शाकाहार विरोधी अक्सर यह वितंडा खड़ी करते है कि पशुओं के प्रति अहिंसा से पहले मानव के प्रति होने वाली हिंसा को रोको। जानवरों की बात तो बाद में कर लेना। लेकिन क्या यह कभी सम्भव है कि मानवता के प्रति पूर्ण अहिंसा और शान्ति स्थापित हो ही जाय? और तब तक हम क्रूर बन जीवहिंसा करते ही रहें? वस्तुतः मानवों के प्रति भी अहिंसा में बाधक तो स्वयं मानव ही है। उसमें वे सभी दुर्गुण है- क्रोध, द्वेष, गंदी प्रतिस्पृधा और प्रतिशोध की क्रूरतम भावना, जो उसके हिंसक भावों को खाद देते है। जब तक वे दुर्भावनाएँ दूर नहीं होती, शान्ति सम्भव ही नहीं। उन्ही दुर्भावों को पनपने से रोकने के लिये ही मानव मन में सम्वेदनाएँ और करूणा जगना जरूरी है। जीव-जानवर मात्र के प्रति दया भाव होगा तभी हमारे हृदय में कोमल-करूण भाव जगह बना पाएंगे। छोटे से छोटे जीवन के प्रति सम्वेदना होगी तभी शुभ भावो को हृदय में संरक्षण प्राप्त होगा। ऐसे शुभ भाव, अहिंसा को सुक्ष्म चरम तक ले जाने पर ही मनोवृति में स्थायित्व पा सकेंगे।
मानव के साथ तो होने वाली हिंसाएं, उसके ही आपसी द्वेष, क्रोध और मोह का परिणाम होती है। किन्तु निरिह निर्दोष जीव के साथ हमारे आपसी प्रतिस्पृधात्मक रिश्ते नहीं होते। और न ही उसके साथ हमारे सम्बंध उस तरह बिगडते है। फिर इन निरपराधी प्राणियों के साथ हिंसक व्यवहार क्यों किया जाय। भोजन और पोषण तो हम शाकाहार से भी पूर्णरूपेण प्राप्त कर सकते है, फ़िर मात्र स्वाद-लोलूपता के लिये, निर्दोष प्राणियों को प्राणदंड क्यों दिया जाय?
मै तो समझता हूँ मानव को अपने कोमल-करूण भावों में अभिवृद्धि के लिये और मनोवृति को शान्त सात्विक बनाने के लिये, अहिंसा को निश्चित ही ‘जीवदया’ से प्रारंभ करना होगा। निष्ठुरता के चलते दया प्रगाढ़ नहीं बन सकती। इतने निर्मल कोमल शुभभाव कि अहिंसा अपने चरम पर पहूँच जाय। तभी मानव जीवन में शान्ति प्रवेश सम्भव है। जो अन्ततः परस्पर मानव सम्बंधो से भी क्रूरता व आतंक दूर करने का आधार बन सकते है।
मानव के साथ तो होने वाली हिंसाएं, उसके ही आपसी द्वेष, क्रोध और मोह का परिणाम होती है। किन्तु निरिह निर्दोष जीव के साथ हमारे आपसी प्रतिस्पृधात्मक रिश्ते नहीं होते। और न ही उसके साथ हमारे सम्बंध उस तरह बिगडते है। फिर इन निरपराधी प्राणियों के साथ हिंसक व्यवहार क्यों किया जाय। भोजन और पोषण तो हम शाकाहार से भी पूर्णरूपेण प्राप्त कर सकते है, फ़िर मात्र स्वाद-लोलूपता के लिये, निर्दोष प्राणियों को प्राणदंड क्यों दिया जाय?
मै तो समझता हूँ मानव को अपने कोमल-करूण भावों में अभिवृद्धि के लिये और मनोवृति को शान्त सात्विक बनाने के लिये, अहिंसा को निश्चित ही ‘जीवदया’ से प्रारंभ करना होगा। निष्ठुरता के चलते दया प्रगाढ़ नहीं बन सकती। इतने निर्मल कोमल शुभभाव कि अहिंसा अपने चरम पर पहूँच जाय। तभी मानव जीवन में शान्ति प्रवेश सम्भव है। जो अन्ततः परस्पर मानव सम्बंधो से भी क्रूरता व आतंक दूर करने का आधार बन सकते है।