पशु हिंसा और वनस्पति हिंसा को क्रूरता का एक ही आयाम नहीं दिया जा सकता।
अधिकतर शाकाहारी पदार्थ, पेड पौधो को सम्पूर्ण खत्म किए बिना ही प्राप्त किए जाते है, जैसे फ़ल,तरकारी आदि वह भी पककर पेड पौधों से अलग हो जाय तो एक पेड की पूर्ण हिंसा नहीं होती। या कुदरती अलग होने के पूर्व काट कर अलग किया जाय तब भी पुरे पेड का नाश नहीं होता। और जब पौधे कुदरती निर्जीव हो जाते है तब अनाज दालें आदि प्राप्त होती है। जबकि मांस जीव को जीवन रहित करके ही प्राप्त किया जा सकता है।
आप गाय, भैंस, बकरी का दूध दुहते हैं तो ये पशु न तो मर जाते हैं और न ही दूध दुहने से बीमार हो जाते हैं। दूध को तो प्रकृति ने बनाया ही भोजन के रूप में है। और वह बछडे के आहार से अतिरिक्त ही होता है।पर किसी भी पशु के जीवन का अन्त कर देना तो अनेकों धर्मों में इसको बुरा ही माना गया है।
साधारण सी हिंसा तो वनस्पतिजन्य आहार में भी सम्भव है, लेकिन इसका यह तात्पर्य नहीं कि जब सभी तरह के आहार में हिंसा है, तो जानबुझ कर आहार के लिए सबसे क्रूरत्तम हिंसा का तरीका अपना लिया जाय। यहाँ हमारा विवेक कहता है, जितना हिंसा से बचा जा सके, बचना चाहिये।
जो कोई भी यह कुतर्क देते है वे तो चराचर पशुओं तक में रुह या जीव ही नहीं मानते, और उनकी जीव-हिंसा को हिंसा ही नहीं मानते तो शाकाहार में ‘सुक्ष्म व स्थूल जीवो की हिंसा क्यों करते हो’ यह कुतर्क दुर्भावनापूर्ण है। और यदि सभी तरह के आहार में जीव हिंसा स्वीकार करने के बाद दुष्टता पूर्वक बडे जीव की हिंसा करना तो क्रूरता की इन्तेहा ही कहलाएगा। और जानकर भी सुक्ष्म जीव-हिंसा में सावधानी न बरतना, मूढता की अति है।
हमें यह न भुलना चाहिए, कि एक समान दिखने वाले कांच और हीरे के मूल्य में अंतर होता है। और वह अंतर उनकी गुणवत्ता के आधार पर होता है। उसी प्रकार एक बकरे के जीव और एक केले के जीव के जीवन-मूल्य में भी अंतर है। पशुपक्षी में चेतना जागृत होती है उन्हें मरने से भय भी लगता है। उनमें पाँच इन्द्रिय होती है जीव पाँचो इन्द्रिय से सुख अथवा दुख भोगता है,महसुस करता है। इन्द्रिय अव्यवों के त्रृटिपूर्ण होने पर भी पांच इन्द्रिय जीव मृत्युवेदना सभी इन्द्रिय सम्वेदको से महसुस करता है। इसीलिए जितनी ज्यादा इन्द्रिय समर्थ जीव उतनी ही ज्यादा वेदना-पीडा उसे पहुँचती है।
प्राण बचाने को संघर्षरत पशुओं को मात्र स्वाद उद्देश्य से मार खाना क्रूरता का अतिरेक है। मानवीय बे-रहमी की पराकाष्ठा है।
सुन्दर आलेख!
जवाब देंहटाएंयथासम्भव अहिंसक भोजन केवल शाकाहार से ही सम्भव है जबकि हिंसा के बिना मांसाहार की कल्पना ही मूर्खता है।
बहुत अच्छा आलेख...... शाकाहार से बेहतर कुछ नहीं......
जवाब देंहटाएंमनुष्य की मूक जानवरों के प्रति बर्बरता बेहद निंदनीय है !
जवाब देंहटाएंआपका लेख विचारों को उद्वेलित करता है !
शाकाहारी जीवन अति उत्तम है !
आपने समय-समय पर शाकाहार विषयक लेख लिखें हैं... और हर बार आप अपने विचारों को सरल से सरलतर भाषा में कहते आयें हैं. और इस बार तो अपनी बात को आपने बहुत ही सुन्दर तरीके से सरलतम शब्दावली में कहा है... साधुवाद.
