शाकाहार वैश्विक प्रसार लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
शाकाहार वैश्विक प्रसार लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 1 जुलाई 2012

भोजन में क्रूरता: 1. प्रस्तावना - फ़ोइ ग्रा

[आलेख: शिल्पा मेहता]

सभी जीवदया युक्त बंधुओं को बधाई! क्यों? क्योंकि आजएक जुलाई 2012, से अमेरिका के केलिफोर्निया ( California USA ) प्रदेश में "Foie gras" [फोई ग्रा] यानी कलहंस और बत्तख़ (goose और duck) पक्षी को बेहद दर्दनाक बीमारी वसीय यकृत व्याधि (fatty liver disease) से बीमार बना करउनके सूजे हुए यकृत (लीवर liver) से बनाया जाने वाला स्पेशल "स्वादिष्ट व्यंजन", प्रतिबन्धित कर दिया जाएगा। 

इससे पहले ब्रिटेन, जर्मनी, जेक रिपब्लिक, इजरायलइटली और स्वितज़रलैंड आदि 16 देशों में यह प्रतिबन्धित किया जा चुका था। दुर्भाग्य से यह अब तक भारत में प्रतिबन्धित नहीं है

यह श्रंखला ख़ास तौर पर सामिष मित्रों के लिए बना रही हूँ, वे कृपया इसे पढ़ें। यदि इसे पढ़ कर भी आप अपना भोजन न बदलना चाहें, तो कोई बात नहीं। परंतु यह जान तो लीजिये कि यह भोजन बन कैसे रहा है? जो पहले से निरामिष हैं - उनसे यहाँ की जानकारी अपने अपने सामिष मित्रों तक पहुंचाने की प्रार्थना करती हूँ। 

यह विडियो या चित्र देखना दुखदायी हो सकता है - इसे पढना भी - किन्तु याद रखिये - भारत में यह अभी तक प्रतिबन्धित नहीं हुआ है, यदि हमें यह रुकवाना है - तो पहले इस प्रक्रिया को जान लेना आवश्यक है। यह पढ़ कर आपको जो तकलीफ होगीउसके लिए क्षमा कीजियेगा मुझे। लिखने में मुझे भी उतनी ही तकलीफ हो रही है। यदि यह पोस्ट पढ़ कर एक भी व्यक्ति आज से यह तथाकथित "delicacy" खाना छोड़ देगा, तो यह लिखना सफल हो जाएगा मेरे लिए। 

इस मौके पर मैं यह कहना चाहूंगी कि प्रतिबन्ध का यह कदम अचानक नहीं उठाया गया। आठ साल से यह क़ानून बन गया था कि यह बंद हो, सन 2004 में यह क़ानून पारित हुआ था। रेस्त्रौं मालिकों आदि को आठ साल का समय दिया गया इसे बंद कर के वैकल्पिक डिशेज़ डेवलप करने के लिए। एक जुलाई के बाद यह परोसने पर रेस्त्रौं मालिक को हर दिन 1000 डॉलर का जुर्माना भरना होगा।

लेकिन यह निर्णय लिया क्यों गया? यह हम निरामिष सदस्यों के लिए भी जानना आवश्यक है, और अपने सामिष मित्रों तक पहुंचाना भी आवश्यक है - कि  यह प्रतिबन्धित किया क्यों गया?

यह प्रतिबन्धित इसलिए किया गया कि यह "स्वादिष्ट व्यंजन"  प्राप्त करने के लिए बेचारी बेबस चिड़ियों (ducks and geese) पर इतनी अधिक क्रूरता होती है - कि हम कंस आदि को इसके मुकाबले शायद दयालु कहें :(

