बुधवार, 17 अक्टूबर 2012

विज्ञान के युग में क़ुरबानी पर ऐतराज़ क्यों


मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान साहब का एक लेख है विज्ञान के युग में क़ुरबानी पर ऐतराज़ क्यों? । आपने विभिन्न तर्क लगाके पशुबलि को वैज्ञानिक तथ्य प्रतिपादित करने का प्रयास किया है।

वस्तुत: हिंसा या हत्या को व्यवहार स्थापित करना विज्ञान के क्षेत्र का नहीं है और न हिंसा में कोई वैज्ञानिक तथ्य हो सकता है। भला विज्ञान कैसे 'प्रतीक' को  'यथार्थ' के समकक्ष खडा कर सकता है? किन्तु प्रस्तुत लेख में इस प्रतिकात्मक रूढ़ि से पडने वाली प्रभावशीलता को वैज्ञानिक सत्य के नाम पर अनुकरणीय प्रतिपादित किया जा रहा है। आईए, इन तथ्यों की समीक्षा करते है। विज्ञान के युग में कुर्बानी पर ऐतराज़ क्यों ? में वे लिखते है-

Killing a sensation is sin and vice versa .

"यह नज़रिया यक़ीनी तौर पर एक बेबुनियाद नज़रिया है। इसका सबब यह है कि मौजूदा दुनिया में यह सिरे से क़ाबिले अमल ही नहीं है, जैसा कि इस लेख में दूसरे मक़ाम पर बयान किया जाएगा। जीव को मारना हमारा अख्तियार (Option) नहीं है। इनसान जब तक ज़िन्दा है, वह जाने-अन्जाने तौर पर असंख्य जीवों को मारता रहता है। जो आदमी इस ‘पाप‘ से बचना चाहे, उसके लिए दो चीज़ों में से एक का अख्तियार (Option) है। या तो वह खुदकुशी करके अपने आप को ख़त्म कर ले या वह एक और दुनिया बना ले जिसके नियम इस मौजूदा दुनिया के नियमों से अलग हों।"

सच्चाई तो यह है कि मात्र इन दो अख्तियार (Option) तक सीमित होने की सोच ही  बेबुनियाद है। मात्र दो विकल्प पेश करते हुए, तीसरे सुगम विकल्प का सर्वथा गोपन किया जा रहा है। जबकि वह तीसरा विकल्प ही सर्वाधिक व्यवहार्य है। वह विकल्प है- जहाँ तक सम्भव हो अनावश्यक हिंसा से बचना। सम्भावित पाप-कर्म को भरसक परिहार्य समझना। जहाँ तक बस में हो, ऐसे  गैरजरूरी पाप/हिंसा से इंसानी रुह को पूर्णतया महरूम रखा जाय। अपनी आत्मा को मजबूरन अनर्थदँड (गैरजरूरी सजा न्योतने) का भागी न बनाया जाय।

इस तरह जिस सहज विकल्प का उल्लेख ही नहीं किया जा रहा, वस्तुतः वह तीसरा विकल्प ही सर्वाधिक सहज, सरल और व्यवहारिक विकल्प है। साधारण सी बात है, क्यों अनावश्यक जीवहिंसा में फंसना चाहिए। व्यवहार अधिक से अधिक पाप से सुरक्षित रहने में है। यही विवेक है और विवेकपूर्वक कर्म करना ही सद्कर्म है। "मरूँ या मारूँ" ऐसे दो  विकल्प तो सरासर आदिम जँगली और मूर्खता भरे है। मौजूदा दुनिया तो सभ्य है, सुसंस्कृत है। आधुनिक विकास मॉडल तो  विकृति से विकास की ओर सुचारू सुधार गति का  है। यह पूर्णत: वैज्ञानिक पद्धति है जिसमें  मानव ने जंगली नियमो के विकारों को दूर कर सभ्य नई दुनिया बनाई ही है। इसलिए चाहे सूक्ष्म जीव, कीट आदि का गैरजरूरी विनाश करने से आज का मानव बचता ही है, जितना भी और जिस किसी उपाय से, अनावश्यक हिंसा से बचा जा सकता है, हिंसा से बचने की मनोवृति होनी चाहिए।


It is an external manifestation of internal spirit .

