मंगलवार, 31 मई 2011

हिंसा का अल्पीकरण करने का संघर्ष भी अपने आप में अहिंसा है।


हिंसा को कम से कमत्तर (अल्पीकरण) करनें का पुरूषार्थ स्वयं में अहिंसा है। साथ ही यह अहिंसा के मार्ग पर दृढ कदमों से आगे बढने का उपाय भी है अथवा यूँ कहिए कि अल्पीकरण का निरन्तर संघर्ष ही अहिंसा के सोपान है। जब सुक्ष्म हिंसा अपरिहार्य हो, द्वेष व क्रूर भावों से बचते हुए, न्यूनता का विवेक रखना, अहिंसक मनोवृति है। यह प्रकृति-पर्यावरण नियमों के अनुकूल है। बुद्धि, विवेक और सजगता से अपनी आवश्यकताओं को संयत व सीमित रखना अहिंसक वृति की साधना है।

अहिंसा में विवेक के लिये दार्शनिकों ने तीन आयाम प्रस्तुत किए है। पहला आयाम हैं संख्या के आधार पर, जैसे 5 की जगह 10 जीवों की हिंसा दुगुनी हिंसा हुई। दूसरा आयाम है जीव की विकास श्रेणी के आधार पर एक इन्द्रिय, दो इन्द्रिय विकास क्रम के जीवों से क्रमशः तीन, चार अधिक विकसित है और पांच इन्द्रिय जीव पूर्ण विकसित। यह विवेकजन्य व्यवहार, विज्ञान सम्मत और नैतिक अवधारणा से पुष्ट तथ्य है। अत: हिंसा की श्रेणी भी उसी क्रम से निर्धारित होगी। तीसरा आयाम है, हिंस्र भाव के आधार पर। प्रायः अनजाने से लेकर जानते हुए, स्वार्थवश से लेकर क्रूरतापूर्वक तक आदि मनोवृति व भावनाओं की कईं श्रेणी होती है। प्रथम दृष्टि हिंसा पर सोचना होगा कि उसकी भावना करूणा की है, अथवा परमार्थ की?  स्वार्थ की है या अहंपोषण की?  निर्थक उपक्रम है या उद्देश्यपूर्ण?

एक उदाहरण से समझते है- एक लूटेरा घर लूटने के प्रयोजन से, घर के बाहर सुस्ताने बैठे, किसी अन्य व्यक्ति को खतरा मान हत्या कर देता है। दूसरा, एक कारचालक, जिसकी असावधानी से राहगीर उस गाडी के नीचे आ जाता है। तीसरा, एक डॉक्टर, जिसकी ऑपरेशन  टेबल पर जान बचाने के भरसक  प्रयास के बाद भी मरीज दम तोड़ देता है। तीनो किस्सों में मौत तो होती है, पर भावनाएं अलग अलग है। इसलिए दोष भी उन भावों की श्रेणी के अनुसार होना चाहिए। प्रायः न्यायालय में भी, हत्या के आरोपी को स्वबचाव, सहज स्वार्थ और क्रूर घिघौनी मनोवृति के आधार पर सजा निर्धारित होती है।

चित्र: द जैन युनिवर्स
मनोवृति आधारित जैन दर्शन में लेश्याका एक अभिन्न दृष्टांत है। छह पदयात्री जा रहे थे। जोर की भूख लगी थी। रास्ते में एक जामुन का पेड़ दिखाई दिया। एक यात्री बोला- अभी इस पेड़ को जड़ से काट कर सभी का पेट भर देता हूँ। इस पर दूसरा बोला-जड़ से काटने की जरूरत नहीं, शाखा को काट देता हूँ धराशायी होगी तो सभी फल पा लेंगे। तीसरा  व्यक्ति एक टहनी, तो चौथा फलों के गुच्छे को ही पर्याप्त होने की बात करता है। पाँचवा मात्र गुच्छे से फल चुननें की वकालत करता है तो छठा कहता है पक कर जमीन पर बिखरे पड़े जामुनों से ही हमारा पेट भर सकता है। यह मानव मन की मनोवृतियों का,  क्रूरत्तम से शुभत्तम भाव निश्चित करने का एक श्रेष्ठ और दुर्लभ उदाहरण है।

अतः हिंसा और अहिंसा को उसके संकल्प, समग्र सम्यक् दृष्टिकोण, सापेक्षनिर्भर और परिणाम के सर्वांगिण परिपेक्ष्य से ग्रहण करना आवश्यक है।

रविवार, 29 मई 2011

दुर्गम क्षेत्र में रहने वालों को शाकाहार उपलब्ध नहीं, इसलिए!!

बेशक आहार परिवेश से निर्धारित होता है, किन्तु परिवेश स्वयं भी सभ्यता और संस्कृति से निर्धारित होता है। सहज उपलब्ध में निर्दोष आहार को प्राथमिकता देना ही विवेकशील संस्कृति है। शाक उपज से अभावग्रस्त, दुर्गम, बंजर परिवेश में उपलब्ध आहार ग्रहण करना, उस परिवेश की विवशता हो सकती है। किन्तु उपज समृद्ध, फलद्रुप, सभ्य परिवेश में आहार भी तो सभ्य ही होना चाहिए। सुसंस्कृत मानवों की भोजन निति की तुलना असभ्य मानवों की विवशता निमित अपवाद से करना असंगत है हम सर्वोच्छ विकसित सभ्यता के बीचोंबीच बैठकर यह सोचें कि कहीं आदिम-जंगली व्यवहार अभी भी कायम है। अतः हम सबको भी आदिम-जंगली भक्षण व्यवहार जारी रखना चाहिए, यह सोच तो अपने आप में आदिम हैं। और इस तरह उनकी जंगली आदतों का सभ्य परिवेश में समर्थन करना तो सभ्यता को पुनः आदिम युग में धकेलने समान होगा। 

फ़िर भी यदि आधुनिक यातायात संसाधनो से दुर्गम क्षेत्र के निवासियों को शाकाहार-विकल्प मुहैया करवाया जाय तो निश्चित ही वे हिंसा की दृष्टि से तुलना करते हुए शाकाहार ही स्वीकार करेंगे। आज बंजर धरती को हराभरा बनाया जा सकता है। समुद्र की वनस्पतियाँ बड़े पैमाने पर उपभोग जाती हैं. उनकी खेती भी की जा सकती है। आधुनिक यातायात माध्यमों से, निवास-प्रतिकूल प्रदेशों में भी शाकाहार के व्यापक प्रबंध किए जा सकते हैं।

शुक्रवार, 27 मई 2011

यदि अखिल विश्व शाकाहारी हो जाय तो ??

