मंगलवार, 15 मार्च 2011

‘विचार-शून्य’ का निष्पक्ष निर्पेक्ष ‘विचार-मंथन’


(यह आलेख दीप पाण्डेय जी नें अपने ‘विचार-शून्य’ ब्लॉग पर प्रस्तुत किया था। नाम के अनुरूप विचार शून्य अर्थार्त पूर्वाग्रह रहित होकर शाकाहार-माँसाहार पर चिंतन-मनन किया है। आपकी शोध और निर्मल मन प्रस्तुति हमारे कईं तर्कों का समाधान बन सकती है, और निर्पेक्ष-मनन का मार्ग प्रसस्त करती है।)

मैं कुमाउनी ब्राह्मण हूँ. हम लोगों में मांसाहार एक सामान्य सी बात है अतः मैं  बचपन से मांस, मछली इत्यादि का सेवन करता रहा हूँ. मैदानी इलाकों में एक ब्राह्मण द्वारा मांस भक्षण सर्वथा वर्जित है।

इसलिए मेरा ऐसे मैदानी  मित्रों से सामना होता रहा  जो  ब्राह्मण होने के बावजूद मांसाहार करने की मेरी
आदत को लेकर मेरा मजाक उड़ाते या मुझे हेय दृष्टि से देखते.  शाकाहार को प्राकृतिक और मांसाहार को अप्राकृतिक ठहराया जाता. बताया जाता की मांसाहार करने से व्यक्ति में क्रूरता की भावना का विकास होता है. मांसाहारी लोग गुस्सैल होते हैं और आपराधिक प्रवृति के हो जाते हैं. अपने मित्रों के इस व्यवहार के पीछे मुझे शाकाहार को सही नहीं बल्कि श्रेष्ट सिद्ध करना और  मांसाहारियों को नीचा दिखाने का प्रयास ज्यादा महसूस होता था.

कोई हमारी आस्था, परंपरा रीती-रिवाज और विश्वास के विरुद्ध कुछ कहे तो हम स्वाभाविक रूप से तर्क या कुतर्क करके उसका विरोध करते हैं अब चाहे हम गलत हो या सही. शायद ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी होता था. जब मेरे कुछ शाकाहारी मित्र अपने शाकाहारी होने की बात को बड़े गर्व के साथ बताते और मांसाहार को अवगुण घोषित करते तो मेरी तार्किक बुद्धि हमेशा उन तर्कों की तलाश में रहती जिनसे मैं मांसाहार को उन लोगों के समक्ष सही ठहरा सकूँ.

मुझे शुरू से लगता था की मानव सर्वभक्षी हैं यानि कि वो शाकाहार और मांसाहार दोनों ही तरह के भोजन कर सकता है. मानव के जबड़े में केनाइन दांत के होने से मुझे लगता था की कहीं न कहीं मानव में मांसाहार की क्षमता है और चिम्पंजियों के द्वारा छोटे बंदरों को मार कर खाना भी इसी बात का साबुत देता था. अपनी दिल्ली में मैंने खुद रीसस बंदरों को कोए के खोंसले से अंडे चुराकर खाते देखा है. हालाँकि नेट पर दूसरी जगहों के भी ऐसे सबूत मौजूद  हैं. कभी पढ़ा था की मानव की छोटी आंत की लम्बाई न तो मांसाहारियों जैसी कम होती हैं और न ही शाकाहारियों की तरह बहुत ज्यादा.

इन सब बातों से मुझे अपने मांसाहार को सही ठहराने का हौसला मिलता रहा. इसके साथ ही अपने पारिवारिक और सामाजिक अनुभवों से मैंने पाया की जो लोग शुद्ध शाकाहारी थे वो ज्यादा गुस्सैल थे और उनकी अपेक्षा मांसाहार करने वाले ज्यादा शांत और मनमौजी थे.
मेरे पिता सारी उम्र सप्ताहांत मीट या मछली खाते रहे और मेरी माताजी पुर्णतः शुद्ध शाकाहारी महिला थी पर मैंने कभी अपने पिता को किसी पर नाराज होते नहीं देखा जबकि मेरी माताजी को बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता था. मैंने बहुत से शुद्ध शाकाहारी परिवारों को अपने पारिवारिक झगड़े सडकों पर मारपीट के साथ सुलझाते देखा. मेरे बहुत से जैनी भाई अपनी दुकानों में और अपने घरों में नौकरों के साथ अमानवीय क्रूर व्यवहार करते दिखे. प्याज और लहुसन से मुक्त शाकाहार मेरे वणिक वर्ग के  भाइयों को भ्रष्टाचार से मुक्त न कर पाया. ऐसे में मैं अपने सप्ताहांत मांसाहार के साथ सुखी था.