"आदमी के अंदर पांच क़िस्म की इंद्रियां ; (senses) पाई जाती हैं। मनोवैज्ञानिक अनुसंधान से पता चला है कि जब कोई ऐसा मामला पेश आये जिसमें इनसान की तमाम इंद्रियां शामिल हों तो वह बात इनसान के दिमाग़ में बहुत ज़्यादा गहराई के साथ बैठ जाती है। कुरबानी की स्पिरिट को अगर आदमी सिर्फ़ अमूर्त रूप में सोचे तो वह आदमी के दिमाग़ में बहुत ज़्यादा नक्श नहीं होगी। कुरबानी इसी कमी को पूरा करती है। जब आदमी अपने आपको वक्फ़ करने के तहत जानवर की कुरबानी करता है तो उसमें अमली तौर पर उसकी सारी इंद्रियां शामिल हो जाती हैं। वह दिमाग़ से सोचता है, वह आंख से देखता है, वह कान से सुनता है, वह हाथ से छूता है, वह कुरबानी के बाद उसके ज़ायक़े का तजर्बा भी करता है। इस तरह इस मामले में उसकी सारी इंद्रियां शामिल हो जाती हैं। वह ज़्यादा गहराई के साथ कुरबानी की भावना को महसूस करता है। वह इस क़ाबिल हो जाता है कि कुरबानी की स्पिरिट उसके अन्दर भरपूर तौर पर दाखि़ल हो जाए। वह उसके गोश्त का और उसके खून का हिस्सा बन जाए।"

बिलकुल मनुष्य के सोचने, समझने, धारणा बनाने व संकल्प करने में इन पांचो इन्द्रियों का योगदान होता है। क्योंकि  मन पांचों ज्ञानेंद्रियों अथवा पांचों ही विषय के अधीन है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मन पांचों ज्ञानेंद्रियों से प्रभावित और पोषित होता है। यह यथार्थ है पांचो इन्द्रिय विषयों के कारण मन उसी दिशा में सक्रिय रहता है। इसलिए कृत्य अगर क्रूरता भरा है तो सभी इन्द्रियों के वशीभूत मानस  भी क्रूरता भरा ही बनेगा। जब मानसिकता और वर्तन  क्रूर होगा तो मनोवृति भी निश्चित ही क्रूर ही होगी। निसंदेह हिंसा के कृत्य से क्रूर भाव ही दृढ होंगे, समर्पण के भाव नहीं। इन्ही कृत्यों में अन्न की लाक्षणिकता देकर  कहा जाता है- “जैसा अन्न वैसा मन”। ‘जैसा अन्न’ में उसके उपादान, उत्पादन सहित कृत्य विधि भी समाहित होती है।

किन्तु, जो कोई भी, पशु को बंधनो से जकड़कर, उसकी हत्या करते हुए, उसके अंगभंग करते हुए, टुकड़े टुकडे करके फिर उसे आहार बनाते हुए, भला त्याग और समर्पण का चिंतन कर भी कैसे सकता है? ऐसी क्रूर क्रिया में गहराई से 'कुरबानी'(समर्पण) की भावना कैसे महसूस करेगा? कानों से वह पशु का मरणांतक आक्रन्द सुनेगा, आंखों से वह भयंकर और जीवंत प्राणांत होते देखेगा,  मरण क्रिया की तड़प व रक्तमांस के लोथडे देखेगा। नाक से वह रक्त-मांस, मल-मूत्र की दुर्गन्ध पाएगा। स्वाद लेते हुए भी उसे तड़पता पशु ही याद आएगा। स्पर्श से भी जिजीविषा के लिए आर्तनाद भरी धड़कन महसुस करेगा। उसमें 'कुरबानी'(समर्पण) की स्पिरिट कहाँ से आएगी? उलट हत्या करने से पहले, उसे अपनी संवेदनाओं की ही हत्या करनी पडेगी। क्रूर मनस्थिति पैदा किए बिना वह इस हिंसक कृत्य में प्रवृत ही नहीं हो सकता। और यह सब कुछ करते हुए उसमें कसाई भाव स्थापित होंगे, करूण भाव नहीं। इस क्रिया से दूसरे जीव की तड़प के प्रति निष्ठुर तो बना जा सकता है किन्तु अपने मन-मस्तिष्क में बलिदान और समर्पण के भाव तो कभी भी उत्पन्न नहीं कर सकता। यदि वह अपने स्वयं के साथ ऐसी ही क़ुरबानी की कल्पना करे तब भी समर्पण की जगह भयक्रांत हो दहल उठेगा। इस पूरी हिंसा कार्यविधि में त्याग नहीं, हिंसा की भावनाएं ही प्रबल बनती है।

मात्र प्रतीक से आचरण के समान निष्ठापूर्ण समर्पण सम्भव नहीं है। जब बलिदान में त्याग का यथार्थ आचरण ही नदारद हो तो कैसा त्याग? प्रतीक मायावी मूर्त छाया है, दिखावे से कहीं कर्तत्व निभता है। त्याग आचरण की वस्तु है जानवर की जान त्याग को अपना त्याग बताना तो छल है, यह अपनी जान के बदले निरीह पशु की जान आगे करना तो यकिनन छलपूर्ण प्रदर्शन है। प्रतिकात्मकता में ये कैसी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता?

