हिंसा की तुलना, माँसाहार बनाम शाकाहार
भोजन के लिए अनाज की प्रायः उपज ली जाती है , फसल काटकर अनाज तब प्राप्त किया जाता है, जब पौधा सूख जाता है। इस उपक्रम में वह अपना जीवन चक्र पूर्ण कर चुका होता है, और स्वयं निर्जीव हो जाता है। ऐसे में उसके साथ हिंसा या अत्याचार जैसे अन्याय का प्रश्न ही नहीं होता, इसलिए सूखे अनाज का आहार सर्वोत्कृष्ट आहार है।
कहते है बीज में नवजीवन पाने की क्षमता होती है, यदि इस कारण से बीज को एकेन्द्रीय जीव मान भी लिया जाय, तब भी वह सुषुप्त अवस्था में होता है। जब तक उस बीज को अनुकूल मिट्टी हवा पानी का संयोग न हो, वह अंकुरित ही नहीं होता। हम जानते है, प्रायः बीज सैकडों वर्ष तक सुरक्षित रह सकते है। ऐसे में शीघ्र सड़न-गलन को प्राप्त होने जैसे मुर्दा लक्षण वाले, अण्डे व मांस, जो अनेक सूक्ष्म जीवाणुओं की उत्पत्ति के गढ़ समान है। उर्वरशक्ति धारी, एक स्पर्शेन्द्रिय, नवजीवन सम्भाव्य बीज से उनकी कोई तुलना नहीं है।
यदि उत्कृष्ट आहार के बारे में सोचा जाय तो वे फल जो स्वयं पककर पेड़ पर से गिर जाते हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में पेड़ के जीवन को कोई खतरा नहीं है न ही किसी प्रकार की वेदना की सम्भावना बनती है। साथ ही फल व सब्जियां जिनके उत्पादन के लिए पेड़ पौधे लगाए जाते हें और उनके फल तोड़कर भोजन के काम में लिए जाते हें, इसमें भी कच्चे और अविकसित फलों की अपेक्षा, विकसित परिपक्व फलों के सेवन को उचित मानना चाहिए। इस प्रक्रिया में एक एक वृक्ष अनेकों, सैकड़ों, हजारों या लाखों प्राणियों का पोषण करता है। और काल क्रम से अपना आयुष्य पूर्ण कर स्वयंमेव मृत्यु को प्राप्त होता है। पेड प्राकृतिक रूप से फल आदि में मधुर स्वादिष्ट गूदा इसीलिए पैदा करते है ताकि उसे खाकर कोई प्राणी, नवपौध रूपी बीज को अन्यत्र प्रसार प्रदान करे। विवेकवान को ऐसे बीज उपजाऊ धरती को सुरक्षित अर्पण करने ही चाहिए। यह उत्कृष्ट सदाचार है।
यदि करुणा का विस्तार करना है तो शस्य कहे जाने वाले वनस्पति में भी कन्द मूल के भोजन से बचा जा सकता है क्योंकि उनके लिये पौधे को जड़ सहित उखाड़ा जाता है। इस प्रक्रिया में पौधे का जीवन समाप्त होता है फिर भी इस श्रेणी के शाकाहार में कम से कम चर जीवों की घात तो नहीं होती। इस कारण यह मांसाहार की अपेक्षा श्रेयस्कर ही है। इसकी तुलना किसी भी तरह से मांसाहार से नहीं की जा सकती है, क्योंकि मांस में प्रतिपल अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती ही रहती है माँस में मात्र उस एक प्राणी की ही हिंसा नहीं है वरन् मांस पर आश्रित अनेकों जीवों की भी हिंसा व्याप्त होती है।
अतः हिंसा और अहिंसा के चिंतन को सूक्ष्म-स्थूल, संकल्प-विकल्प, सापराध-निरपराध, सापेक्ष-निरपेक्ष, सार्थक -निरर्थक के समग्र सम्यक् दृष्टिकोण से विवेचित किया जाना चाहिए। साथ ही उस हिंसा के परिणामों पर पूर्व में ही विचार किया जाना चाहिए।
निर्ममता के विपरीत दयालुता, क्रूरता के विपरित करूणा, निष्ठुरता के विपरीत संवेदनशीलता, दूसरे को कष्ट देने के विपरीत जीने का अधिकार देने के सदाचार का नाम शाकाहार है। इसीलिए शाकाहार सभ्य खाद्याचार है।
सूक्ष्म हिंसा अपरिहार्य हो, फिर भी द्वेष व क्रूर भावों से बचे रहना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए । यही अहिंसक मनोवृति है। न्यून से न्यूनतम हिंसा का विवेक रखना ही तो हमारे मानवीय जीवन मूल्य है। हिंसकभाव से भी विरत रहना अहिंसा पालन है। बुद्धि, विवेक और सजगता से अपनी आवश्यकताओं को संयत व सीमित रखना, अहिंसक वृति की साधना है।
