मनुस्मृति और मांसाहार (अध्याय पञ्चम अनुशीलन एंवम् समीक्षा)---
मांसाहार पर मनुस्मृति का पक्ष
मनुस्मृति पञ्चम अध्याय के प्रथम चारो मंत्र प्रक्षिप्त है(1 से 4 तक)
1- इन चारो मत्रोँ मे ऋषि लोग भृगु से प्रश्न कर रहेँ है।
2- ये चारो मंत्र अध्याय के विषय तालमेल नही रखते है।
3- इन चारो श्लोको मे प्रदर्शित प्रश्न और उत्तर मे भी परस्पर कोई संगति नही है। जैसे द्वितीय मंत्र मे प्रश्न है कि "स्वधर्म यानी वेदशास्त्रो के वेत्ता देवताओँ को मुत्यु कैसे मारती है" उत्तर है- वेदोँ के अनाभ्यास से, आचार के त्याग से, आलस्य से, अब आप खुद देखे कि एक तरफ तो प्रश्न में वेदवेत्ता शब्द है फिर उत्तर मे अनाभ्यासी, भला ये दोनो एक साथ संभव है क्या?
मनुस्मृति पञ्चम अध्याय मे आगे मंत्र 6-7 प्रक्षिप्त है क्योँकि 7वेँ मंत्र मे मांसाहार का वर्णन है और 6वाँ उसी से सम्बद्ध है। मंत्र 11 से 23 तक सभी प्रक्षिप्त है-
1- सभी प्रकार का मांसभक्षण और यज्ञोँ मेँ मांस डालना मनु की मान्यता के विरूद्ध है जैसा ये श्लोक बखान कर रहेँ हैँ।
2- ये श्लोक पूर्वापर प्रसंगविरूद्ध हैँ और प्रंसग भंग कर रहे हैँ। 10वेँ मंत्र मे दही और दही से बने पदार्थो के खाने का विधान किया है और 24वेँ मे घृत और घृतनिर्मित पदार्थो के भक्षण का विधान है। बीच मे मांसभक्षण सम्बन्धी वर्णन ने उस प्रसंग को भंग कर दिया है। अब हम सबसे महत्वपूर्ण मत्रोँ की ओर आतेँ है क्योँकि इन मंत्रो लेकर कोई जाकिर नाईक आर्यधर्म पर मांसभक्षण का आरोप लगाता है।
मंत्र 26 से लेके 44 तक प्रक्षिप्त है---
1- सभी प्रकार के मांसभक्षण की मान्यता और पशुयज्ञ का विधान सर्वथा मनु की मान्यता के विरूद्ध है।
2- मंत्र 24-25 मे मांस आदि से रहित अनिन्दित भोजन करने का कथन है, तदनुसार 45,46 वा 51वेँ मंत्र मेँ मांस का भोजन निन्दित है और किस प्रकार निन्दित है यह वर्णित है बीच मे मांसाहार का वर्णन प्रसंग भंग करता है। अत: ये मंत्र प्रसंगविरूद्ध प्रक्षेप है।
50वां मंत्र पुन: प्रक्षिप्त है क्योकिँ ये विधिपर्वूक मांसभक्षण की बात करता जबकि 51वेँ मंत्र मे मांस भक्षण से जुड़े हर व्यक्ति को पापी कहते है।
मंत्र 52 से 56 तक सभी प्रक्षिप्त है क्योँकि 52वां मंत्र विधिपूर्वक मांसभक्षण का विधायक है तो 56 वां सर्व प्रकार के मांसभक्षण का, जबकि मनु(5/51) मे मांसाहारी तो क्या उसमें सहयोगी को भी दोषी बतातेँ हैँ।
अब आगे इस अध्याय मे मंत्र 57 से 110 तक गृहस्थान्तर्गत देहशुद्धि विषय का वर्णन है। यहां मंत्र 58 से 104 तक प्रक्षिप्त है पुन: 108 भी शैलीविरूद्ध होने से प्रक्षिप्त है।
मंत्र 111 से 146 तक द्रव्य शुद्धि विषय मंत्र 113 वा 125वाँ प्रक्षिप्त है, फिर 127 से 145 तक सभी प्रक्षिप्त है। मंत्र 147 से 166 तक गृहस्थान्तर्गत पत्नीधर्म विषय मंत्र 147-148 प्रक्षिप्त है, फिर मंत्र 153 से 162 तक सभी प्रक्षिप्त है, मंत्र 164, 166 वा 168वां फिर प्रक्षिप्त हैँ।
पञ्चम अध्याय की समीक्षा- मित्रो, आश्चर्य की बात तो यह है कि मांसभक्षण कि सिद्धि के लिए प्रक्षेप करने वालोँ व्यक्तियोँ ने ऐसी अन्धता से प्रक्षेप किये हैँ कि उन्हे अपने पूर्वापर मत्रोँ का भी ध्यान नही रहा है, जिसके मन मे जैसा श्लोक आया बनाकर डाल दिया। मांसभक्षण की सिद्धि के लिए परलोक, पुण्य, यज्ञ, वेद, प्राचीन ऋषि सबकी आड़ ली। और अपनी बातोँ की सिद्धि के लिए जो युक्तियाँ दी है वे अत्यन्त छिछली, हास्यास्पद और स्वार्थपूर्ण है, जैसे यज्ञ के लिए मांस खाने वाले देवता है और शरीर के लिए खाने वाले राक्षस है। क्या अन्तर किया देवता और राक्षस का?
