शनिवार, 26 नवंबर 2011

वैदिक यज्ञों में पशुबलि---एक भ्रामक दुष्प्रचार

वैदिक शब्दावली की एक जो सबसे बडी विशेषता है, वो ये कि वैदिक नामपद अपने नामारूप पूर्णत: सार्थक हैं. वेदों में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के जो नाम मिलते हैं, वे किसी भी रूप में अपने धात्वर्थों का त्याग नहीं करते. उदाहरण के लिए पाठक "पंकज" शब्द पर विचार करें. प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि "पंकज" शब्द का अर्थ होता है---"कमल". यह शब्द दो हिस्सों से बना है. एक "पंक" और दूसरा "ज". "पंक" का अर्थ होता है---"कीचड" और "ज" का अर्थ है---"पैदा हुआ". अत: पंकज का अर्थ है---"कीचड से पैदा हुआ पदार्थ". कमल यदि कीचड से पैदा हुआ न हो तो उसके लिए "पंकज" शब्द का प्रयोग वैदिक शब्द शास्त्र कि दृष्टि से सर्वथा अनुचित होगा. वैदिक दृष्टि में कमल के लिए तभी पंकज शब्द का प्रयोग किया जा सकता है, जब कि कमल में "पंक से पैदा होना" रूपी धर्म विद्यमान हो.
लोक में, जिसके न दीन की खबर और न ईमान का ठिकाना, वो भले चाहे खुद को "मुस्सलसल ईमान" साबित करने को तुला रहे, भले ही किसी भिखारी को धनीराम के नाम से संबोधित किया जाए या आँख के अंधे का "नयनसुख" नामकरण कर दिया जाये, लेकिन वैदिक दृष्टि में वस्तुओं/पदार्थों/जीवों के नामकरण/संबोधन का यह ढंग किसी प्रकार भी स्वीकृत नहीं. वैदिक दृष्टि में ईमान वाले का संबोधन मुसलमान, पैसे वाला धनीराम और आँखों वाले का नाम ही "नयनसुख" संभव है.
इस उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार अब हमें देखना चाहिए कि वेदों में यज्ञ के जो-जो पर्यायवाची नाम मिलते हैं, उनके धात्वर्थों द्वारा "यज्ञ में पशुबली" विषय पर कोई प्रकाश पडता है या नहीं. यज्ञ के पर्यायवाची नाम निम्न है:--

यज्ञ:, वेन:, अध्वर:, मेध:, विदथ:, नार्य:, सवनम, होत्रा, इष्टि:, देवताता:, मख:, विष्णु:, इन्दु:, प्रजापति:, धर्म:---(निघण्टु अध्याय 3/खण्ड 17)
इनमें से "अध्वर " और " देवताता "--इन नामों पर विचार करना अत्यावश्यक है.
अध्वर:---अध्वर शब्द की निरूक्ति( Derivation) में निरूक्तकार यास्कमुनि लिखते हैं कि:---
" अध्वर इति यज्ञनाम ! ध्वरतिहिंसाकर्मा, तत्प्रतिषेध: !! " (निरुक्त अध्याय 1/खण्ड 8)

अध्वर शब्द दो हिस्सों से बना है. एक "अ" और दूसरा "ध्वर" . अ का अर्थ है----निषेध, और ध्वर का अर्थ है---हिँसा करना या वध करना. अत: अध्वर का अर्थ हुआ कि ऎसा कर्म जिसमें हिँसा न की जाये. इस प्रकार यज्ञ का नाम "अध्वर" होना ही इस सिद्धान्त की पुष्टि कर रहा है कि यज्ञ में हिँसा कदापि न होनी चाहिए. जिसमें हिँसा है, वह यज्ञ ही नहीं. इसलिए अध्वर शब्द अपने निर्वचन द्वारा स्पष्ट रूप से निर्देश कर रहा है कि यज्ञ में "पशुवध" सर्वथा निषिद्ध है. यदि यज्ञ में पशु का वध करना वेदों को अभीष्ट होता तो वैदिक साहित्य में इसका नाम अध्वर कभी भी न होता. फिर तो इसका नाम "ध्वर" या "सध्वर" होना चाहिए था, न कि "अध्वर".

देवताता:- यज्ञ का एक दूसरा नाम देवताता भी है. देवताता दो शब्दों के संयोग से बना है---देव और ताता, जिनमें देव शब्द के अर्थ से तो हर कोई भलीभान्ती परिचित ही है. देव अर्थात देवता और ताता शब्द निर्मित हुआ है 'तन" धातु से, जिसका अर्थ होता है---विस्तार. यथा "तनु विस्तारे". अत: देवताता का अर्थ है---"देवों के लिए विस्तृत किया गया". इससे स्पष्ट हो जाता है कि यज्ञ केवल देवताओं के ही उद्देश्य से किया जाता है, न कि असुर और राक्षसों के निमित. अर्थात यज्ञ में जो घी इत्यादि सामग्री होती है, उसकी आहुति देवताओं के नाम से दी जाती है, न कि असुरों या राक्षसों के नाम से. "ॐ अग्नये स्वाहा", "सोमाय स्वाहा" या "प्रजापतये स्वाहा" इत्यादि ऎसे मन्त्रोच्चारण तो जरूर सभी नें कभी न कभी अवश्य सुने होंगें, लेकिन क्या किसी नें कभी देखा है कि किसी यज्ञ में "असुराय नम:" या "राक्षसाय नम:"---ऎसे वाक्यों से आहुति दी गई हो या किसी वेद, पुराण, उपनिषद इत्यादि किसी भी धर्मग्रन्थ में ऎसा राक्षसों की प्रसन्नतार्थ कोई मन्त्र/श्लोक दिया गया हो.

अब बात आती है कि वेद आदि धर्मशास्त्र देवताओं के भोजन के सम्बन्ध में क्या कहते हैं. यदि तो वेदों में लिखा हो कि देव माँस भी खाते थे, तब तो सिद्ध हो ही जायेगा कि यज्ञ में पशु की बलि या कि देवों को माँस की आहुति वेदोक्त ही है. परन्तु किसी वेद/पुराण में यह नहीं लिखा कि देव माँस-भक्षक हैं. बल्कि वेद तो ये कहते हैं कि "देवा आज्यपा:" जिसका अर्थ है कि "देवता घी का पान करने वाले हैं". इसीलिए यज्ञ में घृताहुति पर ही अधिक बल दिया जाता है. यदि यज्ञ में माँसाहुति वेदों को अभीष्ट होती तो, चूँकि यज्ञ देवताओं के निमित किया जाता है, तब देवों के भोजन में माँस का गिनाना भी वेदों के लिए आवश्यक होता.
हाँ, वेदों में माँस और रूधिर आदि अन्न राक्षसों के भोज्य पदार्थों में अवश्य गिनाये गये हैं. वेदों में रक्तपा:, मांसादा:, पिशाचा:, क्रव्यादा:----आदि नाम राक्षसों के लिए पठित हैं. रक्तपा:---अर्थात रक्त के पीने वाले. मांसादा:----अर्थात माँस का भक्षण करने वाले, पिशाचा:----पिश अर्थात शरीर के अवयवों को खाने वाले. क्रव्यादा:----अर्थात हिँसा से प्राप्त आहार का भक्षण करने वाले.
वेदों में देवताओं का एक पर्यायवाची नाम आता है----"अमृतान्धस:".जिसका अर्थ है "जो कि मृत अन्न का सेवन नहीं करते". क्या ये सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि मरने से पैदा हुआ अन्न अर्थात माँस देवों का भोजन नहीं.
प्रजापति:- यज्ञ का तीसरा नाम है---प्रजापति. प्रजा का अर्थ है----उत्पन्न प्राणी और पति का अर्थ है---रक्षक. अत: प्रजापति का अर्थ है---प्राणियों का रक्षक. अब यदि यज्ञ बलि के नाम पर स्वयं ही पशुप्रजा का भक्षक हो तो उसका प्रजापति नाम होना ही निरर्थक हो जाये.
 अत: विधर्मी दुष्प्रचारकों को यह समझ लेना चाहिए कि यज्ञ के अध्वर, देवताता एवं प्रजापति इत्यादि पर्यायवाची नाम ही उनके "वेदों में पशुबलि" विषयक दुष्प्रचार का भांडाफोड करने में पर्याप्त हैं और ये भी कि सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का कल्याण चाहने वाली इस सनातन संस्कृति में हिँसा का कभी कोई स्थान नहीं रहा...........

