आज कई मांसाहार प्रचारक अपने निहित स्वार्थों, व्यवसायिक हितों, या धार्मिक
कुरीतियों के वशीभूत होकर अपना योजनाबद्ध षड्यंत्र चला रहे हैं। वस्तुतः
अब कुसंस्कृतियाँ सामिष आहार प्रचार के माध्यम से ही विकार पैर पसारने को तत्पर
है। इस प्रचार में, न केवल विज्ञान के नाम पर भ्रामक और आधी-अधूरी जानकारियाँ दी जा रही
हैं, बल्कि इस उद्देश्य से धर्मग्रंथों की अधार्मिक व्याख्यायें प्रचार माध्यमों द्वारा फैलाई जा रही हैं। यह सब हमारी अहिंसक और सहिष्णु
संस्कृति को दूषित और विकार युक्त करने का कुटिल प्रयोजन है।
ऐसे ही 7 भ्रमों का निवारण निरामिष पर पहले प्रस्तुत किया गया था, अब प्रस्तुत है भ्रम-निवारण 8 से 12……
भ्रम # 8 अहिंसावादी, जीवदयावादी व शाकाहारियों के प्रभाव से भारतीय जनमानस कमजोर और कायर हो गया था।
उत्तर : मध्यकालीन आक्रांता तो धर्म-कर्म-जात आदि से केवल और केवल आक्रमणकारी ही थे, उनकी कोई नैतिक युद्धनीति नहीं थी। उनका सिद्धांत मात्र बर्बरता ही था। उनका सामना करने की जिम्मेदारी अहिसावाद,जीवदया या करूणा से प्रभावित लोगों की नहीं, बल्कि मांसाहारी राजपूत सामंतो व क्षत्रिय योद्धाओं की थी। जब वे भी सामना न कर पाए तो अहिंसावादी, जीवदयावादीयों को जिम्मेदार ठहराना हिंसावादियों की कायरता छुपाने का उपक्रम है। शौर्य और वीरता कभी भी मांसाहार से नहीं उपजती। न वीरता प्रतिहिंसा से प्रबल बनती है। वीरता तो मात्र दृढ़ मनोबल और साहस से ही पैदा होती है। इतिहास में एक भी प्रसंग नहीं है जब कोई यौद्धा अहिंसा को बहाना बना पिछे हटा हो। यथार्थ तो यह है कि युद्ध-धर्म तो दयावान और करूणावंत भी पूरे उत्तरदायित्व से निभा सकता है। और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आक्रमण और पराजय का खेल केवल भारत में नहीं खेला गया है। सारी दुनिया में कोई भी जाति यह दावा नहीं कर सकती कि वह सदा अजेय रही है। क्या वे सभी जातियाँ शाकाहारी थीं? गुलामी और हार का सम्बन्ध, शाकाहार या अहिंसा से जोड़ने का आपका यह प्रयास आधारहीन है। इस तथ्य को भी नहीं भूलना चाहिए कि कुछ सौ साल की गुलामी से पहले भारत में हज़ारों साल की स्वतंत्र,सभ्य और उन्नत संस्कृति का इतिहास भी रहा है।
इसलिए यदि 'धर्म' के परिपेक्ष्य चिंतन करें तो उसमें हिंसा और हिंसा के प्रोत्साहक माँसाहार का अस्तित्व भला कैसे हो सकता है। पशुहत्या का आधार मानव की कायर मानसिकता है, जब शौर्य व मनोबल क्षीण होता है तो क्रूर-कायर मनुष्य, दुस्साहस व धौंस दर्शाने के लिए पशुहिंसा व मांसाहार का आसरा लेता है। लेकिन पशुहिंसा से क्रूरता व कायरता को छुपने का कोई आश्रय नहीं मिलता। निर्बल निरीह पशु पर अत्याचार को भला कौन बहादुरी मानेगा। इसीलिए क्रूरता से कायरता छुपाने के प्रयत्न सदैव विफल ही होते है।