पर फिर आया अपने ब्लॉग जगत में एक  शाकाहारी तूफान जिसकी शुरुवात मेरे मित्र अमित ने अपनी एक पोस्ट से की और  जिसको वत्स जी, सुज्ञ जी, अनुराग शर्मा जी, प्रतुल जी और गौरव अग्रवाल जी  जैसे आदरणीय ब्लोगर्स के विचारों का सहारा मिला. यहाँ पर मैं मित्र गौरव अग्रवाल जी  की एक विचारणीय पोस्ट का उल्लेख करना चाहूँगा जिसने मुझे इस विषय पर पुनः विचार करने को बाध्य किया.
गौरव की पोस्ट में शाकाहार के समर्थन में कुछ लेखों के लिंक थे. इनके आलावा भी मैंने नेट खंगाला और पाया की मानव तकनीकी रूप से शाकाहारी प्राणियों की श्रेणी में आता है. पर मेरे मन के कुछ प्रश्नों का उत्तर मुझे नेट पर नहीं मिल पाया.

मुझे ये समझ नहीं आ रहा था की यदि मानव विशुद्ध रूप से शाकाहारी है तो फिर किसी किसी मानव के  मन में मांसभक्षण की इच्छा क्यों उत्पन्न होती है? बहुत से लोग बिना किसी प्रेरणा के मांस खाना पसंद करते हैं और बहुत से लोग तमाम प्रयासों के बाद भी मांस की और देखते तक पसंद नहीं करते. ऐसा क्योंयह बात मुझे समझ नहीं आ रही थी की क्यों प्राकृतिक रूप से पुर्णतः शाकाहारी बन्दर क्यों कभी कभार मांसाहार करने को उद्यत होते हैं?

मुझे लगता है की बन्दर  मांसाहार अपनी किसी विशेष शारीरिक  आवश्यकता जैसे प्रोटीन इत्यादि  की पूर्ति के लिए करते हैं  क्योंकि वो किसी दुसरे प्राकृतिक तरीके से अपनी इस जरुरत को पूरा नहीं कर पाते और ये कभी कभार होने वाली घटना ही होती है ना की नित्य  प्रति की  आदत. ठीक इसी प्रकार कुछ शुद्ध मांसाहारी भी कभी कभार  घास  खाते  हैं .  मैंने बिल्ली और कुत्ते को घास खाते देखा है. 

मानव जब तक जंगलों में स्वतः उत्पन्न होने वाले फल फुल खाकर ही  अपना पेट भरता था तब शायद वो भी कभी कभार मांसाहार कर प्रोटीन या शायद ऐसी ही किसी और जरुरत की पूर्ति करता हो पर जबसे  उसे खेती करने का तरीका समझ आया और वो अपनी जरुरत के हिसाब से अन्न उपजाने लगा तो उसे मांसाहार करने की जरुरत नहीं रही.  लेकिन फिर भी आज तक कुछ लोग  "बेसिक इंस्टिंक्ट" का अनुसरण करते हुए मांसाहार की और आकर्षित होते हैं. 

इस विषय में ब्लॉग मित्रों, नेट और दुसरे स्रोतों से प्राप्त ज्ञान और खुद के चिंतन मनन के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि मानव की शारीरिक संरचना तो शाकाहार के लिए ही बनी है पर प्रकृति ने उसकी कुछ विशेष जरूरतों को पूरा करने के लिए उसे कभी कभार मांसाहार करने की छुट प्रदान की है. मांसाहार मानव के लिए नित्य प्रति की जरुरत बिलकुल भी नहीं और आज जब मानव खेती कर अपनी आवश्यकता के अनुसार हर प्रकार का अन्न उगा सकता है तो उसे कभी कभार भी मांस खाने की आवश्यकता बिलकुल नहीं है.   