भ्राँतियाँ पैदा करने वाले माँसाहार समर्थक अकसर यह तर्क देते मिलेंगे कि- 'यदि सभी शाकाहारी हो जाय तो सभी के लिए इतना अन्न कहाँ से आएगा?' इस प्रकार भविष्य में खाद्य अभाव का बहाना पैदा कर, वर्तमान में ही सामुहिक पशु-वध और हिंसा को उचित ठहराना तो दिमाग का दिवालियापन है। जबकि सच्चाई तो यह है कि अगर बहुसंख्य भी शाकाहारी हो जाय तो विश्व में अनाज की बहुतायत हो जाएगी।

दुनिया में बढ़ती भुखमरी-कुपोषण का एक मुख्य कारण माँसाहार का बढ़ता प्रचलन है। माँस पाने ले लिए जानवरों का पालन पोषण देखरेख और माँस का प्रसंस्करण करना एक लम्बी व जटिल एवं पृथ्वी-पर्यावरण को नुकसान पहुचाने वाली प्रक्रिया है। एक अनुमान के मुताबिक एक एकड़ भूमि पर जहाँ 8000 कि ग्रा हरा मटर, 24000 कि ग्रा गाजर और 32000 कि ग्रा टमाटर पैदा किए जा सकतें है वहीं उतनी ही जमीन का उपभोग करके, मात्र 200कि ग्रा. माँस पैदा किया जाता है।

आधुनिक पशुपालन में लाखों पशुओं को पाला-पोषा जाता है। उन्हें सीधे अनाज, तिलहन और अन्य पशुओं का मांस भी ठूंस-ठूंस कर खिलाया जाता है ताकि जल्द से जल्द, ज्यादा से ज्यादा माँस हासिल किया जा सके। औसत उत्पादन का दो-तिहाई अनाज व सोयाबीन पशुओं को खिला दिया जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार दुनिया की माँस खपत में मात्र 10 प्रतिशत की कटौती प्रतिदिन भुखमरी से मरने वाले 18 हजार बच्चों व 6 हजार वयस्कों का जीवन बचा सकती है।

एक किलो माँस पैदा करने में 7 किलो अनाज या सोयाबीन का उपभोग हो जाता है। अनाज के मांस में बदलने की प्रक्रिया में 90 प्रतिशत प्रोटीन, 99 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट और 100 प्रतिशत रेशा नष्ट हो जाता है। एक किलो आलू पैदा करने में जहां मात्र 500 लीटर पानी की खपत होती है, वहीं इतने ही माँस के लिए 10,000 लीटर पानी व्यय होता है। स्पष्ट है कि आधुनिक औद्योगिक पशुपालन के तरीके से भोजन तैयार करने के लिए अनेकगुना जमीन और संसाधनों का अपव्यय होता है। इस समय दुनिया की दो-तिहाई भूमि चरागाह व पशु आहार तैयार करने में झोक दी गई है। यदि माँस उत्पादन में व्यर्थ हो रहे अनाज, जल और भूमि आदि संसाधनो का सदुपयोग किया जाय तो इस एक ही पृथ्वी पर शाकाहार की बहुतायत हो जाएगी।

एक अमेरिकी अनुसंधान से जो आंकडे प्रकाश में आए है उसके अनुसार अमेरिका में औसतन प्रतिव्यक्ति, प्रतिवर्ष अनाज की खपत 1100 किलो है। जबकि भारत में प्रतिव्यक्ति अनाज की खपत मात्र 150 किलो प्रतिवर्ष है जो कि सामान्य है। किन्तु एक अमेरिकन इतनी विशाल मात्रा में अन्न का उपभोग कैसे कर लेता है? वस्तुत: उसका सीधा आहार तो 150 किलो ही है। किन्तु एक अमेरिकन के 1100 किलो अनाज के उपभोग में, सीधे भोज्य अनाज की मात्रा केवल 62 किलो ही होती है, बाकी का 88 किलो हिस्सा माँस होता है। भारत के सम्दर्भ में कहें तो 150 किलो आहार में यह अनुपात 146.6 किलो अनाज और 3.4 किलो माँस होता है।

एक अमेरिकन की औसतन वार्षिक प्रतिव्यक्ति 1100 किलो अनाज की खपत से वह वास्तव में मात्र 62 किलो अनाज का आहार करता है तो बाकि 1038 किलो अनाज कहाँ जाता है? वह 1038 किलो अनाज जाता है मात्र 88 किलो माँस को प्राप्त करनें में । अर्थात् अपनी वार्षिक 1 किलो प्रोटीन की आवश्यकता के लिए एक आम भारतीय अनुमानित 150 किलो अनाज का उपभोग करता है वहीं इसी आवश्यकता को पूरी करने के लिए एक आम अमेरिकन 1100 किलो अनाज को व्यर्थ कर देता है। कोढ में खाज यह कि बेचारे एक निर्दोष जानवर को बिचोलिया बनाकर अपनी मामूली सी प्रोटीन पूर्ती करता है।

एक विशेष तथ्य पर गौर करें। यदि सभी (25 करोड़) अमेरिकन शाकाहारी हो जाय तो मात्र अमेरिका में ही प्रतिव्यक्ति (1100-150= 950) किलो के हिसाब से प्रतिवर्ष 24 करोड़ टन अनाज की बचत हो जाएगी, जो विश्व मे 170 करोड़ लोगों को प्रतिवर्ष भरपेट खिलाने को पर्याप्त होगा। यह आंकडे मात्र अमेरिका के संदर्भ में है। यदि समस्त विश्व के बारे में सोचा जाय तो आंकडे कल्पातीत हो जाएँगे। अगले 100 वर्षों तक विश्व को भूखमरी से निजात दिलायी जा सकती है।

स्पष्ट है कि यदि सभी शाकाहारी हो भी जाय तो निश्चित ही पृथ्वी पर अनाज़ की बहुतायत हो जाएगी। इतनी कि शायद भंडारण के लिए भी हमारे संसाधन कम पड़ जाय।

गुरुवार, 26 मई 2011

भीड़ का अंधानुकरण या सभ्यता का विकास


अक्सर कहा जाता है, विश्व की बहुसंख्य आबादी मांसाहारी है, इसलिए माँसाहारी रहना ही उचित है।


लेकिन…………
  • बहुसंख्य का आचार हमेशा ही आचरणीय नहीं होता।
  • पृथ्वी पर हीरो से कहीं अधिक कंकर है, अधिसंख्या के आधार पर कंकर मूल्यवान नहीं हो जाते।
  • जनसमुदाय में सदाचारियों से अधिक भ्रष्टाचारी है। संख्या बहुमत के कारण, भ्रष्टाचार अनुकरणीय नहीं बन जाता।
  • अच्छे लोगों की तुलना में बुरे लोगों की संख्या सदैव ही अधिक होती है। बुरों की भारी संख्या होने से अनैतिकता कभी भी शुभकर्म में नहीं खप जाती।



आश्चर्य है कि…………

सभ्यता और संस्कार के इस विकास दौर में………

जब मनुष्य नें अपने आवास संस्कारवश इमारतों के लिए गारे मिट्टी चूने सिंमेंट को अपनाया और वृक्षों को जीवन-दान दे दिया।

जब मनुष्य नें अपने याता-यात संस्कार के लिए ईंजिन बनाए और पशुओं को बोझ से मुक्त कर दिया।

फ़िर भी क्यों मानव ने अभी भी अपना आहार सुसंस्कृत नहीं किया? शाकाहार विकल्प के होते हुए भी क्यों मानव सभ्यता से विमुख है?
___________________________________________________________

     शाकाहार जागृति अभियान




  • 'सभ्यता' और 'संस्कृति' की विकास दर तेज करें।
  • प्रकृति संरक्षण में योगदान दें।
  • पर्यावरण संतुलन में सहयोग दें।
  • करूणा जगाएँ, वसुंधरा मैत्री निभाएँ।

