गुरुवार, 28 जून 2012

जीवरक्षा क्यों?

“जीव जीवस्य भोजनम्”, (हर जीव, जीव का भोजन है)


हर जीव किसी दूसरे जीव का भोजन है। एक दृष्टि से यह बात यथार्थ प्रतीत होती है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि अविवेक से जो भी सीधा सहज पशु मिला, उस जीव को अपना भोजन बना लेना चाहिए। मनुष्य स्वयं जंगली माँसाहारी पशुओं का भोजन हो सकता है तो क्या मनुष्य खुद को उन जंगली दरिंदो के आगोश में परोस दे? जैसे मनुष्य को जंगली पशुओं का आहार बनते हुए आतंक महसुस होता है, मनुष्य को सोचना चाहिए कि भयभीत पशुओं को अविवेक से सहज ही अपना आहार बना लेना कहाँ का न्याय है। विवेक को यहाँ सारथी बनाना चाहिए।


“परस्परग्रहो जीवानाम् (प्रत्येक जीवन परस्पर एक दूसरे पर निर्भर है)


माँसाहारी लोग अपने भोजन के रूप में जिन पशुओं के माँस का सेवन करते हैं वे पशु भी घास आदि खाकर शाकाहार से ही अपना भोजन लेते हैं। यानी पशु जिस भोजन से सीधे तौर पर उर्जा लेते हैं माँसाहारी लोग उसी उर्जा को अप्रत्यक्ष व अनेकगुना क्षय अपव्यय के बाद पाते हैं।उस पर कलंक यह कि कोई जीव जान से चला जाता है। सुखरूप जीना है तो दूसरे जीवों के जीवन का का मार्ग सहज सुरक्षित रखना हमारी जिम्मेदारी हो जाती है।


"द्विपादव चतुष्पात् पाहि" (अपने अस्तित्व के लिए दो पांव वालों के साथ ही चार पांवो वालो की भी रक्षा कर) "मा हिंस्यात सर्व भूतानि" (किसी भी भूत-प्राणी की हिंसा ना करे.)


भोजन शृंखला में भी पर्यावरण मुख्य मुद्दा है। वास्तव में पर्यावरण की सुरक्षा हमारे अस्तित्व के लिए जरूरी है। और शाकाहार शैली पर्यावरण सुरक्षा में गहन गम्भीर और अन्तिम उपाय है। अगर हम जीवन शृंखला की बात करते है तो पहले हमें पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान देना होगा। और पर्यावरण विभिन्न संकेतो से हमें चेतावनी दे रहा है कि हमें समय रहते शाकाहारी हो जाना चाहिए।


"सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।।" 

(सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें, और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े ।)

15 टिप्‍पणियां:

  1. "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।।"

    इस महान उद्घोष के बाद किसी भी प्रकार के घृणित किन्तु परन्तु की आवश्यकता ही कहाँ रह जाती है .

    क्यों आखिर क्यों मानव सिर्फ अपने वहशीपन की पूर्ति के लिए सीधे या उपासना कर्म-कांड की आद लेकर निरीह प्राणियों को खा जाता है :(

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  2. यही श्लोक सार है, सर्वे भवन्तु सुखिनः..

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  3. सम्पूर्ण संसार के प्राणियों के सुखी रहने की कामना से बढ़कर क्या हो सकता है.....

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  4. संक्षिप्त और सुन्दर आलेख। मेरी नज़र में जीवरक्षा के लिये समर्पण इंसानियत की पहचान है।

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  5. @ जीव जीवस्य भोजनम्

    हाँ - इसका अर्थ यह है कि
    .... "हर जीव दुसरे जीव का भोजन है "
    इसका अर्थ यह नहीं है कि :
    .... हर जीव दूसरे जीव को अपना भोजन बनाता है |

    हरे पौधे दूसरे जीवों को नहीं खाते - क्योंकि वे अपना भोजन मिटटी से, हवा से, और धूप से बनाते हैं |

    अक्सर लोग इसे यह समझ लेते हैं कि "हर जीव दूसरे को खाता ही है, तो हमारे लिए क्या बुरा है मांसाहार | जबकि इसका अर्थ यह था ही नहीं |

    अब सोचने वाली बात है कि यदि हम पौधे का बनाया भोजन ले रहे हैं - तो इसमें हत्या नहीं है, दूसरे जीव को अपना भोजन बनाना नहीं है, क्योंकि फल सब्जियां अन्न आदि लेने में हम पौधे (जीव) को अपना भोजन नहीं बना रहे, बल्कि सिर्फ उसके एक भाग को ग्रहण कर रहे हैं- जो भोजन देने के उद्देश्य से ही बना था | इससे उस पौधे की मृत्यु नहीं होती |

