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सोमवार, 14 अक्टूबर 2013

अमृतपान - एक कविता

(अनुराग शर्मा)

हमारे पूर्वजों के चलाये
हजारों पर्व और त्यौहार
पूरे नहीं पड़ते
तेजस्वी, दाता, द्युतिवान
उत्सवप्रिय देवों को
जभी तो वे नाचते गाते
गुनगुनाते
शामिल होते हैं
लोसार, ओली व खमोरो ही नहीं
हैलोवीन और क्रिसमस में भी
लेकिन मुझे यकीन है कि
बकरीद हो या दसाइन
बेज़ुबान प्राणियों की
कुर्बानी, बलि या हत्या में
उनकी उपस्थिति नहीं
स्वीकृति भी नहीं होती
मृतभोजी नहीं हो सकते वे
जो अमृतपान पर जीते हैं

रविवार, 1 जुलाई 2012

भोजन में क्रूरता: 1. प्रस्तावना - फ़ोइ ग्रा

[आलेख: शिल्पा मेहता]

सभी जीवदया युक्त बंधुओं को बधाई! क्यों? क्योंकि आजएक जुलाई 2012, से अमेरिका के केलिफोर्निया ( California USA ) प्रदेश में "Foie gras" [फोई ग्रा] यानी कलहंस और बत्तख़ (goose और duck) पक्षी को बेहद दर्दनाक बीमारी वसीय यकृत व्याधि (fatty liver disease) से बीमार बना करउनके सूजे हुए यकृत (लीवर liver) से बनाया जाने वाला स्पेशल "स्वादिष्ट व्यंजन", प्रतिबन्धित कर दिया जाएगा। 

इससे पहले ब्रिटेन, जर्मनी, जेक रिपब्लिक, इजरायलइटली और स्वितज़रलैंड आदि 16 देशों में यह प्रतिबन्धित किया जा चुका था। दुर्भाग्य से यह अब तक भारत में प्रतिबन्धित नहीं है

यह श्रंखला ख़ास तौर पर सामिष मित्रों के लिए बना रही हूँ, वे कृपया इसे पढ़ें। यदि इसे पढ़ कर भी आप अपना भोजन न बदलना चाहें, तो कोई बात नहीं। परंतु यह जान तो लीजिये कि यह भोजन बन कैसे रहा है? जो पहले से निरामिष हैं - उनसे यहाँ की जानकारी अपने अपने सामिष मित्रों तक पहुंचाने की प्रार्थना करती हूँ। 

यह विडियो या चित्र देखना दुखदायी हो सकता है - इसे पढना भी - किन्तु याद रखिये - भारत में यह अभी तक प्रतिबन्धित नहीं हुआ है, यदि हमें यह रुकवाना है - तो पहले इस प्रक्रिया को जान लेना आवश्यक है। यह पढ़ कर आपको जो तकलीफ होगीउसके लिए क्षमा कीजियेगा मुझे। लिखने में मुझे भी उतनी ही तकलीफ हो रही है। यदि यह पोस्ट पढ़ कर एक भी व्यक्ति आज से यह तथाकथित "delicacy" खाना छोड़ देगा, तो यह लिखना सफल हो जाएगा मेरे लिए। 

इस मौके पर मैं यह कहना चाहूंगी कि प्रतिबन्ध का यह कदम अचानक नहीं उठाया गया। आठ साल से यह क़ानून बन गया था कि यह बंद हो, सन 2004 में यह क़ानून पारित हुआ था। रेस्त्रौं मालिकों आदि को आठ साल का समय दिया गया इसे बंद कर के वैकल्पिक डिशेज़ डेवलप करने के लिए। एक जुलाई के बाद यह परोसने पर रेस्त्रौं मालिक को हर दिन 1000 डॉलर का जुर्माना भरना होगा।

लेकिन यह निर्णय लिया क्यों गया? यह हम निरामिष सदस्यों के लिए भी जानना आवश्यक है, और अपने सामिष मित्रों तक पहुंचाना भी आवश्यक है - कि  यह प्रतिबन्धित किया क्यों गया?