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

भारतीय संस्कृति में मांस भक्षण?

वेदों के नाम पर थोपी गई इन सारी मिथ्या बातों का उत्तरदायित्व मुख्यतः मध्यकालीन वेदभाष्यकार महीधर, उव्वट और सायण द्वारा की गई व्याख्याओं पर है तथा वाम मार्गियों या तंत्र मार्गियों द्वारा वेदों के नाम से अपनी पुस्तकों में चलायी गई कुप्रथाओं पर है । ~अग्निवीर
प्रागैतिहासिक मानव प्राकृतिक रूप से शाकाहारी था, यह एक वैज्ञानिक तथ्य है। जब मानव के जंगली समुदाय बनने लगे तब उनके क्षेत्रीय प्रभुत्व के झगड़े और तामसिक वृत्तियों के कारण वे एक दूसरे से संघर्ष करते रहे। बहुत सी जंगली जातियों में आदमखोरी जैसी पैशाचिक प्रथायें भी पनपीं। अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये आदमखोरी पर तो प्रतिबन्ध लगे परंतु "माइट इज़ राइट" वाले जंगली समुदायों में कमज़ोर का दमन चलता रहा। हाँ, सभ्यता का प्रकाश आने के साथ-साथ ऐसी प्रवृत्तियों में कमी आती गयी। भारत जैसे पवित्र क्षेत्रों में सभ्यता का सूर्योदय शेष विश्व से बहुत पहले हुआ और साक्षरता विकास का स्वर्णयुग तभी आ गया जब शेष विश्व में क़बीलाई हिंसा सामान्य जीवन का अभिन्न अंग थी। स्पष्ट है कि अहिंसा, करुणा और दया की भावनायें भी जल्दी ही हमारे दैनिक जीवन का सामान्य अंग बन गयी थीं। जब दुनिया के कई हिस्से खून के बदल खून और आँख के बदले आंख की मांग कर रहे थे हम विश्वव्यापी हिंसा को पीछे छोड़कर "क्षमा वीरस्य भूषणम" की ओर बढ रहे थे। पश्चिम में पशु-अधिकार की बात नई है परंतु "ईशावास्यमिदं सर्वं" का उद्घोष करने वाली भारतीय संस्कृति में कण-कण में प्रभु का अंश देखना अति प्राचीन विचार है।
मेरे स्वामी शाकाहारी थे, यद्यपि देवीप्रसाद में मिलने पर वे माँस को भी सर माथे लगाते थे। जीवनहरण निश्चित रूप से पाप है ... जिनका शुद्ध सत्व विकसित होता है मांस-मच्छी के प्रति उनकी सारी रुचि नष्ट हो जाती है। यह आत्मा के उदात्त होने का चिन्ह है~स्वामी विवेकानन्द
सिकन्दर के हमले के समय भारत आये लेखक मेगस्थनीज़ ने इंडिका में भारत में डंडों से बिना मधुमक्खी के शहद बनाने की बात कही है क्योंकि यूरोप की तथाकथित सभ्यता के लिये ईख और शर्करा एक अनोखा आश्चर्य था। इसी प्रकार हज़ारों वर्षों से भरतीयों द्वारा प्रयुक्त हो रहे हीरों के खनन के बारे में शेष विश्व को केवल कुछ शती पहले ही जानकारी हुई। दशमलव अंक पद्धति, शून्य व अनंत की परिकल्पना और वैज्ञानिक और सुस्पष्ट नियमबद्ध संस्कृत वाक व व्याकरण तक पहुँचना तो अन्य समुदायों के लिये असम्भव ही था। यूरोपीय लिपियों में भारतीय अंकों की स्वीकृति तो सामान्य ही लगती है परंतु अरबी, फ़ारसी जैसी उलटी दिशा में लिखी जाने वाली लिपियों द्वारा भी सीधे लिखे जाने वाले भारतीय अंकों को अपनाना इस पद्धति की विश्व-स्वीकार्यता का स्पष्ट उदाहरण है। अपने ज्ञान से विश्व को चमत्कृत करने वाली भारतीय सभ्यता "असतो मा सद्गमय" के साथ ही "मृत्योर्मामृतं गमय" की वाहक है। यह संस्कृति न कभी मृतजीवी थी और न ही कभी हो सकती है।
प्राचीन काल से यज्ञ केवल अन्न से होते आये है। मद्य-मांस की प्रथा इन धूर्त असुरों ने अपनी मर्जी से चला दी है। वेद में इन वस्तुओं का विधान ही नहीं है। (महाभारत)
विश्व भर में सम्माननीय इस भारतीय संस्कृति की आधारशिलाओं में अहिंसा और सद्भाव एक प्रमुख स्थान रखते है। अन्य राष्ट्रों की तरह भारत में भी हिंसक समुदाय रहे हैं परंतु भारतीय संस्कृति अभारतीय राष्ट्रों व असंस्कृत भाषायी समुदायों से इस मामले में एकदम अलग है कि यहाँ हिंसा को कभी भी शास्त्रीय स्वीकृति नहीं मिली। समय-समय पर विश्व भर में स्वादलोलुप लोगों ने कभी स्थानीय आवश्यकता, कभी स्वास्थ्य और कभी देवी, देवता, ईश्वर को बलि या क़ुर्बानी के नाम पर अपने हिंसक कृत्यों को जायज़ ठहराने के प्रयास किये हैं मगर कम से कम भारत में धार्मिक और सामाजिक विचारधारा में ऐसे प्रयासों को सदा ही निरुत्साहित किया गया है। यही कारण है कि जिन धार्मिक स्थलों पर पशुबलि के दृश्य आम थे उनमें भी बहुतायत से कमी आयी है। और यह परिवर्तन किसी बाहरी दवाब से नहीं बल्कि आंतरिक चेतना से ही हुआ है।
ब्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम् एष वां भागो
निहितो रत्नधेयाय दान्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च
(अथर्ववेद 6/140/2)
हे दंतपंक्तियों! चावल, जौ, उड़द और तिल खाओ। यह अनाज तुम्हारे लिए ही बनाये गए हैं| उन्हें मत मारो जो माता–पिता बनने की योग्यता रखते हैं|
जहाँ जंगली जातियों में असहिष्णुता और हिंसा को सामाजिक व धार्मिक स्वीकृति प्राप्त थी वहीं हमारे समाज में ऐसा कभी नहीं रहा। दुनिया में मौजूद तत्वों जैसे असुर, पिशाच आदि का वर्णन भी ग्रंथों में वैसे ही मिलता है जैसे देवत्व और मानवता का परंतु हिंसा का महिमामंडन कहीं नहीं है। हाँ दया, करुणा, प्रेम, अहिंसा, अनुशासन, त्याग, सत्यनिष्ठा, न्याय आदि को सर्वदा उन्नत स्थान प्रदान किया गया है। खुशी की बात है कि हमारी उस उन्नत विचारधारा को आज बेल्जियम हो या जर्मनी, सब जगह हर्षोल्लास से अपनाया जा रहा है।
अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्न संभवः। यज्ञाद्भवति पर्जन्या यज्ञः कर्म समुद्भवः।। (गीता 3/14)
सम्पूर्ण प्राणी अन्न से ही होते हैं।
शांतिकाल के ग्रंथों में करुणा और दया की बात तो शायद बहुत सी सभ्यताओं में की गयी हो परंतु 18 अक्षौहिणी सेना के सामने रणभूमि के बीच गाये गये ग्रंथ में भी अहिंसा और समता का गुणगान भारत की विशेषता है। पूर्ण अहिंसक राजाओं का चक्रवर्ती सम्राट बने रहना अहिंसा की इस जन्मभूमि में ही सम्भव है। दुःख की बात है कि भारतीय संस्कृति की इस मूलभावना पर आज काफ़ी प्रहार किये जा रहे हैं। मुझे विश्वास है कि जिस विचारधारा को बनाने में सहस्रों वर्षों का अटूट श्रम लगा है वह सहस्रों वर्षों के आलस के बिना नहीं टूट सकती है। तो आइये आलस और अज्ञान के इस दुष्चक्र को तोड़ें जो हमारी संस्कृति की गरिमामय आधारशिला को काटने का प्रयास कर रहा है।
द्विपादव चतुष्पात् पाहि। (यजुर्वेद 14/8)
दो पैर वाले और चार पैर वाले की भी रक्षा हो|
संस्कृत में प्रचलित कुछ शब्दों से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय परम्परा में सब प्राणियों पर दया करने की परम्परा कितनी गहरी है। वनस्पति के लिये एक शब्द शस्य प्रयुक्त हुआ है जिससे भारतीय परम्परा में वनस्पति के भोज्य होने की पूर्ण स्वीकृति स्पष्ट होती है। जिसका स्पष्ट अर्थ है कि जीवहत्या को स्वीकृति नहीं है। मनुस्मृति के अनुसार मांस शब्द का अर्थ: मांस: = मम + स: = मुझे + यह = यह मुझे वही करेगा जो मैं इसे कर रहा हूँ = मैंने इसे खाया/सताया तो यह मुझे खायेगा/सतायेगा। यहाँ भी पशुहत्या और मांसाहार को अवांछनीय बताया गया है। भोज्य पदार्थों के लिये अन्न का प्रयोग आज भी भोजन को रोटी कहने या विवाह में भात की परम्परा जैसे नामों से जीवित है। पर्वों के खिचड़ी संक्रांति या पोंगल जैसे लोक नाम भी इसी परम्परा का उदाहरण हैं। शाकाहार की परम्परा न केवल मठों व मन्दिरों का सामान्य अंग है, अखाड़ों, गुरुद्वारों व डेरों आदि में भी अहिंसा व शाकाहार अपेक्षित और सर्व-स्वीकृत है। पका भोजन पक्वान्न है, मिठाई मिष्ठान्न है। और तो और देवी माँ का एक नाम अन्नपूर्णा होना भारतीय भोजन के अन्न-आधारित होने का जीता-जागता सबूत है। देवताओं का एक लक्षण अमृतजीवी होना है। मतलब यह कि देव मृत पशुओं का माँस नहीं खाते हैं। उस महान प्राचीन सतत परम्परा के बीच से यदि एकाध असम्बद्ध से उदाहरणों का परम्परा-विपरीत अनर्थ अनुवाद करके कोई यह समझने लगे कि हिंसा को शास्त्रीय स्वीकृति है तो क्या ऐसी नासमझी पर केवल हँसकर रहा सकता है? यदि भारतीय संस्कृति में से भूतदया की बात हटा दी जाये तो एक निर्वात सा बन जायेगा यह सर्वविदित है।
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः
(मनुस्मृति 5/51)
पशु को मारने की आज्ञा देने वाला, मारने के लिए लेने वाला, बेचने वाला, मारने वाला, मांस को खरीदने और बेचने वाला, पकाने वाला और खाने वाला यह सभी हत्यारे हैं|
शैली को मार्क्स ने भी सराहा था
भारतीय संस्कृति सर्वदा सांगोपांग अहिंसा पूरित है ही, ज्यों-ज्यों विश्व ज़ाहिलियत से सभ्यता की ओर बढ रहा है "तमसो मा ज्योतिर्गमय" के सिद्धांत के अनुरूप इन अभारतीय संस्कृतियों में भी जीवदया की समझ और स्वीकृति बढ रही है। हम सब जानते हैं कि विभिन्न देशकाल में भारत के बाहर भी बहुत से महान कालजयी बुद्धिजीवी शाकाहारी रहे हैं। ऐसे उदाहरणों में अरस्तू, प्लेटो, ज़रथुस्त्र, कन्फ़्यूशियस, लियोनार्दो द विंची, जार्ज बर्नार्ड शा, एच.जी.वेल्स, फ़्रैंज़ कैफ़्का, मार्क ट्वेन, पी.एच.हक्सले, लॉर्ड बायरन, इमर्सन, राबिया अल बसरी, रोज़ा पार्कर, जॉन हार्वी कैलॉग, आइन्सटीन, येहूदी मेनुहिन, पॉल मैककोर्टनी, रिंगो स्टार, जॉर्ज हैरिसन, लियो टॉलस्टॉय, शैली, रूसो, वीना मलिक, मार्टिना नवरातिलोवा जैसे विख्यात नाम शामिल हैं। परंतु भारत अकेला ऐसा राष्ट्र है जहाँ शाकाहार और अहिंसा हज़ारों साल से आम जीवन का हिस्सा बन सकी है।
क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः।
एहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन।।
(ऋग्वेद 10/16/9)
मांसभक्षक या जलाने वाली अग्नि को हम यहाँ से दूर करते हैं, यह पाप का भार ढोने वाली है अतः यमराज के घर जाए। इससे भिन्न जो यह दूसरे सुप्रसिद्ध "जातवेद" अग्निदेव पवित्र और सर्वज्ञ हैं, इनको ही यहाँ स्थापित करता हूँ। ये इस हविष्य को देवताओं के समीप पहुँचायेंगे क्योंकि ये सब देवताओं को जानने वाले है।
भारत की इस प्राचीन परम्परा का आदर करते हुए जहाँ अनेक पशु-पक्षियों का शिकार दंडनीय अपराध है वहीं भारतीय संविधान की धारा 51 ए (जी) के अंतर्गत वन, झील,वन्य पशुओं की रक्षा और सभी प्राणियों के प्रति दया प्रत्येक भारतीय नागरिक का मौलिक कर्तव्य है। आइये, हम भी अपनी गर्वीली मानवीय और दैवी परम्परा के वाहक बनें।