    शुक्रवार, 20 मई 2011

    कितना खाओगे कच्चा प्रोटीन।


    प्रोटीन से मांसपेशियां और हड्डियों का विकास होता है। हम यह भी जानते हैं कि जब किशोरावस्था तक शरीर तेजी से बढ़ता है तब इसे अधिक ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। नवजात शिशुओं को प्रोटीन की सर्वाधिक जरूरत होती है। फिर भी, नवजात शिशु के लिए सर्वोत्तम आहार क्या है? यह है मां का दूध। और मां के दूध में कितना प्रोटीन होता है? मात्र पांच प्रतिशत! जबकि मांस व डेयरी उद्योग हमें यह विश्वास दिलाना चाहता है कि एक बड़े व्यक्ति को भी ऐसा भोजन करना चाहिए जिसमें अधिक से अधिक प्रोटीन हो। यह बकवास है। यह उनकी मार्केटिंग रणनीति के अलावा कुछ नहीं है। स्वामी चिदानंद सरस्वती की किताब के अनुसार यदि पूर्वाग्रह से मुक्त वैज्ञानिक अनुसंधान पर गौर करें तो इसके द्वारा अनुशंसित प्रोटीन का प्रतिशत मांस व डेयरी उद्योग द्वारा प्रायोजित अनुसंधान केंद्र द्वारा बताई गई मात्रा से काफी कम है। उदाहरण के लिए, अमेरिकन जर्नल आफ क्लिनिकल न्यूट्रिशन रोजाना सेवन किए गए भोजन का 2.5 प्रतिशत प्रोटीन लेने की सिफारिश करता है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिश 4.5 प्रतिशत की है। फूड एंड न्यूट्रिशन बोर्ड इस आंकड़े को बढ़ाकर छह प्रतिशत कर देता है।

    दूसरे, पौधो से मिलने वाले भोजन, जिसमें सब्जियां, खाद्यान्न और फली आदि शामिल हैं, में इतना प्रोटीन होता है जिससे कि हमारी रोजाना की जरूरत पूरी हो जाए। अगर हम संतुलित भोजन करते हैं तो निश्चित तौर पर पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन मिल जाता है। प्रोटीन के अच्छे स्त्रोत हैं दालें, सोयाबीन, डेयरी उत्पाद, गिरि और मटर आदि। उदाहरण के लिए दलहन में 29 फीसदी, मटर में 28 प्रतिशत, पालक में 49 प्रतिशत, गोभी में 40 प्रतिशत, फलियों में 12-18 प्रतिशत और यहां तक कि टमाटर में 40 प्रतिशत प्रोटीन पाया जाता है। इसके बाद पुस्तक में कुछ ऐसे सवालों के जवाब दिए गए हैं जो अक्सर उठाए जाते हैं जैसे हम प्रोटीन की रोजमर्रा की जरूरत कैसे पूरी कर सकते हैं? इसके अलावा आयरन, कैल्शियम, विटामिन बी-12 और अन्य तत्वों के संबंध में भी जिज्ञासा शांत की गई है। हमने गोमांस उत्पादन के पारिस्थितिकीय प्रभावों और मांस सेवन की बढ़ती प्रवृत्ति पर भी चर्चा की। उल्लेखनीय है कि औसतन एक अमेरिकी प्रतिवर्ष 125 किलोग्राम मांस का सेवन करता है, चीनी 70 किलोग्राम और भारतीय मात्र 3.5 किलोग्राम। इससे पता चलता है कि मांस उत्पादन के लिए हर साल दुनिया भर में साढ़े पांच हजार करोड़ पशुओं का संहार कर दिया जाता है। दूसरे शब्दों में पृथ्वी पर जितने मनुष्य रहते हैं, उससे दस गुना अधिक जानवरों का हर साल वध कर दिया जाता है। एक किलोग्राम गोमांस के उत्पादन में करीब 16 किलोग्राम अन्न की आवश्यकता पड़ती है।
                                                                                                         ---डॉ देविंदर शर्मा 
    __________________________________________________________________
    • ☀ Plant source: Lighter in mass, easier to break down/digest, comes with own enzymes, tons of fiber, which makes it perfect for elimination, richer in nutrient content, filled with nothing but the goods (antioxidants, photon energy from sunlight, high vibrational frequency, minerals…etc), is easy to digest and therefore creates more available amino acid molecules ready for absorption (quality), saves and promotes more lasting energy both for the self and for the planet. It is green to be healthy and healthy = green.
    • ☢ Animal source: Dense mass, harder to break down (energy exhauster), demands more enzymes to breakdown (if you can even make them, depending on your health state and diet) contains lots of bad fat, bad cholesterol, loaded with toxins (ammonia, nitrogen), rots in your intestines and this creates more bacteria and disease, stimulates bad bacteria growth in the colon, gives off toxins that are absorbed into the blood through the colon, creates an overly acidic system from toxic metabolic waste such as uric acid, purines, and ammonia byproducts, acidifies the blood causing bone loss, most contain hormones and antibiotics, and too much protein for human consumption, creating amyloid build-up that contributes to the aging process. And the worse thing, when you cook it, the protein availability diminishes, that’s if you can even breakdown properly to access those molecules.  It’s exhausting just thinking about it.
    Sources: The New Optimum Nutrition Bible by Patrick Holford, Concious Eating by Gabriel Cousens M.D., Staying Healthy with Nutrition by Elson Hass M.D., www.vivo.colostate.edu

    यह पूरा लेख यहां पढें--

    The Protein Myth Part 3

    बुधवार, 18 मई 2011

    मांसाहार क्यों घृणित है???