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  6. इन उक्तियों को सही परिपेक्ष्य में जानना बहुत जरूरी है, आभार स्वीकार करें इसे हम सबके साथ साझा करने के लिए|

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  7. "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।।"
    कितनी सार्थकता है इस श्‍लोक में ... आभार इस उत्‍कृष्‍ट प्रस्‍तुति के लिए

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  8. कहा गया है- "सभी प्राणी जीना चाहते है, मरना किसी को भी प्रिय नहीं" इसिलिए सूत्र बना "जिओ और जीने दो"।
    यदि हम अपना अस्तित्व कायम रखते हुए सुख शान्ति एव संतोष से जीना चाहते है, तो पहले यही सुख शान्ति एव संतोष सभी जीवों के लिए सहज बनाना होगा। क्योंकि संतोष की प्रतिक्रिया संतोष ही होती है। जब हम दूसरे जीवों के जीवन मार्ग को सहज बनाते है तब एक तरह से हम अपना जीवन मार्ग ही सहज बना रहे होते है।

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  9. "जीव आहार बनता है अन्य जीव का" यह सिद्धांत नहीं घटना की रिपोर्टिंग है। जंगल में पहुँचकर यह सम्भव है। तब जिस भी विवेकी और सजग व्यक्ति ने इसका अवलोकन किया होगा वह इसके अतिरिक्त और क्या कह सकेगा -"जीव आहार बनता है अन्य जीव का"
    तो यह सिद्धांत नहीं घटना का अवलोकन है जो सत्य होते हुये भी सदा सर्वदा सार्वभौमिक रूप से अनुकरणीय नहीं बन सकता। जो अनुकरणीय है वह है "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।।" .......और "लोकोsयं पुरुष सम्मितः ...." जब हम सम्पूर्ण लोक को पुरुषमय स्वीकार कर लेते हैं और फिर भी हिंसा के लिये प्रवृत्त होते हैं तो स्वयं की हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। बायोडायवर्सिटी को जितनी अधिक क्षति हम पहुँचा रहे हैं उतना ही अधिक अपने सामूहिक सर्वनाश को आमंत्रित कर रहे हैं, यह विद्वत्समाज में सुस्थापित तथ्य है। "परस्परग्रहो जीवानाम्" की अवधारणा यह नहीं है कि एक जीव दूसरे जीव को खाकर जीवित रहता है अपितु यह है कि हर जीव एक-दूसरे पर पारस्परिक साहचर्य के कारण निर्भर और जीवित है। मांसाहारी लोग शब्दों के अर्थ इस तरह करना चाहते हैं जिससे उनके द्वारा की जाने वाली जीवहिंसा को जस्टीफ़ाई किया जा सके। यही तो वितण्डा है। जो विद्या के कुपात्र हैं वे वैदिक मंत्रों में भी केवल अनर्थ ही देख सकेंगे। इसीलिये प्राचीन आचार्यों ने कुपात्र को विद्या का निषेध किया था।
    पुनश्च, "मा हिंस्यात सर्व भूतानि" की उद्घोषणा करने वाली सभ्यता जीवहिंसा की अनुमति कैसे दे सकती है? भूत से अभिप्राय केवल जीव ही नहीं अपितु सभी जीव-अजीव है। यदि इस उद्घोषणा को हम समझे होते और इसका अनुपालन किया होता तो अविवेकपूर्ण तरीके से पृथिवी का दोहन न किया होता। सर्वभूतानि में पहाड़ और नदी भी हैं जो शनैः शनैः अब वास्तव में "भूत" (विगत) होते जा रहे हैं। हमने मिथ्या विकास को अपना लक्ष्य बनाया और अब संपूर्ण प्रकृति के साथ हिंसा करने पर तुले हुये हैं । हमने सरस्वती के साथ हिंसा की तो वह लुप्त हो गयी...धरती में समा गयी। यमुना और गंगा के साथ अनवरत हिंसा का ताण्डव हो रहा है। रासायनिक खाद का विष फैलाकर हम धरती के साथ हिंसा कर रहे हैं। हिंसा बड़ा ही व्यापक अर्थ वाला शब्द है। हर प्रकार की हिंसा से मुक्ति ही प्राणी और पृथिवी की रक्षा कर पाने में समर्थ हो सकेगी।

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  10. माँसाहार, वह भी अनाज-वनस्पतियों के प्रचुर मात्र में उपलब्ध होने के बाद भी, केवल जीभ के स्वाद हेतु किया जाना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है. सर्वे भवन्तु सुखिना का उद्घोष करने वाले देश में इन स्थितियों को देखकर क्षोभ होता है.

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  11. किसी जीव की हत्या और मांस खा जाना मुझे मानवीय नहीं लगता ...
    आभार !!

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