शुक्रवार, 24 जून 2011

आपका धर्म भी तो यही कहता है !

श्रीमद्भगवद गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं----"सर्वभूत हिते रत्ता" अर्थात सम्पूर्ण भूत प्राणियों के हित में रत और सम्पूर्ण प्राणियों का सुह्रद रहो. जो शुभफल प्राणियों पर दया करने से होता है, वह फल न तो वेदों से, समस्त यज्ञों के करने से और न ही किसी तीर्थ, वन्दन अथवा स्नान-दान इत्यादि से होता है.

जीवितुं य: स्वयं चेच्छेत कथं सोन्यं प्रघात्तयेतु !
यद्यदात्मनि चेच्छेत तत्परस्यापि चिन्तयेत !!
जो स्वयं जीने की इच्छा करता है, वह दूसरों को भला कैसे मार सकता है ? प्राणी जैसा अपने लिए चाहता है, वैसा ही दूसरों के लिए भी चाहे. कोई भी इन्सान यह नहीं चाहता कि कोई हिँसक पशु या मनुष्य मुझे, मेरे बाल-बच्चों, इष्टमित्रों वा आत्मीयजनों को किसी प्रकार का कष्ट दे या हानि पहुँचाये अथवा प्राण ले ले या इनका माँस खाये. एक कसाई जो प्रतिदिन सैकडों प्राणियों के गले पर खंजर चलाता है, आप उसको एक बहुत छोटी और बारीक सी सूईं भी चुभोयें, तो वह उसे भी कभी सहन नहीं करेगा. फिर अन्य प्राणियों की गर्दन काटने का अधिकार उसे भला कहाँ से मिल गया ?
मित्रस्य चक्षुणा सर्वाणि भूतानि समीक्षामहे !!
हम सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखें. इस वेदाज्ञानुसार सब प्राणियों को मित्रवत समझकर सेवा करें, सुख दे. इसी में जीवन की सफलता है. इसी से यह लोक और परलोक दोनों बनते हैं.

फिर दूसरों के प्रति हमें वैसा बर्ताव कदापि नहीं करना चाहिए, जिसे हम अपने लिए पसन्द न करें. कहा भी है, कि------"आत्मन प्रतिकूलानि परेषा न समाचरेत". लेकिन देखिए दुनिया में कितना बडा विरोधाभास है, जहाँ एक ओर हम भगवान से "दया के लिए" प्रार्थना करते हैं और वहीं दूसरे प्राणियों के प्रति क्रूर हो जाते हैं-------How is that man who prays for money, is himself not merciful towards other fellow beings.


इस्लामिक धर्मग्रन्थ कुरआन शरीफ का आरम्भ ही "बिस्मिल्लाह हिर रहमान निर रहीम" से होता है. जिसका अर्थ है कि खुदा रहीम अर्थात "सब पर रहम" करने वाला है. इनके अनुनायियों के मुख से भी सदैव यही सुनने को मिलता है कि अल्लाह अत्यन्त कृपाशील दयावान है .वही हर चीज को पैदा करने वाला और उसका निगहबान(Guardian ) है. अब जीभ के स्वाद के चक्कर में मनुष्य उस "निगहबान" की देखरेख में उसी की पैदा की हुई चीज की हत्या करे, तो क्या यह अत्यन्त विचारणीय प्रश्न नहीं ?

श्री अरविन्द कहते रहे हैं कि-----"जो भोजन आप लेते हैं, उसके साथ न्यूनाधिक मात्रा में उस पशु की जिसका माँस आप निगलते हैं, चेतना भी लेते हैं"

भगवान बुद्ध नें "माँस और खून के आहार" को अभक्ष्य और घृणा से भरा और 'मलेच्छों द्वारा सेवित' कहा है.  

सिक्ख धर्म के जनक गुरू नानक देव जी कहते हैं-----"घृणित खून जब मनुष्य पियेगा, तो वह निर्मल चित्त
भला कैसे रह सकेगा."

पारसी धर्म के प्रणेता जोरास्टर नें कसाईखानों को पाप की आकर्षण शक्ति का केन्द्र बताया है और क्रिस्चियन धर्मग्रन्थ बाईबल में कहा गया हैं----" जब तुम बहुत प्रार्थना करते हो, मैं उन्हे नहीं सुनूँगा, क्योंकि तुम्हारे हाथ खून से रंगे हैं". चीनी विद्वान कन्फ्यूनिस नें भी जहाँ "पशु आहार को संसार का सर्वाधिक अनैतिक कर्म" कहा है, वहीं रामकृष्ण परमहँस का कहना है, कि-----"सात्विक आहार-उच्च विचार मनुष्य को परम शान्ति प्रदान करने का एकमात्र साधन है".