यह लेख दृष्टव्य है - "जहाँ निष्ठुरता आवश्यक है……………"
भ्रम # 9 सुरक्षा के लिए भी रक्तपात आवश्यक है।
उत्तर : रक्तपात सुरक्षा की गारंटी नहीं है। रक्तपात तो आपस में ही लड़ मरने की, वही आदिम-जंगली शैली है। रक्तपात को कभी भी शान्ति स्थापक समाधान नहीं माना गया। हिंसा कभी भी, किसी भी समस्या का स्थाई हल नहीं होती और न हो सकती है। चिरस्थाई हल हमेशा चिंतन, मनन, मंथन और समझोतों से ही उपजते हैं।
भ्रम # 10 मांसाहार एक आहार विकल्प है, शाकाहार या मांसाहार जिसकी जो मर्जी हो खाए।
नहीं!, मांसाहार आहार का विकल्प नहीं है। वह मात्र एक मसाला सामग्री की तरह स्वाद विकल्प मात्र है। पोषण उद्देश्य के लिए तो शाकाहार अपने आप में सम्पूर्ण है। मनुष्य शाकाहार के विकल्प के रूप में मांसाहार का प्रयोग नहीं करता। क्योंकि मात्र मांसाहार को वह अपना सम्पूर्ण आहार नहीं बना सकता, उसके लिए भी मांसाहार के साथ शाकाहार सामग्री का प्रयोग अनिवार्यता है। केवल मांस खाकर इन्सान जिन्दा नहीं रह सकता। इस लिए विकल्प की तरह चुनाव की बात करना मतिभ्रम है। स्वादलोलुपता की धूर्तता के कारण इसे विकल्प की तरह पेश किया जाता है। वस्तुतः मांसाहार आहार में आया एक विकार है। किसी जीव ने अपने जिन्दा रहने के लिए शाकाहार करके अपने शरीर की मांस मज्जा बनाई और आप उसके अपने जीवन भर के श्रम के अर्जन को निर्दयता से छीन कर अपना पेट भरें वह भी उसकी जिन्दगी ही लेकर? इस मर्जी को क्या कहेंगे।
कोई कैसे मनमर्जी खा सकता है मामला जब क्रूरता या असंवेदनशीलता का हो? अहिंसा प्राणीमात्र के लिए शान्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। स्पष्ट है कि किसी भी जीव को हानि पहुँचाना, किसी प्राणी को कष्ट देना अनैतिक है। जीवदया का मार्ग सात्विक आहार से प्रशस्त होता है। इसीलिए अहिंसा भाव का प्रारंभ भी आहार से ही होता है और हम अपना आहार निर्वध्य रखते हुए सात्विक निर्दोष आहार की ओर बढते हैं तभी हमारे जीवन में संवेदनशीलता और अन्तः सात्विकता प्रगाढ होती है। नशीले पदार्थ का भोग व्यक्ति की अपनी मर्जी होने के बाद भी सभ्य समाज उसे सही नहीं ठहराता उसी तरह चुनाव की आजादी के उपरांत भी हिंसा को सही ठहराने वाले लोग मांसाहारियों में भी कम ही मिलते हैं।
दृष्टव्य: भोजन का चुनाव व्यक्तिगत मामला मात्र नहीं है।
दृष्टव्य: मानव के भोजन का उद्देश्य
भ्रम # 11 दुनिया भर में मांसाहार को लेकर कोई अपराधबोध नहीं है?