पश्चिमी विद्वान मोरिस सी. किंघली के यह शब्द बहुत कुछ कह जाते है, "यदि पृथ्वी पर स्वर्ग का साम्राज्य स्थापित करना है तो पहले कदम के रूप में माँस भोजन को सर्वथा वर्जनीय करना होगा, क्योंकि माँसाहार अहिंसक समाज की रचना में सबसे बडी बाधा है।"
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* सम्बंधित आलेख *
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* शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल
* हिंसा का अल्पीकरण करने का संघर्ष भी अपने आप में अहिंसा है।
* विवेकी सम्वेदनाएं और संयम ही अहिंसा संस्कृति है
* शाकाहार : तर्कसंगत, न्यायसंगत
इस लेख के पूर्वार्ध "शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल" में आपने पढा- माँसाहार समर्थकों का यह कुतर्क,कि वनस्पति में भी जीवन होता है, उन्हें आहार बनाने पर हिंसा होती है। यह तर्क उनके दिलों में सूक्ष्म और वनस्पति जीवन के प्रति करुणा से नहीं उपजा है। बल्कि यह तो क्रूरतम पशु हिंसा को सामान्य बताकर महिमामण्डित करने की दुर्भावना से उपजा है। फिर भी सच्चाई तो यह है कि पौधे मृत्यु पूर्व आतंक महसुस नहीं करते, न ही उनमें मरणांतक दारूण वेदना महसुस करने लायक, सम्वेदी तंत्रिका तंत्र होता है। ऐसे में विचारणीय प्रश्न, उस हत्या से भी कहीं अधिक हमारे करूण भावों के संरक्षण का होता है। क्रूर निष्ठुर भावों से दूरी आवश्यक है। हमारा मानवीय विवेक, हमें अहिंसक या अल्पहिंसक आहार विकल्प का ही आग्रह करता है।पेड-पौधों से फल पक कर स्वतः ही अलग होकर गिर पडते है। वृक्षों की टहनियां पत्ते आदि कटने पर पुनः उग आते है। कईं पौधों की कलमें लगाई जा सकती है। एक जगह से पूरा वृक्ष ही उखाड़ कर पुनः रोपा जा सकता है। किन्तु पशु पक्षियों के साथ ऐसा नहीं है। उनका कोई भी अंग भंग कर दिया जाय तो वे सदैव के लिए विकलांग, मरणासन्न या मर भी जाते हैं। सभी जीव अपने अपने दैहिक अंगों से पेट भरने के लिये भोजन जुटाने की चेष्टा करते हैं जबकि वनस्पतियां चेष्टा रहित है और स्थिर रहती हैं। उनको पानी तथा खाद के लिये प्रकृति या दूसरे जीवों पर आश्रित रहना पड़ता है। पेड-पौधो के किसी भी अंग को विलग किया जाय तो वह पुनः पनप जाता है। एक नया अंग विकसित हो जाता है। यहां तक कि पतझड में उजड कर ठूँठ बना वृक्ष फिर से हरा-भरा हो जाता है। उनके अंग नैसर्गिक/स्वाभाविक रूप से पुनर्विकास में सक्षम होते है। वनस्पति के विपरीत पशुओं में कोई ऐसा अंग नही है जो उसे पुनः समर्थ बना सके, जैसे आंख चली जाय तो पुनः नहीं आती वह देख नहीं सकता, कान नाक या मुंह चला जाय तो वह अपना भोजन प्राप्त नहीं कर सकता। पर पेड की कोई शाखा टहनी अलग भी हो जाय पुनः विकसित हो जाती है। वृक्ष को इससे अंतर नहीं पड़ता और न उन्हें पीड़ा होती है। इसीलिए कहा गया है कि पशु–पक्षियों का जीवन अमूल्य है, वह इसी अर्थ में कि मनुष्य इन्हें पौधों की भांति धरती से उत्पन्न नहीं कर सकता।
उसी परिपेक्ष्य में अब देखते है पशु एवं पौधों में तुलनात्मक भिन्नता……
भोजन के लिए अनाज की प्रायः उपज ली जाती है , फसल काटकर अनाज तब प्राप्त किया जाता है, जब पौधा सूख जाता है। इस उपक्रम में वह अपना जीवन चक्र पूर्ण कर चुका होता है, और स्वयं निर्जीव हो जाता है। ऐसे में उसके साथ हिंसा या अत्याचार जैसे अन्याय का प्रश्न ही नहीं होता, इसलिए सूखे अनाज का आहार सर्वोत्कृष्ट आहार है।
कहते है बीज में नवजीवन पाने की क्षमता होती है, यदि इस कारण से बीज को एकेन्द्रीय जीव मान भी लिया जाय, तब भी वह सुषुप्त अवस्था में होता है। जब तक उस बीज को अनुकूल मिट्टी हवा पानी का संयोग न हो, वह अंकुरित ही नहीं होता। हम जानते है, प्रायः बीज सैकडों वर्ष तक सुरक्षित रह सकते है। ऐसे में शीघ्र सड़न-गलन को प्राप्त होने जैसे मुर्दा लक्षण वाले, अण्डे व मांस, जो अनेक सूक्ष्म जीवाणुओं की उत्पत्ति के गढ़ समान है। उर्वरशक्ति धारी, एक स्पर्शेन्द्रिय, नवजीवन सम्भाव्य बीज से उनकी कोई तुलना नहीं है।
