शुक्रवार, 15 मई 2015

निरामिष पर विशेष लेखों की कड़ियाँ


(6) तर्कसंगत-विकल्प (सर्वांग न्यायसंगत) 
  1. प्रागैतिहासिक मानव, प्राकृतिक रूप से शाकाहारी ही था। 
  2. मनुष्य की सहज वृति और उसकी कायिक प्रकृति दोनो ही शाकाहारी है।
  3. मानव शरीर संरचना शाकाहार के ही अनुकूल। 
  4. शाक से अभावग्रस्त, दुर्गम क्षेत्रवासी मानवो का अनुकरण मूर्खता!!
  5. सभ्यता व विकास मार्ग का अनुगमन या भीड़ का अंधानुकरण? 
  6. यदि अखिल विश्व भी शाकाहारी हो जाय, सुलभ होगा अनाज!!
  7. भुखमरी को बढाते ये माँसाहारी और माँस-उद्योग!!
  8. शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल !!! 
  9. प्राणी से पादप : हिंसा का अल्पीकरण करने का संघर्ष भी अपने आप में अहिंसा है। 
  10. प्रोटीन प्रलोभन का भ्रमित दुष्प्रचार।
  11. प्रोटीन मात्रा, प्रोटीन यथार्थ
  12. विटामिन्स का दुष्प्रचार।
  13. विटामिन बी12, विटामिन डी, विटामिन 'सी'।
  14. उर्ज़ा व शक्ति का दुष्प्रचार। 

शनिवार, 7 मार्च 2015

गौमांस निषेध को अपना समर्थन दीजिए………

सात आसान चरण गाय को गौमांस का सामान बनने से बचाने के लिए...


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रविवार, 21 दिसंबर 2014

क्या आपके शाकाहार में सुअर की चर्बी है?

लेज चिप्स में प्रयुक्त ई-631 साबूदाने से बना है
इन्टरनेट पर दस्तावेज़ों की भरमार है। असंख्य पृष्ठों में न जाने क्या-क्या लिखा गया है, सही भी गलत भी। बहुत सी ग़लतियाँ अज्ञानवश हैं तो बहुत सी बदनीयती के साथ भी। न तो हम हर बात को पढ़ सकते हैं और न ही सारे कथनों की जाँच की जा सकती है। फिर भी हम सब अपने अपने हिस्से की इतनी ज़िम्मेदारी तो निबाह सकते हैं कि अप्रमाणित जानकारी को कॉपी-पेस्ट करने से बचें। बात की तह में जाकर उसकी असलियत जानने का प्रयास करें। यहाँ, निरामिष ब्लॉग पर हमारी कोशिश यही है कि शाकाहार और अहिंसा से संबन्धित प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत की जाय और शाकाहार संबन्धित भ्रमों का अचूक निवारण किया जाय।

इन्टरनेट के कॉपी-पेस्ट विशेषज्ञों ने विभिन्न शाकाहारी पदार्थों में पशु-वसा होने के बारे में एक बड़ा भ्रम फैला रखा है। एक दूसरे से कॉपी पेस्ट किए गए हजारों वेबपृष्ठों में ऐसा बताया जा रहा है कि किसी भी उत्पाद की सामग्री सूची में यदि अंग्रेज़ी के E अक्षर से आरंभ होने वाली कोई संख्या लिखी है तो इसका अर्थ यह हुआ कि उस पदार्थ में सुअर की चर्बी मिली है। ऐसा प्रचार विशेषकर अमेरिका और यूरोप आधारित बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों के बारे में हो रहा है।

उदाहरण के लिए, ऐसी एक पोस्ट पर बताया गया है कि
जहां भी किसी पदार्थ पर लिखा दिखे
E100, E110, E120, E 140, E141, E153, E210, E213, E214, E216, E234, E252,E270, E280, E325, E326, E327, E334, E335, E336, E337, E422, E430, E431, E432, E433, E434, E435, E436, E440, E470, E471, E472, E473, E474, E475,E476, E477, E478, E481, E482, E483, E491, E492, E493, E494, E495, E542,E570, E572, E631, E635, E904 समझ लीजिए कि उसमे सूअर की चर्बी है।
मुख्य मुद्दे पर आने से पहले विषय से संबन्धित कुछ सामान्य जानकारी:
उत्पादों पर छपे ई संख्या (E number) का उद्देश्य उपभोक्ता को उत्पाद में प्रयुक्त सामग्री की सूची प्रदान करना है। यदि उद्देश्य सामग्री की जानकारी छिपाने का होता तो ई संख्या या किसी भी कोड की ज़रूरत नहीं होती। ई संख्या की शुरुआत अमेरिका के भोजन व औषधि प्रशासन संस्थान अर्थात The U. S. Food and Drug Administration (संक्षेप में FDA या एफडीए) द्वारा हुई। एफडीए ने भोज्य पदार्थों में प्रयुक्त सामग्री की सूची तैयार करके जटिल रसायनों को कूटनाम (code names) दे दिये ताकि भोजन, पंसारी, चिकित्सा तथा औषधि व्यवसाय पर कानूनी नज़र रखी जा सके और सामान खरीदने वालों को इस बात की पूरी जानकारी रहे कि वे क्या खा-पी रहे हैं और साथ ही किसी खाद्य पदार्थ के किसी दुष्प्रभाव या एलर्जी आदि की कोई जानकारी प्रकाश में आती है तो उसे जनता तक बखूबी पहुँचाया जा सके और हानिकर पदार्थों को नियंत्रित किया जा सके। यह सारी प्रक्रिया दरअसल, विकसित देशों के उन क़ानूनों का हिस्सा हैं जिनके द्वारा जनता के स्वास्थ्य की देखरेख की जाती है।