    मित्रों लेख प्रारम्भ करने से पहले मैं आपको अपने विषय में भी कुछ बताना चाहूँगा| मैं एक विद्रोही प्रकृति का व्यक्ति हूँ| कोई व्यक्ति, वस्तु, कार्य या किसी तंत्र में यदि मुझे किसी प्रकार की गड़बड़ नज़र आए तो मैं उसका विरोध करना अवश्य चाहूँगा| चाहे कोई मुझसे सहमत हो या असहमत किन्तु यह मेरा अधिकार है| केवल प्रशंसा ही नहीं अपितु आलोचना करने में मैं अधिक माहिर हूँ|
    यह सब मैं आपको इसलिए बता रहा हूँ कि विषय ही कुछ ऐसा है जिसमे प्रशंसा एवं आलोचना दोनों का स्थान है|
    बात करते हैं यदि शाकाहार- मांसाहार की, जीव दया या जीव हत्या की अथवा इसको बढ़ावा देने वाले या इसका विरोध करने वाले किसी भी समुदाय, जाती, समाज या धर्म की तो यहाँ प्रशंसा व आलोचना साथ-साथ में चल सकती हैं|
    इस विषय पर चर्चा करने वाले जीव दया की प्रशंसा कर सकते हैं एवं जीव हत्या की आलोचना भी|
    इस विषय पर बहुत से लेख पढ़े| मैं भी अपने लेख में शाकाहार की प्रशंसा कर सकता हूँ किन्तु यहाँ मांसाहार की आलोचना अधिक करूँगा| शायद यह मेरी विद्रोही प्रकृति का ही परिणाम है|
    शाकाहार क्यों उचित है इस प्रश्न के लिए शाकाहार की प्रशंसा में बहुत कुछ कहा जा सकता है और बहुत कुछ कहा भी गया है| जैसे कि शाकाहार सेहत के लिए अधिक अच्छा है, इसमें सभी प्रकार के गुण हैं आदि|
    इसके अतिरिक्त कुछ और भी दृष्टिकोण हैं| जैसे पेट भरने के लिए किसी पशु की हत्या करना| मान लीजिये कि यहाँ हत्या गाय की हो रही है| तो गाय की प्रशंसा में भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है जैसे कि गाय हमारी माता है, इसके दूध से हमारा पालन होता है, इसके मूत्र से कई प्रकार की औषधियां बनाई जाती हैं, इसके गोबर को किसान खाद के रूप में उपयोग कर सकते हैं साथ ही इसे हम ईंधन के रूप में भी काम ले सकते हैं| ऐसा कुछ मैंने भी अपने एक लेख में लिखा है| किन्तु अब लगता है कि इसकी हत्या के विरोध में कुछ आलोचना भी करनी ही पड़ेगी| मैं नहीं चाहता कि कोई व्यक्ति मांसाहार इसलिए छोड़े कि शाकाहार अधिक अच्छा है या वह जीव अधिक लाभकारी है यदि वह जीवित रहे तो| यह भी तो एक प्रकार का लालच ही है| लालच में आकर मांसाहार छोड़ना पूर्णत: सही नहीं है| हिंसा का त्याग व दया ही उद्देश्य होना चाहिए| मांसाहारियों के मन से हिंसा को नष्ट करना है, यही उद्देश्य होना चाहिए| उन्हें इसका आभास कराना है कि यह एक हिंसक एवं घृणित कृत्य है, यह एक पाप है|
    इसीलिए मैंने शीर्षक "शाकाहार क्यों उचित है?" के स्थान पर "मांसाहार क्यों घृणित है?" उपयोग में लिया है| शाकाहार की महिमा किसी अन्य लेख में गा दूंगा|
    मांसाहार एक घृणित कृत्य है इसके लिए सबसे बड़ा कारण तो यही है कि इसके लिए निर्दोष जीवों की हत्या की जा रही है| किन्तु मांसाहारियों को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता यह मैं देख चूका हूँ| क्यों कि वे मांसाहार करते करते दया भावना का त्याग कर चुके हैं| और करेंगे भी क्यों नहीं, इसका कारण भी है|
    मित्रों आप जानते ही हैं कि किसी भी जीव को मार कर खा जाने से उसमे व्याप्त कोई भी बीमारी खाने वाले को भी कुछ प्रभावित करती है| बर्ड फ्लू व स्वाइन फ्लू जैसी बीमारियाँ ऐसे ही तो आई हैं| इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति मांसाहार करता है तो उसमे वह सभी भाव भी आते हैं जो मरते समय उस जीव में आ रहे थे जिसे वह खा रहा है| अब आप जानते ही हैं कि मांसाहार के लिए इन निर्दोष जीवों को किस प्रकार बेदर्दी से मारा जाता है| तो जिस समय वह मर रहा है उस समय वह दर्द से तड़प भी रहा है| उस समय वह दुखी है| उस समय वह क्रोधित भी है कि काश जिस प्रकार यह हत्यारा मुझे मार रहा है इसी प्रकार इसका भी अंत हो, उसका सर्वनाश हो जाए| काश मैं भी इसे इसी प्रकार मार सकता| मैंने इसका क्या बिगाड़ा है जो यह मुझे इस प्रकार बेरहमी से मार रहा है? उस समय जीव पीड़ित भी होता है| उस समय जीव प्रतिशोध की अग्नि में भी जल रहा होता है| उस समय वह जीव भी क्रूर हो जाता है| कहने का अर्थ यह है कि उस समय वे समस्त नकारात्मक भाव उस जीव के मन में आते हैं जिस समय वह दर्दनाक मृत्यु को पा रहा है| और इन सब भावों को भी मांसाहारी व्यक्ति उस जीव के साथ खा जाता है| सुनने में यह थोडा अजीब है किन्तु है एकदम वैज्ञानिक सत्य|
    दया भावना मानवता की पहचान है अत: जो व्यक्ति दयालु नहीं है वह मानव ही नहीं है| मांसाहार के घृणित होने का यह सबसे बड़ा कारण है|
    दूसरी ओर कई लोग इसे धर्म से जोड़ कर देखते हैं| इसके उत्तर में यदि कोई भी धर्म, जाती या सम्प्रदाय जीव हत्या को जायज ठहराता है तो उसे नष्ट कर देना चाहिए, उसे नष्ट होना ही चाहिए|
    किसी भी धर्म में ऐसी कोई आज्ञा नहीं दी गयी है| फिर भी इस्लाम में बकरीद नामक त्यौहार मनाया जाता है| मैं आपको स्पष्ट कर दूं कि मैं इस्लाम विरोधी नहीं हूँ| किन्तु इन कथित इस्लामियों को खुद ही अपने धर्म के बारे में नहीं पता| कुरआन मैंने भी पढ़ी है| कुछ दिनों पहले एक मुस्लिम फ़कीर से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ| उनसे बैठकर बात करने में बड़ा आनंद आया| कुछ धर्म पर भी चर्चा हुई| उन्होंने बताया कि इस्लाम में बकरीद नामक कोई भी त्यौहार नहीं है| इस्लाम में ऐसा कोई त्यौहार नहीं है जिसमे किसी जीव को खुदा के लिए कुर्बान कर दिया जाए| किन्तु फिर भी खुदा के नाम पर सैंकड़ों वर्षों से यह पाप किया जा रहा है|
    हिन्दू धर्म में भी कुछ जाति के लोग देवी के सामने बलि चढाते हैं| आजकल ही ऐसा हो रहा है| पिछले शायद कुछ सौ वर्षों से| प्राचीन समय में भारत में ऐसा कुछ नहीं होता था| सनातन धर्म एक महान जीवन पद्धति है| जीभ के स्वाद के लिए अथवा भगवान् को प्रसन्न करने के लिए हमारा सनातन धर्म इस प्रकार के पाप की कभी आज्ञा नहीं देता| और देवी के सामने बलि चढाने का औचित्य ही क्या है? एक तो जीव हत्या कर के वे पहले ही पाप कर रहे हैं, ऊपर से देवी को इसमें पार्टनर बना कर उसे भी बदनाम कर रहे हैं| वे जो अधर्मी हैं, अनाचारी हैं, वे क्या जाने कि धर्म क्या है?
    आप मुझे बताएं कि क्या भगवान् यह चाहेगा कि मेरा एक बच्चा मेरे दुसरे बच्चे की हत्या कर दे केवल मुझे खुश करने के लिए?
    इसी प्रकार इस्लाम में होता रहा है| बकरीद के दिन मुसलमान बकरे को हलाल करते हैं| जिसके कारण वह बकरा तड़प तड़प कर मरता है, और यह सब होता है धर्म की आड़ लेकर| कौनसा खुदा किसी जीव को इस प्रकार तड़पता देख कर खुश हो जाएगा, मुझे तो आज तक यही समझ नहीं आया|
    दरअसल यह सब जीभ के स्वाद के लिए धर्म को बदनाम किया जा रहा है|
    इसाइयत में भी यही सब चल रहा है| वहां भी धर्म के नाम पर अनेकों निर्दोष पशु किसी न किसी त्यौहार में मार दिए जाते हैं|
    आजकल कुछ मैकॉले मानस पुत्र मैकॉले द्वारा रचित इतिहास (आजकल इसे कांग्रेसी या वामपंथी साहित्य का नाम दिया जा सकता है) पढ़कर कहते हैं कि प्राचीन समय से ब्राह्मण गौमांस का भक्षण कर रहे हैं और कहते हैं कि ऐसा हिन्दू वेदों में लिखा है| मैं भी एक ब्राह्मण हूँ| मैंने भी वेदों का अध्ययन किया है| मुझे एक बात समझ नहीं आई कि यदि प्राचीन समय से ऐसा हो रहा है तो आज क्यों नहीं होता? मैंने तो कम से कम अपने से बड़ी चार पीढ़ियों को ऐसा करते कभी भी नहीं पाया| गौमांस तो दूर वे तो मुर्गी का अंडा फोड़ देना भी पाप समझते हैं| यदि भारत में ऐसा ही होता था तो गाय को माता की उपाधि इस देश ने कैसे दे दी? उस देश में जहाँ ब्राह्मण को धर्म गुरु की उपाधि दी गयी, वह ब्राह्मण गौमांस कैसे खा सकता है? भगवान् कृष्ण के देश में भला कोई गौमांस खा सकता है? और गौमांस ही क्यों किसी भी जीव का मांस खाना हिन्दू धर्म में वर्जित है|
    हम कोई जंगली नहीं हैं| भगवान् ने हमें सोचने की शक्ति दी है| इसी शक्ति के आधार पर हमने सबसे पहले खेती करना सीखा| स्वयं अपना खाना तैयार करके खाना सीखा| प्रकृति इतनी दयालु है कि हमें भोजन उपलब्ध करवा देती है| फिर हम इतने निर्दयी कैसे हुए?
    मैंने इस पोस्ट में कुछ ऐसे ही पापी चित्र लगाए हैं जिनमे इन निरीह पशुओं पर होने वाले अत्याचार दिखाए गए हैं| मैं आपसे इस क्रूरतापूर्ण लेख के लिए क्षमा चाहता हूँ| अपनी एक पोस्ट में मैंने एक वीडियो भी लगाया था, जिसे आप यहाँ देख सकते हैं| यकीन मानिए मैंने इस वीडियो को देखा है| देखते हुए रो पड़ा| मेरी आँखों में आंसू नहीं आते, पता नहीं क्यों? किन्तु दिल अन्दर तक रो सकता है| दुःख भी बहुत होता है| चाहता तो इस वीडियो को बीच में ही बंद कर देता और इसे इस पोस्ट में नहीं लगाता| किन्तु अब लगता है कि यह तो सत्य है| मैं नहीं देखूंगा तो भी होगा| देखूंगा तो कम से कम इसका विरोध करने लायक तो रहूँगा|
    किन्तु यह आभास भी हो गया है कि अब कभी ऐसे वीडियो नहीं देख सकता| निर्दोष पर अत्याचार सहन नहीं होता| अब ऐसा लगने लगा है कि मुझे सुख की कामना छोड़ दुःख के लिए प्रार्थना करनी चाहिए, क्यों कि यही मुझे गतिशील रखता है|
    मेरी इच्छा शक्ति बढती जा रही है| अब मेरे मन में एक इच्छा है कि जिस प्रकार ये पापी इन निर्दोष जीवों को तडपा रहे हैं, इनका भी अंत इसी प्रकार हो| इन पापियों का ऐसा अंत करने में मुझे भी ख़ुशी होगी| यह पुण्य कर्म मैं भी करना चाहूँगा| हाँ मैं मानता हूँ कि इस समय मैं क्रूर हो रहा हूँ, किन्तु ऐसा होना आवश्यक भी है| यदि कोई इस प्रकार मेरे किसी प्रियजन के साथ करता तो भी क्या मैं चुप बैठा रहता?
    आज लिखते समय मुझे अत्यधिक पीढ़ा हो रही है| किन्तु विश्वास है कि एक दिन यह सब रोक सकूँगा| मेरे जैसे असंख्य लोग इस कार्य में लगे हैं| उन सबका साथ दूंगा, वे सब मेरा साथ देंगे|