यदि उत्कृष्ट आहार के बारे में सोचा जाय तो वे फल जो स्वयं पककर पेड़ पर से गिर जाते हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में पेड़ के जीवन को कोई खतरा नहीं है न ही किसी प्रकार की वेदना की सम्भावना बनती है। साथ ही फल व सब्जियां जिनके उत्पादन के लिए पेड़ पौधे लगाए जाते हें और उनके फल तोड़कर भोजन के काम में लिए जाते हें, इसमें भी कच्चे और अविकसित फलों की अपेक्षा, विकसित परिपक्व फलों के सेवन को उचित मानना चाहिए। इस प्रक्रिया में एक एक वृक्ष अनेकों, सैकड़ों, हजारों या लाखों प्राणियों का पोषण करता है। और काल क्रम से अपना आयुष्य पूर्ण कर स्वयंमेव मृत्यु को प्राप्त होता है। पेड प्राकृतिक रूप से फल आदि में मधुर स्वादिष्ट गूदा इसीलिए पैदा करते है ताकि उसे खाकर कोई प्राणी, नवपौध रूपी बीज को अन्यत्र प्रसार प्रदान करे। विवेकवान को ऐसे बीज उपजाऊ धरती को सुरक्षित अर्पण करने ही चाहिए। यह उत्कृष्ट सदाचार है।
यदि करुणा का विस्तार करना है तो शस्य कहे जाने वाले वनस्पति में भी कन्द मूल के भोजन से बचा जा सकता है क्योंकि उनके लिये पौधे को जड़ सहित उखाड़ा जाता है। इस प्रक्रिया में पौधे का जीवन समाप्त होता है फिर भी इस श्रेणी के शाकाहार में कम से कम चर जीवों की घात तो नहीं होती। इस कारण यह मांसाहार की अपेक्षा श्रेयस्कर ही है। इसकी तुलना किसी भी तरह से मांसाहार से नहीं की जा सकती है, क्योंकि मांस में प्रतिपल अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती ही रहती है माँस में मात्र उस एक प्राणी की ही हिंसा नहीं है वरन् मांस पर आश्रित अनेकों जीवों की भी हिंसा व्याप्त होती है।
अतः हिंसा और अहिंसा के चिंतन को सूक्ष्म-स्थूल, संकल्प-विकल्प, सापराध-निरपराध, सापेक्ष-निरपेक्ष, सार्थक -निरर्थक के समग्र सम्यक् दृष्टिकोण से विवेचित किया जाना चाहिए। साथ ही उस हिंसा के परिणामों पर पूर्व में ही विचार किया जाना चाहिए।
निर्ममता के विपरीत दयालुता, क्रूरता के विपरित करूणा, निष्ठुरता के विपरीत संवेदनशीलता, दूसरे को कष्ट देने के विपरीत जीने का अधिकार देने के सदाचार का नाम शाकाहार है। इसीलिए शाकाहार सभ्य खाद्याचार है।
सूक्ष्म हिंसा अपरिहार्य हो, फिर भी द्वेष व क्रूर भावों से बचे रहना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए । यही अहिंसक मनोवृति है। न्यून से न्यूनतम हिंसा का विवेक रखना ही तो हमारे मानवीय जीवन मूल्य है। हिंसकभाव से भी विरत रहना अहिंसा पालन है। बुद्धि, विवेक और सजगता से अपनी आवश्यकताओं को संयत व सीमित रखना, अहिंसक वृति की साधना है।
पश्चिमी विद्वान मोरिस सी. किंघली के यह शब्द बहुत कुछ कह जाते है, "यदि पृथ्वी पर स्वर्ग का साम्राज्य स्थापित करना है तो पहले कदम के रूप में माँस भोजन को सर्वथा वर्जनीय करना होगा, क्योंकि माँसाहार अहिंसक समाज की रचना में सबसे बडी बाधा है।"
सूचना:निरामिष का करूणामय एक वर्ष पूर्ण हुआ। यह निरामिष ब्लॉग के द्वितीय वर्ष में प्रवेश का गौरवशाली अवसर है इसी प्रसंग पर अगली पोस्ट विशेषांक की तरह होगी।
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* शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल
* हिंसा का अल्पीकरण करने का संघर्ष भी अपने आप में अहिंसा है।
* विवेकी सम्वेदनाएं और संयम ही अहिंसा संस्कृति है
* शाकाहार : तर्कसंगत, न्यायसंगत
बहुत सुन्दर विश्लेषण किया है सुज्ञ जी आपने.
