अक्सर लोगों द्वारा दुर्भावनाओं के वशीभूत, हिन्दुत्व पर हिंसक और माँसाहारी होने के आरोपण किए जाते है। किन्तु हिन्दुत्व अपने आदि-काल से ही अहिंसा प्रधान धर्म रहा है।अहिंसा परमो धर्मः ही इसका आदि-अनादि परम् उपदेश उपदेश रहा है। उतरोत्तर निम्न काल प्रभाव से कुछ विकृतियों का पनपना सामान्य है पर इस दर्शन की यह विशेषता है कि सिद्धांतो को प्रमुखता देकर यह स्व-सुधार में सक्षम है। जैसे गंगा अपने उद्भव पर परम शुद्ध रहते हुए अपने परिचालन मार्ग में अस्वच्छ हो जाती है। किन्तु इसका जल अपनी पावनता सुरक्षित रखता है। उसी तरह वैदिक धर्म के मूल सिद्धान्त पावन और प्रवर्तमान रहते है। यही अहिंसा का मूल सिद्धांत वेद-उपदेशों में ग्रंथित है। अर्थात अहिंसा गुण ही वेदों की गंगोत्री है। देखें परम् पवित्र वेदों से प्रवाहित अहिंसा की गंगोत्री……
अहिंसा को पुष्ठ करते वेदमंत्र और शास्त्र श्रलोक :-----
ऋग्वेद-
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परि भूरसि स इद देवेषु गच्छति (ऋग्वेद- 1:1:4)
-हे दैदीप्यमान प्रभु ! आप के द्वारा व्याप्त ‘हिंसा रहित’ यज्ञ सभी के लिए लाभप्रद दिव्य गुणों से युक्त है तथा विद्वान मनुष्यों द्वारा स्वीकार किया गया है |
ऋग्वेद संहिता के पहले ही मण्डल के प्रथम सुक्त के चौथे ही मंत्र में यह साफ साफ कह दिया गया है कि यज्ञ हिंसा रहित ही हों। ऋग्वेद में सर्वत्र यज्ञ को हिंसा रहित कहा गया है इसी तरह अन्य तीनों वेदों में भी अहिंसा वर्णित हैं | फिर यह कैसे माना जा सकता है कि वेदों में हिंसा या पशु वध की आज्ञा है ?
अघ्न्येयं सा वर्द्धतां महते सौभगाय (ऋग्वेद- 1:164:26)
-अघ्न्या गौ- हमारे लिये आरोग्य एवं सौभाग्य लाती हैं |
सूयवसाद भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्तः स्याम
अद्धि तर्णमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती (ऋग्वेद 1:164:40)
-अघ्न्या गौ- जो किसी भी अवस्था में नहीं मारने योग्य हैं, हरी घास और शुद्ध जल के सेवन से स्वस्थ रहें जिससे कि हम उत्तम सद् गुण,ज्ञान और ऐश्वर्य से युक्त हों।
सुप्रपाणं भवत्वघ्न्याभ्य: (ऋग्वेद- 5:83:8)
-अघ्न्या गौ के लिए शुद्ध जल अति उत्तमता से उपलब्ध हो |
क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः ।
एहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन ।। (ऋग्वेद- 7:6:21:9)
-"मैं मांस भक्षी या जलाने वाली अग्नि को दूर हटाता हूँ, यह पाप का भार ढोने वाली है ; अतः यमराज के घर में जाए. इससे भिन्न जो यह दूसरे पवित्र और सर्वज्ञ अग्निदेव है, इनको ही यहाँ स्थापित करता हूँ. ये इस शक्तिशाली हविष्य को देवताओं के समीप पहुँचायें ; क्योंकि ये सब देवताओं को जानने वाले है."
आरे गोहा नृहा वधो वो अस्तु (ऋग्वेद 7:56:17)
-ऋग्वेद गौ- हत्या को जघन्य अपराध घोषित करते हुए मनुष्य हत्या के तुल्य मानता है और ऐसा महापाप करने वाले के लिये दण्ड का विधान करता है |
वैदिक कोष निघण्टु में गौ या गाय के पर्यायवाची शब्दों में अघ्न्या, अहि- और अदिति का भी समावेश है। निघण्टु के भाष्यकार यास्क इनकी व्याख्या में कहते हैं -अघ्न्या – जिसे कभी न मारना चाहिए। अहि – जिसका कदापि वध नहीं होना चाहिए | अदिति – जिसके खंड नहीं करने चाहिए। इन तीन शब्दों से यह भलीभांति विदित होता है कि गाय को किसी भी प्रकार से पीड़ित नहीं करना चाहिए । प्राय: वेदों में गाय इन्हीं नामों से पुकारी गई है।
घृतं वा यदि वा तैलं, विप्रोनाद्यान्नखस्थितम !