ई संख्या द्वारा प्रदर्शित अधिकांश रसायन सामान्य जीवन में प्रयुक्त होने वाले नहीं हैं और उनके जटिल नाम जानना, लिखना, पढ़ना या समझना हम-आप जैसे सामान्यजन के लिए कठिन होता। ई संख्या द्वारा मानकीकरण का एक उद्देश्य इस जटिलता को दूर करना भी है।

बिना जाने हुए हर ई संख्या को सुअर की चर्बी समझने से पहले हमें यह तो सोचना चाहिये कि जिसे जानकारी छिपानी होती वह ईकोड लिखता ही नहीं। वैसे भी यदि सुअर की चर्बी को धोखे से आपके भोजन में डालना होता तो एक नाम ही काफी था इतनी सारी ई-संख्याओं की ज़रूरत नहीं थी। हाँ यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि इन रसायनों में से अनेक का स्रोत जैविक हो सकता है। उनसे अवश्य बचा जाय लेकिन आँख मूंदकर सबको सुअर की चर्बी कहना सही नहीं है। आइये देखें, उपरोक्त उदाहरण में दर्शाई गई कुछ ई संख्याओं की हक़ीक़त:

कूटनामउपयोगस्रोत
E100करक्यूमिनपीला रंगहल्दी
E110सनसेट यलो (चेतावनी/प्रतिबंधित)पीला रंगपेट्रोलियम
E120कारमिनिक एसिडलाल रंगकोचीनील नामक एक कीड़ा (शाकाहारी नहीं)
E140क्लोरोफिलहरा रंगवनस्पति स्रोत
E141क्लोरोफिल के ताम्र यौगिकहरा रंगवनस्पति स्रोत
E153ब्रिलिएंट ब्लैक (सीमित/चेतावनी)काला रंगप्रयोगशाला
E210बेंज़ोइक एसिडसंरक्षक(preservative)वनस्पति गोंद
E213केल्शियम बेंज़ोएटसंरक्षक(preservative)वनस्पति गोंद
E214इथाइल पैराबेनसंरक्षक(preservative)4-Hydroxybenzoic acid, वनस्पति गोंद व अल्कोहल
E216प्रोपाइल पैराबेनसंरक्षक(preservative)प्रयोगशाला; मुख्यतः वनस्पति गोंद; कुछ कीड़ों में भी पाया जाता है
E234नाइसिनसंरक्षक(preservative)प्रयोगशाला; दुग्ध; खमीरीकरण
E252पोटेशियम नाइट्रेटसंरक्षक(preservative)एक खनिज लवण
E270लैक्टिक एसिडसंरक्षक(preservative)प्रयोगशाला; दुग्ध,शर्करा










खाद्य पदार्थों के ई संख्या आधारित अंधविरोध में सच कम झूठ अधिक है। इन सारे प्रचार कार्यक्रमों का आरंभ इस्लामी अतिवादियों द्वारा अमेरिकी कंपनियों के आर्थिक बहिष्कार के उद्देश्य से हुआ था। सबसे पहले कोका कोला के सीक्रेट फार्मूले मे सूअर की चर्बी का प्रचार किया गया। सऊदी अरब से लेकर पाकिस्तान तक फैले इस प्रचार में धीरे-धीरे समझ न आने वाला हर रसायन सूअर की चर्बी बताया जाने लगा। सुअर से मुसलमानों की धार्मिक अस्पृश्यता के मद्देनजर यह बात स्पष्ट है कि इस प्रचार में सुअर की चर्बी का उल्लेख प्रमुखता से हुआ। अतिवादी मुल्लों की देखादेखी न जाने कब हमारे जोशीले भारतीय भी आँख मूंदकर इस प्रचार में कूद गए।  स्वतंत्र जोशीलों के साथ इस प्रचार में स्वदेशी आंदोलन जैसे कार्यकर्ताओं का भी प्रभाव रहा।