यह सही नहीं है कि लगभग सभी विकसित या तेजी से विकसित होने की राह पर बढ़ते देशों व उनके निवासियों में मांसाहार को लेकर कोई दुविधा या अपराधबोध नहीं है। हम एक बहु-विविध विश्व में रहते हैं। अमेरिकी घोड़ा खाना पाप समझते हैं, जापानी साँप खाने को हद दर्ज़े का जंगलीपन मानते हैं, भारतीय मांसाहारी गाय को अवध्य मानते रहे हैं जबकि मुसलमान सुअर नहीं खाते। मतलब यह कि मांसाहार लगभग हर भौगोलिक-सामाजिक क्षेत्र में अनेक प्रकार के अपराधबोधों से ग्रस्त है। और कुछ नहीं तो हलाल-झटका-कुत्ता का ग्लानी भरा झंझट तो व्याप्त है ही। यह भी उतना ही सत्य है कि ऐसे प्रत्येक देश विदेशों में कम ही सही पर कुछ लोग न केवल शाकाहार का समर्थन करते हैं बल्कि वे उसे ही बेहतर मानते हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ कि ऐसा वे किसी भारतीय के कहने पर नहीं करते। विख्यात 'द वेजेटेरियन सोसायटी' अस्तित्व में आयी है, बेल्जियम के गेंट नगर ने सप्ताह में एक दिन शाकाहार करने का प्रण लिया है। ब्रिटेन व अमेरिका के अनेक ख्यातनाम व्यक्तित्व न केवल शाकाहारी हैं बल्कि पेटा आदि संगठनों के साथ जुड़कर पूरे दमखम से शाकाहार और करुणा का प्रचार-प्रसार करने में लगे हैं। वीगनिज़्म का जन्म ही भारत के बाहर हुआ है। इथियोपिया से चलकर विश्व में फैले ‘रस्ताफेरियन’ पूर्ण शाकाहारी होते हैं। भारी संख्या में 'सेवेंथ डे एडवेंटिस्ट' भी शाकाहारी हैं।
भ्रम # 12 यह जरूरी नहीं है कि सभी मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हो।
मांसाहार में कोमल भावनाओं के नष्ट होने की संभावनाएं अत्यधिक ही होती है। हर भोजन के साथ उसके उत्पादन और स्रोत पर चिंतन हो जाना स्वभाविक है। हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न माँस, हिंसक विचारों को जन्म देता है। ऐसे विचारों का बार बार चिंतवन, अन्ततः परपीड़ा की सम्वेदनाओं को निष्ठुर बना देता है। हिंसक दृश्य, निष्ठुर सोच और परपीड़ा को सहज मानने की मनोवृति हमारी मानसिकता पर दुष्प्रभाव डालती है। ऐसा दुष्प्रभाव यदि सम्भावनाएँ मात्र भी हो, तब बुद्धिमानी यह है कि सम्भावनाओं को अवसर ही क्यों दिया जाय। वस्तुतः कार्य गैर जरूरी हो और दुष्परिणाम की सम्भावनाएं भले एक प्रतिशत भी हो घटने के पर ही लगाम लगा दी जाय। विवेकवान व्यक्ति परिणामो से पूर्व ही सम्भावनाओं पर पूर्णविराम लगाने का उद्यम करता है।
मनुष्य के हृदय में सहिष्णुता का भाव परिपूर्णता से स्थापित नहीं हो सकता जब तक उसमें निरीह जीवों पर हिंसा कर मांसाहार करने का जंगली संस्कार विद्यमान हो। जब मात्र स्वाद और पेट्पूर्ती के उद्देश्य से मांसाहार का चुनाव किया जाता है तब ऐसी प्राणी हत्या, मानस में क्रूर भाव का आरोपण करती है जो निश्चित ही हिंसक मनोवृति के लिए जवाबदार है। मांसाहार द्वारा कोमल सद्भावनाओं का नष्ट होना व स्वार्थ व निर्दयता की भावनाओं का पनपना, आज विश्व में बढ़ती हिंसा, घृणा, आतंक और अपराधों का मुख्य कारण है। हिंसा के प्रति जगुप्सा के अभाव में अहिंसा की मनोवृति प्रबल नहीं बन सकती। जीवदया और करूणा भाव हमारे मन में कोमल सम्वेदनाओं को स्थापित करते है और यही सम्वेदनाएं हमें मानव से मानव के प्रति भी सहिष्णु बनाए रखती है।