यमस्तदशुचि प्राह, तुल्यं गोमासभक्षण: !!
माता रूद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभि: !
प्र नु वोचं चिकितुपे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट !! (ऋग्वेद- 8:101:15)
अर्थात- रूद्र ब्रह्मचारियों की माता, वसु ब्रह्मचारियों के लिए दुहिता के समान प्रिय, आदित्य ब्रह्मचारियों के लिए बहिन के समान स्नेहशील, दुग्धरूप अमृत के केन्द्र इस (अनागम) निर्दोष (अदितिम) अखंडनीया (गाम) गौ को (मा वधिष्ट) कभी मत मार. ऎसा मैं (चिकितेषु जनाय) प्रत्येक विचारशील मनुष्य के लिए (प्रनुवोचम) उपदेश करता हूँ.
यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः
यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च (ऋग्वेद-10:87:16)
-मनुष्य, अश्व या अन्य पशुओं के मांस से पेट भरने वाले तथा दूध देने वाली अघ्न्या गायों का विनाश करने वालों को कठोरतम दण्ड देना चाहिए |
ऋग्वेद के ६ वें मंडल का सम्पूर्ण २८ वां सूक्त गाय की महिमा बखान रहा है –
१.आ गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन्त्सीदन्तु
-प्रत्येक जन यह सुनिश्चित करें कि गौएँ यातनाओं से दूर तथा स्वस्थ रहें |
२.भूयोभूयो रयिमिदस्य वर्धयन्नभिन्ने
-गाय की देख-भाल करने वाले को ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त होता है |
३.न ता नशन्ति न दभाति तस्करो नासामामित्रो व्यथिरा दधर्षति
-गाय पर शत्रु भी शस्त्र का प्रयोग न करें |
४. न ता अर्वा रेनुककाटो अश्नुते न संस्कृत्रमुप यन्ति ता अभि
-कोइ भी गाय का वध न करे |
५.गावो भगो गाव इन्द्रो मे अच्छन्
-गाय बल और समृद्धि लातीं हैं |
६. यूयं गावो मेदयथा
-गाय यदि स्वस्थ और प्रसन्न रहेंगी तो पुरुष और स्त्रियाँ भी निरोग और समृद्ध होंगे |
७. मा वः स्तेन ईशत माघशंस:
-गाय हरी घास और शुद्ध जल क सेवन करें | वे मारी न जाएं और हमारे लिए समृद्धि लायें |
अथर्ववेद-
वत्सं जातमिवाघ्न्या (अथर्ववेद- 3:30:1)
-आपस में उसी प्रकार प्रेम करो, जैसे अघ्न्या – कभी न मारने योग्य गाय – अपने बछड़े से करती है |
ब्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम् एष वां भागो निहितो
रत्नधेयाय दान्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च (अथर्ववेद- 6:140:2)
-हे दंतपंक्तियों! चावल, जौ, उड़द और तिल खाओ। यह अनाज तुम्हारे लिए ही बनाये गए हैं| उन्हें मत मारो जो माता–पिता बनने की योग्यता रखते हैं|
शिवौ ते स्तां ब्रीहीयवावबलासावदोमधौ !
एतौ यक्ष्मं विबाधेते एतौ मुण्चतौ अंहस: !! (अथर्ववेद- 8:2:18)
-हे मनुष्य ! तेरे लिए चावल, जौं आदि धान्य कल्याणकारी हैं. ये रोगों को दूर करते हैं और सात्विक होने के कारण पाप वासना से दूर रखते हैं.
य आमं मांसमदन्ति पौरूषेयं च ये क्रवि: !