यह सच है कि प्रत्येक कर्म का भावनात्मक प्रभाव (मनो)वैज्ञानिक कारण है। प्रभाव का होना विज्ञान सिद्ध है किन्तु  प्रभाव भी तो वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक रीति-नीति से पडेगा। यह तथ्य विज्ञान सम्मत है कि नकारात्मक कृत्य का प्रभाव  नकारात्मक परिणामी ही होता है। अब  इस में कोई शक नहीं कि हत्या व हिंसा से त्याग बलिदान या समर्पण की भावनाएँ उत्पन्न नहीं होती। इस सत्य की अवैज्ञानिकता से उपेक्षा की जा रही है। यथार्थ तो यह है कि हत्या व हिंसा से क्रोध, अहंकार व द्वेष की ही भावनाएँ पैदा होती है।

सच्चा बलिदान अथवा कुरबानी, विषय वासनाओं, इच्छाओं और मोह के त्याग में है। महज मनुष्य होने के कारण पैदा हुए इस दर्प में नहीं कि जानवर पर मेरा मालिकाना हक है, मै चाहुं वैसे उसका उपयोग कर सकता हूँ।  और अपने बलिदान के एवज में उसकी जान धर सकने का अधिकार रखता हूँ। यह त्याग नहीं उलट अहंकार है। द्वेष, क्रोध, अहंकार, कपट ,लोभ आदि तो दुर्गुण है। हिंसाचार, दिखावा, धोखेबाज़ी को ही हमने हमारा प्रिय आचरण बना रखा है। यह सभी कषाय, तृष्णाएं और इन्द्रिय वासनाएं ही हमारी आसक्ति है। जो हमें सर्वाधिक प्रिय लगती है। इन्ही प्रिय तृष्णाओं का त्याग, सच्चे अर्थों में कुरबानी है। प्राथमिकता से यही दुर्गुण त्यागने योग्य है। बलि दुर्गुणों की दी जानी चाहिए, निर्दोष निरीह प्राणियों की नहीं।

विज्ञान नें शताब्दियों संघर्ष के बाद सभ्यता युक्त  सुख-सुविधा के उपाय जुटाए है और यह समस्त शोध- उपक्रम मानवजीवन में शान्ति और संतुष्टि लाने के महान उद्देश्य से हुआ है। यह बात अलग है कि इस बीच हिंसक मानसिकता द्वारा शस्त्रों के आविष्कार भी हुए, किन्तु कुल मिलाकर अधिकांश खोज शान्तियुक्त जीवन के प्रयोजन से ही हुई है। ऐसे विज्ञान-युग में जंगली, अशान्त और हिंसक अवधारणा की पुनः स्थापना रूप  मंशा पर क्यों न एतराज़ किया जाय?

29 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही विस्तृत बढ़िया लेख

    पर ये लोग भी क्या करे जब इस नीच परम्परा को इस्लाम से जोड़ किया गया है .खास बात ये है कि जितने भी एक्स्ट्रा बुद्धिमान मुस्लिम भाई है वो पता नही क्या क्या फालतू के तर्क देकर इस बात को साबित करना चाहता है

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  2. आपके दिए लिंक से जो लेख खुल रहा है - वह लखनऊ ब्लोगर असोसिएशन का है, जहां से एक दूसरा लिंक "क़ुरबानी पर ऐतराज़ क्यों" का है - जो एक लम्बे लेख पर खुलता है जिसमे इस्लाम की तारीफें भरी पडी हैं | इस लेख को नीचे तक पढ़ते जाने के बाद एक नन्हा सा अनुच्छेद है जिसमे "वैज्ञानिक" तर्क (कुतर्क ?) दिए गए दिखते हैं |

    मेरे कुछ प्रश्न - उन लोगों से - क्योंकि मेरी टिप्पणियां तो वह ग्रुप डिलीट कर देता है - और वे यहाँ अवश्य पढेंगे - तो यही रख रही हूँ |

    १. आप यदि हिंसा / अहिंसा को विज्ञान के अनुसार देखना चाहते हैं - तो विज्ञान तो सिरे से अल्लाह के अस्तित्व को ही नकारता है - क्या आप इसे भी "विज्ञान के अनुसार" स्वीकारते हैं ? क्योंकि जिस "विज्ञान" का आप हवाला दे रहे हैं - वही विज्ञान यह भी तो कहता है न, कि दुनिया किसी अल्लाह ने नहीं बनाई - यह अपने आप बिग बैंग / गॉड पार्टिकल आदि आदि से बनी ? फिर क्या विज्ञान के कहने से आप यह मान लीजियेगा ?

    २. विज्ञान के अनुसार तो मानव और बकरे का शरीर एक ही है ( vertebral mammals ) - सिर्फ बुद्धि भर का फर्क है | तो क्या आप मानव मांस को भी / मानव बलि को भी स्वीकारते हैं ? क्योंकि आपके जिन पैगम्बर के नाम पर आप यह "कुर्बानी की प्रतीकात्मक परम्परा" बनाये और पकडे हुए हैं [quote from the article " हज़रत इबराहीम की ज़िन्दगी का प्रतीकात्मक प्रदर्शन (Symbolic performance) है।" - वे तो अपने "बेटे" को कुर्बान करने गए थे | क्या आपने भी अपने बेटे की कुर्बानी दे कर उसे खाने के बारे में सोचा है ?

    continued ...