भगवान महावीर नें अहिँसा को "अश्रमों का ह्रदय", "शास्त्रों का गर्भ" (Nucleous) एवं "व्रत-उपवास तथा सदगुणों का पिंडी भूतसार" कहा है. और संसार में जितने प्राणी है, उन सबको जानते हुए या अनजाने में भी कोई कष्ट न देना ही धर्म का एकमात्र मूल तत्व है.

आपने देखा कि मनुष्य जाति के इतिहास में शायद ही कोई ऎसा धर्म अथवा धर्मशास्त्र होगा, जिसमें अहिंसा को सबसे ऊँचा स्थान न दिया गया हो. लेकिन इन्सान, जो कि अपने स्वयं का आसन इस संसार के अन्य समस्त प्राणियों से कहीं ऊँचा समझता है. क्या उस पर बैठकर उसे अपने खानपान का इतना भी विवेक नहीं कि वह सही मायनों में मानव बनना तो बहुत दूर की बात रही, एक पशु से ही कुछ सीख ले सके. एक पशु भी इस बात को अच्छी तरह समझता है कि उसके लिए क्या भक्ष्य है और क्या अभक्ष्य. उसे कोई सिखानेवाला नहीं है, फिर भी वो अपने आहार का उचित ज्ञान रखता है, परन्तु इन्सान पशु से भी इतना नीचे गिर गया है कि दूसरों के द्वारा परामर्श दिए जाने पर भी वह अपने को उसी रूप में गौरवशाली समझता है. क्या एक समझदार आदमी से यह उम्मीद की जा सकती है कि वो अपना पौरूष अपने से निर्बल प्राणी को मारकर अथवा उसे खाकर ही दिखाये ?. विधाता नें इन्सान के खाने के लिए स्वादु मधुर, पौष्टिक, बुद्धिवर्धक और हितकर इतने पदार्थ बना रखे हैं कि उनको छोडकर एक निकृष्ट अभक्ष्य पदार्थ पर टूट पडना कहाँ तक उचित है ?

यह कहना सर्वथा उचित ही होगा कि माँसाहार को छोड देने वाला व्यक्ति अन्य अनेक प्रकार की बुराईयों से भी स्वत: ही मुक्त हो जायेगा. इसलिए मेरा यही कहना है कि जो लोग इस बुराई से दूर रहे हैं, उनकी अपेक्षा वे लोग कहीं अधिक साहसी माने जायेंगें, जो इस लत को लात मारकर निरीह पशुओं के आँसू पोंछेंगें.
पक्षी और चौपाये सब मार-मार के खाय,
फिर भी सगर्व खुद को इन्सान कहाये !
बन के मर्द बहादुरी, मूक जीवों पर दिखलाये !
क्यूं  तुझे लाज नहीं आये ?

19 टिप्‍पणियां:

  1. जो लोग इस बुराई से दूर रहे हैं, उनकी अपेक्षा वे लोग कहीं अधिक साहसी माने जायेंगें, जो इस लत को लात मारकर निरीह पशुओं के आँसू पोंछेंगें.

    नमन है पंडित जी आपको!! बहुत ही सार्थक और कल्याणकारी बात कही।

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  2. उद्वत किये गए अन्य किसी भी वाकयंश के बारे में तो मैं कुछ नहीं जानता, किन्तु एक गलत बात को सही करना चाहूँगा - हिब्रू नामक कोई धर्मं नहीं है, हिब्रू जाति है; संत इजराएल भी कोई नहीं हैं, इजराएल भी समाज है - हिब्रू लोगों का, हिब्रू और इजराएल एक ही हैं.
    लेकिन जो बात आपने 'हिब्रू धर्म' के नाम से कही है और जिस खून का उसमें ज़िक्र है, कृपया पहले उसका सन्दर्भ पढ़ कर देख लीजिए. यह बाइबल में यशायाह नबी की पुस्तक से लिया गया है - यशायाह १:1५, जहाँ परमेश्वर इजराएल के लोगों को उनकी अनाज्ञाकारिता और पापों के लिए गुस्सा करा रहा है तथा जिस खून का यहाँ ज़िक्र है वह उनकी आपसी रंजिश का है, किसी भोजन वस्तु का नहीं.
    गलत उदाहरणों से कोई बात साबित नहीं हो सकती.
    धन्यवाद

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  3. अगर खान-पान में सुधार हो जाए तो तीन चौथाई झगड़े तो स्वयं ही समाप्त हो जाएँगे!