यह प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि वह चिड़िया "fatty liver disease " से ग्रस्त हो। उसका यकृत हम मनुष्यों को होने वाली श्वेत पीलिया (white jaundice) जैसी ही एक बीमारी से खराब हो कर सूज जाए - और उस बीमारी के भयानक दर्द में भी वह बेचारी तड़पती चिड़िया तब तक जीवित रहे जब तक उसका लीवर सूजते-सूजते इतना बड़ा न हो जाए, कि हमें अपनी "पसंदीदा स्वादिष्ट डिश" में परोसे जाने योग्य मात्रा में मांस मिले :( । इस पूरे आलेख में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है, बल्कि साधारण शब्दों में उस "normal" प्रक्रिया का वर्णन है जो इसे प्राप्त करने के लिए होती है।)

तो यह कैसे किया जाता है? (यहाँ एक  लिंक भी दे रही हूँ, यूट्यूब का - जिसमे यह प्रक्रिया दिखाई गयी है।) चेतावनी है - यदि आप यह विडियो या चित्र भी देखेंगे, तो शायद आप 2-3 रातों तक सो न सकें। जो यह विडियो नहीं देखना चाहें - वे चाहें तो यहाँ (इस लिंक पर) कुछ चित्र देख सकते हैं। जो चित्र भी न देखना चाहें,  वे यहाँ नीचे दिए शब्दों को पढ़ कर उन तड़पती हुई हजारों लाखों चिड़ियों के दर्द को समझने के प्रयास करें, और मैं प्रार्थना करूंगी कि इस श्रंखला में "मांसाहारी भोजन की प्राप्ति" पर मैं जो जानकारी दूं - वह अपने सामिष मित्रों तक पहुंचाएं। अनेक मांसाहारी लोग जानते ही नहीं कि हो क्या रहा है परदे के पीछे। इस श्रंखला के हर लेख में मैं अलग अलग मांसाहारी भोजन के बारे में बात करूंगी। चिकन (अंडे भी), बीफ, पोर्क, फिश आदि।

Foie Gras Recipe, फोई ग्रा बनाने की विधि

 जैसा कि हम जानते ही हैं, हम में से अधिकतर लोगों ने देखा है - बत्तख (ducks) खुले वातावरण में कैसे जीते हैं। ये उड़ना पसंद करते हैंतैरते हैं, झुण्ड में एक दूसरे से बातें करते सामाजिक व्यवहार करते हैअपनी चोंच से अपने आप को साफ़ रखते हैं, और यहाँ तक कि अपने घोंसले भी बिलकुल साफ़ रखते हैं। लेकिन इन्हें इन  "Foie gras" के farms पर कैसा जीवन जीना पड़ता है - आइये समझते हैं। PETA के लोग इसे प्रतिबन्धित करने के लिए ताज और ओबेरॉय जैसे बड़े होटलों से अनुरोध करते आ रहे हैं। यदि आप चाहें तो गूगल सर्च में "Foie gras india" भर कर खोज करें, जानकारी मिलेगी। वहां इसे बंद कराने की याचिका (petition) हस्ताक्षरित करने के लिंक भी मिलेंगे आपको। मदद करना चाहें तो याचिका हस्ताक्षरित करें।

1.
एक तो बत्तख़ों को इस बीमारी से ग्रस्त कराने के लिए इन्हें इनकी पाचन शक्ति से कई गुना अधिक खाना खिलाना आवश्यक है।  जाहिर है - अपने मन से तो ये नहीं खायेंगे - तो इन्हें - पैदाइश के 6-8 हफ्ते बाद से ही - बिलकुल नन्ही नन्ही चिडियाओँ को - दिन में तीन बारएक धातु की नली (metal pipe ) गले के अन्दर डाल कर करीब तीन से पांच पाउंड वसा व अनाज (fat and grain ) सीधे इनके पेट में पम्प किया जाता है। इनके बदन के वजन से एक तिहाई वजन अन्न - सीधे पेट में।