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  3. बलि दुर्गुणों की दी जानी चाहिए, निर्दोष निरीह प्राणियों की नहीं..............agreed hundred percent.

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  4. जीव हत्या का महिमामण्डन कभी भी मानवीय नहीं कहा जा सकता। ध्यान दिलाते रहिय, जिनकी आँख खुल जाये, उनके लिये सवेरा!

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  5. And this Maulana is called 'Sahabzada i.e. better one' of the Arab supremacy cult!

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  6. बहुत ही सधा हुआ आलेख और सन्देश सम्प्रेषण में सक्षम.. तर्कसंगत.. सुज्ञ जी आपके इस सद्प्रयास को नमन!!

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  7. पहली बात कोई मुसलमान मास खाए बिना भी एक अच्छा मुस्लमान रह सकता है। मॉस खाना इस्लाम मैं फ़र्ज़ नहीं है।

    लेकिन
    अल्लाह तालहा ने फ़रमाया है कुरआन में सूरा माइदा में:-
    (सूरा नम्बर 5 आयत नम्बर 1) ''
    हमने चार पैर वाले जानवर बनाये हैं तुम्हारे खाने के लिए ,सिर्फ वह जानवर मत खाओ जिनको हमने मना किया है। जो जानवर खाने में हराम हैं वह मत खाओ।

    इसी तरह सूरा नहल (सूरा नम्बर 16 आयत नम्बर 5)
    में अल्लाह तालह फरमाते हैं हमने भेड़ -बकरियाँ बनाई आप उनका गोश्त खा सकते हो .
    इसके अलावा भी कई आयाते हैं।

    अब जवाब उनके लिए जो भाई इसको विज्ञान के तर्क से परखना चाहेंगे

    01.आज का विज्ञानं यह कहता है कि इंसान को जिंदा रहने के लिए तकरीबन 22 तरह के अमीनो एसिड की ज़रुरत पड़ती है .
    जिनमे से 8 अमीनो एसिड हमारे जिस्म मैं पैदा नहीं होते हैं।इनको बहार के खाने से ही लिया जा सकता है।और किसी भी शाक -सब्जी में यह 8 के 8 अमीनो एसिड नहीं मिलते हैं।लकिन यह 8 के 8 एमिनो एसिड मॉस और मछली में होते हैं

    02. दूसरी बात जो जानवर शाकाहारी हैं उनके दात चपटे होते हैं (herbivorous flat teeth). वह जानवर सिर्फ घास -फूस खा सकते हैं मॉस नहीं खा सकते हैं।
    अब आप उन जानवरों को देखो जो सिर्फ मॉस खाते हैं घास-फूस नहीं खाते हैं।उनके दात नुकीले होते हैं (set of pointed teeth) वह सिर्फ मॉस खा सकते हैं घास-फूस नहीं खा सकते हैं।

    03.अब आप ज़रा अपने (ह्यूमन )दात देखो .....यह चपटे भी हैं और नुकीले भी। अगर अल्लाह तालह चाहते की इंसान सिर्फ शाक -सब्जी ही खाए तो यह नुकीले दात इंसान को अल्ल्लाह ने क्यों दिए ?

    04. अब ज़रा शाकाहारी जानवरों की पाचन क्रिया (digestive system) को देखो उनका पाचन तंत्र ऐसा है की सिर्फ घास-फूस ही हज़म कर सकते हैं मॉस हज़म नहीं कर सकते हैं।

    05. अब उन जानवरों का पाचन तंत्र (digestive system) देखो जो मासंहरी हैं
    उनका पाचन तंत्र सिर्फ मॉस को ही हज़म कर सकता है .घास-फूस हज़म नहीं कर सकता।

    06.अब ज़रा अपना (ह्यूमन )पाचन तंत्र (digestive system) देखो यह शाक सब्जी भी हज़म कर लेता है आसानी से और मॉस भी अगर अल्लाह तालह चाहते की इंसान सिर्फ शक- सब्जी ही खाए तो फिर ऐसा पाचन तंत्र क्यों दिया ?