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  4. अगर खान-पान में सुधार हो जाए तो तीन चौथाई झगड़े तो स्वयं ही समाप्त हो जाएँगे!
    शास्त्रीजी की बात अब्दी सुंदर और अर्थपूर्ण है.... सार्थक विवेचन के लिए आभार

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  5. @ Roz ki roti

    त्रुटि की ओर ध्यानाकर्षण हेतु आपका आभार! संभव है कि शायद आप ही सही हों.क्योंकि इस विषय में मेरा ज्ञान सीमित हैं. इसलिए पोस्ट में उचित सुधार कर दिया गया है. फिर भी मेरी समझ अनुसार यहूदी(अरब निवासी)और फिलीस्तीन के मूल निवासियों के मेलजोल से ही कभी हिबूर नाम की एक सभ्यता का जन्म हुआ था. कालान्तर में जिसे "हिब्रू धर्म" के नाम से भी जाना जाता रहा है.ठीक वैसे ही जैसे आज हिन्दू को एक जाति की अपेक्षा धर्म के नाम से जाना जाता है.

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  6. पंडित जी बेहद सार्थक आलेख...सभी धर्म ही तो यह बात बोलते हैं...फिर भी मानव केवल जीभ के स्वाद के लिए किसी जीव की गर्दन पर बेरहमी से खंज़र chala deta है...
    यह घोर निंदनीय है...

    जो लोग इस बुराई से दूर रहे हैं, उनकी अपेक्षा वे लोग कहीं अधिक साहसी माने जायेंगें, जो इस लत को लात मारकर निरीह पशुओं के आँसू पोंछेंगें.
    सच में वे लोग साहसी माने जाएंगे...उपरोक्त पंक्ति ने मन मोह लिया...
    आभार...