इसे ऐसे समझें - 5 पौंड यानी कितना? एक नवजात मानव शिशु का जन्म वजन करीब 5-6 पौंड होता है। सोचिये - इतना भोजन एक नन्ही सी बत्तख को - जो अभी सिर्फ 2 महीने की है - रोज़ जबरदस्ती खिलाया जाना, कितना दर्दनाक होगा इन्सान के शरीर का वजन यदि 60 किलो है, तो समझिये 20 किलो पास्ता या कोई अन्य भारी (हमारे पाचन यंत्र के लिए भारी - उन पक्षियों के लिए यह उतना ही भारी भोजन है) बिना चबाये सीधे पेट में पम्प किया जा रहा है - हर दिन - फिर अगले दिन - फिर अगले दिन हम तो नूडल्स खाने में भी कहते हैं, कि मैदा है, पेट दुखेगा। और कितना खाते हैं हम नूडल्स? दिन में शायद 200 ग्राम - और वह भी शायद हफ्ते में एक बार। 

लेकिन इन बेचारी चिड़ियों को तो यह खिलाया ही इसलिए जा रहा है, कि उनका पेट दुखे, न सिर्फ दुखे, बल्कि तड़पने की हद तक दुखे।

परन्तु यदि ये तड़पते हुए हिलेंगी, तो व्यायाम होगा और इनकी बीमारी उतनी तेज़ी से नहीं बढ़ेगी, तो इन्हें इतने छोटे छोटे पिंजरों में रखा जाता है - कि ये हिल भी न सकें। दर्द से तड़पें, परन्तु हिल न पाएं सोचिये - हमारा पेट दुखता है - तो हम पूरी तरह झुक कर मुड़ जाते हैं, या मुड़े हुए लेट जाते हैं करवट पर अक्सर - परन्तु ये बेचारी चिड़ियाँ वह भी नहीं कर सकती। :(

2. 
यह मेटल ट्यूब अन्दर घुसाना ठीक वैसे ही किया जाता है जैसे आप ऑफिस को लेट होते हुए जल्दी जल्दी अपने मोज़े में पाँव डालते हैं। बत्तख की लम्बी चोंच से, उसकी लम्बी गर्दन से होते हुए पेट तक सीधी मेटल पाइप। और यह पूरा "force feed "सिर्फ 10-15 सेकण्ड में होता है - कितनी तेज़ी से उसे पकड़ा जाता होगा, पाइप घुसाई जाती होगी, किस वेग से वह अन्न उसके नन्हे से पेट में गिराया जाता होगा, और ट्यूब निकाल भी ली जाती होगी। सिर्फ 15 सेकण्ड में यह सब

अंतर इतना है कि मोज़े को दर्द नहीं होता, चोट नहीं आती, क्योंकि आपका पैर धातु का नहीं बना है, और मोजा एक जीवित प्राणी नहीं है। जिन्होंने कभी भी एंडोस्कोपी (endoscopy)  कराई होगी, वे जानते हैं कि एक ट्यूब को गले से भीतर पेट तक उतारा जाना कितना कष्टकर है। जबकि हमारे डॉक्टर पूरा ध्यान रखते हैं कि हमें दर्द न हो। किन्तु जो वर्कर इन चिड़ियों के मुंह में यह पाइप घुसा रहा है - उसे दिन में हज़ारों बार यह करना है, 10-15 सेकण्ड में एक चिड़िया। तो उसे क्या इनके दर्द का ध्यान रह सकता है?

3.
यह करते हुए उस चिड़िया के गले, मुँह और खाद्य नलिका में चोटें आती हैं, जिससे कई के मुंह से लगातार खून बहता है। और यह चोट ठीक कैसे हो? अगले 6-8 घंटे बाद फिर से एक और पाइप डाली जायेगी, और फिर से, और फिर से, और फिर से .... करीब 40 दिन तक लगातार अत्याचार, torture ... 