    नोट : आने वाले समय में कभी भी भावनाओं में बहकर कुछ नहीं लिखूंगा| ऐसा करना शायद विषय के साथ न्याय नहीं कर पाता| यहाँ आवश्यकता थी अत: इसे अपनाया|

    सोमवार, 16 मई 2011

    अनुकंपा भाव की सुरक्षा का उपाय है शाकाहार



    येन केन पेट भरना ही मानव का उद्देश्य नहीं है। आहार-भय-निंद्रा-मैथुन तो पशुओं का भी उद्देश्य है। किसी भी प्रकार आहार प्राप्त करना तो विशेष रूप से पशुओं का लक्षण है। और विस्मय तो तब होता है जब शाकाहारी पशु भूखे मर जाते है पर माँस पर मुँह नहीं मारते!! मानव नें प्रकृति प्रदत्त बुद्धि से ही सभ्यता साधी। अपनी विकृत आहार व्यवस्था को मानव ने सुसंस्कृत बनाया। शाकाहार ही वह सुसंस्कृति है। प्रकृति प्रदत्त बुद्धि हमें यह विवेकशीलता भी प्रदान करती है, कि हमारे विचार और व्यवहार सौम्य व पवित्र बने रहे। सभी जीवों के साथ सहजीवन में हम क्रूरता से दूर रहें। समस्त सृष्टि का जीवन सहज और सुखप्रद हो, इसिलिये सभ्यता और संस्कार हमारे लक्ष्य होते है।

    जीवन जीने की हर प्राणी में अदम्य इच्छा होती हैं। हम देखते है कि कीट व जंतु भी जीवन टिकाए रखने के लिए, कीटनाशक दवाओं के खिलाफ़ प्रतिकार शक्ति उत्पन्न कर लेते है। सुक्ष्म जीवाणु-रोगाणु भी कुछ समय बाद रोगप्रतिरोधक दवाओं के विरुद्ध जीवन बचाने के तरिके खोज लेते है। यह उनके जीनें की अदम्य जीजिविषा का परिणाम होता है। सभी जीना चाह्ते है मरना कोई नहीं चाहता। एसे में प्राण बचाने को संघर्षरत पशुओं को मात्र स्वाद के लिये मार खाना तो क्रूरता और विकार की पराकाष्ठा है।

    हिंसाजन्य आहार लेने से, हिंसा के प्रति सम्वेदनाएं समाप्तप्राय हो जाती है। किसी का जीवन ही गटक जाने की विकृत मानसिकता से दूसरे जीव के प्रति दया करूणा के भाव तिरोहित हो जाते है। अनावश्यक हिंसा-भाव मन में रूढ हो जाते है, और वे हमारे स्वभाव का हिस्सा बन जाते हैं। इस प्रकार क्रूरता हमारे आचरण में समाहित हो जाती है। ऐसी मनोदशा में, हमारे सुखों के विपरित/प्रतिकूल स्थिति उत्पन होनें पर आवेश का आना सहज सा हो जाता है। आवेश में हिंसक कृत्य का हो जाना भी सम्भव है। आहार इसी तरह हमारी मनोस्थिति को प्रभावित करता है।