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  7. शर्मा जी, मेरी टिप्पणी को सकारत्मक रूप से लेने और लेख में सुधार करने के लिए बहुत धन्यवाद. निवेदन है की सुधार के बावजूद, वाक्यांश सही संदर्भ में नहीं लिखा गया है. जैसे मैं ने पहली टिपण्णी में लिखा था, उद्वत बाइबल के पद में खून का उल्लेख भोजन वस्तु के सन्दर्भ में नहीं है, इसलिए इस पद को उद्वत करके और उसे भोजन की बात से जोड़कर कहना उचित नहीं है.
    दूसरे, बाइबल में परमेश्वर ने स्वयं जानवरों को साग-पात के सामान भोजन के लिए दिया है, लेकिन उनके खून को नहीं खाने की आज्ञा दी है: "और तुम्हारा डर और भय पृथ्वी के सब पशुओं, और आकाश के सब पक्षियों, और भूमि पर के सब रेंगने वाले जन्तुओं, और समुद्र की सब मछलियों पर बना रहेगा : वे सब तुम्हारे वश में कर दिए जाते हैं। सब चलने वाले जन्तु तुम्हारा आहार होंगे; जैसा तुम को हरे हरे छोटे पेड़ दिए थे, वैसा ही अब सब कुछ देता हूं। पर मांस को प्राण समेत अर्थात लोहू समेत तुम न खाना।" - उत्पत्ति ९:२-४.
    बाइबल में मांसाहार वर्जित नहीं वरन निर्धारित है, इसी सन्दर्भ में केवल यही नहीं और भी कई पद हैं|
    हिब्रू-यहूदी-अरब-फिलीस्तीनी लोगों के संदर्भ में भी आपको पहले अपने तथ्य सही जांच कर तब ही उन्हें प्रस्तुत करना चाहिए था, न की त्रुटिपूर्ण जानकारी और फिर आलोचना द्वारा अपने लेख की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिंह लगवाना चाहिए.
    ये अलग अलग जातियां हैं और यहूदी/अरब और फिलीस्तीनी जाति के मेल जोल से हिब्रू नाम की किसी सभ्यता का कभी कोई जन्म नहीं हुआ. अंग्रजी के Hebrew शब्द का हिंदी अनुवाद हिब्रू/इब्री है, बाइबल में इस्राएली जाती की मूल पिता इब्राहिम को हिब्रू/इब्री बताया गया - उत्पत्ति १४:१३; तथा उसके बाद उसके वंश के लोगों को हिब्रू/इब्री कहा गया.
    इब्राहिम के पोते याकूब का नाम परमेश्वर ने बदल कर इज़राइल रखा - उत्पत्ति ३२:२८. याकूब/इज़राइल के १२ पुत्र हुए जिनके द्वारा इज़राइल के बारह गोत्र बने और इसलिए इन्हीं १२ गोत्रों की संतानों को इज्राएली भी कहा जाता है. इनमें से एक गोत्र यहूदा का गोत्र भी था,(जिसमें से प्रभु यीशु मसीह का जन्म हुआ). राजा सुलेमान के बाद इज्राएल में विभाजन आया और १० गोत्र एकसाथ हो गए जो यहूदी कहलाए, शेष दो गोत्र इज्राएली ही कहलाते रहे. समस्त इज्राएली/यहूदी समाज के नबूकदनज़र राजा कि बंधुवाई में जाने, और बंधुवाई से निकल कर उनके अपने देश में पुनर्स्थापना के बाद से सभी को इज्राएली या यहूदी कहा जाने लगा, जो आज तक प्रचलित है.
    निष्कर्ष यह है कि हिब्रू-इज्राएली-यहूदी अलग अलग नामों से जाने जान वाले एक ही लोग हैं, भिन्न नहीं, और हिब्रू/इज़राएली नाम का कोई धर्म नहीं है; साधारणतया इनके धर्म को 'यहूदी' धर्म कह कर लोग अवश्य संबोधित कर देते हैं, लेकिन बाइबल में इसे कोई धर्म कि संज्ञा नहीं दी गई है.
    अरब और फिलीस्तीनी इन से बिलकुल अलग लोग हैं, जो उसी इलाके में रहते हैं, लेकिन इज्राएलियों और अरब तथा फिलिस्तिनियों में सदा ही विरोध और युद्ध रहा है जो आज तक जारी है.
    पुनः विनम्र निवेदन है, कृपया तथ्य जांचकर ही ऐसे सार्वजनिक मंच पर प्रस्तुत करें; किसी अन्य धर्मग्रन्थ से भी ठीक से जांचे-परखे बगैर कोई गलत तथा आधार रहित उदाहरण भी कृपया न दीजिएगा, इससे आपकी तथा आपके लेख की विश्वसनीयता बनी रहेगी और पाठकों को भी आनंद आएगा.
    धन्यवाद

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  8. @ ये अलग अलग जातियां हैं और यहूदी/अरब और फिलीस्तीनी जाति के मेल जोल से हिब्रू नाम की किसी सभ्यता का कभी कोई जन्म नहीं हुआ.
    जैसा कि अपनी पूर्व की टिप्पणी में भी मैं स्पष्टया कह चुका हूँ कि निज सनातन धर्म के अतिरिक्त मेरा इस्लाम और यहूदी/क्रिस्चिनियटी नाम के इन दोनों मत/सम्प्रदायों के विषय में ज्ञान बेहद सीमित है और इसे स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच भी नहीं है. हो सकता है कि आपका कहना ही बिल्कुल सही हो. आपकी टिप्पणी से मुझे ऎसा आभास हो रहा है कि शायद आप स्वयं इस सम्प्रदाय के अनुयायी है. इसलिए मैं मानता हूँ कि जो आप कह रहे हैं, वही सही होगा.
    लेकिन एक बात अवश्य कहना चाहूँगा कि यहाँ पोस्ट का मूल विषय न तो किसी मत/सम्प्रदाय/धर्मशास्त्र की व्याख्या करना है और न ही किसी पंथ विशेष की परम्पराओं/मान्यताओं को गलत/सही सिद्ध करना है. पोस्ट को लिखने का एकमात्र उदेश्य जो है------वो है पाठकों को संसार के विभिन्न धर्म एवं मत-सम्प्रदायों द्वारा अंगीकृत किए गए जीवदया एवं अहिंसा नामक सर्वश्रेष्ठ मानवीय गुणों से परिचय कराकर उन्हे माँसाहार जैसी इस भीषण बुराई/लत का त्याग करने को प्रोत्साहित किया जा सके. लेकिन यदि आप भी इस्लामिक अनुयायियों की भातीं ऎसे किसी प्रयास को गलत मानते हैं और ये दर्शाना चाहते हैं कि यहूदी/क्रिस्चियनिटी धर्म जीवदया एवं अहिँसा का समर्थन नहीं करता है और माँस भक्षण को जायज ठहराता है तो मैं आज से इस सम्प्रदाय को भी अपनी अहिंसा समर्थक मत-सम्प्रदायों की सूची से निकाल बाहर करता हूँ और ये मान लेता हूँ कि इस्लाम की भांती ही इस सम्प्रदाय में भी अहिंसा का कोई स्थान नहीं है.
    आपने अपनी टिप्पणी में लिखा कि यहूदी/अरब और फिलीस्तीनी जाति के मेल जोल से हिब्रू नाम की किसी सभ्यता का कभी कोई जन्म नहीं हुआ
    . हो सकता है कि आपका ये कहना भी शायद हो लेकिन यहाँ अन्तरजाल पर यहूदी धर्म के उद्भव,विकास एवं उसके इतिहास के बारे में दिए गए एक लेख का लिंक देना चाहूँगा, साथ में उसकी कुछ पंक्तियाँ भी.............
    (यहूदी धर्म का उद्भव, विकास एवं इतिहास)