गनीमत है की इतने समय में ये इतनी बीमार हो चुकी होती हैं कि इन्हें काटा जाए, मौत तो शायद एक वरदान होती होगी उस स्थिति में। इनका लीवर तब तक अपने normal  आकार से दस गुना तक सूज जाता है - यह चित्र देखिये - साधारण और बीमार लीवर - आकार और रंग दोनों। करीब तीन महीने की उम्र में इन्हें निर्दयता से काट दिया जाता है - और लीवर ले लिए जाता है यह "व्यंजन" बनाने के लिए। तीन महीने का भयानक जीवन!
बढे हुए बीमार यकृत की तुलना स्वस्थ यकृत से
 4. 
इन्हें तंग पिंजरों में बंद कर के रखा जाता है ताकि ये हिल डुल कर व्यायाम न पा सकें और इनके बदन में विषाक्त पदार्थ (toxins) अधिक बनें जिससे ये जल्दी से जल्दी वसीय यकृत व्याधि (fatty liver disease) से ग्रस्त हों। ये उड़ने तैरने की शौक़ीन निरीह चिड़ियाँ - अपने जीवन भर एक बार भी पंख नहीं फैला सकतीं, खुली हवा, और धूप नहीं देख सकतीं। 

5. 
लीवर शरीर की विषाक्त पदार्थों (toxins) को बाहर निकालने के काम में मदद करता है। यदि विषाक्त पदार्थ सफ़ाई की उसकी क्षमता से अधिक हों - तो वह ख़राब होने लगता है। यह बीमारी बहुत दर्दनाक होती है। लीवर सूजते सूजते अपने नोर्मल आकार से दस गुना तक सूज जाता है। यह इतना भारी हो जाता है कि चिड़िया हिल भी नहीं पातीं। इसके अलावा जब लीवर अपना काम करना बंद कर दे, तो इनके शरीर से विषाक्त पदार्थ निकालने की प्रक्रिया ठीक से नहीं हो पाती। विषाक्त पदार्थों की यह वृद्धि अन्य अनेक बीमारियों का कारण बनती है। कई पक्षी इतने भयानक दर्द में होते हैं कि जहां (गले और छाती) तक इनकी चोंच पहुंचे, वहां के पंख उखाड़ देते हैं (जैसे इंसान परेशानी में अपने बाल नोचता है), लेकिन तंग पिंजरे में इनकी गर्दन इनके पूरे शरीर तक नहीं पहुँच सकती। 

6.
अत्यधिक और अस्वाभाविक भोजन करने, और व्यायाम न होने से इन्हें कब्ज होता है, और इनके मलद्वार (anus) सूज कर खून बहने लगता है। अपने साधारण जीवन में साफ़ सफाई से रहने वाली ये चिड़ियाँ (यदि पिंजरे जमीन पर हैं) अपने ही मलमूत्र से सनी हुई एक नन्हे से दुर्गन्धयुक्त पिंजरे में बंद अपना "जीवन (?)" जीती हैं। दूसरे तरह की स्थिति भी है - जहां पिंजरे जाली के हैं (पिंजरे की ज़मीन भी) और हवा में लटके हैं, जिससे मलमूत्र जाली के पार नीच फर्श पर गिरता रह सके। नीचे ज़मीन पर मल मूत्र की ठहरी हुई नदी से हो जाती है, जिसकी उठती दुर्गन्ध में ये सफाई पसंद पक्षी जीते(?) हैं।

7. 
इनके बदन गंदे हो जाते हैं। खुजली भी होती है और कीड़े भी लग जाते हैं। परन्तु पिंजरे में इतनी जगह नहीं कि  ये अपनी चोंच से खुद को साफ़ रख सकें, उन कीड़ों के काटने से खुद को बचा सकें।

8. 
लगातार तारों पर (जमीन पर नहीं - तारों की जाली wire mesh पर) खड़े रहने का जीवन - पंजे ख़राब और दर्दीले हो जाते हैं (हम कभी कभी पथरीली सड़क पर बिना चप्पल पहने जाते हैं - कुछ पलों के लिए) याद रखिये, स्वाभाविक जीवन में बत्तख पानी में तैरते हैं- तो इनके पैर webbed होते हैं, मुर्गी के पंजों की तरह नहीं, बल्कि नाज़ुक झिल्लियों से जुड़े पंजे। और ये तार पर खड़े रहने के लिए नहीं बने हैं।   याद रखिये - इनकी उम्र तीन महीने से भी कम है, अभी ये चूजे ही होते साधारण जीवन में। एक वयस्क पक्षी जितने मजबूत नहीं हुए हैं इनके पैर, परतु इनका वजन एक परिपक्व पक्षी से अधिक है - क्योंकि लीवर सूजा हुआ है। और दिन में चौबीस घंटे खड़े ही रहना है, न चलना है, न उड़ना, न तैरना - तो तारों पर टिके नन्हे पंजों से यह बोझ कभी नहीं हटता।