जवाब देंहटाएंआपके सुन्दर प्रयास को सादर नमन.
निरामिष के एक वर्ष पूरा किया जाने के लिए हार्दिक बधाई.
"द्वेष व क्रूर भावों से बचे रहना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए "
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा शिक्षाप्रद लेख
बहुत आसान तरीके से समझाया है आपने सुज्ञ जी
BIS (Bajaj-Ibrahim-Singh) थ्योरी भी इसी ओर इशारा करती नजर आती है |
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जवाब देंहटाएंएक वर्ष पूर्ण करने पर निरामिष परिवार को ढेरों बधाईयाँ और शुभकामनाएँ
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हम सभी पाठकों को बेसब्री से विशेषांक पोस्ट का इन्तजार रहेगा |
yes if veg is available one should eat the veg and reduce the non veg.
जवाब देंहटाएंanother question if all Humans become veg then do we got the capacity to feed each stomach.
एस एम साहब,
जवाब देंहटाएंकृपया यह आलेख अवश्य पढें
निरामिष: यदि अखिल विश्व शाकाहारी हो जाय तो………???
@निर्ममता के विपरीत दयालुता, क्रूरता के विपरित करूणा, निष्ठुरता के विपरीत संवेदनशीलता, दूसरे को कष्ट देने के विपरीत जीने का अधिकार देने के सदाचार का नाम शाकाहार है। इसीलिए शाकाहार सभ्य खाद्याचार है।
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी,
इस उत्कृष्ट आलेख द्वारा शाकाहार और पशुहिंसा के अंतर को इतने स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करने के लिए आपका हार्दिक आभार। इस आलेख के दोनों खंडों को पढने के बाद किसी के भी मन में रहे सभी प्रकार के संशय दूर हो जायेंगे।
ऐसे ही गाय या अन्य जीवों के दूध को लेकर भी सवाल उठाए जाते हैं .. बात यह है कि जिनमे अपने बछडे से अधिक दूध देने की क्षमता है .. उस मादा को अच्छे देख रेख से उस लायक बनाया जाता है .. शिशु के पीने से अतिरिक्त बचे दूध का ही सेवन गृहस्थ किया करते थे .. आज के आर्थिक युग में बच्चों को मारकर पूरे दूध का उपयोग कर लिया जाता है .. तो दोष आज के युग का है .. धर्म का नहीं !!
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंमोह्हबत में घायल वो भी है और मैं भी हूँ,
वस्ल के लिए पागल वो भी है और मैं भी हूँ,
तोड़ तो सकते हैं सारी बंदिशें ज़माने की,
लेकिन घर की इज्जत वो भी है और मैं भी हूँ,
{वस्ल = मिलन}
"ब्लॉगर्स मीट वीकली
(24) Happy New Year 2012": में आयें .
आपको यहाँ कुछ नया और हट कर मिलेगा .
पेड़ पौधों में भी होता है तंत्रिका तंत्र और वे प्रतिक्रिया भी देते हैं
जवाब देंहटाएंआश्चर्य की बात यह है कि यह प्रक्रिया बिल्कुल वैसी है, जैसे मानव का तंत्रिका तंत्र काम करता है. ऐसा सेल्स (इलेक्ट्रो-केमिकल सिग्नल) के कारण होता है. यह पेड़-पौधों के तंत्रिका तंत्र के रूप में काम करता है.
Humans are the most selfish animals. They have a very strong desire to survive and flourish because of which we have evolved, reached where we are today. 2000-3000 years ago when farming was not easy, no modes of communication were available to learn from different parts of the world, people living in extreme conditions such as heavy rains, extreme cold, heat, high hills, low valleys, deserts etc were forced to identify food sources from whatever was available. I am a pure vegetarian and dont like/eat non-veg. But I guess there's no point in hating all those who eat non-veg food or criticizing them left, right and center.
जवाब देंहटाएंवनस्पतियों में जीवन की संभावना को स्वीकार करते हुए, जितनी कोमलता और सावधानी से आपने इस विषय को छुआ है वह सर्वथा प्रशंसनीय है... यही नहीं भोजन (शाकाहार बनाम मांसाहार) के माध्यम से आपने जो हिंसा-अहिंसा या करुना को प्रस्तुत किया है वह तार्किक है.
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी! इस निरामिष मिशन के एक वर्ष पूरे होने पर बधाई एवं इस यज्ञ की अग्नि के अनवरत प्रज्जवल रहने की मंगलकामनाएं!!
