किसी पश्चिमी विद्वान नें शान्ती की परिभाषा करते हुए लिखा है, कि- "एक युद्ध की सामप्ति और दूसरे युद्ध की तैयारी---इन दोनों के बीच के अन्तराल को शान्ति कहते हैं". आज हकीकत में हमारे स्वास्थय का भी कुछ ऎसा ही हाल है. "जहाँ एक बीमारी को दबा दिया गया हो और द्सरी होने की तैयारी में हो, उस बीच के अन्तराल को हम कहते हैं---स्वास्थ्य". क्योंकि इससे बढ़कर अच्छे स्वास्थ्य की हमें अनुभूति ही नहीं हो पाती.
आज समूची दुनिया एक विचित्र रूग्ण मनोदशा से गुजर रही है. उस रूग्ण मनोदशा से छुटकारा दिलाने के लिए लाखों-करोडों डाक्टर्स के साथ साथ वैज्ञानिक भी प्रयोगशालाओं में दिन-रात जुटे हैं. नित्य नई नईं दवाओं का आविष्कार किया जा रहा है लेकिन फिर भी सम्पूर्ण मानवजाति अशान्त है, अस्वस्थ है, तनावग्रस्त है और न जाने कैसी विचित्र सी बेचैनी का जीवन व्यतीत कर रही है. जितनी दवायें खोजी जा रही हैं, उससे कहीं अधिक दुनिया में मरीज और नईं-नईं बीमारियाँ बढती चली जा रही हैं. इसका एकमात्र कारण यही है कि डाक्टर्स, वैज्ञानिक केवल शरीर का इलाज करने में लगे हैं, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इस पर विचार किया जाये कि इन्द्रियों और मन को स्वस्थ कैसे बनाया जाये. कितना हास्यस्पद है कि 'स्वस्थ इन्द्रियाँ' और 'स्वस्थ मन' कैप्स्यूल्स, गोलियों, इन्जैक्शन और सीलबन्द प्रोटीन-विटामिन्स के डिब्बों में बेचने का निहायत ही मूर्खतापूर्ण एवं असफल प्रयास किया जा रहा है.
दरअसल पेट को दवाखाना बनने से रोकने और उत्तम स्वास्थ्य का केवल एक ही मार्ग है-----इन्द्रियाँ एवं मन की स्वस्थ्यता और जिसका मुख्य आधार है------आहार शुद्धि. आहार शुद्धि के अभाव में आज का मानव मरता नहीं, बल्कि धीरे-धीरे अपनी स्वयं की हत्या करता है. हम अपने दैनिक जीवन में शरीर का ध्यान नहीं रखते,खानपान का ध्यान नहीं रखते. परिणामत: अकाल में ही काल कलवित हुए जा रहे हैं.
आईये इस आहार शुद्धि के चिन्तन के समय इस बात पर विचार करें कि माँसाहार इन्सान के लिए कहाँ तक उचित है. अभी यहाँ हम स्वास्थ्य चिकित्सा के दृ्ष्टिकोण से इस विषय को रख रहे हैं. आगामी पोस्टस में वैज्ञानिक, धार्मिक, नैतिक इत्यादि अन्य विभिन्न दृष्टिकोण से हम इन बिन्दुओं पर विचार करेगें.....
स्वास्थ्य चिकित्सा एवं शारीरिक दृष्टि से विचार करें तो माँसाहार साक्षात नाना प्रकार की बीमारियों की खान है:-
(Rheumatic causes inflammation of tissues and organs and can result in serious damage to the heart valves, joints, central nervous system)
"Meat eating encourages animal passions as well as sexual desire."
आज समूची दुनिया एक विचित्र रूग्ण मनोदशा से गुजर रही है. उस रूग्ण मनोदशा से छुटकारा दिलाने के लिए लाखों-करोडों डाक्टर्स के साथ साथ वैज्ञानिक भी प्रयोगशालाओं में दिन-रात जुटे हैं. नित्य नई नईं दवाओं का आविष्कार किया जा रहा है लेकिन फिर भी सम्पूर्ण मानवजाति अशान्त है, अस्वस्थ है, तनावग्रस्त है और न जाने कैसी विचित्र सी बेचैनी का जीवन व्यतीत कर रही है. जितनी दवायें खोजी जा रही हैं, उससे कहीं अधिक दुनिया में मरीज और नईं-नईं बीमारियाँ बढती चली जा रही हैं. इसका एकमात्र कारण यही है कि डाक्टर्स, वैज्ञानिक केवल शरीर का इलाज करने में लगे हैं, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इस पर विचार किया जाये कि इन्द्रियों और मन को स्वस्थ कैसे बनाया जाये. कितना हास्यस्पद है कि 'स्वस्थ इन्द्रियाँ' और 'स्वस्थ मन' कैप्स्यूल्स, गोलियों, इन्जैक्शन और सीलबन्द प्रोटीन-विटामिन्स के डिब्बों में बेचने का निहायत ही मूर्खतापूर्ण एवं असफल प्रयास किया जा रहा है.