यह प्रतिबन्धित इसलिए किया गया कि यह "स्वादिष्ट व्यंजन"  प्राप्त करने के लिए बेचारी बेबस चिड़ियों (ducks and geese) पर इतनी अधिक क्रूरता होती है - कि हम कंस आदि को इसके मुकाबले शायद दयालु कहें :(

यह प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि वह चिड़िया "fatty liver disease " से ग्रस्त हो। उसका यकृत हम मनुष्यों को होने वाली श्वेत पीलिया (white jaundice) जैसी ही एक बीमारी से खराब हो कर सूज जाए - और उस बीमारी के भयानक दर्द में भी वह बेचारी तड़पती चिड़िया तब तक जीवित रहे जब तक उसका लीवर सूजते-सूजते इतना बड़ा न हो जाए, कि हमें अपनी "पसंदीदा स्वादिष्ट डिश" में परोसे जाने योग्य मात्रा में मांस मिले :( । इस पूरे आलेख में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है, बल्कि साधारण शब्दों में उस "normal" प्रक्रिया का वर्णन है जो इसे प्राप्त करने के लिए होती है।)

तो यह कैसे किया जाता है? (यहाँ एक  लिंक भी दे रही हूँ, यूट्यूब का - जिसमे यह प्रक्रिया दिखाई गयी है।) चेतावनी है - यदि आप यह विडियो या चित्र भी देखेंगे, तो शायद आप 2-3 रातों तक सो न सकें। जो यह विडियो नहीं देखना चाहें - वे चाहें तो यहाँ (इस लिंक पर) कुछ चित्र देख सकते हैं। जो चित्र भी न देखना चाहें,  वे यहाँ नीचे दिए शब्दों को पढ़ कर उन तड़पती हुई हजारों लाखों चिड़ियों के दर्द को समझने के प्रयास करें, और मैं प्रार्थना करूंगी कि इस श्रंखला में "मांसाहारी भोजन की प्राप्ति" पर मैं जो जानकारी दूं - वह अपने सामिष मित्रों तक पहुंचाएं। अनेक मांसाहारी लोग जानते ही नहीं कि हो क्या रहा है परदे के पीछे। इस श्रंखला के हर लेख में मैं अलग अलग मांसाहारी भोजन के बारे में बात करूंगी। चिकन (अंडे भी), बीफ, पोर्क, फिश आदि।

Foie Gras Recipe, फोई ग्रा बनाने की विधि

 जैसा कि हम जानते ही हैं, हम में से अधिकतर लोगों ने देखा है - बत्तख (ducks) खुले वातावरण में कैसे जीते हैं। ये उड़ना पसंद करते हैंतैरते हैं, झुण्ड में एक दूसरे से बातें करते सामाजिक व्यवहार करते हैअपनी चोंच से अपने आप को साफ़ रखते हैं, और यहाँ तक कि अपने घोंसले भी बिलकुल साफ़ रखते हैं। लेकिन इन्हें इन  "Foie gras" के farms पर कैसा जीवन जीना पड़ता है - आइये समझते हैं। PETA के लोग इसे प्रतिबन्धित करने के लिए ताज और ओबेरॉय जैसे बड़े होटलों से अनुरोध करते आ रहे हैं। यदि आप चाहें तो गूगल सर्च में "Foie gras india" भर कर खोज करें, जानकारी मिलेगी। वहां इसे बंद कराने की याचिका (petition) हस्ताक्षरित करने के लिंक भी मिलेंगे आपको। मदद करना चाहें तो याचिका हस्ताक्षरित करें।

1.
एक तो बत्तख़ों को इस बीमारी से ग्रस्त कराने के लिए इन्हें इनकी पाचन शक्ति से कई गुना अधिक खाना खिलाना आवश्यक है।  जाहिर है - अपने मन से तो ये नहीं खायेंगे - तो इन्हें - पैदाइश के 6-8 हफ्ते बाद से ही - बिलकुल नन्ही नन्ही चिडियाओँ को - दिन में तीन बारएक धातु की नली (metal pipe ) गले के अन्दर डाल कर करीब तीन से पांच पाउंड वसा व अनाज (fat and grain ) सीधे इनके पेट में पम्प किया जाता है। इनके बदन के वजन से एक तिहाई वजन अन्न - सीधे पेट में।