गर्भान खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि !! (अथर्ववेद- 8:6:23)
-जो कच्चा माँस खाते हैं, जो मनुष्यों द्वारा पकाया हुआ माँस खाते हैं, जो गर्भ रूप अंडों का सेवन करते हैं, उन के इस दुष्ट व्यसन का नाश करो !
अनागोहत्या वै भीमा कृत्ये मा नो गामश्वं पुरुषं वधीः (अथर्ववेद-10:1:29)
-निर्दोषों को मारना निश्चित ही महापाप है | हमारे गाय, घोड़े और पुरुषों को मत मार |
धेनुं सदनं रयीणाम् (अथर्ववेद- 11:1:4)
-गाय सभी ऐश्वर्यों का उद्गम है |
"मा हिंस्यात सर्व भूतानि "
-किसी भी प्राणी की हिंसा ना करे.
पुष्टिं पशुनां परिजग्रभाहं चतुष्पदां द्विपदां यच्च धान्यम !
पय: पशुनां रसमोषधीनां बृहस्पति: सविता मे नियच्छात !! (अथर्ववेद- 19:31:5)
इस मन्त्र में भी यही कहा है कि- मैं पशुओं की पुष्टि वा शक्ति को अपने अन्दर ग्रहण करता हूं और धान्य का सेवन करता हूँ. सर्वोत्पादक ज्ञानदायक परमेश्वर नें मेरे लिए यह नियम बनाया है कि (पशुनां पय:) गौ, बकरी आदि पशुओं का दुग्ध ही ग्रहण किया जाये न कि मांस तथा औषधियों के रस का आरोग्य के लिए सेवन किया जाए. यहां भी "पशुनां पयइति बृहस्पति: मे नियच्छात:" अर्थात- ज्ञानप्रद परमेश्वर नें मेरे लिए यह नियम बना दिया है कि मैं गवादि पशुओं का दुग्ध ही ग्रहण करूँ, स्पष्टतया मांसनिषेधक है !
यजुर्वेद-
अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि (यजुर्वेद-1:1)
-हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो |
पशूंस्त्रायेथां (यजुर्वेद- 6:11)
-पशुओं का पालन करो |
ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे (यजुर्वेद-11:83)
-सभी दो पाए और चौपाए प्राणियों को बल और पोषण प्राप्त हो |
विमुच्यध्वमघ्न्या देवयाना अगन्म (यजुर्वेद-12:73)
-अघ्न्या गाय और बैल तुम्हें समृद्धि प्रदान करते हैं |
घृतं दुहानामदितिं जनायाग्ने मा हिंसी: (यजुर्वेद-13:49)
-सदा ही रक्षा के पात्र गाय और बैल को मत मार |
द्विपादव चतुष्पात् पाहि (यजुर्वेद-14:8)
-हे मनुष्य ! दो पैर वाले की रक्षा कर और चार पैर वाले की भी रक्षा कर |
अन्तकाय गोघातं (यजुर्वेद-30:18)
-गौ हत्यारों का अंत हो |
यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत: (यजुर्वेद- 40:7)
-जो सभी भूतों में अपनी ही आत्मा को देखते हैं, उन्हें कहीं पर भी शोक या मोह नहीं रह जाता क्योंकि वे उनके साथ अपनेपन की अनुभूति करते हैं | जो आत्मा के नष्ट न होने में और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हों, वे कैसे यज्ञों में पशुओं का वध करने की सोच भी सकते हैं ? वे तो अपने पिछले दिनों के प्रिय और निकटस्थ लोगों को उन जिन्दा प्राणियों में देखते हैं |
वेदों में पशुओं की हत्या का विरोध तो है ही बल्कि गौ- हत्या पर तो तीव्र आपत्ति करते हुए उसे निषिद्ध माना गया है | यजुर्वेद में गाय को जीवनदायी पोषण दाता मानते हुए गौ हत्या को वर्जित किया गया है |
महाभारत ---
अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा परमो तपः।
अहिंसा परमो सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते॥
अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा परमो दमः।
अहिंसा परम दानं, अहिंसा परम तपः॥
अहिंसा परम यज्ञः अहिंसा परमो फलम्।
अहिंसा परमं मित्रः अहिंसा परमं सुखम्॥ (महाभारत/अनुशासन पर्व-115:23/116:28,29)
"अहिंसा सकलो धर्मः।" (अनुशासन पर्व- महाभारत)
भावार्थ:- सभी प्रकार की धार्मिक और सात्विक प्रवृत्तियों का समावेश केवल अहिंसा में हो जाता है।
अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः। (आदिपर्व- 11:13)
-किसी भी प्राणी को न मारना ही परमधर्म है ।
प्राणिनामवधस्तात सर्वज्यायान्मतो मम ।
अनृतं वा वदेद्वाचं न हिंस्यात्कथं च न ॥ (कर्णपर्व-69:23)
-मैं प्राणियों को न मारना ही सबसे उत्तम मानता हूँ । झूठ चाहे बोल दे, पर किसी की हिंसा न करे ।
सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥ (शान्तिपर्व- 265:9)
-सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि भोजन, धूर्त प्रवर्तित है जिन्होनें ऐसे अखाद्य को वेदों में कल्पित कर दिया है।
मनुस्मृति में माँसाहार निषेध-
यद्ध्यायति यतकुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च ।
तद्वाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किञ्चन ॥ (मनुस्मृति- 5:47)
-ऐसा व्यक्ति जो किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करता तो उसमें इतनी शक्ति आ जाती है कि वह जो चिंतन या कर्म करता है तथा जिसमें एकाग्र होकर ध्यान करता है वह उसको बिना किसी प्रयत्न के प्राप्त हो जाता है
नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित ।
न च प्राणिवशः स्वर्ग् यस्तस्मान्मांसं क्विर्जयेत् ॥ (मनुस्मृति- 5:48)
-किसी दूसरे जीव का वध किया जाये तभी मांस की प्राप्ति होती है इसलिए यह निश्चित है कि जीव हिंसा से कभी स्वर्ग नही मिलता, इसलिए सुख तथा स्वर्ग को पाने की कामना रखने वाले लोगों को मांस भक्षण वर्जित करना चाहिए।
अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥ (मनुस्मृति- 5:51)
अर्थ - अनुमति = मारने की आज्ञा देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले - ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं ।
मां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाद् म्यहम्।
एतत्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः॥ (मनुस्मृति- 5:55)
अर्थ – जिस प्राणी को हे मनुष्य तूं इस जीवन में खायेगा, अगामी जीवन मे वह प्राणी तुझे खायेगा।
"अहिंसया च भूतानानमृतत्वाय कल्पते।" (मनु-स्मृति)
भावार्थ:- अहिंसा के फल स्वरूप, प्राणियों को अमरत्व पद की प्राप्ति होती है।
अन्य ग्रंथ-
"अहिंसा परमं दानम्।" (पद्म-पुराण)
भावार्थ:- अहिंसा स्वरूप अभयदान ही परम दान है।
"अहिंसा परमं तपः।" (योग-वशिष्ट)
भावार्थ:- अहिंसा ही सबसे बड़ी तपस्या है।
"अहिंसा परमं ज्ञानम्।" (भागवत-स्कंध)
भावार्थ:- अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है।
"अहिंसा परमं पदम्।" (भागवत-स्कंध)
भावार्थ:- अहिंसा ही सर्वोत्तम आत्मविकास अवस्था है।
"अहिंसा परमं ध्यानम्।" (योग-वशिष्ट)
भावार्थ:- अहिंसा की परिपालना ही उत्कृष्ट ध्यान है।
"अहिंसैव हि संसारमरावमृतसारणिः।" (योग-शास्त्र)
भावार्थ:- अहिंसा ही संसार रूप मरूस्थल में अमृत का मधुर झरना है।
"रूपमारोग्यमैश्वर्यमहिंसाफलमश्नुते।" (बृहस्पति स्मृति)
भावार्थ:- सौन्दर्य, नीरोगता एवं ऐश्वर्य सभी अहिंसा के फल है।
"ये न हिंसन्ति भूतानि शुद्धात्मानो दयापराः।" (वराह-पुराण)
भावार्थ:- जो प्राण-भूत जीवों की हिंसा नहीं करते, वे ही आत्माएं पवित्र और दयावान है।
-ऐसा व्यक्ति जो किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करता तो उसमें इतनी शक्ति आ जाती है कि वह जो चिंतन या कर्म करता है तथा जिसमें एकाग्र होकर ध्यान करता है वह उसको बिना किसी प्रयत्न के प्राप्त हो जाता है
जवाब देंहटाएंसटीक भावार्थ .प्रासंगिक और सार्वकालिक अनुकरणीय .