    हमारे कुछ भाई यह समझते हैं की हिन्दू धर्म में मॉस खाना हराम हैं।

    अगर आप पढेंगे हिन्दू धर्म की किताब ''मनुस्मरती '' अध्याय नम्बर 5, शलोक नम्बर 30 तो उसमे लिखा है की
    ''भगवान् ने कुछ जानवर को खाने के लिए बनाया है और कुछ को खा जाने के लिए ''
    अगर आप उन जानवरों को खाते हैं जो भगवान् ने खाने के लिए बनाये हैं तो आप कोई पाप नहीं करते हैं।
    अगले शलोक मैं लिखा है मनुस्मरती अध्याय नम्बर 5, शलोक नम्बर 31 में की अगर आप जानवर का कत्ल पूजा के लिए करते हैं तो आप कोई गुनाह नहीं कर रहे हैं

    इसी तरह से मनुस्मरती में आगे लिखा है अध्याय नम्बर 5, शलोक
    नम्बर 39-40 में की भगवान् ने कुछ जानवरों को बनाया है कुर्बानी के लिए इनकी क़ुरबानी दी जा सकती है और इनको खाया जा सकता है।

    इसके अलावा ऋग वेद (Book no.10 Hymn no.85, vol.13)
    में लिखा है की आप भैस भी खा सकते हैं।

    अब ज़रा महाभारत से देखते हैं (जिसको हमारे हिन्दू भाई सबसे ज्यादह पढ़ते हैं )-
    ''महाभारत '' 'अनुशासन पर्व' अध्याय नम्बर 88 में पांडव के सबसे बड़े भाई यूधिस्टर भीष्म से कहते हैं की हम 'यग' में क्या देंगे की हमारे पूर्वज (पूरखे ) सदा के लिए संतुष्ट रहे ?
    भीष्म जवाब देते हैं की अगर आप शाक -सब्जी ,फल देंगे तो हमारे पूर्वज एक महीने तक संतुष्ट रहेंगे . अगर आप मछली देंगे तो दो महीने तक ,अगर गोश्त देंगे तो तीन महीने तक ,खरगोश देंगे तो चार महीने तक ,बकरी देंगे तो पांच महीने तक ,हिरन देंगे तो आठ महीने तक ,इसी तरह से अगर आप भैस देंगे तो ग्यारह महीने तक और अगर गाए देंगे तो पूरे एक साल तक संतुष्ट रहंगे .

    .

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    उत्तर
    1. 01.फिर बताओ भला माँस मच्छी न खाने वाले शुद्ध शाकाहारी हजारों साल से जिन्दा कैसे है?, जिन्दा छोडो अधिक स्वस्थ और लम्बे आयुष्य वाले होते है। यह देखें……

      आहार : पोषण मूल्यों का तुलनात्मक अध्ययन http://niraamish.blogspot.com/2011/09/comparison-study-of-nutritional-values.html
      ऑमेगा 3 व ओमेगा 6 वसीय अम्ल http://niraamish.blogspot.com/2012/02/vegetarian-health-guide-omega-3-6.html
      केवल शाकाहार से पोषक मूल्यों का पूर्ण संतुलन http://niraamish.blogspot.com/2011/09/nutritive-value-of-vegetarian-foods.html

      02. से 06. दांत और आंत

      मनुष्य शाकाहारी या माँसाहारी....? http://niraamish.blogspot.com/2011/01/blog-post_26.html
      मानव शरीर संरचना शाकाहार के ही अनुकूल http://niraamish.blogspot.com/2011/07/blog-post_25.html

      हमारे कुछ भाई यह समझते हैं की हिन्दू धर्म में मॉस खाना हराम हैं।

      हाँ! माँस खाना अधर्म मानते है।
      • अहिंसा की गंगोत्री http://niraamish.blogspot.com/2011/01/shlokas-prove-non-violence-in-vedas.html
      • जीवरक्षा क्यों? - http://niraamish.blogspot.com/2012/06/blog-post_28.html
      • जीवों की हत्या करना ही अधर्म है। http://niraamish.blogspot.com/2012/10/quotes-on-non-violence-ahinsa.html
      • यज्ञ हो तो हिंसा कैसे ।। वेद विशेष ।। http://niraamish.blogspot.com/2011/12/blog-post.html
      • वैदिक यज्ञों में पशुबलि---एक भ्रामक दुष्प्रचार http://niraamish.blogspot.com/2011/11/blog-post.html
      • वैदिक संस्कृति और माँसाहार ??? http://niraamish.blogspot.com/2011/12/blog-post_09.html

      हटाएं
    2. @अगर कोई सोचता है की वह बिना जीव हत्या किए जिंदा है उसको ''Psychiatre'' की ज़रुरत है ... ;)

      और अगर कोई यह सोचता है कि जब वनस्पति में भी जीवन है और जानवर में भी जीवन है तो क्यों न जानवर की ही हत्या की जाय तो ऐसे विकारी दिमाग का तो ईलाज भी सम्भव नहीं। क्योंकि यह विकृत मानसिकता जीवन के संदर्भ में कल जानवर के जीवन और इन्सान के जीवन में भी भेद नहीं करेगी। इस क्रूर और विकृत मानसिकता का तो ''Psychiatre''भी कुछ नहीं कर पाएगा।

      @अगर कोई इस्लाम को जानना चाहता हैं तो उसे कुरान पढ़ना ज़रूरी है । न की मुसलमानों को देखना ..