    हमारी सम्वेदनाओं और अनुकंपा भाव के संरक्षण के लिये, हमारे विचार और वर्तन को विशुद्ध रखनें के लिये, शाकाहार हमारी पहली पसंद ही नहीं, नैतिक कर्तव्य होना चाहिए। और फ़िर जहाँ और जब तक हमें सात्विक पौष्ठिक शाकाहार, प्रचूरता से उपलब्ध है, वहां तो इन निरिह जीवों को करूणादान अथवा अभयदान देना ही चाहिए। समस्त जीव-संसार हमारा पडौसी है, उनके अस्तित्व से ही हमारा जीवन टिका हुआ है। मानव मात्र का यह कर्तव्य है जीए और जीने दे।

    सहजीवन सरोकार, विवेकयुक्त संयम, सम्वेदनाओं की रक्षा और सात्विक संस्कृति शाकाहार शैली है

    रविवार, 15 मई 2011

    जैन मुनि श्री मैत्रीप्रभ सागर दिला रहे हैं निर्दोष पशुओं को जीने का अधिकार

    मित्रों अब तो भारत देश कहने को ही भगवान् कृष्ण का देश रह गया है| जहाँ कभी गाय को माँ कहा जाता था आज उसी माँ को काट कर उसका मांस विदेशों में बेच कर पैसा कमाया जा रहा है इन लुटेरे नेताओं द्वारा|

     गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार के द्वारा प्रदेश में दस यांत्रिक बूचडखाने खोले जाने को स्वीकृति दी गयी है| यहाँ एक बूचडखाने में दस से पंद्रह हज़ार पशु प्रतिदिन मारे जाएंगे| अर्थात पूरे प्रदेश में एक दिन में एक से डेढ़ लाख पशु प्रतिदिन काट दिए जाएंगे| इन पशुओं में मुख्यत: गाय व भैंस शामिल हैं| अब बताइये भगवान् कृष्ण की जन्म भूमि उत्तर प्रदेश में यह हाल है तो बाकी पूरे देश में क्या होगा?

    इसके विरोध में जैन मुनि श्री मैत्री प्रभा सागर पिछले तेरह दिनों से बडौत में आमरण अनशन पर बैठे हैं| उनका स्वास्थ्य निरंतर गिरता जा रहा है किन्तु सरकार के कानों पर जूँ तक नहीं रेंग रही| जैन मुनि का उत्तर प्रदेश से कोई लेना देना भी नहीं है| वे तो कुछ दिन पहले गुजरात से मेरठ पहुंचे तो वहां उन्हें मायावती सरकार के इस दुश्चक्र का पता चला कि सरकार प्रदेश के आठ जिलों में ये बूचडखाने खोलने जा रही है| ये बूचडखाने मेरठ, मुरादाबाद, सहारनपुर, झांसी, लखनऊ, कानपुर, अलीगढ एवं आगरा में खोले जाने हैं| जैन मुनि मेरठ में ही इसके विरोध में आन्दोलन करना चाहते थे किन्तु लोगों ने इस कार्य में उन्हें सहयोग नहीं दिया| अत: उन्होंने बडौत से अपना आन्दोलन शुरू किया| वहां उन्हें भारी जन समर्थन मिल रहा है| धीरे धीरे यह आन्दोलन पूरे प्रदेश में फ़ैल रहा है| किन्तु राज्य सरकार तो कान में तेल डाल कर सो रही है| केंद्र सरकार ने भी इस विषय में अपना मूंह बंद कर रखा है| सरकार की तरफ से कोई झुकाव न देख कर उन्होंने १० मई को मेरठ में एक ऐतिहासिक आन्दोलन किया| वहां भी उन्हें भारी समर्थन मिल रहा है| किन्तु सरकार पर कोई असर नहीं हुआ|

    इसका अर्थ यह निकाला जाए कि सरकार अब चाहती है कि हमारी संस्कृति व हमारी भावनाएं जाएं तेल लेने, हमारी माँ को गला काट कर मार दिया जाए और उसका मांस इनके आकाओं को बेचा जाए और हम चुप चाप बैठे तमाशा देखते रहें|

    बात केवल गौ हत्या तक ही सीमित नहीं है| अपनी जीभ के स्वाद के लिए किसी भी प्रकार की जीव हत्या कर देना मैं गलत मानता हूँ| आप जानते ही होंगे कि इन बूचडखानों में किस प्रकार पशुओं को तडपा तडपा कर मारा जाता है| नहीं पता है तो यह वीडियो देखें|
     
    वीडियो के लिए सीधा लिंक यहाँ उपलब्ध है...


    ऐसा भी क्या चटकारा जीभ का कि उसे मिटाने के लिए जंगली बनना पड़े? मानव को मानवता की हद में ही रहना चाहिए| निर्दोष पशुओं पर क्रूरता मानवता का गुणधर्म नहीं है| इन बेजुबान जीवों का कुछ तो दर्द हमें समझना ही होगा| ऐसा तो है नहीं कि भगवान् ने केवल मनुष्य को ही समस्त पृथ्वी पर अधिकार के सूत्र दिए हैं| जिनता अधिकार मानव का है उतना ही इन जीवों का भी है| और इनसे इनका अधिकार छीनना पकृति के नियमों के विरुद्ध जाना है|

    मैं जानता हूँ कि बहुत से महानुभाव मेरे इस कथन से सहमत नहीं होंगे| कहेंगे कि यह तो एक जीवन चक्र है, उसको इसी प्रकार मरना था, यदि हम नहीं खाएंगे तो कोई और खाएगा अथवा यदि इन्हें हम नहीं खाएंगे तो इनकी संख्या धरती पर इतनी बढ़ जाएगी कि प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाएगा आदि आदि|

    इन सब दलीलों का कोई औचित्य नहीं है| यदि देश में गाय व भैसों की संख्या बढ़ जाए तो यह देश उन्नति के शिखर को छूने लगेगा| जितना अधिक पशुधन होगा उतनी अधिक उन्नति होगी|

    एक गाय अपने पूरे जीवन में क्या नहीं देती हमें? भारतीय गाय के दूध और गोबर के लाभ तो हम सभी जानते हैं| इसके मूत्र से होने वाले लाभों से भी हम परिचित हैं| प्राय: गाय के मूत्र को एक औषधि के रूप में काम में लिया जाता है| इसके अलावा हिन्दू धार्मिक कर्मों में भी इसकी महत्ता है| किन्तु इन सबके अलावा भी गौ मूत्र काफी उपयोगी सिद्ध हो सकता है| कानपुर की एक गौशाला में काम करने वाले लोगों ने एक ऐसे सीएफएल बल्ब का निर्माण किया है जिसे जलाने के लिए एक विशेष बैटरी की आवश्यकता होती है| इस बैटरी को गौ मूत्र के द्वारा चार्ज किया जाता है| आधा लीटर गौ मूत्र से यह बल्ब २८ घंटों तक जलता रहता है| जो कि अपने आप में एक अद्भुत खोज है|

    इस खबर का स्त्रोत यहाँ है...