आभार आभार आभार - इस पोस्ट के लिए आपका जितना आभार माना जाए उतना कम है |
जवाब देंहटाएंफिर भी - यह पढ़ कर भी उनकी जिद नहीं बदलेगी जो इन्ही वेदों में गौहत्या का आदेश देखने दिखाने की जिद पकडे बैठे हैं |
ईश्वर-अल्लाह की वाणी के आगे नहीं चलती दंभ की जिद!!
हटाएंअपने स्वार्थ के लिये लोग वेदों को भी हिंसक बना रहे हैं।
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर, दुर्लभ और संग्रहणीय पोस्ट! ज्ञान की गंगा है। भारतीय संस्कृति अहिंसा और अन्य दैवी, मानवीय गुणों की जन्मभूमि है, इस बात पर किसी को क्या संशय हो सकता है। मगर फिर भी कुछ मक्कार मनोवृत्ति के लोग उल्टी गंगा बहाने की हरदम कोशिश में लगे हुए हैं, उनकी आँखें खोलने के लिये भी ऐसे सन्दर्भ सामने रखना आवश्यक है। आभार!
जवाब देंहटाएंबहुत सारगर्भित आलेख...हिंसा कभी अनुकरणीय नहीं रही.
जवाब देंहटाएंवैदिक सूक्तों के साथ प्रामाणिक एवं संग्रहणीय आलेख।
जवाब देंहटाएंप्राचीन भारत में लेखन के लिए सूत्र शैली का प्रयोग प्रशस्त रहा है। इसके गागर में सागर भरने जैसे जहाँ कई लाभ हैं वहीं अर्थ का अनर्थ करने की संभावनाएँ भी हैं। विघटनकारी और दैत्य प्रक्रति के लोग इसका तात्कालिक लाभ भी सदा ही उठाते रहे हैं। वैदिक रिचाओं में ऋषियों के अभिप्रेत को बहुत विस्तार दिया जा सकता है। अस्तु, देखा जाय यह प्रयास कि जीवहिंसा के सन्दर्भ में इन सूत्रों से और क्या-क्या ध्वनित और अभिप्रेत है।
जवाब देंहटाएंऋग्वेद-
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परि भूरसि स इद देवेषु गच्छति (ऋग्वेद- 1:1:4) -हे दैदीप्यमान प्रभु ! आप के द्वारा व्याप्त ‘हिंसा रहित’ यज्ञ सभी के लिए लाभप्रद दिव्य गुणों से युक्त है तथा विद्वान मनुष्यों द्वारा स्वीकार किया गया है|
जो देदीप्यमान है...भास्वर है वही प्रभु है। प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है क्योंकि वह अप्रकट को प्रकट करता है। जो लुप्त करता है वह तम है ..वह प्रभु नहीं हो सकता। जीव हिंसा के कारक प्राण को लुप्त करते हैं अतः इस कृत्य में प्रभुता तो हो ही नहीं सकती। हिंसा रहित यज्ञ ही लाभप्रद और दिव्यगुणों से युक्त हो सकता है अन्य (प्रकार की बलियाँ) नहीं। आर्ष विचारों में सदैव दिव्यत्व की ऐषणा की गयी है क्योंकि वही विद्वत्जनों द्वारा स्वीकृत है। दिव्यत्व क्या है? जो सर्वकल्याणकारी है, सर्वसुखद है, सर्व प्रिय है, प्रेम और करुणा से परिपूर्ण है वही दिव्यत्व है। इस दृष्टि से देखा जाय तो जीवहिंसा दिव्यत्व के विपरीत है।
अघ्न्येयं सा वर्द्धतां महते सौभगाय (ऋग्वेद- 1:164:26) -अघ्न्या गौ- हमारे लिये आरोग्य एवं सौभाग्य लाती हैं।