आईये इस आहार शुद्धि के चिन्तन के समय इस बात पर विचार करें कि माँसाहार इन्सान के लिए कहाँ तक उचित है. अभी यहाँ हम स्वास्थ्य चिकित्सा के दृ्ष्टिकोण से इस विषय को रख रहे हैं. आगामी पोस्टस में वैज्ञानिक, धार्मिक, नैतिक इत्यादि अन्य विभिन्न दृष्टिकोण से हम इन बिन्दुओं पर विचार करेगें.....
स्वास्थ्य चिकित्सा एवं शारीरिक दृष्टि से विचार करें तो माँसाहार साक्षात नाना प्रकार की बीमारियों की खान है:-
1. यूरिक एसिड से यन्त्रणा---यानि मृत्यु से गुप्त मन्त्रणा:-सबको पता है कि माँस खाने से शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा बढ जाती है. ओर ये बढा हुआ यूरिक एसिड इन्सान को होने वाली अनेक बीमारियों जैसे दिल की बीमारी, गठिया, माईग्रेन, टी.बी और जिगर की खराबी इत्यादि की उत्पत्ति का कारण है. यूरिक एसिड की वृद्धि के कारण शरीर के अवयव Irritable, Painful & Inflamed हो जाते हैं, जिससे अनेक रोग जन्म लेते हैं.
2. अपेडीसाइटीज को निमन्त्रण:-अपेन्डीसाइटीज माँसाहारी व्यक्तियों में अधिक होता है. फ्रान्स के डा. Lucos Champoniere का कहना है कि शाकाहारियों मे अपेन्डासाइटीज नहीं के बराबर होती है. " Appendicites is practically unknown among Vegetarians."
3. हड्डियों में ह्रास (अस्थिक्षय):-अमेरिका में हावर्ड मेडिकल स्कूल, अमेरिका के डा. ए. वाचमैन और डा. डी.ए.वर्नलस्ट लैसेंट द्वारा प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि मासाँहारी लोगोम का पेशाब प्राय: तेजाब और क्षार का अनुपात ठीक रखने के लिए हड्डियों में से क्षार के नमक खून में मिलते हैं और इसके विपरीत शाकाहारियों के पेशाब में क्षार की मात्रा अधिक होती है, इसलिए उनकी हड्डियों का क्षार खून में नहीं जाता और हड्डियों की मजबूती बरकरार रहती है. उनकी राय में जिन व्यक्तियों की हड्डियाँ कमजोर हों, उनको विशेष तौर पर अधिक फल, सब्जियों के प्रोटीन और दूध का सेवन करना चाहिए और माँसाहार का पूर्ण रूप से त्याग कर देना चाहिए.
4. माँस-मादक(उत्तेजक): शाकाहार शक्तिवर्द्धक:-शाकाहार से शक्ति उत्पन होती है और माँसाहार से उत्तेजना. डा. हेग नें शक्तिवर्द्धक और उत्तेजक पदार्थों में भेद किया है. उत्तेजना एक वस्तु है और शक्ति दूसरी. माँसाहारी पहले तो उत्तेजनावश शक्ति का अनुभव करता है किन्तु शीघ्र थक जाता है, जबकि शाकाहार से उत्पन्न शक्ति शरीर द्वारा धैर्यपूर्वक प्रयोग में लाई जाती है. शरीर की वास्तविक शक्ति को आयुर्वेद में 'ओज' के नाम से जाना जाता है और दूध, दही एवं घी इत्यादि में ओज का स्फुरण होता है, जबकि माँसाहार से विशेष ओज प्रकट नहीं होता.