इसे ऐसे समझें - 5 पौंड यानी कितना? एक नवजात मानव शिशु का जन्म वजन करीब 5-6 पौंड होता है। सोचिये - इतना भोजन एक नन्ही सी बत्तख को - जो अभी सिर्फ 2 महीने की है - रोज़ जबरदस्ती खिलाया जाना, कितना दर्दनाक होगा इन्सान के शरीर का वजन यदि 60 किलो है, तो समझिये 20 किलो पास्ता या कोई अन्य भारी (हमारे पाचन यंत्र के लिए भारी - उन पक्षियों के लिए यह उतना ही भारी भोजन है) बिना चबाये सीधे पेट में पम्प किया जा रहा है - हर दिन - फिर अगले दिन - फिर अगले दिन हम तो नूडल्स खाने में भी कहते हैं, कि मैदा है, पेट दुखेगा। और कितना खाते हैं हम नूडल्स? दिन में शायद 200 ग्राम - और वह भी शायद हफ्ते में एक बार। 

लेकिन इन बेचारी चिड़ियों को तो यह खिलाया ही इसलिए जा रहा है, कि उनका पेट दुखे, न सिर्फ दुखे, बल्कि तड़पने की हद तक दुखे।

परन्तु यदि ये तड़पते हुए हिलेंगी, तो व्यायाम होगा और इनकी बीमारी उतनी तेज़ी से नहीं बढ़ेगी, तो इन्हें इतने छोटे छोटे पिंजरों में रखा जाता है - कि ये हिल भी न सकें। दर्द से तड़पें, परन्तु हिल न पाएं सोचिये - हमारा पेट दुखता है - तो हम पूरी तरह झुक कर मुड़ जाते हैं, या मुड़े हुए लेट जाते हैं करवट पर अक्सर - परन्तु ये बेचारी चिड़ियाँ वह भी नहीं कर सकती। :(

2. 
यह मेटल ट्यूब अन्दर घुसाना ठीक वैसे ही किया जाता है जैसे आप ऑफिस को लेट होते हुए जल्दी जल्दी अपने मोज़े में पाँव डालते हैं। बत्तख की लम्बी चोंच से, उसकी लम्बी गर्दन से होते हुए पेट तक सीधी मेटल पाइप। और यह पूरा "force feed "सिर्फ 10-15 सेकण्ड में होता है - कितनी तेज़ी से उसे पकड़ा जाता होगा, पाइप घुसाई जाती होगी, किस वेग से वह अन्न उसके नन्हे से पेट में गिराया जाता होगा, और ट्यूब निकाल भी ली जाती होगी। सिर्फ 15 सेकण्ड में यह सब

अंतर इतना है कि मोज़े को दर्द नहीं होता, चोट नहीं आती, क्योंकि आपका पैर धातु का नहीं बना है, और मोजा एक जीवित प्राणी नहीं है। जिन्होंने कभी भी एंडोस्कोपी (endoscopy)  कराई होगी, वे जानते हैं कि एक ट्यूब को गले से भीतर पेट तक उतारा जाना कितना कष्टकर है। जबकि हमारे डॉक्टर पूरा ध्यान रखते हैं कि हमें दर्द न हो। किन्तु जो वर्कर इन चिड़ियों के मुंह में यह पाइप घुसा रहा है - उसे दिन में हज़ारों बार यह करना है, 10-15 सेकण्ड में एक चिड़िया। तो उसे क्या इनके दर्द का ध्यान रह सकता है?

3.
यह करते हुए उस चिड़िया के गले, मुँह और खाद्य नलिका में चोटें आती हैं, जिससे कई के मुंह से लगातार खून बहता है। और यह चोट ठीक कैसे हो? अगले 6-8 घंटे बाद फिर से एक और पाइप डाली जायेगी, और फिर से, और फिर से, और फिर से .... करीब 40 दिन तक लगातार अत्याचार, torture ... 