      इस्लाम के उपदेशों का क्या प्रभाव है यह सुनिश्चित करने के लिए उसके फोलोअर (मुसलमानों )के जीवन पर पडे असर और परिणामों को जांचना ही होगा। मुसलमानों के आचरण को देखना जरूरी है कि आखिर वे उपदेश क्या रंग लाते है।

      सुज्ञ द्वारा निरामिष के लिए 19 अक्तूबर 2012 10:55 pm को पोस्ट किया गया

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    3. @01.फिर बताओ भला माँस मच्छी न खाने वाले शुद्ध शाकाहारी हजारों साल से जिन्दा कैसे है?, जिन्दा छोडो अधिक स्वस्थ और लम्बे आयुष्य वाले होते है। यह देखें……

      आहार : पोषण मूल्यों का तुलनात्मक अध्ययन
      ऑमेगा 3 व ओमेगा 6 वसीय अम्ल
      केवल शाकाहार से पोषक मूल्यों का पूर्ण संतुलन

      @02. से 06. दांत और आंत

      मनुष्य शाकाहारी या माँसाहारी....?
      मानव शरीर संरचना शाकाहार के ही अनुकूल

      @हमारे कुछ भाई यह समझते हैं की हिन्दू धर्म में मॉस खाना हराम हैं।

      --हाँ! माँस खाना अधर्म मानते है।

      अहिंसा की गंगोत्री
      जीवरक्षा क्यों?
      जीवों की हत्या करना ही अधर्म है।
      यज्ञ हो तो हिंसा कैसे ।। वेद विशेष ।।
      वैदिक यज्ञों में पशुबलि---एक भ्रामक दुष्प्रचार
      वैदिक संस्कृति और माँसाहार ???



      सुज्ञ द्वारा निरामिष के लिए 19 अक्तूबर 2012 11:09 pm को पोस्ट किया गया

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    4. आप कहना क्या चाहते है, स्थावर पेड-पौधों और त्रस पशुओं दोनों में जीवन है दोनो में हिंसा है तो इन दोनों में से जो अधिक क्रूर व वीभत्स हत्या हो, जहां स्पष्ट अत्याचार व आर्तनाद दृष्टिगोचर होता हो, उसमें से अधिक क्रूरतम का चुनाव करके, वीभत्स हत्या और हिंसा को ही अपनाना चाहिए? यह तो उद्दंड धृष्टता है।

      वेदादि प्राचीन ग्रंथों में “सर्वभूत” शब्द से वनस्पति आदि सभी चेतन व प्राण युक्त प्रत्येक जीवन को समाहित कर दिया गया था। आज के एडवांस्ड विज्ञान से भी प्राचीन विज्ञान इतना गहन और प्रकृति मित्र था कि अगम्य भावनात्मक सोच को भी विज्ञान में रसा बसा दिया था।

      हिंसा की दृष्टि से शाकाहार की तुलना मांसाहार से करना और दोनों को समान ठहराना अवैज्ञानिक तथ्य है। स्वयं जगदीश चन्द्र बसु कहते है, - “पशु-पक्षी हत्या के समय मरणांतक पीड़ा महसुस करते है, और बेहद आतंक ग्रस्त होते है। जबकि पेड़-पौधे इस प्रकार आतंक महसूस नहीं करते, क्योंकि उनमें सम्वेदी तंत्रिका-तंत्र का अभाव है।“

      हिंसा को कम से कमत्तर (अल्पीकरण) करनें का पुरूषार्थ स्वयं में अहिंसा ही है। साथ ही यह अहिंसा के मार्ग पर दृढ कदमों से आगे बढने का उपाय भी है अथवा यूँ कहिए कि अल्पीकरण का निरन्तर संघर्ष ही अहिंसा के सोपान है। जब सुक्ष्म हिंसा अपरिहार्य हो, द्वेष व क्रूर भावों से बचते हुए, हिंसा में न्यूनता का विवेक रखना, अहिंसक मनोवृति है।

      आहार का चुनाव करते समय हमें अपने विवेक को वैज्ञानिक अभिगम देना होगा। वैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि सृष्टि में जीवन विकास, सुक्षम एकेन्द्रिय जीव से प्रारंभ होकर क्रमशः पंचेंद्रिय तक पहुँचा है। ऐसे में यदि हमारा जीवन कम से कम विकसित जीवो (वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीव) की हिंसा से चल सकता है तो हमें कोई अधिकार नहीं हम उससे अधिक विकसित जीवों की अनावश्यक हिंसा करें। विकास के दृष्टिकोण से विकसित ( पशु) की हिंसा, प्रकृति के साथ जघन्य अपराध है।