जवाब देंहटाएंहिंसा के बिना मांसाहार की कल्पना ही मूर्खता है।
जवाब देंहटाएंआप जन जागरण का बहुत ही अच्छा काम कर रहें हैं ...मैं आपके साथ हूँ
जवाब देंहटाएंजो शाकाहार और अहिंसा के विषय पर शाकाहार का सदा विरोध करते थे। वे ही इन दिनों भ्रष्टाचार और कालेधन के मुद्दे पर हुई दमन की घटना में सम्वेदनाहीन दृष्टिगोचर हो रहे है। विचारधारा मानसिकता को प्रभावित करती है यह प्रत्यक्ष है।
जवाब देंहटाएंदरअसल मांसाहार प्रेमी केवल इस प्रकार के कुतर्कों द्वारा अपनी बात को सही साबित करना चाहते हैं...
जवाब देंहटाएंइस विषय पर डॉ जाकिर अली का एक वीडियो देखा था, जिसमे कुतर्कों का भरपूर उपयोग किया गया था| अभी लिंक नहीं मिल रहा, लिंक मिलते ही उपलब्ध करवाऊंगा...
@जाकिर अली का एक वीडियो
जवाब देंहटाएंआईये सुनते हैं शिरिमान डॉक्टर नायक जी की बहस को - अरे भैया, अगर दिमाग की भैंस को थोडा ढील देंगे तो थोड़ा आगे जाने पर जान पायेंगे कि अगर प्रभु ने अन्टार्कटिका में घास पैदा नहीं की तो वहाँ इंसान भी पैदा नहीं किया था। आपके ख़ुद के तर्क से ही पता लग जाता है कि प्रभु की मंशा क्या थी। फ़िर भी अगर आपको जुबां का चटखारा किसी की जान से ज़्यादा प्यारा है तो कम से कम उसे धर्म का बहाना तो न दें।
बहुत उपयोगी आलेख!
जवाब देंहटाएंNice read !!
जवाब देंहटाएंWell written.
अनुराग जी,
जवाब देंहटाएंआपका वह आलेख जाक़िर नाईक जैसे मांसाहार लुब्धों के कुतर्कों का सटीक और तार्किक जवाब है। इस लेख को तीन वर्ष हो गये। और इसे यहां वहां सन्दर्भ के लिये भी उपयोग किया गया है। इतना सम्पूर्ण निर्णायक कि उसके बाद उन्हें नये कुतर्क गढने का साहस ही नहीं हुआ। और बार बार वही कुतर्क रखकर ढींढता अपनाते है।
आपके लेख के समय कहा गया था कि आप तर्क देंगे फिर वे तर्क देंगे,यह तर्कों का सिलसिला चलता रहेगा। किन्तु उन वस्तुपरक तर्को का वास्तव में तो कोई जबाब ही नहीं इन मांसभक्षी कुरितिबाज़ों के पास।
आप उस लेख को वर्तमान संदर्भ से परिष्कृत कर यहां निरामिष पर अवश्य प्रस्तुत करें।
जबरदस्त , तार्किक लेख ||
जवाब देंहटाएंप्राण बचाने को संघर्षरत पशुओं को मात्र स्वाद उद्देश्य से मार खाना क्रूरता का अतिरेक है। मानवीय बे-रहमी की पराकाष्ठा है।
आपके विचार अति उत्तम हैं . भगवान् सबको सद्बुद्धि दे!
जवाब देंहटाएंसत्य विचार लिखा है आपने ! धन्यवाद
जवाब देंहटाएंशाकाहार और मांसाहार की हिंसा के परिपेक्ष्य में तुलना, असंतुलित है।हमें यह न भुलना चाहिए, कि एक समान दिखने वाले कांच और हीरे के मूल्य में अंतर होता है। और वह अंतर उनकी गुणवत्ता के आधार पर होता है। उसी प्रकार एक बकरे के जीव और एक केले के जीव के जीवन-मूल्य में भी अंतर है। पशुपक्षी में चेतना जागृत होती है उन्हें मरने से भय भी लगता है। उनमें पाँच इन्द्रिय होती है जीव पाँचो इन्द्रिय से सुख अथवा दुख भोगता है,सहता है, महसुस करता है। इन्द्रिय अव्यवों के त्रृटिपूर्ण होने पर भी वह पांच इन्द्रिय जीव घात और मृत्युवेदना सभी पांचो इन्द्रिय सम्वेदको से वेदना महसुस करता है। निश्चित ही जितनी ज्यादा इन्द्रियसमर्थ जीव, उतनी ही ज्यादा वेदना और पीडा वह जीव भोगता है। करूणा यहां प्रासंगिक हो उठती है।
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