गनीमत है की इतने समय में ये इतनी बीमार हो चुकी होती हैं कि इन्हें काटा जाए, मौत तो शायद एक वरदान होती होगी उस स्थिति में। इनका लीवर तब तक अपने normal  आकार से दस गुना तक सूज जाता है - यह चित्र देखिये - साधारण और बीमार लीवर - आकार और रंग दोनों। करीब तीन महीने की उम्र में इन्हें निर्दयता से काट दिया जाता है - और लीवर ले लिए जाता है यह "व्यंजन" बनाने के लिए। तीन महीने का भयानक जीवन!
बढे हुए बीमार यकृत की तुलना स्वस्थ यकृत से
 4. 
इन्हें तंग पिंजरों में बंद कर के रखा जाता है ताकि ये हिल डुल कर व्यायाम न पा सकें और इनके बदन में विषाक्त पदार्थ (toxins) अधिक बनें जिससे ये जल्दी से जल्दी वसीय यकृत व्याधि (fatty liver disease) से ग्रस्त हों। ये उड़ने तैरने की शौक़ीन निरीह चिड़ियाँ - अपने जीवन भर एक बार भी पंख नहीं फैला सकतीं, खुली हवा, और धूप नहीं देख सकतीं। 

5. 
लीवर शरीर की विषाक्त पदार्थों (toxins) को बाहर निकालने के काम में मदद करता है। यदि विषाक्त पदार्थ सफ़ाई की उसकी क्षमता से अधिक हों - तो वह ख़राब होने लगता है। यह बीमारी बहुत दर्दनाक होती है। लीवर सूजते सूजते अपने नोर्मल आकार से दस गुना तक सूज जाता है। यह इतना भारी हो जाता है कि चिड़िया हिल भी नहीं पातीं। इसके अलावा जब लीवर अपना काम करना बंद कर दे, तो इनके शरीर से विषाक्त पदार्थ निकालने की प्रक्रिया ठीक से नहीं हो पाती। विषाक्त पदार्थों की यह वृद्धि अन्य अनेक बीमारियों का कारण बनती है। कई पक्षी इतने भयानक दर्द में होते हैं कि जहां (गले और छाती) तक इनकी चोंच पहुंचे, वहां के पंख उखाड़ देते हैं (जैसे इंसान परेशानी में अपने बाल नोचता है), लेकिन तंग पिंजरे में इनकी गर्दन इनके पूरे शरीर तक नहीं पहुँच सकती। 

6.
अत्यधिक और अस्वाभाविक भोजन करने, और व्यायाम न होने से इन्हें कब्ज होता है, और इनके मलद्वार (anus) सूज कर खून बहने लगता है। अपने साधारण जीवन में साफ़ सफाई से रहने वाली ये चिड़ियाँ (यदि पिंजरे जमीन पर हैं) अपने ही मलमूत्र से सनी हुई एक नन्हे से दुर्गन्धयुक्त पिंजरे में बंद अपना "जीवन (?)" जीती हैं। दूसरे तरह की स्थिति भी है - जहां पिंजरे जाली के हैं (पिंजरे की ज़मीन भी) और हवा में लटके हैं, जिससे मलमूत्र जाली के पार नीच फर्श पर गिरता रह सके। नीचे ज़मीन पर मल मूत्र की ठहरी हुई नदी से हो जाती है, जिसकी उठती दुर्गन्ध में ये सफाई पसंद पक्षी जीते(?) हैं।

7. 
इनके बदन गंदे हो जाते हैं। खुजली भी होती है और कीड़े भी लग जाते हैं। परन्तु पिंजरे में इतनी जगह नहीं कि  ये अपनी चोंच से खुद को साफ़ रख सकें, उन कीड़ों के काटने से खुद को बचा सकें।

8. 
लगातार तारों पर (जमीन पर नहीं - तारों की जाली wire mesh पर) खड़े रहने का जीवन - पंजे ख़राब और दर्दीले हो जाते हैं (हम कभी कभी पथरीली सड़क पर बिना चप्पल पहने जाते हैं - कुछ पलों के लिए) याद रखिये, स्वाभाविक जीवन में बत्तख पानी में तैरते हैं- तो इनके पैर webbed होते हैं, मुर्गी के पंजों की तरह नहीं, बल्कि नाज़ुक झिल्लियों से जुड़े पंजे। और ये तार पर खड़े रहने के लिए नहीं बने हैं।   याद रखिये - इनकी उम्र तीन महीने से भी कम है, अभी ये चूजे ही होते साधारण जीवन में। एक वयस्क पक्षी जितने मजबूत नहीं हुए हैं इनके पैर, परतु इनका वजन एक परिपक्व पक्षी से अधिक है - क्योंकि लीवर सूजा हुआ है। और दिन में चौबीस घंटे खड़े ही रहना है, न चलना है, न उड़ना, न तैरना - तो तारों पर टिके नन्हे पंजों से यह बोझ कभी नहीं हटता।