    हजरत नूह के वंशज यहूदी कहलाए। यहूदियों का जन्म-स्थान अरब था। वहां से वे धीरे-धीरे फिलिस्तान जा बसे। इनके नेता हजरत मूसा थे। इन्होंने बहुत सारे यहूदियों को मिस्रवासियों की अधीनता से छुटकारा दिलाया था। मूसा की मृत्यु के बाद जोशुआ इनके नेता बने। इनके नेतृत्व में यहूदियों और फिलिस्तीन के मूल निवासियों में युद्ध हुआ। कुछ समय बाद दोनों में समझौता हो गया। दोनों के मेलजोल से हिबू्र सभ्यता का विकास हुआ। मूसा के पहले हिब्रू कबीलों के लोग अनेक देवताओं को मानते थे। दरअसल हिब्रू धर्म का विकास कई चरणों में हुआ। बहुदेवों में विश्वास रखने के साथ-साथ लोग अनेक तरह के अंधविश्वासों को भी मानते थे। मूसा ने विभिन्न कबीलों में एकता स्थापित की, और उन्हें संगठित किया। उन लोगों ने एक देवता के रूप में याहवेह या जेहोता को अपना ईश्वर माना। इस तरह लोग आध्यात्मिक जागृति की ओर मुड़े । यहूदियों का विश्वास है कि स्वयं ईश्वर ने मूसा के माध्यम से उन लोगों को दस उपदेश (शिक्षाएं) दिए थे। उन उपदेशों मे एकेश्वरवाद में विश्वास रखने पर बल दया गया है। साथ ही 'विशिष्ट प्रजाÓ (जैसा कि हिब्रू अपने आपको कहते हैं) के जीवन को निर्देशित करने वाले नियमों के प्रति भी इन उपदेशों में आस्था प्रकट की गयी है।

    (इब्री और हिब्रू)

    पुरानी बाइबिल तौरेत यहूदियों का धर्म ग्रंथ है। उसमें लिखा है कि परमेश्वर 'यहोबाÓ ने अब्राहम से कहा कि अपने देश, जन्मभूमि और पिता के घर को छोड़कर तू उस देश में चला जा, जो मैं तुझे दिखाऊंगा। मैं तुझसे एक बड़ी जाति बनवाऊंगा, तुझे आशीष दूंगा, तेरा नाम ऊंचा करूंगा। संसार के सारे लोग तुझसे आशीर्वाद पाएंगे। प्रभु याहोबा के इस कथन को सुनकर अब्राहम अपनी पत्नी व पुत्र तूल को अपनी धन-संपत्ति के साथ लेकर कनान प्रदेश को चल पड़ा और सबके साथ कनान प्रदेश आ गया। कनान के रहने वालों ने अब्राहम को इब्री कहा। इब्री अर्थात् वे लोग जो दजला व फरात नदी के उस पार से आए। इब्री का कुटुंब कहलाया इब्रीस और इब्रीस का बिगड़ा रूप हुआ-हिब्रू।
    http://religion.bhaskar.com/article/100114180043_yahudi_1.html?PRV=


    क्षमा चाहूँगा कि समय के अभाव के चलते शायद आपक आगामी किसी टिप्पणी का प्रयुत्तर दे पाना संभव न हो पाये........
    धन्यवाद......