9. 
ये बुरी तरह बीमार हैं, लीवर इतना भारी है कि  ये हिल भी नहीं सकतीं। चूहे इनके खुले हुए जख्मो को काटते हैं - तो ये मुड़ कर उनसे अपने आप को बचा भी नहीं सकतीं (इस विडिओ में यह दृश्य दिखाया गया है कि एक चूहा पक्षी को काट रहा है - 5-6 सेकण्ड तक, और वह चिड़िया हिली तक नहीं । उसके पेट का दर्द शायद उस चूहे के काटने के दर्द से भी असह्य रहा हो - सोचिये ।

10. 
गले से बहते हुए खून से दम घुट कर यदि चिड़िया मर गयी - और यदि लीवर अभी अच्छे दामों में बेचने योग्य बड़ा न हुआ - तो मालिक का नुकसान होगा न? तो जिनके मुंह से ज्यादा ही खून  रहा हो (पाइप से की गयी force feeding से आई चोट के कारण) उन्हें पंजो से बाँध कर उल्टा लटका दिया जाता है, जिससे खून साँस को न रोके - बाहर गिरे। लेकिन पाइप डाल कर force feeding अब भी दिन में तीन बार जारी रहती है। यह उसे कितना दर्द देगा - यह सोचने का समय किसी के पास नहीं। यह चोंच से टपकता हुआ खून नीचे की दूसरी चिड़ियों को भिगोता रहता है। :(

11. 
आखिर 3 महीने, सिर्फ 3 महीने की उम्र तक आते आते ये इतनी बीमार हो चुकी होती हैं, कि इन्हें काटा जा सके। तब इन्हें उल्टा लटका कर - पूरे होश में - इनका गला रेता (काटा नहीं - सिर्फ रेता) जाता है - और खून बह कर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, क्योंकि यदि गर्दन काट दी तो वह मर जायगी और दिल नहीं धड़केगा, तो लीवर में खून बचा रहेगा। तब भी शायद यह दर्द कम से कम, रोज़ रोज़ के torture का तो अंत ला ही रहा है इनके लिए :(। 

तीन महीने की उम्र मेंअंडे से व्यंजन बनने तक का दर्दनाक सफ़र - ख़त्म हो जाता है। जिस उम्र तक साधारण तौर पर ये अपनी माँ के साथ किसी तालाब आदि में तैरते होते (साधारण परिवेश में अब तक शायद ये उड़ना सीखना शुरू करने वाले होते अपने माँ से)।

अब भी क्या हम कह सकते हैं कि नर्क नहीं होते??

-----------------------

अगले भाग में - चिकन, अंडे, और पोल्ट्री फार्म पर बात करूंगी।

आप सभी का आभार, और यह पोस्ट पढ़ते हुए आपके मन को जो तकलीफ पहुंचाईउसके लिए पुनः क्षमा याचना करती हूँ। यदि चाहें - तो  आप भी "Foie gras india" गूगल सर्च कर भारत में इसे बंद करवाने के प्रयासों का हिस्सा बन सकते हैं, online petition sign कर के।

आभार।

बुधवार, 21 मार्च 2012

पश्चिम में प्रकाश - भारत के बाहर शाकाहार की परम्परा


बात सभ्यता की हो, अध्यात्म की, योग की या शाकाहार की, भारत का नाम ज़ुबान पर आना स्वाभाविक ही है। सच है कि इन सभी क्षेत्रों में भारत अग्रणी रहा है। वैदिक ऋषियों, जैन तीर्थंकरों, बौद्ध मुनियों और सिख गुरुओं ने अपने आचरण और उपदेश में वीरता, त्याग, प्रेम, करुणा और अहिंसा को अपनाया है मगर शाकाहार का प्रसार छिटपुट ही सही, भारत के बाहर भी रहा अवश्य होगा ऐसा सोचना भी नैसर्गिक ही है।