ई कोड का अर्थ पशु वसा नहीं होता है 
ई संख्या सामान्यतः उन एडिटिव रसायनों के मानक सूचक हैं जिनका प्रयोग अत्यल्प मात्रा में रंग, स्वाद आदि की वृद्धि के लिए होता रहा है। फेसबुक पर बहुप्रचारित संलग्न चित्र में लेज़ चिप्स की जिस सामग्री को तीन ई संख्याओं (E160c, E627 व E631) के आधार पर किन्हीं ज़ुबैर अहमद द्वारा सूअर की चर्बी बताया जा रहा है उनमें से E627 व E631 मोनोसोडियम ग्लूटोनेट के विकल्प के रूप में प्रयोग होने वाले, एक प्रकार के लवण हैं जो प्रयोगशाला में माइक्रोबियल फ़र्मेंटेशन से बनते हैं। लेज के निर्माता पेप्सी के आधिकारिक स्पष्टीकरण के अनुसार उनका ई 631 साबूदाने के खमीरीकरण से बनता है और सूअर से उसका कोई लेना देना नहीं है। E160c मिर्च के तेल से निकाला जानेवाला पेपरिका ओलियोरेज़िन (Paprika oleoresin) है। हम सब को इस प्रकार के झूठे प्रचार को दोहराने से निम्न मुख्य कारणों से बचना चाहिए:
1) इसके मूल प्रचारकों की नीयत खराब है। उनका उद्देश्य अपने धार्मिक विरोध के लिए आपको गलत जानकारी देकर आपकी भावनाओं का शोषण करना मात्र है।
2) अंतर्राष्ट्रीय कार्पोरेशन के बनाए उत्पाद पाकिस्तान के किसी कोने में चिप्स बनानेवाले से कहीं अधिक विश्वसनीय हैं। सामग्री की सूची यदि आपके सामने है तो उसे ठीक से देखिये और उपयुक्त निर्णय लीजिये।
3) अधिकांश वसा आधारित, व लवण उत्पाद चाहे वनस्पति स्रोत से हो चाहे पशु-स्रोत से और चाहे खनिज स्रोत से हों, उनका अंतिम रूप बिलकुल एक सा होता है। उसे देख-जाँचकर उसका स्रोत तय नहीं किया जा सकता है। सामान्यतः कंपनियाँ सबसे सस्ते या स्थानीय स्रोत की ओर उद्यत होती हैं। इसलिए ऐसी स्थिति में सही स्रोत की जानकारी निर्माता से ही आ सकती है।
4) भांति-भांति के साधनों द्वारा हमारे आदर्शों को तोड़ने का एक लंबा कुचक्र चलाया जा रहा है जिसमें हमारे प्रयोग में आने वाली वस्तुओं के साथ-साथ हमारे नायकों, और परम्पराओं पर भी नियमित कुठाराघात हो रहे हैं। दुर्भाग्य से कई सदाशय लोग भी ऐसे कार्यों की असलियत जाने बिना इसे सहयोग करने लगते हैं जो सही नहीं है। कुप्रचारकों द्वारा नियमित रूप से भोले भाले लोगों की परम्पराओं को गलत ठहराकर उनमें हीन भावना भरने के हर प्रयास को ज्ञान और विवेक के प्रयोग से रोकिए। किसी भी समझदार व्यक्ति को शाकाहार को हतोत्साहित करने के षड्यंत्र का हिस्सा बनाने के बजाय उसके चक्र को तोड़ने की कोशिश करनी चाहिए।

* संबन्धित कड़ियाँ *
शाकाहारी उत्पाद - चिन्ह और प्रतीक
What are E numbers?
चिप्स में सूअर की चर्बी पर लेज़ का खंडन
Food-Info.net

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

तुम कौनसे शास्त्र की आड़ लेकर अपनी अमानुषिक जीभ को तृप्त करने के चक्कर में जगद्जननी माता को स्वसंतान भक्षिणी सिद्ध करने पे तुले हो ?


वैसे तो आजकल सार्वजनिक सामूहिक दुष्कर्म बलि-काण्ड कहीं दिखाई सुनाई नहीं देता हैं. लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं हो सकता की ऐसा हो ही नहीं रहा हैं।
अरे भैया एक तरफ तो जगन्नमाता बोलकर जयकार लगाते हो दूसरी तरफ उसीकी संतानो की उसके आगे बलि चढ़ाकर उसको हत्यारिन बना रहे हों।
अगर तुम्हारे अनुसार देवी वास्तव में बलि भक्षिणी हैं तो तो भाड़ में जाओ तुम और तुम्हारी तथाकथित बलि भक्षिणी देवी।
अरे भैया न तो वेदों में ना वेदानुगामी अन्य शास्त्रों में कहीं जीव-हत्या का निर्देश हैं, फिर तुम कौनसे शास्त्र की आड़ लेकर अपनी अमानुषिक जीभ को तृप्त करने के चक्कर में जगद्जननी माता को स्वसंतान भक्षिणी सिद्ध करने पे तुले हो ??????
अरे माँ तो अपनी संतान के हलकी सी चोट लगने पर ही व्याकुल हो जाती हैं और तुम असुर स्वभावी तामसी दुष्ट जगत जननी के सामने उसीकी संतान की बलि चढ़ाते हो !!!!!!!!!
मांस -- "योगनी तंत्र " में लिखा है
माँ शब्दाद रसना ज्ञेया संद्शान रसनाप्रियां।
एतद यो भक्षयेद देवी स एव मांससाधक:।।
अत: यह स्पष्ट है की बलि देना और तांत्रिक साधनों में मांस का भक्षण करना आवश्यक नहीं है यह तो उन पाखंडी, ढोगी और ठग तांत्रिको ने अपने स्वाद की पूर्ति करने हेतु मांस का भक्षण करना आवश्यक बना दिया। यह तो तांत्रिकों द्वारा शास्त्रों मे प्राचीन ऋषियों द्वारा दिए गए मन्त्रों के अर्थों का अनर्थ कर मांस को ही आवश्यक मान लिया गया है।
कोई भी तामसी, शास्त्रों में पशु हिंसा और मांस भक्षण के पक्ष में कुतर्क देने से पहले नीचे दिए गए लिंकों पर दिए प्रमाणों को पढ़े फिर अपना प्रलाप करें क्योंकि तुम जो कहना कहोगे वे सब यहाँ खंडित हुए पड़े हैं।