डॉ अनवर जमाल साहब,
जवाब देंहटाएंपहले तो उस शोध कथन में कही गई बात तो गम्भीरता से समझने का उद्यम किजिए,फिर प्राणी आतंक, हिंसा और सम्वेदना तंत्र से इस कथित तंत्रिका तंत्र का मिलान किजिए, यथार्थ समझ आ जाएगा।
नितिन जी,
जवाब देंहटाएंयही तो दुर्भाग्य है कि हम उचित- अनुचित को मानते हुए भी प्रकट नहीं करते। अनुचित को अनुचित कहना कहीं से भी निंदा आलोचना नहीं होता। हमारी व्यक्तिगत मान्यता में शाकाहर से लाभ महसुस होते है, जैसे कि आप शुद्ध शाकाहारी है,आपके अच्छे अनुभव है तो उसे अन्य लोगों के लाभ के लिए शेयर नहीं करेंगे? आपकी पसंद कारण विहीन तो नहीं हो सकती। आप आहार के मक़सद से पशु- हिंसा से बचने के उद्देश्य से ही शुद्ध शाकाहारी है न? तो यह प्रकट करना कैसे निंदा हो सकता है कि माँसाहार में हिंसा है, बचना चाहिए।
गलत को गलत न कह पाने का पलायन ही गलतियों का प्रोत्साहक होता है।
Do you know organisms are classified in to three types:
जवाब देंहटाएंHerbivores(who eats plants),
Carnivores(who eats other organism),
Omnivores(who eats both)
Have you ever heard of the term FOOD CHAIN???
I am really surprised with your thinking.
PS: This comment is directed to the theme of your blog.
चला बिहारी………श्री सलिल जी,
जवाब देंहटाएंआपका प्रोत्साहन तो अमूल्य है। किन शब्दों में व्यक्त करूँ समझ नहीं पा रहा।
tathya aur tark par aadhaarit bahut achchha aalekh. mansaahariyon ke paas koi tark nahin hota fir bhi unke apne kutark hain. nisandesh wo bhi jante hain ki unki daleel thothi hai. shaakaahar ko badhawa dekar pashu-pakshiyon kee hatya ko rokna aniwaarya hai. saarthak aalekh. shubhkaamnaayen.
जवाब देंहटाएंयदि उत्कृष्ट आहार के बारे में सोचा जाय तो वे फल जो स्वयं पककर पेड़ पर से गिर जाते हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में पेड़ के जीवन को कोई खतरा नहीं है न ही किसी प्रकार की वेदना की सम्भावना बनती है।
जवाब देंहटाएं..... वास्तव मे मानुषों के लिए खाद्य यही है ,,, वर्षगांठ की बधाई
अरे!!!
जवाब देंहटाएंजिस पोस्ट का लिंक हमने दिया है वो तो यहाँ है ही नहीं।
उसको प्रकाशित कीजिए ना!
नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी उस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सुज्ञ भैया , इस आलेख के लिए और इस comparison के लिए धन्यवाद आपका | अंडे और बीज की संभावनाओं और दोनों के बीच के फर्क को कहने के लिए मेरा निजी धन्यवाद भी स्वीकारें |
जवाब देंहटाएंबिलकुल सच है - वनस्पतियों और पशुओं के मांस के सेवन को बराबर दिखाने के प्रयास करने वाले स्वयं भी जानते हैं की वे कितने खोखले तर्क देते हैं ( जैसे मैं देती थी अपने अंडे खाने को justify करने के लिए |) आपके इस उत्तम mission को मेरा सादर प्रणाम हैं |
पूरे निरामिष परिवार को बधाई और नव वर्ष की शुभकामनायें |
सुज्ञ जी
जवाब देंहटाएंआपके तर्क और प्रतिउत्तर लाजवाब हैं..... फिर भी नासमझ लोग हठधर्मिता नहीं छोड़ते.... 'लचीलापन' और 'अनुचित को अनुचित कहने की क्षमता' शिल्पा मेहता जी की टिप्पणी से महसूस हुई.
संगीतापुरी ने भी एक अन्य सत्य को उदघाटित किया ... उनका आभार.