      अधिक स्पष्टता के लिए निम्न लिंक्स का अध्ययन करें……

      निरामिष: शाकाहार - तर्कसंगत, न्यायसंगत
      निरामिष: अन्न / फल / फूल / कंद / मूल आदि पर आधारित आहार , और चल प्राणियों से प्राप्त आहारों में मूल फर्क क्या है ?
      निरामिष: पादप एवं जंतु -1: शारीरिक संरचना में अन्तर
      निरामिष: पादप एवं जंतु -2: पोषण का अंतर
      निरामिष: पादप एवं जंतु -3: प्रजनन में अंतर
      निरामिष: शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल!! (पूर्वार्ध)
      निरामिष: शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल!! (उतरार्ध)

      हटाएं
  8. उत्तर
    1. Islam is a set of archaic, crude and outdated beliefs with no exceptional goodness. What Zakir hides and which most Hindoos do not know is - Smritis are the collection of rules made for specific eras only. All references given here are from Smriti or Mahabharata which might have customs and rituals only applicable to those times or even later additions. Smritis don't command time invariance. Evolution and continuous upliftment towards greater heights is beauty of Hinduism which dumb headed Islamists with one last book and one last prophet can neither understand nor appreciate. So, do not bother about them and carry on. You are good.

      Dr V B द्वारा निरामिष के लिए 19 अक्तूबर 2012 8:31 pm को पोस्ट किया गया

      हटाएं
  9. उत्तर
    1. जनाब उस्मान खान साहब,

      हमने कथित धर्मग्रंथोँ के हवालो को अनदेखा नही किया है, हमने तो सभी के यथार्थ अर्थ व वह लिंक भी दिए है जहाँ धर्मग्रंथोँ हिंसा नही है प्रमाणित किया गया है. ध्यान तो आपने दिया होता तो इस बात को दोहराते नही.
      हम तो पहले से ही मानते है इंसान का अच्छा या बुरा होना उसकी अपनी प्रवृत्ति है। और यह भी कि यह प्रवृत्तियाँ उसकी क्रूर-अक्र्र वृत्तियोँ के कारण बनती है.और ये भाव उसके शुभ अशुभ चिंतन वर्तन से बनते है.
      वैदिक काल पूर्व से ही यह जानकारी थी कि पेड़ -पौधों मैं जान होती है. इसीलिए पेड़ -पौधों की रक्षा के भी नियम विद्यमान है. धान्य अन्न शाक आदि के भी सँयम पूर्वक उपयोग के विधान है, उनकी हिँसा भी अनावश्यक नही की जाती. वनस्पति मे भी जान है इसलिए जानवरो की हत्या करनी चाहिए ऐसा बेतुका लॉजिक नही लगाया जा सकता. जिसके पास विवेक है वह तो कम से कमतर हिंसा का काम करेगा.
      जिन जानवरों की हत्या मनुष्य मांस खाने के लिए करता है, उनकी तादात न घटने का कारण है मनुष्य ने उनके पालन उत्पादन के उद्योग ही लगा दिए है, बडे बडे फार्महाउस मेँ उनकी पैदावार ली जाती है.

      विज्ञान का सहारा लेना गलत नही किंतु मिस्कोट करना बे-ईमानी है, जिन प्रतीक आदि चीजोँ का विज्ञानं से कोई सम्बन्ध नही मात्र अपनी बात और कुतर्क जमाने के लिए हवाला देना गलत है.

      कहते है कुरआन अपने आप मे पूर्ण है उसमे सभी बाते स्पष्ट है सरल है फिर उसके अर्थ के लिए क्यो किसी दूसरे का सहारा लिया जाय? क्या भरोसा आलीम अपनी मन मर्जी की व्याख्या करे और हमे अर्थ से अनर्थ मे झोक दे.
      @मेरा ऐसा सोचना है की आप इस्लाम के काफी पास हैं।
      भाई, इस्लाम हिंसा और पशु हत्या छोड नही सकता, और हिंसा के समीप हम जा नही सकते. यदि वर्तमान मे इस्लाम मे बिगाड है और उसका शुद्ध स्वरूप अहिँसा, जीवदया और राग-द्वेष से पर है तो नाम कोई भी रहे, हम धर्म मे ही है. सूत्र है अहिंसा परमो धर्मः

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  10. उत्तर
    1. कौशलेन्द्र ने आपकी पोस्ट " विज्ञान के युग में क़ुरबानी पर ऐतराज़ क्यों " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