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

शाकाहार लेख संग्रह (कडियाँ)

शाकाहार अपनाने के कारण........
तर्कसंगत-विकल्प (सर्वांग न्यायसंगत) 
  1. प्रागैतिहासिक मानव, प्राकृतिक रूप से शाकाहारी ही था। 
  2. मनुष्य की सहज वृति और उसकी कायिक प्रकृति दोनो ही शाकाहारी है।
  3. मानव शरीर संरचना शाकाहार के ही अनुकूल। 
  4. शाक से अभावग्रस्त, दुर्गम क्षेत्रवासी मानवो का अनुकरण मूर्खता!!
  5. सभ्यता व विकास मार्ग का अनुगमन या भीड़ का अंधानुकरण? 
  6. यदि अखिल विश्व भी शाकाहारी हो जाय, सुलभ होगा अनाज!!
  7. भुखमरी को बढाते ये माँसाहारी और माँस-उद्योग!!
  8. शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल !!! 
  9. प्राणी से पादप : हिंसा का अल्पीकरण करने का संघर्ष भी अपने आप में अहिंसा है। 
  10. प्रोटीन प्रलोभन का भ्रमित दुष्प्रचार।
  11. प्रोटीन मात्रा, प्रोटीन यथार्थ
  12. विटामिन्स का दुष्प्रचार।
  13. विटामिन बी12, विटामिन डी, विटामिन 'सी'।
  14. उर्ज़ा व शक्ति का दुष्प्रचार। 

शनिवार, 14 जून 2014

⊡ शाकाहारी उत्पाद - चिन्ह और प्रतीक

शाकाहार की प्राचीन गौरवमयी परंपरा के चलते, आज भी संसार भर में शाकाहारियों का प्रतिशत भारत में ही सर्वाधिक है। शाकाहार की सुदृढ़ और विस्तृत परंपरा के कारण अधिकांश भारत में सात्विक निरामिष भोजन सर्वसुलभ होना स्वाभाविक है। भोजन के प्रति संवेदनशीलता के चलते रसोई और भोजनालयों के भेद भी स्पष्ट हैं। फिर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अक्सर स्वार्थ के लिए, कभी अज्ञानवश और कई बार मज़े के लिए भी अपने सहजीवियों का "धर्म-भ्रष्ट" करने की जुगाड़ में लगे रहते हैं। अमेरिका में अपने को भारतीय कहने वाले कई भोजनालय नान-रोटी में अंडे का प्रयोग करने लगे हैं और इस बाबत कोई नोटिस भी नहीं लगाते हैं। दक्षिण-पूर्व एशिया के हिन्द-चीनी देशों के सामान्य भोजन और चटनियों में जल-जीवों के अवशेष पाया जाना सामान्य सी बात है।

प्रचारित धारणाओं के विपरीत भोजन में छूआछूत शाकाहारियों की विशेषता नहीं है। भारत के अधिकांश मांसाहारी झटका, हलाल या कुत्ता जैसे नियमों के पाबंद हैं। कोई गोमांस से बचता है तो कोई सूअर के मांस से। पूर्वोत्तर के कुछ क्षेत्रों में चाव से खाया जाने वाला कुत्ते का मांस पश्चिम भारत के किसी भी मांसाहारी के मन में वितृष्णा उत्पन्न कर सकता है। भारत के बाहर भी संसार के लगभग सभी मांसाहारी समुदायों में कट्टर भोजन-भेद मौजूद रहा है। यहूदी संप्रदाय कोशर खाता है तो मुसलमान हलाल तक सीमित हैं। मध्य-पूर्व के दयालु समझे जाने वाले लोकनायक हातिमताई द्वारा भोजन के लिए अपना पालतू घोड़ा मारकर पका देने की कथा है जबकि अमेरिका में घोड़ा खाने वाले को अहसान-फरामोश, असभ्य और क्रूर माना जाएगा। निष्कर्ष यह कि संसार में अविचारी सर्वभक्षी लोगों की संख्या कम है। अधिकांश लोग कुछ भी खाने से पहले उसके बारे में आश्वस्ति चाहते हैं। एलर्जीग्रस्त कितनों के लिए यह स्वास्थ्यगत अनिवार्यता भी है।