मैं कभी मांसाहार का समर्थन किया करता था पर अब मेरी सोच में परिवर्तन आया है. मांसाहार एक प्रकार की आहार वैश्यावृति है जो मानव समाज में अति प्राचीन काल से व्याप्त है. एक विशेष  नजरिये   से  इसे  सही ठहराया जा सकता है और बहुत सी जगहों पर इसे सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त है पर इसके प्रचार प्रसार के लिए इसका समर्थन करना किसी भी नजरिये से ठीक नहीं.

मेरी सोच में जो बदलाव आया है उसके लिए मैंश्रीमान गौरव अग्रवाल जी को मुख्यरूप से दोषी मानता हूँ जिनकी सार्थक ब्लॉग्गिंग ने मुझे इस विषय में गहराई से सोचने पर मजबूर किया और उनके इस कृत्य में सुज्ञ जी, प्रतुल जी, अनुराग शर्मा जी, और प्यारे अमित भाई भी सह अभियुक्त हैं. लोगों में शाकाहार के प्रति जागरूकता जगाने के इनके अभियान का मैं भी एक शिकार हूँ और पिछले तीन चार माह से अपने इलाके के सबसे बड़े मांस विक्रेता नज़ीर फूड्स की दुकान पर नहीं गया हूँ. हो सकता है कि कभी जीभ के लालच वश या किसी और कारण से मैं मांसाहार करूँ पर मैं अब जीवन में कभी भी मांसाहार का समर्थन नहीं कर पाउँगा.  

अंत में मैं शाकाहार के प्रति लोगों में जागरूकता लाने का प्रयास कर रहे सभी भाइयों से यह प्रार्थना करूँगा की वो मांसाहारियों को एक अपराधी की दृष्टि से ना देखें. अपने सभी प्रयास यह ध्यान में रख कर करे कि मांसाहार कभी  प्राकर्तिक रूप से मानव की बेशक मामूली ही सही पर जरुरत जरुर रही है.
                                       लेखक - दीप पाण्डेय (विचार शून्य)

21 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे प्रसन्नता है कि
    सभी साथियों का सम्मिलित वैचारिक प्रयास निष्फल नहीं हुआ.

    'ब्लॉग-लेखन से हृदय परिवर्तन की यह पहली घटना है.'

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  2. .

    एक व्यंग्य :
    सुज्ञ जी, आप मेरे उस मित्र के विचारों को बदलने के दोषी हैं जो पहले से ही विचार-शून्य थे.
    फिर इस शून्यावस्था में बदला क्या?

    .

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  3. शून्य में सृष्टि समाई थी।

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  4. @मांसाहारियों को एक अपराधी की दृष्टि से ना देखें. अपने सभी प्रयास यह ध्यान में रख कर करे कि मांसाहार कभी प्राकर्तिक रूप से मानव की बेशक मामूली ही सही पर जरुरत जरुर रही है.

    दीप पाण्डेय जी,

    माँसाहारियों (व्यक्तियों) को हेय या अपराधी की दृष्टि से नहीं देखा जाता। अब क्योंकि माँस हेय है इसलिये यह भ्रम होता है कि लोग माँसाहारियों से क्षोभ करते है। और माँस हेय इसलिये है कि वह किसी जीव की हत्या कर प्राप्त किया जाता है।उसके साथ हिंसा जुडी हुई है।

    आपके सामने मांसाहारी और शाकाहारी दोनो पदार्थ लाए जाय तो किस पदार्थ को देखकर आपको जगुप्सा उत्पन्न होगी? निसंदेह वे माँस के टुकडे होंगे। किसी प्राणी की काया और अंगो के टुकडे!! देखने में हुबहु हमारे शरीर के अंश समान!! (किसी शाकाहारी के मन में उत्पन्न जगुप्सा भाव)