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* वेदों में गोमांस? (अग्निवीर)
* शाकाहार और हत्या
* हम क्या शेरों के भोजन के लिये जन्मे हैं?
* आपका धर्म भी तो यही कहता है
* वेद भगवान की वाणी हैं

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

पशु-बलि : प्रतीकात्मक कुरीति पर आधारित हिंसक प्रवृति


ईद त्याग का महान पर्व है, जो त्याग के महिमावर्धन हेतु मनाया जाता है। यह पर्व हमें संदेश देता है कि हर क्षण हमें त्याग हेतु तत्पर रहना चाहिए। त्याग’ की प्रेरणा के लिए हम हज़रत इब्राहीम के महान त्याग की याद करते है। किन्तु उस महान् त्याग से प्रेरणा चिंतन मिलने की जगह, गला रेते जा रहे पशुओं की चीत्कार कानों को चीर डालती है। ईद के त्याग-परहेज रूप उल्हासमय प्रसंग के बीच, विशाल स्तर पर सामूहिक पशु-बलि के बारे में सोचकर ही मन व्यथित हो उठता है। अनुकंपा स्वयं कांप उठती है।

कुर्बानी की यह प्रथा हज़रत इब्राहीम से सम्बंधित है। उनसे सपने में अल्लाह ने त्याग - कुर्बानी चाही थी, हज़रत इब्राहीम ने बेटे इसमाईल को क़ुर्बान करने का फ़ैसला किया, घात पश्चात जब मृत कुर्बानी को देखा तो वहां एक भैडा मरा पडा था।

हज़रत इब्राहीम ज्ञानी और विवेकवान महापुरूष थे, क्या हमारी सोच उस उच्चस्तर को छू सकती है कि हम उनके समान सर्वांग श्रेष्ठ निर्णय ले सकें?, क्या हम अपने आपको उनके समकक्ष रखना चाहते है?  क्या हमारा बौद्धिक स्तर उनका अनुसरण करने के लायक है? एक महापुरूष के सम्मान में भी सच की जगह, झूठ-मूठ के प्रतीक का पालन सही है? क्या यह उनका सम्मान है? क्या हमारे मन इतने निर्मल है कि उनके स्तर के समीप भी पहुंचने में सक्षम हो?  क्या वे यह पसंद करते कि कोई मेरा कुरीति से झूठ-मूठ, दिखावे भर का अनुगमन करे? कदापि नहीं।

भेडें, बक़रे ऊंट आदि ईश्वर की ही सन्तानें है, उनकी उत्पत्ति है और उन्ही की सम्पत्ति है। आप क्या कुर्बान करेंगेईश्वर का दान फिर से ईश्वर पर कुर्बान? क्या किसी बालक को खुश करना है? जबकि ईश्वर ने तो जो दान एक बार दे दिया, वापस लेने की उसे कत्तई चाहना नहीं। ईश्वर दाता है, याचक नहीं।
ईश्वर इस तरह की हिंसा से कभी भी खुश होने वाले नहीं। उन्होंने जगह जगह प्राणियों के साथ रहम की उम्मीद रखी है। वास्त्विकता तो यह है कि यह मात्र हमारी स्वार्थ प्रेरित कुर्बानी है। और इस स्वार्थ में लाखों जानवर बलि चढ जाते है। महाहिंसा का तांडव है यह पशु-बलि की कुरीति।

उपर से तर्क दिया जाता है कि……
विज्ञान के युग में कुर्बानी पर ऐतराज़ क्यों?
क्या विज्ञान नें कुर्बानी जैसी हिंसा को जायज़ ठहरा दिया है?

विवशता की अनुमति और उसका दुरपयोग

  • ऐ लोगों! धरती में जो हलाल और अच्छी-साफ सुथरी चीज़ें है, उन्हें खाओ और शैतान के पदचिन्हों पर न चलो। निस्संदेह वह तुम्हारा खुला शत्रु है (कुरआन 2:168)
  • ऐ ईमान लाने वालो तुम्हारे लिए चौपायों की जाति के जानवर हलाल हैं सिवाय उनके जो तुम्हें बताए जा रहें हैं; लेकिन जब तुम इहराम की दशा में हो तो शिकार को  हलाल न समझना। निस्संदेह अल्लाह जो चाहते है, आदेश देता है (कुरआन 5:1)

इस कथन को ‘जानवरों को खाओ की अनुमति की तरह ले लिया गया है।  पर ईश्वर कहते है- साफ-सुथरी चीजें जो हलाल कर रखी है, उसमें भी विवेक से उपयोग करो’ अविवेक के ईशारों पर न चलो, अविवेक निसंदेह तुम्हारा खुला शत्रु है। शायद परिस्थिति, जगह व उपलब्धता के आधार पर ईश्वर नें छूट दे दी। किन्तु इस अनुमति के लिए अहसानमंद होना चाहिए और उसका अनावश्यक दुरपयोग नहीं करना चाहिए। जब भी सात्विक शुद्ध शाकाहार उपलब्ध हो, हिंसाजनित आहार से परहेज करना चाहिए। ईश्वर ने शाकाहार को कहीं भी हराम नहीं ठहराया है, अंगूर खजूरों की तरफ बार बार ईशारा करके शाकाहार को श्रेष्ठ बताने की कृपा की है। पर हमारी स्वाद्लोलूपता निर्दोष जानवरों की हिंसा से ही तुष्ट होती है। अनुमति का ऐसा अहसानफरामोशी भरा प्रयोग? तब तो ईश्वर नें धूल मिट्टी पत्थर को भी हराम नहीं कहा, पर उसमें स्वाद और अहंतुष्टि कहां?

साफ-सुथरे (पवित्र)का आशय भी साफ है, इहराम की पवित्र दशा में तुम्हें शिकार आदि हिंसा हराम है। अर्थात् पवित्र दशा में जिस कर्म को हलाल समझने से ही मना किया गया हो, वह अन्यत्र भी उचित कैसे हो सकता है। इसलिए अनुमति मात्र आहार के उपलब्ध न होने की मजबूरी तक ही सीमित है।

  • रहे पशु, उन्हें भी उसी ने पैदा किया, जिसमें तुम्हारे लिए ऊष्मा प्राप्त करने का सामान भी है और हैं अन्य कितने ही लाभ। उनमें से कुछ को तुम खाते भी हो (कुरआन 16:5)
  • और निश्चय ही तुम्हारे लिए चौपायों में भी एक शिक्षा है। उनके पेटों में जो कुछ है उसमें से हम तुम्हें पिलाते है। औऱ तुम्हारे लिए उनमें बहुत-से फ़ायदे है और उन्हें तुम खाते भी हो (कुरआन 23:21)

