येन केन पेट भरना ही मानव का उद्देश्य नहीं है। आहार-भय-निंद्रा-मैथुन तो पशुओं का भी उद्देश्य है। किसी भी प्रकार आहार प्राप्त करना तो विशेष रूप से पशुओं का लक्षण है। और विस्मय तो तब होता है जब शाकाहारी पशु भूखे मर जाते है पर माँस पर मुँह नहीं मारते!! मानव नें प्रकृति प्रदत्त बुद्धि से ही सभ्यता साधी। अपनी विकृत आहार व्यवस्था को मानव ने सुसंस्कृत बनाया। शाकाहार ही वह सुसंस्कृति है। प्रकृति प्रदत्त बुद्धि हमें यह विवेकशीलता भी प्रदान करती है, कि हमारे विचार और व्यवहार सौम्य व पवित्र बने रहे। सभी जीवों के साथ सहजीवन में हम क्रूरता से दूर रहें। समस्त सृष्टि का जीवन सहज और सुखप्रद हो, इसिलिये सभ्यता और संस्कार हमारे लक्ष्य होते है।
जीवन जीने की हर प्राणी में अदम्य इच्छा होती हैं। हम देखते है कि कीट व जंतु भी जीवन टिकाए रखने के लिए, कीटनाशक दवाओं के खिलाफ़ प्रतिकार शक्ति उत्पन्न कर लेते है। सुक्ष्म जीवाणु-रोगाणु भी कुछ समय बाद रोगप्रतिरोधक दवाओं के विरुद्ध जीवन बचाने के तरिके खोज लेते है। यह उनके जीनें की अदम्य जीजिविषा का परिणाम होता है। सभी जीना चाह्ते है मरना कोई नहीं चाहता। एसे में प्राण बचाने को संघर्षरत पशुओं को मात्र स्वाद के लिये मार खाना तो क्रूरता और विकार की पराकाष्ठा है।
हिंसाजन्य आहार लेने से, हिंसा के प्रति सम्वेदनाएं समाप्तप्राय हो जाती है। किसी का जीवन ही गटक जाने की विकृत मानसिकता से दूसरे जीव के प्रति दया करूणा के भाव तिरोहित हो जाते है। अनावश्यक हिंसा-भाव मन में रूढ हो जाते है, और वे हमारे स्वभाव का हिस्सा बन जाते हैं। इस प्रकार क्रूरता हमारे आचरण में समाहित हो जाती है। ऐसी मनोदशा में, हमारे सुखों के विपरित/प्रतिकूल स्थिति उत्पन होनें पर आवेश का आना सहज सा हो जाता है। आवेश में हिंसक कृत्य का हो जाना भी सम्भव है। आहार इसी तरह हमारी मनोस्थिति को प्रभावित करता है।
हमारी सम्वेदनाओं और अनुकंपा भाव के संरक्षण के लिये, हमारे विचार और वर्तन को विशुद्ध रखनें के लिये, शाकाहार हमारी पहली पसंद ही नहीं, नैतिक कर्तव्य होना चाहिए। और फ़िर जहाँ और जब तक हमें सात्विक पौष्ठिक शाकाहार, प्रचूरता से उपलब्ध है, वहां तो इन निरिह जीवों को करूणादान अथवा अभयदान देना ही चाहिए। समस्त जीव-संसार हमारा पडौसी है, उनके अस्तित्व से ही हमारा जीवन टिका हुआ है। मानव मात्र का यह कर्तव्य है जीए और जीने दे।
सहजीवन सरोकार, विवेकयुक्त संयम, सम्वेदनाओं की रक्षा और सात्विक संस्कृति शाकाहार शैली है
मैं उस समय की कल्पना करता हूँ जब जीव जीव से प्रेम करेगा, परस्पर भयभीत नहीं रहेगा, परस्पर सहयोगी भाव रखेगा.
जवाब देंहटाएंपरस्पर की जरूरतों को समझेगा.... किन्तु इन सबका प्रारम्भ मनुष्य को ही करना होगा.
मैं मानता हूँ ... शुरुआत शाकाहार अपना कर ही की जा सकती है.
जीयें और जीने दें की सोच को साकार करने का पहला कदम यही हो सकता है की हम शाकाहार अपनाएं.... सुंदर आव्हान
जवाब देंहटाएंआवेश में हिंसक कृत्य का हो जाना भी सम्भव है। आहार इसी तरह हमारी मनोस्थिति को प्रभावित करता है।
जवाब देंहटाएंजी हाँ सुज्ञ जी,माँसाहार हिंसा को प्रेरित करता है.
शाकाहार ही मनुष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ आहार है.
आप सुन्दर लेखन से अति पुण्य का कार्य कर रहें हैं.
ईश्वर हम सबको सद्बुद्धि दे.जो माँसाहार को त्याग यदि
शाकाहार अपनाले तो उसपर ईश्वर की असीम अनुकम्पा ही माननी
चाहिये.
मानव मात्र का यह कर्तव्य है जीए और जीने दे
जवाब देंहटाएंसही कहा सुज्ञ जी, अच्छी पोस्ट
जिओ और जीने दो!
जवाब देंहटाएंआलेख और अब तक की सभी टिप्पणियों से पूर्ण सहमति है।
जवाब देंहटाएंभाई सुज्ञ जी हमेशा की तरह सुन्दर पोस्ट...जीव दया मानवता का कर्तव्य है| आपका यह ब्लॉग अपना कर्तव्य भली भाँती निभा रहा है...मैं आपका आभारी हूँ जो आपने मुझे इस सुन्दर मंच से जोड़ा...इस विषय पर अब और लिखने की इच्छा हो आई है, शायद जल्दी ही लिखूंगा...
जवाब देंहटाएंसादर...
दिवस जी,
जवाब देंहटाएंआपके विचारों का स्वागत है। आप 'निरामिष परिवार' के माननीय सदस्य जो है।
आपकी पोस्ट का इन्तजार रहेगा दिवस जी
जवाब देंहटाएंji - sahmat
जवाब देंहटाएंजिओ और जीने दो
जवाब देंहटाएंजिओ और जीने दो
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