5. दिल का दर्दनाक दौरा:-यों तो ह्रदय रोग के अनेक कारण है. लेकिन इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि उनमें से माँसाहार और धूम्रपान दो बडे कारणों में से हैं. वस्तुत: माँसाहारी भोजन में कोलोस्ट्रोल नामक् चर्बी तत्व होता है, जो कि रक्त वाहिनी नलिकाओं के लचीलेपन को घटा देता है. बहुत से मरीजों में यह तत्व उच्च रक्तचाप के लिए भी उत्तरदायी होता है. कोलोस्ट्राल के अतिरिक्त यूरिक एसिड की अधिकता से व्यक्ति "रियूमेटिक" का शिकार हो जाता है. ऎसी स्थिति में आने वाला दिल का दौरा पूर्णत: प्राणघातक सिद्ध होता है.
(Rheumatic causes inflammation of tissues and organs and can result in serious damage to the heart valves, joints, central nervous system)
माँस-मद्य-मैथुन----मित्रत्रय से "दुर्बल स्नायु" (Nervous debility):-माँस एक ऎसा उत्तेजक अखाद्य पदार्थ है, जो कि इन्सान में तामसिक वृति की वृद्धि करता है. इसलिए अधिकांशत: देखने में आता है कि माँस खाने वाले व्यक्ति को शराब का चस्का भी देर सवेर लगने लग ही जाता है, जबकि शाकाहारियों को साधारणतय: शराब पीना संभव नहीं. एक तो माँस उत्तेजक ऊपर से शराब. नतीजा यह होता है कि माँस और मद्य के सेवन से मनुष्य के स्नायु इतने दुर्बल हो जाते हैं कि मनुष्य के जीवन में निराशा भावना तक भर जाती है. फिर एक बात ओर---माँस और मद्य की उत्तेजना से मैथुन(सैक्स) की प्रवृति का बढना निश्चित है. परिणाम सब आपके सामने है. इन्सान का वात-संस्थान (Nerve System ) बिगड जाता है और निराशा दबा लेती है. धर्मशास्त्रों के वचन पर मोहर लगाते हुए टोलस्टॉय के शब्दों मे विज्ञान का भी कुछ ऎसा ही कहना है-
"Meat eating encourages animal passions as well as sexual desire."
आपका सुंदर लेख 'वत्स'जी ,खोले मन की आँख
जवाब देंहटाएंशाकाहार का सेवन करें ,बीमारियों से पायें निजात .
मेरे ब्लॉग 'मनसा वाचा कर्मणा' पर सभी सुधि जन का स्वागत है.
'बिनु सत्संग बिबेक न होई' मेरी नई पोस्ट है,आहार शुद्धि पर भी उसमें बल दिया गया है.
कोई चिंता नहीं. मैं तो शाकाहारी हूं.
जवाब देंहटाएंमजा आ गया पोस्ट पढ़ के ........सच्ची :)
जवाब देंहटाएं'वत्स'जी हार्दिक आभार इस सुंदर शोधात्मक आलेख के लिए ..... बहुत अच्छी पोस्ट है...
जवाब देंहटाएंआपसे सहमत।
जवाब देंहटाएंहैप्पी होली!
आज समूची दुनिया एक विचित्र रूग्ण मनोदशा से गुजर रही है. आज के परिपेक्ष में बहुत ही उपयुक्त लेख. आपका बहुत आभार कृपया और अधिक जानकारी के लिए पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय द्वारा लिखित पुस्तक "हम घास खाए या मांस" पढ़िए
जवाब देंहटाएंहोली की हार्दिक शुभकामनाएं
और हाँ .......
जवाब देंहटाएंअगली पोस्ट का इन्तजार रहेगा :)
पंडित जी,
जवाब देंहटाएंएक वैज्ञानिक,तथ्यपरक,तार्किक विवेचन है।
आहार शुद्धि का जाग्रतिप्रेरक आलेख है।
आश्चर्य तो यह है कि कोई प्रतिप्रश्न ही उपस्थित नहीं होता!!
सार्थक!!, अगली कडी का इन्तज़ार रहेगा।
Excellent post!..Very informative indeed.
जवाब देंहटाएंलोग बिना मतलब ही इस पावन शरीर को मुर्दाघर बना रहे है
जवाब देंहटाएंसही और सार्थक लेख
जानकारी के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंहोली के पर्व की अशेष मंगल कामनाएं।
धर्म की क्रान्तिकारी व्या ख्याa।
समाज के विकास के लिए स्त्रियों में जागरूकता जरूरी।
बहुत सुन्दर वैज्ञानिक विवेचना के लिए आभार वत्स जी ! आप लोगों का एक ब्लॉग पर जुड़ना सुखद है !.
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें !
nice
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