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  9. रोज़ की रोटी जनाब,

    सम्भव है पंडित जी नें बाइबल के पद की जो व्याख्याएं प्रस्तुत की वे व्याख्याएँ आपकी मानसिकता से मेल नहीं खाती। यह तो एक सच्चाई है कि सभी धर्म ग्रंथों की भिन्न भिन्न व्याख्याएं उपलब्ध होती है। जिसे जो अपनें मंतव्य से सिद्ध करना उसकी उसी अनुरूप व्याख्या कर दी। जैसे खून के कई अर्थ आपने निकाले है और जरूरत पडी तो खून को मांस से अलग कर दिया।
    खैर स्वार्थी मनुष्य नें हमेशा इसी तरह अपना उल्लु सीधा करने का प्रयास किया है।
    क्यों कि प्रभु दयावन करूणावान रहमतों वाला है। पंडित जी का आशय उसके जीवदया व अहिंसा के उपदेश को प्रकट करना था।

    अब तो पंडित जी भी समझ गये कि दया करूणा कि बात हाथी के दांत की तरह है।
    और क्योंकि आप जानकार है इसलिए आपनें करूणाविहिनता प्रकाशित की वह बात सही ही होगी।

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  10. पंडित जी,

    सटीक व सार्थक!! प्रभु की जगत पर करूणा के बारे में………

    "पाठकों को संसार के विभिन्न धर्म एवं मत-सम्प्रदायों द्वारा अंगीकृत किए गए जीवदया एवं अहिंसा नामक सर्वश्रेष्ठ मानवीय गुणों से परिचय कराकर उन्हे माँसाहार जैसी इस भीषण बुराई/लत का त्याग करने को प्रोत्साहित किया जा सके. लेकिन यदि आप भी इस्लामिक अनुयायियों की भातीं ऎसे किसी प्रयास को गलत मानते हैं और ये दर्शाना चाहते हैं कि यहूदी/क्रिस्चियनिटी धर्म जीवदया एवं अहिँसा का समर्थन नहीं करता है और माँस भक्षण को जायज ठहराता है तो मैं आज से इस सम्प्रदाय को भी अपनी अहिंसा समर्थक मत-सम्प्रदायों की सूची से निकाल बाहर करता हूँ और ये मान लेता हूँ कि इस्लाम की भांती ही इस सम्प्रदाय में भी अहिंसा का कोई स्थान नहीं है."