प्राचीन भारतीय समाज में हर काम करने की पद्धति निर्धारित थी। संस्कृत भाषा, अंक पद्धति और लिपियों का विकास भी विदेशों से अलग नियमबद्ध रूप से ही हुआ है। आज भले ही हम संकल्प और पद्धति को पिछड़ापन बताकर "जुगाड़" और "चलता है" को सामान्य मानने लगे हों लेकिन विकसित देशों में सब काम नियम से किया जाता है। वहाँ भोज्य पदार्थों में उनके तत्व सूचीबद्ध करने की भी कानूनी बाध्यता लंबे समय से रही है। सामान्य प्रचलित तत्वों के अतिरिक्त अप्रचलित रसायनों के लंबे और जटिल वैज्ञानिक नाम के चलते उन्हें सूचीबद्ध करने  के लिए ई संख्या कूट (E number code) का प्रयोग किया जाता है। इन कूट संख्याओं के बारे में इन्टरनेट पर काफी भ्रम फैले हुए हैं। किसी आगामी आलेख में उन पर विस्तार से चर्चा की जाएगी।

सन 2006 में स्थापित भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण स्वस्थ और विश्वसनीय भोजन चुनने की दिशा में अच्छी पहल है। भोजन के व्यावसायिक उत्पादन, भण्डारण, वितरण आदि के नियम बनाना और उनका अनुपालन कराना भी प्राधिकरण के प्रमुख उद्देश्यों में से एक है। परंपरागत भारतीय शाकाहार (दुग्धाहार सम्मिलित) और मांसाहार की पेकेजिंग/थैली/पुलिंदे पर संस्थान द्वारा स्पष्ट हरे या लाल चिन्ह द्वारा पहचान आसान किए जाना एक सराहनीय कदम है।  

डब्बाबंद/प्रीपैकेज्ड भोज्य पदार्थ खरीदते समय हरा शाकाहारी चिन्ह देखिये और सात्विक भोजन को बढ़ावा दीजिये। बल्कि मैं तो यही कहूँगा कि पर्यावरण संरक्षण में सहयोग देते हुए, थैली/डिब्बा के भोजन पर निर्भरता ही यथासंभव कम कीजिये। निरामिष परिवार की ओर से आपके सात्विक स्वस्थ जीवन की शुभकामनायें।

* संबन्धित कड़ियाँ *
ई कोड - क्या आपके शाकाहार में सुअर की चर्बी है?

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

मांसाहार और शाकाहार समान हैं ?

मांसाहार और शाकाहार समान हैं ?

अक्सर सुनती हूँ मैं 
तर्क मांसाहार के सन्दर्भ में 
कि 
शाकाहार और मांसाहार समान हैं। 

क्या सच ?

एक सुखद अनुभूति की
याद है मन में
कॉलेज की खिड़की पर बैठी मैं 
खिड़की से भीतर आती 
सौम्य जीवनदायी वायु।  

गहरी साँसें लेती मैं 
अमृत को भीतर प्रविष्ट होते 
महसूस कर पाती हूँ। 
पौधों की हंसती टहनियाँ 
पेड़ों की झूमती डालियाँ 
दूर तक दिखते ,
नारियल के गर्वित वृक्ष 
जिनसे अनेकानेक बार 
अगणित नारियल तोड़ 
नारियल पानी वाले 
कितने प्यासे राहियों को 
अमृतपान कराते हैं। 
किन्तु वह वृक्ष 
तनिक भी तो कुम्हलाते नहीं ?

उनकी ओर से हवा में 
वही सुगंध 
हर दिन क्यों बिखरती है ?
क्या वे दर्द में हैं ,
अपने फल देकर ?
लगते तो खुश हैं न ?
झूमते नाचते 
रोज़ प्रसन्नता बिखेरते हैं न ?

और एक याद है मन में 
गए थे हम 
अपार्टमेंट्स में फ्लैट खरीदने
सस्ता था उस समय के अनुपात से 
सोचा यह सस्ता है - घर ले लेते हैं। 
गए वहाँ देखने 
पीछे की खिड़की से 
सुनाई दिया अजीब सा कोलाहल 
उस तरफ जाने लगी तो 
एजेंट ने रोका - अजी उधर तो 
"वियु" नहीं है, ना "एलिवेशन" ही 
फिर भी गयी 
दरवाजा खोला तो 
अजब सड़ांध आयी 
और चीखती आवाज़ें 
पूछ ताछ की 
पता चला उधर कत्लखाना है 
पास के बाज़ार में मांस 
ऊंचे दामों बिकता है। 

इसीलिए इस जगह पर 
फ्लैट बिकते नहीं। 
लोग आना नहीं चाहते, 
ना ही किराया अच्छा मिलेगा 

सोचने लगी मैं। 

कहाँ वह नारियल के पेड़ 
और उनसे बरसती सुख शान्ति 
मिलता पीने को अमृत 
सांस लेने को अमृत 
और यहाँ यह ……

क्या सचमुच एक से ही हैं 
मांसाहार और शाकाहार ?

