बुधवार, 21 मार्च 2012

पश्चिम में प्रकाश - भारत के बाहर शाकाहार की परम्परा


बात सभ्यता की हो, अध्यात्म की, योग की या शाकाहार की, भारत का नाम ज़ुबान पर आना स्वाभाविक ही है। सच है कि इन सभी क्षेत्रों में भारत अग्रणी रहा है। वैदिक ऋषियों, जैन तीर्थंकरों, बौद्ध मुनियों और सिख गुरुओं ने अपने आचरण और उपदेश में वीरता, त्याग, प्रेम, करुणा और अहिंसा को अपनाया है मगर शाकाहार का प्रसार छिटपुट ही सही, भारत के बाहर भी रहा अवश्य होगा ऐसा सोचना भी नैसर्गिक ही है।

निरामिष पर एक पिछली पोस्ट में हमने इंग्लैंड में हुए एक अध्ययन के हवाले से देखा था कि वहाँ सर्वोच्च बुद्धि-क्षमता वाले अधिकांश बच्चे 30 वर्ष की आयु तक पहुँचने से पहले ही शाकाहारी हो गये थे। इसी प्रकार बेल्जियम के नगर घेंट में नगर प्रशासन ने सप्ताह के एक दिन को शाकाहार अनिवार्य घोषित करके शाकाहार के प्रति प्रतिबद्धता का एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया था। पश्चिम जर्मनीअमेरिका में बढते शाकाहार की झलकियाँ भी हम निरामिष पर पिछले आलेखों में देख चुके हैं। शाकाहार के प्रति वैश्विक आकर्षण कोई नई बात नहीं है। आइये आज इस आलेख में हम यह पड़ताल करते हैं कि भारत के बाहर शाकाहार के बीज किस तरह पड़े और निरामिष प्रवृत्ति ने वहाँ किस प्रकार एक आन्दोलन का रूप लिया।
पायथागोरस इतने बुद्धिमान थे कि उन्होंने कभी मांस नहीं खाया और मांसाहार को सदा पाप कहा
~ पायथागोरस की जीवनी खंड 23
आज के भारत में शाकाहारी होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हमारे पास भूतदया, करुणा और शाकाहार की इतनी पुरानी और सुदृढ परम्परा है कि शाकाहार पर नहीं, आश्चर्य तो मांसाहार पर होना चाहिये। लेकिन सरसरी तौर पर देखने से पश्चिमी जगत में शाकाहार के लिए पर्याप्त उदाहरण, उपदेश और प्रेरणाएं नज़र नहीं आतीं बल्कि वह कुछ असाधारण व्यक्तियों के हृदय में स्वतः ही उत्पन्न हुआ लगता है। निश्चित रूप से इसके पीछे अच्छे स्वास्थ्य की कामना और पर्याप्त ज्ञान तो है ही, जीवदया और करुणा का महत्व भी कम नहीं है।

जिन लोगों ने आरम्भिक गणित पढा होगा उन्हें धर्मसूत्र के रचनाकार के रूप मे प्रसिद्ध बौधायन (800 ईसा पूर्व) की समकोण त्रिकोण प्रमेय (Pythagoras theorem) को पश्चिम में स्वतंत्र रूप से सिद्ध करने वाले पाइथागोरस (इटली 570 - 495  ईसा पूर्व) की याद तो होगी ही। एक समय में पायथागोरस और उनका गणित इतना आदरणीय था कि उनके वैसे ही अनेक अनुसरणकर्ता बन गये थे जैसे कि किसी धर्मगुरु के अनुयायी होते हैं। किमाश्चर्यम् कि घनघोर मांसाहारी यूरोप का यह प्रसिद्ध गणितज्ञ और विचारक पूर्णतया शाकाहारी था। वैसे पायथागोरस को पुनर्जन्म में भी न केवल विश्वास था बल्कि उनका दावा यह था कि उन्हें अपने चार पिछले जन्मों की बातें याद हैं। पायथागोरस के प्रमुख शिष्यों ने भी शाकाहारी जीवन अपनाया। ये लोग न केवल मछली, अंडा आदि खाने के विरोधी थे बल्कि धर्म के बहाने से की जाने वाली पशुहत्या को भी अमानवीय मानते थे।