निरामिष पर एक पिछली पोस्ट में हमने इंग्लैंड में हुए एक अध्ययन के हवाले से देखा था कि वहाँ सर्वोच्च बुद्धि-क्षमता वाले अधिकांश बच्चे 30 वर्ष की आयु तक पहुँचने से पहले ही शाकाहारी हो गये थे। इसी प्रकार बेल्जियम के नगर घेंट में नगर प्रशासन ने सप्ताह के एक दिन को शाकाहार अनिवार्य घोषित करके शाकाहार के प्रति प्रतिबद्धता का एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया था। पश्चिम जर्मनीअमेरिका में बढते शाकाहार की झलकियाँ भी हम निरामिष पर पिछले आलेखों में देख चुके हैं। शाकाहार के प्रति वैश्विक आकर्षण कोई नई बात नहीं है। आइये आज इस आलेख में हम यह पड़ताल करते हैं कि भारत के बाहर शाकाहार के बीज किस तरह पड़े और निरामिष प्रवृत्ति ने वहाँ किस प्रकार एक आन्दोलन का रूप लिया।
पायथागोरस इतने बुद्धिमान थे कि उन्होंने कभी मांस नहीं खाया और मांसाहार को सदा पाप कहा
~ पायथागोरस की जीवनी खंड 23
आज के भारत में शाकाहारी होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हमारे पास भूतदया, करुणा और शाकाहार की इतनी पुरानी और सुदृढ परम्परा है कि शाकाहार पर नहीं, आश्चर्य तो मांसाहार पर होना चाहिये। लेकिन सरसरी तौर पर देखने से पश्चिमी जगत में शाकाहार के लिए पर्याप्त उदाहरण, उपदेश और प्रेरणाएं नज़र नहीं आतीं बल्कि वह कुछ असाधारण व्यक्तियों के हृदय में स्वतः ही उत्पन्न हुआ लगता है। निश्चित रूप से इसके पीछे अच्छे स्वास्थ्य की कामना और पर्याप्त ज्ञान तो है ही, जीवदया और करुणा का महत्व भी कम नहीं है।

जिन लोगों ने आरम्भिक गणित पढा होगा उन्हें धर्मसूत्र के रचनाकार के रूप मे प्रसिद्ध बौधायन (800 ईसा पूर्व) की समकोण त्रिकोण प्रमेय (Pythagoras theorem) को पश्चिम में स्वतंत्र रूप से सिद्ध करने वाले पाइथागोरस (इटली 570 - 495  ईसा पूर्व) की याद तो होगी ही। एक समय में पायथागोरस और उनका गणित इतना आदरणीय था कि उनके वैसे ही अनेक अनुसरणकर्ता बन गये थे जैसे कि किसी धर्मगुरु के अनुयायी होते हैं। किमाश्चर्यम् कि घनघोर मांसाहारी यूरोप का यह प्रसिद्ध गणितज्ञ और विचारक पूर्णतया शाकाहारी था। वैसे पायथागोरस को पुनर्जन्म में भी न केवल विश्वास था बल्कि उनका दावा यह था कि उन्हें अपने चार पिछले जन्मों की बातें याद हैं। पायथागोरस के प्रमुख शिष्यों ने भी शाकाहारी जीवन अपनाया। ये लोग न केवल मछली, अंडा आदि खाने के विरोधी थे बल्कि धर्म के बहाने से की जाने वाली पशुहत्या को भी अमानवीय मानते थे।