    जैसे पहाड़ी परिवेश के कारण मांसाहार आपमें सामान्य सी बात है ठीक इसके उल्टे मैदानी परिवेश के ब्राह्मणो में माँसाहार अपवित्र कर्म। क्यों? क्योंकि शाकाहार उपलब्ध होते हुए वे हिंसक कार्य क्यों करे। अहिंसा को तो पवित्र कर्म कहना ही पडेगा। इसीलिये अहिंसा को समर्थित कार्य, शाकाहार को शुद्ध और पवित्र कहा जाता है। अतः यह एक बहूत बडी विचार-दूरी है पहाड़ी परिवेश और मैदानी परिवेश के बीच। यह दूरी ही हेय,पावक और शुद्ध,पावन की दूरी है। मानना ही पडेगा यह मान्यताओं की सहज अभिव्यक्ति है। अब मात्र समानता के लिये, अहिंसा पालन में समर्थ व्यक्ति हिंसा की तरफ क्यों बढेगा? इसलिये माँसाहार परिवेश वाले व्यक्ति को शाकाहार उपल्ब्ध होते ही अहिंसा की और गति करनी होगी। यही सभ्यता की मांग भी है।

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  5. मांसाहार से शाकाहार की ओर जाना क्या उन्नति है या अवनिती ?
    मन और मस्तिष्क के सूक्ष्म अवलोकन की अनुभव शक्ति से ही ज्यादा इस पर प्रकाश पड़ सकता है.क्रोध का कारण इच्छा में बाधा
    पड़ना ज्यादा होता है.खाने के कारण क्रोध की मात्रा प्रभावित हो सकती है.पवित्रता का अहसास किस खाने में अधिक होता है ?

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  6. सुज्ञ जी आपने मेरे विचारों को यहाँ प्रस्तुत इसके लिए धन्यवाद.

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  7. साइकोलोजी के एंगल से देखा जाये तो .....
    मुख्य दोषी अमित भाई जी माने जाने चाहिए माई लोर्ड :) इनके लेख को पढ़ कर मेरी साइंटिफिक भावनाएं भड़क गयी थी और मुझसे ये (लेख लिखने की) गलती हो गयी :))

    वैसे आप भी कम दोषी नहीं हैं पाण्डेय जी
    बताऊँ कैसे ??? :)

    देखिये ,
    ब्लॉग जगत में सबसे बड़ा अपराध है लेख को पढ़ना, समझना और उसके बाद कमेन्ट करना वो भी सच्चे दिल से .. इस अपराध के कारण अब तक मेरे (कईं ब्लॉग एडमिनिस्ट्रेटर द्वारा) हटा दिए कमेन्ट संख्या के मामले में अर्ध शतक मना चुके होंगे ....... सच्ची ....लेकिन फर्क किसे पड़ता है ?:))

    अब मुद्दे की बात .....

    आपका ये लेख सही मायनों शाकाहार(या कहें सत्य ) समर्थक मित्रों की , आपकी और मेरी सामूहिक उपलब्धि है और हम सबको इस पर गर्व है ..

    ये उपलब्धि भी सिर्फ इसलिए है क्योंकि हमारे पास पाण्डेय जी जैसे इमानदार, सच्चे मित्र हैं

    (व्यस्त होने की वजह से चर्चा में शामिल नहीं हो पा रहा हूँ .. क्षमा चाहता हूँ )

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  8. और हाँ .....

    @ सुज्ञ जी

    आपने ब्लॉग के टेम्पलेट में जो नए बदलाव किये हैं देख कर आनंद आ गया

    एक सुझाव और (इग्नोर किया जा सकता है )
    कभी कोई अंग्रेजी भाषा में सत्य / शाकाहार समर्थक लेख पढने को मिल जाये तो मजा जाये .....इससे उन पाठकों को भी सुविधा (पढने और इस ब्लॉग पर पहुँचने में ) होगी जो अभी तक भाषा की परेशानी से ना जुड़ पाए हों (हाँ सुझाव थोडा अटपटा लग सकता है पर मैं तो वही कहता हूँ जो दिल में आता है :)

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  9. आपके सामने मांसाहारी और शाकाहारी दोनो पदार्थ लाए जाय तो किस पदार्थ को देखकर आपको जगुप्सा उत्पन्न होगी? निसंदेह वे माँस के टुकडे होंगे। किसी प्राणी की काया और अंगो के टुकडे!! देखने में हुबहु हमारे शरीर के अंश समान!! (किसी शाकाहारी के मन में उत्पन्न जगुप्सा भाव)