होमर के ग्रंथों में कमलपोषित कहकर उत्तरी अफ़्रीका की शाकाहारी प्रजातियों के और इथोपिया के शाकाहारियों के सन्दर्भ आये हैं। पाँचवीं शताब्दी  ईसा पूर्व के दार्शनिक एम्पेडोक्लीज़ भी अपने शाकाहार के लिये जाने गये थे। उस समय के यूरोप के शाकाहारी विद्वानों और मांसाहारी आमजनों के बीच अनेक शास्त्रार्थ होने के बावजूद उनमें इस बात पर सहमति थी कि एक आदर्श समाज में जीवहत्या, शिकार आदि के लिये कोई स्थान नहीं होना चाहिये, ऐसी जानकारी प्लेटो, हेसोइड व ओविड आदि दार्शनिकों के आलेखों से ज्ञात है। प्लेटो और उसके अनुयायी भी पूर्णतः शाकाहारी थे। इनसे इतर विचारधारा का दार्शनिक स्टोइक यद्यपि स्वयं शाकाहारी नहीं था पर उसके प्रसिद्ध शिष्य सेनेका शाकाहारी थे।

विश्व भर में विभिन्न चैम्पियन खिलाड़ियों ने शाकाहार अपनाकर अपने को शिखर पर बनाये रखा है। मगर पश्चिम में भी क्षमतावान होने के लिये शाकाहार का यह प्रयोग कोई नई बात नहीं है। सिकन्दर के विश्वविजयी सैनिकों को युद्धकाल में शाकाहारी रहने के निर्देश थे। अध्ययनों से यह सिद्ध हुआ है कि रोम के विश्वविख्यात ग्लैडियेटर्स अधिक शक्ति, स्फूर्ति व गति के लिये न केवल शाकाहारी बल्कि वीगन हुआ करते थे।

यूरोप में ईसाई धर्म के प्रसार के साथ विद्वानों व संतों के बीच शाकाहार की अनिवार्यता समाप्त हो गयी तथापि अनेक ईसाई संत या तो शाकाहारी रहे या शाकाहार के साथ मत्स्याहारी। परंतु धीरे-धीरे चर्च और विद्वानों के बीच टकराव बढता गया। शक्तिशाली चर्च ने विद्वानों के दमन की नीति अपनाई। यहाँ तक कि कई विद्वानों, विचारकों, दार्शनिकों, वैज्ञानिकों को धर्मविरोधी होने के आरोप में मार दिया गया। ऐसे अन्धकारमय काल के यूरोपीय जीवन में  हिंसा और मांसाहार सामान्य सा हो गया। इंग्लैंड में तो कई समूह यह दावा करते दिखते थे कि पशुओं को ईश्वर ने उनके आहार के लिये ही बनाया है। यूरोप के पुनर्जागरण के काल (रेनेसां = Renaissance) में एक लगभग पूर्ण मांसाहारी यूरोप में जन्मी विभूतियों जैसे लियोनार्दो दा विंची (1452–1519) और पियरे गासेन्दी (1592–1655) ने शाकाहार अपनाकर उसे फिर से विद्वानों के भोजन की प्रतिष्ठा दिलाई। इनके कुछ समय बाद इंग्लिश लेखक टॉमस ट्रायन (1634–1703) ने इंग्लैंड में शाकाहार की वकालत की।

अमेरिका में शाकाहार का जन्म मेरे वर्तमान राज्य पेंसिल्वेनिया में 1732 में योहान कॉनराड द्वारा स्थापित एफ़्राटा क्लॉइस्टर (Ephrata Cloister) समुदाय में हुआ। तत्कालीन इंगलैंड में अनेक कवि, लेखक, विचारक और विद्वान शाकाहार अपना रहे थे। सन 1809 में विलियम काउहर्ड द्वारा शाकाहारी सिद्धांतों पर आधारित बाइबल क्रिस्चियन चर्च की स्थापना हुई। 1838 में लंडन के पास खुले कंकॉर्डियम स्कूल ने मांसाहार को पूर्णतः प्रतिबन्धित कर दिया। भारत के बाहर शाकाहार के आधुनिक इतिहास में एक प्रमुख घटना 30 सितम्बर 1847 को घटी जब 140 अंग्रेज़ों ने एक स्वयंसेवी संस्था "वेजीटेरियन सोसायटी" को पंजीकृत कराया। इसके बाद तो शाकाहार की ऐसी धूम मची कि सन 1853 में 889 सदस्यों की संस्था में सन 1897 तक 5,000 सदस्य थे। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, महात्मा गान्धी और पॉल मैककॉर्टनी जैसे महानुभाव इस संस्था के सदस्य रह चुके हैं। वेजीटेरियन सोसायटी आज भी कार्यरत है और अन्य ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ विभिन्न आहारों को शाकाहारी प्रमाणित करने का काम भी करती है। जिलेटिन और पशु रेनेट (animal rennet) युक्त खाद्य पदार्थों को भोजन से हटाने या स्पष्टतः मांसाहार के रूप में लिखे जाने का दवाब बनाना जैसे कार्य भी इसकी सूची में हैं।