आदरणीया शिल्पा जी,
जवाब देंहटाएंमांसाहार त्याग तो आपने पूर्व में ही कर दिया था, निरामिष पर लेखों की प्रेरणा से सामिष के अन्तिम लक्षण अण्ड़े का भी आपने पूर्णतः परित्याग किया, निश्चित ही आप अभिनन्दन की पात्र है। इस बडे संकल्प के लिए हमारा अभिवादन स्वीकारें। सात्विकता भरे कदम के लिए अनंत शुभकामनाएँ।
संगीता पुरी जी,
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार, एक और कुतर्क के पिछे छुपे असली कारणों को आपने उजागर किया।
जो दूध पाने के लिए भी अत्याचार करते है, यह दुष्कर्म ही है।
अतिरिक्त और प्रकृतिक दूध में कोई दोष नहीं है।
नितिन जैन साहब,
जवाब देंहटाएंहिंसा और अत्याचार छुपाने के लिए लोग अक्सर यही आड़ लेते है, यह तो खान-पान है, हम स्वतंत्र है जो जी में आए खाएं, प्रकृति और पर्या्वरण गया भाड़ में, खान-पान की निन्दा न करो!! किसी भी कारणों सम्वेदनाओं से भी नहीं। बड़ी कुटिल स्थिति है।
सुज्ञ भैया - आप ऐसा न कहें | अभिनन्दन के पात्र तो आप और आपका यह निरामिष परिवार है जो मुझ जैसे जाने कितने लोगों को सात्विक, और उत्कृष्ट आहार की प्रेरणा दे रहे हैं | आप सभी को मेरा प्रणाम |
जवाब देंहटाएंsamyyyr जी,
जवाब देंहटाएंआपनें ब्लॉग पढ़ा ही नहीं तो अब आपको क्या कहें, लाजिमि है आपका आश्चर्य करना।
पर स्पष्ट कर दें कि मनुष्य सर्वाहारी नहीं है, वह पदार्थ चुन कर खाता है, माँसाहारी मगरमच्छ की तरह मांस पचाने के लिए सर्वाहार की तरह पत्थर मिट्टी तो नहीं खाता, न मात्र घास से पौष्टिकता पा सकता है।
और फुड़ चैन को सुरक्षित रखने के लिए मानव स्वयं को मांसाहारी पशुओं के समक्ष परोस तो नहीं देता?
निरामिष पर कईं आलेख है जो इन भ्रांतियों को भी उजागर करते है।
डॉ. जेन्नी शबनम जी,
जवाब देंहटाएंशाकाहारी जीवन मूल्यों को प्रोत्साहन देने के लिए आपका आभार
बहुत बहुत बधाई सभी निरामिषगणों को, शाकाहार के प्रचार मे इस ब्लॉग ने जो महत योगदान दिया है, वह वास्तव में आह्लादकारी है।
जवाब देंहटाएंऔर इस महान कार्य के लिए श्री हंसराज जी उपाख्य "सुग्य" जी का योगदान सर्वतोभावेन स्तुत्य और अनुगमनीय है। इस एक वर्ष की अल्प समयावधी में निरामिष ने जो उत्कर्ष प्राप्त किया है, वह सुगयजी के वर्णनातीत अथक परिश्रमसाध्य व विशदशोधपूर्ण लेखों से ही संभव हो पाया है।
राकेश जी,
जवाब देंहटाएंगौरव जी,
अनुराग जी,
आलेख को पसंद करने और शाकाहार को बढ़ावा देने के लिए आपका आभार
संगीता पुरी जी,
जवाब देंहटाएंआलेख को पसंद करने व प्रोत्साहक सूचन रखने के लिए आपका आभार
@ "सूक्ष्म हिंसा अपरिहार्य हो, फिर भी द्वेष व क्रूर भावों से बचे रहना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए । यही अहिंसक मनोवृति है।"
जवाब देंहटाएंशाकाहार संबंधी सभी निष्कर्षों का सार समाया हैं इन पंक्तियों में, उतरोत्तर अहिंसक होते जाना ही मुक्ति का मार्ग है।
अमित जी,
जवाब देंहटाएंसारा श्रेय मुझ नन्ही जान पर डाल कर अपने अवदानों को छिपा लेना चाहते है? आपके सहयोग और आश्रय के बिना निरामिष को यह विकास न मिलता।
पदमसिहं जी,
जवाब देंहटाएंआप पधारे बहुत ही आभार आपका, स्नेह बनाए रखिएगा। शुभकामनाओं के लिए आभार मित्र!!
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी,
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका, इसीतरह प्रोत्साहन बनाए रखें।
भोजन के लिए अनाज की प्रायः उपज ली जाती है , फसल काटकर अनाज तब प्राप्त किया जाता है, जब पौधा सूख जाता है। इस उपक्रम में वह अपना जीवन चक्र पूर्ण कर चुका होता है, और स्वयं निर्जीव हो जाता है। ऐसे में उसके साथ हिंसा या अत्याचार जैसे अन्याय का प्रश्न ही नहीं होता, इसलिए सूखे अनाज का आहार सर्वोत्कृष्ट आहार है।
जवाब देंहटाएं@सुज्ञ जी ,
आपकी इन पंक्तियों ने मेरे मन में भी व्याप्त एक उलझन का काफी हद निवारण किया ,इसके लिए आपका बहुत-२ धन्यवाद और साथ ही निरामिष मिशन के एक वर्ष पूरे होने पर बहुत-२ बधाई
शाकाहार और मांसाहार के विभेद को बहुत विस्तार से समझाया !
जवाब देंहटाएंबढ़िया जानकारी, शुक्रिया!!!!
जवाब देंहटाएं@प्रश्नवादी जी,
जवाब देंहटाएंआभार शुभकामनाओं के लिए, आप भी समर्थक है आपको भी बधाई!!