    सत्य बात

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  10. गौरव जी,

    आपका सुझाव मननीय है। यदा कदा अच्छे प्रमाणिक वैज्ञानिक आलेख आंग्ल भाषा में भी दिए जा सकते है जो प्रभावक सिद्ध होंगे। यह गुरुत्तर भार आप वहन करें तो अतिव उत्तम होगा।

    हमारे अन्य विद्वान लेखक-बंधुओ से भी अनुरोध है, कभी कभी अंग्रेजी लेख भी लगाएं। ताकि ब्लॉग अधिक से अधिक पाठकों तक पहूंचे।

    सभी से अनुरोध है कृप्या सलाह दें कि किस प्रकार 'निरामिष' पर पाठकों की आमद बढाई जाय?

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  11. bhandhuwar. Ek jigyasha hai. Cow ya bhains ka milk nikalate waqt bechare bachhde par bahut zulm hota hai.Use uske haq se zabardasti vanchit kar diya jata hai.kya ise shakahari ki dayaluta kahenge?

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  12. achha sandesh aage tak ja raha hai.... blog ke sanchlak aur yogdankarta badhai ke patra hain....

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  13. सभी से अनुरोध है कृप्या सलाह दें कि किस प्रकार 'निरामिष' पर पाठकों की आमद बढाई जाय?
    ------------------------------
    मैं निरामिष का लिंक अपने ब्लॉग के साइड बार में लगा रहा हूँ..... :)

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  14. @milk nikalate waqt bechare bachhde par bahut zulm hota hai.Use uske haq se zabardasti vanchit kar diya jata hai.kya ise shakahari ki dayaluta kahenge?

    @मो. कमरूद्दीन शेख जी

    दूध इतना अधिक होता है कि उसे दुहा जाना जरूरी है। शोधकर्ता कहते हैं कि अगर दूध दुहा न जाए, तो स्तन ग्रंथियों पर बुरा असर पड़ता है। इससे स्तन कोशिकाएं मरने लगती हैं। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि बछड़े को पेट भर दूध मिले। इंजेक्शन का इस्तेमाल कभी नहीं करना चाहिए।

    मुझे नहीं लगता ये बात शाकाहारी या मांसाहारी से जुडी है ये तो नैतिकता/ मानवता वाली बात हुयी

    वैसे ये भी कहा जाता है
    सदियों से आजमाई हुई बात है कि जिन प्राणियों की मां नहीं होती या दूध नहीं दे पाती, गाय उनकी मां बन जाती है। गाय का दूध सभी प्राणियों के अनुकूल पड़ता है और पर्याप्त मात्रा में प्राप्त किया जा सकता है। इसके उलट अन्य प्राणियों का दूध प्रतिकूल और अपर्याप्त होने से सभी के काम नहीं आता। लेकिन याद रखें कि दूध मां का हो या गाय का, उसका सेवन करने की एक निश्चित मात्रा होती है। यदि उससे अधिक ग्रहण किया जाएगा, तो हानि पहुंचाएगा। इसलिए 'हितमित भुख' यानी थोड़ा और हितकारी भोजन करने को कहा गया है। अति तो हर चीज की बुरी होती है।

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  15. एक नजरिया देखिये ........................


    देशी गाय के सींग में नकारात्मक विचारों को सकारात्मक बनाने की क्षमता है इसीलिए जिस इलाके में गायें बहुलता से रहती हैं वहां अपेक्षाकृत लोग शांत स्वभाव के होते हैं।
    इसका प्रत्यक्ष उदाहरण पहाड़ों के गांवों में देखा जा सकता है। उत्तराखंड के कई एक ऐसे इलाके आज भी हैं जहां आजादी के बाद से अब तक एक भी हत्या की घटना नहीं हुई है।

    और ये भी ..........................