जीवदया के उद्देश्य से सन 1980 में स्थापित संस्था पीटा (PETA = People for the Ethical Treatment of Animals) अपने तीस लाख सदस्यों के साथ शायद इस समय संसार की सबसे बड़ी पशु संरक्षक संस्था है जिसका एक सहयोगी उद्देश्य शाकाहार को बढावा देना भी है। पीटा का मुख्यालय नॉर्फ़ोक वर्जिनिया (अमेरिका) में है।

इस प्रकार हमने देखा कि विश्व भर में अलग-अलग बिखरे हुए विद्वानों व बुद्धिजीवियों द्वारा अपनाई जाने वाली निरामिष आहार शैली किस प्रकार जनमानस के सामान्यजीवन का अंग बनी। भारत में भी यही सब लगभग इसी प्रकार से हुआ होगा। हाँ इतना अवश्य है कि इस मामले में हम शेष विश्व से कई हज़ार साल आगे निकल आये थे और इसीलिये आज भी भारत शाकाहारियों के लिये स्वर्ग है। प्रसन्नता की बात है कि विज्ञान की प्रगति और नित नये अध्ययनों के आधार पर शाकाहार के संतुलित और सम्पूर्ण होने का ज्ञान विद्वानों से आगे बढकर आम जनता तक पहुँच रहा है।

इंसानियत तो दुनियाभर में शाकाहार की प्रगति का मुख्य कारण है ही परंतु मांस उद्योग द्वारा किये जा रहे पर्यावरण प्रदूषण, संसाधन हानि और मानव स्वास्थ्य पर मांस द्वारा पड़ने वाले दुष्प्रभावों के कारण भी विदेश में शाकाहार का प्रचलन बढ रहा है। संयुक्त राष्ट्र ने आधुनिक विश्व में अहिंसा के पुरोधा महात्मा गान्धी के जन्मदिन को अंतर्राष्ट्रीय शाकाहार दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की है। ब्रिटेन में 1985 मे जहॉ कुल जनसंख्या का 2.6 प्रतिशत शाकाहारी था वही आज बढ़कर 7 प्रतिशत से अधिक हो गया है। परम्परागत रूप से मांसाहारी ताइवान में पिछले वर्ष पर्यावरण संरक्षण के लिये "नो मीट नो हीट" अभियान में लगभग दस लाख नागरिकों ने शाकाहार अपनाने की शपथ ली जिसमें ताइवान की संसद के प्रमुख और ताइपेइ तथा काओस्युंग के मेयर भी शामिल हैं।

शाकाहार के सम्बन्ध में यदि आपको कोई भी जानकारी अपेक्षित हो तो आप इन संस्थाओं (वेजीटेरियन सोसायटी व पीटा) से सीधे भी सम्पर्क कर सकते हैं और यदि उचित समझें तो हमसे भी पूछ सकते हैं। इस विषय में आपकी सहायता करने में हमें हार्दिक प्रसन्नता होगी।
   * सम्बन्धित कड़ियाँ * 
* पायथागोरस एवम पशु अधिकार
* वेजीटेरियन सोसायटी
* पीटा

24 टिप्‍पणियां:

  1. अद्भुत उदाहरण...! प्रशंसनीय कदम! हरित बयार!!

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  2. बहुत सुंदर जानकारी देता यह आलेख और ब्लॉग. मेरी जानकारी में है कि अमेरिका में भी शाकाहारी हैं जो मूलतः अंग्रेज़ हैं. वे समाधि का अभ्यास करते हैं और मानते हैं कि माँसाहार समाधि में बाधा पहुँचाता है. जानकारी के लिए आभार.

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  3. शाकाहार के महत्त्व के बारे में आइंस्टाइन महोदय ने कहा है कि "Nothing will benefit human health and increase chances of survival for life on earth as much as the evolution to a vegetarian diet."

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  4. चिन्तनशीलता का निष्कर्ष है शाकाहार।

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  5. बेहतरीन विचारपरक पोस्ट .