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

जीवन-दात्री

इसलिये नहीँ कि हिन्दू
मुस्लिम ।।।
इसलिये कि रूबी और
रेहाना की माँ को जब
दूध
नहीँ उतरा तो हमारी गौरी
ने भर भर माता का दूध दिया
पल गयीं।

मुफ्त में गाँव
की धेवती मानकर।

तो
धाय माँ दूध
माँ की हत्या ग़ुनाह है।
जब माँ नहीँ तो दुधारू
गाय भैंस
बकरी ही माँ होती है ।
एक बेटे का फर्ज है
जिसका दूध
पिया उसकी जान
बचाये ।
जबकि पश्चिमी यूपी।
सहित तमाम भारतीय ग्रामीणों का ।
खेती के बाद दूसरा रोजगार दूध घी दही है
तब गौ भैंस बकरी पालन को बढ़ावा देना चाहिये
और दुधारू पशु वध बंद होने चाहिये
ये
न मजहब है न जाति न
राजनीति
दुधारू गाय भैंस
बकरी ऊँटनी भेङ ।
बचे
तो
कुपोषण भारत छोङेगा
विज्ञापनों में
आमिर के चीखने से कुपोषण नहीं हटेगा ।
एक गाय भैंस
बीस साल तक परिवार को आधा आहार और पूरा रोजगार देती है ।
जबकि मार कर खाने पर केवल पाँच लोगो का एक दिन का चटोरापन
तो
बीस साल तक परिवार पालना ज्यादा जरूरी है
दुधारू पशु वध बंद कीजिये
--सुधा राजे

(सत्य घटना से प्रेरित, 'गौरी' सुधा राजे जी की गाय और रूबी रेहाना पङौस की बच्चियाँ है।) 

सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

अमृतपान - एक कविता

(अनुराग शर्मा)

हमारे पूर्वजों के चलाये
हजारों पर्व और त्यौहार
पूरे नहीं पड़ते
तेजस्वी, दाता, द्युतिवान
उत्सवप्रिय देवों को
जभी तो वे नाचते गाते
गुनगुनाते
शामिल होते हैं
लोसार, ओली व खमोरो ही नहीं
हैलोवीन और क्रिसमस में भी
लेकिन मुझे यकीन है कि
बकरीद हो या दसाइन
बेज़ुबान प्राणियों की
कुर्बानी, बलि या हत्या में
उनकी उपस्थिति नहीं
स्वीकृति भी नहीं होती
मृतभोजी नहीं हो सकते वे
जो अमृतपान पर जीते हैं

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

शाकाहार सम्बन्धी कुछ भ्रम और उनका निवारण -2

आज कई मांसाहार प्रचारक अपने निहित स्वार्थों, व्यवसायिक हितों, या धार्मिक कुरीतियों के वशीभूत होकर अपना योजनाबद्ध षड्यंत्र चला रहे हैं। वस्तुतः अब कुसंस्कृतियाँ सामिष आहार प्रचार के माध्यम से ही विकार पैर पसारने को तत्पर है। इस प्रचार में,  न केवल विज्ञान के नाम पर भ्रामक और आधी-अधूरी जानकारियाँ दी जा रही हैं, बल्कि इस उद्देश्य से धर्मग्रंथों की अधार्मिक व्याख्यायें प्रचार माध्यमों द्वारा फैलाई जा रही हैं। यह सब हमारी अहिंसक और सहिष्णु संस्कृति को दूषित  और विकार युक्त करने का कुटिल प्रयोजन है।

ऐसे ही 7 भ्रमों  का निवारण  निरामिष पर पहले प्रस्तुत  किया गया था, अब प्रस्तुत है भ्रम-निवारण 8 से 12……  

भ्रम # 8 अहिंसावादी, जीवदयावादी व शाकाहारियों के प्रभाव से भारतीय जनमानस कमजोर और कायर हो गया था।