    अनुसंधान से प्रमाणित हुआ है कि पांच लीटर गोमूत्र में पांच किलोग्राम गोबर , एक किलोग्राम जड़ की मिट्टी , एक किलोगा्रम चने की खली मिलाकर उसे खेतों में छिडक दिया जाये तो फसल में किसी भी स्थिति में कीडे़ नहीं लगेंगे। इसे जैवीय कीटनाशक कहा जा सकता है जिसका बाद में किसी प्रकार का विपरीत असर भी नहीं पड़ता। आज भी पहाड़ों के खेतों में कीटों का प्रकोप कम देखा गया है और मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी बहुत ही अधिक होती है।

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  16. उपरोक्त दोनों कमेन्ट ..साभार
    http://navbharattimes.indiatimes.com

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  17. मो. कमरूद्दीन शेख जनाब,

    जिज्ञासा समाधान के लिये इसी ब्लॉग पर माननीय अनुराग शर्मा जी की यह पोस्ट आपको अवश्य पढनी चाहिए
    http://niraamish.blogspot.com/2011/01/blog-post_9098.html

    अधिकांश दूध बछडों की तृप्ति के बाद बचा अतिरिक्त निर्माण होता है। तथापि यदि कोई उनके मुख का निवाला छीनता है तो बेशक शाकाहारियों के हृदय में दुख पीडा और करूणा आती ही है। कोई क्रूर दुधवाला ऐसा दूध देकर चला जाय तो अजानते हुए इस कर्म के लिये शाकाहारी की दयालुता में बाधा नहीं आती।
    अब आपके प्रश्न का जो गर्भित इंगित है, उसका उत्तर दे दूँ।
    छोटी दयालूता यदि पूर्णरूपेण निभ न पाये तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उसे क्रूर नृशंस ही बन जाना चाहिए।

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  18. इस तथ्य पर भी गौर करें

    भारतीय नस्ल की गायें सर्वाधिक दूध देती थीं और आज भी देती हैं। ब्राजील में भारतीय गोवंश की नस्लें सर्वाधिक दूध दे रही हैं। अंग्रेजों ने भारतीयों की आर्थिक समृद्धि को कमजोर करने के लिए षडयंत्र रचा था। कामनवेल्थ लाइब्रेरी में ऐसे दस्तावेज आज भी रखे हैं। आजादी बचाओ आंदोलन के प्रणेता प्रो. धर्मपाल ने इन दस्तावेजों का अध्ययन कर सच्चाई सामने रखी है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की रिपोर्ट में कहा गया है-‘ब्राजील भारतीय नस्ल की गायों का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है। वहां भारतीय नस्ल की गायें होलस्टीन, फ्रिजीयन (एचएफ) और जर्सी गाय के बराबर दूध देती हैं।

    http://www.hindi.indiawaterportal.org/node/26902

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  19. @मित्रों

    अगर हम सभी मिल कर एक दिशा में सोचें तो देश आज अभी इसी वक्त बदल सकता है और अगर ना सोचा तो हमारे देश के साथ हमेशा से अन्याय होता रहा है होता रहेगा और "मेंटल कंडिशनिंग" ऐसी की जाती है की इस देश के युवा हर स्तर पर पिछड़ते जा रहे हैं फिर भी अपने आप को प्रगतिशील मानते हैं , पता नहीं कब तक ये भ्रम टूटेगा कहीं देर ना हो जाये :(

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  20. मो. कमरूद्दीन शेख जनाब,

    कभी आपकी तरह के ही तर्क पर, शाकाहारियों को सुक्ष्म दयालुता का पाठ पढानें पर यह कविता रची थी। आप तो शिक्षक होने के साथ साथ कवि भी है, बेहतर अनुशीलन कर सकते है।

    http://shrut-sugya.blogspot.com/2010/08/blog-post_26.html
    क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है।

    सौ सौ चुहे खा के बिल्ली, हज़ को जा रही है।
    क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है।

    गुड की ढेली पाकर चुहा, बन बैठा पंसारी।
    पंसारिन नमक पे गुड का, पानी चढा रही है।

    कपि के हाथ लगा है अबतो, शांत पडा वो पत्थर।
    शांति भी विचलित अपना, कोप बढा रही है।

    हिंसा ने ओढा है जब से, शांति का चोला।
    अहिंसा मन ही मन अबतो, बडबडा रही है।

    सियारिन जान गई जब करूणा की कीमत।
    मासूम हिरनी पर हिंसक आरोप चढा रही है।

    सौ सौ चुहे खा के बिल्ली, हज़ को जा रही है।
    क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है।

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