9. 
ये बुरी तरह बीमार हैं, लीवर इतना भारी है कि  ये हिल भी नहीं सकतीं। चूहे इनके खुले हुए जख्मो को काटते हैं - तो ये मुड़ कर उनसे अपने आप को बचा भी नहीं सकतीं (इस विडिओ में यह दृश्य दिखाया गया है कि एक चूहा पक्षी को काट रहा है - 5-6 सेकण्ड तक, और वह चिड़िया हिली तक नहीं । उसके पेट का दर्द शायद उस चूहे के काटने के दर्द से भी असह्य रहा हो - सोचिये ।

10. 
गले से बहते हुए खून से दम घुट कर यदि चिड़िया मर गयी - और यदि लीवर अभी अच्छे दामों में बेचने योग्य बड़ा न हुआ - तो मालिक का नुकसान होगा न? तो जिनके मुंह से ज्यादा ही खून  रहा हो (पाइप से की गयी force feeding से आई चोट के कारण) उन्हें पंजो से बाँध कर उल्टा लटका दिया जाता है, जिससे खून साँस को न रोके - बाहर गिरे। लेकिन पाइप डाल कर force feeding अब भी दिन में तीन बार जारी रहती है। यह उसे कितना दर्द देगा - यह सोचने का समय किसी के पास नहीं। यह चोंच से टपकता हुआ खून नीचे की दूसरी चिड़ियों को भिगोता रहता है। :(

11. 
आखिर 3 महीने, सिर्फ 3 महीने की उम्र तक आते आते ये इतनी बीमार हो चुकी होती हैं, कि इन्हें काटा जा सके। तब इन्हें उल्टा लटका कर - पूरे होश में - इनका गला रेता (काटा नहीं - सिर्फ रेता) जाता है - और खून बह कर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, क्योंकि यदि गर्दन काट दी तो वह मर जायगी और दिल नहीं धड़केगा, तो लीवर में खून बचा रहेगा। तब भी शायद यह दर्द कम से कम, रोज़ रोज़ के torture का तो अंत ला ही रहा है इनके लिए :(। 

तीन महीने की उम्र मेंअंडे से व्यंजन बनने तक का दर्दनाक सफ़र - ख़त्म हो जाता है। जिस उम्र तक साधारण तौर पर ये अपनी माँ के साथ किसी तालाब आदि में तैरते होते (साधारण परिवेश में अब तक शायद ये उड़ना सीखना शुरू करने वाले होते अपने माँ से)।

अब भी क्या हम कह सकते हैं कि नर्क नहीं होते??

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अगले भाग में - चिकन, अंडे, और पोल्ट्री फार्म पर बात करूंगी।

आप सभी का आभार, और यह पोस्ट पढ़ते हुए आपके मन को जो तकलीफ पहुंचाईउसके लिए पुनः क्षमा याचना करती हूँ। यदि चाहें - तो  आप भी "Foie gras india" गूगल सर्च कर भारत में इसे बंद करवाने के प्रयासों का हिस्सा बन सकते हैं, online petition sign कर के।