यहां ईश्वर जानवरों को, ऊन दूध आदि के लिये  पैदा करनें की तो जिम्मेदारी तो लेते है, पर खाने की क्रिया और कर्म की पूरी जवाबदेही बंदे पर ही छोड़ते है। आशय साफ है, ईश्वर कहते है, उन्हें ऊन दूध के लिए हमने पैदा किया, पर 'कुछ को तुम खाते हो'। यह तो अनुमति भी नहीं है, यह सीधे सीधे आपकी आदतों का निर्देश मात्र है। यह ईश्वर का अर्थपूर्ण बयान है।

निशानी

बिलकुल ऐसा ही निर्देश शराब के लिये भी है, जब इस उपदेश के आशय में समझदार होकर, शराब को हेय माना गया है,  तो उसी आशय के रहते, विवेक अपना कर, मांसाहार को हेय क्यों नहीं माना जाता? देखिए यह दोनो तुलनात्मक आयतें…………
  • और निश्चय ही तुम्हारे लिए चौपायों में भी एक शिक्षा है। उनके पेटों में जो कुछ है उसमें से हम तुम्हें पिलाते है। औऱ तुम्हारे लिए उनमें बहुत-से फ़ायदे है और उन्हें तुम खाते भी हो (कुरआन-23:21)
  • और खजूरों और अंगूरों के फलों से से बनी शराब भी, जिससे तुम नशा भी करते हो और अच्छी रोज़ी भी। निश्चय ही इसमें बुद्धि से काम लेने वाले लोगों के लिए एक बड़ी निशानी है (कुरआन-16:67)

शाराब के लिए तो शिक्षा या निशानी निषेधात्मक ग्रहण की गई है पर मांसाहार के लिए निषेध नहीं ? क्यों नहीं? बुद्धि व विवेक से काम लेने वालों के लिए यह भी  एक बड़ी निशानी है

सुनिश्चित है कि कुर्बानी या पशुबलि सच्चा त्याग नहीं हैखुदा को तो इन्द्रिय इच्छाओं और मोह का त्याग प्रिय है। अपनी ही सन्तति – सम्पत्ति की जानें नहीं। जानवर तुम्हें प्रिय होता तो उसकी जान न लेते। और ईश्वर तुम्हें प्रिय होता तो उसके प्रिय जानवर की जान भी न लेते।एक ही दिन लाखों निरीह प्राणियों की हिंसा? कहीं से भी शान्ति-धर्मके योग्य नहीं है।

शान्ति के संदेश (इस्लाम) को हिंसा का पर्याय बना देना उचित नहीं है। इस्लाम, हिंसा का प्रतीक नहीं हो सकता। यह मज़हब मांसाहार का द्योतक नहीं है। यदि इस्लाम शब्द के मायने ही शान्ति है तो वह शान्ति समस्त जगत के चर-अचर जीवों के लिए भी आरक्षित होनी चाहिए। 

करूणावान अल्लाह कहते है-

न उनके मांस अल्लाह को पहुंचते हैं और न उनके रक्त। किंतु उसे तुम्हारा तक्वा (धर्मपरायणता) पहुंचता है। (क़ुरआन-22: 37) (Qur'an 22:37)

धरती में चलने-फिरनेवाला कोई भी प्राणी हो या अपने दो परो से उड़नवाला कोई पक्षी, ये सब तुम्हारी ही तरह के गिरोह है। हमने किताब में कोई भी चीज़ नहीं छोड़ी है। फिर वे अपने रब की ओर इकट्ठे किए जाएँगे (क़ुरआन-6: 38) (Qur'an 6:38)

इस में अल्लाह नें स्पष्ट बयान किया है कि प्राणी (जानवर) और पक्षी मनुष्य के समान ही इसी गिरोह (समुदाय) के ही है। सभी रब की ओर इकट्ठे किए जाएँगे। अर्थात् निर्णायक दिन, सभी समान रूप से ईश्वर के प्रति जवाबदेह होगें। अपने गुनाहों का फल भी भोगेंगे और मनुष्य की तरह न्याय मांगने के अधिकारी होंगे।

हिंसाचार व मांसाहार इस्लाम की पहचान नहीं है। न ही इस्लाम का अस्तित्व, मात्र मांसाहार पर टिका है। इस्लाम का अस्तित्व उसके ईमान आदि सदाचारों से ही मुक्कमल है। हिंसा से तो कदापि नहीं। सच्चा त्याग अथवा कुरबानी, विषय वासनाओं, इच्छाओं और मोह के त्याग में है। मनुष्य होने के कारण पैदा हुई मालिकियत के साथ इस भाव कि - ‘प्राणी के प्राण हमारे हाथ’ की अहंतुष्टि के त्याग में है। क्योंकि यह तृष्णाएं ही हमें सर्वाधिक प्रिय लगती है। इन्ही प्रिय इच्छाओं का त्याग, सच्चे अर्थों में कुरबानी है।

हजरत इब्राहिम में लेश मात्र भी विषय-वासना आदि दुर्गुण नहीं थे। जब दुर्गुण ही नहीं थे तो त्यागते क्या? उन्हें पुत्रमोह था। मज़हब प्रचार के लिए उन्हें पुत्र से अपेक्षा थी इसलिए पुत्र ही उनका प्रियपात्र था।  सो उन्होंने उसे ही त्यागने का निर्णय लिया। पर आज हमारे लिए प्रिय तो हमारे ही दुर्गुण बने हुए है। हिंसाचार, दिखावा, धोखेबाज़ी को ही हमने हमारा प्रिय शगल बना रखा है। यही दुर्गुण त्यागने योग्य है। बलि दुर्गुणों की दी जानी चाहिए। निर्दोष निरीह प्राणियों की नहीं।



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    मंगलवार, 1 नवंबर 2011

    पशुबलि-कुरबानी , शाकाहार-मांसाहार , वैचारिक बहस- फ्री फॉर ऑल धर्मयुद्ध... बीचों-बीच फंसे (प्रवीण शाह) जिनके जेहन से उठते ११ सवाल... और उत्तर देंगे हम।

    ईद का पर्व निकट है। पिछले वर्ष लगभग इन्हीं दिनों कुछ लोगों ने 'ब्लॉगवुड' पर आरोप लगाया कि लोग बकरीद के आसपास 'जीव-दया' पर लिखने लगते है। श्री प्रवीण शाह ने तो ऐसा आरोप लगाते हुए 11 प्रश्नों की एक जटिल प्रश्नावली ही खडी कर दी। जिसे 'हलालमीट' नामक ब्लॉग पर भी प्रमुखता से छापा गया। यदपि प्रवीण शाह साहब की पोस्ट पर कई विद्वान टिप्पणीकारों ने युक्तियुक्त जवाब देकर, इन सारे प्रश्नों के औचित्य को ही निरस्त कर दिया था, और उनके उत्तर-प्रत्युत्तर में युक्तियुक्त निराकरण भी प्रत्यक्ष कर दिया था जिसके परिणाम स्वरूप प्रवीण शाह साहब को चुप्पी ओढ़ लेनी पड़ी थी। किन्तु हिंसावादी आज भी इन प्रश्नो को 'ला-जवाब' मानते हुए, बहुहिंसा के समर्थन में इसका प्रमुखता से प्रयोग करते है।

