कुर्बानी शब्द के सही मायने क्या हैं ? हमने बचपन से विद्यालयों में जो शब्दार्थ पढ़ा - उसके अनुसार तो "कुर्बानी" का अर्थ "त्याग" होता है | किसी के लिए / धर्म के लिए अपने निजी दुःख / नुकसान / जान की भी कीमत पर कुछ त्याग करना क़ुरबानी होती है | यही पढ़ा है, यही सुना है |
कुछ सवाल हैं, जो पूछना चाहूंगी
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यदि कोई कार्य करना मेरा कर्त्तव्य/ धर्म है - तो भले ही उससे मुझे कितनी ही निजी क्षति हो, भले ही मुझे उस काम को करने से कितनी ही निजी तकलीफ हो, भले ही मेरे अपनों का कितना ही नुक्सान हो - फिर भी - असह्य निजी दुःख/ क्षति की कीमत पर भी मैं वह करूँ - क्योंकि यह कर्त्तव्य कर्म करना किसी उच्च उद्देश्य के लिए आवश्यक है - तो यह कुर्बानी कहलाएगी |
कुर्बानी के कुछ उदाहरण
१) भगतसिंह / चंद्रशेखर आज़ाद/ लक्ष्मीबाई देश के प्रति अपने कर्त्तव्य के लिए प्राण दे देते हैं | यह कुर्बानी है |
२) सैनिक देश के लिए कट जाते हैं - यह क़ुरबानी है |
३) एक दोस्त ( माँ / पत्नी) अपने दोस्त (बच्चे / पति ) की छाती पर लगने वाली गोली अपने ह्रदय पर ले और अपनी जान दे कर उस की जान बचाए - यह कुर्बानी है |
४) अपनी kidney किसी की जान बचाने को दे देना - यह कुर्बानी है |
इन सभी उदाहरणों में एक चीज़ common है - निजी तकलीफ / नुक्सान उस कार्य के कर्ता के लिए कर्त्तव्य पथ का रोड़ा नहीं बन पाता कभी भी | यदि उसके निश्चित धर्म के पथ में कुछ भी त्याग / कुर्बान करना पड़े - वह नहीं हिचकता |
अब मैं यह पूछना चाहूंगी - कि यह एक निरीह बकरे को बाज़ार से खरीद लाना - और उसे कसाई से कटवा कर खा लेना, - कुर्बानी कैसे है ? इसमें यह "कुर्बानी" देने वाले ने क्या दुःख उठाया ? इससे किस उच्च उद्देश्य की पूर्ती हुई ?
"कुर्बानी" देने के लिए आज क्या किया जा रहा है ? अधिकांशतः बाज़ार से दो दिन पहले मोटा सा बकरा खरीद लाया जाता है | यह बकरा खरीदा ही जा रहा है काटने और खाने के लिए - न कोई प्रेम है, न इसके मारने पर कोई दुःख होने वाला है | फिर उसे (अधिकतर) खुद नहीं काटा जाता, कसाई से कटवाया जाता है | और इसमें कोई दुःख या तकलीफ नहीं उठाना है | इसमें उस व्यक्ति को तकलीफ क्या हुई ? उसने क्या कुर्बानी दी ? दुःख क्या उठाया ? त्याग क्या किया ? कौनसे उच्च उद्देश्य की प्राप्ति हुई ?
गरीबों में बांटने की बात - अधिकतर बकरे के अच्छे भाग फ्रीज़र में रख लिए जाते हैं - और ख़राब / बेकार भाग (थोडा सा ही ) बाँट दिए जाते हैं | कई दिनों तक इसे खाया जाता है |
यह तो सुख दे रहा है न - फिर कुर्बानी कैसी ? खरीदने में पैसे ज़रूर खर्च हुए - पर वह तो वैसे भी होते ही हैं न ? उसी पैसे से सामूहिक भोज भी कराये जा सकते हैं गरीबों को यदि इसे ही कुर्बानी कहा जा रहा है । उतने ही पैसे से कई गुणा अधिक लोग खा सकेंगे, क्योंकि मांस शाकाहार से कहीं अधिक महंगा है । और महंगा हो भी क्यों न ? एक किलो अन्न की अपेक्षा एक किलो मांस को तैयार करने में धरा के कई गुणा अधिक संसाधन व्यर्थ होते हैं ।
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अब कुछ प्रश्न इसे "वैज्ञानिक" कह कर हम शाकाहार की बात करने वालों को "ढोंगी और पाखंडी" कहते हुए लेख लिखने वालों से (देखिये लिंक ) :
१. आप यदि हिंसा / अहिंसा को विज्ञान के अनुसार देखना चाहते हैं - तो विज्ञान तो सिरे से इश्वर / अल्लाह के अस्तित्व को ही नकारता है - क्या आप इस बात को भी "विज्ञान के अनुसार" कह कर स्वीकार कर लेते हैं ? क्योंकि जिस "विज्ञान" का आप हवाला दे रहे हैं - वही विज्ञान तो यह भी कहता है न, कि दुनिया किसी ने बनाई ही नहीं है - यह अपने आप बिग बैंग / गॉड पार्टिकल आदि आदि से बनी ? फिर क्या विज्ञान के कहने से आप यह मान लीजियेगा ? विज्ञानं तो यह कहता है कि इश्वर / अल्लाह है ही नहीं क्योंकि उसे किसी ने देखा नहीं, नापा नहीं - और विज्ञान अनदेखे अनजाने पर विश्वास नहीं करता ।या तो आप इस बारे में भी विज्ञान की सुनिए या फिर चर्चा में अपने पक्ष को आगे करने को विज्ञान की बैसाखी मत पकड़िए।
२. विज्ञान के अनुसार तो मानव और बकरे का शरीर एक ही है ( vertebral mammals ) - सिर्फ बुद्धि भर का फर्क है | तो क्या आप मानव मांस को भी / मानव बलि को भी स्वीकारते हैं ? क्योंकि जिन पैगम्बर के नाम पर आप यह "कुर्बानी की प्रतीकात्मक परम्परा" बनाये हुए हैं [quote from the article " हज़रत इबराहीम की ज़िन्दगी का प्रतीकात्मक प्रदर्शन (Symbolic performance) है।" - वे तो अपने स्वयं के "बेटे" को कुर्बान करने गए थे | क्या आपने भी ऐसा करने के बारे में सोचा है ?