आभार।

शनिवार, 16 जून 2012

मनुष्य की बढती स्वार्थपरता का निर्दयी खेल

यह बात तो हर कोई जानता है कि माँस कैसे प्राप्त किया जाता है. जीवन हर जीव को उतना ही प्रिय है, जितना कि हम सब को. अपनी खुशी से कोई पशु मरना नहीं चाहता. अत: उसे मारने से पूर्व अनेक क्रूर और अमानुषिक यातनाएं दी जाती हैं. जब वह वध स्थान पर खडा किया जाता है तो उसकी करूण पुकार से दिल पसीजने लगता है. मरने से पूर्व जैसे उसके मनोभाव रहते हैं, उसका ठीक वैसा ही प्रभाव उसके माँस पर भी पडता है. अब वही माँस जो कोई खायेगा, तो उन मनोभावों का प्रभाव उस पर पडे बिना भला कैसे रह सकता है. इसी से अपने देश में यह कहावत प्रचलित है, कि " जैसा खाये अन्न, वैसा होये मन " अर्थात हमारा भोजन जैसा होगा, हमारा मन भी ठीक वैसा ही होता जायेगा.
भोजन पर हमारा केवल शारीरिक स्वास्थय ही निर्भर नहीं है, अपितु वह मानसिक स्वास्थ्य का भी कारक है. सही मायनों में एक पूर्ण स्वस्थ्य मनुष्य उसे ही कहा जायेगा, जिसका कि शरीर और मन दोनों ही स्वस्थ हों. स्वस्थ शरीर जहाँ रोगों से हमारी रक्षा करता हैं, वहीं स्वस्थ मन दुर्वासनाओं और दुर्विचारों से हमें बचाता है.
इसलिए माँसभक्षण न तो शरीर के लिए ही स्वास्थयकर है और न ही मन के लिए.
देखा जाये तो आज विश्व में चहुँ ओर जो इतनी अशान्ति दिखाई पडती है, उसके पीछे का एक कारण समाज में फैली माँसभक्षण की ये प्रवृति भी है. माँसाहार नें मानवी प्रवृति को एक दम से तामसिक बना छोडा है. अत: ऎसा मनुष्य केवल दूसरों के विनाश की ही बात सोच सकता है, न कि सृजन की. मुख से भले ही शान्ति-शान्ति चिल्लाते रहें, लेकिन उपाय ऎसे खोजे जा रहे हैं, जिनसे कि केवल अशान्ती ही बढती जा रही है.
किन्तु इस चीज का इन्सान इतना अभ्यस्त हो चुका है कि उसे माँस भक्षण करते हुए यह ख्याल तक नहीं आता कि जो पदार्थ हम खा रहे हैं, उसके लिए किसी को अपनी जान गँवानी पडी है. दूसरों के प्रति इतनी निर्दयता और स्वार्थीपन नें ही आज मनुष्य को मनुष्य के प्रति निष्ठुर बना दिया है. आज जो पशु के रक्त का प्यासा है, कल वो इन्सान के रक्त का प्यासा क्यूँ न होगा ? दरअसल प्यास तो सिर्फ रक्त की है, आज जो प्यास पशु के रक्त से बुझ सकती है, उसके लिए पशु का खूब बहाया जाता है. और कल को यही प्यास इन्सानी रक्त से बुझ सकेगी तो उसके लिए इन्सानी खून ही बहाया जायेगा.
यह तो मनुष्य की बढती हुई स्वार्थपरता का खेल है कि, वह प्रकृति से शाकाहारी होते हुए भी, प्रकृति प्रदत्त तरह-तरह के स्वास्थयकर पदार्थों के सहज सुलभ होने पर भी दूसरे की जान की कीमत नहीं आँकता और दूसरे के रक्त-माँस से अपनी भूख प्यास मिटाने में जुटा है.
माँस के निमित से रोजाना कितने लाखों पशु-पक्षियों को मार डाला जाता है और उससे समू़चे विश्व को कितनी बडी आर्थिक और स्वास्थ्य-विषयक क्षति उठानी पडती है, ये तो आप स्वयं ही सोच सकते हैं. यहाँ तो केवल इतना ही बतलाना है कि माँसाहार पूर्णत: अनैतिक है, जो कि मानवी सभ्यता को अनैतिकता की ओर लिए जा रहा है. मनुष्य की कोमल वृतियों को मसल, उसे निर्दयी, अकृतज्ञ और दुराचारी बनाने में जुटा है......!!!
दरअसल, मनुष्य की कोमल वृतियां ही मानव समाज की सुरक्षा का एक आवश्यक कचव है. उनके मर जाने पर समाज भी हरगिज जीवित नहीं रह सकता. अत: न केवल आहार अपितु औषधी, व्यवसाय अथवा मनोविनोद इत्यादि चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो, पशु-पक्षियों का निर्दयतापूर्वक वध रुकना ही चाहिए. इसी में विश्व का कल्याण है............