भारतीयगाय को पश्चिम में ब्राह्मणगाय कहा जाता है। इसका नाम है Bos primigenius indicus. पश्चिम में मिलने वाली गाय एक भिन्न प्रजाति है जिसे लोग Bos taurus के नाम से जानते हैं। किसी भी कृषिप्रधान देश के लिये गाय से उपयोगी और कोई प्राणी नहीं है। गाय न केवल स्वयं एक अर्थशास्त्र है अपितु चिकित्सा शास्त्र भी है। इसके इन्हीं गुणों के कारण यह अघ्न्या है और अब तो पश्चिम के लोगों ने भी भारतीय सांड़ से अपने-अपने देशों में नई ब्रीड उत्पन्न करनी शुरूकर दी हैं। शोध बताते हैं कि भारतीय गाय की दो विशेषताओं के कारण पश्चिम के लोग रीझे हुये हैं।
1- मातृवत आचरण :- भोजन में किसी कारण पहुँचे हुये विषैले तत्वों को यह यथासम्भव अपने दूध से निःसृत नहीं होने देती, जिसके कारण इसका दूध अमृत तुल्य हो जाता है। वहीं ये विषैले तत्व गाय अपने मांस में संग्रहित कर लेती है जिसके कारण गोमांस वर्ज्य कहा गया है।
2- आरोग्यदायक औषधीय गुण :- गोमूत्र में ऑंकोजेनिक( कैंसर उत्पादक) घटकों को निष्क्रिय करने की विशिष्ट क्षमता है। यह प्रोफ़ाइलेक्टिक तो है ही कीमोथिरेपी में सहयोगी औषधि के रूप में भी उपयोगी है।
स्वास्थ्य और सम्पन्नता दोनों प्रदान करने वाली गाय इसीलिये सौभाग्य देने वाली कही गयी है ..तब इसे वध्य कैसे स्वीकार किया जा सकता है?
सूयवसाद भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्तः स्याम
अद्धि तर्णमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती (ऋग्वेद 1:164:40) -अघ्न्या गौ- जो किसी भी अवस्था में नहीं मारने योग्य हैं, हरी घास और शुद्ध जल के सेवन से स्वस्थ रहें जिससे कि हम उत्तम सद् गुण,ज्ञान और ऐश्वर्य से युक्त हों।
किसी भी अवस्था का अर्थ है कितनी भी विवशता होने पर भी। आपको स्मरण होगा कुछ ही वर्ष पूर्व गायों के वायरल रोग से ग्रस्त होने के कारण और उनके मांस से मनुष्यों की सम्भावित मृत्यु से भयभीत हो पश्चिम के कुछ देशों में सहस्त्रों गायों( Bos taurus) का वध कर दिया गया था। ब्राह्मण गाय सर्वविध हितकारी होने से रुग्ण होने पर भी अवध्या है। आज लोगों ने गाय को पूरक आहार देकर मांसाहारी बना दिया है। यह एक सुनियोजित षड्यंत्र है। इस षड्यंत्र से बचने के लिये ही कहा गया है कि गाय को हरी घास और शुद्ध जल देना चाहिये ताकि वे स्सवयं भी स्वस्थ्य रहें और हमें भी आरोग्य प्रदान करती रहें, तभी हम उत्तम सद्गुण, ज्ञान और ऐश्वर्ययुक्त हो सकेंगे।
सुप्रपाणं भवत्वघ्न्याभ्य: (ऋग्वेद- 5:83:8) -अघ्न्या गौ के लिए शुद्ध जल अति उत्तमता से उपलब्ध हो।
देखिये कितना उत्तम विचार और उपदेश है। शुद्ध जल न केवल हमारे लिये अपितु गायों के लिये भी उपलब्ध कराने की बात कही गयी है। "अति उत्तमता" के प्रयोग से बात को गम्भीरता प्रदान की गयी है। जल की अशुद्धता प्राणियों के लिये कितनी हानिकारक हो सकती है इसका ज्ञानलाभ होने के बाद ही इस प्रकार का उपदेश किया गया है। आज इतने विकसित होने के बाद भी शुद्ध पेय जल की उपलब्धता पूरे विश्व के लिये एक गम्भीर चुनौती बन कर उभरी है। वैदिक ज्ञान आज के सन्दर्भों में कितना उपादेय और प्रासंगिक हो गया है!
आचार्यवर कौशलेन्द्र जी,
हटाएंआपनें वेद-मंत्रों का भाष्य स्तर का विवेचन दिया है। निश्चित ही पोस्ट को सार्थक बल दिया है आपने। आपका बहुत बहुत आभार!!
कौशलेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंमूल आलेख को विस्तार देती हुई इस टिप्पणी के लिये आपका आभार! भारतीय परम्परा सद्विचार और सदाचरण को जीवन में अपनाने की है। यहाँ कथनी-करनी का कोई भेद नहीं - अहिंसा परमो धर्मः!
क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः ।
जवाब देंहटाएंएहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन ।। (ऋग्वेद- 7:6:21:9) -"मैं मांस भक्षी या जलाने वाली अग्नि को दूर हटाता हूँ, यह पाप का भार ढोने वाली है ; अतः यमराज के घर में जाए.इससे भिन्न जो यह दूसरे पवित्र और सर्वज्ञ अग्निदेव है, इनको ही यहाँ स्थापित करता हूँ. ये इस शक्तिशाली हविष्य को देवताओं के समीप पहुँचायें ; क्योंकि ये सब देवताओं को जानने वाले हैं।
नैसर्गिक शक्तियों के विवेकपूर्ण उपयोग की बात कही गयी है। उपयोगिता के आधार पर अग्नि के गुणात्मक विभाग कर दिये गये हैं। अग्नि का दाहक गुण नाशक भी है और कल्याणकारी भी। ऋषियों ने विवेकपूर्वक स्पष्ट निर्द्श कर दिया है कि प्राणहारी(मांसभक्षक) अग्नि पाप का भार ढोने वाली होने से निन्द्य है। अग्नि के उसी स्वरूप को स्वीकार किया गया है जो हविष्य को नैनोपार्ट्स में रूपांतरित कर कल्याणकारी शक्तियों तक पहुँचाने की सामर्थ्य रखता है।
१.आ गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन्त्सीदन्तु -प्रत्येक जन यह सुनिश्चित करें कि गौएँ यातनाओं से दूर तथा स्वस्थ रहें |
यह एक बड़ी ही महत्वपूर्ण बात है। कल्याणकारी होने से गाय को यातना भी नहीं देनी चाहिये, यातना से दुखित गाय का दूध अमृतत्व से रहित हो जाता है।
ब्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम् एष वां भागो निहितो
रत्नधेयाय दान्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च (अथर्ववेद- 6:140:2) -हे दंतपंक्तियों! चावल, जौ, उड़द और तिल खाओ। यह अनाज तुम्हारे लिए ही बनाये गए हैं| उन्हें मत मारो जो माता–पिता बनने की योग्यता रखते हैं|
तण्डुल, यव, माष और तिल शक्तिवर्धक भोज्य पदार्थ हैं, जिनका सेवन प्रशस्त है। यह बात दांतों से कही गयी है। आशय विनोदपूर्ण तरीके से यह समझाने का है कि मनुष्य के दाँत मांसाहारी जंतुओं की तरह न होकर सरलता से चबायी जा सकने योग्य चीजों को खाने के लिये बनाये गये हैं। हमारे पास मांस को फ़ाड़ने और पीसने योग्य दाँत नहीं हैं जोकि प्रकृति का मनुष्य के शाकाहारी होने के लिये स्पष्ट संकेत है। माता-पिता बनने की योग्यता वालों का वध न करने से आशय बायोडायवर्सिटी को बनाये रखने से है।
सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥ (शान्तिपर्व- 265:9) -सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि भोजन, धूर्त प्रवर्तित है जिन्होनें ऐसे अखाद्य को वेदों में कल्पित कर दिया है।
कृषरा को खिचड़ी कहते हैं। कृषरा वर्ज्य नहीं है। यहाँ कृषरा इसलिये वर्ज्य है क्योंकि तामसी प्रकृति के लोग खिचड़ी एवम ओदनम (भात) का सेवन मांसरस के साथ करते हैं। खिचड़ी एवं भात मांसरस के साथ ही वर्ज्य हैं अन्यथा नहीं।
मांस भक्षी और मृत्यु लक्षी अग्नी को यमराज के घर जाने के कहने का साफ अभिप्राय है मांस पकाने की क्रिया मृत्यु-लक्षी है। और यह यज्ञ में वर्जित है।
हटाएं@कृसरौदनम्-खिचड़ी एवं भात मांसरस के साथ ही वर्ज्य हैं। सही कहा सम्भव है वह आजकल की बिरियानी के समान मिक्स (खिचड़ी)पदार्थ से हो।
इतने सारे वेदों कि दृष्टांत और ऊपर से भाई कौशलेन्द्र की व्याख्या.. आज पुनः अपने अज्ञान का आभास हुआ.. किन्तु ज्ञान के आलोक से प्रकाशित हुआ!!