दृष्टव्य: दिलों में दया भाव का संरक्षक शाकाहार
ऐसे ही 7 भ्रमों का निवारण निरामिष पर पहले प्रस्तुत किया गया था, अब प्रस्तुत है भ्रम-निवारण 8 से 12……
भ्रम # 8 अहिंसावादी, जीवदयावादी व शाकाहारियों के प्रभाव से भारतीय जनमानस कमजोर और कायर हो गया था।
उत्तर : मध्यकालीन आक्रांता तो धर्म-कर्म-जात आदि से केवल और केवल आक्रमणकारी ही थे, उनकी कोई नैतिक युद्धनीति नहीं थी। उनका सिद्धांत मात्र बर्बरता ही था। उनका सामना करने की जिम्मेदारी अहिसावाद,जीवदया या करूणा से प्रभावित लोगों की नहीं, बल्कि मांसाहारी राजपूत सामंतो व क्षत्रिय योद्धाओं की थी। जब वे भी सामना न कर पाए तो अहिंसावादी, जीवदयावादीयों को जिम्मेदार ठहराना हिंसावादियों की कायरता छुपाने का उपक्रम है। शौर्य और वीरता कभी भी मांसाहार से नहीं उपजती। न वीरता प्रतिहिंसा से प्रबल बनती है। वीरता तो मात्र दृढ़ मनोबल और साहस से ही पैदा होती है। इतिहास में एक भी प्रसंग नहीं है जब कोई यौद्धा अहिंसा को बहाना बना पिछे हटा हो। यथार्थ तो यह है कि युद्ध-धर्म तो दयावान और करूणावंत भी पूरे उत्तरदायित्व से निभा सकता है। और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आक्रमण और पराजय का खेल केवल भारत में नहीं खेला गया है। सारी दुनिया में कोई भी जाति यह दावा नहीं कर सकती कि वह सदा अजेय रही है। क्या वे सभी जातियाँ शाकाहारी थीं? गुलामी और हार का सम्बन्ध, शाकाहार या अहिंसा से जोड़ने का आपका यह प्रयास आधारहीन है। इस तथ्य को भी नहीं भूलना चाहिए कि कुछ सौ साल की गुलामी से पहले भारत में हज़ारों साल की स्वतंत्र,सभ्य और उन्नत संस्कृति का इतिहास भी रहा है।
इसलिए यदि 'धर्म' के परिपेक्ष्य चिंतन करें तो उसमें हिंसा और हिंसा के प्रोत्साहक माँसाहार का अस्तित्व भला कैसे हो सकता है। पशुहत्या का आधार मानव की कायर मानसिकता है, जब शौर्य व मनोबल क्षीण होता है तो क्रूर-कायर मनुष्य, दुस्साहस व धौंस दर्शाने के लिए पशुहिंसा व मांसाहार का आसरा लेता है। लेकिन पशुहिंसा से क्रूरता व कायरता को छुपने का कोई आश्रय नहीं मिलता। निर्बल निरीह पशु पर अत्याचार को भला कौन बहादुरी मानेगा। इसीलिए क्रूरता से कायरता छुपाने के प्रयत्न सदैव विफल ही होते है।
यह लेख दृष्टव्य है - "जहाँ निष्ठुरता आवश्यक है……………"
भ्रम # 9 सुरक्षा के लिए भी रक्तपात आवश्यक है।
उत्तर : रक्तपात सुरक्षा की गारंटी नहीं है। रक्तपात तो आपस में ही लड़ मरने की, वही आदिम-जंगली शैली है। रक्तपात को कभी भी शान्ति स्थापक समाधान नहीं माना गया। हिंसा कभी भी, किसी भी समस्या का स्थाई हल नहीं होती और न हो सकती है। चिरस्थाई हल हमेशा चिंतन, मनन, मंथन और समझोतों से ही उपजते हैं।
भ्रम # 10 मांसाहार एक आहार विकल्प है, शाकाहार या मांसाहार जिसकी जो मर्जी हो खाए।