उत्तर : मध्यकालीन आक्रांता तो धर्म-कर्म-जात आदि से केवल और केवल आक्रमणकारी ही थे, उनकी कोई नैतिक युद्धनीति नहीं थी। उनका सिद्धांत मात्र बर्बरता ही था। उनका सामना करने की जिम्मेदारी अहिसावाद,जीवदया या करूणा से प्रभावित लोगों की नहीं, बल्कि मांसाहारी राजपूत सामंतो व क्षत्रिय योद्धाओं की थी। जब वे भी सामना न कर पाए तो अहिंसावादी, जीवदयावादीयों को जिम्मेदार ठहराना हिंसावादियों की कायरता छुपाने का उपक्रम है। शौर्य और वीरता कभी भी मांसाहार से नहीं उपजती। न वीरता प्रतिहिंसा से प्रबल बनती है। वीरता तो मात्र दृढ़ मनोबल और साहस से ही पैदा होती है। इतिहास में एक भी प्रसंग नहीं है जब कोई यौद्धा अहिंसा को बहाना बना पिछे हटा हो। यथार्थ तो यह है कि युद्ध-धर्म तो दयावान और करूणावंत भी पूरे उत्तरदायित्व से निभा सकता है। और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आक्रमण और पराजय का खेल केवल भारत में नहीं खेला गया है। सारी दुनिया में कोई भी जाति यह दावा नहीं कर सकती कि वह सदा अजेय रही है। क्या वे सभी जातियाँ शाकाहारी थीं? गुलामी और हार का सम्बन्ध, शाकाहार या अहिंसा से जोड़ने का आपका यह प्रयास आधारहीन है। इस तथ्य को भी नहीं भूलना चाहिए कि कुछ सौ साल की गुलामी से पहले भारत में हज़ारों साल की स्वतंत्र,सभ्य और उन्नत संस्कृति का इतिहास भी रहा है।

इसलिए यदि 'धर्म' के परिपेक्ष्य चिंतन करें तो उसमें हिंसा और हिंसा के प्रोत्साहक माँसाहार का अस्तित्व भला कैसे हो सकता है। पशुहत्या का आधार मानव की कायर मानसिकता है, जब शौर्य व मनोबल क्षीण होता है तो क्रूर-कायर मनुष्य, दुस्साहस व धौंस दर्शाने के लिए पशुहिंसा व मांसाहार का आसरा लेता है। लेकिन पशुहिंसा से क्रूरता व कायरता को छुपने का कोई आश्रय नहीं मिलता। निर्बल निरीह पशु पर अत्याचार को भला कौन बहादुरी मानेगा। इसीलिए क्रूरता से कायरता छुपाने के प्रयत्न सदैव विफल ही होते है।

यह लेख दृष्टव्य है - "जहाँ निष्ठुरता आवश्यक है……………"


भ्रम # 9 सुरक्षा के लिए भी रक्तपात आवश्यक है।

उत्तर : रक्तपात सुरक्षा की गारंटी नहीं है। रक्तपात तो आपस में ही लड़ मरने की, वही आदिम-जंगली शैली है। रक्तपात को कभी भी शान्ति स्थापक समाधान नहीं माना गया। हिंसा कभी भी, किसी भी समस्या का स्थाई हल नहीं होती और न हो सकती है। चिरस्थाई हल हमेशा चिंतन, मनन, मंथन और समझोतों से ही उपजते हैं।

भ्रम # 10 मांसाहार एक आहार विकल्प है, शाकाहार या मांसाहार जिसकी जो मर्जी हो खाए।

नहीं!, मांसाहार आहार का विकल्प नहीं है। वह मात्र एक मसाला सामग्री की तरह स्वाद विकल्प मात्र है। पोषण उद्देश्य के लिए तो शाकाहार अपने आप में सम्पूर्ण है। मनुष्य शाकाहार के विकल्प के रूप में मांसाहार का प्रयोग नहीं करता। क्योंकि मात्र मांसाहार को वह अपना सम्पूर्ण आहार नहीं बना सकता, उसके लिए भी मांसाहार के साथ शाकाहार सामग्री का प्रयोग अनिवार्यता है। केवल मांस खाकर इन्सान जिन्दा नहीं रह सकता। इस लिए विकल्प की तरह चुनाव की बात करना मतिभ्रम है। स्वादलोलुपता की धूर्तता के कारण इसे विकल्प की तरह पेश किया जाता है। वस्तुतः मांसाहार आहार में आया एक विकार है। किसी जीव ने अपने जिन्दा रहने के लिए शाकाहार करके अपने शरीर की मांस मज्जा बनाई और आप उसके अपने जीवन भर के श्रम के अर्जन को निर्दयता से छीन कर अपना पेट भरें वह भी उसकी जिन्दगी ही लेकर? इस मर्जी को क्या कहेंगे।

कोई कैसे मनमर्जी खा सकता है मामला जब क्रूरता या असंवेदनशीलता का हो? अहिंसा प्राणीमात्र के लिए शान्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। स्पष्ट है कि किसी भी जीव को हानि पहुँचाना, किसी प्राणी को कष्ट देना अनैतिक है। जीवदया का मार्ग सात्विक आहार से प्रशस्त होता है। इसीलिए अहिंसा भाव का प्रारंभ भी आहार से ही होता है और हम अपना आहार निर्वध्य रखते हुए सात्विक निर्दोष आहार की ओर बढते हैं तभी हमारे जीवन में संवेदनशीलता और अन्तः सात्विकता प्रगाढ होती है। नशीले पदार्थ का भोग व्यक्ति की अपनी मर्जी होने के बाद भी सभ्य समाज उसे सही नहीं ठहराता उसी तरह चुनाव की आजादी के उपरांत भी हिंसा को सही ठहराने वाले लोग मांसाहारियों में भी कम ही मिलते हैं।

दृष्टव्य: भोजन का चुनाव व्यक्तिगत मामला मात्र नहीं है।
दृष्टव्य: मानव के भोजन का उद्देश्य

भ्रम # 11 दुनिया भर में मांसाहार को लेकर कोई अपराधबोध नहीं है?