    हमनें मात्र 'कथनी' से ही इस का उत्तर देने के बजाय, 'करनी' से उदाहरण प्रस्तुत करने का निर्णय लिया। और मात्र बकरीद के दिन ही नहीं, वर्ष के 365 दिन 'जीव-दया' को प्रोत्साहित करने का लक्ष्य निर्धारित किया। 'शाकाहार जागृति अभियान' के लक्ष्य से  ‘निरामिष’ ब्लॉग के नियमित प्रकाशन-प्रसारण का संकल्प किया गया। इस प्रयास के द्वारा हमने अहिंसा के औचित्य को प्रमाणिक सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। हम यह स्पष्ट कर देना चाहते थे कि हम मात्र हिंसा की निंदा करके इस विषय की इति नहीं मानते, हम अहिंसा के सांगोपांग प्रवर्तक हैं हमें मात्र बकरीद के दिन ही अहिंसा नहीं सूझती बल्कि सदैव ही समस्त जीवजगत और जीवन के प्रति हम गम्भीर है। अहिंसा ही 'निरामिष' का प्रधान पैगाम है, सजगता का सन्देश है। यह प्रयत्न अनवरत जारी है, और तब तक जारी रहेगा जब तक, लोगों के दिलों में करूणा का सागर हिलोरें न लेने लगे।


    यह रहा, Saturday, November 20, 2010 में प्रकाशित प्रवीण शाह साहब की पोस्ट का शीर्षक:--
    “पशुबलि-कुरबानी , शाकाहार-मांसाहार , वैचारिक बहस- फ्री फॉर ऑल धर्मयुद्ध... बीचों-बीच फंसे हम और जेहन से उठते ११ सवाल... क्या उत्तर देंगे आप ?”

    जी हाँ, हम देंगे सभी प्रश्नों के न्यायसंगत, यथोचित और युक्तियुक्त उत्तर...........


    प्रवीण साहब का सवाल नं-1*** क्या यह सही नहीं है कि जीव-दया व मांसाहार निषेध के संबंधित आलेखों की बाढ़ ब्लॉगवुड में बकरीद के आस-पास ही आती है, जबकि थैंक्सगिविंग डे के दिन भी लाखों टर्की पक्षी बाकायदा भूनकर GOD को धन्यवाद देते हुऐ खा लिये जाते हैं बाकायदा customary 'Turkey Song' गाते हुए, और कहीं कोई पत्ता भी नहीं हिलता ?

    उत्तर : यदपि 'थैंक्सगिविंग 'अमेरिका महाद्वीप का स्थानीय पर्व है। तथापि उस पर्व के नाम पर होने वाली हिंसा भी अनुचित ही है। किन्तु, वह हिंसा हमारी अनदेखी हिंसा है। थैंक्सगिविंग की हिंसा हमारे द्वार तक आकर खड़ी नहीं हो गई, शायद इसी कारण ब्लॉगवुड में यह टर्की वाला मामला अभी गम्भीर प्रश्न बन खड़ा नहीं हुआ, अन्यथा विरोध अवश्य होता। अहिंसा और जीव-दया के लिए अगर लोग मुखर होते है, तो यह समस्त जीव जगत के हितार्थ सजग कर्तव्ययुक्त कार्य है । प्राणी कल्याण के इस मत्तम कार्य को मूढ़ बनकर बस हिंसा समर्थन का कोई तुक समझ नहीं आता। यह निर्विवाद है कि कोई भी उत्सव या धर्म क्रिया हिंसार्थक होती ही नहीं है। और न कोई ऐसा पवित्र उपदेश हो सकता है जो यह कह दे कि "हिंसा में धर्म है " अथवा धर्म प्रयोजन से हिंसा की अनुमति हो सकती है। हिंसा को ही अपने धर्म का पर्याय माननें वाला भला कैसा 'धर्म'?
    अब करते है कुर्बानी के अवसर पर ही विरोध की बाढ़ क्यों, तो जनाब यह व्यवारिक है कि जब आग लगती है, बुझाने के प्रयत्न तभी कारगर होते है। उसी तरह जब किसी कर्मकाण्ड में विशेष हिंसा होती है उसका विरोध भी तभी किया जाना चाहिए, अन्यथा बेमौसम की बरसात समान पानी व्यर्थ ही बह जाएगा।
    ज्ञातव्य रहे कि भारत के अनेक देवी मन्दिरों में बलिप्रथा को जन-जागृति से बन्द कराया गया है। तथापि जब 'हिंसा' की आस्था वाला कोई धर्म ही नहीं है तो 'हिंसा-विरोध' को किसी धर्म का विरोध कहकर आरोप ठोक देना असंगत है।

    प्रवीण साहब का सवाल नं-2*** क्या यह सही नहीं है कि बकरीद के दिन दी जाने वाली बकरे की कुर्बानी और रोजाना हलाल मीट की दुकान पर बिकते बकरे को मारने का तरीका बिलकुल एक जैसा ही है?

    उत्तर : तरीका भले एक सा हो, किन्तु यहाँ अन्तर 'मारी' और 'महामारी' का है। कुर्बानी में करोड़ों जीवों का एक ही दिन कटना, हिंसा का भीषण तांडव होता है,जो कठोर हृदय को भी विषादग्रस्त कर जाता है, करोडों का एक साथ वध देख-जानकर कोई कैसे जड़ बना रह सकता है? क्रूर हत्या का सार्वजनिक भौंडा प्रदर्शन, क्रूर व घातक कुंठा भावों को प्रगाढ़ बनाने का उद्देश्य ही विकृत मानसिकता भरा है। मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों में तो छोटे-बड़े, सुकोमल, नर-नारी का ख्याल किये बिना ,सार्वजनिक स्थलों पर ,अमानवीय तरीकों से कटते, तड़फ़ते, उछलते पशुओं का प्रदर्शन, नालियों में बहता रक्त, कई दिनों तक कूड़े के ढेरों पर पड़े  व्यर्थ (वेस्ट) अंग निश्चित रूप से बच्चों को यही शिक्षा देते हैं कि हिंसा और क्रूरता एक सामान्य सा कृत्य है, ऐसे दूषण साधारण बात है।
    वैसे हलाल (या झटका) मीट की दुकान पर रोज़ बिकने वाला मांस भी सामान्य नागरिक नियमों के अनुसार ओट में ही रखे जाने चाहिये। और पशु-हत्या तो किसी भी सूरत में सरेआम नहीं होनी चाहिये, ऐसा अधिकांश सभ्य समाजों का नियम है।

    प्रवीण साहब का सवाल नं-3*** क्या यह सही नहीं कि इस तरह के आलेख लिखने वाले महानुभावों का अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में न तो कोई मुस्लिम मित्र होता है न ही मुस्लिम समाज से उनका कोई संबंध होता है, यदि होता तो उन्हे यह ज्ञान हो जाता कि दया, ममता,करूणा आदि सभी मानवीय भावनायें एक मुसलमान के अंदर भी उतनी ही हैं जितनी उनके भीतर, आखिर हैं तो सभी इंसान ही ?