३. आपके आदरणीय पैगम्बर मुहम्मद जी ने प्रतीकों को पकड़ने के लिए अल्लाह का साफ़ इनकार बताया है - तब यह प्रतीक क्यों ? मूर्ती पूजा बंद कराने के पीछे भी यही कारण था न ? कि मूर्ती "प्रतीक" भर है, इश्वर नहीं है ? क्या पवित्र कुरआन में बताया नहीं गया है कि "आखरी पैगम्बर" की बताई बातें सही हैं और जो भी पुरानी मान्यताएं इनसे टकराती हों , वे रद्द कर दी जानी चाहिए ? मान्यता तो यह भी है / थी कि "जीज़स खुदा के बेटे हैं" यह मान्यता रद्द की गयी न ? फिर यह "प्रतीकात्मक" मान्यता क्यों ?
४. क्या आपको अपने धर्म के आदेशों के सही होने के बारे में शक शुबहा है ? कि आपको विज्ञान की बैसाखी पकडनी पड़ रही है ? विज्ञान के अनुसार तो बकरे के मांस और सूअर के मांस में बराबर प्रोटीन हैं - लेकिन वहां तो आप विज्ञान की दुहाई देते नहीं दिखते ? धर्म के मसलों के बीच विज्ञानं को खींचेंगे तो फिर हर वैज्ञानिक सवाल का वैज्ञानिक उत्तर देना होगा न?
५. आप दिए गए लिंक पर लिखते है की "ये लोग दूध, दही और शहद भी बेहिचक खाते हैं और मक्खी मच्छर भी मारते रहते हैं और ये सब " कुकर्म " करने के बाद भी " - अर्थात - आप भी यह मानते हैं कि ये सब "कुकर्म" हैं ? तो फिर एक चीखते तड़पते बकरे को मारना कैसे "कुकर्म" नहीं बल्कि "सुकर्म" हो सकता है ? और, क्या आप स्वयं यह "कुकर्म " त्याग चुके हैं - अर्थात आप बकरे को तो "कुर्बान" करते हैं, किन्तु मच्छर को नहीं मारते ?
६. वहां आपने हम मांसाहार विरोधियों को "ढोंगी और पाखंडी" कहा है । मच्छर-मक्खी को मारने को तो "कुकर्म" कहते हुए , उसी सांस में बकरे को मारने का कर्म "सत्कर्म / सुकर्म" बल्कि "कुर्बानी" कहना - क्या यह आप के अनुसार "ढोंग और पाखण्ड" की परिभाषा में आएगा या नहीं आयेगा ?
7. आप कहते हैं की मानव मात्र जीवित ही नहीं रह सकता बिना जीवहत्या के । तो इसलिए, छोटी जीवहत्या "हो रही है" के बहाने से ह्त्या की राह पर चल दिया जाए ? अपराध जैविक प्रक्रिया में अनजाने ही "हो जाना" और जानते बूझते "करना" में कोई फर्क नहीं है ? क़ानून में भी manslaughter / accidental death और cold blooded मर्डर अलग अलग अपराध हैं, इनकी अलग अलग सजायें हैं । क्या आपकी धार्मिक किताब में यह लिखा है या नहीं कि अनजाने में हो जाने वाले अपराध और जानते बूझते किये जाने वाले अपराध की सजाएं बराबर नहीं होती हैं ?
फिर पूछती हूँ - "कुर्बानी" क्या होती है ?
सम्पादकीय टिप्पणी (28 अक्टूबर 2012) - हम क्षमाप्रार्थी हैं कि किसी त्रुटि के कारण सभी कमेँट हट गए हैं, उन्हेँ वापस पाने का प्रयास किया जा रहा है. आशा है आप इसे अन्यथा न लेंगे और आपका सहयोग बना रहेगा।