    कानपुर की ही एक गौशाला ने गाय के गोबर से गोबर गैस बनाई और उसे गाड़ियों में उपयोग में आने वाली सीएनजी (CNG- Compressed Natural Gas) की तरह काम में लिया| परिणाम आश्चर्य जनक थे| इस गैस से एक टाटा इंडिका पर इंधन पर होने वाला औसत व्यय ३५ से ४० पैसे प्रति किलोमीटर था| इतना उपयोगी पशु क्या हमें यूँही मार देना चाहिए| गाय को ऐसे ही तो माता नहीं कहते, इसके पास वह प्रेम है जो एक माँ के मन में अपने बच्चे के लिए होता है|

    मान लीजिये कि गाय बूढी हो गयी और उसने दूध देना बंद कर दिया तो भी उसे कसाई को बेच देने से तो अच्छा है कि उसके मूत्र व गोबर से ही लाभ उठाया जाए| और बेशक यह लाभ गाय के मांस से होने वाली आमदनी से कहीं अधिक होगा| मरने के बाद भी यह काफी उपयोगी सिद्ध होगी| एक शोध के अनुसार गाय के मरने पर उसका चमड़ा उतारने से अच्छा है कि उसे किसी स्थाम पर भूमि में गाढ़ दिया जाए व उस भूमि पर एक आम का पेड़ लगा दिया जाए| यह पेड़ अन्य पेड़ों से अधिक तेज़ी से बढेगा व फल भी अधिक देगा|

    तो अब बताइये कि उसे मार कर उसका मांस व चमड़ा बेचना अधिक लाभकारी है या उसे बचाना?

    बात केवल गौ हत्या तक ही सीमित नहीं है| मनुष्य को कोई अधिकार नहीं कि वह अपनी जीभ के स्वाद के लिए किसी जीव की हत्या कर दे| आपका एक समय का भोजन होगा और एक जीव अपनी जान से गया| हम कोई जंगली जानवर नहीं है| समाज में रहने वाले सभ्य लोग हैं| अत: सभ्य लोगों सा आचरण भी तो करना चाहिए|

    और जहाँ तक प्रश्न है इन जीव जंतुओं की संख्या बढ़ जाने का तो इसे एक उदाहरण से बताना चाहूँगा कि यह किस प्रकार गलत है|

    बूचड़खाने में मारी जाने वाली मुर्गियां ऐसे ही नहीं आ जाती| इसके लिए पोल्ट्री फ़ार्म में इनकी खेती की जाती है| जी हाँ बिलकुल खेती ही की जाती है| इन्हें फसल की ही तरह अपने गोदामों में भरा जाता है| एक पिजरे में दस दस मुर्गियां ठूंस दी जाती हैं| इनका पूरा जीवन इसी प्रकार निकल जाता है| जब तक वे अंडे देती हैं तब तक तो इसी प्रकार जीवन जीती रहती हैं| बाद में एक दर्दनाक मौत को प्राप्त होती हैं| तो इनकी संख्या बढ़ने का तो कोई सवाल ही नहीं है| इनकी तो संख्या खुद इन्हें मारने वाले बढ़ा रहे हैं|

    इन निर्दोष जीवों की सुरक्षा के लिए जैन मुनि श्री मैत्रीप्रभ सागर जी मैदान में उतर आये हैं| हमें उन्हें सहयोग देना चाहिए|

    अंत में बताना चाहूँगा कि आयुर्वेद के अनुसार मानव शरीर मांसाहार के लिए नहीं बना है| अत: दया कीजिये इन जीवों पर और इन्हें अपना जीवन शान्ति से जीने दीजिये|

    शाकाहार, श्रेष्ठता शुद्धता और पवित्रता का दंभ नहीं, हिंसात्याग के संघर्षशील पुरूषार्थ का आत्मगौरव है।

    सजग रहकर हिंसा से बचना आत्मागौरव है। जैसे देशभक्त होना गौरव का विषय है, तुच्छ व्यवहार से दूर रहना स्वाभिमान है। झूठ को त्यागना आत्मगर्व की बात है वैसे ही हिंसा को प्रोत्साहन देने से भरसक दूर रहना, अपनी आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ती के लिए भी हिंसा से बचना, हिंसा को कम करने के उपायों पर सजगता और संघर्ष से डटे रहना और इन्ही उद्देश्यों से सात्विक शाकाहार अपनाना निश्चित ही आत्मगौरव की बात है।

    यह श्रेष्ठता का दंभ नहीं है, वस्तुत: सात्विक आहारी कभी भी माँसाहारियों (व्यक्तियों) को हेय या अपराधी की दृष्टि से नहीं देखता। बल्कि वह माँस की उत्पत्ति को हिंसा उपार्जित मानता है उसका सारा खेद हिंसा के प्रति होता है। अब क्योंकि माँस अपने आप में स्वयंमेव हेय है वह हिंसक कृत्य की ही उपज है हिंसाजनित पदार्थ को शाक के समकक्ष सम्मान कैसे मिल सकता है? आपके सामने मांसाहारी और शाकाहारी दोनो पदार्थ लाए जाय तो किस पदार्थ को देखकर आपको जगुप्सा उत्पन्न होगी? निसंदेह वे माँस के टुकडे होंगे। किसी प्राणी की काया और अंगो के टुकडे!! देखने में हुबहु हमारे शरीर के अंश समान!! माँस जो हिंसक कृत्य से ही प्राप्त होता है और हिंसा घृणित आचार है इसलिए हिंसा के प्रति घृणा को विपरित आहारी व्यक्ति विशेष की नफ़रत का आरोप लगाकर भ्रम नहीं फैलाया जाना चाहिए। कोई भी शाकाहारी अगर मन से सात्विक है, मनोवृति करूणा प्रधान हो रही है, जब प्रत्येक जीवन के प्रति अनुकम्पा है तो वह दूसरे मनुष्य से घृणा नहीं कर सकता। उसके वचनो में प्रवर्तमान क्षोभ व घृणा निश्चित रूप से हिंसा से है।

    माँसाहार शैली अपवित्र कर्म इसलिए भी माना गया है कि पेटपूर्ती के लिए पर्याप्त शाकाहार उपलब्ध होते हुए भी वे लोग स्वादलोलुपता के कारण हिंसक आचारण अपनाते है और उसे समर्थन भी देते है। शाकाहार, विकृति से संस्कृति की ओर मानव का जीवन उत्थान है इसिलिए इसे शुद्धता और पवित्रता की महत्ता प्राप्त है। अहिंसा व करूणा को प्रोत्साहन देने वाली संस्कृति को भला क्यों न शुद्ध व पवित्र माना जाय?

    यहाँ किसी भी तरह के पक्षपात अथवा उँच नीच का प्रश्न ही नहीं उठता। दोनो आहारों, शाकाहार व माँसाहार की मात्र आहारपरक समानता निरा भ्रम है। किंचित भी न्यायसंगत नहीं है, मांसाहार, मासांहारियों के लिये मात्र आहार हो सकता है, मगर एक शाकाहारी की दृष्टि में यह निष्प्रयोजन हिंसा से प्राप्त अनावश्यक आहार है, जो एक दुष्कृत्य है। सम्यक् विवेचन, न्यायसंगत तुलना का विवेक जरूरी है। परिहार्य विकल्प के उपलब्ध रहते मात्र 'आहार स्वतंत्रता' और 'स्वादलोलुप मानसिकता' को प्रशय देना मूर्खता ही नहीं 'मनोविकृति' है। यह मानसिकता पतनोमुख गुनाह है। अपराध से दूरी आत्मसंतोष और गौरव का कारण है।

    सोमवार, 9 मई 2011

    क्या शाकाहार सम्पूर्ण आहार नहीं है?