    उत्तर : कैसे भी और किसी भी माँसाहारी को जबरन मित्र बनाए रखने की भी कैसी विवशता? मित्रता में भी समान विचारों का भी तो कोई मूल्य होता है। मुस्लिम मेरे सहपाठी भी रह चुके हैं और मित्र भी हैं। कईं मुस्लिम है जो खाने पीने के मामले में मांसाहार को बिलकुल पसंद नहीं करते। वे अच्छी तरह जानते थे कि मांसाहार उनके परिवेश के साथ रूढ़ताके रूप में जुडा है,इस वास्तविकता के बाद भी वे स्वयं इसकी उपेक्षा करते थे। क्या जरूरी नहीं है मित्रता, माँसाहार को पसंद करने की शर्त पर ही  की जाय? पहले का प्रश्न है, मित्र बनाने का यह अर्थ नहीं होता कि मित्र की बुराईयां भी ज्यों की त्यों ग्रहण की जाय? मित्र के हर अच्छे या बुरे कृत्य का समर्थन ही किया जाय?  यदि हिंसक स्वभावी कोई मनुष्य मित्र न भी बने तो क्या फर्क पड़ना है? एक शाकाहारी को मित्रता के प्रलोभन में माँसाहार की झूठी संस्तुति करनी पडे तो वहाँ मित्रता ही कहाँ रह जाती है। सम्वेदनाहीन निष्ठुर व्यक्ति की मित्रता पर अपनी सहज दया, ममता, करूणा को बलि चढ़ावा चढ़ा देना कहाँ की बुद्धिमानी है। विवेक को सजग रखना नितांत आवश्यक है। जिसमें सम्वेदना, करूणा, अनुकम्पा, वात्सल्य आदि मानवीय गुण नहीं तो रूप - आकार - जाति से 'इन्सान' कहलाने मात्र से क्या होता है?  

    प्रवीण साहब का सवाल नं-4*** क्या यह सही नहीं कि ' फ्राइड चिकन चंक्स ' को बड़े शौक से खाने वाले कुछ लोग चिकन को काटना तो दूर कटते देख भी नहीं सकते क्योंकि उन्हें अपनी पैंट गीली करने का डर रहता है ?

    उत्तर : जो सज्जन कटते हुए प्राणी को नहीं देख सकते ,उनमें निश्चित ही हत्या के प्रति सम्वेदनाओं के ज्ञानतंतु जीवित होते है। और उनमें तो अतिशय कोमल भावनाएँ होती है, जिन्हें कटता देखकर पेंट गीली हो जाने की भीति हो जाय। पापभीरूता करूणा युक्त कोमल मनोभावना की अभिव्यक्ति होती है। 'फ्राइड चिकन चंक्स' को बड़े शौक से खाने वाले भी जो कुछेक लोग चिकन का कटना नहीं देख पा रहे तो समझ लेना कि उनमें दुष्कर्म समझने का विवेक अभी भी निष्क्रीय नहीं हुआ है। उनमें नासूर बनी हुई सम्वेदनाओं में आद्रता अभी शेष है। देर-सबेर ही सही, ऐसे मानवों के हृदय में करूणा के अंकूर अवश्य फूटेंगे। दया के फूल अवश्य फलेंगे फूलेंगे।

    प्रवीण साहब का सवाल नं-5*** क्या यह सही नहीं है कि आज भी किसी पार्टी या दावत में यदि कोई नॉनवेज पकवान बना होता है तो सर्वाधिक भीड़ उसी काउंटर पर होती है ?

    उत्तर : इससे साबित क्या होता है? अगर ऐसे लोगों की संख्या अधिक है तो क्या अनुकरणीय हो गई? अधिसंख्या उत्तमता का पर्याय नहीं है। जबकि दूसरी तरफ सच्चाई यह है कि सारे संसार में शाकाहार और जीवदया के प्रति जागृति बढ रही है, लोग स्वेच्छा से दूर रहना पसंद करते है। निरामिष पर पहले ही इस विषय में कई तथ्य सामने रखे जा चुके हैं और आगे भी आते रहेंगे।

    प्रवीण साहब का सवाल नं-6*** क्या यह सही नहीं है कि प्रागैतिहासिक काल, पुरा पाषाण काल से लेकर आधुनिक काल तक मानव जाति अपना वजूद समूह में शिकार कर प्राप्त किया भोजन ग्रहण कर ही बचा पाई है, और इसी सामूहिक शिकार की आवश्यकताओं के कारण भाषा व कालांतर में मानव मस्तिष्क का भी विकास हुआ ?

    उत्तर : नई वैज्ञानिक जानकारियों से यह बात साबित हुई है कि मानव प्रागैतिहासिक काल में भी शाकाहारी था। और विकास के दौर में भी मानव ने सभ्यता के लिए हिंसकता का परित्याग किया है। यदि पूर्व में मानव जाति शिकार द्वारा ही अपना अस्तित्व बचा पाई होती तो आज जब शिकार आदि नहीं हो रहे, मानव जाति कैसे बची रह गई? और अब तो सामुहिक शिकार भी सम्भव नहीं रहा, तो फिर अब तक मानव मस्तिष्क का विकास अवरुद्ध क्यों नहीं हो गया? हिंसा किसी भी काल में विकास का औजार नहीं रही, हिंसा के आधार से इन्सान ने कभी भी विकास नहीं साधा, हिंसा तो एकमात्र अशान्ति का कारण और विनाश का मूल है।

    प्रवीण साहब का सवाल नं-7*** क्या यह सही नहीं कि आततायी और आक्रमणकारी के द्वारा किये जा रहे रक्तपात को रोकने के लिये भी जवाबी रक्तपात की आवश्यकता होती है ?

    उत्तर : रक्तपात सुरक्षा की गारंटी नहीं है। रक्तपात तो आपस में ही लड़ मरने की, वही आदिम-जंगली शैली है। रक्तपात को कभी भी शान्ति कारक समाधान नहीं माना गया। हिंसा कभी भी, किसी भी समस्या का स्थाई हल नहीं होती और न हो सकती है। चिरस्थाई हल हमेशा चिंतन, मनन, मंथन और समझोतों से ही उपजते हैं।

    प्रवीण साहब का सवाल नं-8*** क्या यह सही नहीं है कि कुछ मध्यकालीन अहिंसावादी, जीवदयावादी धर्मों-मतों के प्रभाव में आकर भारतीय जनमानस इतना कमजोर हो गया था कि हम कुछ मुठ्ठी भर आक्रमणकारियों का मुकाबला न कर पाये और गुलाम बन गये ?