@वाणी जी,
इस प्रोत्साहन के लिए लाख लाख शुक्रिया!!
@देवांशु निगम जी,
इस प्रोत्साहन के लिए बंधु आभार!!
सूक्ष्म हिंसा अपरिहार्य हो, फिर भी द्वेष व क्रूर भावों से बचे रहना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए । यही अहिंसक मनोवृति है। न्यून से न्यूनतम हिंसा का विवेक रखना ही तो हमारे मानवीय जीवन मूल्य है। हिंसकभाव से भी विरत रहना अहिंसा पालन है। बुद्धि, विवेक और सजगता से अपनी आवश्यकताओं को संयत व सीमित रखना, अहिंसक वृति की साधना है
जवाब देंहटाएं...ekdam sachi kaha aapne..
..bahut badiya jaankari...
Navvarsh kee aapko spariwar haardik shubhkamnayen!
ब्लॉगर रचना बैंकॉक गईं तो उन्होंने खाने के लिए वेज बर्गर मंगाया। मैक्डोनल्ड ने उन्हें बीफ़ बर्गर दिया। वहां गाय का मांस शाकाहार ही माना जाता है।
जवाब देंहटाएंभारतीय संस्कृति की तरह ही विश्व संस्कृति भी बड़ी अद्भुत है।
यह जानना सचमुच एक अजीब बात है कि मांस उन लोगों के भोजन का भी हिस्सा है जो कि शाकाहारी हैं और शाकाहार की प्रेरणा देते हैं।
शाकाहार क्या है ?
लोग इस पर भी एकमत नहीं हैं।
उड़ीसा हो या जापान, मछली को शाकाहार में ही गिना जाता है Vegetarianism
http://aryabhojan.blogspot.com/2012/01/vegetarianism.html
@DR. ANWER JAMAL जी ,
जवाब देंहटाएंआपकी इन मूर्खतापूर्ण बातों से आप कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह के भाई प्रतीत होते हैं
जिस प्रकार से वो अन्ना को बदनाम और अपने भ्रष्ट साथियों का बचाव करते हैं उसी प्रकार से आप शाकाहार को बदनाम और मांसाहार का बचाव करते हैं
यहाँ पर निरामिष एवं शाकाहार को मिल रहे भरपूर समर्थन से बौखलाकर आप जो अजीब सी टिप्पणियाँ कर रहे हैं उसे आधार बनाकर अगर आपके बारे में निम्नलिखित पंक्ति कही जाए तो निश्चित ही अतिशयोक्ति नहीं होगी -
" खिसयानी बिल्ली खम्बा नोचे "
[ वैसे इस पंक्ति में बिल्ली की जगह पर आप अपने आपको बिल्ला संबोधित कर सकते हैं :) :) ]
@ प्रश्नवादी ! जब सभ्यता और समझ आ जाएगी तब आप व्यक्तिगत आक्षेप न करके दिए गए तथ्यों पर बात करेंगे।
जवाब देंहटाएंअलग अलग शाकाहारियों का मेन्यू अलग अलग होता है। इसमें कौन सी बात मूर्खतापूर्ण है भाई साहब ?
कोई दूध को शाकाहार में गिनता है और कोई मांसाहार में। यही बात मछली के बारे में भी है।
व्यक्तिगत आक्षेपयुक्त टिप्पणियां आपने कीं तो सुज्ञ जी ने प्रकाशित कर दीं। कोई प्रतिपक्ष समर्थक आकर इस तरह की टिप्पणी कर देता तो वह यहां से हटा दी जाती।
यह तरीक़ा ठीक नहीं है।
आपके कमेंट के फ़ौरन बाद मॉडरेशन लगा भी दिया है। रूप बदलकर ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए और न ही प्रकाशित करनी चाहिएं जिनका जवाब उसी तर्ज़ में झेलने से डर लगता हो।
http://vedquran.blogspot.com/2012/01/sufi-silsila-e-naqshbandiya.html
@ इसमें कौन सी बात मूर्खतापूर्ण है भाई साहब ?
जवाब देंहटाएंअनवर जमाल साहब, इसमें मूर्खतापूर्ण यह है कि आपने कहा था भारत की तरह, और महाशय भारत में शाकाहार मांसाहार का स्पष्ठ वर्गीकरण है और शाकाहारियों का एक ही मेन्यू है। यहाँ दूध अंडे या मछली को कोई शाकाहार नहीं कहता। और विदेशों में तो वर्गीकरण और भी सुक्ष्म हो चला है, वहां वेगन, लेक्टो-शाकाहारी, और शाकाहारी सब कुछ स्पष्ठ है। किसी नादान (मूर्ख) नें कुछ का कुछ सुनकर, कुछ लाकर धर दिया तो यह उसकी व्यक्तिगत गलती है। शाकाहार अपने आप में क्लियर मैटर है।
टिप्पणी तो पहले आपकी प्रकाशित हुई थी, उस पर ही तो प्रश्नवादी जी नें आपसे प्रतिप्रश्न किया है। व्यक्तिगत कहने की आपको बड़ी सश्कायत है? सम्माननीय ब्लॉगर रचना जी का उल्लेख व्यक्तिगत नाम से क्यों?