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  11. पंडित जी नाराज़ मत होइए, मेरा उद्देश्य भी केवल अच्छे लेख में विद्यमान त्रुटि सुधारना और उसे बेहतर बनाना था.
    मैं स्वयं शाकाहार को मांसाहार से अधिक पौष्टिक और बेहतर मनाता हूँ, और इसमें मैं किसी धर्म की तरफदारी अथवा आलोचना करने की मंशा नहीं रखता.
    मेरी टिपण्णी पर विचार कीजिए, क्या मैं ने आपके उद्देश्य अथवा विचारों की कोई आलोचना करी या कहीं भी उन्हें गलत बताया? वरन मैं ने तो यही चाहा की आपके लेख की विश्वसनीयता बढ़े और पाठकों को और आनंद आए.
    आप स्वयं इस बात को समझते होंगे और मानेंगे भी की किसी असत्य से कोई सत्य प्रमाणित नहीं हो सकता, इसलिए जो भ्रान्ति दिखाई दी वह स्पष्ट कर दी.
    यदि संभव हो तो बाइबल से, जिसकी पहली पांच किताबें वही तौरेत हैं, यथार्थ पढ़ लीजिएगा इन जातियों के आरम्भ और आपसी ताल मेल के बारे में; सत्य स्वयं विदित हो जाएगा.
    सुज्ञ जी ने बात को एक और ही स्वरुप दे दिया है. सुज्ञ जी, निवेदन है, मैं ने बाइबल के पद उनके हवालों के साथ आपके सामने रखे हैं, उनकी कोई व्याख्या नहीं करी. आप भी स्वयं पढ़ कर देखा लीजिए की क्या सही है, क्या गलत. "हाथ खून से सने होना" एक मुहावरा है, जिसके प्रयोग के बारे में मुझे आपको सिखाने का प्रयास शायद बदतमीजी होगी. जिन लोगों के लिए बाइबल में यह प्रयोग हुआ, उन्होंने आपसी व्यवहार और परमेश्वर की आज्ञाकारिता में परमेश्वर के नियमों का घोर उल्लंघन किया था, इसलिए परमेश्वर की उनको लगी फटकार में उन आज्ञाओं सम्बन्ध में कहा गया "तुम्हारे हाथ खून से सने हैं" - परमेश्वर की आज्ञाओं के 'खून' से. इस कारण इस पद का शर्मा जी लेख के संदर्भ में उपयोग अनुचित है, क्योंकि दोनों बातें बिलकुल भिन्न हैं. बस मैं इतना ही बताना चाह रहा हूँ.
    बाइबल मांसाहार को मना नहीं कराती लेकिन उसके लिए बाध्य भी नहीं करती. रोमियों १४:१७-२३ देखीए:
    17 क्‍योंकि परमेश्वर का राज्या खाना पीना नहीं; परन्‍तु धर्म और मिलाप और वह आनन्‍द है;
    18 जो पवित्र आत्मा से होता है और जो कोई इस रीति से मसीह की सेवा करता है, वह परमेश्वर को भाता है और मनुष्यों में ग्रहण योग्य ठहरता है।
    19 इसलिये हम उन बातों का प्रयत्‍न करें जिनसे मेल मिलाप और एक दूसरे का सुधार हो।
    20 भोजन के लिये परमेश्वर का काम न बिगाड़: सब कुछ शुद्ध तो है, परन्‍तु उस मनुष्य के लिये बुरा है, जिस को उसके भोजन करने से ठोकर लगती है।
    21 भला तो यह है, कि तू न मांस खाए, और न दाख रस पीए, न और कुछ ऐसा करे, जिस से तेरा भाई ठोकर खाए।
    22 तेरा जो विश्वास हो, उसे परमेश्वर के साम्हने अपने ही मन में रख: धन्य है वह, जो उस बात में, जिसे वह ठीक समझता है, अपने आप को दोषी नहीं ठहराता ।
    23 परन्‍तु जो सन्‍देह कर के खाता है, वह दण्‍ड के योग्य ठहर चुका, क्‍योंकि वह निश्‍चय धारणा से नहीं खाता, और जो कुछ विश्वास से नहीं, वह पाप है।
    आप ही की तरह क्योंकि मैं भी किसी बहस में नहीं पड़ना चाहता, इसलिए संभवतः इस सन्दर्भ में यह मेरी अंतिम टिपण्णी है.
    मुझे अवसर देने और मेरी सुनाने के लिए बहुत धन्यवाद.

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    1. बेशक!!"हाथ खून से सने होना" एक मुहावरा है, यह मु्हावरा बुरे कर्म को प्रकाशित करने के लिए ही प्रयोग किया जाता है। हाथों को खून से रंगना अर्थार्त् हिंसा बुरी मानी जाती थी। किसी की हत्या करना पाप समझा जाता था इसीलिए यह मुहावरा भी बना और खून का अर्थ साफ साफ हिंसा और पाप माना गया है। अगर यहाँ भाव अवज्ञा का किसी पाप से तुलना करने का है तो अवज्ञा की तुलना के लिए हिंसा जैसे घोर पाप से समानता की गई है।

      हटाएं
  12. रोज़ की रोटी जनाब,

    मेरे कहनें का तात्पर्य मात्र यह था कि लगभग सभी धर्म-ग्रंथों का समय समय पर अलग अलग भावों में विवेचन हुआ है। इसलिए अर्थ विवेचन में थोडा बहुत फर्क लाजिमि है। तथापि लेख का उद्देश्य करूणा इंगित करना मात्र है। मुहावरे भी यूँ ही नहीं बनते। उन शब्दों में भी भाव ही महत्वपूर्ण है। यथा "हाथ खून से सने होना" अवज्ञा की तुलना खून करने से कहकर इस मुहावरे नें सिद्ध ही किया है खून करना घृणित है। अर्थार्त हिंसा बुरा कर्म है। और अवज्ञा हिंसा के समान है।

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  13. आनंद आया वत्स जी और 'रोटी जी' के बीच संवाद में .... सुज्ञ जी आपने फिर से संतुलन बनाने की भूमिका निभायी. बहुत खूब.