    आज तो विज्ञान विनष्ट होते पर्यावरण को बचाने के लिए कृत्रिम मांस की बात भी करने लगा है . अलबता एक जीव से संश्लेषण और क्लोनिग द्वारा टनों मांस प्राप्त किया जा सकेगा .बीफ से भी कोलेस्ट्रोल कम करने की बात चल रही है .पर इस सब झंझट में पड़ना ही क्यों है .शाकाहार की तरफ सीधे सीधे आइये .तिरछा रास्ता क्यों ?न्यूनतम प्रतिरोध का मार्ग क्यों नहीं ?बेहतरीन खोज परक बा -खबर करता आलेख एक यहाँ वहां फैली परम्परा से बा -वास्ता करवाता हुआ .

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  6. ईश्वर ने जब जीवों की रचना की तो उनमे से कुछ हिंसक प्रवृत्ति वाले हो गये तो कुछ अहिंसक ही रहे । तब ईश्वर को विचार करना पड़ा कि एक साम्यावस्था आवश्यक है अन्यथा यह प्रकृति समाप्त हो जायेगी। उसने मांसाहारियों की उम्र शाकाहारियों की अपेक्षा कम कर दी ताकि वे अधिक हिंसा न कर सकें। ईश्वर को यह गर्व था कि उसने मनुष्य के रूप में एक अद्भुत प्राणी की रचना की है अतः अपने आहार के बारे में उचित निर्णय का अधिकार उसे ही दे दिया और सोच लिया कि तदनुसार ही उसकी उम्र का तत्काल निर्धारण किया जायेगा।
    मनुष्य का शरीर और उसके दाँतों की संरचना मांसाहारियों जैसी नहीं है ..इस रूप में ईश्वर ने उसे संकेत तो दे दिया पर निर्णय का अधिकार मनुष्य के पास ही रहने दिया .....किंतु बाद में ईश्वर को अपनी भूल का अनुभव हुआ ..पर अब क्या हो सकता था। ईश्वर की यह भूल किसी दिन उसकी सृष्टि के विनाश का कारण बनेगी।
    अनुराग जी! निरामिष के अनुयायियों का यह अभियान लोगों को सही निर्णय लेने के लिये प्रेरित करेगा ऐसी आशा है।

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    1. @किंतु बाद में ईश्वर को अपनी भूल का अनुभव हुआ ..पर अब क्या हो सकता था। ईश्वर की यह भूल किसी दिन उसकी सृष्टि के विनाश का कारण बनेगी।

      मुझे तो नहीं लगता की ईश्वर ने कोई भूल की है, या कर सकते हैं, या फिर उन्हें कोई चीज़ "हो जाने के बाद" पता चलती है जब देर हो गयी हो !!! या उसके सामने "अब क्या हो सकता है" जैसी मजबूरी आती होगी , या उसकी "भूल" प्रकृति का नाश करवाएगी !!! भूल यदि कोई कर रहा है - तो वह मानुष जो ईश्वर को अपनी इच्छा पर "seal " लगाने का ठप्पा बनाने का प्रयास कर रहे हैं | जो करना चाहते हैं - जिसे enjoy करते हैं - उसके लिए यह हवाला देते हैं की यह ईश्वर की आज्ञा है |

      बहुत अच्छी पोस्ट - आभार स्मार्ट इंडियन जी |

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  7. पश्चिम में प्रकाश - भारत के बाहर शाकाहार की परम्परा आलेख बहुत आशाएं जगाता है ...
    सर्वप्रथम Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
    बंधुवर अनुराग शर्मा जी
    का बहुत बहुत आभार !

    समूचा विश्व शाकाहारी बने उस दिन की प्रतीक्षा है...
    हमें तो सोच कर ही घिन्न होती है - कोई किसी का मांस कैसे खा सकता है ...

    मेरे एक गीत का एक चरण याद हो आया...
    पर-जीवों के भक्षण से बढ़कर कृत्य नहीं वीभत्स कोई !
    ‘हिंसक न बनें, राक्षस न बनें’ – नासमझों को समझाता चल !!
    तू करुणा रस बरसाता चल !


    कम से कम भारत में शाकाहार के प्रति जाग्रति में इस ब्लॉग के आलेखों से भी योगदान मिलेगा
    निरामिष लेखक मण्डल के कार्य की जितनी प्रशंसा की जाए काम है ...

    ~*~नव संवत्सर की बधाइयां !~*~
    शुभकामनाओं-मंगलकामनाओं सहित…

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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    1. राजेन्द्र जी,
      आपको और सभी पाठकों को भी विश्ववसु नाम नवसंवत्सर की हार्दिक बधाई!