नहीं!, मांसाहार आहार का विकल्प नहीं है। वह मात्र एक मसाला सामग्री की तरह स्वाद विकल्प मात्र है। पोषण उद्देश्य के लिए तो शाकाहार अपने आप में सम्पूर्ण है। मनुष्य शाकाहार के विकल्प के रूप में मांसाहार का प्रयोग नहीं करता। क्योंकि मात्र मांसाहार को वह अपना सम्पूर्ण आहार नहीं बना सकता, उसके लिए भी मांसाहार के साथ शाकाहार सामग्री का प्रयोग अनिवार्यता है। केवल मांस खाकर इन्सान जिन्दा नहीं रह सकता। इस लिए विकल्प की तरह चुनाव की बात करना मतिभ्रम है। स्वादलोलुपता की धूर्तता के कारण इसे विकल्प की तरह पेश किया जाता है। वस्तुतः मांसाहार आहार में आया एक विकार है। किसी जीव ने अपने जिन्दा रहने के लिए शाकाहार करके अपने शरीर की मांस मज्जा बनाई और आप उसके अपने जीवन भर के श्रम के अर्जन को निर्दयता से छीन कर अपना पेट भरें वह भी उसकी जिन्दगी ही लेकर? इस मर्जी को क्या कहेंगे।
कोई कैसे मनमर्जी खा सकता है मामला जब क्रूरता या असंवेदनशीलता का हो? अहिंसा प्राणीमात्र के लिए शान्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। स्पष्ट है कि किसी भी जीव को हानि पहुँचाना, किसी प्राणी को कष्ट देना अनैतिक है। जीवदया का मार्ग सात्विक आहार से प्रशस्त होता है। इसीलिए अहिंसा भाव का प्रारंभ भी आहार से ही होता है और हम अपना आहार निर्वध्य रखते हुए सात्विक निर्दोष आहार की ओर बढते हैं तभी हमारे जीवन में संवेदनशीलता और अन्तः सात्विकता प्रगाढ होती है। नशीले पदार्थ का भोग व्यक्ति की अपनी मर्जी होने के बाद भी सभ्य समाज उसे सही नहीं ठहराता उसी तरह चुनाव की आजादी के उपरांत भी हिंसा को सही ठहराने वाले लोग मांसाहारियों में भी कम ही मिलते हैं।
दृष्टव्य: भोजन का चुनाव व्यक्तिगत मामला मात्र नहीं है।
दृष्टव्य: मानव के भोजन का उद्देश्य
भ्रम # 11 दुनिया भर में मांसाहार को लेकर कोई अपराधबोध नहीं है?
यह सही नहीं है कि लगभग सभी विकसित या तेजी से विकसित होने की राह पर बढ़ते देशों व उनके निवासियों में मांसाहार को लेकर कोई दुविधा या अपराधबोध नहीं है। हम एक बहु-विविध विश्व में रहते हैं। अमेरिकी घोड़ा खाना पाप समझते हैं, जापानी साँप खाने को हद दर्ज़े का जंगलीपन मानते हैं, भारतीय मांसाहारी गाय को अवध्य मानते रहे हैं जबकि मुसलमान सुअर नहीं खाते। मतलब यह कि मांसाहार लगभग हर भौगोलिक-सामाजिक क्षेत्र में अनेक प्रकार के अपराधबोधों से ग्रस्त है। और कुछ नहीं तो हलाल-झटका-कुत्ता का ग्लानी भरा झंझट तो व्याप्त है ही। यह भी उतना ही सत्य है कि ऐसे प्रत्येक देश विदेशों में कम ही सही पर कुछ लोग न केवल शाकाहार का समर्थन करते हैं बल्कि वे उसे ही बेहतर मानते हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ कि ऐसा वे किसी भारतीय के कहने पर नहीं करते। विख्यात 'द वेजेटेरियन सोसायटी' अस्तित्व में आयी है, बेल्जियम के गेंट नगर ने सप्ताह में एक दिन शाकाहार करने का प्रण लिया है। ब्रिटेन व अमेरिका के अनेक ख्यातनाम व्यक्तित्व न केवल शाकाहारी हैं बल्कि पेटा आदि संगठनों के साथ जुड़कर पूरे दमखम से शाकाहार और करुणा का प्रचार-प्रसार करने में लगे हैं। वीगनिज़्म का जन्म ही भारत के बाहर हुआ है। इथियोपिया से चलकर विश्व में फैले ‘रस्ताफेरियन’ पूर्ण शाकाहारी होते हैं। भारी संख्या में 'सेवेंथ डे एडवेंटिस्ट' भी शाकाहारी हैं।