होमर के ग्रंथों में कमलपोषित कहकर उत्तरी अफ़्रीका की शाकाहारी प्रजातियों के और इथोपिया के शाकाहारियों के सन्दर्भ आये हैं। पाँचवीं शताब्दी  ईसा पूर्व के दार्शनिक एम्पेडोक्लीज़ भी अपने शाकाहार के लिये जाने गये थे। उस समय के यूरोप के शाकाहारी विद्वानों और मांसाहारी आमजनों के बीच अनेक शास्त्रार्थ होने के बावजूद उनमें इस बात पर सहमति थी कि एक आदर्श समाज में जीवहत्या, शिकार आदि के लिये कोई स्थान नहीं होना चाहिये, ऐसी जानकारी प्लेटो, हेसोइड व ओविड आदि दार्शनिकों के आलेखों से ज्ञात है। प्लेटो और उसके अनुयायी भी पूर्णतः शाकाहारी थे। इनसे इतर विचारधारा का दार्शनिक स्टोइक यद्यपि स्वयं शाकाहारी नहीं था पर उसके प्रसिद्ध शिष्य सेनेका शाकाहारी थे।

विश्व भर में विभिन्न चैम्पियन खिलाड़ियों ने शाकाहार अपनाकर अपने को शिखर पर बनाये रखा है। मगर पश्चिम में भी क्षमतावान होने के लिये शाकाहार का यह प्रयोग कोई नई बात नहीं है। सिकन्दर के विश्वविजयी सैनिकों को युद्धकाल में शाकाहारी रहने के निर्देश थे। अध्ययनों से यह सिद्ध हुआ है कि रोम के विश्वविख्यात ग्लैडियेटर्स अधिक शक्ति, स्फूर्ति व गति के लिये न केवल शाकाहारी बल्कि वीगन हुआ करते थे।

यूरोप में ईसाई धर्म के प्रसार के साथ विद्वानों व संतों के बीच शाकाहार की अनिवार्यता समाप्त हो गयी तथापि अनेक ईसाई संत या तो शाकाहारी रहे या शाकाहार के साथ मत्स्याहारी। परंतु धीरे-धीरे चर्च और विद्वानों के बीच टकराव बढता गया। शक्तिशाली चर्च ने विद्वानों के दमन की नीति अपनाई। यहाँ तक कि कई विद्वानों, विचारकों, दार्शनिकों, वैज्ञानिकों को धर्मविरोधी होने के आरोप में मार दिया गया। ऐसे अन्धकारमय काल के यूरोपीय जीवन में  हिंसा और मांसाहार सामान्य सा हो गया। इंग्लैंड में तो कई समूह यह दावा करते दिखते थे कि पशुओं को ईश्वर ने उनके आहार के लिये ही बनाया है। यूरोप के पुनर्जागरण के काल (रेनेसां = Renaissance) में एक लगभग पूर्ण मांसाहारी यूरोप में जन्मी विभूतियों जैसे लियोनार्दो दा विंची (1452–1519) और पियरे गासेन्दी (1592–1655) ने शाकाहार अपनाकर उसे फिर से विद्वानों के भोजन की प्रतिष्ठा दिलाई। इनके कुछ समय बाद इंग्लिश लेखक टॉमस ट्रायन (1634–1703) ने इंग्लैंड में शाकाहार की वकालत की।

अमेरिका में शाकाहार का जन्म मेरे वर्तमान राज्य पेंसिल्वेनिया में 1732 में योहान कॉनराड द्वारा स्थापित एफ़्राटा क्लॉइस्टर (Ephrata Cloister) समुदाय में हुआ। तत्कालीन इंगलैंड में अनेक कवि, लेखक, विचारक और विद्वान शाकाहार अपना रहे थे। सन 1809 में विलियम काउहर्ड द्वारा शाकाहारी सिद्धांतों पर आधारित बाइबल क्रिस्चियन चर्च की स्थापना हुई। 1838 में लंडन के पास खुले कंकॉर्डियम स्कूल ने मांसाहार को पूर्णतः प्रतिबन्धित कर दिया। भारत के बाहर शाकाहार के आधुनिक इतिहास में एक प्रमुख घटना 30 सितम्बर 1847 को घटी जब 140 अंग्रेज़ों ने एक स्वयंसेवी संस्था "वेजीटेरियन सोसायटी" को पंजीकृत कराया। इसके बाद तो शाकाहार की ऐसी धूम मची कि सन 1853 में 889 सदस्यों की संस्था में सन 1897 तक 5,000 सदस्य थे। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, महात्मा गान्धी और पॉल मैककॉर्टनी जैसे महानुभाव इस संस्था के सदस्य रह चुके हैं। वेजीटेरियन सोसायटी आज भी कार्यरत है और अन्य ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ विभिन्न आहारों को शाकाहारी प्रमाणित करने का काम भी करती है। जिलेटिन और पशु रेनेट (animal rennet) युक्त खाद्य पदार्थों को भोजन से हटाने या स्पष्टतः मांसाहार के रूप में लिखे जाने का दवाब बनाना जैसे कार्य भी इसकी सूची में हैं।