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  8. ये तो बहुत सुंदर जानकारी है... आशा जगाती... वाह!
    सादर आभार।

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  9. आप का लेख पढ़ कर अपने शाकाहारी होने पर गर्व हुआ.

    नीरज

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  10. बहुत लाभदायक जानकारी तो है ही पर इतनी सारी टिप्पणियां देखकर बहुत खुशी हुई

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  11. शाकाहारी रहना भारतीय संस्कृति का शीर्ष वैभव है।
    करूणा और जीवदया इस भूमि में करोडों वर्ष से आत्मसात है।
    पर करूणा मानव मात्र आत्मिक गुण है, सभ्यता और विकासोन्मुख विश्व के मानवों में स्वत: करुणा गुण उभरना लाजिमि है।

    अनुराग जी, आपने बडे परिश्रम से इस शोधयुक्त आलेख को तैयार किया है। आपने विश्व में मानवीय गुणों के प्रसार के पद-चिन्ह उजागर किए है। बहुत बहुत आभार इस मूल्यवान आलेख के लिए।

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  12. अच्छा स्वास्थ्य हर युग में मनुष्य की जिज्ञासा और जागरूकता का विषय रही है। इसे रोगग्रस्त होने के पूर्व ही अपनाया जा सके,तो और अच्छा।

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  13. बहुत ही अच्‍छी जानकारी दी है आपने ...आभार ।

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  14. बहुत ही उत्साहवर्धक सूचनाएँ है यह, इस शोध-खोजपूर्ण प्रस्तुति के लिए आभार अनुराग जी।

    एक प्रेस समाचार के अनुसार अमरीका में डेढ़ करोड़ व्यक्ति शाकाहारी हैं। सुप्रसिद्ध गैलप मतगणना के अनुसार इंग्लैंड में प्रति सप्ताह ''३००० व्यक्ति'' शाकाहारी बन रहे हैं। वहाँ अब ''२५ लाख'' से अधिक व्यक्ति शाकाहारी हैं। दस वर्ष पूर्व नीदरलैंड की ''१.५% आबादी'' शाकाहारी थी जबकि वर्तमान में वहाँ ''५%'' व्यक्ति शाकाहारी हैं। नीदरलैंड (हालैड़) में एनिमल राइटस के लिए नई राजनीतिक पार्टी बनाई गई। 2006 के चुनाव में आश्चर्यजनक रुप से दो सीटे जीती। इससे लोगों का रुझान, समझ, और संवेदनशीलता का पता चलता है।

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  15. वेजीटेरियन सोसायटी की कड़ी में……

    रेवरैंड विलियम क्रहर्ड व अन्य कई जागरुक लोगों ने मिलकर 1950 में न्यूयार्क में वेजिटेरियन सोसायटी की स्थापना की। अमेरिका में शाकाहार के फैलाव के लिए अमेरिकी लेखिका एलन जी व्हाइट का योगदान भी मत्वपूर्ण है। सोसाइटी ने 1977 से अमेरिका में विश्व शाकाहार दिवस मनाने की शुरूआत की। सोसाइटी मुख्य तौर पर शाकाहारी जीवन के सकारात्मक पहलुओं को दुनिया के सामने लाती है। इसके लिए सोसाइटी ने शाकाहार से जुड़े कई अध्ययन भी कराए हैं।

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  16. "जिलेटिन और पशु रेनेट (animal rennet) युक्त खाद्य पदार्थों को भोजन से हटाने या स्पष्टतः मांसाहार के रूप में लिखे जाने का दवाब बनाना जैसे कार्य भी इसकी सूची में हैं। "

    काश ये सारे विश्व मे हो जाये! मुझे फलों के साथ वाला दही (योगर्ट) अच्छा लगता है लेकिन दस ब्राण्ड मे से एकाध मे ही जीलेटीन नही होगा। पूरे सुपरमार्केट को खंगालने के बाद बीना जीलेटीन के योगर्ट मिलता है।

    बर्गर किंग (युरोप, अमरीका) और हंगरी जैक आस्ट्रेलीया मे वेज बर्गर मीलता है लेकिन इसमे जिस चीज़ का प्रयोग होता है उसमे पशु रेनेट होता है। मेरे लिये सिर्फ सबवे का सहारा होता है जहां मै चुन चुन कर सब्जीयां डलवा पाता हुं।

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  17. एक और बेहद सार्थक लेख के लिए आपको आभार!
    निरामिष टीम और निरामिष के पाठकों को श्रीरामनवमी के अवसर शुभकामनाएं!

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  18. श्री राम जन्म की बधाईयाँ :) शुभकामनाएं |

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