भ्रम # 12 यह जरूरी नहीं है कि सभी मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हो।
मांसाहार में कोमल भावनाओं के नष्ट होने की संभावनाएं अत्यधिक ही होती है। हर भोजन के साथ उसके उत्पादन और स्रोत पर चिंतन हो जाना स्वभाविक है। हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न माँस, हिंसक विचारों को जन्म देता है। ऐसे विचारों का बार बार चिंतवन, अन्ततः परपीड़ा की सम्वेदनाओं को निष्ठुर बना देता है। हिंसक दृश्य, निष्ठुर सोच और परपीड़ा को सहज मानने की मनोवृति हमारी मानसिकता पर दुष्प्रभाव डालती है। ऐसा दुष्प्रभाव यदि सम्भावनाएँ मात्र भी हो, तब बुद्धिमानी यह है कि सम्भावनाओं को अवसर ही क्यों दिया जाय। वस्तुतः कार्य गैर जरूरी हो और दुष्परिणाम की सम्भावनाएं भले एक प्रतिशत भी हो घटने के पर ही लगाम लगा दी जाय। विवेकवान व्यक्ति परिणामो से पूर्व ही सम्भावनाओं पर पूर्णविराम लगाने का उद्यम करता है।
मनुष्य के हृदय में सहिष्णुता का भाव परिपूर्णता से स्थापित नहीं हो सकता जब तक उसमें निरीह जीवों पर हिंसा कर मांसाहार करने का जंगली संस्कार विद्यमान हो। जब मात्र स्वाद और पेट्पूर्ती के उद्देश्य से मांसाहार का चुनाव किया जाता है तब ऐसी प्राणी हत्या, मानस में क्रूर भाव का आरोपण करती है जो निश्चित ही हिंसक मनोवृति के लिए जवाबदार है। मांसाहार द्वारा कोमल सद्भावनाओं का नष्ट होना व स्वार्थ व निर्दयता की भावनाओं का पनपना, आज विश्व में बढ़ती हिंसा, घृणा, आतंक और अपराधों का मुख्य कारण है। हिंसा के प्रति जगुप्सा के अभाव में अहिंसा की मनोवृति प्रबल नहीं बन सकती। जीवदया और करूणा भाव हमारे मन में कोमल सम्वेदनाओं को स्थापित करते है और यही सम्वेदनाएं हमें मानव से मानव के प्रति भी सहिष्णु बनाए रखती है।
दृष्टव्य: दिलों में दया भाव का संरक्षक शाकाहार
सही लिखा है !!
जवाब देंहटाएंमनुष्य यदि थोड़ा भी चिन्तन करे तो शायद माँसाहार स्वयं ही छोड़ देगा. एक बढ़िया आलेख.
जवाब देंहटाएं" जैसा खाओ अन्न वैसा बने मन ।" मन ही मनुष्य के सुख-दुख,लाभ-हानि एवम् यश-अपयश का केन्द्र-बिन्दु है और वह हमारे भोजन से बनता है अतः हमें सोच-समझ कर ही भोजन ग्रहण करना चाहिए और शाकाहार ही हमारा एकमात्र विकल्प होना चाहिए ।
जवाब देंहटाएंशाकाहार संबंधी ये तथ्य उजागर करने के लिए धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंSHAKAHAR PAR YEH LEKH NISNADEH LOGON KI VRITI BADALNE ME KARGAR SIDH HOGA....
जवाब देंहटाएंवर्षों से मैंने खुद पर शाकाहार के सकारात्मक असर देंखे हैं |
जवाब देंहटाएंएक मडिकल डॉ के रूप में ,आज जनता कों जागरूक करता हूँ ,इसके लिए आपका ब्लॉग हमारी बहुत मदद करता हैं |आभार
Thanks for sharing, nice post! Post really provice useful information!
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