      इण्डियन कॉमिक्स जी ! आपके कोई भी तर्क न तो वैज्ञानिक हैं और न दार्शनिक या आध्यात्मिक ...केवल एक हठी का प्रलाप भर है। धर्म के नाम पर अपने व्यक्तिगत मत ...विचार को कुतर्कों द्वारा जनसहमति से सत्य प्रमाणित करने का प्रयास करना सबसे बड़ा पाखण्ड है। हम जानता चाहते हैं आपने कौन सी मनुस्मृति पढ़ ली है? कृपया छद्मप्रकाशकों की पुस्तकें न पढ़ें और न उनका दुश्प्रचार करें। यदि आप शिक्षित हैं तो आपका कृत्य आशोभनीय ही नहीं घोर आपत्तिजनक है। हमें नहीं लगता कि आपके कुतर्को का कोई उत्तर दिया जाना चाहिये सिवाय इसके कि ऐसे मिथ्याभाषी और द्वेषपूर्ण आचरण का सामाजिक बहिष्कार किया जाय।
      हम स्पष्ट शब्दों में यह घोषणा करते हैं कि सनातन धर्म में जीवहिंसा का कहीं कोई स्थान नहीं है। जीव हिंसा से बड़ा पाप और कुछ नहीं। और जो लोग जीव हिंसा की वकालत करते हैं उनका कृत्य तो पाप की सीमाओं से भी आगे है। हम ऐसे ज्ञानशून्य डिग्रीधारियों के विचारों को जानकर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि शिक्षा कभी भी कुपात्र को नहीं दी जानी चाहिये । शिक्षा केवल उसी को निकालकर बाहर लाती है जो व्यक्ति के अन्दर है ...अन्दर यदि हिंसा और पाप है तो पढ़ने-लिखने के बाद वह व्यक्ति हिंसा और पाप की ही वकालत करेगा ...जीवन में भी वही उतारेगा। विश्व के जीव मात्र को ऐसे तथाकथित स्वयम्भू बुद्धजीवियों से भयानक ख़तरा है। और अंत में एक बात यह कि यदि इस्लाम किसी प्राणी की हत्या कर उसके मांस को खाने और ऐसी हिंसा की वकालत करता है तो ऐसा इस्लाम सत्यान्वेषियों, शांति प्रेमियों, विश्वबन्धुत्ववादियों, युद्धविरोधियों और धार्मिकों के लिये गर्ह्य और त्याज्य है। कम से कम भारत में ऐसे धर्म के लिये कोई स्थान नहीं होना चाहिये। हम ऐसे उस हर धर्म का विरोध करते हैं और उसे निन्दनीय मानते हैं जो मनुष्य को जीव हिंसा की ओर प्रेरित करता है। अब इस प्रकरण पर किसी बहस की कोई गुंज़ाइश नहीं रही।

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  11. उत्तर
    1. सुज्ञजी, मुर्गे की तीन टाँग ही रहेंगी।

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    2. Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने आपकी पोस्ट " विज्ञान के युग में क़ुरबानी पर ऐतराज़ क्यों " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

      सही कहा, काम अज्ञान का, नाम विज्ञान का!
      :(




      Smart Indian - स्मार्ट इंडियन द्वारा निरामिष के लिए 20 अक्तूबर 2012 7:07 pm को पोस्ट किया गया

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  12. उत्तर
    1. जगदीश चन्द्र बसु से भी इस बारे में प्रश्न पूछा गया था.......उनका उत्तर शाकाहार का ही पक्ष मजबूत करता है | जिन्हें जगदीश चन्द्र बोस की खोजों में रुचि है उन्हें पता होगा |

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  13. बहुत ही सशक्‍त आलेख ... आभार

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  14. मुझे ये जान कर बहुत ख़ुशी होती है की कैसे मेरा रोज़ का खाना जहा से आया है वहां ये अलग अलग खेतो में धूप और बारिश के आनंद में धीरे धीरे पका हुआ है और उसको उगाने वाले के लिए पूजनीय रहा है फिर मुझ तक आया है..
    अगर आप मांसाहारी हैं तो आप का हर ऐसा आहार किसी के जीवन के अंत ,दुःख और चीखो आंसुओ से होकर आया है ..शायद वो किसी ऐसी माँ या पिता का मांस है जिसके छोटे बच्चो को जन्म से पहले उससे छीन लिया गया और उन बच्चो का जिनसे माँ का स्नेह छिना गया ताकि उनकी माँ लगातार इस दर्द में जीते हुए और ऐसे बच्चे उसे दे सके जिन्होंने जीवन में मौत के डर के आलावा कुछ नहीं देखा .. उसके पलने वालो ने उसे क्या दिया.. सिर्फ दर्द और बुचाडखानों की चीखो और खून के धारो के मंज़र के वो आखरी पल ..मर जाने पर भी उन्हें किसी के स्वाद में घोल दिया ..
    अगर इन बातो ने आपको प्रभावित किया है... येही समय है शाकाहार अपनाइए..
    I enjoy knowing that my meals grew quietly in the sunshine and rain until the time came for them to be harvested.
    If you are not vegan, then to provide your next meal someone will die screaming. Perhaps she was a mother whose heart was broken for the children stolen so that the machines could pump her body dry for you each day. Perhaps her little body was enslaved to the egg producing business, endlessly laying until her production slowed down and she was carted off to be killed. Perhaps he was a little woolly 4 or 5 month lamb, or a calf bewildered to be dragged from his mother. For them all of every single species, they will have lived a fraction of their natural life span and agony, screaming and the stench of blood in the house of slaughter will accompany their terrible death.
    If that makes you feel uncomfortable, then it's time to be vegan

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