उसी तर्ज़ में ? आप तो उसी तर्ज़ पर आने ही है, इसमें नया क्या है।
मोडरेशन नई पोस्ट जो एक पहेली है उसके लिए लगाया गया है, मात्र आपके लिए नहीं, आप करते रहिए टिप्पणी, समय मिलते ही प्रकाशित की जाएगी। कृपया लिंक न डालें।
अलग अलग शाकाहारियों का मेन्यू अलग अलग होता है। इसमें कौन सी बात मूर्खतापूर्ण है भाई साहब ?
जवाब देंहटाएंकोई दूध को शाकाहार में गिनता है और कोई मांसाहार में। यही बात मछली के बारे में भी है।
@DR. ANWER JAMAL जी ,
आप किसी ओर की नहीं अपनी बात करें की आप दूध ओर मछली को मांसाहार में गिनते हैं या शाकाहार में ,अगर किसी ओर की ही बात करनी है तो आपके इस कुतर्क पर तो पलटकर ये कुतर्क भी दिया जा सकता है की आज बहुत से लोग इस्लाम को आतंकवाद का जनक मानते हैं
तो इसे आप समझदारी कहेंगे या मूर्खता ?? क्या आप इसे अज्ञानता एवं मूर्खता नहीं कहेंगे या फिर यहाँ भी आप diplomatic होकर कहेंगे की ये उनका अपना मेन्यू ( or dictionery ) है और आपको उनकी इस राय पर कोई आपत्ति नहीं है
मुझे तो आपके दूध को मांसाहार और मछली को शाकाहार में गिनने में घोर आपत्ति है और वही मैं आपके समक्ष दर्ज करवा रहा हूँ
आपके जैसा ही कुतर्क बेनजीर भुट्टो ने भी कश्मीर के आंतकवादियों की हिंसक गतिविधियों का समर्थन करते हुए दिया था की भारतीयों के लिए भले ही ये आंतकवाद हो लेकिन हमारे मुताबिक़ तो ये आजादी की लड़ाई है
यहाँ भी उनका मेन्यू अलग था और भारत का अलग लेकिन जब वैसी ही हिंसक गतिविधियां उनके अपने घर पाकिस्तान में होनी शुरू हुई तब उन्हें आंतकवाद और आजादी की लड़ाई के बीच में फर्क महसूस हुआ
इसलिए कृपया अर्थ का अनर्थ करने से बचें और चीज़ों को उनकी मूल प्रकर्ति के अनुरूप ही प्रयुक्त करें
बाकी detail में तो भाई @अमित शर्मा ने आपको समझा ही दिया है और संक्षिप्त में उन्ही की टिप्पणी की एक पंक्ति जो की मुझे आपके लिए उपयुक्त प्रतीत हुई वो यहाँ दे रहा हूँ
" थोथा ज्ञानाभिमानी वास्तव में निरक्षरभट्टाचार्य से भी गया बीता होता है "
@सुज्ञ जी और @Smart Indian - स्मार्ट इंडियन जी,
जवाब देंहटाएंआप दोनों से क्षमा चाहूँगा की आपकी मूल पोस्ट्स के विषय में टिप्पणी करने की जगह ऐसी टिप्पणियाँ करनी पड़ रहीं हैं लेकिन क्या करें -
" जमाल जी हैं की मानते नहीं "
अच्छी बहस छिडी है भाई,लेख में भी ,कमेन्ट में भी.
जवाब देंहटाएंयह बहस तो मेरे घर में रोज होती है ,मेरे साहब मांसाहारी रहे हैं ,मैं लहसुन प्याज से भी परहेज रखती हूँ ,अब बहस तो होगी ही पर खाते वही हैं जो मेरी रसोई में पकता है. सिर्फ शाकाहारी भोजन ने उन्हें कई रोगों से मुक्त कर दिया है. शाकाहार उत्तम तो है ही.
मेरा ख़याल है कि जान बचाने के लिए अगर कुछ भी उपलब्ध नहीं है तो आप आदमी के मुर्दे का भी मांस खाएं तो दोष नहीं होगा लेकिन जब खाने की और चीजे मौजूद हो तो मांस से दूर ही रहना चाहिए.
बहुत बहुत आभार अल्का जी,
हटाएंसर्वत जमाल जी को अच्छे से जानता हूँ, बहुत ही कोमल हृदय इन्सान है। और आप तो ज़डी-बुटी व आयुर्वेद विशेषज्ञ है। बेहतर जानती है शाकाहारी भोजन निरामय-निरोगी है। बहुत बहुत शुक्रिया!!