जवाब देंहटाएंसुंदर संकलन.....हर विचार मानवीय अनुकरणीय है....
जवाब देंहटाएंKaushlendr ji ki vyankhya ke sath post me sone pe suhaga wali baat ho gayi....
जवाब देंहटाएंAise vicharo ka jitna ho ske utna adhik prchaar-prsaar hona chahiye...
Punah aabhaar is sangrahniya post k liye
kunwar ji
यह लेख तो मढ़कर रखने और सबको पढ़कर सुनाने योग्य है. आभार...
जवाब देंहटाएंसंकलन कर्ता का आशय पवित्र है परंतु संकलित ऋचाओं के अर्थ अनर्थकारी वेदभाष्यों से लिए गए हैं और यही ग्रंथ समस्या का मूल हैं. ऋषि दयानंद की भांति जब तक इन्हें नदी में प्रवाहित न किया जाए तब तक भारतीय समाज की समस्याओं का निराकरण संभव नहीं है. विरोधियों को तब यह कहने का कोई अवसर शेष न रहेगा कि वेदों में मांसाहार का विधान है.
जवाब देंहटाएंमैंने कभी एक पंक्ति से अधिक टिप्पणी नहीं की है परंतु यह विचारशीर विद्वानों का मंच है.
सभा के अधिकारी विद्वानों को असत्य के त्याग व सत्य के ग्रहण का साहस कर लेना चाहिए.
ऋषि दयानंद का वेद भाष्य वैदिक जगत का एकमात्र प्रामाणिक वेद भाष्य है.
@एकत्वमनुपश्यत!
जवाब देंहटाएंसत्य वचन! समदर्शी तो स्वभावतः अहिंसक ही होगा।
य आमं मांसमदन्ति पौरूषेयं च ये क्रवि: !
जवाब देंहटाएंगर्भान खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि !! (अथर्ववेद- 8:6:23)
-जो कच्चा माँस खाते हैं, जो मनुष्यों द्वारा पकाया हुआ माँस खाते हैं, जो गर्भ रूप अंडों का सेवन करते हैं, उन के इस दुष्ट व्यसन का नाश करो !
baht aachh nai jaankaari
जवाब देंहटाएंइस तार्किक एवं विश्वास्य सहज अनुकरणीय पोस्ट के लिए ज़नाब का शुक्रिया .कृपया यहाँ भी पधारें -
जवाब देंहटाएंरविवार, 22 अप्रैल 2012
कोणार्क सम्पूर्ण चिकित्सा तंत्र -- भाग तीन
कोणार्क सम्पूर्ण चिकित्सा तंत्र -- भाग तीन
डॉ. दाराल और शेखर जी के बीच का संवाद बड़ा ही रोचक बन पड़ा है, अतः मुझे यही उचित लगा कि इस संवाद श्रंखला को भाग --तीन के रूप में " ज्यों की त्यों धरी दीन्हीं चदरिया " वाले अंदाज़ में प्रस्तुत कर दू जिससे अन्य गुणी जन भी लाभान्वित हो सकेंगे |
वीरेंद्र शर्मा
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*(वीरुभाई )
नुस्खे सेहत के
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
उपयोगी संकलन बहुत पसंद आया। टिप्पणी भी बेहद ज्ञानवर्धक हैं।
जवाब देंहटाएंइस तरह के आलेख कई भ्रांतियां मिटाते हैं !
जवाब देंहटाएंसाधुवाद !
महीनों बाद तसल्ली से पूरा आलेख पढ़ा और आचार्यवर कौशलेन्द्र के व्याख्याओं वाले विस्तार ने ऐसा बांधकर रखा कि शुरू से अंत तक वैदिक आदेशों पर चिंतन चलता रहा। प्रकाशन समय कुछ भी हो विचार आज भी ताजगी लिए हैं। मूर्ख लोग ही इसे बासी और पुराना कह सकते हैं।
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