    क्या शाकाहार सम्पूर्ण आहार नहीं है? 

      ले ही आप कहें- आहार का चुनाव हमारा व्यक्तिगत मामला है, जो इच्छा हो खाएँ। पर हम अच्छी तरह से जानते है, आहार केवल व्यक्तिगत मामला नहीं है। आपका आहार समाज और वैश्विक पर्यावरण को प्रभावित करता है। वह सीधे सीधे वैश्विक संसाधनो को प्रभावित करता है। अप्रत्यक्ष रूप से विश्व शान्ति को प्रभावित करता है। जीव-जगत के रहन-सहन-व्यवहार को प्रभावित करता है। फिर भला आहार मात्र व्यक्तिगत मुद्दा कैसे हो सकता है?

    यह शाकाहार जाग्रति अभियान किसी भी धार्मिक उद्देश्य की पूर्ती के लिये नहीं है। एक आपका आहार बहु आयामी प्रभाव पैदा करता है और इसी कारण इसका सम्बंध निश्चित ही  नैतिक जीवन उत्थान से है। चुंकि धर्म हमें नैतिक शिक्षाएँ देता है और वे शिक्षाएँ समस्त मानव समुदाय हित में और प्रकृति के अनुकूल है तो अनुकरणीय ही रहेगी। यह कृतज्ञता ही होगी कि बहुमूल्य हितशिक्षा और नैतिक जीवन मूल्यों के लिये धर्म को श्रेय दिया जाय।

    समग्र दृष्टिकोण से ‘आहार’ आज ज्वलंत वैश्विक मुद्दा है, जिसपर सम्यक् चिंतन किया ही जाना चाहिए।

    पृथ्वी पर आज मानव जीवन अधिक कठिन और भययुक्त होता जा रहा है। अब यह कहनें में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि अब इस धरा को पुनः ‘मानव-अभयारण्य’ बनाने के लिए प्रयासरत होना पडेगा।

    शाकाहार माँसाहार के सन्दर्भ में इस विषय पर आहार से इतर कईं भ्रांत धारणाएँ प्रचलित की जाती है। जो इस प्रकार है………


      माँसाहार के समर्थन में दिए जाने वाले कारण।
      • मनुष्य उभय आहारी है या सर्वाहारी है।
      • माँसाहार में प्रोटीन अधिक मात्रा में मिलता है।
      • मनुष्य पुरातन काल से मांसाहार करता आया है।
      • विश्व की अधिकांश जनसंख्या माँसाहार करती है।
      • जहां शाकाहार सहज उपलब्ध नहीं वहाँ लोग क्या खाएंगे?
      इन सभी कुतर्को के निरामिष पर यथोचित उत्तर दिए जा चुके है। यह सभी भ्रांतियाँ और कुतर्क, आहार मात्र के लिए माँसाहार को ज्वलंत आवश्यकता साबित नहीं करते।

      'आहार आवश्यक्ता’ से इतर माँसाहार-आसक्ति के कारण :-
      • पाश्चात्य छद्म विकसितता और विलासिता का अंधानुकरण।
      • ‘मज़े की विलासी पार्टियों का आइकॉन।
      • किसी का जीवन ही खा जाने की विकृत मानसिकता पूर्ती।
      • आवेश को शक्तिवर्धक समझने की भ्रांत धारणा।
      • व्यसन : माँस, मदिरा काम का विलासित संयोग।
      • मांस उत्पादको का आकृषक विज्ञापन प्रचार।
      • स्वाद-लोलूपता का व्यसन।
      • धार्मिक विचारधारा द्वारा दी गई इज़ाज़त की ओट।

      जबकि 'आहार कारणों’ से माँसाहार समर्थन में कही जाने वाली एक मात्र बात है………

      माँसाहार एक सम्पूर्ण आहार है जिसमें; एकसाथ प्रोटीन विटामिन और खनिज़ रेडिमैड मिल जाते है

      इस पोस्ट के माध्यम से इसी विषय पर परिचर्चा आमंत्रित है।

      पूर्ण संतुलित शाकाहार

      ‘निरामिष’ लेखक, शाकाहार समर्थक, निरपेक्ष पाठक, और आलोचक सभी कृपया विचार रखें…


      क्या शाकाहार सम्पूर्ण आहार नहीं है?


      आप क्या सोचते है?


      चर्चा निष्कर्ष : शाकाहार स्वयंमेव पूर्ण संतुलित आहार है, शाकाहारी पदार्थों के संयोजन के अभाव में मांसाहारी पदार्थ कभी भी संतुलित नहीं हो सकते, पोषण संतुलन के लिए मांसाहार की आवश्यकता शून्य है। जबकि विविध शाकाहारी पदार्थों के ही समुचित संयोजन से पूर्ण संतुलन स्थापित किया जा सकता है।

      शुक्रवार, 6 मई 2011

      कुछ रोग तो माँसाहारियों के लिए आरक्षित है.

      "नई दिल्ली [जागरण न्यूज नेटवर्क]। बीते दिनों वैज्ञानिकों ने बताया कि मांसाहारियों की तुलना में शाकाहारी लोगों को कैंसर का खतरा कम होता है। दुनिया भर के पांच फीसदी शाकाहारी लोगों के लिए यह शर्तिया एक अच्छी खबर थी। लेकिन क्या सचमुच शाकाहार में ही सारे फायदे निहित हैं? । कई बीमारियों में शाकाहारी होना फायदेमंद है। कहां किसको है फायदा और किसे नुकसान, आइये डालते हैं एक नजर..

      [आर्थराइटिस]

      खतरा : मांसाहारी को

      जोड़ों में आयरन के इकट्ठा होने से आर्थराइटिस होता है। चूंकि मीट में आयरन की मात्रा ज्यादा होती है। लिहाजा मांस का सेवन करने वालों में आर्थराइटिस का खतरा ज्यादा होता है।

       
      [गालब्लैडर की पथरी]

      खतरा : मांसाहारी को

      गालब्लैडर की पथरी तब हो जाती है जब ब्लैडर से निकलने वाला बाइल, जो आमतौर पर तरल होता है, सख्त हो जाता है। यह आहार में बहुत ज्यादा सैचुरेटेड वसा लेने के कारण होता है। इस तरह की वसा माँस में ही अधिक पायी जाती है। लिहाजा, मांसाहारियों को गालब्लैडर की पथरी का सबसे ज्यादा खतरा रहता है।

       [अल्जाइमर्स]

      खतरा : मांसाहारी को

      माना जाता है कि अल्जाइमर्स का मुख्य कारण मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्सों में बीटा-अमाइलायड प्रोटीन का जमना है। फल और सब्जियों में मौजूद ‘पालीफिनाल’ इस प्रोटीन को जमने से रोकते हैं। इसलिए मांसाहारियों की तुलना में अल्जाइमर्स का खतरा शाकाहारियों को कम होता है।