भारतीय सनातन संस्कृति में हिंसा व माँसभक्षण की न तो कोई आज्ञा है और न कोई अनुमति। यह बात अलग है कि कभी क्षेत्र के कारण तो कभी अज्ञानता में या कभी देखा देखी जन साधारण में इस कुरीति का अस्तित्व रहा है। किन्तु आर्ष ग्रंथों में या उपदेशों में किंचित भी पशु-हिंसा का अनुमोदन या मांसभक्षण की अनुज्ञा, अनुमति का कोई अस्तित्व नहीं है। भारतीय संस्कृति अहिंसा प्रधान संस्कृति है।
इसलिए यदि 'धर्म' के परिपेक्ष्य चिंतन करें तो उसमें हिंसा और हिंसा के प्रोत्साहक माँसाहार का अस्तित्व भला कैसे हो सकता है। पशुहत्या का आधार मानव की कायर मानसिकता है, जब शौर्य व मनोबल क्षीण होता है तो क्रूर-कायर मनुष्य, दुस्साहस व धौंस दर्शाने के लिए पशुहिंसा व मांसाहार का आसरा लेता है। लेकिन पशुहिंसा से क्रूरता व कायरता को कोई आधार नहीं मिलता। निर्बल निरीह पशु पर अत्याचार को भला कौन बहादुरी मानेगा। क्रूरता से कायरता छुपाने के प्रयत्न विफल ही होते है।
सनातन संस्कृति के वेदों से ही अहिंसा की अजस्र धारा प्रवाहित रही है।
वैसे तो सभी धर्म जीवों के प्रति करूणा को महत्व देते है।
किन्तु कईं बाहरी संस्कृतियों में पशु हिंसा की प्रतीकात्मक कुरीतियाँ रूढ़ हो चुकी है।
जबकि भारतीय संस्कृति के सभी ग्रंथ जीव हत्या को स्पष्ट अधर्म बताते है।
भारतीय संस्कृति की तो आधारशिला में ही अहिंसा का सद्भाव रहा है।
इसलिए,वैदिक संस्कृति में माँसाहार का स्पष्ट निषेध है।
वस्तुत: वैदिक यज्ञों में पशुबलि---एक भ्रामक दुष्प्रचार है
भला यज्ञ हो तो हिंसा कैसे हो सकती है?
ऋषभक बैल नहीं, ऋषभ कंद है।- ऋषभक का परिचय
इसलिए यदि 'धर्म' के परिपेक्ष्य चिंतन करें तो उसमें हिंसा और हिंसा के प्रोत्साहक माँसाहार का अस्तित्व भला कैसे हो सकता है। पशुहत्या का आधार मानव की कायर मानसिकता है, जब शौर्य व मनोबल क्षीण होता है तो क्रूर-कायर मनुष्य, दुस्साहस व धौंस दर्शाने के लिए पशुहिंसा व मांसाहार का आसरा लेता है। लेकिन पशुहिंसा से क्रूरता व कायरता को कोई आधार नहीं मिलता। निर्बल निरीह पशु पर अत्याचार को भला कौन बहादुरी मानेगा। क्रूरता से कायरता छुपाने के प्रयत्न विफल ही होते है।
very informative post with valuable links. Thanks!
जवाब देंहटाएंI wish NIRAAMISH PARIWAR a very HAPPY NEW YEAR.
सार्थक पोस्ट
जवाब देंहटाएं---
नवीनतम प्रविष्टी: गुलाबी कोंपलें
स्वार्थ के वशीभूत होकर प्राणी अन्य प्राणियों का अहित करते रहे हैं। समझ बढ़ाने के साथ ही ऐसी दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा मिलता है। यदि पूर्वज संस्कार अच्छे हों, जन्म सभ्य समाज में हुआ हो तो उदारता सीखने के लिए कठिन प्रयास की आवश्यकता नहीं रहती, वे किसी उपहार की तरह स्वतः ही जागृत होती है। हम भारतीय भाग्यशाली हैं कि भारतीय संस्कृति के माध्यम से हमें अनेक दैवी विचार अनायास ही मिल गए हैं। काश हम उनका महत्व समझ सकें और सर संसार को सब के लिए सुखमय बनाने की दिशा में प्रयत्न करें
जवाब देंहटाएंसर्वे भवन्तु सुखिना, ...