    मेरा इतना कहना है कि 'शाकाहार के पक्ष को मज़बूत बनाने में कमज़ोर पक्ष (ईसाई आदि रिलीजन) में जबरन खूबियों को न ढूंढा जाए.'
    'शाकाहार' अपने दम पर ही श्रेष्ठ धर्म है... उसके लिए उसे हिन्दू, हिब्रू, मलेक्ष्य आदि जातियों से प्रमाण लेने की जरूरत नहीं.

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  14. एक बार फिर :
    'शाकाहार' अपने दम पर ही श्रेष्ठ धर्म है... उसके लिए उसे हिन्दू, हिब्रू, मलेक्ष्य आदि जातियों से प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं.

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  15. प्रतुल जी,

    आपने सटीक कहा……"शाकाहार अपने दम पर ही श्रेष्ठ धर्म है।"
    वह मनुष्यता का श्रेष्ठ आहार धर्म है।
    अन्य मत-सम्प्रदाय जातियों आदि में जीवों के प्रति दया व अहिंसा के इंगित ढूंढ्ना निर्थक श्रम है। कहते है अहिंसा धर्म का मूल है, पर वहाँ मूल में ही अहिंसा नहीं है।
    यह व्यर्थ उहापोह पूर्व में मैं भी सद्भाव वश कर चुका हूँ। जब मैने वहां भी करूणा होने की बात की तो मुझे झूठा करार दिया गया। मिथ्या प्रयास का नतीजा यही तो होता है।
    वत्स जी को भी आखिर टिप्पणी में कहना ही पडा कि ऐसे मतों को अपनी'करूणा प्रधान' सूचि से बाहर कर दूँ।

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  16. जस मांसु पशु की तस मांसु नर की, रूधिर—रूधिर एक सारा जी ।
    पशु की मांसु भखै सब कोई,नरहिं न भखै सियारा जी ।।
    ब्रह्म कुलाल मेदिनी भरिया,उपजि बिनसि कित गईया जी ।
    मांसु मछरिया तो पै खैये,जो खेतन मँह बोइया जी ।।
    माटी के करि देवी देवा,काटि काटि जिव देइया जी ।
    जो तोहरा है सांचा देवा,खेत चरत क्यों न लेइया जी ।।
    कहँहि कबीर सुनो हो संतो,राम नाम नित लेइया जी ।
    जो किछु कियउ जिभ्या के स्वारथ,बदल पराया देइया जी ।।

    Source: http://santkabirsaheb.blogspot.com/

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  17. पंडित एक अचरज बड़ होई ।
    एक मरि मुये अन्न नहिं खाई, एक मरि सीझै रसोई ।।
    करि अस्नान देवन की पूजा, नौ गुण कांध जनेऊ ।
    हँड़िया हाड़ हाड़ थड़िया मुख, अब षट्कर्म बनेऊ ।।
    धर्म करै जहाँ जीव बधतु हैं, अकरम करै मोरे भाई ।
    जो तोहरा को ब्राह्मण कहिए, काको कहैं कसाई ।।
    कहहि कबीर सुनो हो संतो, भरम भूली दुनियाई ।
    अपरंपार पार पुरूषोत्तम, या गति बिरले पाई ।।

    शब्दार्थ:— हे पंडितों एक बहुत बड़े अचरज की बात सुनाता हूं। एक जीव के मरने पर तो तुम शोक मनाते हो और अन्न नहिं खाते हो, दूसरी ओर एक जीव को मारकर रसोई बनाते हो। स्नान करके पवित्र होकर और कांधे पर नौ गुणों से सुशोभित जनेऊ धारण कर तुम देवों की पूजा करते हो। तुम्हारे बरतनों, रसोई (हँड़िया) में और मुख में हड्डी व मांस भरा है। क्या अब यही षट्कर्म रह गया है ? कहने को तो धर्म करते हो लेकिन जहाँ जीवों की हत्या होती है वह तो अकर्म (कुकर्म) है । इस पर यदि तुमको ब्राह्मण कहें तो फिर कसाई किसे कहेंगे। सद्गुरू कबीर साहेब कहते हैं कि ये दुनिया भरम में भूली हुई है। उस अपरंपार पुरूषोत्तम की गति बिरले ही प्राप्त करते हैं।
    Source: http://santkabirsaheb.blogspot.com/

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