और प्रक्षेपोँ मे बच्चो जैसी बातेँ है जैसे 5/14,15 मे मछली खाना पूर्णत: निषिद्ध है तो 16वेँ में निमन्त्रण मेँ मछली खा लेने का विधान है।
मनु हर प्रकार से हिँसा के विरूद्ध है और कहते है कि दैनिक जीवनयापन के लिये उन कार्यो का चयन करे जिनमे हिँसा न हो(4/2)
मनु कहते है कि पशुओँ को चाबुक भी इस प्रकार मारोँ कि वो सन्तप्त न हो(4/68)
भला क्या ऐसे धर्मात्मा मांसभक्षण की आज्ञा दे सकतेँ है??
मांसाहार पर मनुस्मृति का पक्ष
मनुस्मृति पञ्चम अध्याय के प्रथम चारो मंत्र प्रक्षिप्त है(1 से 4 तक)
1- इन चारो मत्रोँ मे ऋषि लोग भृगु से प्रश्न कर रहेँ है।
2- ये चारो मंत्र अध्याय के विषय तालमेल नही रखते है।
3- इन चारो श्लोको मे प्रदर्शित प्रश्न और उत्तर मे भी परस्पर कोई संगति नही है। जैसे द्वितीय मंत्र मे प्रश्न है कि "स्वधर्म यानी वेदशास्त्रो के वेत्ता देवताओँ को मुत्यु कैसे मारती है" उत्तर है- वेदोँ के अनाभ्यास से, आचार के त्याग से, आलस्य से, अब आप खुद देखे कि एक तरफ तो प्रश्न में वेदवेत्ता शब्द है फिर उत्तर मे अनाभ्यासी, भला ये दोनो एक साथ संभव है क्या?
मनुस्मृति पञ्चम अध्याय मे आगे मंत्र 6-7 प्रक्षिप्त है क्योँकि 7वेँ मंत्र मे मांसाहार का वर्णन है और 6वाँ उसी से सम्बद्ध है। मंत्र 11 से 23 तक सभी प्रक्षिप्त है-
1- सभी प्रकार का मांसभक्षण और यज्ञोँ मेँ मांस डालना मनु की मान्यता के विरूद्ध है जैसा ये श्लोक बखान कर रहेँ हैँ।
2- ये श्लोक पूर्वापर प्रसंगविरूद्ध हैँ और प्रंसग भंग कर रहे हैँ। 10वेँ मंत्र मे दही और दही से बने पदार्थो के खाने का विधान किया है और 24वेँ मे घृत और घृतनिर्मित पदार्थो के भक्षण का विधान है। बीच मे मांसभक्षण सम्बन्धी वर्णन ने उस प्रसंग को भंग कर दिया है। अब हम सबसे महत्वपूर्ण मत्रोँ की ओर आतेँ है क्योँकि इन मंत्रो लेकर कोई जाकिर नाईक आर्यधर्म पर मांसभक्षण का आरोप लगाता है।
मंत्र 26 से लेके 44 तक प्रक्षिप्त है---
1- सभी प्रकार के मांसभक्षण की मान्यता और पशुयज्ञ का विधान सर्वथा मनु की मान्यता के विरूद्ध है।
2- मंत्र 24-25 मे मांस आदि से रहित अनिन्दित भोजन करने का कथन है, तदनुसार 45,46 वा 51वेँ मंत्र मेँ मांस का भोजन निन्दित है और किस प्रकार निन्दित है यह वर्णित है बीच मे मांसाहार का वर्णन प्रसंग भंग करता है। अत: ये मंत्र प्रसंगविरूद्ध प्रक्षेप है।
50वां मंत्र पुन: प्रक्षिप्त है क्योकिँ ये विधिपर्वूक मांसभक्षण की बात करता जबकि 51वेँ मंत्र मे मांस भक्षण से जुड़े हर व्यक्ति को पापी कहते है।