जीवदया के उद्देश्य से सन 1980 में स्थापित संस्था पीटा (PETA = People for the Ethical Treatment of Animals) अपने तीस लाख सदस्यों के साथ शायद इस समय संसार की सबसे बड़ी पशु संरक्षक संस्था है जिसका एक सहयोगी उद्देश्य शाकाहार को बढावा देना भी है। पीटा का मुख्यालय नॉर्फ़ोक वर्जिनिया (अमेरिका) में है।

इस प्रकार हमने देखा कि विश्व भर में अलग-अलग बिखरे हुए विद्वानों व बुद्धिजीवियों द्वारा अपनाई जाने वाली निरामिष आहार शैली किस प्रकार जनमानस के सामान्यजीवन का अंग बनी। भारत में भी यही सब लगभग इसी प्रकार से हुआ होगा। हाँ इतना अवश्य है कि इस मामले में हम शेष विश्व से कई हज़ार साल आगे निकल आये थे और इसीलिये आज भी भारत शाकाहारियों के लिये स्वर्ग है। प्रसन्नता की बात है कि विज्ञान की प्रगति और नित नये अध्ययनों के आधार पर शाकाहार के संतुलित और सम्पूर्ण होने का ज्ञान विद्वानों से आगे बढकर आम जनता तक पहुँच रहा है।

इंसानियत तो दुनियाभर में शाकाहार की प्रगति का मुख्य कारण है ही परंतु मांस उद्योग द्वारा किये जा रहे पर्यावरण प्रदूषण, संसाधन हानि और मानव स्वास्थ्य पर मांस द्वारा पड़ने वाले दुष्प्रभावों के कारण भी विदेश में शाकाहार का प्रचलन बढ रहा है। संयुक्त राष्ट्र ने आधुनिक विश्व में अहिंसा के पुरोधा महात्मा गान्धी के जन्मदिन को अंतर्राष्ट्रीय शाकाहार दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की है। ब्रिटेन में 1985 मे जहॉ कुल जनसंख्या का 2.6 प्रतिशत शाकाहारी था वही आज बढ़कर 7 प्रतिशत से अधिक हो गया है। परम्परागत रूप से मांसाहारी ताइवान में पिछले वर्ष पर्यावरण संरक्षण के लिये "नो मीट नो हीट" अभियान में लगभग दस लाख नागरिकों ने शाकाहार अपनाने की शपथ ली जिसमें ताइवान की संसद के प्रमुख और ताइपेइ तथा काओस्युंग के मेयर भी शामिल हैं।

शाकाहार के सम्बन्ध में यदि आपको कोई भी जानकारी अपेक्षित हो तो आप इन संस्थाओं (वेजीटेरियन सोसायटी व पीटा) से सीधे भी सम्पर्क कर सकते हैं और यदि उचित समझें तो हमसे भी पूछ सकते हैं। इस विषय में आपकी सहायता करने में हमें हार्दिक प्रसन्नता होगी।
   * सम्बन्धित कड़ियाँ * 
* पायथागोरस एवम पशु अधिकार
* वेजीटेरियन सोसायटी
* पीटा