यह सही नहीं है कि लगभग सभी विकसित या तेजी से विकसित होने की राह पर बढ़ते देशों व उनके निवासियों में मांसाहार को लेकर कोई दुविधा या अपराधबोध नहीं है। हम एक बहु-विविध विश्व में रहते हैं। अमेरिकी घोड़ा खाना पाप समझते हैं, जापानी साँप खाने को हद दर्ज़े का जंगलीपन मानते हैं, भारतीय मांसाहारी गाय को अवध्य मानते रहे हैं जबकि मुसलमान सुअर नहीं खाते। मतलब यह कि मांसाहार लगभग हर भौगोलिक-सामाजिक क्षेत्र में अनेक प्रकार के अपराधबोधों से ग्रस्त है। और कुछ नहीं तो हलाल-झटका-कुत्ता का ग्लानी भरा झंझट तो व्याप्त है ही। यह भी उतना ही सत्य है कि ऐसे प्रत्येक देश विदेशों में कम ही सही पर कुछ लोग न केवल शाकाहार का समर्थन करते हैं बल्कि वे उसे ही बेहतर मानते हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ कि ऐसा वे किसी भारतीय के कहने पर नहीं करते। विख्यात 'द वेजेटेरियन सोसायटी' अस्तित्व में आयी है, बेल्जियम के गेंट नगर ने सप्ताह में एक दिन शाकाहार करने का प्रण लिया है। ब्रिटेन व अमेरिका के अनेक ख्यातनाम व्यक्तित्व न केवल शाकाहारी हैं बल्कि पेटा आदि संगठनों के साथ जुड़कर पूरे दमखम से शाकाहार और करुणा का प्रचार-प्रसार करने में लगे हैं। वीगनिज़्म का जन्म ही भारत के बाहर हुआ है। इथियोपिया से चलकर विश्व में फैले ‘रस्ताफेरियन’ पूर्ण शाकाहारी होते हैं। भारी संख्या में 'सेवेंथ डे एडवेंटिस्ट' भी शाकाहारी हैं।

भ्रम # 12 यह जरूरी नहीं है कि सभी मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हो।

मांसाहार में कोमल भावनाओं के नष्ट होने की संभावनाएं अत्यधिक ही होती है। हर भोजन के साथ उसके उत्पादन और स्रोत पर चिंतन हो जाना स्वभाविक है। हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न माँस, हिंसक विचारों को जन्म देता है। ऐसे विचारों का बार बार चिंतवन, अन्ततः परपीड़ा की सम्वेदनाओं को निष्ठुर बना देता है। हिंसक दृश्य, निष्ठुर सोच और परपीड़ा को सहज मानने की मनोवृति हमारी मानसिकता पर दुष्प्रभाव डालती है। ऐसा दुष्प्रभाव यदि सम्भावनाएँ मात्र भी हो, तब बुद्धिमानी यह है कि सम्भावनाओं को अवसर ही क्यों दिया जाय। वस्तुतः कार्य गैर जरूरी हो और दुष्परिणाम की सम्भावनाएं भले एक प्रतिशत भी हो घटने के पर ही लगाम लगा दी जाय। विवेकवान व्यक्ति परिणामो से पूर्व ही सम्भावनाओं पर पूर्णविराम लगाने का उद्यम करता है।

मनुष्य के हृदय में सहिष्णुता का भाव परिपूर्णता से स्थापित नहीं हो सकता जब तक उसमें निरीह जीवों पर हिंसा कर मांसाहार करने का जंगली संस्कार विद्यमान हो। जब मात्र स्वाद और पेट्पूर्ती के उद्देश्य से मांसाहार का चुनाव किया जाता है तब ऐसी प्राणी हत्या, मानस में क्रूर भाव का आरोपण करती है जो निश्चित ही हिंसक मनोवृति के लिए जवाबदार है। मांसाहार द्वारा कोमल सद्भावनाओं का नष्ट होना व स्वार्थ व निर्दयता की भावनाओं का पनपना, आज विश्व में बढ़ती हिंसा, घृणा, आतंक और अपराधों का मुख्य कारण है। हिंसा के प्रति जगुप्सा के अभाव में अहिंसा की मनोवृति प्रबल नहीं बन सकती। जीवदया और करूणा भाव हमारे मन में कोमल सम्वेदनाओं को स्थापित करते है और यही सम्वेदनाएं हमें मानव से मानव के प्रति भी सहिष्णु बनाए रखती है।

दृष्टव्य: दिलों में दया भाव का संरक्षक शाकाहार