मंत्र 52 से 56 तक सभी प्रक्षिप्त है क्योँकि 52वां मंत्र विधिपूर्वक मांसभक्षण का विधायक है तो 56 वां सर्व प्रकार के मांसभक्षण का, जबकि मनु(5/51) मे मांसाहारी तो क्या उसमें सहयोगी को भी दोषी बतातेँ हैँ।
अब आगे इस अध्याय मे मंत्र 57 से 110 तक गृहस्थान्तर्गत देहशुद्धि विषय का वर्णन है। यहां मंत्र 58 से 104 तक प्रक्षिप्त है पुन: 108 भी शैलीविरूद्ध होने से प्रक्षिप्त है।
मंत्र 111 से 146 तक द्रव्य शुद्धि विषय मंत्र 113 वा 125वाँ प्रक्षिप्त है, फिर 127 से 145 तक सभी प्रक्षिप्त है। मंत्र 147 से 166 तक गृहस्थान्तर्गत पत्नीधर्म विषय मंत्र 147-148 प्रक्षिप्त है, फिर मंत्र 153 से 162 तक सभी प्रक्षिप्त है, मंत्र 164, 166 वा 168वां फिर प्रक्षिप्त हैँ।
पञ्चम अध्याय की समीक्षा- मित्रो, आश्चर्य की बात तो यह है कि मांसभक्षण कि सिद्धि के लिए प्रक्षेप करने वालोँ व्यक्तियोँ ने ऐसी अन्धता से प्रक्षेप किये हैँ कि उन्हे अपने पूर्वापर मत्रोँ का भी ध्यान नही रहा है, जिसके मन मे जैसा श्लोक आया बनाकर डाल दिया। मांसभक्षण की सिद्धि के लिए परलोक, पुण्य, यज्ञ, वेद, प्राचीन ऋषि सबकी आड़ ली। और अपनी बातोँ की सिद्धि के लिए जो युक्तियाँ दी है वे अत्यन्त छिछली, हास्यास्पद और स्वार्थपूर्ण है, जैसे यज्ञ के लिए मांस खाने वाले देवता है और शरीर के लिए खाने वाले राक्षस है। क्या अन्तर किया देवता और राक्षस का?
और प्रक्षेपोँ मे बच्चो जैसी बातेँ है जैसे 5/14,15 मे मछली खाना पूर्णत: निषिद्ध है तो 16वेँ में निमन्त्रण मेँ मछली खा लेने का विधान है।
मनु हर प्रकार से हिँसा के विरूद्ध है और कहते है कि दैनिक जीवनयापन के लिये उन कार्यो का चयन करे जिनमे हिँसा न हो(4/2)
मनु कहते है कि पशुओँ को चाबुक भी इस प्रकार मारोँ कि वो सन्तप्त न हो(4/68)
भला क्या ऐसे धर्मात्मा मांसभक्षण की आज्ञा दे सकतेँ है??
अपने स्वार्थ के लिये लोग सब कुछ पृथक करने बैठे हैं।
जवाब देंहटाएंअपने हिसाब से व्याख्या कर दी स्वार्थी और कुटिल लोगों ने.
जवाब देंहटाएंThanks for the article.... kyaa in baaton par anya experts ki bhi sahmati hai?
जवाब देंहटाएंकोई धर्म और धर्मात्मा मांस भक्षण की आज्ञा नहीं देता
जवाब देंहटाएंक्या आपकी अंतरात्मा आप को इस बात की आज्ञा देती है ?
बडे भाई, इतना लिखे थे तो श्लोक भी लिख दिये होते, अब श्लोक के लिये कहाँ जाऊँ??
जवाब देंहटाएंबडे भाई, इतना लिखे थे तो श्लोक भी लिख दिये होते, अब श्लोक के लिये कहाँ जाऊँ??
जवाब देंहटाएंश्लोक लिखने से इस दृष्टांत की प्रासांगिकता बढ जाती ।
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