    उत्तर : मध्यकालीन आक्रांता तो धर्म-कर्म-जात आदि से केवल और केवल आक्रमणकारी ही थे, उनकी कोई नैतिक युद्धनीति नहीं थी। उनका सिद्धांत मात्र बर्बरता ही था। उनका सामना करने की जिम्मेदारी अहिसावाद,जीवदया या करूणा से प्रभावित लोगों की नहीं, बल्कि मांसाहारी राजपूत सामंतो व क्षत्रिय योद्धाओं की थी। जब वे भी सामना न कर पाए तो अहिंसावादी, जीवदयावादीयों को जिम्मेदार ठहराना हिंसावादियों की कायरता छुपाने का उपक्रम है। शौर्य और वीरता कभी भी मांसाहार से नहीं उपजती। न वीरता प्रतिहिंसा से प्रबल बनती है। वीरता तो मात्र दृढ़ मनोबल और साहस से ही पैदा होती है। इतिहास में एक भी प्रसंग नहीं है जब कोई यौद्धा अहिंसा को कारण बता, पिछे हटा हो। यथार्थ तो यह है कि युद्ध-धर्म तो दयावान और करूणावंत भी पूरे उत्तरदायित्व से निभा सकता है। और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आक्रमण और पराजय का खेल केवल भारत में नहीं खेला गया है। सारी दुनिया में कोई भी जाति यह दावा नहीं कर सकती कि वह सदा अजेय रही है। क्या वे सभी जातियाँ शाकाहारी थीं? गुलामी और हार का सम्बन्ध, शाकाहार या अहिंसा से जोड़ने का आपका यह प्रयास आधारहीन है। इस तथ्य को भी नहीं भूलना चाहिए कि कुछ सौ साल की गुलामी से पहले भारत में हज़ारों साल की स्वतंत्र,सभ्य और उन्नत संस्कृति का इतिहास भी रहा है।

    प्रवीण साहब का सवाल नं-9*** क्या यह सही नहीं है कि आज के विश्व में लगभग सभी विकसित या तेजी से विकसित होने की राह पर बढ़ते देशों व उनके निवासियों में मांसाहार को लेकर कोई दुविधा या अपराधबोध नहीं है ?

    उत्तर : कृपया असत्य पर आधारित ऐसा व्यापक वक्तव्य (जनरल स्टेटमेंट) न दें। यह सही नहीं है कि लगभग सभी विकसित या तेजी से विकसित होने की राह पर बढ़ते देशों व उनके निवासियों में मांसाहार को लेकर कोई दुविधा या अपराधबोध नहीं है। हम एक बहु-विविध विश्व में रहते हैं। अमेरिकी घोड़ा खाना पाप समझते हैं, जापानी साँप खाने को हद दर्ज़े का जंगलीपन मानते हैं, भारतीय मांसाहारी गाय को अवध्य मानते रहे हैं जबकि मुसलमान सुअर नहीं खाते। मतलब यह कि मांसाहार लगभग हर भौगोलिक-सामाजिक क्षेत्र में अनेक प्रकार के अपराधबोधों से ग्रस्त है। और कुछ नहीं तो हलाल-झटका-कुत्ता का ग्लानी भरा झंझट तो व्याप्त है ही। यह भी उतना ही सत्य है कि ऐसे प्रत्येक देश विदेशों में कम ही सही पर कुछ लोग न केवल शाकाहार का समर्थन करते हैं बल्कि वे उसे ही बेहतर मानते हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ कि ऐसा वे किसी भारतीय के कहने पर नहीं करते। विख्यात 'द वेजेटेरियन सोसायटी' अस्तित्व में आयी है, बेल्जियम के गेंट नगर ने सप्ताह में एक दिन शाकाहार करने का प्रण लिया है। ब्रिटेन व अमेरिका के अनेक ख्यातनाम व्यक्तित्व न केवल शाकाहारी हैं बल्कि पेटा आदि संगठनों के साथ जुड़कर पूरे दमखम से शाकाहार और करुणा का प्रचार-प्रसार करने में लगे हैं। वीगनिज़्म का जन्म ही भारत के बाहर हुआ है। इथियोपिया से चलकर विश्व में फैले ‘रस्ताफेरियन’ पूर्ण शाकाहारी होते हैं। भारी संख्या में 'सेवेंथ डे एडवेंटिस्ट' भी शाकाहारी हैं।

    प्रवीण साहब का सवाल नं-10*** क्या यह सही नहीं है कि आहार विज्ञानी एक मत से यह मानते हैं कि आदर्श संतुलित आहार में शाकाहार व मांसाहार दोनों का समावेश होना चाहिये ?

    उत्तर : यह निष्कर्ष दुर्भावना से गढ़ा गया प्रतीत होता है। ऐसी किसी शोध का अस्तित्व ही नहीं है जिसमें समस्त आहार विज्ञानियों ने एकमत से घोषित किया हो कि सन्तुलन के लिए, उभय आहार यानि शाकाहार व मांसाहार दोनो जरूरी है। शुद्ध शाकाहारी भी सर्वांग सुदीर्घ स्वस्थ जीवन जीते रहे है। और वे मात्र शाकाहार से ही सन्तुलित पोषण प्राप्त करते रहे है। पोषण संतुलन के लिए मांसाहार का तिल भर भी समावेश जरूरी नहीं है। शतायु धावक फौजा सिंह हों चाहे 331 सप्ताह तक विश्व की नंबर एक टेनिस खिलाड़ी रही स्टेफ़ी ग्राफ आदि अनेक शाकाहारियों ने खेल के क्षेत्र में अपने झंडे गाढे हैं। आप शायद सोचते होंगे कि किसी खिलाड़ी के ग़ैर-बौद्ध/जैन/ब्राह्मण होने भर से यह सिद्ध हो गया कि वह मांसाहारी ही होगा। आजकल सारी दुनिया में खिलाड़ियों के पोषण पर बहुत ध्यान दिया जा रहा है और उनका भोजन तेज़ी से शाकाहार की ओर अग्रसर होता जा रहा है।

    प्रवीण साहब का सवाल नं-11*** और क्या यह भी सही नहीं है हम चाहे शाकाहारी हों या मांसाहारी, By birth हों या By choice , दोनों ही स्थितियों में हमें कोई ऐसा ऊंचा नैतिक धरातल नहीं मिल जाता कि हम दूसरे को उसके आहार चयन के कारण उसे सीख दें या उसे अनाप-शनाप, आसुरी स्वभाव वाला या पशुवत कहें ?

    उत्तर : सहमत हूँ, सत्य हो तब भी मर्मभेदी शब्दों का प्रयोग नहीं होना चाहिए, हित प्रियता से बात कहना फलदायक हो सकता है। किन्तु आहार चयन के प्रति जागरूकता के लिए सीख (जानकारी) देना कैसे अनुचित  हो सकता है। अहिंसक जीवन मूल्यों के प्रति क्यों न जागृति भरी सीख दी जाय? शाकाहार सजगता में श्रेष्ठता का भाव नहीं, हितचिंतन के प्रयोजन से कल्याण का भाव है। शाकाहारी व्यक्ति विशेष श्रेष्ठ नहीं, अहिंसा व नैतिकता भाव श्रेष्ठ है। व्यक्ति समाज या धर्म नहीं, करूणा का गुण उत्कृष्ट है। शुभभाव चाहे किसी भी धरातल पर हो,सदैव उँचे और श्रेष्ठ ही रहने है, अहिंसावृति को हमेशा दैवीय सम्मान मिलता है, और मिलता रहेगा। दया करूणा के भावों में, श्रेष्ठता के अस्तित्व को कोई चुनौति नहीं हो सकती।

    समाज को सार्थक योगदान तभी है जब, जहां कहीं भी हिंसा को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रोत्साहन नजर आए, समय रहते हिंसा का पूरजोर विरोध किया जाना चाहिए। क्योंकि ऐसा करना, मानव सभ्यता और शान्ति की दरकार है।

    इस प्रश्नोत्तरी को परिपूर्ण करनें में सहयोग के किए श्री अनुराग शर्मा जी का विशेष आभार!