जैव-भूरसायन चक्र को अव्यवस्थित कर देते हैं। उदाहरण के तौर पर, हमने धरती की गहराइयों से हाइड्रोकार्बन ईंधनों को निकालकर और जलाकर स्पष्ट रूप से कार्बन चक्र में बदलाव कर दिया है। हमने नाइट्रोजन और फास्फोरस को कृषि उर्वरकों के रूप में बड़ी मात्रा में प्रयोग कर इनके चक्रों में भी बदलाव पैदा कर दिया है। मात्रा की आधिक्यता ने जल स्रोतों में प्रवेश कर जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में भी अतिउर्वरता पैदा कर दी है। इन विशाल, भूमंडलीय चक्रों की सबसे रोचक बात यह नहीं है कि ये लगातार बगैर रूके चलते रहते हैं, बल्कि यह है कि हमें धरती पर उपस्थित जीवन पर उनके प्रभाव का पता भी नहीं चलता है।
प्रस्तुत अंश, जीव-विज्ञानी सुश्री सुकन्या दत्ता की पुस्तक ‘धरा पर जीवन’ के ‘जीवन श्रृंखलाएं और जीवन जाल’ अध्याय से साभार लिया गया है।
सम्पादकीय टिप्पणी-
खाद्य शृंखला के शाकाहार निहितार्थ –
“श्रृंखला की हर कड़ी पर ऊर्जा का अत्यधिक ह्रास होता है”
पेड़ - पौधे प्रथम कड़ी में 'उत्पादक' है शाकाहार श्रेणी में सीधे प्रथम 'उपभोक्ता' स्तर पर ही आहार ग्रहण करने पर उर्जा का भारी अपव्यय बच जाता है।
“जैव-भूरसायन चक्र मानवीय गतिविधियों से गड़बड़ा सकते हैं और गड़बड़ा रहे हैं। जब हम अवयवों को उनके स्रोत या आश्रय स्थल से जबरदस्ती निकालकर प्रयोग करते हैं”
प्रथम 'उपभोक्ता' स्तर पर शाकाहार से सहज निर्वाह होने के उपरांत भी जब हम जबरद्स्ती तीसरे तल पर भी अपना अधिकार जमाते है और मांसाहार ग्रहण करते है तो जैवीय चक्र को अनधिकार गड़बड़ा रहे होते है, अतिक्रमण कर रहे होते है। सीधा प्रबल उर्जा स्रोत प्राप्य होते हुए भी शृंखला में एक और उपभोक्ता कड़ी को बढ़ाकर खाद्य शृंखला को अदृ्श्य आघात पहुँचाते है। उर्जा प्रवाह और उपभोग को असंतुलित कर देते है।
लोग खाद्य शृंखला का तर्क आगे कर मांसाहार को ग्रहणीय साबित करने का अबोध प्रयास करते है जबकि 'उर्जा', 'कड़ी' और 'पिरामिड़-तल' के आधार पर 'खाद्य शृंखला' चीख चीख कर कह रही है, मनुष्य को शीघ्रातिशीघ्र उर्जा का प्राथमिक और मितव्ययी उपभोक्ता हो जाना चाहिए। अर्थात् शाकाहारी बनकर प्रकृति संयम के प्रति निष्ठावान हो जाना चाहिए।
well said, well read, well expressed. thanks.
जवाब देंहटाएंi have always beleived that , the more number of reasons one gives to justify some activity one is doing, the more it indicates that one's own conscience knows that it is wrong. they don't justify nonvegetarian food to vegetarians to make US eat it, rather, they do it to convince THEMSELVES that they are right in eating it.
on the other hand, when we try to convince them to change their diet, it is for the greater good of the greater number (of living beings, both the ones who are eating, and the ones who are being eaten)
till we consider other living beings as "food" and not as a living being who wants to live just as we ourselves do, can we honestly call ourselves human?
अच्छी जानकारी
जवाब देंहटाएंसार्थक जानकारी परक आलेख
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक जानकारी!
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंसुग्य जी आजकल नेट पर कम बैठती हूँ जिसकी वजह से इतनी अच्छी जानकारियाँ पढने से रह जाती हैं वाकई आप ने आज भी बहुत काम की जानकारी दी है। और आज के ;लिये एक पोस्ट पढनी ही काफी है। धन्यवाद। आप जब भी पोस्ट लिखें मुझे ई मेल कर सकते हैं।
जवाब देंहटाएंनिरामिष की परम्परानुसार जानकारी से समृद्ध पोस्ट। बहुत कुछ जानने और सीखने को मिला, धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंhttp://www.youtube.com/watch?v=1JXdWZZ2isU
जवाब देंहटाएंएक बेहद साधारण पाठक, इस क्लिप के लिये आपका धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंदरअसल अधिकाँश सनातनी वेदों से विमुख हो चुके हैं तथा दूसरों की बातों में आकर माँसाहार अपनाकर अपने आप को विशिष्ट दिखाने की कोशिश कर रहे हैं. अंडा शाकाहार में आता है और दुग्ध पान भी माँसाहार है - ऐसे कुतर्कों को पेश करते हुए नहीं अघाते. एकमात्र कारण जो मुझे समझ में आता है वह है नैतिक मूल्यों का ह्रास. जब तक नैतिकता को स्थान नहीं मिलेगा, हर क्षेत्र में पतन की स्थिति उत्पन्न होगी.
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंज्ञान वर्धक जानकारी हेतु आभार.
ज्ञानपरक पोस्ट के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंPlease give me answer of my question how many types of food chains can operate in an ecosystem in hindi
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